Darul Islam, Melvisharam, Tamilnadu, Dr Subramanian Swamy

Written by रविवार, 25 दिसम्बर 2011 14:30
आईये… भारत के कई दारुल-इस्लामों में से एक, मेलविशारम की सैर पर चलें…

भारत का एक दक्षिणी राज्य है तमिलनाडु, यहाँ के वेल्लूर जिले की आर्कोट विधानसभा क्षेत्र में एक कस्बा है, नाम है “विशारम”। विशारम कस्बा दो पंचायतों में बँटा हुआ है, “मेलविशारम” (अर्थात ऊपरी विशारम) तथा “कीलविशारम” (निचला विशारम)। मेलविशारम पंचायत की 90% आबादी मुस्लिम है, जबकि कीलविशारम की पूरी आबादी हिन्दुओं (वन्नियार जाति) की है। इन दोनों पंचायतों का गठन 1951 में ही हो चुका था, मुस्लिम आबादी वाले मेलविशारम में 17 वार्ड हैं, जबकि दलितों वाले कीलविशारम में 4 वार्ड हैं। 1996 में “दलितों और पिछड़ों के नाम पर रोटी खाने वाली” DMK ने मुस्लिम वोट बैंक के दबाव में दोनों कस्बों के कुल 21 वार्डों को आपस में मिलाकर एक पंचायत का गठन कर दिया (स्वाभाविक रूप से इससे इस वृहद पंचायत में मुस्लिमों का बहुमत हो गया)।

इसके बाद अक्टूबर 2004 में “वोट बैंक प्रतिस्पर्धा” के चलते जयललिता की AIDMK ने नवगठित मेलविशारम का दर्जा बढ़ाकर इसे “ग्रेड-3” पंचायत कर दिया (ताकि और अधिक सरकारी अनुदान रूपी “लूट” किया जा सके)। मेल्विशारम के मुस्लिम जनप्रतिनिधियों(?) को खुश करने के लिए अगस्त 2008 में इसे वेल्लूर नगर निगम के साथ विलय कर दिया गया…। जैसा कि पहले बताया गया मेलविशारम के 17 वार्डों में 90% मुस्लिम आबादी है, जिनका मुख्य कार्य चमड़ा निकालने और साफ़ करने का है, जबकि कील्विशारम के 4 वार्डों के रहवासी अर्थात हिन्दू वर्ग के लोग मुख्यतः खेती और मुर्गीपालन पर निर्भर हैं। मेल्विशारम के साथ कील्विशारम के विलय कर दिये जाने से इन चार वार्डों के दलितों का जीना दूभर हो चला है, उनका जीवनयापन भी गहरे संकट में आ गया है। परन्तु स्वयं को दलितों, वन्नियारों और पिछड़ों का मसीहा कहलाने वाली दोनों प्रमुख पार्टियों ने उनकी तरफ़ पीठ कर ली है। तमिलनाडु के एक पत्रकार पुदुवई सर्वानन ने 2007 में मेल्विशारम का दौरा किया और अपनी आँखों देखी खोजी रिपोर्ट अपने ब्लॉग पर डाली (http://puduvaisaravanan.blogspot.com/2007/01/blog-post_685.html )। तमिल पत्रिका “विजयभारतम” ने इस स्टोरी को प्रमुखता से प्रकाशित किया, परन्तु मुस्लिम वोटों के लालच में अंधी हो चुकी DMK और AIDMK के कानों पर जूँ तक न रेंगी। इस रिपोर्ट के प्रमुख अंश इस प्रकार हैं –

1) मेलविशारम पंचायत की प्रमुख भाषा अब उर्दू हो चुकी है, पंचायत और नगरपालिका से सम्बन्धित सभी सरकारी कार्य उर्दू में किये जाते हैं, सरपंच और पंचायत के अन्य अधिकारी जो भी “सर्कुलर” जारी करना हो, वह उर्दू में ही करते हैं। मेलविशारम नगरपालिका की लाइब्रेरी में सिर्फ़ उर्दू पुस्तकें ही उपलब्ध हैं। सिर्फ़ मेलविशारम के बाहर से आने वाले व्यक्ति से ही तमिल में बात की जाती है, परन्तु उन चार वार्डों में निवास कर रहे दलितों से तमिल नहीं बल्कि उर्दू में ही समस्त व्यवहार किया जाता है। 17 वार्डों मे एक गली ऐसी भी है, जहाँ एक साथ 10 तमिल परिवार निवासरत हैं, पालिका ने उस गली का नाम, “तमिल स्ट्रीट” कर दिया है, परन्तु बाकी सभी दुकानों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों एवं सरकारी सूचना बोर्डों को सिर्फ़ उर्दू में ही लिखा गया है, तमिल में नहीं।

2) मेलविशारम नगरपालिका के अन्तर्गत दो कॉलेज हैं, “अब्दुल हकीम इंजीनियरिंग कॉलेज”, तथा “अब्दुल हकीम आर्ट्स साइंस कॉलेज” जबकि “मेलविशारम मुस्लिम एजूकेशन सोसायटी” (MMES) के तहत 5 मदरसे चलाए जाते हैं, इसके अलावा कोई अन्य तमिल स्कूल नहीं है। 175 फ़ीट ऊँची मीनार वाली मस्जिद-ए-खिज़रत का निर्माण नगरपालिका द्वारा करवाया गया है, जबकि उन 21 वार्डों में एक भी पुलिस स्टेशन खोलने की इजाज़त नहीं दी गई है, इस बारे में पूछने पर एक फ़ल विक्रेता अमजद हुसैन ने कहा कि, “सभी विवादों का “निपटारा”(?) जमात द्वारा किया जाता है”।

3) निचले विशारम अर्थात कील्विशारम के चार वार्डों का विलय मेलविशारम में होने के बाद से अब तक वहाँ लोकतांत्रिक स्वरूप में चुनाव नहीं हुए हैं, पंचायत का अध्यक्ष और उन चारों वार्डों के जनप्रतिनिधियों का “नामांकन” जमात द्वारा किया जाता है, किसी भी दलित अथवा पिछड़े को चुनाव में खड़े होने की इजाज़त नहीं है।

 4) 2002 के पंचायत चुनावों में दलित पंचायत प्रतिनिधियों की मुस्लिम पार्षदों द्वारा जमकर पिटाई की गई थी, और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होने के विरोध में इन चार वार्डों के दलितों ने चुनावों का बहिष्कार करना प्रारम्भ कर दिया था, लेकिन उन्हें मनाने की कोशिश करना तो दूर DMK ने उनकी तरफ़ झाँका भी नहीं।
 (http://www.hindu.com/2005/04/21/stories/2005042108500300.htm)

5) मेलविशारम की जमात अपने स्वयं संज्ञान से “प्रभावशाली”(?) मुसलमानों को नगरपालिका अध्यक्ष के रूप में नामांकित कर देती है। नगरपालिका की समस्त सरकारी और विधायी कार्रवाई के बारे में हिन्दू दलितों को कोई सूचना नहीं दी जाती। कई बार तो नगरपालिका की आमसभा की बैठक उस “प्रभावशाली” मुस्लिम नेता के घर पर ही सम्पन्न कर ली जाती है। मेलविशारम नगरपालिका के सभी प्रमुख कार्य और ठेके सिर्फ़ मुसलमानों को ही दिये जाते हैं, जबकि सफ़ाई और कचरा-गंदगी उठाने का काम ही दलितों को दिया जाता है।

6) आर्कोट क्षेत्र में PMK पार्टी के एक विधायक महोदय थे श्री केएल एलवाझगन, इनके पिता श्री के लोगानाथन की हत्या 1991 में कर दी गई थी, उस समय इसे “राजनैतिक दुश्मनी” कहकर मामला रफ़ादफ़ा कर दिया गया था, परन्तु जाँच में पाया गया कि जिस दलित नेता ने उनकी हत्या करवाई थी उसे एक प्रभावशाली मुस्लिम नेता ने छिपाकर रखा, तथा अब उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया है एवं अब वह अपनी दो बीवियों के साथ मेलविशारम में आराम का जीवन बिता रहा है… (चूंकि PMK पार्टी भी मुस्लिम वोटों पर बहुत अधिक निर्भर है, इसलिए एलवाझगन की आपत्तियों को पार्टी ने “शांत”(?) कर दिया…)…

7) मेल्विशारम से कीलविशारम की ओर एक नदी बहती है, जिसका नाम है “पलार”। यहाँ दलितों की श्मशान भूमि पर लगभग 300 मुस्लिम परिवारों ने अतिक्रमण करके एक कालोनी बना दी है, इस अवैध कालोनी को मेल्विशारम नगर पंचायत ने “बहुमत”(?) से मान्यता प्रदान करके इसे “सादिक बाशा नगर” नाम दे दिया है तथा इसे बिजली-पानी का कनेक्शन भी दे डाला, जबकि दलित अपनी झोंपड़ियों के लिये स्थायी पट्टे की माँग बरसों से कर रहे हैं।

8) मेलविशारम में “बहुमत” और अपना अध्यक्ष होने की वजह से कील्विशारम के दलितों को डरा-धमका कर कुछ मुस्लिम परिवारों ने उनकी जमीन औने-पौने दामों पर खरीद ली है एवं उस ज़मीन पर अपने चमड़ा उद्योग स्थापित कर लिए। चमड़ा सफ़ाई के कारण निकलने वाले पानी को पलार नदी में जानबूझकर बहा दिया जाता है, जो कि दलितों की खेती के काम आता है।

9) जब प्रदूषण अत्यधिक बढ़ गया और नदी में पानी की जगह लाल कीचड़ हो गया, तब मेलविशारम की नगर पंचायत ने “सर्वसम्मति”(?) से प्रस्ताव पारित करके एक वेस्ट-वाटर ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट लगाने की अनुमति दी। परन्तु जानबूझकर यह वेस्ट-वाटर ट्रीटमेण्ट प्लांट का स्थान चुना गया दलितों द्वारा स्थापित गणेश मन्दिर और बादाम के बगीचे की भूमि के पास (सर्वे क्रमांक 256/2 – 31.66 एकड़)। इस गणेश मन्दिर में स्थानीय दलित और पिछड़े वर्षों से ग्रामदेवी की पूजा और पोंगल का उत्सव मनाते थे।

10) मेल्विशारम में हिन्दुओं को सिर्फ़ “हेयर कटिंग सलून” अथवा “लॉण्ड्री-ड्रायक्लीनिंग” की दुकान खोलने की ही अनुमति है, जबकि कीलविशारम के वे दलित परिवार जिनके पास न खेती है, न ही मुर्गियाँ, वे परिवार बीड़ी बनाने का कार्य करता है।

11) मेलविशारम के 17 वार्डों, उनकी समस्त योजनाओं और सरकारी अनुदान में तो पहले से ही मुस्लिमों का एकतरफ़ा साम्राज्य था, अब कील्विशारम के विलय के बाद दलितों वाले चार वार्डों में भी वे अपना दबदबा कायम करने की फ़िराक में हैं, इसीलिए नगर पंचायत में कील्विशारम इलाके हेतु बनने वाली सीवर लाइन, पानी की पाइप लाइन, बिजली के खम्भे इत्यादि सभी योजनाओं को या तो मेल्विशारम में शिफ़्ट कर दिया जाता है या फ़िर उनमें इतने अड़ंगे लगाए जाते हैं कि वह योजना ही निरस्त हो जाए।

12) 10 नवम्बर 2009 के इंडियन एक्सप्रेस में समाचार आया था, कि नगर पंचायत के दबंग मुसलमान कील्विशारम में पीने के पानी की योजनाओं तक में अड़ंगे लगा रहे हैं, दलितों की बस्तियों में खुलेआम प्रचार करके गरीबों से कहा जाता है कि इस्लाम अपना लो तो तुम्हें बिजली, पानी, नालियाँ सभी सुविधाएं मिलेंगी…

(पुदुवई सर्वनन की रिपोर्ट के अनुसार, कमोबेश उपरोक्त स्थिति 2009 तक बनी रही…)

2002 से 2009 के बीच आठ साल तक दलितों, द्रविडों और वन्नियार समुदाय के नाम पर रोटी खाने वाली दोनों पार्टियों ने "मुस्लिम वोटों की भीख और भूख" के चलते कील्विशारम के दलितों को उनके बुरे हाल पर अनाथ छोड़ रखा था…। इसके बाद इस्लाम द्वारा सताए हुए इन दलितों के जीवन में आया एक ब्राह्मण, यानी डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी…। डॉ स्वामी ने पत्रकार पुदुवई सर्वनन की यह रिपोर्ट पढ़ी और उन्होंने इस “दारुल-इस्लाम” के खिलाफ़ लड़ने का फ़ैसला किया।

डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी ने चेन्नै हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की जिसमें अदालत से माँग की गई कि वह सरकार को निर्देशित करे कि कील्विशारम को एक अलग पंचायत के रूप में स्थापित करे। मेल्विशारम नगर पंचायत के साथ कील्विशारम के विलय को निरस्त घोषित किया जाए, ताकि कील्विशारम के निवासी अपने गाँव की भलाई के निर्णय स्वयं ले सकें, न कि मुस्लिम दबंगों की दया पर निर्भर रहें। हाईकोर्ट ने तदनुरूप अपना निर्णय सुना दिया…

परन्तु मुस्लिम वोटों के लिए “भिखारी” और “बेगैरत” बने हुए DMK व AIDMK ने हाईकोर्ट के इस निर्णय को 16 जनवरी 2009 को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी (http://www.thehindu.com/2009/01/17/stories/2009011753940400.htm)  । जिस तरह मुस्लिम आरक्षण से लेकर हर मुद्दे पर लात खाते आए हैं, वैसे ही हमेशा की तरह सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को लताड़ दिया और कील्विशारम के निवासियों की इस याचिका को तीन माह के अन्दर अमल में लाने के निर्देश दिये। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्देश में कहा कि कील्विशारम पंचायत का पूरा प्रशासन वेल्लोर जिले में अलग से किया जाए, तथा इसे मेल्विशारम से पूर्णरूप से अलग किया जाए। चीफ़ जस्टिस केजी बालकृष्णन व जस्टिस पी सदाशिवन की बेंच ने तमिलनाडु सरकार को इस निर्णय पर अमल करने सम्बन्धी समस्त कागज़ात की एक प्रति, डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी को देने के निर्देश भी दिये।

पाठकों, यह तो मात्र एक उदाहरण है, मेल्विशारम जैसी लगभग 40 नगर पंचायतें हाल-फ़िलहाल तमिलनाडु में हैं, जहाँ मुस्लिम बहुमत में हैं और हिन्दू (दलित) अल्पमत में। इन सभी पंचायतों में भी कमोबेश वही हाल है, जो मेल्विशारम के हिन्दुओं का है। उन्हें लगातार अपमान के घूंट पीकर जीना पड़ता है और DMK हो, PMK हो या AIDMK हो, मुसलमानों के वोटों की खातिर अपना “कुछ भी” देने के लिए तैयार रहने वाले “सेकुलर” नेताओं और बुद्धिजीवियों को दलितों की कतई फ़िक्र नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से अब इन लगभग 40 नगर पंचायतों से भी उन्हें मुस्लिम बहुल पंचायतों से अलग करने की माँग उठने लगी है, जिससे कि उनका भी विकास हो सके।

मजे की बात तो यह है कि दलित वोटों की रोटी खाने वाले हों या दलितों की झोंपड़ी में रोटी खाने वाले नौटंकीबाज हों, किसी ने भी मेल्विशारम के इन दलितों की हालत सुधारने और यहाँ के मुस्लिम दबंगों को “ठीक करने” के लिए कोई कदम नहीं उठाया… इन दलितों की सहायता के लिए आगे आया एक ब्राह्मण, डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी…। अब कम से कम कील्विशारम की ग्राम पंचायत अपने हिसाब और अपनी जरुरतों के अनुसार बजट निर्धारण, ठेके, पेयजल, नालियाँ इत्यादि करवा सकेगी… मेल्विशारम के 17 मुस्लिम बहुल वार्ड, शरीयत के अनुसार “जैसी परिस्थितियों” में रहने के वे आदी हैं, वैसे ही रहने को स्वतन्त्र हैं।

उल्लेखनीय है कि ऐसे “दारुल-इस्लाम” भारत के प्रत्येक राज्य के प्रत्येक जिले में मिल जाएंगे, क्योंकि यह एक स्थापित तथ्य है कि जिस स्थान, तहसील, जिले या राज्य में मुस्लिम बहुमत होता है, वहाँ की शासन व्यवस्था में वे किसी भी अन्य समुदाय से सहयोग, समन्वय या सहभागिता नहीं करते, सिर्फ़ अपनी मनमानी चलाते हैं और उनकी पूरी कोशिश होती है कि अल्पसंख्यक समुदाय (चाहे वे हिन्दू हों, सिख हों या ईसाई हों) पर बेजा दबाव बनाकर उन्हें शरीयत के मुताबिक चलने को बाध्य करें…। आज जो दलित नेता, मुस्लिम वोटों के लिए "तलवे चाटने की प्रतिस्पर्धाएं" कर रहे हैं, उनके अनुयायी दलित भाई इस उदाहरण से समझ लें, कि जब कभी दलितों की जनसंख्या किसी क्षेत्र विशेष में “निर्णायक” नहीं रहेगी, उस दिन यही दलित नेता सबसे पहले उनकी ओर से आँखें फ़ेर लेंगे…
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उन पाठकों के लिए, जिन्हें “दारुल-इस्लाम” जैसे शब्दों का अर्थ नहीं पता… इस्लाम की विस्तारवादी एवं दमनकारी नीतियों सम्बन्धी चन्द परिभाषाएं पेश हैं -

1) उम्मा (Ummah) – एक अरबी शब्द जिसका अर्थ है Community (समुदाय) या राष्ट्र (Nation), परन्तु इसका उपयोग “अल्लाह को मानने वालों” (Believers) के लिए ही होता है… (http://en.wikipedia.org/wiki/Ummah)

2) दारुल इस्लाम (Dar-ul-Islam) – ऐसे तमाम मुस्लिम बहुल इलाके, जहाँ इस्लाम का शासन चलता है, सभी इस्लामिक देश इस परिभाषा के तहत आते हैं।

3) दारुल-हरब (Dar-ul-Harb) – ऐसे देश अथवा ऐसे स्थान, जहाँ शरीयत कानून नहीं चलता, तथा जहाँ अन्य आस्थाओं अथवा अल्लाह को नहीं मानने वाले लोगों का बहुमत हो… अर्थात गैर-इस्लामिक देश।
(http://en.wikipedia.org/wiki/Divisions_of_the_world_in_Islam)

4) काफ़िर (Kafir) – ऐसा व्यक्ति जो अल्लाह के अलावा किसी अन्य ईश्वर में आस्था रखता हो,  मूर्तिपूजक हो। अंग्रेजी में इसे Unbeliever कहा जाएगा, यानी “नहीं मानने वाला”। (ध्यान रहे कि इस्लाम के तहत सिर्फ़ “मानने वाले” या “नहीं मानने वाले” के बीच ही वर्गीकरण किया जाता है) (http://en.wikipedia.org/wiki/Kafir).

5) जेहाद (Jihad) – इस शब्द से अधिकतर पाठक वाकिफ़ होंगे, इसका विस्तृत अर्थ जानने के लिए यहाँ घूमकर आएं… (http://en.wikipedia.org/wiki/Jehad)। वैसे संक्षेप में इस शब्द का अर्थ होता है, “अल्लाह के पवित्र शासन हेतु रास्ता बनाना…”

6) अल-तकैया (Al-Taqiya) – चतुराई, चालाकी, चालबाजी, षडयंत्रों के जरिये इस्लाम के विस्तार की योजनाएं बनाना। सुन्नी विद्वान इब्न कथीर की व्याख्या के अनुसार “अल्लाह को मानने वाले”, और “नहीं मानने वाले” के बीच कोई दोस्ती नहीं होनी चाहिए, यदि किसी कारणवश ऐसा करना भी पड़े तो वह दोस्ती मकसद पूरा होने तक सिर्फ़ “बाहरी स्वरूप” में होनी चाहिए…। और अधिक जानिये… (http://en.wikipedia.org/wiki/Taqiyya)

बहरहाल, तमिलनाडु के मेल्विशारम और कील्विशारम के उदाहरणों तथा इन परिभाषाओं से आप जान ही चुके होंगे कि समूचे विश्व को “दारुल इस्लाम” बनाने की प्रक्रिया में अर्थात एक “उम्मा” के निर्माण हेतु “अल-तकैया” एवं “जिहाद” का उपयोग करके “दारुल-हरब” को “दारुल-इस्लाम” में कैसे परिवर्तित किया जाता है…। फ़िलहाल आप चादर तानकर सोईये और इंतज़ार कीजिए, कि कब और कैसे पहले आपके मोहल्ले, फ़िर आपके वार्ड, फ़िर आपकी तहसील, फ़िर आपके जिले, फ़िर आपके संभाग, फ़िर आपके प्रदेश और अन्त में भारत को “दारुल-इस्लाम” बनाया जाएगा…।

Illegal Liquor Death in Bengal, Shariat and Liquor

Written by सोमवार, 19 दिसम्बर 2011 18:54
जहरीली शराब वालों को शरीयत के मुताबिक सजा मिले, या भारतीय कानून के अनुसार???

जब से ममता “दीदी”(?) ने बंगाल की सत्ता संभाली है तब से पता नहीं क्या हो रहा है। शपथ लेते ही सबसे पहले एक अस्पताल में इंसेफ़िलाइटीस (मस्तिष्क ज्वर) से 62 मासूम बच्चे मारे गये… कुछ दिनों बाद ही एक “सो कॉल्ड” प्रतिष्ठित बड़े लोगों के अस्पताल में आग लग जाने से 70 से अधिक असहाय मरीज अपने-अपने बिस्तर पर ही जल मरे… और अब ये जहरीली शराब काण्ड, जिसमें 171 लोग मारे जा चुके हैं। इन घटनाओं में विगत 30 साल का वामपंथी कुशासन तो जिम्मेदार है ही, क्योंकि जो शासन 30 साल में कोलकाता जैसी प्रमुख जगह के अस्पतालों की हालत भी न सुधार सके, उसे तो वाकई बंगाल की खाड़ी में डूब मरना चाहिए, परन्तु साथ-साथ इसे ममता बनर्जी का दुर्भाग्य भी कहा जा सकता है।


परन्तु बंगाल के मोरघाट में जहरीली शराब की जो ताज़ा घटना घटी है, वह न तो ममता का दुर्भाग्य है और न ही वामपंथी कुशासन… यह तो सीधे-सीधे वामपंथी और तृणमूल का मिलाजुला “आपराधिक दुष्कृत्य” है। आपने और मैंने अक्सर “ऊँची आवाज़” में सुना होगा कि इस्लाम में शराब को “हराम और सबसे बुरी शै” कहा गया है और ऐसा “कहा जाता है”(?) कि पैगम्बर मोहम्मद ने शराब पीने और बेचने वाले के लिए कड़ी से कड़ी सज़ा मुकर्रर की हुई हैं। जान लीजिये कि बंगाल में हुई इस दुर्घटना(?) में मारे गये 171 लोगों में से अधिकांश मुसलमान हैं, जबकि इस जहरीली अवैध शराब को बनाने और बेचने वाला है नूर-उल-इस्लाम नामक शख्स जिसे स्थानीय लोग “खोका बादशाह” भी कहते हैं। स्थानीय सूत्रों के अनुसार मोराघाट इलाके में नूर-उल-इस्लाम और इसके दाँये हाथ सलीम खान की तूती बोलती है, यह दोनों यहाँ एक समानान्तर सत्ता हैं। पिछले 25 साल से ये दोनों और इनकी गैंग वामपंथी कैडरों तथा प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत अथवा रिश्वत देकर अवैध शराब का यह धंधा बेरोकटोक चलाते रहे। इस बीच तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनी तो भी इनके धंधे में कोई फ़र्क नहीं पड़ा, क्योंकि अब वामपंथियों का यह मुस्लिम वोट बैंक खिसककर ममता दीदी की गोद में जा बैठा था। इतने सालों से इस शराब माफ़िया की राजनेताओं से साँठगाँठ के चलते इलाके की पुलिस भी सोचती है कि इन पर कार्रवाई करके क्या फ़ायदा, क्यों न इनकी गतिविधियों से पैसा ही बना लिया जाए, सो उसने भी आँखें मूंदे रखीं, जबकि सभी जानते हैं कि कच्ची शराब बनाने के लिए नौसादर कहाँ से आता है।


 नूर-उल-इस्लाम ने पहले कई चुनावों में CPI, CPM, से लेकर तृणमूल, फ़ारवर्ड ब्लॉक और RSP तक को चन्दा और बूथ हथियाने के लिए “मैन-पावर” सप्लाई की है, सो अब 171 व्यक्तियों की मौत के बावजूद कुछ दिनों तक हो-हल्ला मचा रहेगा, मुख्य आरोपी कभी भी पकड़ा नहीं जाएगा, क्योंकि एक तो उसे वामपंथियों और तृणमूल दोनों का आशीर्वाद प्राप्त है, दूसरे यह कि वह “अल्पसंख्यक”(?) समुदाय से है। कुछ दिनों बाद हालात अपने-आप सामान्य हो ही जाएंगे…

इस हादसे(?) के बाद ममता बनर्जी का स्वाभाविक इस्लाम प्रेम उमड़ पड़ा, और उन्होंने अवैध शराब पीने वालों के “पवित्र और शहीदाना कर्म” की इज्जत करते हुए आपके और हमारे खून-पसीने के टैक्स की कमाई में से, प्रत्येक परिवार को दो-दो लाख रुपए का मुआवज़ा दिया है, मानो कच्ची दारू पीकर मरने वालों ने देश की बहुत बड़ी सेवा की हो। (कौन कहता है, कि भारत से जज़िया खत्म हो गया!!!)

इस मामले में एक कोण “धार्मिक” भी है, जैसा कि सभी जानते हैं पश्चिम बंग के 16 जिले लगभग मुस्लिम बहुल बन चुके हैं (कुछ जनसंख्या बढ़ाने से, जबकि कुछ बांग्लादेशी “मेहमानों” की वजह से)। इन जिलों से आए दिन हमें विभिन्न अपराधों के लिए स्थानीय तौर पर “शरीयत” अदालत के अनुसार सजाएं सुनाए जाने के फ़रमान जानने को मिलते हैं… जबकि ये बात ज़ाहिर हो चुकी है कि मोराघाट इलाके में खुद नूरुल इस्लाम, शरीयत के नियमों को ठेंगे पर रखता था। अतः मैं ममता जी से सिर्फ़ यह जानना चाहता हूँ कि “यदि” नूर-उल-इस्लाम और सलीम पकड़े जाएं (संभावना तो कम ही है), तो उन पर शरीयत के मुताबिक कार्रवाई होगी या भारतीय दण्ड संहिता के अनुसार? क्योंकि हम पहले भी देख चुके हैं कि दिन-रात इस्लाम-इस्लाम और शरीयत-शरीयत भजने वाले इमाम, मौलवी, विभिन्न इस्लामिक संगठन तथा “मुस्लिम बुद्धिजीवी”(?) कभी भी मुस्लिम अपराधियों (कसाब, अफ़ज़ल, करीम तेलगी, अबू सलेम, हसन अली इत्यादि) के लिए शरीयत के अनुसार सजा की माँग नहीं करते, उस समय भारतीय दंड संहिता के प्रति इनका प्रेम अचानक जागृत हो जाता है…।

ज़ाहिर है कि शरीयत के अनुसार सजा तभी तक अच्छी लगती है, जब तक कि वह दूसरों (खासकर कमजोरों और काफ़िरों) के लिए मुकर्रर हो… इसलिए दारू बेचने वाले नूरुल इस्लाम और सलीम आश्वस्त रहें, ममता “दीदी” के राज में उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा…

P Chidambaram, Internal Security and Mumbai Terror Attack

Written by बुधवार, 14 दिसम्बर 2011 17:16
इतने काबिल और सक्षम गृहमंत्री का इस्तीफ़ा माँगना ठीक नहीं…

समुद्री रास्ते से आए हैवानों द्वारा 26/11 को मुम्बई में किये गये नरसंहार की यादें प्रत्येक भारतीय के दिलोदिमाग मे ताज़ा हैं (और हमेशा रहेंगी, रहना भी चाहिए)। उस समय भारत के अत्यन्त काबिल गृहमंत्री थे “सूट-बदलू” शिवराज पाटिल साहब। उस हमले के पश्चात देश की जनता और मीडिया ने अत्यधिक “हाहाकार” मचाया इसलिए मजबूरी में उनकी जगह एक और “मूल्यवान” व्यक्ति, अर्थात पी चिदम्बरम (Home Minister P. Chidambaram) को देश का गृहमंत्री बनाया गया। जिन्होंने मंत्रालय संभालते ही ताबड़तोड़ देश की सुरक्षा हेतु सफ़ेद लुंगी से अपनी कमर कस ली।

सीमा सुरक्षा, तटरक्षक दलों तथा नौसेना के कोस्ट गार्ड को आपस में मिलाकर एक “थ्री-टीयर” (त्रिस्तरीय) सुरक्षा घेरा बनाया गया, ताकि भविष्य में कोई भी छोटी से छोटी नाव भी देश की समुद्री सीमा में प्रवेश न कर सके। लेकिन कपिल सिब्बल के “मूल्यवान” सहयोगी यानी गृहमंत्री पी चिदम्बरम साहब की सख्ती और कार्यकुशलता का नतीजा यह हुआ कि, एक 1000 टन का “पवित” नाम का विशालकाय जहाज इस थ्री-टीयर सुरक्षा घेरे को भनक लगे बिना, अगस्त 2011 में, सीधे मुम्बई के समुद्र तट पर आ पहुँचा।



“पवित” नाम के इस पुराने मालवाहक जहाज़ पर चालक दल का एक भी सदस्य नहीं था, क्योंकि समुद्री सूचनाओं के अन्तर्राष्ट्रीय जाल के अनुसार इस जहाज़ को जुलाई 2011 में ही “Abandoned” (निरस्त-निष्क्रिय) घोषित किया जा चुका था और इसे समुद्र में डुबाने अथवा सुधारने की कार्रवाई चल रही थी। ओमान की जिस शिपिंग कम्पनी का यह जहाज था, उसने इस जहाज से अपना पल्ला पहले ही झाड़ लिया था, क्योंकि उस कम्पनी के लिए बीच समुद्र में से इस जहाज को खींचकर ओमान के तट तक ले जाना एक महंगा सौदा था… यह तो हुआ इस जहाज़ का इतिहास, इससे हमें कोई खास मतलब नहीं है…।

हमे तो इस बात से मतलब है कि इतना बड़ा लेकिन लावारिस जहाज, भारत की समुद्री सीमा जिसकी सुरक्षा, 12 समुद्री मील से आगे नौसेना के कोस्ट गार्ड संभालते हैं, 5 से 12 समुद्री मील की सुरक्षा नवगठित “मैरीटाइम पुलिस” करती है, जबकि मुख्य समुद्री तट से 5 समुद्री मील तक राज्यों की स्थानीय पुलिस एवं तटरक्षक बल देखरेख करते हैं… कैसे वह लावारिस जहाज 12 समुद्री मील बिना किसी की पकड़ में आये यूँ ही बहता रहा। न सिर्फ़ बहता रहा, बल्कि 100 घण्टे का सफ़र तय करके, इस “तथाकथित त्रिस्तरीय सुरक्षा” को भनक लगे बिना ही मुम्बई समुद्री तट तक भी पहुँच गया? वाह क्या सुरक्षा व्यवस्था है? और कितने “मूल्यवान” हमारे गृहमंत्री हैं? तथा यह स्थिति तो तब है, जबकि 26/11 के हमले के बाद समुद्री सुरक्षा “मजबूत”(?) करने तथा आधुनिक मोटरबोट व उपकरण खरीदी के नाम पर माननीय गृह मंत्रालय ने तीन साल में 250 करोड़ रुपए से अधिक खर्च किये हैं।

अक्टूबर 2010 में केन्द्र सरकार के “मूल्यवान सहयोगी” चिदम्बरम ने मुम्बई के समुद्र तटों का दौरा किया था और फ़रमाया था कि समुद्री सुरक्षा में “उल्लेखनीय सुधार” हुआ है। ऐसा सुधार(?) हुआ कि एक साल के अन्दर ही तीन-तीन जहाज मुम्बई के समुद्री सीमा में अनधिकृत प्रवेश कर गये और किसी को कानोंकान खबर तक न हुई।

परन्तु जैसी कि भारत की शासन व्यवस्था की परम्परा है, इस गम्भीर सुरक्षा चूक की जिम्मेदारी सारे विभाग एक-दूसरे पर ढोलते रहे, निचले कर्मचारियों की तो छोड़िये… कार्यकुशल गृहमंत्री ने भी “पवित” जहाज की इस घटना को रक्षा मंत्रालय का मामला बताते हुए अपना पल्ला (यानी लुंगी) झाड़ लिया।

बात निकली ही है तो पाठकों को एक सूचना दे दूं… लद्दाख क्षेत्र में एक ऐसी झील है जो भारत चीन सीमा पर स्थित है। इस झील का आधा हिस्सा भारत में और आधा हिस्सा चीन में है। सीमा पर स्थित सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील इस विशाल झील में चौकसी और गश्त के लिए भारत की सेना के पास 3 (तीन) मोटरबोट हैं, जो डीजल से चलती हैं… जबकि झील के उस पार, चीन के पास 17 मोटरबोटें हैं, जिसमें से 6 बैटरी चलित हैं और दो ऐसी भी हैं जो पानी के अन्दर भी घुस सकती हैं…। आपको याद होगा इसी लद्दाख क्षेत्र के जवानों के लिए जैकेट और विशेष जूते खरीदी हेतु तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडीस ने मंत्रालय के अधिकारियों का तबादला लद्दाख करने की धमकी दी थी, तब कहीं जाकर जैकेट और जूते की फ़ाइल आगे बढ़ी थी…। अब आप अंदाज़ा लगा लीजिये कि सुरक्षा की क्या स्थिति है…

बहरहाल, हम वापस आते हैं अपने “मूल्यवान” चिदम्बरम साहब पर…। गृह मंत्रालय के दस्तावेजों के अनुसार अप्रैल 2009 (यानी 26/11 के बलात्कार के चार महीने बाद) से अब तक गुजरात, महाराष्ट्र, गोआ, कर्नाटक, केरल, लक्षद्वीप और दमण-दीव को तेज़ गति की कुल 183 मोटरबोट प्रदान की गई हैं। इन राज्यों में कुल 400 करोड़ रुपये खर्च करके 73 तटीय पुलिस स्टेशन, 97 चेकपोस्टें और 58 पुलिस बैरकें बनवाई गई हैं। इसके अलावा रक्षा मंत्रालय ने अपनी तरफ़ से 15 अतिरिक्त कोस्ट गार्ड गश्ती स्टेशन बनवाए हैं…। क्या यह सब भारत के करदाताओं का मजाक उड़ाने के लिए हैं? इसके बावजूद एक नहीं, दो नहीं, बल्कि तीन-तीन बड़े-बड़े टनों वज़नी जहाज, बिना किसी सूचना और बगैर किसी रोकटोक के, मुम्बई के समुद्र तट तक पहुँच जाते हैं, 26/11 के भीषण हमले के 3 साल बाद भी देश की समुद्री सीमा में लावारिस जहाज आराम से घूम रहे हैं… तो देश की जनता को किस पर “लानत” भेजनी चाहिए? “मान्यवर और मूल्यवान गृहमंत्री” पर अथवा अपनी किस्मत पर?

तात्पर्य यह है कि हमारे समुद्री तटों पर खुलेआम और बड़े आराम से बड़े-बड़े जहाज घूमते पाए जा रहे हैं और “संयोग से”(?) सभी मुम्बई के तटों पर ही टकरा रहे हैं… ऐसे में यह जानना बेहद जरूरी है कि खतरा किस स्तर का है। ध्यान दीजिये, सन् 1944 में 7142 टन का एसएस फ़ोर्ट नामक एक जहाज जिसमें 1400 टन का विस्फ़ोटक भरा हुआ था उसमें मुम्बई के विक्टोरिया बंदरगाह पर दुर्घटनावश विस्फ़ोट हुआ था, जिसमें कुल 740 लोग मारे गये थे और 1800 घायल हुए थे… इस विस्फ़ोट से लगभग 50,000 टन का मलबा एकत्रित हुआ जिसे साफ़ करने में छः माह लग गये थे (यह आँकड़े उस समय के हैं, जब मुम्बई की जनसंख्या बहुत कम थी, विस्फ़ोट की भीषणता का अनुमान संलग्न चित्र से लगाया जा सकता है…)।



ऐसे में एक भयावह कल्पना सिहराती है कि “पवित” टाइप का 1000 टन का कोई जहाज सिर्फ़ 300 टन के विस्फ़ोटक के साथ भारत के व्यावसायिक हृदय स्थली “नरीमन पाइंट” अथवा न्हावा शेवा बंदरगाह से टकराए तो क्या होगा? इसलिये माननीय चिदम्बरम जी… अर्ज़ किया है कि शेयर और कमोडिटी मार्केट से अपना ध्यान थोड़ा हटाएं, और जो काम आपको सौंपा गया है उसे ही ठीक से करें…

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विशेष नोट – 1993 में दाऊद इब्राहीम द्वारा जो बम विस्फ़ोट किये गये थे, उसका सारा माल उस समय कोंकण (रत्नागिरी) के सुनसान समुद्र तटों पर उतारा गया था…। उस समय भी सरकार ने, 1) “हमारी समुद्री सीमा बहुत बड़ी है, क्या करें?”, 2) “समुद्री सुरक्षा को चाकचौबन्द करने के लिए बहुत सारा पैसा चाहिए…”, 3) “समुद्री सीमा की चौकसी रक्षा मंत्रालय की जिम्मेदारी है, गृह मंत्रालय की नहीं…” जैसे “सनातन बहाने” बनाये थे।
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** - “मूल्यवान” शब्द की व्याख्या :- जिस प्रकार कपिल सिब्बल साहब ने 2G घोटाले में देश को “शून्य नुकसान हुआ” का “फ़तवा” जारी किया था, ठीक वैसे ही हाल में उन्होंने चिदम्बरम साहब को “मूल्यवान सहयोगी” बताया है… और जब कपिल सिब्बल कुछ कहते हैं, यानी वह सुप्रीम कोर्ट से भी ऊँची बात होती है… ऐसा हमें मान लेना चाहिए… :) :) :)

स्रोत :- http://oldphotosbombay.blogspot.com/2011/02/bombay-explosion-1944-freighter-ss-fort.html

Javed Akhtar Why this Kolaveri Kolaveri Di

Written by गुरुवार, 08 दिसम्बर 2011 18:07
जावेद अख्तर साहब, इतना “श्रेष्ठताबोध” ठीक नहीं… - व्हाय दिस कोलावेरी डी??

रजनीकान्त के दामाद धनुष और उनकी बेटी ऐश्वर्या द्वारा निर्मित फ़िल्म “3” के लिए एक गीत फ़िल्माया जाएगा, जिसके बोल हैं “व्हाय दिस कोलावरी कोलावरी कोलावरी डी”, इस गीत की रिकॉर्डिंग के समय बनाए गये वीडियो ने ही पूरी दुनिया में धूम मचा रखी है। इस गीत को गाया है स्वयं “धनुष” ने, जबकि संगीत तैयार किया है, अनिरुद्ध रविचन्द्रन ने।

तमिल और अंग्रेजी शब्दों से मिलेजुले इस “तमिलिश” गीत की लोकप्रियता का आलम यह है, कि अपुष्ट सूत्रों के अनुसार 4 मिनट के इस वीडियो क्लिप को यू-ट्यूब पर जारी होने के मात्र 15 दिनों के अन्दर 1 करोड़ से अधिक युवाओं ने इसे देख लिया है, लगभग इतने ही डाउनलोड हो चुके हैं, चार भाषाओं में अभी तक इसका रीमिक्स बन चुका है तथा लगभग सभी मोबाइल कम्पनियों ने इसे कॉलर तथा रिंगटोन ट्यून बनाने हेतु अनुबन्ध कर लिया है। स्वयं धनुष का कहना है कि उन्हें भी अंदाज़ा नहीं था कि मौज-मस्ती में बनाए गये इस वीडियो तथा इस गीत को युवा पीढ़ी इतना पसन्द करेगी…

पहले आप इस गीत का आनन्द लीजिये, फ़िर जावेद अख्तर साहब के बारे में बात करेंगे… यदि आज और अभी तक, आपने इस गीत को एक बार भी न सुना हो, तो मान लीजिये कि आप बूढ़े हो चुके हैं…



सुना आपने…!!! भले ही आपको इसके तमिल शब्द समझ में न आए हों, परन्तु इसकी धुन और लय थिरकने को बाध्य करती है… शायद इसीलिए यह गीत आज की तारीख में युवाओं की धड़कन बन गया…।

अब आते हैं, जावेद साहब की “हरकत” पर…। जावेद साहब हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री के एक स्तम्भ हैं, उन्होंने कई-कई बेहतरीन गीत लिखे हैं। खैर… जैसी कि हमारे मीडिया की परम्परा है इस गीत के सुपर-डुपर-टुपर हिट होने के बाद जावेद साहब इस पर प्रतिक्रिया चाही गई (आप पूछेंगे जावेद साहब से क्यों, गुलज़ार से क्यों नहीं? पर मैंने कहा ना, कि यह एक “परम्परा” है…)। जावेद साहब ठहरे “महान” गीतकार, और एक उम्दा शायर जाँनिसार अख्तर के सुपुत्र, यानी फ़िल्म इंडस्ट्री में एक ऊँचे सिंहासन पर विराजमान… तो इस गीत की “कटु” आलोचना करते हुए जावेद अख्तर फ़रमाते हैं, कि “इस गीत में न तो धुन अच्छी है, इसके शब्द तो संवेदनाओं का अपमान हैं, यह एक बेहद साधारण गीत है…” एक अंग्रेजी कहावत दोहराते हुए जावेद अख्तर कहते हैं कि “जनता भले ही सम्राट के कपड़ों की वाहवाही कर रही है, लेकिन हकीकत यह है कि सम्राट नंगा है…”।

यानी जो गाना रातोंरात करोड़ों युवा दिलों की धड़कन बन गया है, लाखों की पसन्द बन गया है, उसे जावेद साहब एकदम निकृष्ट और नंगा कह रहे हैं। यह निश्चित रूप से उनके अन्दर पैठा हुआ “श्रेष्ठताबोध” ही है, जो “अपने सामने” हर किसी को ऐरा-गैरा समझने की भूल करता है।

जावेद साहब, आप एक महान गीतकार हैं। मैं भी आपके लिखे कई गीत पसन्द करता हूँ, आपने “एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा…” एवं “पंछी, नदिया, पवन के झोंके…” जैसे सैकड़ों मधुर गीत लिखे हैं, परन्तु दूसरे के गीतों के प्रति स्वयं का इतना श्रेष्ठताबोध रखना अच्छी बात नहीं है। धनुष (रजनीकांत के दामाद) और श्रुति हासन (कमल हासन की पुत्री) जैसे कुछ युवा, जो कि दो बड़े-बड़े बरगदों (रजनीकांत और कमल हासन) की छाया तले पनपने की कोशिश में लगे हैं, सफ़ल भी हो रहे हैं… उनके द्वारा रचित इस अदभुत गीत की ऐसी कटु आलोचना करना अच्छी बात नहीं है।

जावेद साहब, आप मुझे एक बात बताईये, कि इस गीत में आलोचना करने लायक आपको क्या लगा? गीत “तमिलिश” (तमिल+इंग्लिश) में है, तमिल में कोलावरी डी का अर्थ होता है, “घातक गुस्सा”, गीत में प्रेमिका ने प्रेमी का दिल तोड़ा है और प्रेमी उससे पूछ रहा है, “व्हाय दिस कोलावरी डी…” यानी आखिर इतना घातक गुस्सा क्यों? गीत में आगे चेन्नै के स्थानीय तमिल Frases का उपयोग किया है, जैसे – गीत के प्रारम्भ में वह इसे “फ़्लॉप सांग” कहते हैं, स्थानीय बोलचाल में “Soup Boys” का प्रयोग उन लड़कों के लिए किया जाता है, जिन्हें लड़कियों ने प्रेम में धोखा दिया, जबकि “Holy Cow” शब्द का प्रयोग भी इससे मिलते-जुलते भावार्थ के लिए ही है…।

अब बताईये जावेद साहब!!! क्या इस गीत के शब्द अश्लील हैं? क्या इस गीत का फ़िल्मांकन (जो कि अभी हुआ ही नहीं है) अश्लील है? क्या इस गीत की रिकॉर्डिंग के प्रोमो में कोई नंगी-पुंगी लड़कियाँ दिखाई गई हैं? आखिर ऐसी कौन सी बात है जिसने आपको ऐसी आलोचना करने पर मजबूर कर दिया? मैंने तो कभी भी आपको, समलैंगिकता, लिव-इन-रिलेशनशिप तथा मुन्नी-शीला जैसे गीतों की इतनी कटु आलोचना करते तो नहीं सुना? फ़िर कोलावरी डी ने आपका क्या बिगाड़ दिया?  जब आपकी पुत्री जोया अख्तर ने “जिंदगी ना मिलेगी दोबारा…” जैसी बकवास फ़िल्म बनाई और उसमें स्पेन के “न्यूड बीच” (नग्न लोगों के लिये आरक्षित समुद्र तट) तथा “टमाटर उत्सव” को बड़े ही भव्य और “खुलेपन”(?) के साथ पेश किया, तब तो आपने उसकी आलोचना नहीं की? आपकी इस फ़िल्म से “प्रेरणा”(?) लेकर अब भारत के कुछ शहरों में “नवधनाढ्य रईस औलादें” अपने-अपने क्लबों में इस “टमाटर उत्सव” को मनाने लगी हैं, जहाँ टनों से टमाटर की होली खेली जाती है, जबकि भारत की 60% से अधिक जनता 20 रुपये रोज पर गुज़ारा कर रही है… क्या आपने इस “कुकर्मी और दुष्ट” टाइप की फ़िज़ूलखर्ची की कभी आलोचना की है?

जावेद साहब, आप स्वयं दक्षिण स्थित एआर रहमान के साथ कई फ़िल्में कर चुके हैं, फ़िर भी आप युवाओं की “टेस्ट” अभी तक नहीं समझ पाए? वह इसीलिए क्योंकि आपका “श्रेष्ठताबोध” आपको ऐसा करने से रोकता है। समय के साथ बदलिये और युवाओं के साथ चलिये (कम से कम तब तक तो चलिये, जब तक वे कोई अश्लीलता या बदतमीजी नहीं फ़ैलाते, अश्लीलता का विरोध तो मैं भी करता हूँ)। मैं जानता हूँ, कि आपकी दबी हुई दिली इच्छा तो गुलज़ार की आलोचना करने की भी होती होगी, परन्तु जावेद साहब… थोड़ा सा गुलज़ार साहब से सीखिए, कि कैसे उन्होंने अपने-आप को समय के साथ बदला है…। “मोरा गोरा अंग लई ले…”, “हमने देखी है उन आँखों की खुशबू…”, “इस मोड़ से जाते हैं…” जैसे कवित्तपूर्ण गीत लिखने वाले गुलज़ार ने बदलते समय के साथ, युवाओं के लिए “चल छैंया-छैंया…”, “बीड़ी जलई ले जिगर से…” और “कजरारे-कजरारे…” जैसे गीत लिखे, जो अटपटे शब्दों में होने के बावजूद सभी सुपरहिट भी हुए। परन्तु उनका कद आपके मुकाबले इतना बड़ा है कि आप चाहकर भी गुलज़ार की आलोचना नहीं कर सकते।

संक्षेप में कहने का तात्पर्य जावेद साहब यही है कि, आप अपना काम कीजिये ना? क्यों खामख्वाह अपनी मिट्टी पलीद करवाने पर तुले हैं? आपके द्वारा कोलावरी डी की इस आलोचना ने आपके युवा प्रशंसकों को भी नाराज़ कर दिया है। आपकी इस आलोचना को कोलावरी डी के संगीतकार अनिरुद्ध ने बड़े ही सौम्य और विनम्र अंदाज़ में लिया है, अनिरुद्ध कहते हैं कि, “जावेद साहब बड़े कलाकार हैं और आलोचना के बहाने ही सही कम से कम मेरे जैसे युवा और अदने संगीतकार का गीत उनके कानों तक तो पहुँचा…”। अब इस युवा संगीतकार को आप क्या कहेंगे जावेद साहब?
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चलते-चलते:- जावेद साहब, एक बात और… युवाओं की शक्ति और नई तकनीक को समझने में नाकामयाब तथा समय से पहले ही बूढ़े हो चुके कुछ “मामू” टाइप के लोग, अब फ़ेसबुक और गूगल पर प्रतिबन्ध के बारे में भी सोच रहे हैं… हैरत की बात है ना!!!

EVM Hacking exposed, Voting Machines in India

Written by शनिवार, 03 दिसम्बर 2011 20:31
वोटिंग मशीनों से छेड़छाड़ फ़िर उजागर…:- सात में से पाँच वोट हमेशा कांग्रेस को

महाराष्ट्र के अर्धापुर नगर पंचायत चुनाव हेतु निर्वाचन अधिकारी द्वारा सभी राजनैतिक दलों को चुनाव प्रक्रिया एवं मतदान पद्धति तथा मशीनों को चेक करने हेतु एक प्रदर्शन (Demonstration) रखा गया था। इसमें जिस इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर सभी उम्मीदवारों को प्रक्रिया समझाई जानी थी, उसके प्रदर्शन के दौरान सात वोट डाले गये जिसमें से पाँच कांग्रेस के खाते में गये। ऐसा दो-दो बार और हुआ, इसके पश्चात वहाँ उपस्थित सभी राजनैतिक दल हैरान रह गये (कांग्रेस के अलावा)। निर्वाचन अधिकारी डॉ निशिकान्त देशपाण्डे ने "शायद मशीन खराब है…" कहकर मामला रफ़ा-दफ़ा कर दिया और अगली तारीख पर दोबारा प्रदर्शन करने हेतु बुला लिया।

मशीनों के निरीक्षण के दौरान सात अलग-अलग बटनों को दबाया गया था, लेकिन गणना में पाँच मत कांग्रेस के खाते में दर्शाए गये। शिवसेना के निशान धनुषबाण का बटन दबाने पर वह वोट भी कांग्रेस के खाते में ही जा रहा था…। पिछले विधानसभा चुनाव में डॉ निशिकान्त देशपांडे ही पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के निर्वाचन क्षेत्र में अधिकारी थे, उस समय भी शिवसेना-भाजपा ने चुनाव में गड़बड़ियों की शिकायत मुख्य निर्वाचन अधिकारी से की थी, जिसका निराकरण पाँच साल होने के बाद भी नहीं हुआ है। शिवसेना ने इस समूचे प्रकरण की उच्चस्तरीय जाँच करवाने हेतु राष्ट्रपति को पत्र लिखा है, एवं आगामी विधानसभा चुनावों में उपयोग की जाने वाली सभी EVM की जाँच की माँग की है…।



वोटिंग मशीनों में हैकिंग और सेटिंग किस प्रकार की जा सकती है, इस सम्बन्ध में हैदराबाद के एक सॉफ़्टवेयर इंजीनयर श्री हरिप्रसाद ने बाकायदा प्रयोग करके दिखाया था, लेकिन सरकार ने उसे भारी परेशान किया था… इस सम्बन्ध में मेरे पिछले लेखों को अवश्य पढ़ें, ताकि मामला आपके समक्ष साफ़ हो सके (सुविधा हेतु लिंक दे रहा हूँ…)


http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/06/evm-rigging-elections-and-voting-fraud.html

http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/05/electronic-voting-machines-fraud.html

http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/08/evm-hacking-hari-prasad-arrested.html


उल्लेखनीय है कि डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी एवं एस कल्याणरमन ने इस विषय पर एक पुस्तक भी लिखी है, जिसमें वोटिंग मशीनों की हैकिंग के तरीके, भारतीय वोटिंग मशीनों की गड़बड़ियों तथा विदेशों में इन मशीनों के हैक होने के विभिन्न प्रकरणों तथा कई प्रमुख देशों द्वारा इन मशीनों को ठुकराये जाने अथवा प्रत्येक मतदाता को उसकी वोटिंग के पश्चात "सही रसीद" देने का प्रावधान किया गया है…(Book :- Electronic Voting Machines - Unconstitutional and Tamperable... ISBN 978-81-7094-798-1)

पिछले आम चुनाव में शिवगंगा लोकसभा सीट से पी चिदम्बरम का निर्वाचन भी अभी तक संदेह के घेरे में है, उस चुनाव में भी पी चिदम्बरम पहली मतगणना में 300 वोटों से हार गये थे, दूसरी बार मतगणना में भी यह अन्तर बरकरार रहा (विभिन्न न्यूज़ चैनलों ने इसकी खबर भी प्रसारित कर दी थी), परन्तु चिदम्बरम द्वारा तीसरी बार मतगणना की अपील किये जाने पर "आश्चर्यजनक रूप से" चिदम्बरम 3354 वोटों से विजयी घोषित हुए थे। विपक्षी उम्मीदवार ने जो शिकायत की थी, उसका निराकरण भी पिछले 3 साल में नहीं हो सका…।

अब वक्त आ गया है कि कांग्रेस द्वारा आगामी 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों तथा 2014 के लोकसभा चुनावों में मतदाता को वोट डालते ही तत्काल एक पर्ची प्रिण्ट-आउट का प्रावधान किया जाए, ताकि मतदाता आश्वस्त हो सके कि उसने जिसे वोट दिया है, वह वोट उसी उम्मीदवार के खाते में गया है। हाल-फ़िलहाल ऐसा कोई प्रावधान नहीं होने से इन मशीनों को हैक करके इसमें कुल वोटिंग प्रतिशत का 70-30 या 80-20 अनुपात में परिणाम कांग्रेस के पक्ष में किया जा सकता है (बल्कि आशंका यह भी है कि चुनिंदा लोकसभा क्षेत्रों में पिछले लोकसभा चुनाव में शायद ऐसा ही किया गया हो, परन्तु यह कार्य इतनी सफ़ाई और गणित लगाकर किया गया होगा ताकि किसी को शक न हो…)। परन्तु इस धोखाधड़ी का इलाज मतदाता को वोट की रसीद का प्रिण्ट आउट देकर किया जा सकता है…

डॉ स्वामी इस सम्बन्ध में पहले ही माँग कर चुके हैं, चुप्पी भरा आश्चर्यजनक रवैया तो भाजपा का है, जो इस मुद्दे को ठीक से नहीं उठा रही…।

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स्रोत… :- http://www.saamana.com/2011/December/03/Link/Main1.htm

Conversion in Kashmir, Islam and Conversion, Missionary Activity in India

Written by रविवार, 27 नवम्बर 2011 12:32

ईसाई धर्मांतरण को रोकने का इस्लामी तरीका… हिन्दुओं के बस की बात नहीं ये… (सन्दर्भ - कश्मीर में धर्मान्तरण)

घटना इस प्रकार है कि, कुछ समय पहले श्रीनगर स्थित चर्च के रेव्हरेंड (चन्द्रमणि खन्ना) यानी सीएम खन्ना(?) (नाम पढ़कर चौंकिये नहीं… ऐसे कई हिन्दू नामधारी फ़र्जी ईसाई हमारे-आपके बीच मौजूद हैं) ने घाटी के सात मुस्लिम युवकों को बहला-फ़ुसलाकर उन्हें इस्लाम छोड़, ईसाई धर्म अपनाने हेतु राजी कर लिया। जब यह मामला खुल गया, तो 19 नवम्बर को रेव्हरेण्ड खन्ना को श्रीनगर स्थित मुख्य मुफ़्ती बशीरुद्दीन ने खन्ना को “शरीयत कोर्ट”(?) में जवाब-तलब के लिए बुलवाया। खन्ना साहब से चार घण्टे तक पूछताछ(?) की गई। उन सभी सात मुस्लिम युवकों की पुलिस ने जमकर पिटाई की, जिन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार किया था, फ़िर उन युवकों से रेव्हरेण्ड खन्ना के खिलाफ़ कबूलनामा लिखवा लिया गया कि उसने पैसों का लालच देकर उन्हें ईसाई धर्म के प्रति बरगलाया (यही सच भी था)।(Know more about Shariah Court... http://expressbuzz.com/opinion/columnists/sharia-courts-rule-in-jk-secularists-keep-mum/337356.html)

इतना सब हो चुकने के बाद राज्य की “धर्मनिरपेक्ष” सरकार ने अपना रोल प्रारम्भ किया। बशीरुद्दीन की “धमकी”(?) के बाद सबसे पहले तो रेव्हरेण्ड खन्ना को गिरफ़्तार किया गया…। चूंकि गुजरात, तमिलनाडु, मध्य्रप्रदेश की तरह जम्मू-कश्मीर में धर्मान्तरण विरोधी कानून नहीं है (क्योंकि कभी सोचा ही नहीं था, कि मुस्लिम बहुल इलाके में कोई पादरी इतनी हिम्मत करेगा), इसलिये अब उस पर 153A तथा 295A की धाराएं लगाई गईं अर्थात “धार्मिक वैमनस्यता फ़ैलाने”, “नस्लवाद भड़काने” और “अशांति फ़ैलाने” की, ताकि चन्द्रमणि खन्ना को आसानी से छुटकारा न मिल सके… क्योंकि उसने इस्लाम के अनुसार मुस्लिमों का धर्म परिवर्तन करवा कर सिर्फ़ “अपराध” नहीं बल्कि “पाप” किया था। मौलाना बशीरुद्दीन ने कहा है कि “शरीयत” अपना काम करेगी, और सरकार को अपना काम “करना होगा…”, यह एक गम्भीर मसला है और इस्लाम में इससे “निपटने” के कई तरीके हैं। 

इन मुस्लिम युवकों के धर्मान्तरण की वीडियो क्लिप यू-ट्यूब पर आने के बाद पादरी खन्ना और वेटिकन के खिलाफ़ घृणा संदेशों की मानो बाढ़ सी आ गई, जिसमें “वादा” किया गया है कि यदि खन्ना को “उचित सजा” नहीं मिली तो कश्मीर से मिशनरियों के सभी स्कूल, इमारतें और चर्च इत्यादि जला दिए जाएंगे… मजे की बात यह है कि धमकी भरे ईमेल कश्मीर के साथ-साथ पाकिस्तान से भी भेजे जा रहे हैं। 

समूचे मामले का तीन तरह से विश्लेषण किया जा सकता है, और तीनों ही विश्लेषण तीन विभिन्न समूहों को पूरी तरह बेनकाब करते हैं…

1) सबसे पहले बेनकाब होते हैं तमाम ईसाई संगठन तथा सजन जॉर्ज एवं जॉन दयाल जैसे “स्वघोषित” ईसाई बुद्धिजीवी… (लेकिन असलियत में धर्मान्तरण के समर्थक घोर एवेंजेलिस्ट)। भाजपा शासित राज्यों सहित पूरे देश में मिशनरी गतिविधियों के जरिये दनदनाते हुए दलितों-आदिवासियों और गरीब हिन्दुओं को ईसाई धर्म में खींचने-लपेटने में लगे हुए ईसाई संगठन, कश्मीर के इस मसले पर शुरुआत में तो चुप्पी साध गये, फ़िर धीमे-धीमे सुरों में इन्होंने विरोध शुरु किया। प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति और सोनिया गाँधी के समक्ष, “धर्मान्तरण की गतिविधि संविधान सम्मत है…”, “कश्मीर में जो हुआ वह गलत और असंवैधानिक तथा धार्मिक स्वतन्त्रता का हनन है…” तथा “कश्मीर के तालिबानीकरण पर चिंता जताते हैं…” जैसे वाक्यों और घोषणाओं से शिकायत करते रहे। लेकिन इस्लामिक मामलों में और खासकर कश्मीर के मामले में प्रधानमंत्री की क्या औकात है कि वे कुछ करें… सो कुछ नहीं हुआ। फ़िलहाल डायोसीज़ चर्च और वेटिकन के उच्चाधिकारी रेव्हरेण्ड खन्ना के साथ हुए सलूक पर सिर्फ़ “प्रलाप” भर कर रहे हैं, कुछ कर सकने की उनकी न तो हिम्मत है और न ही औकात…। यह बात पहले भी केरल में साबित हो चुकी है, जब एक ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ, कुछ इस्लामिक पागलों ने काट दिया था… तब भी भारतीय चर्च, हिन्दुओं को सरेआम ईसाई बनाते एवेंजेलिस्ट और वेटिकन के सारे गुर्गे, सिमी द्वारा संचालित इस्लामी जेहाद के सामने दुम दबाकर घर बैठ गये थे…। तात्पर्य यह कि ईसाई संगठनों द्वारा किये जाने वाले “धर्मान्तरण सम्बन्धी सारे संवैधानिक अधिकार”(?) और “दादागिरी” सिर्फ़ हिन्दुओं पर ही चलती है, जैसे ही कोई इस्लामी जेहादी इन्हें इनकी औकात बताता है तो ये चुप्पी साध लेते हैं या मन मसोसकर रह जाते हैं…

पता कीजिये कि गरीबों की सेवा(?)  के नाम पर चल रही कितनी मिशनरियाँ, मुस्लिम बहुल इलाके में अपना कामकाज कर रही हैं?  क्या मुसलमानों में गरीबी नहीं है? तो फ़िर मिशनरी संस्थाओं को "सेवा" के लिए दलित-आदिवासी बस्तियाँ ही क्यों मिलती हैं?

2) इस घटना से इस्लाम के तथाकथित स्वयंभू ठेकेदार भी बेनकाब होते हैं, क्योंकि जहाँ एक तरफ़ उन गरीब मुस्लिम नौजवानों (जो पैसे के लालच में ईसाई बने), उन पर फ़िलहाल कोई कार्रवाई नहीं की जा रही, जबकि रेव्हरेण्ड खन्ना को रगड़ा जा रहा है। इसी प्रकार इस्लाम की अजब-गजब परिभाषाओं के अनुसार “जो भी व्यक्ति पवित्र इस्लाम में प्रवेश करता है, उसका स्वागत है…” इसमें “आने वाले” और “लाने वाले” दोनों को ईनाम दिया जाता है (जैसा कि लव-जेहाद के कई मामलों में कर्नाटक व केरल पुलिस ने पाया है कि मुस्लिम लड़कों को हिन्दू लड़की फ़ँसा कर लाने पर दो-दो लाख रुपये तक दिये गये हैं)। वहीं दूसरी ओर, पाखण्ड की इन्तेहा यह है कि बशीरुद्दीन साहब फ़रमाते हैं कि “इस्लाम छोड़कर जाना गुनाह-ए-अज़ीम (महापाप) है…”। यानी इस्लाम में आने वाले को ईनाम और इस्लाम छोड़कर जाने वाले को कठोर दण्ड… यह है “शांति का धर्म” (Religion of Peace)?

3) बेनकाब होने की श्रृंखला में तीसरा नम्बर आता है, हमारे “सुपर ढोंगी सेकुलरों” और “वामपंथी बुद्धिजीवियों”(?) का…। पाठकों को याद होंगे दो मामले, पहला कोलकाता के रिज़वानुर रहमान और उद्योगपति अशोक तोडी की लड़की का प्रेम प्रसंग (Search - Ashok Todi and Rizvanur Rehman Case) एवं कश्मीर में अमीना और रजनीश का प्रेम प्रसंग (Search - Ameena and Rajneesh Love story of Kashmir)। झोला छाप वामपंथी बुद्धिजीवियों एवं पाखण्ड से लबरेज धर्मनिरपेक्षों ने रिज़वानुर रहमान की हत्या पर कैसा “रुदालीगान” किया था, जबकि कश्मीर में इस्लामी उग्रवादियों द्वारा रजनीश की हत्या पर चुप्पी साध ली थी…। ये लोग ऐसे ही गिरे हुए होते हैं, उदाहरण - गोधरा ट्रेन जलाने पर कपड़ा-फ़ाड़ चिल्लाना, लेकिन मुम्बई की राधाबाई चाल में हिन्दुओं को जलाने पर चुप्पी…, फ़िलीस्तीन के मुसलमानों के लिये बुक्का फ़ाड़कर रोना, लेकिन कश्मीरी पण्डितों के मामले में चुप्पी…, गुजरात के दंगों को “नरसंहार” बताना, लेकिन सिखों के नरसंहार के बावजूद कांग्रेस की गोद में बैठना इत्यादि-इत्यादि। इनका ऐन यही रवैया, कश्मीर के इस धर्मान्तरण मामले को लेकर भी रहा… आए दिन भाजपा-संघ को अनुशासन, संविधान, अल्पसंख्यकों के अधिकारों आदि पर भाषण पिलाने वाले महेश भट्ट, शबाना आज़मी और तीस्ता नुमा सारे बुद्धिजीवी अपनी-अपनी खोल के अन्दर दुबक गये…। किसी ने भी बशीरुद्दीन और उमर अब्दुल्ला सरकार को पाठ पढ़ाने की कोशिश नहीं की, क्योंकि उन्हें मालूम है कि यदि वे इस्लाम के खिलाफ़ एक शब्द भी बोलेंगे तो उनका पिछवाड़ा लाल कर दिया जाएगा…। जॉन दयाल, सीताराम येचुरी अथवा सैयद शहाबुद्दीन साहब ने एक बार भी नहीं कहा, कि कश्मीर में पादरी खन्ना के खिलाफ़ जो भी कार्रवाई हो वह भारत के संविधान के अनुसार हो… शरीयत कोर्ट कौन होता है फ़ैसला करने वाला? लेकिन ज़ाहिर है कि जिसके पास “ताकत” है, उसी की बात चलेगी और ठोकने-लतियाने तथा हाथ काटने की ताकत फ़िलहाल इस्लाम के पास है, जबकि हिन्दू ठहरे नम्बर एक के बुद्धू, सेकुलर और गाँधीवादी…, उनके खिलाफ़ तो “कुछ भी” (जी हाँ, कुछ भी) किया जा सकता है…। क्योंकि भाजपा में भी अब कांग्रेस “बी” टीम बनने की होड़ चल पड़ी है, तो रीढ़ की हड्डी सीधी करके धार्मिक मामलों पर भाजपा के नेता खुलकर क्यों और कैसे बोलें? जबकि स्थापित तथ्य यह है कि “विशेष परिस्थितियों” (गुजरात एवं मध्यप्रदेश के चन्द चुनावों) को छोड़कर चाहे भाजपाई नेता, सार्वजनिक रूप से मुस्लिमों के चरण धोकर भी पिएं तब भी वे भाजपा को वोट देने वाले नहीं हैं… फ़िर भी भाजपा को यह पूछने में संकोच(?) हो रहा है कि “शरीयत” बड़ी या “भारत का संविधान”?

प्रस्तुत घटना यदि किसी भाजपा शासित राज्य में हुई होती तथा बजरंग दल अथवा श्रीराम सेना ने इस घटना को अंजाम दिया होता, तो अब तक भारत के समूचे मीडियाई भाण्डों, नकली सेकुलरिज़्म का झण्डा उठाये घूमने वाले बुद्धिजीवियों सहित “प्रगतिशील”(?) वामपंथियों ने कपड़े फ़ाड़-फ़ाड़कर, आसमान सिर पर उठा लिया होता… परन्तु चूंकि यह घटना कश्मीर की है तथा इसमें इस्लामी फ़तवे का तत्व शामिल है, इसलिए दोगले सेकुलरों और फ़र्जी वामपंथियों के मुँह पर बड़ा सा ताला जड़ गया है… “राष्ट्रीय”(?) मीडिया की तो वैसे भी हिम्मत और औकात नहीं है कि वे इस घटना को कवरेज दे सकें…।

वाकई, “सेकुलरिज़्म और गाँधीवाद” ने मानसिक रूप से भारतवासियों (सॉरी… हिन्दुओं) को इतना खोखला और डरपोक बना दिया है, कि वे वाजिब बात का विरोध भी नहीं कर पाते… 
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नोट :- ताज़ा समाचार यह है कि "शरीयत कोर्ट" ने कश्मीर विवि के कुछ प्रोफ़ेसरों को भी उसके समक्ष पेश होने का नोटिस जारी किया है, क्योंकि खन्ना ने स्वीकार किया है कि मुस्लिम युवकों का धर्मान्तरण करवाने में इन्होंने उसकी मदद की थी…। दूसरी तरफ़ पादरी खन्ना की पत्नी और बेटे ने उनके "गिरते स्वास्थ्य" को देखते हुए उमर अब्दुल्ला से उन्हें रिहा करने की अपील की है। पत्नी ने एक बयान में कहा है कि कश्मीर में आए भूकम्प के दौरान पादरी खन्ना और चर्च ने सेवाभाव से गरीबों की मदद की थी, उनके पुनर्वास में विभिन्न NGOs के साथ मिलकर काम किया था… (इस स्वीकारोक्ति का अर्थ समझे आप? थोड़ा गहराई से विचार कीजिए, समझ जाएंगे)। 

फ़िलहाल तो इस मामले में "धर्मनिरपेक्षों" और "स्वयंभू मानवाधिकारवादियों" की साँप-छछूंदरनुमा हालत, दोगलेपन और पाखण्ड पर तरस खाईये और मुस्कुराईये…। 

Communal and Targeted Voilence Bill, Mangalore Church Attack Reality

Written by बुधवार, 23 नवम्बर 2011 18:16
एक सुपर माइक्रो पोस्ट, बल्कि नैनो पोस्ट…लेकिन आवश्यक पोस्ट

1) सोनिया गाँधी द्वारा पोषित NAC (National Advisory Council) के सदस्यों द्वारा एक "ड्रैकुलानुमा" कानून संसद में पेश किया जाने वाला है…। चूंकि हिन्दू, लगभग मूर्खता की हद तक "राजनैतिक रूप से कुम्भकर्ण" होते हैं, इसलिए उनकी जानकारी हेतु इस कानून को सरल भाषा में समझाने की कोशिश मात्र 6 पेज की छोटी सी पुस्तिका में की गई है… कृपया निम्नलिखित लिंक पर जाकर इसे 1 मिनट में डाउनलोड करें और अवश्य पढ़ें। पढ़कर आपकी नींद खुले तो इसकी फ़ोटोकॉपी बाँटकर दूसरों को भी जगाईये…। अब तो जगदगुरु शंकराचार्य ने भी इस बिल को लेकर हिन्दुओं से जागृत होने को कहा है…।

"सेकुलरिज़्म" मनुष्य को कितना नीचे गिरा सकता है, यह इस बात से साबित होता है कि इस बिल के प्रमुख कर्ताधर्ता पूर्व नौकरशाह श्री हर्ष मन्दर, असल में एक "सिख" हैं, लेकिन उन्हें यह ज़ाहिर करने में भी शर्म महसूस होती है…। मंदर साहब ने कभी भी 1984 में सिखों के कत्लेआम के खिलाफ़ कभी आवाज़ नहीं उठाई, लेकिन गुजरात और नरेन्द्र मोदी से इतनी घृणा करते हैं कि यह प्रस्तावित काला कानून तक ले आये…। बहरहाल, जब आप इसे पढ़ लेंगे, तो मुझे कुछ कहने की जरुरत ही नहीं रहेगी…। यदि सकारात्मक पक्ष देखें, तो ऐसा लगता है कि हिन्दुओं को एकजुट करने में, यह कानून काफ़ी मददगार साबित होगा…

http://www.scribd.com/doc/73446620/lakshit-hinsa-PUSTIKA

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2) अक्सर "सेकुलरिज़्म" के नाम पर बिकाऊ मीडिया संघ परिवार को बदनाम करने में लगा रहता है। प्रत्येक छोटी-छोटी बात को "संघ परिवार द्वारा हमला" कहकर मुख्य मीडिया द्वारा चिल्लाचोट की जाती है…। चर्च पर हुए हमलों में अभी तक झाबुआ-रतलाम एवं गुजरात सहित कम से कम 5 बार यह सिद्ध हो चुका है कि इसमें संघ का कोई हाथ नहीं है, लेकिन मीडिया बाज नहीं आता (ज़ाहिर है, फ़ेंकी गई हड्डी के टुकड़े चबाकर दिन-रात राहुल गाँधी की सभाओं को कवरेज देने वाले तो ऐसा ही करेंगे)। मंगलोर में इस "चर्च हमले"(?) के मामले में अब एक बार फ़िर से बिकाऊ मीडिया बेनकाब हुआ है… कृपया 3 मिनट का यह वीडियो अवश्य देखें…

http://youtu.be/8HSpoiC-dk0

http://www.youtube.com/watch?v=8HSpoiC-dk0&feature=share

अधिक क्या कहूं… आप सभी समझदार हैं…।

मजे में गुनगुनाते रहिये… "लूट का सपना बुना, डकैती हुई कई गुना… हो रहा भारत निर्माण, हो रहा भारत निर्माण…"

Sabrimala Pilgrimage, Pseudo-Secularism, Kerala Tourism

Written by मंगलवार, 22 नवम्बर 2011 19:00
जानबूझकर उकसाने वाली कार्रवाईयाँ और समुचित जवाब – दो घटनाएं…

मित्रों, केरल में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली सबरीमाला यात्रा प्रारम्भ हो चुकी है, इस अवसर पर लाखों हिन्दू श्रद्धालु सबरीमाला की कठिन यात्रा करते हैं, एवं कठोर तप-नियमों का पालन भी करते हैं। परन्तु केरल में पिछले 10 वर्ष के दौरान जिस प्रकार “जिहाद” और “क्रूसेड” का प्रभाव बढ़ रहा है, छोटी-छोटी घटनाओं के द्वारा हिन्दुओं के लिए “संदेश” दिये जा रहे हैं… ऐसी ही दो घटनाएं पेश हैं…

पहली घटना इस प्रकार है –

तमिलनाडु से सबरीमाला यात्रा में आये हुए दो श्रद्धालुओं को 18 नवम्बर के दिन पुन्नालूर के पास एक दुकानदार ने अपने कर्मचारियों के साथ मिलकर पीट दिया। ये दोनों श्रद्धालु उस होटल मालिक से गैरवाजिब रूप से अत्यधिक महंगी रखी गई खाने-पीने की वस्तुओं के बारे में पूछताछ कर रहे थे। दोनों श्रद्धालुओं को चोटें आईं और उन्हें पुनालूर के अस्पताल में भर्ती करना पड़ा, पिछले साल भी इसी स्थान पर श्रद्धालुओं के साथ मारपीट की गई थी, जब श्रद्धालुओं ने होटल में बनने वाले शाकाहारी पदार्थों के साथ माँसाहारी पदार्थ को देख लिया था, और आपत्ति उठाई थी।

असल में सबरीमाला यात्रा के दौरान जुटने वाली भीड़ को देखते हुए दुकानदारों ने मनमाने भाव वसूलना शुरु कर दिए हैं, लेकिन इसका कारण महंगाई अथवा “धंधेबाजी” नहीं है। हकीकत यह है कि सबरीमाला यात्रा के सीजन में हिन्दुओं की बढ़ी हुई आस्था, हिन्दुओं के प्रचार-प्रसार एवं हिन्दू जीवनशैली के बढ़ते प्रभाव को देखकर “जेहादी” और “क्रूसेडर” परेशान हो जाते हैं। वे यह बात नहीं पचा पाते कि इतने जोरदार प्रयासों के बावजूद प्रतिवर्ष सबरीमाला में श्रद्धालुओं की संख्या क्यों बढ़ रही है? पूरे यात्रा मार्ग और आसपास के कस्बों में मछली, माँस, अण्डे इत्यादि के माँसाहारी खाद्य सामग्री बनाने वाले होटलों की आमदनी में इस दौरान भारी गिरावट आ जाती है, क्योंकि जो श्रद्धालु इन माँसाहारी पदार्थों को खाते हैं, वे भी लगभग 2 माह तक इनका त्याग कर देते हैं। इस भारी नुकसान का बदला, ये होटल वाले पानी से लेकर चावल तक के दामों में मनमाने तरीके से भारी बढ़ोतरी करके वसूलते हैं, जिसे लेकर आये दिन श्रद्धालुओं से इनका विवाद होता रहता है।

इस घटना के पश्चात विश्व हिन्दू परिषद एवं स्थानीय हिन्दू ऐक्यवेदी ने सभी श्रद्धालुओं से अनुरोध किया है कि वे सिर्फ़ उन्हीं होटल वालों से सामान खरीदें, जहाँ इस बात का स्पष्ट उल्लेख और सख्त पालन हो कि उनके यहाँ “सिर्फ़” शाकाहारी भोजन मिलता है।

कहाँ तो एक ओर अमरनाथ यात्रा के समय देश के विभिन्न हिस्सों से सिख और जैन मारवाड़ी बन्धु समूचे यात्रा मार्ग पर यात्रियों को मुफ़्त में लंगर-भोजन करवाते हैं, और कहाँ एक ओर सबरीमाला की यात्रा में श्रद्धालुओं से अधिक भाव लेकर उन्हें लूटा जा रहा है… और यह सिर्फ़ होटल और लॉज वालों तक ही सीमित नहीं है, प्राप्त सूचना के अनुसार बस ट्रांसपोर्ट व्यवसाय पर भी एक “वर्ग विशेष” का कब्जा है एवं वे सबरीमाला के हिन्दू यात्रियों से मनमाना किराया वसूलते हैं और अभद्रता भी करते हैं…। इस घटनाक्रम का एक पहलू यह भी रहा कि मारपीट और श्रद्धालुओं के घायल होने की खबर के पश्चात हिन्दू संगठनों ने सड़क किनारे चल रहे उस अवैध होटल को तहस-नहस कर दिया, जिसके पश्चात सरकार ने मनमाने दामों पर लगाम लगाने का फ़ैसला किया है…।


दूसरी घटना भी हिन्दुओं को जानबूझकर उकसाने वाली है -

कुछ समय पहले इसी ब्लॉग पर आपने “मुथूट फ़ायनेंस कम्पनी द्वारा सिन्दूर-बिन्दी पर प्रतिबन्ध” लगाने वाले सर्कुलर के बारे में पढ़ा था (http://blog.sureshchiplunkar.com/2011/09/muthoot-finance-anti-hindu-circular-ban.html), प्रस्तुत घटना भी इसी से मिलती जुलती है।


जैसी की परम्परा है सबरीमाला के भक्तगण इस पवित्र उत्सव एवं पूजा के दौरान काले कपड़े अथवा काली लुंगी या धोती धारण करते हैं। चलाकुडी स्थित एक ईसाई संस्था, “निर्मला कॉलेज” ने उन सभी छात्रों को एक नोटिस जारी करके कहा कि कोई भी छात्र काली धोती या काली लुंगी पहनकर कॉलेज नहीं आ सकता। कुछ छात्रों ने इस नोटिस की अवहेलना की तो उन पर भारी जुर्माना ठोंका गया जबकि कुछ छात्रों को कॉलेज से निकालने की धमकी दी गई। हिन्दू छात्रों पर इस खुल्लमखुल्ला प्रतिबन्ध वाले सर्कुलर पर प्रिंसिपल सजीव वट्टोली के हस्ताक्षर हैं। इस सर्कुलर का वाचन सभी छात्रों के समक्ष जानबूझकर सार्वजनिक रूप से जोर से पढ़ा गया।

जब इस घटना का पता हिन्दू ऐक्यवेदी संगठन को लगा, तो उन्होंने कॉलेज प्रबन्धन का घेराव और धरना किया, जिसके बाद कॉलेज प्रशासन ने उन छात्रों की पेनल्टी फ़ीस वापस की तथा जिन्हें कॉलेज से बाहर करने का नोटिस दिया गया था, वह भी वापस लिया गया…।

इस प्रकार की घटनाएं अब केरल, पश्चिम बंग और असम में आम हो चली हैं। चूंकि हिन्दुओं में “नकली सेकुलरों” और “जयचन्दों” की भरमार है, इसलिए उन्हें ऐसी घटनाएं “छोटी-मोटी”(?) प्रतीत होती हैं, लेकिन यदि ध्यान से देखें तो ऐसी कार्रवाईयों और निर्देशों के जरिए हिन्दुओं को कुछ “स्पष्ट संदेश” दिये जा रहे हैं।

मुथूट फ़ायनेंस वाले मामले में डॉ स्वामी द्वारा कम्पनी के प्रबन्धक को जब कोर्ट केस करने की धमकी दी, तब कहीं जाकर सिन्दूर-बिन्दी पर प्रतिबन्ध वाले सर्कुलर को वापस लिया गया…। हालांकि इन दोनों घटनाओं में भी हिन्दू संगठनों द्वारा त्वरित कार्रवाई करके मामला सुलझा लिया, लेकिन “नीयत” का इलाज कैसे होगा?
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नोट :- यदि सोनिया गाँधी की NAC द्वारा पोषित “साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा बिल 2011” नामक काला कानून पास हो गया, तो ऊपर उल्लिखित घटना में होटल का मालिक, उन श्रद्धालुओं को पीटता भी और उन्हीं पर केस भी दर्ज करवाता, जिसमें उनकी जमानत भी नहीं होती। कुम्भकर्ण रूपी मूर्ख हिन्दुओं को यदि इस “ड्रेकुला कानून” के बारे में अधिक से अधिक जानना हो तो इस लिंक पर जा सकते हैं… http://adf.ly/3peiN

http://adf.ly/3peje

Dubai Port World Kochi, Red Sander Smuggling and Anti- National Activities

Written by गुरुवार, 17 नवम्बर 2011 18:25

रक्त चन्दन तस्करी, दुबई पोर्ट वर्ल्ड की सांठगांठ और SEZ एवं बंदरगाहों की सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह… 

भारत सरकार की “सब कुछ निजी हाथों में बेचो” की नीति(?) के तहत कोच्चि बंदरगाह पर दुबई पोर्ट वर्ल्ड (DPW) नामक एक निजी कम्पनी, अंतरराष्ट्रीय कंटेनर टर्मिनल चलाती है। बंदरगाहों जैसे नाज़ुक सुरक्षा स्थानों पर देश के साथ कैसा खिलवाड़ किया जा रहा है, यह पिछले कुछ दिनों में कोच्चि बंदरगाह की घटनाओं से साफ़ हो जाता है। देशद्रोहियों एवं तस्करों की आपसी सांठगांठ को दुबई पोर्ट वर्ल्ड जैसी कम्पनियाँ अपना मूक या अंदरखाने सक्रिय समर्थन दे रही हैं।

मामला कुछ यूँ है कि खुफ़िया राजस्व निदेशालय (Directorate of Revenue Intelligence – DRI) ने कुछ दिनों पहले दुबई पोर्ट वर्ल्ड (Dubai Port World) द्वारा नियंत्रित एवं संचालित कोच्चि बंदरगाह पर छापा मारा एवं रक्तचन्दन की बेहद महंगी लकड़ियों से भरा एक कंटेनर जब्त किया, जिसकी कीमत करोड़ों रुपए है। DRI के अधिकारियों ने पाया कि इस चन्दन तस्करी के पीछे एक पूरा तंत्र काम कर रहा है जिसे आंध्रप्रदेश में कार्यरत माओवादियों का भी सक्रिय समर्थन हासिल है।

(चित्र :- दुबई पोर्ट वर्ल्ड के कोच्चि टर्मिनल उदघाटन का) 

जब DRI अधिकारियों ने इस मामले में सबूत जुटाने शुरु किए तो उन्हें पता चला कि इस चन्दन तस्करी गैंग के प्रमुख कर्ताधर्ता कन्नूर निवासी शफ़ीक एवं चेन्नई निवासी शाहुल हमीद हैं, जो कि दुबई में रहते हैं और वहीं से इस “रैकेट” को संचालित करते हैं। आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के जंगलों से रक्त चन्दन के बहुमूल्य पेड़ों को काटकर इसे दुबई पोर्ट वर्ल्ड के बंदरगाह द्वारा दुबई पहुँचाया जाता रहा है, जहाँ से शफ़ीक और हमीद इसे हांगकांग एवं चीन भेज देते हैं, जहाँ महंगे फ़र्नीचरों तथा बहुमूल्य वाद्य यंत्रों के निर्माण में इस लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। DRI की जाँच में पता चला है कि यह एक अंतर्राष्ट्रीय गैंग है जिसके तार केरल, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, दुबई व चीन तक फ़ैले हुए हैं। DRI ने इस मामले में इंटरपोल की मदद भी माँगी है, ताकि शफ़ीक एवं हमीद को भारत लाया जा सके।

समूचे मामले का भण्डाफ़ोड़ उस समय हुआ जब DRI के अधिकारियों ने शक के आधार पर पलक्कड निवासी अनिल कुमार के एक कण्टेनर को पकड़ा जिसे रबर की चटाईयों के नाम पर देश के बाहर भेजा जा रहा था, जबकि उसमें रक्त चन्दन की लकड़ियाँ भरी पड़ी थीं। इसके बाद राजस्व अधिकारियों के कान खड़े हुए और उन्होंने तत्काल एक अन्य कंटेनरों में भरी 17 टन लकड़ियाँ (मूल्य ढाई करोड़) तथा एक अन्य कण्टेनर में 10 टन लकड़ियाँ जब्त कीं, मजे की बात यह है कि दुबई पोर्ट वर्ल्ड के कर्मचारियों द्वारा इन कण्टेनरों को “रबर चटाई” कंटेनर कहकर कस्टम से पास कर दिया गया था। पूछताछ में अनिल कुमार ने बताया कि उसे यह लकड़ियाँ कडप्पा और चित्तूर से प्राप्त हुई हैं, यह इलाका नक्सलियों का गढ़ माना जाता है, जहाँ उनकी मर्जी के बिना कोई भी ट्रक न बाहर जा सकता है, न अन्दर आ सकता है। अब DRI के खुफ़िया अधिकारी इसकी जाँच कर रहे हैं कि रक्त चन्दन की तस्करी की आड़ में नक्सली सिर्फ़ करोड़ों रुपया कमाने में लगे हैं अथवा इनकी सांठगांठ दुबई स्थित “डी-कम्पनी” से भी है और दुबई पोर्ट वर्ल्ड कम्पनी तथा SEZ की आड़ में नक्सली हथियार भी प्राप्त कर रहे हैं।

जिस प्रकार छत्तीसगढ़, झारखण्ड जैसे राज्यों में नक्सलियों की आय बॉक्साइट एवं अयस्क खदान ठेकेदारों से “वसूली” द्वारा होती है, उसी प्रकार आंध्रप्रदेश में नक्सलियों की आय लकड़ी तस्करों एवं रेड्डी बंधुओं जैसे महाकाय खनिज माफ़िया से चौथ वसूली के जरिये होती है, वरना 2-2 लाख रुपये में मिलने वाली AK-47 जैसे महंगे हथियार उन्हें कहाँ से मिलेंगे, चीन और पाकिस्तान भी नक्सलियों को फ़ोकट में हथियार कब तक देंगे? वीरप्पन की मौत के बाद रक्त चन्दन तस्करी पर माफ़िया एवं नक्सलियों का कब्जा हो रहा है।

इस घटना से यह स्पष्ट हुआ है कि वल्लारपदम (कोच्चि) स्थित एवं दुबई पोर्ट वर्ल्ड कम्पनी द्वारा संचालित यह बंदरगाह अंतर्राष्ट्रीय तस्करों, नक्सलियों एवं अवैध व्यापार करने वालों का स्वर्ग बन चुका है। सबसे खतरनाक बात यह है कि SEZ के नाम पर इस कम्पनी को “विशेषाधिकार”(?) प्राप्त हैं, तथा बंदरगाह के अधिकांश इलाके में कस्टम विभाग, DRI अधिकारियों एवं भारत सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। दुबई पोर्ट वर्ल्ड कम्पनी, पहले भी एक-दो बार कस्टम अधिकारियों को “उनके इलाके”(?) से दुत्कार कर भगा चुकी है। इसके बाद यह तय किया गया कि दुबई पोर्ट वर्ल्ड द्वारा जहाजों पर लादे जाने वाले माल एवं सभी कण्टेनरों की जाँच कस्टम विभाग इस बंदरगाह से कुछ किलोमीटर दूर स्थित विलिंग़डन द्वीप पर करेगा, एक बार यह जाँच पूरी होने के बाद कस्टम एवं DRI का इस पर कोई नियंत्रण नहीं होता। “सब कुछ बेचो” नीति के तहत भारत सरकार इस अपमानजनक स्थिति में फ़ँसी हुई है, जबकि उस विलिंग़डन द्वीप से लेकर दुबई पोर्ट वर्ल्ड संचालित बंदरगाह तक बीच के चन्द किलोमीटर के रास्ते में तस्कर और अंतर्राष्ट्रीय अपराधी अपना “खेल” कर जाते हैं, और या तो पूरा का पूरा कण्टेनर ही बदल देते हैं या कण्टेनर के अन्दर का माल “रबर चटाई” की जगह “रक्त चन्दन” मे बदल जाता है।

दुबई पोर्ट वर्ल्ड कम्पनी के प्रवक्ता का कहना है कि हमारा इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है, हमारी अपनी सुरक्षा व्यवस्था(?) है जो पूरी तरह चाक-चौबन्द है। यदि भारत सरकार एवं कस्टम अधिकारियों को कोई शिकायत है तो वे नियमों में परिवर्तन करके पूरे बंदरगाह की स्थायी सुरक्षा केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) को सौंप सकते हैं।

केरल में काम कर रहे इस्लामी जिहादियों तथा अपराधियों के खाड़ी देशों से काफ़ी पुराने “मधुर सम्बन्ध” हैं, ऐसे में अल्लाह ही जानता है कि दुबई पोर्ट वर्ल्ड कम्पनी के इस बंदरगाह से न जाने किस कण्टेनर में कौन सा माल आया और कौन सा माल भारत से बाहर गया। जैसा कि कई रिपोर्टों में बताया जा चुका है, केरल में मलप्पुरम नामक एक मुस्लिम बहुल जिला है, जहाँ केरल सरकार और पुलिस की औकात दो कौड़ी की भी नहीं है, वहाँ समानांतर इस्लामी शरीयत सरकार चलती है। ऐसा बताया जाता है कि मलप्पुरम, कासरगौड़, कन्नूर जिलों के अन्दरूनी इलाके में “डी-कम्पनी” द्वारा भारी मात्रा में पाकिस्तानी करेंसी खपाई गई है तथा गुटों के “आपसी लेनदेन” में इस करेंसी को स्वीकार भी किया जाता है। लगता है कि अब धीरे-धीरे हम कासरगौड जिले से लेकर त्रिवेन्द्रम तक समूचे समुद्री तट पर एक अन्य समानान्तर व्यवस्था कायम कर देंगे, जिसे संचालित करने वाली दुबई पोर्ट वर्ल्ड जैसी कम्पनियाँ होंगी, जिन पर “खुली अर्थव्यवस्था” एवं “SEZ” के नियमों के कारण भारत सरकार का नहीं, बल्कि खाड़ी देशों के अपराधियों का नियंत्रण होगा।
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स्रोत :-
http://www.deccanchronicle.com/channels/cities/kochi/red-sanders-worth-crore-seized-revenue-officials-745
http://www.haindavakeralam.com/HKPage.aspx?PageID=14942&SKIN=B
http://www.haindavakeralam.com/HKPage.aspx?PageID=14927&SKIN=B

Uttarakhand Rail Project, Sonia Gandhi and BC Khanduri

Written by गुरुवार, 10 नवम्बर 2011 10:43
सोनिया गाँधी की "वैधानिकता" पर अधिकृत रूप से सवाल उठाने वाले देश के पहले मुख्यमंत्री?


उत्तराखण्ड में ॠषिकेश से कर्णप्रयाग की रेल लाइन के निर्माण का भूमिपूजन विशाल पैमाने पर किया जाना था। उत्तराखण्ड में आगामी चुनाव को देखते हुए इस रेल परियोजना की नींव का पत्थर रखने के लिए सोनिया गाँधी को आमंत्रित किया गया था (ये कोई नई बात नहीं है, कई राज्यों में एक संवैधानिक प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का अपमान करते हुए सोनिया गाँधी से उदघाटन करवाने की चरणपूजन परम्परा रही है।)। अपनी "रहस्यमयी बीमारी" के बाद सोनिया गाँधी की यह पहली विशाल आमसभा भी होती…।



परन्तु ऐन मौके पर उत्तराखण्ड राज्य के मुख्यमंत्री श्री खण्डूरी ने कांग्रेस के रंग में भंग कर दिया। हाल ही में अण्णा की मंशा के अनुरूप जनलोकपाल बिल पास करवा चुके और टीम अण्णा की तारीफ़ें पा चुके भुवनचन्द्र खण्डूरी ने "प्रोटोकॉल" का सवाल उठाते हुए राष्ट्रपति भवन एवं प्रधानमंत्री कार्यालय से लिखित में पूछा, कि "आखिर सोनिया गाँधी किस हैसियत से इस केन्द्रीय रेल परियोजना की आधारशिला रख रही हैं?, न तो वे प्रधानमंत्री हैं, न ही रेल मंत्री हैं और UPA अध्यक्ष का पद कोई संवैधानिक पद तो है नहीं?…यह तो साफ़-साफ़ संवैधानिक परम्पराओं का उल्लंघन एवं प्रधानमंत्री और रेल मंत्री का अपमान है…"।

इसके बाद सोनिया गाँधी का यह कार्यक्रम रद्द कर दिया गया और इस आधारशिला कार्यक्रम में एक सांसद ने सोनिया गाँधी का एक संदेश पढ़कर सुनाया, वैसे यदि यह कार्यक्रम अपने मूलरूप में सम्पन्न होता भी तो दिनेश त्रिवेदी (रेलमंत्री), भरतसिंह सोलंकी और केएम मुनियप्पा (दोनों रेल राज्यमंत्री) सोनिया गाँधी के पीछे-पीछे खड़े होकर सिर्फ़ हें-हें-हें-हें-हें करते हुए हाथ भर हिलाते, लेकिन अब रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को उनका "उचित संवैधानिक सम्मान" मिला।

ज़ाहिर है कि कांग्रेस खण्डूरी के इस वार से भौंचक्की रह गई है, क्योंकि अभी तक किसी मुख्यमंत्री की ऐसे "असुविधाजनक सवाल" उठाने की "हिम्मत"(?) नहीं हुई थी। मजे की बात देखिये कि राज्य की इस महत्वपूर्ण योजना के इस संवैधानिक कार्यक्रम में राज्य के मुख्यमंत्री को ही निमंत्रण नहीं दिया गया था, मानो यह रेल परियोजना "गाँधी परिवार" का कोई पारिवारिक कार्यक्रम हो। अब शर्म छिपाने के लिए कांग्रेस द्वारा "उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे" की तर्ज पर प्रदेश कांग्रेस ने खण्डूरी की कड़ी आलोचना की है। कांग्रेस ने कहा है कि सोनिया गाँधी बीमारी की वजह से उनका यहाँ आना रद्द किया गया है, इसका खण्डूरी के सवालों से कोई लेना-देना नहीं है…।

इस पूरे मामले में खण्डूरी एक हीरो और विजेता बनकर उभरे हैं, क्योंकि आए दिन गाँधी परिवार के नाम से शुरु होने वाली योजनाओं और "सिर्फ़ एक सांसद" की संवैधानिक हैसियत रखने वाली सोनिया गाँधी जब-तब हर राज्य में जाकर केन्द्र की विभिन्न परियोजनाओं को झण्डी दिखाती रही हैं, मंच हथियाती रही हैं…। माना कि भले ही उन्होंने एक प्रधानमंत्री "नियुक्त"(?) किया हुआ है, एक राष्ट्रपति भी "नियुक्त"(?) कर रखा है, लेकिन संविधान तो संविधान है, कम से कम उन्हें उनका उचित अधिकार तो लेने दीजिये।

महत्वपूर्ण बात यह भी है कि पहली बार किसी मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से इस "व्यवस्था"(?) पर सवाल उठाया है। कोई भी केन्द्रीय परियोजना जनता के पैसों से ही बनती और चलती है, तो इसकी आधारशिला और उदघाटन का अधिकार प्रधानमंत्री, सम्बन्धित विभाग के मंत्री अथवा राज्य के मुख्यमंत्री का होता है, जो कि संवैधानिक पद हैं, जबकि सोनिया गाँधी 545 में से "एक सांसद भर" हैं (न तो UPA और न ही NAC, दोनों ही संवैधानिक संस्था नहीं हैं), हाँ… वे चाहें तो राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन के किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता कर सकती हैं, क्योंकि वे उस संस्था की अध्यक्षा हैं। परन्तु एक आधिकारिक शासकीय कार्यक्रम में मुख्य आतिथ्य अथवा फ़ीता काटना या हरी झण्डी दिखाना उचित नहीं कहा जा सकता।

सोनिया गाँधी के पिछले दो वर्ष के विदेश दौरों और इलाज पर हुए खर्च का कोई ब्यौरा सरकार के पास नहीं है, अब देखना है कि खण्डूरी के इस वैधानिक और वाजिब सवाल पर "लोकतंत्र के कथित रखवाले" क्या जवाब देते हैं? परन्तु जिस बात को सुनने से कांग्रेसजनों का मुँह कसैला हो जाए, जिस बात को भाण्ड मीडिया कभी नहीं उठाएगा, वह बात कहने की इस "हिम्मत" दिखाई के लिए भुवनचन्द्र खण्डूरी निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं…। लगता है कि अब भाजपाई भी डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी की हिम्मत और प्रयासों से प्रेरणा ले रहे हैं, जो कि अच्छा संकेत है…।
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http://english.samaylive.com/nation-news/676495877/sonia-gandhi-cancels-foundation-laying-ceremony-in-uttarakhand.html