Surya Namaskar or Jesus Namaskar?

Written by सोमवार, 03 जून 2013 18:38


सूर्य नमस्कार या यीशु नमस्कार???

हिंदुओं का धर्मान्तरण करने के लिए चर्च और वेटिकन की विभिन्न चालबाजियों और मानसिक तथा मार्केटिंग तकनीकों के बारे में पहले भी कई बार लिखा जा चुका है. झाबुआ, डांग, बस्तर अथवा उड़ीसा के दूरदराज इलाकों में रहने वाले भोलेभाले ग्रामीणों व आदिवासियों को मूर्ख बनाकर “चर्च के गुर्गे” अक्सर धर्मांतरण करवाने में सफल रहते हैं. जो गरीब ग्रामीण इन चालबाजियों में नहीं फंसते हैं, उन्हें पैसा, चावल, कपड़े इत्यादि देकर ईसाई बनाने की कई घटनाएं सामने आती रहती हैं.

कुछ ऐसा ही मामला हाल ही में सामने आया है. नीचे प्रस्तुत चित्र (केरल की एक संस्था :- निर्मला मेडिकल सेंटर) को ध्यान से देखें... 


भारतीय परम्परा और संस्कृति में “सूर्यनमस्कार” का बहुत महत्त्व है, चित्र में गोल घेरे के भीतर यीशु का चित्र है, जबकि उसके चारों ओर सूर्य नमस्कार की विभिन्न मुद्राएं हैं. यहाँ तक कि क्राइस्ट का जो चित्र है, वह भी “भगवान बुद्ध” की मुद्रा में है. पद्मासन में बैठे हुए आशीर्वाद की मुद्रा में उठे हुए हाथ वाली प्रभु यीशु की तस्वीर, अभी तक कितने लोगों ने, कितने ईसाई ग्रंथों में देखी है?? लेकिन स्वयं अपने ही आराध्य को, अपने ही स्वार्थ (यानी धर्मान्तरण) के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश करने जैसा कृत्य सिर्फ वेटिकन ही कर सकता है. क्योंकि “मकसद” हल होना चाहिए, चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े. धर्मान्तरित हो चुके दलित ईसाईयों को ही यह सोचना चाहिए कि जो धर्म खुद ही इतना दिवालिया हो कि उसे अपनी बात कहने के लिए दूसरे धर्मों के प्रतीक चिन्हों व खुद के आराध्य को ही विकृत करना पड़ रहा हो, उस धर्म में जाकर उन्होंने गलती तो नहीं कर दी? क्योंकि निजी बातचीत में कई धर्मान्तरित ईसाईयों ने स्वीकार किया है कि ईसाई धर्म में “आध्यात्मिकता से प्राप्त होने वाली मनःशांति” नहीं है, जो कि हिंदू धर्म में है, और इसी कार्य के लिए उन्हें वापस हिंदू धर्म की परम्पराओं और प्रतीक चिन्हों को “Digest” (हजम) करने का उपक्रम करना पड़ता है. अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन से धर्मान्तरण कार्य के लिए त्रिचूर आए हुए विदेशी पादरियों ने देवी-देवताओं की आराधना वाले भारतीय भजनों को हूबहू कॉपी-पेस्ट करके याद कर लिया है, अंतर सिर्फ इतना है कि जहाँ-जहाँ भगवान विष्णु का नाम आता है, वहाँ-वहाँ प्रभु यीशु कर दिया गया है, और जहाँ-जहाँ “देवी अथवा माता” का नाम आता है, वहाँ “मरियम” या “मैरी” कर दिया गया है.

यीशु की “महिमा”(??) का बखान करने के लिए अक्सर आदिवासी क्षेत्रों में पादरी लोग देवी की पीतल की मूर्ति और हूबहू पीतल जैसी दिखने वाली लकड़ी की यीशु की मूर्ति को पानी में फेंककर उन्हें दिखाते हैं कि किस तरह “तुम्हारे भगवान” की मूर्ति तो डूब गई, लेकिन “यीशु” की मूर्ति पानी पर तैरती रही है. इसलिए जब भी कोई मुसीबत आएगी, तो “तुम्हारे प्राचीन भगवान” तुम्हें नहीं बचा पाएंगे, तुरंत यीशु की शरण में आ जाओ. इस “ट्रिक” को दिखाने से पहले ही चर्च का नेटवर्क उन इलाकों में दवाईयाँ और आर्थिक मदद लेकर धर्मांतरण की पृष्ठभूमि तैयार कर चुका होता है. दूरदराज के इलाकों में एक झोंपड़ी में मरियम “देवी”(???) की मूर्तियाँ स्थापित करना, उस मूर्ति की हार-फूल से पूजा-अर्चना भी करना, दवाई से ठीक हुए मरीज को “यीशु” की कृपा बताने जैसे कई खेल चर्च इन अनपढ़ इलाकों में करता रहता है. अर्थात धर्मान्तरण के लिए वेटिकन में स्वयं के धर्म के प्रति इतना विश्वास भी नहीं है कि वे “अपनी कोई खूबियाँ” बताकर हिंदुओं का धर्मान्तरण कर सकें, इस काम के लिए उन्हें भारतीय आराध्य देवताओं और हिन्दू संस्कृति के प्रतीक चिन्हों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. यह उनका अध्यात्मिक दिवालियापन तो है ही, साथ ही “बेवकूफ बनाने की क्षमता” का उम्दा मार्केटिंग प्रदर्शन भी है.

हिन्दू धर्म के प्रतीक चिन्हों को ईसाई धर्म में “हजम करने” (Digest) अर्थात शहरी पढ़े-लिखों को मूर्ख बनाने के प्रयास भी सतत जारी रहते हैं. पिछले कुछ वर्ष से दक्षिण के कान्वेंट स्कूलों में, भरत-नाट्यम और मोहिनी-अट्टम जैसे परम्परागत भारतीय नृत्यों पर जो बच्चे मंच प्रदर्शन करते हैं, उन नृत्यों में जो गीत या बोल होते हैं, वे यीशु के चमत्कारों की प्रार्थना के बारे में होते हैं, अर्थात आने वाले कुछ वर्षों में बच्चों के मन पर यह बात स्थापित कर दी जाएगी, कि वास्तव में भरत नाट्यम, प्रभु यीशु की तारीफ़ में किया जाने वाला नृत्य है. इसी प्रकार दक्षिण के कुछ चर्च परिसरों में “दीप-स्तंभ” स्थापित करने की शुरुआत भी हो चुकी है. क्या “दीप-स्तंभ” की कोई अवधारणा, बाइबल के किसी भी अध्याय में दिखाई गई है? नहीं...| लेकिन चूँकि हिंदुओं को ईसाई धर्म की ओर आकर्षित करने के लिए जो मार्केटिंग तकनीक चाहिए, उसमें विशुद्ध ईसाई प्रतीक काम नहीं आने वाले, इसलिए हिन्दू प्रतीकों को, तोड़-मरोड़कर, विकृत करके अथवा उन प्रतीकों को ईसाई धर्म के मुकाबले निकृष्ट बताकर ही “मार्केटिंग” की जा सकती है... और यही किया भी जा रहा है. इसीलिए धर्मान्तरित होने के पश्चात उस पहली पीढ़ी के हिंदुओं के मूल नाम भी नहीं बदले जाते. राजशेखर रेड्डी का नाम हिन्दू ही बना रहता है, ताकि हिंदुओं को आसानी से मूर्ख बनाया जा सके इसी प्रकार धीरे-धीरे “अनिल विलियम” का पुत्र अगली पीढ़ी में “जोसेफ विलियम” बन जाता है, और एक चक्र पूरा होता है.

वास्तव में हकीकत यही है कि हिन्दू धर्म के मुकाबले में, चर्च के पास ईसाई धर्म को “शो-केस” करने के लिए कोई जोरदार सकारात्मक प्रतीक है ही नहीं. हिन्दू धर्म ने कभी भी “पुश-मार्केटिंग” के सिद्धांत पर काम ही नहीं किया, जबकि वेटिकन धर्मांतरण के लिए इस मार्केटिंग सिद्धांत का जमकर उपयोग करता रहा है, चाहे वह अफ्रीका हो अथवा चीन. जैसा कि हालिया सर्वे से उजागर हुआ है, पश्चिम में ईसाई धर्म के पाखंडी स्वभाव तथा आध्यात्मिक दिवालिएपन की वजह से “Atheists” (नास्तिकों) की संख्या तेजी से बढ़ रही है. चूँकि दक्षिण एशिया में गरीबी अधिक है, और हिन्दू धर्म अत्यधिक सहिष्णु और खुला हुआ है, इसलिए वेटिकन का असली निशाना यही क्षेत्र है.

BJP Needs Introspection and New Strategy

Written by बुधवार, 29 मई 2013 12:48

भाजपा को गहन आत्ममंथन और नई रणनीति की जरूरत...

कर्नाटक विधानसभा के चुनाव नतीजे आ गए, और परिणाम वही हुआ जिसका अंदेशा जताया जा रहा था. येद्दियुरप्पा भले ही खुद की पार्टी का कोई फायदा ना कर पाए हों, लेकिन अपनी “ताकत” दिखाकर उन्होंने उस भाजपा को राज्य में तीसरे स्थान पर धकेल दिया, जिस राज्य में भाजपा का कमल खिलाने में उन्होंने अपने जीवन के चालीस साल लगाए थे. 

इससे कुछ महीने पहले भी भाजपा के हाथ से उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जा चुके हैं. अब आज की तारीख में भाजपा के पास कुल मिलाकर सिर्फ तीन राज्य बचे हैं – मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात. देश के अन्य राज्यों में भाजपा कहीं-कहीं टुकड़ों में इधर-उधर बिखरी हुई दिखाई दे जाती है, लेकिन वास्तव में देखा जाए तो फिलहाल भाजपा के पास सिर्फ तीन राज्य हैं, जहाँ लोकसभा की लगभग साठ सीटें ही हैं. भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के सामने असली सवाल यही है कि क्या सिर्फ ६० सीटों के बल पर केन्द्र में सत्ता पाने का सपना देखना जायज़ है? “बिल्ली के भाग्य से छींका टूटेगा और सारा मक्खन अपने-आप उसके मुँह में आ गिरेगा” जैसी मानसिकता के बल पर राजनीतिक घमासान नहीं किए जाते हैं. 

तीन प्रदेशों की इस हार में मूलतः दो सवाल हैं – १) जब कोई टीम मैच हारती है तो सामान्यतः चयनकर्ता-प्रबंधन अथवा टीम का कप्तान अपने पद से या तो इस्तीफ़ा देते हैं या फिर समूची टीम में आमूलचूल परिवर्तन करके उसे ठीक किया जाता है. पहला सवाल इसी से जुड़ा है – लगातार तीन हार (उत्तराखंड, हिमाचल और कर्नाटक) के बाद क्या भाजपा की केन्द्रीय टीम या प्रबंधकों में से किसी ने हार की जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए अपना पद त्याग किया है? सिर्फ दिखावे के लिए चार घंटे की मंथन बैठक से कुछ नहीं होता, सीधी बात यह है कि क्या इस हार की जिम्मेदारी सिर्फ राज्य स्तर के नेताओं की है? क्या टीम में बदलाव का समय नहीं आ गया है?

दूसरा सवाल भी इसी से जुड़ा है – एक मिसाल के रूप में कहें तो रिक्शा को खींचने के लिए उसके टायरों में हवा भरी होनी चाहिए, बाहर चलने वाली हवा चाहे तूफ़ान ही क्यों ना हो वह उस रिक्शे को नहीं चला सकती. इसी प्रकार जब तक भाजपा के टायरों में सही ढंग से हवा नहीं भरी जाएगी, तब तक पार्टी की गाड़ी चलने वाली नहीं है. यहाँ पर टायरों में हवा का अर्थ है, कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार करना. वर्तमान में तो भाजपा की हालत यह है कि कई राज्यों में या तो इसके तीनों टायरों (केन्द्र-राज्य-कार्यकर्ता) में कहीं हवा ही नहीं है, जबकि कहीं-कहीं तो तीनों टायरों की दिशा भी एक-दूसरे से विपरीत है. इसका सबसे बेहतर उदाहरण उत्तराखंड और कर्नाटक ही रहे. उत्तराखंड में निशंक-खंडूरी-कोश्यारी ने आपस में ऐसी घमासान मचाई कि काँग्रेस के रावत-बहुगुणा का घमासान भी शर्मा जाए... ऐसा ही कुछ कर्नाटक में भी किया गया, जहाँ पहले दिन से ही येद्दियुरप्पा, दिल्ली में बैठे अनंत कुमार की आँखों की किरकिरी बने रहे, रेड्डी बंधुओं को सुषमा स्वराज का आशीर्वाद मिलता रहा और वे कर्नाटक को बेदर्दी से लूटते रहे. जिसका ठीकरा फूटा येद्दियुरप्पा के माथे पर, जिन्हें संतोष हेगड़े ने बड़ी सफाई से दोषी साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. बाकी का काम दिल्ली में बैठे हवाई नेताओं ने कर दिया और एक जमीनी नेता येद्दियुरप्पा को तब तक लगातार अपमानित करते रहे, जब तक कि उन्होंने नई पार्टी का गठन नहीं कर लिया. “नैतिकता के ठेकेदार” बनने का तो सिर्फ दिखावा भर था, असली मकसद था येद्दियुरप्पा को ठिकाने लगाना. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने के बावजूद येद्दियुरप्पा को दोबारा सत्ता नहीं सौंपी गई. 


कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तराखंड और कर्नाटक के मामले कोई नए नहीं हैं. दिल्ली में बैठे हवाई भाजपा नेताओं ने इसके पहले भी अक्सर जमीनी पकड़ वाले लोकप्रिय क्षेत्रीय भाजपा नेताओं को टंगड़ी मारकर गिराने में खासी दिलचस्पी दिखाई है. फिर चाहे वह कल्याण सिंह हों, चाहे उमा भारती हों या फिर मदनलाल खुराना हों. कल्याण सिंह को बाहर किया तो उत्तरप्रदेश गँवा दिया, खुराना के साथ साजिशें की तो दिल्ली अभी तक हाथ नहीं आया, बाबूलाल मरांडी के साथ सौतेला व्यवहार किया तो झारखंड भी हाथ से निकल ही गया... अब येद्दियुरप्पा का अपमान करके कर्नाटक भी अगले दस साल के लिए त्याग ही दिया है. इसके बावजूद भाजपा के किसी केन्द्रीय नेता ने आगे बढकर यह नहीं कहा कि, “हाँ यह हमारी जिम्मेदारी थी और अब हमें पार्टी और पार्टी की विचारधारा में आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत है...”. बस जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने दिया जा रहा है, जबकि लोकसभा चुनाव सिर पर आन खड़े हुए हैं...

जैसा कि मैंने अपने एक अन्य लेख में पहले भी लिखा था, कि जहाँ एक तरफ कई राजनैतिक दलों ने आगामी लोकसभा चुनावों के लिए ना सिर्फ अपना एजेंडा तय कर लिया है, उस पर काम भी शुरू कर दिया है. और तो और कुछ पार्टियों के उम्मीदवार भी छः माह पहले ही तय हो चुके हैं, ताकि उस उम्मीदवार को अपने इलाके में काम करने का पर्याप्त मौका मिले. और इधर भाजपा के क्या हाल हैं?? काँग्रेस बेहद शातिर पार्टी है, इसके बावजूद प्रमुख विपक्षी दल होने के बावजूद भाजपा में मुर्दनी छाई हुई है. उम्मीदवार तय करना तो बहुत दूर की बात है, अभी तो पार्टी यही तय नहीं कर पाई है कि वह २०१४ के आम चुनाव में किस प्रमुख एजेंडे पर फोकस करेगी? या तो भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व देश की जनता का मूड भाँपने में गलती कर रहा है, अथवा जानबूझकर इस बात टाले जा रहा है कि सामान्य लोग चाहते हैं कि भाजपा स्पष्ट रूप से यह कहे कि वह नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करती है. लेकिन आपसी खींचतान, आलस्य और मोदी के व्यक्तित्व का खौफ(?) भाजपा-संघ के बड़े नेताओं को त्वरित निर्णय लेने से रोक रहा है. सिर्फ साठ सीटों के प्रभुत्व वाले तीन राज्यों में सत्ता होने के बावजूद भाजपा सोच रही है कि वह ऊलजलूल गठबंधन करके, काँग्रेस के भ्रष्टाचार को हराने में सक्षम हो जाएगी. जबकि कर्नाटक और हिमाचल में जनता ने बता दिया है कि उन्हें भ्रष्टाचार से कोई परहेज नहीं है. उन्हें “काम करने” वाला नेता चाहिए, पार्टी की स्पष्ट नीतियाँ चाहिए. भाजपा दोनों ही मोर्चों पर ढुलमुल रवैया और काहिली का शिकार पड़ी हुई है. ना तो भाजपा यह तय कर पा रही है कि – १) वह मोदी को आगे करेगी या नहीं... २) न ही वह ये तय कर पा रही है कि वह काँग्रेस के भ्रष्टाचार, कुशासन और लूट को प्रमुख मुद्दा बनाएगी या हिंदुत्व के रास्ते पर चलेगी, और ३) न ही पार्टी अभी तक यह निश्चित कर सकी है कि वह गठबंधन करके फायदे में रहेगी कि नुकसान में, इसलिए क्या उसे NDA भंग करके अकेले चुनाव लड़ना चाहिए या नीतीश-पटनायक-ममता-जयललिता के “सदाबहार ब्लैकमेल” सहते हुए कोढ़ी की तरह घिसटते रहना है.... कुल मिलाकर चहुँओर अनिर्णय और भ्रम की स्थिति बनी हुई है... ऐसी स्थिति में भाजपाई उम्मीदवार क्या तय करेंगे. इसीलिए जो लोग चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं, वे अपने-अपने क्षेत्रों में भीतरखाने जनसंपर्क तो कर रहे हैं, लेकिन भारी “कन्फ्यूजन” के शिकार हैं कि पता नहीं उन्हें टिकट मिलेगा या नहीं. उन्हें मोदी का चेहरा आगे रखकर प्रचार करना है या सुषमा का?


यह तो हमने “रोग” देखा, जो लगभग सभी को दिख रहा है (कोई इस बारे बात कर रहा है, कोई चुपचाप तमाशा देख रहा है), रोग की पहचान के बाद अब उसके निदान और निवारण के बारे में सोचना है. ऐसे में सवाल उठता है कि भाजपा को इस “नाकारा किस्म” की स्थिति से कैसे उबरा जाए?

स्वाभाविक है कि शुरुआत शीर्ष से होनी चाहिए.  जिस तरह से आगामी राजस्थान विधानसभा चुनाव हेतु वसुंधरा राजे को पूरी तरह से “फ्री-हैंड” दिया गया है, भीतरघातियों पर समय रहते लगाम कसने की शुरुआत हो चुकी है तथा जिसे वसुंधरा पसंद नहीं हैं उन्हें बाहर का रास्ता नापने का अदृश्य सन्देश दिया जा चुका है, ठीक इसी प्रकार की स्थिति केन्द्रीय स्तर पर भी होनी चाहिए. एक बार मन पक्का करके ठोस निर्णय लिया जाना चाहिए कि “सिर्फ नरेंद्र मोदी ही भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे”, जिस गठबंधन सहयोगी को कोई आपत्ति हो, वे अपनी राह चुनने के लिए स्वतन्त्र हैं. (देखना दिलचस्प होगा कि, कौन-कौन NDA छोड़कर जाता है और कहाँ जाता है). भाजपा की स्थिति मप्र-गुजरात और छत्तीसगढ़ में इसीलिए मजबूत है क्योंकि वहाँ शिवराज-मोदी और रमण सिंह के सामने पार्टी में अंदरूनी चुनौती या आपसी सिर-फुटव्वल बहुत कम है.

दूसरा कदम यह होना चाहिए कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को यह स्वीकार करना होगा कि उसने  राज्यों के मजबूत क्षेत्रीय क्षत्रपों की टांग खींचकर सबसे बड़ी गलती की है. गलती स्वीकार करने से व्यक्ति का बड़प्पन ही प्रदर्शित होता है. सभी राज्यों के शक्तिशाली क्षेत्रीय नेताओं को मनाकर, समझा-बुझाकर पार्टी में वापस लाना होगा. उनकी जो भी माँगें हो उन्हें मानने में कोई बुराई नहीं है, क्योंकि वे अपनी शक्ति और जनाधार का साफ़-साफ़ प्रदर्शन कर चुके हैं. ऐसे क्षेत्रीय नेताओं की ससम्मान पार्टी में वापसी होनी चाहिए.


तीसरा उपाय यह है कि – जब देश की पैंतालीस प्रतिशत से अधिक आबादी चालीस वर्ष से कम आयु की है, और २०१४ के चुनाव में १८ से २५ वर्ष के लाखों नए मतदाता जुड़ने वाले हैं, ऐसी स्थिति में पार्टी के अधिक से अधिक युवा और फ्रेश चेहरों वाले नेताओं को आगे लाना जरूरी है, बशर्ते वे “परिवारवाद” की बदौलत उच्च स्तर पर पहुंचें हुए ना हों. जिस प्रकार महाराष्ट्र में साफ़-सुथरी छवि वाले युवा नेता फडनवीस को भाजपा अध्यक्ष बनाया गया है, ऐसी ही ऊर्जा का संचार देश के अन्य राज्यों में भी होना चाहिए (खासकर उन राज्यों में जहाँ भाजपा लगभग जीरो है, जहाँ भाजपा को एकदम शून्य से शुरुआत करना है, ऐसे राज्यों में युवा नेतृत्व को फ्री-हैंड देने से जमीनी हालात बदल सकते हैं).

ज़रा याद कीजिए कि भाजपा ने किसी प्रमुख मुद्दे पर कोई तीव्र आंदोलन कब किया था? तीव्र आन्दोलन का मतलब है दिल्ली सहित सभी राज्यों के प्रमुख नगरों में रैलियां-धरने-पोस्टर और आक्रामक बयान. मुझे तो याद नहीं पड़ता कि भाजपा के बैनर तले किसी बड़े आंदोलन का संचालन पिछले ४-५ साल में कभी ठीक ढंग से किया गया हो. अन्ना आंदोलन या बाबा रामदेव के आंदोलन में संघ के कार्यकर्ता सक्रिय रूप से (लेकिन परदे के पीछे से) शामिल थे और दोनों ही आंदोलन परवान भी चढ़े, परन्तु “खालिस कमल छाप झण्डा” लिए हजारों-हजार कार्यकर्ता पिछली बार सड़कों पर कब उतरे थे?? सिर्फ दिल्ली के पाँच सितारा प्रेस क्लबों में बैठकर टीवी-अखबार रिपोर्टरों के सामने बयान पढ़ देने या वक्तव्य जारी करने से रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि राष्ट्रीय मीडिया में भाजपा से जुड़ी सकारात्मक ख़बरों या प्रदर्शनों का प्रभाव-दबाव और झुकाव नहीं के बराबर है. ऐसा लगता है कि “मीडिया बिकाऊ होता है” जैसे सर्वव्यापी और विश्वव्यापी तथ्य को भाजपा के नेता मानते ही नहीं हैं. इस बिंदु का तात्पर्य यह है कि जब मीडिया साफ़-साफ़ आपके विरोध में हों तथा काँग्रेस अथवा “खोखली धर्मनिरपेक्षता” जैसे फालतू मुद्दों के पक्ष में खुलेआम लिखता-बोलता हो, तो यह पहल भाजपा नेताओं को ही करनी पड़ेगी कि आखिर किस प्रकार मीडिया उनकी “सकारात्मक ख़बरों” को दिखाए. ऐसा कुछ होता तो दिखाई नहीं दे रहा है. टीवी चैनलों पर बहस के दौरान चार-चार लोग मिलकर भाजपा के अकेले प्रवक्ता को रगड़ते रहते हैं. अखबारों और टीवी समाचारों में ही देखिए कि यदि टीआरपी की खातिर नरेंद्र मोदी के कवरेज को छोड़ दिया जाए, तो रमन सिंह या शिवराज सिंह अथवा गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर से जुड़ी सकारात्मक और विकासात्मक खबरों को कितना स्थान दिया जाता है? लगभग नहीं के बराबर. बात साफ़ है कि भाजपा के “विचार-समूहों” को मीडिया और प्रेस के बयानों, बहस और कवरेज प्राप्त करने संबंधी नीतियों में बड़े बदलाव की आवश्यकता है, भाजपा का “लचर किस्म का मीडिया प्रबंधन” वाकई गहरी चिंता का विषय है.

ध्यान देने वाली बात है कि हाल ही में केन्द्र सरकार ने मीडिया पर “भारत निर्माण” के विज्ञापनों की खैरात जमकर बाँटना शुरू कर दिया है. आगामी कुछ माह में पाँच राज्यों के चुनाव होने वाले हैं, जिसमें से तीन (राजस्थान, दिल्ली और महाराष्ट्र) कांग्रेस के पास हैं और दो (मप्र और छग) भाजपा के पास. पहले वाले तीन राज्यों में देखें तो दिल्ली में केजरीवाल काँग्रेस की मदद करेंगे और शीला की वापसी होगी... महाराष्ट्र में जब तक सेना-भाजपा-मनसे का “महागठबंधन” नहीं होता, तब तक पवार-चव्हाण को हटाना असंभव है, यहाँ राज ठाकरे अपनी ताकत दिखाने पर आमादा हैं इसलिए यह महागठबंधन आकार लेगा कि नहीं इसमें शंका ही है... अब बचा राजस्थान जहाँ पर मामला डाँवाडोल है, कुछ भी हो सकता है. जबकि बाकी के दोनों भाजपा शासित राज्यों में छत्तीसगढ़ को अकेले रमन सिंह की साफ़ छवि और अजीत जोगी जैसे हरल्ले काँग्रेसी नेताओं के कारण भाजपा की जीत की संभावना काफी अधिक है. ठीक इसी प्रकार मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह की छवि, काम और आपसी गुटबाजी नहीं होना ही जीत का कारण बन सकता है, हालांकि यहाँ भी मंत्रियों के भ्रष्टाचार और ज्योतिरादित्य सिंधिया की साफ़ छवि, भाजपा की गाड़ी को पंचर कर सकती है. अतः भारत-निर्माण के विज्ञापनों की “टाईमिंग” देखते हुए संभव है कि, यदि इन विधानसभा चुनावों में काँग्रेस खुद के शासन वाले तीनों राज्यों में सत्ता में वापस आ जाती है, तो उसकी लहर पर सवार होकर जनवरी-फरवरी में ही लोकसभा चुनाव में उतर जाए.


अब सोचिये कि अपना घर ठीक करने के लिए भाजपा के पास कितना वक्त बचा है, और आलम यह है कि प्रत्येक राज्य में भाजपा के नेता आपसी गुटबाजी, सिर-फुटव्वल और टांग-खिंचाई में लगे हुए हैं. उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में संगठन निष्प्राण पड़ा हुआ है. बिहार में कार्यकर्ता “कन्फ्यूज” हैं कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे या नहीं, पार्टी नीतीश के सामने कितने कोण तक झुकेगी? दक्षिण के चारों राज्यों तथा पूर्व में बंगाल-उड़ीसा में पार्टी की क्या दुर्गति है, यह सभी जानते हैं. ऐसे में जयललिता-ममता-नवीन पटनायक-अकाली-नीतीश जैसे क्षेत्रीय दल मजबूत होकर उभरेंगे और जमकर अपनी कीमत वसूलेंगे. इसलिए भाजपा को अवास्तविक सपने देखना बंद करना चाहिए, २०० सीटें (अधिकतम) का लक्ष्य निर्धारित करते हुए सीट-दर-सीट चुनावी प्रबंधन में जुट जाना चाहिए.

अंत में संक्षेप में कहा जाए तो भाजपा के पास अब अधिक विकल्प बचे ही नहीं हैं. पार्टी को युद्ध स्तर पर चुनावी रणनीति में भिड़ना होगा. केन्द्र में सत्ता पाने के लिए तत्काल कुछ कदम उठाने जरूरी हो गए हैं – जैसे नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी पर स्पष्ट रूख (चाहे नतीजा जो भी हो), राज्यों में आपसी खींचतान कर रहे नेताओं में से वास्तविक जमीनी नेता की पहचान कर उसका पूरा साथ देना और असंतुष्टों को समय रहते लात मारकर बाहर करना, जिन राज्यों में भाजपा जीरो है वहाँ बिना कोई गठबंधन किए अपना संगठन खड़ा करना... देवेन्द्र फडनवीस, मीनाक्षी लेखी, स्मृति ईरानी, जैसे युवाओं को मीडिया में अधिकाधिक एक्सपोजर देना तथा अंतिम लेकिन सबसे जरूरी, By Hook or Crook (यानी येन-केन-प्रकारेण) मीडिया में भाजपा-मोदी-संघ की सकारात्मक ख़बरों को ही अधिक स्थान मिले, इस दिशा में प्रयास करना.

अभी भी समय है, यदि भाजपा इन बिंदुओं पर सक्रियता से काम करे, गुटबाजी खत्म करे और स्पष्ट “विचारधारा” के लिए काम करे, तो २०० सीटों का जादुई आँकड़ा प्राप्त किया जा सकता है. यह आँकड़ा प्राप्त कर लेने के बाद ना “साम्प्रदायिकता” कोई मुद्दा रह जाएगा और ना ही नरेंद्र मोदी राजनैतिक अछूत रह जाएंगे. तमाम क्षेत्रीय दल घुटनों-घुटनों तक लार टपकाते हुए अपने-आप भाजपा के पीछे आएँगे. परन्तु सवाल यही है कि रोग तो दिखाई दे रहा है, उसका निदान भी समझ में आ रहा है, परन्तु रोगी पर दवाओं की आजमाईश करने वाले चिकित्सक सुस्त पड़े हों और अनिर्णय के भी शिकार हों, तो भला रोगी ठीक कैसे होगा??? यही भाजपा के साथ हो रहा है..

2014 Loksabha Elections - BJP Should Fight Alone

Written by सोमवार, 29 अप्रैल 2013 12:02


२०१४ में भाजपा को अकेले अपने दम पर ही चुनाव लड़ना चाहिए

कहावत है कि “यदि किसी पार्टी में जनता का मूड भाँपने का गुर नहीं है और निर्णयों को लेकर उसकी टाइमिंग गलत हो जाए, तो उसका राजनैतिक जीवन मटियामेट होते देर नहीं लगती...” कितने लोगों को यह याद है कि देश का प्रमुख विपक्ष कहलाने वाली भाजपा ने “अपने मुद्दों”, “अपनी रणनीति” और “अपने दमखम” पर अकेले लोकसभा का चुनाव कब लड़ा था?? जी हाँ... 1989 से लेकर 1996 (बल्कि 1998) तक आठ-नौ साल भाजपा ने अपने बूते, अपने चुने हुए राष्ट्रवादी मुद्दों और अपने जमीनी कैडर की ताकत के बल पर उस कालखंड में हुए सभी लोकसभा चुनाव लड़े थे. सभी लोगों को यह भी निश्चित रूप से याद होगा कि वही कालखंड “भाजपा” के लिए स्वर्णिम कालखंड भी था, पार्टी की साख भी जनता (और उसके अपने कार्यकर्ताओं) के बीच बेहतरीन और साफ़-सुथरी थी. साथ ही उस दौरान लगातार पार्टी की ताकत दो सीटों से बढते-बढते १८४ तक भी पहुँची थी. देश की जनता के सामने पार्टी की नीतियां और नेतृत्व स्पष्ट थे. 


उसके बाद आया 1998... जब काँग्रेस से सत्ता छीनने की जल्दबाजी और बुद्धिजीवियों द्वारा सफलतापूर्वक “गठबंधन सरकारों का युग आ गया है” टाइप का मिथक, भाजपा के गले उतारने के बाद भाजपा ने अपने मूल मुद्दे, अपनी पहचान, अपनी आक्रामकता, अपना आत्मसम्मान... सभी कुछ क्षेत्रीय दलों के दरवाजे पर गिरवी रखते हुए गठबंधन की सरकार बनाई... किसी तरह जयललिता, चंद्रबाबू नायडू, ममता बैनर्जी जैसे लोगों का ब्लैकमेल सहते हुए पाँच साल तक घसीटी और २००४ में विदा हो गई. वो दिन है और आज का दिन है... भाजपा लगातार नीचे की ओर फिसलती ही जा रही है. पार्टी को गठबंधन धर्म निभाने और “भानुमति के कुनबेनुमा” सरकार चलाने की सबसे पहली कीमत तो यह चुकानी पड़ी कि राम मंदिर निर्माण, समान नागरिक संहिता और धारा ३७० जैसे प्रखर राष्ट्रवादी मुद्दों को ताक पर रखना पड़ा... जिस आडवानी ने पार्टी को दो सीटों से १८० तक पहुंचाया था, उन्हीं को दरकिनार करते हुए एक “समझौतावादी” प्रधानमंत्री के रूप में वाजपेयी को चुनना पड़ा. तभी से भाजपा का जमीनी कार्यकर्ता जो हताश-निराश हुआ, वह आज तक उबर नहीं पाया है.  पिछले लगभग दस वर्ष में देश ने सभी मोर्चों पर अत्यधिक दुर्दशा, लूट और अत्याचार सहन किया है, लेकिन आज भी प्रमुख विपक्ष के रूप में भाजपा से जैसी आक्रामक सक्रियता की उम्मीद थी, वह पूरी नहीं हो पा रही थी. पिछले एक वर्ष के दौरान, अर्थात जब से नरेंद्र मोदी एक तरह से राष्ट्रीय परिदृश्य पर छाने लगे हैं, ना सिर्फ कार्यकर्ताओं में उत्साह जाग रहा है, बल्कि पार्टी की १९८९ वाली आक्रामकता भी धीरे-धीरे सामने आने लगी है.

यूपीए-१ और यूपीए-२ ने जिस तरह देश में भ्रष्टाचार के उच्च कीर्तिमान स्थापित किए हैं, उसे देखते हुए भारत की जनता अब एक सशक्त व्यक्तित्व और सशक्त पार्टी को सत्ता सौंपने का मन बना रही है. गठबंधन धर्म के लेक्चर पिलाने वाले बुद्धिजीवियों तथा टीवी पर ग्राफ देखकर भविष्यवाणियाँ करने वाले राजनैतिक पंडितों को छोड़ दें, तो देश के बड़े भाग में आज जिस तरह से निम्न-मध्यम, मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग के दिलों में काँग्रेस के प्रति नफरत का एक “अंडर-करंट” बह रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि भाजपा द्वारा २०१४ का लोकसभा चुनाव अकेले दम पर लड़ने का दाँव खेलने का समय आ गया है. 


सबसे पहले हम भाजपा की ताकत को तौलते हैं.  दिल्ली, हरियाणा, उत्तरांचल, हिमाचल, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में भाजपा अकेले दम पर काँग्रेस के साथ सीधे टक्कर में है. यहाँ लगभग सौ-सवा सौ सीटें हैं (पंजाब में अकाली दल को ना तो भाजपा और ना ही नरेंद्र मोदी से कोई समस्या है). उत्तरप्रदेश-बिहार की “जाति आधारित राजनीति” में पिछले बीस साल से चतुष्कोणीय मुकाबला हो रहा है, यहाँ भाजपा को किसी से ना तो गठबंधन करने की जरूरत है और ना ही सीटों का रणनीतिक बँटवारा करने की. इन दोनों राज्यों को मिलाकर लगभग सवा सौ सीटें हैं. और नीचे चलें, तो बालासाहेब ठाकरे के निधन के पश्चात एक “वैक्यूम” निर्मित हुआ है, इसलिए महाराष्ट्र में भाजपा को शिवसेना की धमकियों में आने की बजाय किसी सशक्त और ईमानदार प्रांतीय नेता को आगे करते हुए अकेले लड़ने का दाँव खेलना चाहिए. 

दक्षिण के चार राज्यों में से कर्नाटक में येद्दियुरप्पा ने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि कोई नेता पूरे लगन और जोश से जमीनी कार्य करता रहे, तो उसे एवं पार्टी को समय आने पर उसका फल मिलता ही है. एक तरह से कर्नाटक को हम भाजपा के लिए मेहनत और फल का एक “रोल माडल” के रूप में ले सकते हैं. अब बचे आंधप्रदेश, तमिलनाडु और केरल – तीनों ही राज्यों में भाजपा की स्थिति फिलहाल सिर्फ “वोट कटवा” के रूप में है, इसलिए इन तीनों ही राज्यों में रणनीतिक आधार पर सीट-दर-सीट काँग्रेस को हराने के लिए चाहे जिसका कंधा उपयोग करना पड़े, वह करना चाहिए. सभी क्षेत्रीय दलों से समान दूरी होनी चाहिए| खुले में तो यह घोषणा होनी चाहिए कि भाजपा अकेले चुनाव लड़ रही है, लेकिन जिस तरह से कई राज्यों में मुस्लिम वर्ग भाजपा को हराने के लिए अंदर ही अंदर “रणनीतिक मतदान” करता है, उसी तरह भाजपा के कट्टर वोटर और संघ का कैडर मिलकर दक्षिण के इन तीनों राज्यों में किसी सीट पर द्रमुक, कहीं पर जयललिता तो कहीं वामपंथी उम्मीदवार का समर्थन कर सकते हैं, लक्ष्य सिर्फ एक ही होना चाहिए कि भले ही क्षेत्रीय दल जीत जाएँ, लेकिन काँग्रेस का उम्मीदवार ना जीतने पाए, और यह काम संघ-भाजपा के इतने बड़े संगठन द्वारा आज के संचार युग में बखूबी किया जा सकता है. 

अब चलते हैं पूर्व की ओर, पश्चिम बंगाल में भाजपा की उपस्थिति सशक्त तो नहीं कही जा सकती, लेकिन वहाँ भी भाजपा को काँग्रेस-वाम-ममता तीनों से समान दूरी बनाते हुए हिन्दू वोटरों को गोलबंद करने की कोशिश करनी चाहिए. जिस तरह से पिछले कुछ वर्षों में वामपंथियों और अब ममता बनर्जी के शासनकाल में बंगाल का तेजी से इस्लामीकरण हुआ है, उसे वहाँ की जनता को समझाने की जरूरत है, और बंगाल का मतदाता बांग्लादेशी घुसपैठियों, दंगाईयों और उपरोक्त तीनों पार्टियों के कुशासन से त्रस्त हो चुका है. यदि बंगाल में भाजपा किसी “मेहनती येद्दियुरप्पा” का निर्माण कर सके, तो आने वाले कुछ वर्षों में अच्छे परिणाम मिल सकते हैं. फिलहाल २०१४ में काँग्रेस-वाम-ममता के त्रिकोण के बीच बंगाल में भाजपा का अकेले चुनाव लड़ना ही सही विकल्प होगा, नतीजा चाहे जो भी हो. उत्तर-पूर्व के राज्यों में सिर्फ असम ही ऐसा है, जहाँ भाजपा की उपस्थिति है इसलिए पूरा जोर वहाँ लगाना चाहिए. असम गण परिषद एक तरह से भाजपा का “स्वाभाविक साथी” है, इसलिए उसके साथ सीटों का तालमेल किया जाना चाहिए.

कुल मिलाकर स्थिति यह उभरती है कि यदि भाजपा हिम्मत जुटाकर अकेले चुनाव लड़ने का फैसला कर ले, तो – लगभग १५० सीटों पर भाजपा व काँग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होगा... लगभग २०० सीटों पर त्रिकोणीय अथवा चतुष्कोणीय मुकाबला होगा... जबकि दक्षिण-पूर्व की लगभग १५०-१७० सीटें ऐसी होंगी, जहाँ भाजपा के पास खोने के लिए कुछ है ही नहीं (इन सीटों पर भाजपा चाहे तो गठबंधन करते हुए, अपने वोटरों को सम्बन्धित पार्टी के पाले में शिफ्ट कर सकती है). लेकिन समूचे उत्तर-पश्चिम भारत की ३५० सीटों पर तो भाजपा को अकेले ही चुनाव लड़ना चाहिए, बिना किसी दबाव के, बिना किसी गठबंधन के, बिना किसी क्षेत्रीय दल से तालमेल के. 


यह तो हुआ सीटों और राज्यों का आकलन, अब इसी आधार पर चुनावी रणनीति पर भी बात की जाए... जैसा कि स्पष्ट है १५० सीटों पर भाजपा का काँग्रेस से सीधा मुकाबला है, इन सीटों में से अधिकांशतः उत्तर-मध्य भारत और गुजरात में हैं. यहाँ पर भाजपा का कैडर भी मजबूत है और नरेंद्र मोदी के बारे में मतदाताओं के मन में सकारात्मक हलचल बन चुकी है. सबसे महत्वपूर्ण हैं उत्तरप्रदेश और बिहार. उत्तरप्रदेश की जातिगत राजनीति का “तोड़” भी नरेंद्र मोदी ही हैं. जैसा कि सभी जानते हैं, नरेंद्र मोदी घांची समुदाय अर्थात अति-पिछड़ा वर्ग से आते हैं, इसलिए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने से उत्तरप्रदेश के जातिवादी नेता भाजपा पर “ब्राह्मणवादी” पार्टी होने का आरोप लगा ही नहीं सकेंगे. कुछ माह पहले मैंने अपने लेख में नरेंद्र मोदी को लखनऊ से चुनाव लड़वाने की सलाह दी थी, इस पर अमल होना चाहिए. लखनऊ से मोदी के चुनाव में खड़े होते ही, उत्तरप्रदेश की राजनैतिक तस्वीर में भूकंप आ जाएगा. मुसलमानों के वोटों को लुभाने के लिए सपा-बसपा और काँग्रेस के बीच जैसा घिनौना खेल और बयानबाजी होगी, उसके कारण भाजपा को हिंदुओं-पिछडों को काँग्रेस के खिलाफ एक करने में अधिक परेशानी नहीं होगी. इसके अलावा रोज़गार के सिलसिले में उत्तरप्रदेश से गुजरात गए हुए परिवारों का भी प्रचार में उपयोग किया जा सकता है, ये परिवार स्वयं ही गुजरात की वास्तविक स्थिति और बिजली-पानी-सड़क की तुलना उत्तरप्रदेश से करेंगे व मोदी की राह आसान बनती जाएगी. साम्प्रदायिक आधार पर नरेन्द्र मोदी का विरोध करके काँग्रेस-सपा-बसपा अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे, यह बात गुजरात में साबित हो चुकी है, और अब तो पढ़ा-लिखा मुसलमान भी इतना बेवकूफ नहीं रहा कि वह धर्म के आधार पर वोटिंग करे. पढ़े-लिखे समझदार मुसलमान चाहे संख्या में बहुत ही कम हों, लेकिन वे साफ़-साफ़ देख रहे हैं कि बंगाल व उत्तरप्रदेश के मुकाबले गुजरात के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति में काफी अंतर है. मुसलमान भी समझ रहे हैं कि काँग्रेस और सपा ने अभी तक उनका “उपयोग” ही किया है. इसलिए यदि मोदी को लेकर काँग्रेस तीव्र साम्प्रदायिक विभाजन करवाने की चाल चलती है, तो ऐसे चंद समझदार मुसलमान भी भाजपा के पाले में ही आएँगे. 

कमोबेश यही स्थिति बिहार में भी सामने आएगी. नीतीश भले ही अभी मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए मोदी के खिलाफ ख़म ठोंक रहे हों, लेकिन लोकसभा के चुनावों में जब काँग्रेस-लालू-पासवान मिलकर नीतीश की पोल खोलना आरम्भ करेंगे तब फायदा भाजपा का ही होगा. यहाँ भी मोदी के पिछड़ा वर्ग से होने के कारण “जातिगत” कार्ड भोथरे हो जाएंगे. असल में जिस तरह से पिछले कुछ माह में नरेंद्र मोदी ने विभिन्न मंचों का उपयोग करते हुए अपनी लोकप्रियता को जबरदस्त तरीके से बढ़ा लिया है, उसके कारण लगभग सभी राजनैतिक दलों के रीढ़ की हड्डी में ठंडी लहर दौड़ गई है. स्वाभाविक है कि अब आने वाले कुछ माह नरेंद्र मोदी पर चहुँओर से आक्रमण जारी रहेगा. लेकिन नरेंद्र मोदी जिस तरह से लोकप्रियता की पायदान चढ़ते जा रहे हैं, लगता नहीं कि नीतीश कुमार जैसे अवसरवादी क्षत्रप उन्हें रोक पाएंगे.

लगभग ३५० सीटों पर इतनी साफ़ तस्वीर सामने होने के बावजूद, भाजपा को क्षेत्रीय दलों के सामने दबने की क्या जरूरत है? नरेंद्र मोदी के नाम पर बिदक रहे शिवसेना और जद(यू) यदि गठबंधन से बाहर निकल भी जाएँ तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा? इन्हें मिलाकर बना हुआ NDA नाम का “बिजूका” तो चुनाव परिणामों के बाद भी तैयार किया जा सकता है. उल्लिखित ३५० सीटों पर प्रखर राष्ट्रवादी विचारधारा, आतंकवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ सशक्त आवाज़ तथा नरेंद्र मोदी की विकासवादी छवि को सामने रखते हुए भाजपा अकेले चुनाव लड़े तो यूपीए-२ के कुकर्मों की वजह से बुरी से बुरी परिस्थिति में भी कम से कम १८० से २०० सीटों पर जीतने का अनुमान है.  

यदि भाजपा अकेले लड़कर, कड़ी मेहनत और नरेंद्र मोदी की छवि और काम के सहारे  २०० सीटें ले आती है, तो क्या परिदृश्य बनेगा यह समझाने की जरूरत नहीं है. एक बार भाजपा की २०० सीटें आ जाएँ तो शिवसेना, जयललिता और अकाली दल तो साथ आ ही जाएंगे. साथ ही भाजपा “अपनी शर्तों पर” (यानी १९९८ की गलतियाँ ना दोहराते हुए) चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक इत्यादि से समर्थन ले सकती है. जिस प्रकार यूपीए का गठबंधन भी चुनावों के बाद ही “आपसी हितों” और “स्वार्थ” की खातिर बना था, वैसे ही भाजपा भी २०० सीटें लाकर राम मंदिर निर्माण, धारा ३७० और समान नागरिक क़ानून जैसे “राष्ट्रवादी हितों” की खातिर क्षेत्रीय दलों से चुनाव बाद लेन-देन कर सकती है, इसमें समस्या क्या है? लेकिन चुनावों से पहले ही भाजपा जैसी बड़ी पार्टी को उसके वर्तमान सहयोगी आँखें दिखाने लग जाएँ, चुनाव की घोषणा से पहले ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हेतु अपनी शर्तें थोपने लग जाएँ तो यह भाजपा के लिए ही शर्म की बात है... 

इस विश्लेषण का तात्पर्य यह है कि अब भाजपा को तमाम संकोच-शर्म झाड़कर उठ खड़े होना चाहिए, नरेन्द्र मोदी जैसा व्यक्तित्व उसके पास है, भाजपा स्पष्ट रूप से कहे कि नरेन्द्र मोदी हमारे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. NDA के जो-जो सहयोगी साथ में चुनाव लड़ना चाहते हैं वे साथ आएं, जो अलग होकर चुनाव लड़ना चाहते हैं वे अपनी राह खुद चुनें...| बाकी का सारा गठबंधन चुनाव परिणाम आने के बाद सभी की सीटों के संख्या के आधार पर किया जाएगा और उस समय भी यदि भाजपा २००-२१० सीटें ले आती है, तो सभी क्षेत्रीय दलों के लिए “हमारी शर्तों पर” दरवाजे खुले रहेंगे... स्वाभाविक है कि यदि भाजपा की सीटें कम आती हैं, तो उसे इन दलों की शर्तों के अनुसार गठबंधन करना होगा. परन्तु जैसा कि मैंने कहा, यह काम चुनाव बाद भी किया जा सकता है, जो ३५० सीटें ऊपर गिनाई गई हैं, सिर्फ उन्हीं पर फोकस करते हुए भाजपा को अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम उठाना चाहिए, देश की जनता भी अब “गठबंधन सरकारों” की नौटंकी से ऊब चुकी है. जब तक भाजपा धूल झाड़कर, हिम्मत जुटाकर राष्ट्रवादी मुद्दों के साथ स्पष्टता से नहीं खड़ी होगी, उसे जद(यू) जैसे बीस सीटों वाले दल भी अपने अंगूठे के नीचे रखने का प्रयास करते रहेंगे. जब एक बार पार्टी को बैसाखियों की आदत पड़ जाती है, तो फिर वह कभी भी अपने पैरों पर नहीं खड़ी हो सकती... नीतीश-शिवसेना जैसी बैसाखियाँ तो चुनाव परिणामों के बाद भी लगाई जा सकती हैं, नरेंद्र मोदी की विराट छवि के बावजूद, अभी इनसे दबने की क्या जरूरत है?? यदि "अपने अकेले दम" लड़ते हुए पर २०० सीटें आ गईं तो क्षेत्रीय दलों के लिए मोदी अपने-आप सेकुलर बन जाएंगे... और यदि २०० से कम सीटें आती हैं तो फिर पटनायक-नीतीश-जयललिता-मायावती-ममता (यहाँ तक कि पवार भी) सभी के लिए अपने दरवाजे खोल दो... उसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन फिलहाल चुनाव अकेले लड़ो... 

लाख टके का सवाल यही है कि क्या भाजपा-संघ का नेतृत्व (यानी आडवाणी-सुषमा-जेटली की तिकड़ी) अकेले चुनाव लड़ने संबंधी “बाजी” खेलने की हिम्मत जुटा पाएगा???

Why India Want ONLY Narendra Modi....

Written by शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013 20:11


भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों चाहिए???

कुछ दिनों पहले की ही बात है, नरेंद्र मोदी दिल्ली में FICCI के महिला सम्मेलन को संबोधित करने वाले थे. उस दिन सुबह से ही लगभग प्रत्येक चैनल पर यह बहस जारी थी, कि “आज नरेंद्र मोदी क्या कहेंगे?”, “क्या नरेन्द्र मोदी, राहुल “छत्तेवाला” के तीरों का जवाब देंगे?”. हाल के टीवी इतिहास में मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी एक राज्य के मुख्यमंत्री के होने वाले भाषण से पहले चैनलों पर इतनी उत्सुकता दिखाई गई हो? इतनी उत्सुकता मनमोहन सिंह के १५ अगस्त के भाषण से पहले कभी देखी है??... उस दिन सभी चैनलों ने नरेंद्र मोदी का पूरा भाषण बिना किसी ब्रेक के दिखाया, जो अपने-आप में अदभुत बात थी... 



आज की तारीख में भारत के राजनैतिक माहौल में अगर कोई शख्स, हर वक्त और सबसे ज्यादा चर्चा में रहता है तो वे हैं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी। भारत के इतिहास में संभवतः ऐसा कभी नहीं हुआ होगा कि एक राज्य का मुख्यमंत्री होने के बावजूद केंद्र की सत्ता से लेकर, गली-मोहल्ले के सामान्य व्यक्ति भी नरेंद्र मोदी पर अपनी नजरें गड़ाए रखते हों। जो व्यक्ति टीवी पर भाषण देने आता है तो चैनलों की टीआरपी अचानक आसमान छूने लगती है, जिस प्रकार रामायण के प्रसारण के समय लोग टीवी पर नज़रें गड़ाए बैठे रहते थे, वैसे ही आज जब भी नरेंद्र मोदी किसी मंच से भाषण देते हैं तो उनके विरोधी भी मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते हैं... कि नरेंद्र मोदी क्या बोलने वाले हैं...? मोदी किस नीति पर बल देंगे?  या फिर नरेंद्र मोदी के मुँह से कोई विवादास्पद बात निकले, तो वे उसे लपक लें, ताकि भाषण के बाद होने वाली टीवी बहस में उसकी चीर-फाड़ की जा सके.... क्या किसी और पार्टी में ऐसा प्रभावशाली वक्ता और दबंग व्यक्तित्व है?? जवाब है... नहीं!!

बात साफ़ है, नरेंद्र मोदी इस समय देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. हाल के तमाम सर्वे से यह बात जाहिर होती है। यहां तक कि कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हों या सोनिया गांधी अथवा राहुल गाँधी. भाजपा की तरफ से कोई भी नेता लोकप्रियता में उनके आसपास नहीं टिकता. यहाँ तक कि गोवा और छत्तीसगढ़ के सफल और लोकप्रिय भाजपाई मुख्यमंत्रियों को भी कुछ जागरूक नागरिक तस्वीरों से भले ही पहचान लें, परन्तु उनके नाम याद करने में दिमाग पर जोर डालना पड़ता है, परन्तु नरेंद्र मोदी की बात ही और है... आज प्रत्येक नौजवान की ज़बान पर मोदी का नाम है, “नमो-नमो” का जादू चल रहा है. प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी लोगों की पहली पसंद हैं. अधिकाँश सर्वे में भी यही बात सामने आई है. नीलसन सर्वे के साथ किए गए एक न्यूज चैनल के सर्वे के मुताबिक मोदी को 48 फीसदी लोगों ने प्रधानमंत्री पद के लिए पहली पसंद बताया, जबकि महज सात फीसदी लोगों की पसंद मनमोहन सिंह हैं। सर्वे में कोई दूसरा नेता मोदी के आसपास नहीं दिखता। वहीं एक न्यूज साइट पर कराए गए ओपन सर्वे में 90 फीसदी लोगों ने मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी पहली पसंद बताया।

वास्तव में बात यह है कि नरेंद्र मोदी आम लोगों से जुड़े नेता हैं। ये बात भाजपा के कई दूसरे नेताओं के लिए भी कही जा सकती है, लेकिन सवाल प्रधानमंत्री पद के दावेदारों का है। दावेदारों के नाम गिनाना आरम्भ करें तो, उनमें से कई तो पार्टी को मिलने वाली सीटों के आधार पर ही छंट जाएंगे (जैसे कि नीतीश कुमार)... या फिर वह राजनैतिक हस्ती आम इंसान की तरह जिंदगी गुजारते हुए इतने ऊंचे ओहदे तक नहीं पहुंचे होंगे (अर्थात राहुल गांधी, जिन्हें “विरासत” में कुर्सी और समर्थकों की भीड़ मिली है), या फिर वो आम लोगों से जुड़े नेता नहीं होंगे (अर्थात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिनका न तो आम आदमी से कोई लेना-देना है, और ना ही चुनावी राजनीति से. बल्कि यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा, कि पहली बार दस साल तक देश का प्रधानमंत्री ऐसा व्यक्ति रहा, जो लोकसभा में चुना ही नहीं गया... )।





चुनाव के परिणाम नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को और पुख्ता करते हैं। लगातार तीन बार उन्होंने गुजरात का चुनाव भारी बहुमत से जीता है। विपक्ष द्वारा पूरी ताकत लगाने, मीडिया के नकारात्मक रवैये और विभिन्न विदेश पोषित संगठनों के दुष्प्रचार के बावजूद मोदी का कद बढ़ा ही है. यही नरेंद्र मोदी की मजबूती है. मोदी ने स्वयं को युवाओं से जोड़ने में भी कामयाबी हासिल की है। कई सर्वे से यह बात सामने आई है कि इस समय देश का एक बड़ा तबका युवाओं का है, जिनके लिए बेरोजगारी, विकास, महंगाई और भ्रष्टाचार एक बडा मुद्दा है। मोदी इन मुद्दों को एक विजन के साथ पेश करते हैं। दिल्ली के श्रीराम कॉलेज में मोदी के भाषण में इसकी झलक दिखाई पड़ी, जहाँ युवा वर्ग ने मोदी को हाथोंहाथ लिया था.

एक समय था, जब राहुल गाँधी राजनीति में नए-नए आये थे, उस समय महिलाओं और कमसिन लड़कियों को राहुल गाँधी के चेहरे की मासूमियत और गालों के डिम्पल बड़े भाते थे, परन्तु जैसे-जैसे राहुल गाँधी की वास्तविकताएं महिलाओं से सामने आने लगीं, जिस प्रकार एक के बाद एक उप्र-बिहार में राहुल ने काँग्रेस का बेड़ा गर्क किया और विशेषकर दिल्ली रेप हो या रामलीला मैदान हो, केजरीवाल का आंदोलन हो या तेलंगाना का मुद्दा, राहुल गाँधी ने कभी जनता के सामने आकर अपनी बुद्धिमत्ता(?) का परिचय नहीं दिया. देश की जनता जानती ही नहीं कि देश की ज्वलंत समस्याओं पर राहुल का क्या रुख है? जबकि नरेंद्र मोदी हर वक्त आम जनता से जुड़े रहते हैं। चाहे वो सोशल नेटवर्किंग साइट ही क्यों न हो, इंटरव्यू के लिए बड़ी आसानी से उपलब्ध रहते हैं। गुजरात जैसे राज्य का मुख्यमंत्री होने के बावजूद कॉलेज हो या यूनिवर्सिटी, हर जगह के लिए न सिर्फ उपलब्ध होते हैं, बल्कि उनकी इस व्यस्तता के बावजूद सरकारी कामकाज में भी कोई फर्क नहीं पड़ता। अब तो नरेंद्र मोदी युवाओं के साथ-साथ, महिलाओं में भी उतने ही लोकप्रिय हैं. Open/C-Voter के सर्वे से साफ है कि राहुल की तुलना में मोदी न सिर्फ पुरुष वोटरों की पसंद हैं बल्कि धीरे-धीरे ज्यादातर महिलाओं ने भी मोदी पर ही भरोसा जताया है। हाल ही में महिला उद्यमियों के मंच FICCI में दिए गए अपने भाषण से नरेंद्र मोदी ने महिलाओं पर जादू तो कर ही दिया, अपने साथ-साथ “जसूबेन का पिज्जा” को भी लोकप्रिय बना दिया. एक महिला ने तो खुलेआम टीवी बहस में यह भी कह डाला कि राहुल गाँधी “बचकाने” किस्म के लगते हैं, जबकि नरेंद्र मोदी जब बोलते हैं तो “पिता-तुल्य” प्रतीत होते हैं. हर उम्र के लोगों में नरेंद्र मोदी ज्यादा लोकप्रिय है। Open/C-Voter के सर्वे में युवाओं के साथ-साथ अधेड़ों और वृद्धजनों पर भी सर्वे किया गया था। मोदी लगभग सारे आयु समूहों में कमोबेश लोकप्रिय हैं।





स्थिति यह है कि अब निश्चित हो चुका है कि 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस खुलकर राहुल गांधी पर दांव खेलने का फैसला कर चुकी है, वहीं बीजेपी की तरफ से फिलहाल मोदी की दावेदारी मजबूत है। यदि इन दोनों की ही तुलना कर ली जाए तो राहुल की तुलना में मोदी ज्यादा लोगों की पसंद हैं। एक न्यूज चैनल के साथ कराए गए नीलसन सर्वे के मुताबिक देश की 48 फीसदी जनता ने अगर मोदी को पहली पसंद बताया तो महज 18 फीसदी जनता राहुल के साथ नजर आई। वहीं इंडिया टुडे पत्रिका ने भी 12,823 लोगों से बातचीत के आधार पर एक सर्वे किया। इसमें भी प्रधानमंत्री पद के लिए 36 फीसदी लोगों की पसंद मोदी थे, जबकि महज 22 फीसदी लोगों ने राहुल को अपनी पहली पसंद बताया। बाकी कई चैनलों के सर्वे का भी यही हाल है।

सबसे बड़ी बात यह है कि नरेंद्र मोदी में “कठोर निर्णय क्षमता” है, वे बिना किसी दबाव के फैसले ले सकते हैं, उनमें एक विशिष्ट किस्म की “दबंगई” है। गुजरात में उन्होंने कई-कई बार संघ-विहिप के नेताओं की बातों को दरकिनार करते हुए, अपने मनचाहे निर्णय लागू किए हैं. क्या प्रधानमंत्री के दावेदारों में किसी दूसरे नेता के लिए हम यह  बात कह सकते हैं? मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व का आलम ये है कि जेडीयू सांसद जय नारायण निषाद ने, न सिर्फ मोदी को खुला समर्थन दे दिया, बल्कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपने घर में दो दिनों का यज्ञ करवाया। इससे मोदी की लोकप्रियता का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। नरेंद्र मोदी को संघ का भी पूरा समर्थन हासिल है। ये सब कुछ जानते हुए भी कि मोदी की कार्यशैली संघ की कार्यशैली से बिल्कुल अलग है। खुद मोदी के नेतृत्व में गुजरात में संघ उतना प्रभावशाली नहीं रहा तथा नरेंद्र मोदी ने गुजरात में विहिप और बजरंग दल को भी “आपे से बाहर” नहीं जाने दिया है. 





नरेंद्र मोदी को चाहने की दूसरी बड़ी वजह है कि - मोदी पर आज तक व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का कभी कोई आरोप नहीं लगा. हालांकि उनके विरोधी उनके द्वारा रिलायंस, अदानी और एस्सार समूहों को दी जाने वाली रियायतों पर सवाल उठाते हैं, लेकिन उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं होता कि आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में खुद केंद्र सरकार ने न जाने कितनी विदेशी कंपनियों को तमाम तरह की कर रियायतें और मुफ्त जमीनों से उपकृत किया है. महज एक राज्य का मुख्यमंत्री होने के बावजूद मोदी ने गुजरात मॉडल को पूरी दुनिया के सामने पेश किया, सूरत जैसे शहरों का रखरखाव हो या अहमदाबाद की BRTS सड़क योजना हो, नहरों के ऊपर बनाए जाने वाले सोलर पैनलों से बिजली निर्माण हो, सरदार सरोवर से कच्छ तक पानी पहुँचाना हो... हर तरफ उनके काम की वाहवाही हो रही है। मोदी की धीरे-धीरे विदेशों में भी स्वीकार्यता बढ़ी है। यूरोपियन यूनियन, ब्रिटेन और अमेरिका के राजदूत ने इस बात को माना है।

नरेंद्र मोदी के प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, कि जब अमेरिका में वार्टन इकोनॉमिक फोरम ने चंद “चंदाखोर” लोगों के विरोध के बाद उनके भाषण को रद्द कर दिया, तो इस कार्यक्रम को प्रायोजित करने वाली सभी कंपनियों ने हाथ पीछे खींच लिए। सबसे पहले मुख्य स्पॉन्सर अडानी ग्रुप ने किनारा किया। इसके बाद सिल्वर स्पॉन्सर कलर्स और फिर ब्रॉन्च स्पॉन्सर हेक्सावेअर ने हाथ खींच लिए। यही नहीं इस ग्रुप से जुड़े लोगों ने भी शामिल होने से इनकार कर दिया। शिवसेना नेता सुरेश प्रभु ने भी इस फोरम में जाने से इनकार कर दिया। पेन्सिलवेनिया मेडिकल स्कूल की एसोसिएट प्रोफेसर डा. असीम शुक्ला ने भी इसके खिलाफ मुहिम छेड़ दी। वहीं अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट से संबद्ध और वाल स्ट्रीट जर्नल के स्तंभकार सदानंद धूमे ने ट्वीट कर वार्टन इंडिया इकोनॅामिक फोरम से दूर रहने का एलान किया। न्यूजर्सी में रहने वाले प्रख्यात चिकित्सक और पद्मश्री से सम्मानित सुधीर पारिख ने विरोध दर्ज करते हुए इस सम्मेलन से अपना नाम वापस ले लिया। सन्देश स्पष्ट है कि अब भारत ही नहीं विश्व के अन्य देशों में भी नरेंद्र मोदी का अपमान सहन नहीं किया जाएगा, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, अर्थात मोदी की स्वीकार्यता तेजी से बढ़ रही है. 

नरेन्द्र मोदी को चाहने की तीसरी बड़ी वजह यह है कि वे अपने भाषणों और इंटरव्यू में एक सुलझे हुए नेता नज़र आते हैं,  वे दूरदर्शी प्रतीत होते हैं। किसी भी मुद्दे को लेकर उहापोह की स्थिति में नहीं रहते, उनमें तकनीक की समझ है और किसी भी नए प्रयोग को करने और उसे प्रोत्साहित करने के साथ-साथ वे युवाओं से इस मामले में निरंतर सलाह भी लेते रहते हैं. उत्तर भारत में उनकी लोकप्रियता बढ़ने का एक प्रमुख आयाम है, उनके द्वारा “हिन्दी” में दिए जाने वाले भाषण. “कूल ड्यूड” के कॉलेज माने जाने वाले श्रीराम कॉलेज हो या अंग्रेजी में सोचने वाले धनी महिलाओं का FICCI फोरम हो, दोनों स्थानों पर नरेन्द्र मोदी ने आम बोलचाल वाली हिन्दी में भाषण देकर देश के सामान्य आदमी का दिल जीत लिया. वाजपेयी जी के बाद से बहुत दिनों तक देश ने किसी “असली नेता” के मुँह से हिन्दी में ऐसे भाषण सुने गए हैं.

जिस गुजरात में १९९८ से पहले हर साल बड़े-बड़े दंगे हुआ करते थे, उसी गुजरात में 2002 के गुजरात दंगों को छोड़ दें तो इसके बाद कोई दंगा नहीं हुआ. दंगों को लेकर भले ही नरेंद्र मोदी के दामन पर दाग लगाने की कोशिश की जाती रही हो, लेकिन हकीकत ये है कि अब तक किसी अदालत ने उन्हें दोषी करार देना तो दूर तमाम CBI और SIT की जाँच के बावजूद उन पर एक FIR तक नहीं है.  इसलिए एक खास परिस्थिति (गोधरा ट्रेन कांड) के बाद दंगों को न रोक पाने की वजह से मोदी के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर सवाल उठाना सही नहीं है. यदि यही पैमाना रखा जाए तो राजीव गाँधी को कभी प्रधानमंत्री बनना ही नहीं चाहिए था. हालांकि दंगों की वजह से गुजरात की न सिर्फ देश में बदनामी हुई बल्कि दूसरे शब्दों में कहें तो पूरी दुनिया में चंद स्वार्थी NGOs और देशद्रोही बुद्धिजीवियों ने भारत की जमकर बदनामी की, लेकिन पहले भूकंप और उसके बाद दंगे के बावजूद, जिस तरह से पिछले चंद सालों में नरेंद्र मोदी ने अपनी मेहनत की वजह से गुजरात की पहचान बदली, इसे मोदी की बड़ी सफलता माना जाएगा। देश को ऐसे ही “कुशल प्रशासक” की जरूरत है. 


नरेंद्र मोदी को भले ही हिंदुत्व के पोस्टर ब्वॉय के तौर पर प्रचारित किया जाता रहा हो, लेकिन मोदी के राज में कई मंदिरों को गैर कानूनी निर्माण की वजह से ढहा दिया गया। सिर्फ एक महीने के भीतर 80 ऐसे मंदिरों को गिरा दिया गया, जिसका निर्माण गैर कानूनी तौर पर सरकारी जमीन पर हुआ था। साफ है कि मोदी के मिशन का पहला नारा विकास है. जाति-धर्म सब बातें बाद में. 2001 की जनगणना के मुताबिक गुजरात की आबादी का 9 फीसदी हिस्सा मुस्लिमों का है, यानी गुजरात में 45 लाख मुस्लिम हैं। लेकिन इनकी साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा 73 फीसदी थी। जामनगर के एक आर्किटेक्ट अली असगर ने एक लेख में लिखा कि "अगर लोग बेरोजगार होंगे, तो हिंसा होगी। अब चूंकि हर किसी काम मिल रहा है... तो दंगे क्यों होंगे।". समय गुजरने के साथ मुस्लिमों का भरोसा भी नरेंद्र मोदी पर बढ़ा है। गुजरात में कई मुस्लिम बहुल सीटों पर हिन्दू उम्मीदवार भाजपा के टिकट पर जीते हैं. मोदी को अल्पसंख्यक लोगों का समर्थन धीरे-धीरे हासिल हो रहा है. स्थानीय चुनावों में जामनगर इलाके में मोदी ने 27 सीटों के लिए 24 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा कर दिया, इसमें 9 महिलाएं थीं। आश्चर्य की बात ये है सभी 24 मुस्लिम उम्मीदवारों ने यहां बीजेपी के कोटे से जीत हासिल की। स्वाभाविक है कि अब सिर्फ हिंदुत्व की चाशनी से काम नहीं चलेगा, पार्टी ने इसके साथ-साथ विकास का कॉकटेल भी शुरू किया है और इन दोनों हुनर को साधने में मोदी से बड़ा दूसरा नेता नहीं। दुनिया की सबसे प्रभावशाली पत्रिका टाइम ने मार्च 2012 में नरेंद्र मोदी को अपने कवर पेज पर जगह दी। टाइटल लिखा “मोदी मतलब बिजनेस”। 

क्षेत्रवाद से परे मोदी ने जिस तरह से गुजरात के लोगों की सोच बदली, ऐसे मौके पर मोदी देश की एक बड़ी जरूरत बन चुके हैं। खासतौर पर राष्ट्रीय एकता बहाल करने के लिए मोदी को हर हाल में देश की केंद्रीय सत्ता सौंपनी चाहिए, ताकि हमें नासूर बन चुकी नक्सलवाद और कश्मीर सहित आतंकवाद की समस्याओं से निजात मिले. मोदी एक मजबूत सियासी नेता हैं, संघ की राजनैतिक जमीन पर तप कर आगे बढ़े हैं और उन्हें मुद्दों की बारीक समझ है। जाहिर है स्थायित्व और विकास के लिए इस देश को ऐसे ही तपस्वी राजनीतिज्ञ की जरूरत है। इस समय देश के सामने सबसे बड़ी विडंबना ये है कि मुश्किल की घड़ी में सर्वोच्च पद पर बैठे नेता सामने नहीं आते, खुलकर अपने बयान नहीं देते, बल्कि खुद को एसी कमरों में कैद कर लेते हैं। नरेंद्र मोदी के सत्ता के शिखर पर बैठने से ये मुश्किल भी दूर हो जाएगी।

AAP Party exposing itself - Its not like Raja Harishchandra

Written by रविवार, 21 अप्रैल 2013 18:56


धीरे-धीरे “आप” (AAP) बेनकाब हो रहे हैं...

पिछले कुछ दिनों में केजरीवाल की “आप” पार्टी ने तीन निर्णय ऐसे लिए हैं, जिसके कारण जहाँ एक ओर इस पार्टी के नए-नवेले समर्थकों में भारी दुविधा फ़ैली है, वहीं दूसरी तरफ जो लोग शुरू से ही इस पार्टी के कर्ताधर्ताओं के इरादों पर संदेह जताते आ रहे हैं, उनका शक और भी पुष्ट हुआ है. इस पर बात करने से पहले संक्षिप्त में इनकी पृष्ठभूमि देख लेते हैं...

गत वर्ष जिस समय अन्ना हजारे के कन्धों का सहारा लेकर वामपंथी और सोशलिस्ट NGO वालों की “गैंग” अपनी दुकानदारी जमाने की कोशिश कर रही थी, उस समय देश के युवाओं को कल्पना भी नहीं होगी कि वे जिस स्वतःस्फूर्त पद्धति से इस आंदोलन में भाग ले रहे हैं, वह अंततः कुछ लोगों की राजनैतिक महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ जाएगा. हालांकि राष्ट्रवादी समूहों जैसे संघ-विहिप इत्यादि सहित प्रत्येक राष्ट्रवादी व्यक्ति ने इस आंदोलन का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन किया था, लेकिन केजरीवाल-सिसोदिया की जोड़ी के इरादे शुरू से ही नेक नहीं थे, उन्होंने अन्ना की पीठ में छुरा घोंपने (या कहें कि अन्ना के कंधे पर सीढ़ी रखकर अपनी राजनीति चमकाने) का फैसला पहले ही कर लिया था.

राष्ट्रवादी समूहों जैसे संघ-भाजपा को इस “गैंग” पर शक तो उसी दिन हो गया था, जिस दिन इन्होंने “साम्प्रदायिकता” और “संघ की शाखाओं जैसा चित्र” कहते हुए, अन्ना हजारे के मंच से भारत माता का चित्र हटवा दिया था. उसी दिन से यह लगने लगा था कि NGOवादियों की यह गैंग आगे चलकर परदे के पीछे काँग्रेस की मददगार “सुपारी किलर” बनेगी, और विदेशों से बेशुमार चंदा हासिल करने के लिए नरेंद्र मोदी को जमकर कोसने का काम भी किया जाएगा. राष्ट्रवादियों के यह दोनों शक धीरे-धीरे सही साबित होते जा रहे हैं. टाइम्स नाऊ के एक सर्वे के अनुसार दिल्ली विधानसभा में काँग्रेस-भाजपा के बीच चुनावों का अंतर अधिकतम ३% वोटों के अंतर से तय होता रहा है. शीला दीक्षित लगातार तीन बार चुनाव जीत चुकी हैं, परन्तु दिल्ली के वर्तमान हालातों को देखते हुए उनका चौथी बार सत्ता में आना बहुत मुश्किल लग रहा है. ऐसे में मददगार “सुपारी किलर” के रूप में सामने आई “आप” पार्टी. एक अनुमान के अनुसार “आप” को लगभग ६ से १० प्रतिशत वोट हासिल हो सकते हैं, जिसमें से ६०% काँग्रेस से नाराज़ लोगों के व ४०% भाजपा से नाराज़ मतदाताओं के होंगे. लेकिन यह ६-१० प्रतिशत वोटों का अंतर शीला को जितवाने तथा भाजपा को हराने के लिए पर्याप्त है.


अब हम आते हैं उन तीन निर्णयों पर, जिनके बारे में मैंने पहले कहा. जब केजरीवाल ने “आप” पार्टी का गठन किया था, उसी दिन से उन्होंने खुद को इस धरती पर “राजा हरिश्चंद्र” का एकमात्र जीवित अवतार घोषित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है. प्रत्येक प्रेस कांफ्रेंस में “केजरीवाल गैंग” यही घोषित करती है कि “इस देश में सभी राजनैतिक पार्टियाँ बेईमान हैं, भ्रष्ट हैं, चंदाखोर हैं... आदि-आदि”, ले-देकर इस देश में सिर्फ एक ही ईमानदार पार्टी बची है जो कि “आप” पार्टी है (ये बात और है कि केजरीवाल ने अभी तक अंजली दमानिया, प्रशांत भूषण और मयंक गाँधी पर लगे हुए आरोपों के बारे में कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं दी अथवा जाँच भी नहीं करवाई है... इसी प्रकार जिस दिल्ली शहर में अपनी पोस्टिंग के लिए केन्द्रीय राजस्व अधिकारी करोड़ों रूपए की घूस नेताओं को देते हैं, उसी दिल्ली में बड़े ही रहस्यमयी तरीके से उनकी पत्नीश्री पिछले कई साल से पदस्थ हैं, इस पर भी उनके श्रीमुख से कभी कुछ सुना नहीं गया). बहरहाल, “आप” पार्टी का ताज़ा-ताज़ा एक निर्णय यह है कि दिल्ली नगरनिगम के चुनावों में काँग्रेस और भाजपा जिन “अच्छे” उम्मीदवारों को टिकिट नहीं देगी, उसे “आप” पार्टी टिकिट देगी... सुनने में अजीब सा लगा ना!!! जी हाँ, जिस प्रकार काँग्रेस पार्टी में जाते ही शिवसेना के संजय निरुपम और छगन भुजबल “अचानक” सेकुलर हो जाते हैं, उसी प्रकार काँग्रेस-भाजपा का जो कार्यकर्ता टिकट प्राप्त नहीं कर सकेगा, उसे केजरीवाल अपना “पवित्र जल” छिड़ककर “हरिश्चंद्र” बना देंगे. जैसे ही वह उम्मीदवार “आप” पार्टी से खड़ा होगा, वह “ईमानदार”, “बेदाग़” और “सच्चरित्र” साबित हो जाएगा. “आप” से टिकट हासिल करने के बाद वह उम्मीदवार ना तो अवैध रूप से चंदा लेगा और ना ही चुनाव आयोग द्वारा तय की गई सीमा से अधिक पैसा चुनाव में खर्च करेगा, जबकि वही उम्मीदवार यदि भाजपा-काँग्रेस से टिकट हासिल कर लेता, तो वह “महाभ्रष्ट” और “चंदाखोर” कहलाता... यह हुआ “आप” पार्टी के राजा हरिश्चंद्र यानी केजरीवाल द्वारा स्थापित चुनावी नैतिकता के अद्वितीय मानदंड.  


अब आते हैं इस पार्टी के पाखंडी चरित्र के दूसरे निर्णय पर... PTI द्वारा प्रसारित व कई अखबारों एवं वेबसाईटों पर प्रकाशित समाचार के अनुसार “आप” ने निर्णय लिया है कि अरुणाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों में “आप” का गठबंधन शरद पवार की NCP से होगा और दो अन्य पार्टियाँ साथ मिलकर चुनाव लडेंगे. निश्चित रूप से आप फिर हैरत में पड़ गए होंगे कि NCP से गठबंधन?? यानी जिस अजित पवार पर सिंचाई घोटाले में पैसा खाने के आरोप लगाए, जिस अंजली दमानिया ने गडकरी और NCP के नेताओं को भूमाफिया तक बता दिया, जिस पार्टी को महाभ्रष्ट बताते हुए सबसे पहले अपनी “राजनीतिक दूकान” का शटर ऊँचा किया था, आज उसी पार्टी से अरुणाचल प्रदेश में गठबंधन??? कहीं ऐसा तो नहीं कि महाराष्ट्र में तो NCP महाभ्रष्ट हो, लेकिन अरुणाचल प्रदेश की NCP ‘ईमानदार” हो? या ऐसा भी हो सकता है कि केजरीवाल साहब ने अपना “पवित्र जल” छिड़ककर अरुणाचल की NCP को बेदाग़ बना दिया हो... संक्षेप में तात्पर्य यह है कि यह पार्टी अपनी शुरुआत से ही पाखण्ड और फरेब में गले-गले तक धँसी हुई है. इनके पाखण्ड का एक और नमूना यह है कि - RTI से प्राप्त जानकारी के अनुसार आम जनता से बिजली का बिल नहीं भरने का आंदोलन करवाने वाले “हरिश्चंद्र पार्टी” के सभी प्रमुख नेताओं ने अपने-अपने बंगलों के बिजली बिल लगातार जमा किए हैं.


अब इस “आप” पार्टी के “असली चेहरे” की नकाब उतारने वाला तीसरा निर्णय भी देख लेते हैं. “आप” पार्टी के कर्ता-धर्ता व “एकमात्र पोस्टर बाय” अरविन्द केजरीवाल ने कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में “सोशल डेमोक्रटिक पार्टी ऑफ इंडिया” (SDPI) के लिए प्रचार करने का निर्णय लिया है.  पाठकों को याद होगा कि जब अन्ना हजारे को समर्थन देने के लिए उमा भारती उनके मंच पर पहुँची थीं, उस समय केजरीवाल के कार्यकर्ताओं ने उन्हें यह कहते हुए मंच से धकियाकर नीचे उतार दिया था, कि “भगवा” राजनीति करने वालों के लिए इस मंच पर कोई स्थान नहीं है. संघ-भाजपा व “भगवा-वादियों” (तथा अब नरेंद्र मोदी) को कोसना व गरियाना केजरीवाल गैंग का पुराना शगल रहा है.  


अब कर्नाटक चुनावों में SDPI को समर्थन व उसका प्रचार का वादा करके केजरीवाल स्वयं ही बेनकाब हो गए हैं. उल्लेखनीय है कि SDPI, पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) जैसे चरमपंथी संगठन का ही एक राजनैतिक अंग है, जो सामान्यतः मुस्लिम हितों के लिए ही अपनी आवाज़ उठाता रहा है. PFI कई हिंसा और धार्मिक राजनीति के कई किस्से केरल-कर्नाटक में आम हैं. इसी की एक और राजनैतिक बाँह है SDPI, जिसके अध्यक्ष हैं ई. अबू बकर, जो कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के संस्थापक सदस्य एवं केरल में “सिमी” के राज्य अध्यक्ष रह चुके हैं. केजरीवाल का पाखण्ड यह है कि इन्हें नरेन्द्र मोदी या उमा भारती तो “साम्प्रदायिक” लगते है, क्योंकि ये हिन्दू हितों की बात करते हैं, जबकि “राजा हरिश्चंद्र” के लिए SDPI के अबू-बकर “धर्मनिरपेक्ष” हैं, क्योंकि वे इस्लामी हितों की बात करते हैं. लानत है ऐसी घटिया राजनीति पर, क्या इसी ढोंगी बर्ताव के लिए देश के युवाओं ने केजरीवाल को समर्थन दिया है? मजे की बात यह है कि अन्ना आंदोलन के समय SDPI ने कहा था कि मुसलमानों को इस आंदोलन में भाग नहीं लेना चाहिए, क्योंकि यह गैर-इस्लामिक है. तात्पर्य यह है कि, राजनीति को साफ़-सुथरा बनाने की हवा-हवाई बातें करना तो बहुत आसान है, स्वघोषित “ईमानदार” बनना भी बेहद आसान है, लेकिन जब वास्तविक राजनीति की बात आती है तो “आप” को बेनकाब होते देर नहीं लगती...

कजरिया बाबू...!!! “हिन्दू-विरोध” पर तो इस देश में शबनम हाशमी और तीस्ता सीतलवाड जैसे अनेक लोगों की रोजी-रोटी चल ही रही है, “आप” की भी चल ही जाएगी, लेकिन इसके लिए युवाओं को “जनलोकपाल” के नाम पर बरगलाने की क्या जरूरत है? स्वयं बिजली का बिल भरकर दूसरों को बिल न भरने के लिए भड़काने की क्या जरूरत है? सीधे-सीधे मान लो ना कि “आप” भी दूसरी पार्टियों से अलग तो बिलकुल नहीं है, बल्कि SDPI जैसी संदिग्ध या महाराष्ट्र को लूट खाने वाली NCP जैसी महाभ्रष्ट पार्टी का साथ देकर आप तो बड़ी जल्दी बेनकाब होने की कगार पर आ गए...

Intellectual Gang against Narendra Modi (Reference : Wharton Business School)

Written by गुरुवार, 18 अप्रैल 2013 12:43


नरेंद्र मोदी के खिलाफ “अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजीवी गैंग” (सन्दर्भ : व्हार्टन स्कूल प्रकरण)  


हाल ही में नरेंद्र मोदी को अमेरिका के व्हार्टन बिजनेस स्कूल में एक व्याख्यान देने हेतु आमंत्रित किया गया था. लेकिन अंतिम समय पर चंद मुठ्ठी भर लोगों के विरोध की वजह से नरेंद्र मोदी का व्याख्यान निरस्त कर दिया गया. हालांकि नरेंद्र मोदी मूर्खतापूर्ण अमरीकी वीसा नीति के कारण, सशरीर तो अमेरिका जाने वाले नहीं थे, लेकिन वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए अपनी बात कहने वाले थे. विषय था “गुजरात का तीव्र आर्थिक विकास माडल”.

व्हार्टन बिजनेस स्कूल ने स्वयं अपने छात्रों और शिक्षकों की मांग पर नरेंद्र मोदी को आमंत्रित किया था. लेकिन पश्चिमी देशों में कार्यरत कुछ NGOs और कुछ “कोहर्रमवादी बुद्धिजीवी”, जिनकी सुई आज भी २००२ के गुजरात दंगों पर ही अटकी हुई है, उन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रति अपनी घृणा को बरकरार रखते हुए अपने “जेहादी नेटवर्क” के जरिए व्हार्टन स्कूल पर ऐसा दबाव बनाया कि उन्होंने नरेंद्र मोदी का व्याख्यान रद्द कर दिया. जल्दी ही इस “तथाकथित बुद्धिजीवी” गैंग का खुलासा भी हो गया, और उनके चेहरे भी बेनकाब हो गए जिन्होंने विदेशी पैसों के बल पर नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक निरंतर मुहिम चला रखी है. आईए देखें कि ये दागदार चेहरे कौन-कौन से हैं, कुछ ही समय में आप जान जाएंगे कि इस “गैंग” के आपसी संपर्क-सम्बन्ध एवं इनके कुत्सित इरादे क्या हैं...


कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ इंटेग्रल स्टडीज़ (CIIS) की एक प्रोफ़ेसर अंगना चटर्जी ने नरेंद्र मोदी को अमेरिकी वीसा देने के खिलाफ मुहिम चलाने हेतु एक समूह की स्थापना की.  २०११ में अंगना चटर्जी और उसके पति को CIIS से बर्खास्त कर दिया गया, क्योंकि विवि प्रशासन को उनके खिलाफ चार ठोस सबूत मिल चुके थे, जिसमें विद्यार्थियों की गोपनीयता भंग करना, प्रशासन-विद्यार्थी और शिक्षकों के प्रति आपसी पेशेगत दुर्भावना एवं अनैतिकता, शिक्षण कार्य के लिए प्राप्त फण्ड के पैसों में बेईमानी व गबन तथा दिए गए असाइनमेंट और शिक्षण कार्य को समय पर पूरा न करते हुए अन्य कामों में ध्यान लगाना जैसे आरोप शामिल थे. पूरी जाँच के बाद दोनों को बर्खास्त कर दिया गया था. चूँकि अंगना चटर्जी और उसका पति गबन और काम के प्रति बेईमानी करते रंगे हाथों पकडे जा चुके थे, इसलिए इस बार २०१३ में नरेंद्र मोदी का विरोध करने में अंगना चटर्जी खुद सामने नहीं आई. मोदी के विरोध में व्हार्टन स्कूल को दिए गए ज्ञापन पर अंगना चटर्जी के हस्ताक्षर नहीं हैं. इस बार उसने अपनी “गैंग” के दूसरे सदस्यों को इस काम के लिए आगे किया और खुद परदे के पीछे से सूत्र संचालन करती रही.

व्हार्टन स्कूल वाले ज्ञापन पर जिन तीन प्रमुख “बुद्धिजीवियों”(??) के हस्ताक्षर हैं, वे हैं... अनिया लूम्बा, तोर्जो घोष एवं अंजली अरोंदेकर, जिनके साथ मिलकर अंगना चटर्जी ने २०१२ में एक पुस्तक प्रकाशित की थी. जब २०१० में आर्थिक अनियमितताओं के चलते अंगना चटर्जी के पति को भारत सरकार ने देशनिकाला दिया था, तब भी इसके विरोध में दिए गए ज्ञापन पर प्रमुख हस्ताक्षर अनिया लूम्बा के ही हैं. अंगना के पति के समर्थन व नरेंद्र मोदी के विरोध में २०१० और २०१३ में दिए गए ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वाले भी यही लोग हैं, जैसे अंजली अरोंदेकर, पिया चटर्जी, सुनयना मायरा, सिमोना साहनी और सबीना साहनी इत्यादि.

हाल ही में किसी व्यक्ति ने अंगना चटर्जी और गुलाम नबी फाई के आपसी रिश्तों को उजागर करने वाले विकीपीडिया पेज पर बदलाव करके उसमें से अंगना चटर्जी का नाम निकाल दिया है. (जैसा कि सभी जानते हैं, विकीपीडिया एक मुक्त स्रोत है, इसलिए कोई भी व्यक्ति उसमें मनचाहे बदलाव कर सकता है). ज्ञातव्य है कि गुलाम नबी फाई, पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी ISI का जासूस है, जो पाकिस्तान से पैसा लेकर कश्मीर के बारे में दुष्प्रचार करने हेतु बड़े-बड़े पाँच सितारा सेमीनार आयोजित करवाता था. जुलाई २०११ में गुलाम नबी फाई को अमेरिकी जाँच एजेंसी एफबीआई ने पाकिस्तान की ISI से मिले हुए ३५ लाख डालर छुपाने के जुर्म में दोषी पाया और षड्यंत्र रचने व टैक्स चोरी के इलज़ाम में जिसे हाल ही में अमेरिका ने जेल में डाल दिया है. दो मिनट के गूगल सर्च से कोई भी जान सकता है कि किस प्रकार फाई और अंगना चटर्जी भारत के अलगाववादी तत्वों को गाहे-बगाहे मदद करते रहे हैं. यही अंगना चटर्जी, नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के विरोध की मुख्य सूत्रधार रही है.


(लाल गोल घेरे में - गौतम नवलखा) 

नरेन्द्र मोदी के खिलाफ हस्ताक्षर करने वाले अधिकाँश बुद्धिजीवियों का सम्बन्ध भारत के माओवादी समूहों अथवा पाकिस्तानी अलगाववादियों के साथ रहा है. उदाहरण के लिए डेविड बर्सामिया नाम के एक शख्स को सितम्बर २०११ में भारत में अवैध रूप से रहने का दोषी पाए जाने पर भारत से निकाल बाहर करने का आदेश दिया गया. डेविड को भारत में संदिग्ध गतिविधियों में भी लिप्त पाया गया था. लेकिन उसके देशनिकाले के खिलाफ ज्ञापन देने वालों में भी इसी गैंग के अंगना चटर्जी, आनिया लूम्बा और सुवीर कौल इत्यादि लोग शामिल थे. नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा और देशविरोधी डेविड बर्सामिया के देशनिकाले संबंधी पत्रों, दोनों पर हस्ताक्षर करने वालों में तेरह नाम एक जैसे हैं. ऊपर जो तीन नाम दिए हैं, उनके अलावा नरेंद्र मोदी का विरोध करने वालों के नाम और उनके कर्म भी जान लीजिए... दो हस्ताक्षरकर्ता हैं – दाऊद अली और कैथलीन हाल – इन दोनों बुद्धिजीवियों ने मार्च २०११ में यूएस पेन में एक सेमीनार आयोजित किया था, जिसका विषय था “माओवाद एवं भारत में वामपंथ की स्थिति”. इस कांफ्रेंस में प्रसन्नजीत बैनर्जी और गौतम नवलखा जैसे कई वक्ताओं को आमंत्रित किया गया था, जो खुलेआम नक्सलवाद को समर्थन देते हैं. 


अमेरिका द्वारा गुलाम मोहम्मद फाई को रंगे हाथों पकडे जाने और उसके ISI लिंक साबित होने के बावजूद, गौतम नवलखा यह बयान दे चुके हैं कि “फाई साहब बहुत भले व्यक्ति हैं और उनकी “एक गलती”(?) को  बढाचढा कर पेश किया गया है... नवलखा आगे कहते हैं कि मुझे फाई साहब के साथ काम करने में गर्व महसूस होता है तथा उनके द्वारा आयोजित सेमिनारों (अर्थात भारत की कश्मीर नीति के विरोध) में भाग लेना बड़ा ही खुशनुमा अनुभव है...”. (गौतम नवलखा वही हैं, जिन्होंने हर्ष मंदर और अरुंधती रॉय के साथ, अफज़ल गूरू को माफी दिलवाने के लिए अभियान पर भी हस्ताक्षर किए थे). स्वाभाविक है कि नक्सलवाद समर्थक और ISI समर्थकों का आपस में तगड़ा अंतर्संबंध है. उल्लेखनीय है कि “ग्लोबल टेरर डाटाबेस” के अनुसार CPI-माओ भारत का सबसे बड़ा आतंकवादी समूह है, जिसने भारत के गरीबी से ग्रस्त प्रदेशों में अब तक हजारों हत्याएं करवाई हैं. (http://blogs.cfr.org/zenko/2012/11/19/the-latest-in-tracking-global-terrorism-data/)

दाऊद अली, यूपेन्न के साउथ एशिया स्टडीज़ विभाग का अध्यक्ष है, दक्षिण एशिया संबंधी इस विभाग में पढाने वाले अन्य बुद्धिजीवी हैं – आनिया लूम्बा, तोर्जो घोष, सुवीर कौल और कैथलीन हाल. मजे की बात यह है कि माओवाद और नक्सलवाद का समर्थन करने वाले यही बुद्धिजीवी(??) इजराइल के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र को दिए गए ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वालों में भी शामिल हैं, क्योंकि फाई “साहब”(?) ने उन्हें ऐसा करने को कहा था. ये बात अलग है कि यह “तथाकथित संवेदनशील” बुद्धिजीवी पाकिस्तान में ईसाईयों पर होने वाले हमलों पर चुप्पी साध लेते हैं, पाकिस्तान में अहमदिया और शियाओं के हत्याकांड इन्हें दिखाई नहीं देते, पाकिस्तान में हिन्दू आबादी १९५१ में २२% से घटकर २०११ में सिर्फ २% रह गई, लेकिन इन बुद्धिजीवियों ने इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है... स्वाभाविक है कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ याचिका दायर करना हो, अथवा गबन के आरोपी अंगना चटर्जी के पति या संदिग्ध गतिविधियों वाले डेविड बर्सामिया के समर्थन में ज्ञापन देना हो, यह “बुद्धिजीवी गैंग”, गुलाम फाई (यानी ISI) के निर्देशों का पालन करती है, यह गैंग पाकिस्तान के इस्लामिक समूहों अथवा दंतेवाडा में ७६ सीआरपीएफ जवानों की हत्या के खिलाफ कोई ज्ञापन क्यों देगी??

गुलाम नबी फ़ई के पाँच सितारा होटलों में आयोजित होने वाले सेमिनार, कान्फ़्रेंस और गोष्ठियों में जाने वालों की लिस्ट देखिए, कैसे-कैसे लोग भरे पड़े हैं, और इन्हीं में से अधिकतर बुद्धिजीवी UPA-2 की नीतियों, विदेश नीतियों, कश्मीर निर्णयों को प्रभावित करते हैं - हरीश खरे (प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार), रीता मनचन्दा, वेद भसीन (कश्मीर टाइम्स के प्रमुख), हरिन्दर बवेजा (हेडलाइन्स टुडे), प्रफ़ुल्ल बिदवई (वरिष्ठ पत्रकार), अंगना चटर्जी (इनका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है), कमल मित्रा के अलावा संदीप पाण्डेय, अखिला रमन… जैसे एक से बढ़कर एक “बुद्धिजीवी” शामिल हैं। इन्हीं में से अधिकांश बुद्धिजीवी, हमें सेकुलरिज़्म और साम्प्रदायिकता का मतलब समझाते नज़र आते हैं, इन्हीं बुद्धिजीवियों के लगुए-भगुए अक्सर हिन्दुत्व और नरेन्द्र मोदी को गरियाते मिल जाएंगे, और पिछले 10 साल में कश्मीर को “विवादित क्षेत्र” के रूप में प्रचारित करने,  तथा भारतीय सेना के बलिदानों को नज़रअंदाज़ करके अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बार-बार सेना के “कथित दमन” को हाइलाईट करने में यह गैंग सदा आगे रही है। ये वही “गैंग” है जिसे कश्मीर के विस्थापित पंडितों से ज्यादा फ़िलीस्तीन के मुसलमानों की चिन्ता रहती है…  इनके अलावा जेएनयू एवं कश्मीर विश्वविद्यालय के कई प्रोफ़ेसर भी गुलाम नबी फ़ई द्वारा आयोजित “मजमों” में शामिल हो चुके हैं।

इन सारे बुद्धिजीवियों(??) के आपसी लिंक और नेटवर्क बहुत गहरे हैं... सभी के आपस में कोई न कोई व्यावसायिक अथवा स्वार्थी सम्बन्ध जरूर हैं.. यानी "तुम मुझे कांफ्रेंस में बुलवाओ, मैं तुम्हारी पुस्तक में एक लेख लिख दूँगा, फिर हम किसी ज्ञापन पर हस्ताक्षर करके किसी NGO से पैसा ले लेंगे और आपस में बाँट लेंगे... तुम मेरी किताब प्रकाशित करवा देना, मैं तुम्हारे पक्ष में माहौल बनाने में मदद करूँगा..." इस प्रकार की साँठगाँठ से इस बुद्धिजीवी गैंग का काम, नाम और दाम चलता है. 
 
बात साफ़ है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तीन-तीन बार जनता द्वारा चुने गए एक मुख्यमंत्री के खिलाफ, निहित स्वार्थी बुद्धिजीवी गैंग द्वारा लगातार एक “नकारात्मक प्रोपेगैंडा” चलाकर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को सफलतापूर्वक बेवकूफ बना दिया गया है.  विश्व के दो विशाल लोकतंत्र, अमेरिका और भारत, दोनों को ही मुठ्ठी भर पाखण्डियों एवं कट्टरवादियों ने अपनी अकादमिक घुसपैठ के चलते मूर्ख बना दिया है. हालांकि इस तरह का राजनैतिक नकारात्मक प्रचार दुनिया के लगभग प्रत्येक देश में चलता है.

२००८ में एक राजनैतिक बहस के दौरान ओबामा ने कहा था कि, “यदि आप अपने समर्थक नहीं जोड़ सकते, तो कुछ ऐसा करो कि विपक्षी के समर्थक उसे छोड़कर भाग खड़े हों...” कुछ ऐसा ही नरेंद्र मोदी के साथ किया जा रहा है. दुर्भाग्य से मोदी के खिलाफ यह नकारात्मक प्रचार लंबा खिंच गया है, और चूँकि भारत में “सेकुलरिज्म” नाम का एक “एड्स” फैला हुआ है, इसलिए सामान्य बुद्धिजीवी इस बात पर विचार करने के लिए भी तैयार नहीं है कि पिछले १० वर्षों में गुजरात में एक भी बड़ा दंगा नहीं हुआ... २०११ में सृजित होने वाले नए रोजगारों में गुजरात का हिस्सा ७२% रहा....

वामपंथियों, सेकुलरों और कथित “बुद्धिजीवियों”(?) की इस गैंग द्वारा नरेंद्र मोदी के खिलाफ सतत नकारात्मक प्रचार १० साल से जारी है, जबकि सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश में काम कर रहे विशेष जाँच दल और तमाम आयोगों के बावजूद नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक FIR तक नहीं है. अब यह तो आपको विचार करना है कि इन बुद्धिजीवियों पर भरोसा किया जाए अथवा गुजरात के जमीनी वास्तविक विकास पर...

Church Article and Disputes Regarding Charaiveti Website

Written by सोमवार, 15 अप्रैल 2013 12:10


मुख्य मुद्दे को दरकिनार कर, आपसी उठापटक (सन्दर्भ – भाजपा का चरैवेति प्रकरण)


चर्च संस्था की समस्याओं और अनियमितताओं पर नियमित रूप से अपनी सशक्त लेखनी चलाने वाले "पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट" के अध्यक्ष आर एल फ्रांसिस ने मप्र भाजपा की पत्रिका "चरैवेति" में जो लेख लिखा है, उसकी चंद पंक्तियाँ इस प्रकार हैं... -

फ्रांसिस ने आयोग के हवाले से ननों की स्थिति बेहतर बनाने के लिए जो सुझाव हैं वे भी पेश किए - जैसे कि 
१)    जो माँ-बाप अपनी नाबालिग बेटियों को जबरन नन बनने के लिए मजबूर करते हैं, उन पर कार्रवाई हो...
२)    ननों की संपत्ति से बेदखली रोकी जाए ताकि यदि कोई नन सामान्य जीवन में लौटना चाहे तो उसे अपने पिता की संपत्ति में अधिकार मिल सके...
३)    यह जाँच की जाए कि केरल में कितनी नाबालिग ननें बनीं हैं और उनमें से कितनी वापस पारिवारिक जीवन में लौटना चाहती हैं... इत्यादि...

फ्रांसिस ने अपने लेख में कई उदाहरण दिए हैं, जिसमें सिस्टर जेस्मी की आत्मकथा "आमीन", कई वर्ष पहले की गई सिस्टर अभया की हत्या, कोल्लम की सिस्टर अनुपा मैरी की आत्महत्या जैसे उदाहरण शामिल हैं...


भला इस लेख में आपत्ति जताने लायक क्या है?? और भाई फ्रांसिस से ज्यादा कौन जान सकता है कि चर्च के भीतर क्या चल रहा है?? लेकिन ईसाई संगठनों ने अपनी गिरेबान में झाँकने की बजाय "चरैवेति" पर ही वैमनस्यता फ़ैलाने का आरोप मढ़ दिया... भोपाल के ईसाई संगठनों को चर्च के अंदर की यह "कड़वी सच्चाई" नहीं सुहाई, और वे "चरैवेति" पत्रिका की शिकायत लेकर पुलिस के पास पहुँच गए....

यहाँ तक तो सब ठीक था, किसी भी धर्म या संस्था में हो रही गडबड़ी अथवा समस्याओं को उजागर करना कोई गलत काम नहीं है... लेकिन जैसा कि अक्सर होता आया है, अचानक पता नहीं कहाँ से भाजपा के भीतर से ही “सेकुलरिज्म” की चिंताएँ उभरने लगीं. एक ईसाई लेखक द्वारा चर्च की समस्याओं को उजागर करने वाले लेख के प्रकाशन से, भाजपा के ही एक वर्ग को "आपत्ति" हो गई. कुछ लोगों को प्रदेश के मुठ्ठी भर ईसाई वोटों की चिंता सताने लगी, और इस लेख में प्रस्तुत मूल मुद्दों (अर्थात चर्च में ननों के शोषण और उनकी दयनीय स्थिति) पर चर्चा करने (या करवाने) की बजाय भाजपा के एक वर्ग ने चरैवेति पत्रिका के मालिकाना हक और विज्ञापनों को लेकर निरर्थक किस्म की बयानबाजी और अखबारी युद्ध छेड़ दिया... जिसकी कोई तुक नहीं थी. वेबसाइटों का हिसाब रखने वाली वेबसाईट whois.com के अनुसार Charaiveti.in के नाम से 19.04.2012 को साईट रजिस्टर हुई है, जबकि Charaiveti.net के नाम से जो वेबसाईट है वह 12.10.2012 को, अर्थात बाद में रजिस्टर हुई है... मजे की बात यह है कि दोनों वेबसाईटों में पत्राचार का पता E-2. दीनदयाल परिसर, अरेरा कालोनी भोपाल ही दिया है. यह तो जाँच से ही पता चलेगा कि पहले रजिस्टर हुई साईट को असली माना जाए या बाद में रजिस्टर हुई साईट को? (हालांकि सामान्य समझ तो यही कहती है कि जिसने चरैवेति नाम से पहले रजिस्टर कर लिया, वही मूल साईट है, बाद में रजिस्टर होने वाली नक़ल मानी जाती है. खासकर उस स्थिति में जबकि Charaiveti.in के बारे में जानकारी बताती है कि, इस साईट के एडमिनिस्ट्रेटर के रूप में अनिल सौमित्र का नाम है, और तो और रजिस्ट्रेशन में जो ई-मेल पता दिया है, वह भी चरैवेति पत्रिका में नियमित रूप से प्रकाशित होता है).

दोनों ही वेबसाईट सरसरी तौर से देखने पर एक जैसी लगती हैं, दोनों में भाजपा और संगठन से सम्बन्धित ख़बरें और तस्वीरें हैं, ऐसे में सवाल उठता है कि वास्तव में मध्यप्रदेश जनसंपर्क विभाग से किस वेबसाईट को विज्ञापन मिल रहे हैं? कौन सी वेबसाईट को भुगतान हुआ है और कौन सी वेबसाईट “जनसेवा” के तौर पर खामख्वाह सरकारी प्रचार कर रही है? यह जानकारियाँ और जाँच तो दोनों पक्षों को साथ बैठाकर दस मिनट में ही संपन्न हो सकती थी... यह तो पार्टी का अंदरूनी मामला होना चाहिए था, इसके लिए चौराहे पर जाकर कपड़े धोने की क्या जरूरत थी?

इस “फोकटिया अखबारी युद्ध” के कारण फ्रांसिस साहब के लेख और चर्च की अनियमितताओं संबंधी मुद्दों पर जैसी “हेडलाइंस” बननी चाहिए थीं, उनका फोकस हटकर “चरैवेति” और विज्ञापनों पर आकर टिक गया... फ्रांसिस को खामख्वाह अपनी सफाई पेश करनी पड़ी और मूल मुद्दा तो पता नहीं कहाँ गायब हो गया. भोपाल से प्रकाशित होने वाले लगभग प्रत्येक बड़े अखबार ने फ्रांसिस के लेख और उसमें दर्शाई गई चर्च की गंभीर समस्याओं पर शायद ही कुछ छापा हो, किसी भी अखबार के “संवाददाता”(?) ने यह ज़हमत नहीं उठाई कि वह थोड़ी खोजबीन करके पिछले दस साल के दौरान केरल में चर्च की गतिविधियों के बारे में कोई खबर या लेख लिखता... लेकिन “चरैवेति” के अनावश्यक विवाद पर अखबारों ने जरूर चार-चार कॉलम भर दिए, यह कैसा रहस्य है? जिन तत्वों ने यह खबर प्लांट करवाई है, उन्हें उस समय  मायूसी हुई होगी जब मप्र जनसंपर्क विभाग ने बाकायदा घोषणा की, कि चरैवेति.इन को और चरैवेति.नेट, दोनों को ही किसी प्रकार का भुगतान नहीं किया गया है. यानी “सूत न कपास, जुलाहों में लठ्ठमलट्ठा”, और चर्च की मुख्य समस्या पर चर्चा गायब!!!!


भोपाल के अधिकाँश अखबारों की हेडलाइन है :- “चर्च में ननों का शोषण – चरैवेति में छपे लेख से भाजपा में हडकंप”... क्या??? भाजपा में हडकंप???? - क्यों भाई, जहाँ हडकंप मचना चाहिए (यानी की चर्च में) वहाँ तो हडकंप मचा नहीं, इस खबर से भाजपा में हडकंप कैसे मच सकता है? और क्यों मचना चाहिए? उल्लेखनीय है कि “चरैवेति” नामक पत्रिका, भाजपा के लगभग एक लाख कार्यकर्ताओं, व जिला-मंडल कार्यालयों में भेजी जाती है. तो फिर इस पत्रिका में एक ईसाई समाज सुधारक द्वारा लिखे गए लेख से इतना विवाद क्योंकर हुआ? क्या भाजपा की “अपनी आंतरिक पत्रिका” को भी “सेकुलरिज्म की बीमारी” से घिर जाना चाहिए, जहाँ चर्च से जुडी हर खबर “पवित्र” ही हो, वर्ना न हो? जाहिर है कि यह मामला भाजपा की अंदरूनी उठापटक का है, जिसके लिए फ्रांसिस साहब के इतने महत्वपूर्ण लेख को दरकिनार करते हुए असली-नकली वेबसाईट और उसे मिलने वाले विज्ञापन जैसे बकवास मुद्दों को षडयंत्रपूर्वक तूल दे दिया गया.

ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा के गढ़ भोपाल तक में ईसाई संगठनों का दबदबा इतना बढ़ चुका है कि अब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनसे सम्बन्धित किसी भी नकारात्मक खबर को दबाने में उन्हें सफलता मिलने लगी है. जैसा कि हम राष्ट्रीय स्तर पर भी देख चुके हैं कि भारत सरकार के बाद देश में “जमीन” का सबसे बड़ा मालिक होने के बावजूद चर्च की आमदनी और विदेशों से आने वाले अकूत धन पर सरकार का न तो कोई अंकुश है और ना ही नियंत्रण. आए दिन केरल से ननों के शोषण की ख़बरें आती हैं, लेकिन सब बड़ी सफाई से दबा दी जाती हैं.

ऐसा क्यों होता है कि सत्ता में आते ही भाजपा के कुछ लोगों पर “सेकुलरिज्म” की अफीम चढ़ जाती है? वर्ना क्या कारण है कि भाजपा की अपनी ही पत्रिका में छपे लेख पर पार्टी न सिर्फ सफाई देती फिरे, न सिर्फ बैकफुट पर चली जाए, बल्कि मूल मुद्दे को छोड़कर उनके आपसी विवाद अखबारों की हेडलाइंस बन जाएँ? निश्चित रूप से कहीं न कहीं आपसी समन्वय की कमी (बल्कि उठापटक कहिये) और “विचारधारा का क्षरण”, साफ़ दिखाई देता है...

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विशेष नोट :- बात निकली ही है तो यहाँ यह बताना उचित होगा कि कुछ माह पहले यह समाचार प्रकाशित हुआ था और जिसकी पुष्टि भी हुई थी कि मप्र के जनसंपर्क विभाग ने किसी नामालूम सी वेबसाईट www.mppost.com को पन्द्रह लाख का भुगतान, विज्ञापन मद में कर दिया था. इस खबर के चित्र भी साथ में संलग्न हैं. यही हाल चरैवेति की दोनों वेबसाईटों का है. इन वेबसाईटों पर पाठकों के नाम पर कव्वे उड़ते रहते हैं, शायद भाजपा के कार्यकर्ता तक इन साईटों पर झाँकते नहीं होंगे.




Mppost.com से सम्बन्धित इस खबर पर उस समय प्रतिक्रिया व्यक्त करते समय मैंने टिप्पणी भी की थी, कि एक अनजान सी वेबसाईट को न जाने किस “सेटिंग” और “जुगाड़” के चलते लाखों का भुगतान हो जाता है, और मेरे जैसे लोग जिसके ब्लॉग का ट्रेफिक और लोकप्रियता इन साईटों के मुकाबले कहीं अधिक है, लेकिन मुझे आज तक मप्र जनसंपर्क की तरफ से फूटी कौड़ी भी नहीं मिली है, क्योंकि मुझे न तो जुगाड़ आती है, न सेटिंग करना आता है और किसी अफसर या नेता की चाटुकारिता तो बिलकुल भी नहीं आती. स्वाभाविक है कि मुझे अपना ब्लॉग चलाने के लिए इधर-उधर भीख मांगकर काम चलाना पड़ता है... “विचारधारा” के लिए लड़ने वाले मेरे जैसे सामान्य कार्यकर्ता दर-दर की ठोकरें खाते हैं, और इधर भोपाल में बैठे लोग ईसाईयों से सम्बन्धित मुद्दे पर एकजुटता दिखाने और चर्च के कुप्रचार/दबाव का मुकाबला करने की बजाय, आपसी सिर-फुटव्वल में लगे हुए हैं... इसे क्या कहा जाए?? 

कम  से कम एक बात तो स्पष्ट है कि सोशल मीडिया के लिए, मप्र जनसंपर्क विभाग द्वारा जारी किए जाने विज्ञापनों की नीति और भुगतान के सम्बन्ध में गहन जाँच होनी आवश्यक है... 

Suspected Church Activities in India and Mainstream Media

Written by सोमवार, 08 अप्रैल 2013 12:05


क्या भारत के चर्च और मदरसे सिर्फ “पवित्रता की प्रतिमूर्ति” हैं?


गत शनिवार को तमिलनाडु के कोयम्बटूर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में उस समय अच्छा ख़ासा हंगामा खड़ा हो गया, जब पोस्टमार्टम के पश्चात एक नन के परिजनों ने उसका शव लेने से इंकार करते हुए जाँच की मांग को लेकर धरना दे दिया. पोस्टमार्टम में पाया गया था कि नन ने जहर खाकर आत्महत्या की है, लेकिन परिजनों का कहना था कि उनकी बेटी ने चर्च अधिकारियों की प्रताड़ना और शोषण से तंग आकर आत्महत्या की है, इसलिए चर्च के वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ भी रिपोर्ट दर्ज करते हुए जाँच की जाए. हालांकि पुलिस अधिकारियों का कहना था कि पोस्टमार्टम में भले ही जहर खाने की बात सामने आई हो, परन्तु शोषण अथवा मानसिक प्रताड़ना के सम्बन्ध में अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता.


२६ वर्ष की निर्मला एंजेलीना, जो कि सौरीपालायम की निवासी थी, वह सं २००४ में “नन” बनी और उसने अपना जीवन रोमन कैथोलिक चर्च और जीसस को समर्पित कर दिया. वह कोयम्बटूर के लओली रोड पर स्थित डी ब्रिटो चर्च परिसर में ही निवास करती थी. शनिवार को नाश्ते के बाद उसने अपनी साथी ननों को बताया कि उसने जहर खा लिया है, उसे तत्काल आरके पुरम के अस्पताल ले जाया गया, जहाँ से उसे पोदानूर के सेंट मैरिस अस्पताल ले जाया गया, वहाँ उसे मृत घोषित कर दिया गया.

रविवार की सुबह सिस्टर एंजेलीना के परिजन एम्बुलेंस के सामने ही धरने पर बैठ गए और उन्होंने चर्च के वरिष्ठ अधिकारियों को गिरफ्तार करने की मांग की. उन्होंने कहा कि चर्च के प्रमुख बिशप स्वयं अस्पताल आएं और एंजेलीना की मौत के बारे में स्पष्टीकरण दें. एंजेलीना की माँ एलीश मेरी ने कहा कि, उनकी बेटी बहुत हिम्मत वाली थी, वह ऐसा कदम उठा ही नहीं सकती. वह अंग्रेजी साहित्य में बीए कर रही थी, और अचानक वह नन बन गई. कुछ ही समय में उसने एक वरिष्ठ नन पर प्रताड़ना का आरोप लगाया था, लेकिन चर्च के अधिकारियों ने कोई ध्यान नहीं दिया. एंजेलीना के भाई चार्ल्स ने कहा कि यह आत्महत्या नहीं, बल्कि हत्या है और इसके पीछे बिशप और कुछ वरिष्ठ ननों का हाथ है, जो मेरी बहन से कुछ गलत काम करवाना चाहते थे. फिलहाल पुलिस ने कुछ ननों से पूछताछ की है और आरके पुरम पुलिस स्टेशन में धारा १७४ (अस्वाभाविक मौत) के तहत मामला दर्ज कर लिया है.

इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि दक्षिणी राज्यों में, जहाँ कि “चर्च” अब बेहद मजबूत शक्ति बन चुका है, वहाँ इन परिसरों और कान्वेंट के भीतर स्थितियाँ सही नहीं हैं. आए दिन हम केरल, तमिलनाडु, आंधप्रदेश के चर्चों में इस प्रकार की घटनाओं के बारे में सुनते हैं, परन्तु हमारा तथाकथित मुख्यधारा(??) का मीडिया, जो कि आसाराम बापू के आश्रम में चार बच्चों की मौत की खबर को राष्ट्रीय समस्या बना देता है, जो मीडिया आधी रात को शंकराचार्य की गिरफ्तारी को लेकर पूरी तरह से एकपक्षीय हिन्दू विरोधी मानसिकता के साथ अपनी रिपोर्टिंग करता है, उसे चर्च (और मदरसों) के भीतर चल रही (और पल रही) संदिग्ध गतिविधियों के बारे में रिपोर्टिंग करने की आवश्यकता महसूस नहीं होती??? ऐसा क्यों होता है कि केरल में सिस्टर अभया की बहुचर्चित रहस्यमयी मौत पर न्यायालयों के निर्णय (http://en.wikipedia.org/wiki/Sister_Abhaya_murder_case) आने के बाद भी उस पर कभी राष्ट्रीय बहस नहीं होती?? अक्सर विभिन्न चैनलों पर देश के प्रसिद्ध मंदिरों में आने वाले चढावे, दान पर चर्चाएँ होती हैं, हिन्दू रीती-रिवाजों और संस्कारों की खिल्ली उड़ाने वाले कार्यक्रम अक्सर चैनलों और अखबारों में छाए रहते हैं. तथाकथित बुद्धिजीवी अपना समस्त ज्ञान हिंदुओं को उपदेश झाड़ने में ही खर्च कर देते हैं, परन्तु इस्लाम या ईसाइयत के बारे में बात करते समय उनके मुँह में दही जम जाता है. 

किसी भी चैनल या अखबार में इस बात की चर्चा क्यों नहीं होती कि आज की तारीख में सरकार के बाद “चर्च” ही ऐसी संस्था है जिसके पास देश भर में सर्वाधिक व्यावसायिक जमीन है. कान्वेंट स्कूलों में भारतीय संस्कृति और परम्पराओं पर अपरोक्ष हमले किए जाते हैं, लड़कियों को चूड़ी, बिंदी, मेहंदी लगाने से रोका जाता है, छात्रों को तिलक लगाने और हिन्दी बोलने पर न सिर्फ खिल्ली उड़ाई जाती है, बल्कि सजा भी दी जाती है, चैनल इस बारे में कभी कोई आवाज़ क्यों नहीं उठाते? उन्हें सिर्फ सरस्वती शिशु मंदिरों में होने वाले सूर्य नमस्कार और वन्देमातरम पर विवाद खड़ा करना क्यों अच्छा लगता है? अक्सर विश्व हिन्दू परिषद पर राम मंदिर का पैसा खाने का मनगढंत आरोप लगाने वाले स्वयंभू पत्रकार कभी इस बात पर खोजी पत्रकारिता क्यों नहीं करते, कि चर्च को वेटिकन और विभिन्न NGOs से और मदरसों को खाड़ी देशों से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कितना धन मिल रहा है? यदि ईश्वर को समर्पित “देवदासी” की परम्परा, हिंदुत्व के नाम पर कलंक है, तो जीसस के नाम पर समर्पित होने वाली “नन” की परम्परा क्या है? कभी इनकी भूमिका और ननों के शोषण पर राष्ट्रीय चर्चा हुई है? नहीं... इसी प्रकार ईसाई समूहों द्वारा बड़े पैमाने पर किए जाने वाले धर्मान्तरण पर तो शायद कभी कोई बड़ा कार्यक्रम अब तक बना ही नहीं है, जब भी धर्मान्तरण संबंधी कोई बहस होती है, तो उसका मकसद सिर्फहिन्दू संगठनों को "नकारात्मक रंग" में रंगना ही होता है. क्योंकि ऐसा “सेकुलर सोच”(??) बना दिया गया है कि भारत के सभी चर्च और मदरसे सिर्फ “पवित्रता और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति” हैं, जबकि सभी मंदिर-मठ और हिन्दू धर्मगुरु तो लालची-पाखंडी और लुटेरे हैं.


इस दोहरे रवैये के कारण ही सोशल मीडिया आम जनता में धीरे-धीरे न सिर्फ लोकप्रिय हो रहा है, बल्कि अब स्थिति यहाँ तक पहुँचने लगी है कि लोग चैनलों या अखबारों की ख़बरों पर आसानी से भरोसा नहीं करते. “पार्टी विशेष”, “परिवार विशेष” और “कारपोरेट विशेष” की चमचागिरी कर-करके मीडिया ने अपनी छवि इतनी खराब कर ली है कि अब उस पर सहज विश्वास करना कठिन है. फिलहाल मीडिया के पक्ष में सिर्फ दो बातें हैं, पहली है इनकी व्यापक पहुँच और दूसरी इनके पास प्रचुर धन की उपलब्धता. जिस दिन यह दोनों बातें सोशल मीडिया के पास भी होंगी, उस दिन देश में वास्तविक लोकतंत्र दिखाई देगा. 

इस संक्षिप्त लेख का मकसद यही है कि जब तक मीडिया सभी धर्मों, धर्मगुरुओं और धर्मस्थानो की कुरीतियों, शोषण, अत्याचार व लूट के बारे में बड़े ही रहस्यमयी तरीके से सिर्फ “एकपक्षीय रिपोर्टिंग” करता रहेगा, बारम्बार सिर्फ हिन्दू धर्म को ही टारगेट किया जाता रहेगा, जनता में उसके प्रति घृणा और उपेक्षा का भाव बढ़ता ही जाएगा. यह कोई अच्छी बात नहीं बल्कि एक खतरनाक संकेत है, क्योंकि मुख्यधारा के मीडिया का अपना स्थान है, उसे सोशल मीडिया कभी विस्थापित नहीं कर सकता... परन्तु चाहे भ्रष्टाचार की खबरें हो या धार्मिक या सामाजिक... सभी ख़बरों में प्रत्येक वर्ग और समूह के बीच "संतुलन" बनाना बेहद जरूरी है, जो कि अभी नहीं हो रहा.

Maldives : A New Headache to India??

Written by सोमवार, 01 अप्रैल 2013 13:27


क्या अब मालदीव, भारत का नया “सिरदर्द” बनने जा रहा है??


हाल ही में भारत सरकार ने तमिलनाडु की दोनों क्षेत्रीय पार्टियों के दबाव में आकर LTTE के मुद्दे पर श्रीलंका से खामख्वाह बुराई मोल ले ली. श्रीलंका पहले ही अपने बंदरगाह हम्बनटोटा को चीन की मदद से विकसित करके चीन की मदद कर रहा था, लेकिन संयुक्त राष्ट्र में भारत के इस रुख के बाद तो श्रीलंका पूरी तरह से चीन के पाले में चला जाएगा.  

यूपीए-२ के शासनकाल में वैसे ही भारत की विदेश नीति और विदेशी मोर्चों पर लगातार भारी फजीहत हो रही है तथा नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार सहित विभिन्न पड़ोसी देशों से हमारे रिश्ते लगातार खराब होते जा रहे हैं. ऐसे माहौल में एक और बुरी खबर सामने आ रही है. अमेरिका के पोर्टलैंड ओरेगान से अमेरिकी FBI ने रियाज़ कादिर खान नामक एक अमरीकी निवासी को गिरफ्तार किया है, जिसका हाथ लाहौर में हुए बम विस्फोटों में पाया गया है.


इस बम विस्फोट में ३० लोग मारे गए थे और ३०० से अधिक घायल हुए थे. एफबीआई ने अपनी जाँच में पाया कि रियाज़ कादिर ने बम विस्फोट के एक अन्य आरोपी जलील खान को यह सलाह दी थी कि वह मालदीव के रास्ते बिना किसी जाँच के सीधे पाकिस्तान जा सकता है, और जलील ने वैसा ही किया भी. रियाज़ कादिर ने ही जलील खान से कहा था, कि वह पहले मालदीव में एक पर्यटक के रूप में जाए और इसके बाद अपनी दोनों पत्नियों को वहाँ ले जाए.  

एफबीआई ने भारत सरकार को सूचित किया है कि मालदीव बड़ी तेजी से इस्लामिक जेहादियों का केन्द्र और यात्रा स्थानक बनता जा रहा है. यह खबर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की नींद उड़ाने के लिए काफी है.  हालांकि भारत सरकार की एजेंसियों ने काफी पहले ही मालदीव सरकार को सचेत कर दिया था कि उनका देश भी धीरे-धीरे नेपाल के रास्ते जा रहा है, जहाँ से बिना किसी विशेष जाँच-पड़ताल के जेहादी तत्व श्रीलंका, पाकिस्तान और भारत में प्रवेश कर जाते हैं. इसके अलावा मालदीव में दूर-दूर तक फैले हुए कम से कम ११०० छोटे द्वीप ऐसे हैं जो पूरी तरह से निर्जन हैं, और इन द्वीपों की निगरानी या सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है.

यही निर्जन द्वीप भारत-पाकिस्तान और अमेरिका का सिरदर्द बने हुए हैं, क्योंकि जेहादी तत्व यहाँ पर बड़ी आसानी से हथियार, गोला-बारूद और नगद पैसा छिपकर रख सकते हैं, बल्कि कुछ मामलों में ऐसा पाया भी गया है. एक तरह से इस्लामिक आतंकवादियों के लिए यह निर्जन द्वीप “लांचपैड” के रूप में काम कर रहे हैं. हालांकि मालदीव सरकार इन आतंकवादियों की मददगार नहीं है, परन्तु वास्तव में मालदीव के पास इतने संसाधन ही नहीं हैं कि वह इन निर्जन द्वीपों की सतत निगरानी कर सके. यहाँ तक कि भारत ने भी स्वीकार किया कि यदि भारत की वायुसेना भी इनकी निगरानी करे तब भी २४ घंटे / सातों दिन इन की निगरानी करना संभव ही नहीं है.


मालदीव की दूसरी समस्या यह है कि इसकी पूरी अर्थव्यवस्था पर्यटन पर ही टिकी हुई है. इसलिए इसने पर्यटन तथा “सी-फ़ूड” के आयात-निर्यात के नियमों में कई प्रकार की ढील दी हुई है. इसकी आड़ में जेहादी तत्व अपने विशाल नेटवर्क का फायदा उठाते हुए फर्जी कंपनियों के जरिए अपने धन का प्रवाह मालदीव में बना रहे हैं. इस धन को विभिन्न संस्थाओं और माध्यमों के जरिए पहले श्रीलंका, केरल और तमिलनाडु में आसानी से पहुँचाने की व्यवस्था भी अब जड़ें पकड़ चुकी है.

मालदीव की राजधानी माले में २००६ में हुए बम विस्फोट के प्रमुख आरोपी इब्राहीम खान ने खुलासा किया था कि उसे भारत में केरल के नज़दीक एक मजबूत बेस बनाने का निर्देश दिया गया था, जिसे उसने मालदीव में सफल प्रयोग करके सिद्ध भी किया, इसके लिए उसे खाड़ी देशों और पाकिस्तान से धन प्राप्त हुआ था. लश्कर और अल-कायदा ने मालदीव में एक फर्जी संगठन खड़ा कर रखा है जिसका नाम है जमात-ए-मुसलमीन. चूँकि पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए मालदीव में नब्बे दिनों तक कोई वीसा नहीं लेना पड़ता, इस नियम का फायदा उठाकर ढेर सारे जेहादी तत्व वहाँ बड़े आराम से आवाजाही करते रहते हैं.

सुरक्षा अधिकारी स्वीकार करते हैं कि हमें अमेरिका की एजेंसियों से मिलने वाली सूचनाओं का बहुत लाभ होता है, अतः हमें उनके साथ सक्रिय सहयोग स्थापित करना ही चाहिए. अब अमेरिका के भी कान खड़े हो चुके हैं और वह भी मालदीव पर निगाह रखने की फिराक में है. इसलिए इस क्षेत्र और विशेषकर मालदीव के समुद्री इलाके में भारत को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी ही होगी ताकि सुरक्षा और प्रभावशाली गुप्तचर सेवा का लाभ, केरल और तमिलनाडु में पनप रहे जेहादी तत्वों पर नकेल कसने में उठाया जा सके, वर्ना आने वाले समय में जैसे जमीन के रास्ते नेपाल और बांग्लादेश हमारे लिए बड़ी समस्या बन चुके हैं, वैसे ही मालदीव भी बन जाएगा.

Gujrat Electricity Companies Performance and Jyotiraditya Scindia

Written by शनिवार, 23 मार्च 2013 13:55


गुजरात की तरक्की और नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता से इतनी जलन और घबराहट??  


भारत सरकार के ऊर्जा मंत्रालय ने, गुजरात की बिजली कंपनियों की उत्तम कार्यकुशलता तथा शानदार वितरण प्रणाली को मिलने वाले पुरस्कार के भव्य समारोह को ऐन मौके पर रद्द कर दिया, कि कहीं इस पुरस्कार के राष्ट्रीय प्रसारण और प्रचार की वजह से नरेंद्र मोदी को राजनैतिक लाभ न मिल जाए.

असल में मामला यह है कि, समूचे भारत में बिजली चोरी रोकने और उसके अधिकतम वितरण को सुनिश्चित और पुरस्कृत करने के लिए भारत सरकार के ऊर्जा मंत्रालय ने गत वर्ष दो सुविख्यात रेटिंग एजेंसियों ICRA और CARE को यह काम सौंपा था कि वे भारत की विभिन्न सरकारी विद्युत वितरण कंपनियों के कामकाज, विद्युत की हानि और चोरी के बारे में विस्तार से एक रिपोर्ट बनाकर पेश करें, और उसी के अनुसार उन बिजली बोर्डों या कंपनियों को रेटिंग प्रदान करें.

इस कवायद में भारत के बीस विभिन्न राज्यों की 39 बिजली कंपनियों को शामिल किया गया, तथा इनके कामकाज और नुक्सान के बारे में व्यापक सर्वे किया गया. इस के नतीजों के अनुसार “दक्षिण गुजरात वीज कम्पनी लिमिटेड (DGVCL)” को सर्वाधिक अंक 89% तथा “A+” की रेटिंग प्राप्त हुई. इसी प्रकार “पश्चिम बंगाल स्टेट इलेक्ट्रिसिट कम्पनी” तथा “महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी डिस्ट्रीब्यूशन कम्पनी” को 70% अंक और “A” ग्रेड मिला. घटिया प्रदर्शन तथा बिजली चोरी के मामलों में कमी न ला सकने के लिए 11 अन्य कंपनियों को “B+” की रेटिंग मिली, जबकि 8 राज्यों की बिजली कंपनियों को और भी नीचे “C” और “C+” तक की ग्रेड मिली. सूची में सबसे निचले स्थान पर रहने वाली बिजली कंपनियों में उत्तरप्रदेश और बिहार की कम्पनियाँ रहीं.


इस प्रदर्शन सूची और रेटिंग में अव्वल स्थान पर रहने वाली कंपनियों के प्रबंध निदेशकों को ऊर्जा मंत्रालय की तरफ से मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया सम्मानित करने वाले थे, परन्तु जैसे ही उन्हें पता चला कि इस सूची में “टॉप टेन” कंपनियों में से नौ गुजरात से और एकमात्र महाराष्ट्र की हैं, तो सम्मान देने का यह कार्यक्रम ताबड़तोड़ रद्द कर दिया गया. सूची में निचले चार स्थानों पर उत्तरप्रदेश और बिहार की बिजली कम्पनियाँ हैं.

मंत्रालय के इस कार्यक्रम में गुजरात की तीन कंपनियों द्वारा “पावर पाइंट प्रेजेंटेशन” द्वारा यह समझाया जाना था कि उन्होंने बिजली चोरी पर अंकुश कैसे लगाया, बिजली वितरण में होने वाले नुक्सान को कैसे रोका... इत्यादि. उल्लेखनीय है कि बिजली कंपनियों का जो घाटा २००९-१० में 63,500 करोड़ था, वह २०११-१२ में बढ़कर 80,000 करोड़ रूपए तक पहुँच गया है. इसीलिए ऊर्जा मंत्रालय ने ICRA को २० कंपनियों तथा CARE संस्था को १९ कंपनियों का पूर्ण लेखा-जोखा, जमीनी हकीकत, आर्थिक स्थिति इत्यादि के बारे में रिपोर्ट देने को कहा था.

गुजरात और मोदी की सफलता से केन्द्र सरकार इतनी आतंकित है कि इस रिपोर्ट के बारे में की गई प्रेस कांफ्रेंस में सिंधिया ने दस सर्वाधिक मजबूत और सफल कंपनियों का नाम तक लेना जरूरी नहीं समझा, क्योंकि शुरुआती दस में से नौ बिजली कम्पनियाँ तो गुजरात या भाजपा शासित राज्यों की ही हैं, जबकि सिर्फ एक महाराष्ट्र की है. नरेंद्र मोदी लगातार केन्द्र पर तथ्यों और आंकड़ों के साथ यह आरोप लगाते रहे हैं कि कोयला और प्राकृतिक गैस के आवंटन के मामले में केन्द्र हमेशा गुजरात के साथ सौतेला व्यवहार करता आ रहा है. इसके बावजूद बिजली चोरी रोकने, बकाया बिलों की वसूली एवं उत्तम वितरण में गुजरात की बिजली कम्पनियाँ अव्वल आ रही हैं तो जलन इतनी बढ़ गई कि सम्मान समारोह ही रद्द कर दिया.

पावर फाइनेंस कार्पोरेशन द्वारा आयोजित किए जाने वाले इस कार्यक्रम को रद्द किए जाने की सूचना भी एकदम अंतिम समय पर दी गई, जब गुजरात की तीन बिजली कंपनियों के प्रबंध निदेशक, सर्वश्री एन श्रीवास्तव, एचएस पटेल और एसबी ख्यालिया इस सम्मान को लेने दिल्ली भी पहुँच चुके थे. ऊर्जा मंत्रालय ने उन्हें सूचित किया था कि उनका सम्मान किया जाएगा, परन्तु उलटे पाँव लौटाकर उनका अपमान ही कर दिया, क्योंकि मंत्री जी नहीं चाहते थे कि मीडिया में यह बात जोर-शोर से प्रसारित और प्रचारित हो कि नरेंद्र मोदी के गुजरात में बिजली कम्पनियाँ उत्तम कार्यकुशलता दिखा रही हैं, जबकि खोखले विकास के दावे करने और दिल्ली में विशेष राज्य के नाम पर “भीख का कटोरा” लिए खड़े नीतीश और अखिलेश यादव के राज्य बेहद घटिया बिजली कुप्रबंधन और चोरी के शिकार हैं.

अब जबकि नरेंद्र मोदी ने मीडिया में खुलेआम केन्द्र सरकार की धज्जियाँ उडानी शुरू कर दी हैं, श्रीराम कॉलेज तथा इंडिया टुडे कान्क्लेव में दिए गए भाषणों से देश के निम्न-मध्यम वर्ग के बीच उनकी छवि और कार्यकुशलता के चर्चे जोर पकड़ने लगे हैं, तो अगले एक साल में मोदी की छवि बिगाड़ने के लिए (अथवा नहीं बनने देने हेतु) ऐसे कई कुत्सित प्रयास किए जाएंगे. गुजरात की जनता तो जानती है कि वहाँ बिजली-पानी और सड़क की स्थिति कितनी शानदार है, परन्तु यह बात भारत के अन्य राज्यों तक न पहुंचे इस हेतु न सिर्फ जोरदार प्रयास किए जाएंगे, बल्कि मोदी द्वारा विकास को चुनावी मुद्दा बनाने की बजाय, काँग्रेस और सेकुलरों की सुई २००२ के दंगों पर ही अटकी रहेगी.

विशेष नोट :- जो भी काँग्रेस के साथ जब तक रहता है, तब तक उसके सारे गुनाह माफ होते हैं वह महान भी कहलाता है. लेकिन जैसे ही कोई काँग्रेस से मतभिन्नता रखता है या काँग्रेस को कोई गंभीर चुनौती पेश करता है तो काँग्रेस तत्काल उसके साथ “खुन्नस” का व्यवहार पाल लेती है. DMK समर्थन वापसी का मामला तो एकदम ताज़ा है, मैं यहाँ एक पुराना उदाहरण देना चाहूँगा :- एक समय पर अमिताभ बच्चन, गाँधी परिवार के खासुलखास हुआ करते थे, राजीव गाँधी के बाल-सखा और काँग्रेस के सक्रिय सदस्य. इलाहाबाद से चुनाव लड़ा, जीता भी... बोफोर्स कांड में राजीव गाँधी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मीडिया से लड़े... लेकिन राजीव की मौत के बाद जैसे ही अमिताभ बच्चन और गाँधी परिवार के रिश्ते तल्ख़ हुए, तत्काल सोनिया गाँधी की खुन्नस खुलकर सामने आ गई... अमिताभ बच्चन की माँ अर्थात तेजी बच्चन के अन्तिम संस्कार में गाँधी परिवार का एक भी सदस्य मौजूद नहीं था, जबकि भैरोंसिंह शेखावत अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद इसमें शामिल हुए। तेजी बच्चन के स्व.इन्दिरा गाँधी से व्यक्तिगत सम्बन्ध रहे और उन्होंने हमेशा राजीव गाँधी को अपने पुत्र के समान माना और स्नेह दिया। अब तक तो यही देखने में आया है कि अमिताभ के खिलाफ़ आयकर विभाग को सतत काम पर लगाया गया, जया बच्चन की राज्यसभा सदस्यता “दोहरे लाभ पद” वाले मामले में कुर्बान करनी पड़ी, जबकि सोनिया गाँधी को इससे छूट देने के लिए जमीन-आसमान एक किए गए थे. 

संक्षेप में तात्पर्य यह है कि नरेंद्र मोदी से काँग्रेस की खुन्नस इतनी अधिक है कि अब गुजरात में अच्छा काम करने वाली कंपनियों को सम्मानित करने में भी इन्हें झिझक महसूस होने लगी है.

सन्दर्भ :-