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सोमवार, 29 जुलाई 2013 11:06

Narendra Modi Campaign and In-fighting of BJP



नरेन्द्र मोदी की प्रचार रणनीति और भीतरघात के खतरे...


यदि यह तीन नाम किसी हिन्दी फिल्म के होते, तो निश्चित ही वह फ़िल्में भी उतनी ही हिट होतीं, जितना कि नरेन्द्र मोदी को लेकर (24 X 7 X 365) दिन-रात तक “स्यापा” करने वाले चैनलों ने कमाया. जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ, “कुत्ते के पिल्ले”, “सेकुलरिज्म का बुरका” और “पाँच रूपए की औकात” नामक तीन “फिल्मों”(?) की. किसी एक हीरो द्वारा दस दिनों के अंतराल में लगातार तीन-तीन हिट फ़िल्में देना मायने रखता है, ये बात और है कि नरेन्द्र मोदी स्वयं को तेजी से भारत की जनता के बीच “हीरो” अथवा “विलेन” के रूप में ध्रुवीकरण करते जा रहे हैं.


भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के सशक्त उम्मीदवार और फिलहाल “राष्ट्रीय प्रचार प्रमुख” ने जिस अंदाज़ में पहले संवाद एजेंसी “रायटर” को इंटरव्यू दिया, उसके बाद पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में युवाओं को संबोधित किया उसने मीडिया, काँग्रेस, सेकुलरों और वामपंथियों के होश उड़ाकर रख दिए. बची-खुची कसर हैदराबाद की प्रस्तावित रैली में भाजपा की स्थानीय इकाई द्वारा मोदी को सुनने के लिए पाँच रूपए का अंशदान लेने की घोषणा ने पूरी कर दी. नरेन्द्र मोदी के प्रत्येक भाषण और इंटरव्यू को खुर्दबीन लेकर जाँचने वाले “बुद्धिजीवियों” की निगाह कुछ ऐसा मसाला खोजती ही रहती है, जिसके द्वारा उनकी रोजी-रोटी चलती रहे और टीवी पर “भौं-भौं-थू-थू-तू-तू-मैं-मैं” के दौरान उनका मुखड़ा दिखाई देता रहे. उपरोक्त तीनों नामों की सुपरहिट साप्ताहिक फ़िल्में इन्हीं बुद्धिजीवियों की देन है. (यहाँ बुद्धिजीवियों से मेरा आशय “बुद्धि को गिरवी रखकर” अपनी रोटी कमाने वालों से है).

बहरहाल, यह सिद्ध होता जा रहा है कि जो हुआ अच्छा ही हुआ. क्योंकि नरेन्द्र मोदी को घेरने और उनके कथनों को प्रताड़ित करने से नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता घटती नहीं है, बल्कि बढ़ती है, उनके भाषणों को लगातार घंटे भर बिना ब्रेक के दिखाने से चैनलों की TRP भी बढ़ती है... यानी सभी के लिए यह फायदे का सौदा होता है. दिक्कत काँग्रेस को हो रही है, उसे समझ नहीं आ रहा है कि नरेन्द्र मोदी के इस आक्रामक प्रचार अभियान का जवाब कैसे दिया जाए, नतीजे में काँग्रेस कभी दिग्विजय सिंह (जिनका प्रत्येक बयान संघ समर्थकों में बढ़ोतरी ही करता है), कभी मनीष तिवारी (जो चाटुकारिता की सीमाओं को पार करते हुए मोदी की औकात पाँच रूपए बताकर मोदी को फायदा पहुंचाते हैं), तो कभी शशि थरूर (जो खाकी पैंट को इतालवी फासीवाद तक ले जाने की मूर्खता कर बैठते हैं)... जैसे प्रवक्ताओं को आगे करती जा रही है. लेकिन इन लोगों की बयानबाजी से नुकसान और भी बढ़ता जा रहा है, ध्रुवीकरण और तेज होता जा रहा है. भले ही नरेन्द्र मोदी ने किसी समुदाय विशेष को कुत्ते का पिल्ला नहीं कहा हो, लेकिन काँग्रेस-पोषित मीडिया और काँग्रेस-जनित बुद्धिजीवियों ने मुसलमानों को कुत्ते का पिल्ला साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.

जैसा कि सब जानते हैं नरेन्द्र मोदी कोई भी बात अथवा उदाहरण बगैर सोचे-समझे नहीं देते. ज़ाहिर है कि नरेन्द्र मोदी अपने विरोधियों को उकसाना चाहते थे, और वह कामयाब भी रहे. यूपी-बिहार के मुस्लिम वोटों को लेकर आगामी कुछ महीने में जैसा घमासान मचने वाला है, उसके कारण हिन्दू वोटर अपने-आप ध्रुवीकृत होता चला जाएगा. गत तीन दशक गवाह हैं कि यूपी-बिहार में “जाति” की ही राजनीति चलती है, और इस जातिगत राजनीति का तोड़ या तो विकास की बात करना है, अथवा हिन्दू वोटरों जाति तोड़कर धर्म के आधार पर एकत्र करना है. नरेन्द्र मोदी दोनों ही रणनीतियों पर चल रहे हैं. जिन राज्यों में विकास की बात चलेगी वहाँ पर गुजरात का विकास दिखाया जाएगा, मोदी के भाषणों में वर्तमान UPA सरकार द्वारा फैलाए जा रहे निराशाजनक वातावरण के साथ युवाओं को लेकर बनने वाले चमकदार भविष्य की बात की जाएगी, और जिन राज्यों में धर्म-जाति की राजनीति चलती होगी, वहाँ अमित शाह को प्रभारी बनाकर उन्हें सांकेतिक रूप से राम मंदिर भी भेजा जाएगा.

मोदी के इस रणनीति को लेकर काँग्रेस इस समय गहरी दुविधा में है. काँग्रेस यह निश्चित नहीं कर पा रही है कि १) क्या वह राहुल गाँधी को स्पष्ट रूप से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे या ना करे?? (ऐसा करने पर खतरा यह होगा कि लड़ाई मुद्दों से हटकर व्यक्तित्वों पर फोकस हो जाएगी, शहरी मध्यमवर्ग और युवाओं के गुस्से को देखते हुए काँग्रेस यह नहीं चाहती)... २) क्या नरेन्द्र मोदी का “हौआ” दिखाकर सर्वाधिक सीटों वाले यूपी-बिहार के मुसलमानों को अपने पक्ष में किया जा सकता है?? (इसमें खतरा यह है कि भाजपा को छोड़कर सभी पार्टियाँ मुस्लिम वोट रूपी केक में से अपना टुकड़ा झपटने की तैयारी में हैं, इसलिए निश्चित नहीं कहा जा सकता कि मोदी को हराने के नाम पर क्या वाकई मुसलमान काँग्रेस को वोट देंगे?)... और काँग्रेस की दुविधा का तीसरा बिंदु है - क्या काँग्रेस को अपने पुराने फार्मूले अर्थात “गरीब को गरीब बनाए रखो और चुनाव के समय उसके सामने रोटी का एक टुकड़ा फेंककर उसके वोट ले लो” को ही आजमाना चाहिए? उल्लेखनीय है कि २००९ के चुनावों में “मनरेगा” एवं किसानों की कर्ज माफी के 72,000 करोड़ रूपए ने ही काँग्रेस की नैया पार लगाई थी. यही दाँव काँग्रेस अब दोबारा खेलना चाहती है “खाद्य सुरक्षा क़ानून” के नाम पर. लेकिन इसमें खतरा यह है कि खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों और नित नए सर्विस टैक्स की वजह से शहरी मध्यमवर्ग काँग्रेस से और भी नाराज़ हो जाएगा, ऐसा भी हो सकता है कि आगामी चुनाव बुरी तरह त्रस्त निम्न-मध्यमवर्ग बनाम बेहद गरीब वर्ग के बीच हो जाए. कुल मिलाकर काँग्रेस खुद अपने ही जाल में उलझती जा रही है, जबकि उधर नरेन्द्र मोदी मैदान में उतरकर बैटिंग की शुरुआत में ही “तीन चौके” लगा चुके हैं.


हालाँकि “सेकुलरिज्म के अखाड़े” में उतरने के लिए नरेन्द्र मोदी भी अपनी कमर कस चुके हैं. मोदी ने संसदीय बोर्ड की बैठक में ही स्पष्ट कर दिया है कि “सेकुलरिज्म” के मुद्दे पर काँग्रेस को समुचित जवाब दिया जाएगा. जनता को यह बताया जाएगा कि पिछले ६० साल में काँग्रेस ने किस तरह मुसलमानों का उपयोग किया, किस तरह दंगों के समय अधिकाँश राज्यों में काँग्रेस (या गैर-भाजपाई) सरकारें थीं, किस तरह काँग्रेस ने विभिन्न प्रकार के “लालीपाप” दे-देकर मुसलमानों को बेवकूफ बनाया. साथ ही यह भी बताया जाएगा कि गुजरात के मुसलमानों की तुलना में पश्चिम बंगाल और बिहार के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति कितनी नीचे है. तात्पर्य यह है कि “प्रचार प्रमुख” तो पूरे दमखम और फुल-फ़ार्म में गांधीनगर से दिल्ली की ओर कूच कर चुके हैं, जबकि काँग्रेस CBI या SIT के जरिए किसी “अप्रत्याशित लाटरी” की प्रत्याशा में बैठी है, और उनके “युवराज” महीने-दो महीने में एकाध जगह पर अपने दर्शन देकर वापस अपनी मांद में घुस जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि भाजपा या नरेन्द्र मोदी के सामने सब कुछ अच्छा-अच्छा, गुलाबी-गुलाबी ही है. नरेन्द्र मोदी की राह में कई किस्म के रोड़े भी हैं. संघ के हस्तक्षेप और बीचबचाव के बावजूद आडवाणी खेमा पार्टी पर अपनी पकड़ छोड़ने को तैयार नहीं है. खुद आडवाणी भी अभी तक अनमने ढंग से ही नरेन्द्र मोदी के साथ हैं, उन्होंने अभी तक एक बार भी नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री दावेदारी के पक्ष में खुलकर कुछ नहीं कहा है. इस बीच मध्यप्रदेश में भाजपा ने राघव जी के रूप में “आत्मघाती गोल” कर लिया है. भले ही मप्र काँग्रेस इस खुलासे के लिए अपनी पीठ ठोंकती रहे, लेकिन वास्तव में यह भाजपा की अंदरूनी गुटबाजी और महत्वाकांक्षा का ही नतीजा था कि यह सीडी कांड हो गया. हालाँकि राघव जी की इतनी राजनीतिक हैसियत कभी नहीं रही कि वे शिवराज या सुषमा को चुनौती दे सकें, परन्तु फिर भी पत्रकार जगत में दबे शब्दों में इस कांड को शिवराज बनाम मोदी वर्चस्व से जोड़ने की कोशिश हो रही है. इस प्रकार की गुटबाजी देश के लगभग प्रत्येक राज्य में है. मोदी की असली चुनौती उत्तरप्रदेश-बिहार और महाराष्ट्र में होगी. जहाँ उन्हें दो विपरीत ध्रुवों को एक साथ साधना है. यदि नरेन्द्र मोदी महाराष्ट्र में उद्धव-राज को एक साथ लाने तथा कर्नाटक में येद्दियुरप्पा को ससम्मान वापस लाने में कामयाब रहे तो रास्ता काफी आसान हो जाएगा. हालाँकि राज ठाकरे को साथ लाने में एक पेंच यह है कि “मनसे” के विरुद्ध यूपी-बिहार में लगभग घृणा का माहौल है, इसलिए महाराष्ट्र की १५-२० सीटों के लिए खुले तौर पर राज ठाकरे को साथ लेने पर यूपी-बिहार की कई सीटों को गँवाने और विरोधियों के दुष्प्रचार का सामना भी करना पड़ सकता है. केरल में नरेन्द्र मोदी पहले ही पेजावर मठ तथा नारायण गुरु आश्रम जाकर नमन कर चुके हैं, तमिलनाडु से भी जयललिता का साथ मिलने का आश्वासन है. आंध्रप्रदेश में तेलंगाना विवाद ने काँग्रेस शासित इस सबसे सशक्त राज्य में उसकी हालत पतली कर रखी है. ज़ाहिर है कि नरेन्द्र मोदी के नाम, उनकी भाषण शैली, काँग्रेस पर सीधा हमला बोलने की अदा और गुजरात की विकासवादी छवि के सहारे यदि मोदी अपने दम पर यूपी-बिहार-झारखंड की लगभग १३० सीटों में से ६० सीटें भी ले आते हैं, तो काँग्रेस का नाश तय है. इसीलिए इन दोनों राज्यों में आने वाले महीनों में मुसलमानों के वोटों और आरक्षण के नाम पर कोई ना कोई गडबड़ी होने की आशंका जताई जा रही है. नरेन्द्र मोदी के समर्थक और संघ चाहेंगे कि पार्टी को २०० से २२० सीटों के बीच प्राप्त हो जाएँ, उसके बाद तो राह अपने-आप आसान हो जाएगी... जबकि आडवाणी गुट चाहता है कि भाजपा किसी भी हालत में १८० सीटों से आगे ना निकल सके, ताकि बाद में “सर्वसम्मति” और “काँग्रेस विरोधी गठबंधन” के नाम पर ममता-नीतीश-पटनायक-मायावती इत्यादि को साधकर आडवाणी के नाम को आगे बढ़ाया जा सके.

अतः नरेन्द्र मोदी के सामने जहाँ एक तरफ काँग्रेस-सेकुलर-वामपंथ-सीबीआई-NGO-मीडिया जैसे मजबूत “गठबंधन” से निपटने की चुनौती है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा के स्थानीय क्षत्रपों की आपसी सिर-फुटव्वल तथा आडवाणी गुट के “बेमन” से किए जा रहे सहयोग से भी निपटना है. हालाँकि काँग्रेस के विरोध तथा नरेन्द्र मोदी के पक्ष में लगभग प्रत्येक राज्य में एक “अंडर-करंट” बह रहा है, भले ही काँग्रेस या मीडिया इसे न स्वीकार करे परन्तु जिस तरह से मोदी के प्रत्यके शब्द और प्रत्येक हरकत पर उनके विरोधियों द्वारा तीखी प्रतिक्रिया दी जाती है, उससे साफ़ है कि वे भी इस “अंडर-करंट” को महसूस कर चुके हैं. स्वाभाविक है कि अगले छः-आठ माह देश की राजनीति और भविष्य के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं.
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बुधवार, 03 जुलाई 2013 10:58

Buddhist Terror and Osama of Myanmar...



बौद्ध आतंक(?) और बर्मा का ओसामा...

इसे किसी एक पत्रकार की इतिहास और संस्कृति के बारे में जानकारी का “दिवालियापन” कहें या उत्तेजना फैला कर क्षणिक प्रचार पाने की भूख कहें, यह समझना मुश्किल है. विश्व में प्रतिष्ठित मानी जाने वाली अमेरिका की पत्रिका “टाईम” में गत माह एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसकी लेखिका हैं हन्नाह बीच. टाईम पत्रिका की कवर स्टोरी बनना और उसके मुखपृष्ठ पर प्रकाशित होना एक “सर्कल विशेष” में बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती है. हन्नाह बीच ने बर्मा में पिछले एक-दो वर्ष से जारी जातीय हिंसा को कवर स्टोरी बनाते हुए लेख लिखा है जिसका शीर्षक है – “बौद्ध आतंक का चेहरा”.

इस शीर्षक पर कड़ी आपत्ति जताते हुए बर्मा के राष्ट्रपति थिआं सेन ने बौद्ध संस्कृति के घोर अपमान तथा बौद्ध धर्म और बर्मी राष्ट्रवाद के समर्थन में हन्नाह बीच और टाईम पत्रिका पर मानहानि का दावा करने का निश्चय किया है. राष्ट्रपति के समर्थन में आम जनता भी साथ आ गई है, और हजारों बौद्ध भिक्षुओं के साथ बर्मा की राजधानी यंगून में अमेरिकी दूतावास के सामने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया गया.

यह लेख प्रकाशित होने तथा मामले के इतना तूल पकड़ने की वजह हैं ४४ वर्षीय बौद्ध धर्मगुरु भंते वीराथू. सितम्बर २०१२ में बौद्ध भिक्षुओं के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए भंते विरथू ने बर्मी राष्ट्रपति द्वारा अवैध रूप से देश में घुसे बांग्लादेशियों को देश से खदेड़ने सम्बन्धी क़ानून का समर्थन किया था. पिछले लगभग एक साल से बांग्लादेश सीमा पार कर बर्मा में घुसे हुए रोहिंग्या मुसलमानों और स्थानीय बौद्ध भिक्षुओं व निवासियों के बीच तनातनी का माहौल चल रहा था. इस बीच रखिने प्रांत में एक मामूली विवाद के बाद हिंसा भड़क उठी, जो देखते ही देखते अन्य शहरों में भी फ़ैल गई. भंते विरथू का दावा है कि एक ज्वेलरी दूकान में कुछ मुस्लिम युवकों द्वारा की गई बदतमीजी, लूट के प्रयास और मारपीट के बाद बौद्ध समुदाय का गुस्सा उबल पड़ा. बौद्ध भिक्षुओं ने १४ बांग्लादेशी मुसलमानों को मार दिया और कई मस्जिदों में आग लगा दी. उल्लेखनीय है कि सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ लगभग सवा करोड़ अवैध बांग्लादेशी मुस्लिम बर्मा में घुसे हुए हैं जो स्थानीय निवासियों को आए दिन परेशान करते रहते हैं.

भंते विराथू अपने राष्ट्रवादी भाषणों के लिए जाने जाते हैं, और उनका यह वाक्य बर्मा में बहुत लोकप्रिय हुआ जिसमें उन्होंने कहा कि – “...आप चाहे जितने भी भले और सहिष्णु क्यों ना हों, लेकिन आप एक पागल कुत्ते के साथ सो नहीं सकते...”. उन्होंने आगे कहा कि यदि हम कमजोर पड़े तो बर्मा को एक मुस्लिम राष्ट्र बनते देर नहीं लगेगी. उनके ऐसे भाषणों को बांग्लादेशी मुस्लिम नेताओं ने “भडकाऊ” और “हिंसात्मक” करार दिया. लेकिन भंते कहते हैं कि यह हमारे देश को संभालने की बात है, इसमें किसी बाहरी व्यक्ति को बोलने का कोई हक नहीं है. बौद्ध सम्प्रदाय के लोग कभी भी हिंसक नहीं रहे हैं, परन्तु बांग्लादेशी मुसलमान उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर कर रहे हैं”. इन्हीं भाषणों को आधार बनाकर टाईम पत्रिका ने एक कवर स्टोरी बना मारी. इस स्टोरी में बौद्ध संस्कृति से अनजान, “नासमझ”(?) लेखिका ने ना सिर्फ “बौद्ध आतंक” शब्द का उपयोग किया, बल्कि भंते विरथू को “बर्मा का बिन लादेन” तक चित्रित कर दिया गया.


बर्मा के राष्ट्रपति ने बौद्ध धर्मगुरु का समर्थन करते हुए कहा है कि सरकार सभी धर्मगुरुओं और सभी पक्षों के नेताओं से चर्चा कर रही है और इस्लाम विरोधी इस हिंसा का कोई ना कोई हल निकल आएगा. शांति बनाने के लिए किए जा रहे इन उपायों को इस लेख में पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया गया है. इसलिए शक होता है कि इस लेख के पीछे अतिवादी इस्लामिक बुद्धिजीवियों का हाथ हो सकता है, जो कि समस्या की "जड़" (अर्थात अवैध बांग्लादेश घुसपैठिये तथा इस्लाम के नाम पर उन्हें मिलने वाले स्थानीय समर्थन) पर ध्यान देने की बजाय “जेहाद” भड़काने की दिशा में बर्मा सरकार और बौद्ध समुदाय को बदनाम करने में लगा हुआ है. भंते ने कहा कि टाईम मैगजीन की इस कवर स्टोरी से समूचे विश्व में बौद्ध समुदाय की छवि को नुकसान पहुँचा है, इसीलिए हम इसका कड़ा विरोध करते हैं. बौद्ध धर्म हिंसक कतई नहीं है, लेकिन यदि बांग्लादेशियों पर लगाम नहीं लगाई गई और बर्मा में मुसलमानों की बढती आबादी की समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह मामला और आगे बढ़ सकता है. भंते ने बर्मा सरकार से अनुरोध किया है कि बौद्ध और मुस्लिम समुदायों के बीच विवाह पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए, धर्मांतरण पर रोक लगनी चाहिए तथा बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा किए जा रहे व्यवसाय और उनके कामकाज पर आर्थिक बहिष्कार होना चाहिए. विराथू कहते हैं यह हमारे देश और धर्म को बचाने का आंदोलन है. टाईम पत्रिका के इस लेख से हम कदम पीछे हटाने वाले नहीं हैं और अपने धर्म और राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे.

अब आप सोच रहे होंगे कि इस मामले का हमारे देश से क्या सम्बन्ध है? जरूर सोचिए... सोचना भी चाहिए... सोचने से ही तो “मीडिया द्वारा बंद की गई” दिमाग की खिड़कियाँ खुलती हैं और उनमें ताजी हवा आती है. लेख को पढ़ने के बाद निश्चित रूप से आपके दिमाग की घंटियाँ बजी होंगी... “हिन्दू आतंक” शब्द भी गूँजा होगा, तथा हिन्दू आतंक शब्द का विरोध करने वालों को “साम्प्रदायिक” कहने के “फैशन” पर भी विचार आया होगा. दिल्ली-मुम्बई समेत असम और त्रिपुरा जैसे सुदूर राज्यों में घुसे बैठे लाखों अवैध बांग्लादेशियों और इस्लाम के नाम पर उन्हें मिलने वाले “स्थानीय समर्थन” के बारे में भी थोड़ा दिमाग हिला ही होगा... इसी प्रकार भारत में “मूलनिवासी” के नाम पर व्यवस्थित रूप से चलाए जा रहे “बौद्धिक आतंकवाद” की तरफ भी ध्यान गया ही होगा. लखनऊ में बुद्ध प्रतिमा पर चढ़े बैठे और तोड़फोड़ मचाते “शांतिदूतों” का चित्र भी आँखों के सामने घूमा ही होगा. उन “शांतिदूतों” की उस हरकत पर दलित विचारकों-चिंतकों(?) की ठंडी प्रतिक्रिया भी आपने सुनी ही होगी... तात्पर्य यह कि सोचते जाईये, सोचते जाईये, आपके दिमाग के बहुत से जाले साफ़ होते जाएँगे... बर्मा के बौद्ध धर्मावलंबी तो जाग चुके, लेकिन आप “नकली-सेकुलरिज्म की अफीम” चाटे अभी भी सोए हुए हैं.
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