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रविवार, 29 जून 2008 16:26
भारत बन रहा है मानव अंगों की मंडी
Human Body Organ Smuggling
गत कुछ वर्षों मे हमारे भारत में कुछ वीभत्स प्रकार के अपराध सामने आये हैं, जिसमें सबसे प्रमुख है निठारी काण्ड जिसमें अपराधियों ने बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार करने के बाद उनके अंग (विशेषकर किडनी) निकाल लिये। दूसरा केस डॉ अमित का है जिसे “किडनी किंग(?)” कहा जा रहा है और जिसका नेटवर्क नेपाल तक फ़ैला हुआ है, और जिसके ग्राहकों में कई विशिष्ट व्यक्ति भी शामिल हैं।
सभी को याद होगा कि इंग्लैंड निवासी स्कारलेट की गोवा में हत्या हुई थी, और जब भारतीय पुलिस और शासकीय मशीनरी के हाथों उसकी मिट्टी के चीथड़े-चीथड़े करके उधर भेजा गया था तब पाया गया था कि उसके शरीर के कई महत्वपूर्ण अंग गायब थे और स्कारलेट की माँ ने आरोप लगाया था कि उन्हें भारत में निकाल लिया गया है। अकेले उत्तरप्रदेश से गत पाँच वर्षों में 12,000 से अधिक गुमशुदगी के मामले आये हैं, जिसमें से अधिकतर बच्चे हैं। इस प्रकार की खबरें लगातार आती रहती हैं कि अपराधी तत्व कब्रिस्तानों और श्मशानों में (जहाँ बच्चों को दफ़नाया जाता है) से मानव कंकाल, खोपड़ी और मजबूत हड्डियाँ आदि खोदकर ले जाते हैं जो ऊँची कीमतों में बिकती हैं।
एक और पक्ष देखिये, दिनों-दिन नये-नये मेडिकल कॉलेज खुलते जा रहे हैं, उनके पास विद्यार्थियों को “प्रैक्टिकल” करवाने के लिये पर्याप्त मात्रा में मृत शरीर नहीं हैं, मेडिकल कॉलेज लोगों से “देहदान” के लिये लगातार अपीलें करते रहते हैं, लेकिन इस मामले में जागरूकता अभी नहीं के बराबर है (क्योंकि अभी तो नेत्रदान के लिये ही जागरूकता का अभाव है)। अब भारत में घटी या घट रही इन सब घटनाओं को आपस में जोड़कर एक विशाल चित्र देखिये/सोचिये। क्या आपको नहीं लगता कि भारत में मानव अंगों की चोरी, तस्करी, विक्रय का एक विशाल रैकेट काम कर रहा है? छिटपुट मामले कभी-कभार पकड़ में आते हैं, लेकिन निठारी या डॉ अमित जैसे बड़े केस इक्का-दुक्का ही हैं। जाहिर है कि यह “धंधा” बेहद मुनाफ़े वाला है और मुर्दे शिकायत भी नहीं करते, ऐसे में अपराधियों, दलालों, गंदे दिमाग वाले डॉक्टरों और किडनी, आँखें, लीवर आदि अंगों के विदेशी ग्राहकों का एक खतरनाक गैंग चुपचाप अपना काम जारी रखे हुए है।
कई मामलों में जाँचकर्ताओं ने पाया है कि इस प्रकार के मानव अंगों के मुख्य खरीदार अरब देशों के अमीर शेख, कनाडा, जर्मनी और अमेरिका के बेहद धनी लोग होते हैं। भारत की गरीबी और सस्ते मेडिकल इन्फ़्रास्ट्रक्चर का भरपूर दोहन करके ये लोग किडनी, आँखें, दाँत आदि प्रत्यारोपित करवाते हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष एक लाख किडनी प्रत्यारोपण की आवश्यकता है, जबकि आधिकारिक और कानूनी रूप से सिर्फ़ 5000 किडनियाँ बदली जा रही हैं, जाहिर है कि “माँग और पूर्ति” में भारी अन्तर है और इसका फ़ायदा “स्मगलर” उठाते हैं। (सन्दर्भ)
मजे की बात तो यह है कि आमतौर पर लोग सोचते हैं कि किडनी बदलना और कार का टायर बदलना लगभग एक जैसा ही है। लेकिन ऐसा है नहीं, क्योंकि किडनी लेने वाले और देने वाले का “परफ़ेक्ट मैच” होना बहुत ही मुश्किल होता है तथा ऑपरेशन के बाद दोनों व्यक्तियों की उचित देखभाल और लम्बा इलाज जरूरी होता है। स्मग्लिंग के इन मामलों में “लेनेवाले अमीर” की देखभाल तो बेहतर हो ही जाती है, मारा जाता है बेचारा गरीब देने वाला। जो भी पैसा उसे किडनी बेचकर मिलता है वह उसके अगले पाँच साल की दवाई में ही खर्च हो जाता है (यदि तब तक वह जीवित रहा तो)। “एम्स” के डॉक्टर संदीप गुलेरिया कहते हैं कि भारत में डायलिसिस की सुविधायें अभी भी बहुत कम जगहों पर हैं और बेहद महंगी हैं, इसलिये लोग किडनी बदलवाने का “आसान रास्ता”(?) अपनाते हैं।
इस “गंदे धंधे” की जड़ में जहाँ एक ओर गरीबी और अशिक्षा है, वहीं दूसरी ओर इन मामलों में भारत के लचर कानून भी हैं। कानूनी तौर पर किडनी दान करना भी एक बेहद जटिल प्रक्रिया है, जिसका फ़ायदा “दलाल” किस्म के डॉक्टर उठाते हैं। अब जाकर सरकार इस दिशा में कोई स्पष्ट कानून बनाने के बारे में विचार कर रही है, ताकि अंगदान को आसान बनाया जा सके। चीन में भी मानव अंग खरीदना-बेचना जुर्म माना जाता है, और इसके लिये कड़ी सजा के प्रावधान भी हैं, लेकिन 1984 में चीन सरकार ने संशोधन करके एक कानून पास किया है जिसके अनुसार आजीवन कारावास प्राप्त किसी कैदी, जिसके कोई भी रिश्तेदार मरणोपरांत उसका मृत देह लेने नहीं आयें, के अंग सरकार की अनुमति से निकाले जा सकते हैं और प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं। हालांकि धांधली वहाँ भी कम नहीं है, क्योंकि चीन सरकार के अनुसार 2002 में 1060 कैदियों को मौत की सजा सुनाई गई थी, जबकि एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार इनकी संख्या 15000 से ऊपर है। इन कैदियों के महत्वपूर्ण अंग सिंगापुर और हांगकांग के अमीर चीनियों को लगाये गये।
ऐसा कहा जाता है कि रूस, भारत, कुछ दक्षिण एशियाई देश और कुछ बेहद गरीब अफ़्रीकी देशों में यह धंधा जोरों पर है। इन देशों में मानव अंगों, किडनी, आँखों के कॉर्निया, लीवर, चमड़ी आदि निकालकर बिचौलियों के जरिये बेचे जाते हैं। हाइवे पर अकेले चलने वाले ड्रायवर, नशे में हुए एक्सीडेंट जिनमें लाश लावारिस घोषित हो जाती है, अकेले रहने वाले बूढ़े जिनकी असामयिक मौत हो जाती है, गरीब, मजबूर और कर्ज से दबे हुए लोग आदि इस माफ़िया के आसान शिकार होते हैं (मुम्बई, गुड़गाँव, चेन्नई चारों तरफ़ इस प्रकार के अपराध पकड़ में आ रहे हैं, हाल ही में उज्जैन में एक किडनी रैकेट पकड़ाया है जो डॉकटरों की मिलीभगत से गरीबों और मजदूरों को किडनी बेचने के लिये फ़ुसलाता था)। “ऑर्डर” पूरा करने के चक्कर में कई बार ये अपराधी अपहरण करने से भी नहीं हिचकते। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्ययन के लिये शरीर के विभिन्न अंगों माँग बनी रहती है, इसी प्रकार आयरलैण्ड और जर्मनी आदि यूरोपीय देशों में टाँगों की लम्बी और मजबूत हड्डियाँ की फ़ार्मेसी कम्पनियाँ मंगवाती हैं जिन्हें दाँतों की “फ़िलिंग” के काम में लिया जाता है।
ऊपर दिये गये तथ्य निश्चित रूप से एक भयानक दुष्चक्र की ओर इशारा करते हैं… ऐसे में हमें अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है, किसी भी अन्जान जगह पर किसी अजनबी पर एकदम विश्वास न करें न ही उसके साथ अधिक समय अकेले रहें, बच्चों को रातों में अकेले सुनसान जगहों पर जाने से हतोत्साहित करें, यदि पार्टी में ज्यादा नशा हो गया हो तो किसी दोस्त को साथ लेकर ही देर रात को घर लौटें…
और इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हुआ न मानें, क्योंकि धरती पर सबसे खतरनाक प्राणी है “इंसान”, जिससे सभी को सावधान रहना चाहिये…
Kidney Transplantation in India, Human Organ Trafficking in India, Illegal Kidney Transplantation and Laws in India, Kidney Racket exposed in India, South Asian and African Countries Kidney Transplantation, Kidney Sale Purchase, Poverty and Illiteracy in India, किडनी प्रत्यारोपण, अवैध मानव अंग तस्करी और भारतीय कानून, किडनी रैकेट, डॉ अमित कुमार, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
गत कुछ वर्षों मे हमारे भारत में कुछ वीभत्स प्रकार के अपराध सामने आये हैं, जिसमें सबसे प्रमुख है निठारी काण्ड जिसमें अपराधियों ने बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार करने के बाद उनके अंग (विशेषकर किडनी) निकाल लिये। दूसरा केस डॉ अमित का है जिसे “किडनी किंग(?)” कहा जा रहा है और जिसका नेटवर्क नेपाल तक फ़ैला हुआ है, और जिसके ग्राहकों में कई विशिष्ट व्यक्ति भी शामिल हैं।
सभी को याद होगा कि इंग्लैंड निवासी स्कारलेट की गोवा में हत्या हुई थी, और जब भारतीय पुलिस और शासकीय मशीनरी के हाथों उसकी मिट्टी के चीथड़े-चीथड़े करके उधर भेजा गया था तब पाया गया था कि उसके शरीर के कई महत्वपूर्ण अंग गायब थे और स्कारलेट की माँ ने आरोप लगाया था कि उन्हें भारत में निकाल लिया गया है। अकेले उत्तरप्रदेश से गत पाँच वर्षों में 12,000 से अधिक गुमशुदगी के मामले आये हैं, जिसमें से अधिकतर बच्चे हैं। इस प्रकार की खबरें लगातार आती रहती हैं कि अपराधी तत्व कब्रिस्तानों और श्मशानों में (जहाँ बच्चों को दफ़नाया जाता है) से मानव कंकाल, खोपड़ी और मजबूत हड्डियाँ आदि खोदकर ले जाते हैं जो ऊँची कीमतों में बिकती हैं।
एक और पक्ष देखिये, दिनों-दिन नये-नये मेडिकल कॉलेज खुलते जा रहे हैं, उनके पास विद्यार्थियों को “प्रैक्टिकल” करवाने के लिये पर्याप्त मात्रा में मृत शरीर नहीं हैं, मेडिकल कॉलेज लोगों से “देहदान” के लिये लगातार अपीलें करते रहते हैं, लेकिन इस मामले में जागरूकता अभी नहीं के बराबर है (क्योंकि अभी तो नेत्रदान के लिये ही जागरूकता का अभाव है)। अब भारत में घटी या घट रही इन सब घटनाओं को आपस में जोड़कर एक विशाल चित्र देखिये/सोचिये। क्या आपको नहीं लगता कि भारत में मानव अंगों की चोरी, तस्करी, विक्रय का एक विशाल रैकेट काम कर रहा है? छिटपुट मामले कभी-कभार पकड़ में आते हैं, लेकिन निठारी या डॉ अमित जैसे बड़े केस इक्का-दुक्का ही हैं। जाहिर है कि यह “धंधा” बेहद मुनाफ़े वाला है और मुर्दे शिकायत भी नहीं करते, ऐसे में अपराधियों, दलालों, गंदे दिमाग वाले डॉक्टरों और किडनी, आँखें, लीवर आदि अंगों के विदेशी ग्राहकों का एक खतरनाक गैंग चुपचाप अपना काम जारी रखे हुए है।
कई मामलों में जाँचकर्ताओं ने पाया है कि इस प्रकार के मानव अंगों के मुख्य खरीदार अरब देशों के अमीर शेख, कनाडा, जर्मनी और अमेरिका के बेहद धनी लोग होते हैं। भारत की गरीबी और सस्ते मेडिकल इन्फ़्रास्ट्रक्चर का भरपूर दोहन करके ये लोग किडनी, आँखें, दाँत आदि प्रत्यारोपित करवाते हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष एक लाख किडनी प्रत्यारोपण की आवश्यकता है, जबकि आधिकारिक और कानूनी रूप से सिर्फ़ 5000 किडनियाँ बदली जा रही हैं, जाहिर है कि “माँग और पूर्ति” में भारी अन्तर है और इसका फ़ायदा “स्मगलर” उठाते हैं। (सन्दर्भ)
मजे की बात तो यह है कि आमतौर पर लोग सोचते हैं कि किडनी बदलना और कार का टायर बदलना लगभग एक जैसा ही है। लेकिन ऐसा है नहीं, क्योंकि किडनी लेने वाले और देने वाले का “परफ़ेक्ट मैच” होना बहुत ही मुश्किल होता है तथा ऑपरेशन के बाद दोनों व्यक्तियों की उचित देखभाल और लम्बा इलाज जरूरी होता है। स्मग्लिंग के इन मामलों में “लेनेवाले अमीर” की देखभाल तो बेहतर हो ही जाती है, मारा जाता है बेचारा गरीब देने वाला। जो भी पैसा उसे किडनी बेचकर मिलता है वह उसके अगले पाँच साल की दवाई में ही खर्च हो जाता है (यदि तब तक वह जीवित रहा तो)। “एम्स” के डॉक्टर संदीप गुलेरिया कहते हैं कि भारत में डायलिसिस की सुविधायें अभी भी बहुत कम जगहों पर हैं और बेहद महंगी हैं, इसलिये लोग किडनी बदलवाने का “आसान रास्ता”(?) अपनाते हैं।
इस “गंदे धंधे” की जड़ में जहाँ एक ओर गरीबी और अशिक्षा है, वहीं दूसरी ओर इन मामलों में भारत के लचर कानून भी हैं। कानूनी तौर पर किडनी दान करना भी एक बेहद जटिल प्रक्रिया है, जिसका फ़ायदा “दलाल” किस्म के डॉक्टर उठाते हैं। अब जाकर सरकार इस दिशा में कोई स्पष्ट कानून बनाने के बारे में विचार कर रही है, ताकि अंगदान को आसान बनाया जा सके। चीन में भी मानव अंग खरीदना-बेचना जुर्म माना जाता है, और इसके लिये कड़ी सजा के प्रावधान भी हैं, लेकिन 1984 में चीन सरकार ने संशोधन करके एक कानून पास किया है जिसके अनुसार आजीवन कारावास प्राप्त किसी कैदी, जिसके कोई भी रिश्तेदार मरणोपरांत उसका मृत देह लेने नहीं आयें, के अंग सरकार की अनुमति से निकाले जा सकते हैं और प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं। हालांकि धांधली वहाँ भी कम नहीं है, क्योंकि चीन सरकार के अनुसार 2002 में 1060 कैदियों को मौत की सजा सुनाई गई थी, जबकि एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार इनकी संख्या 15000 से ऊपर है। इन कैदियों के महत्वपूर्ण अंग सिंगापुर और हांगकांग के अमीर चीनियों को लगाये गये।
ऐसा कहा जाता है कि रूस, भारत, कुछ दक्षिण एशियाई देश और कुछ बेहद गरीब अफ़्रीकी देशों में यह धंधा जोरों पर है। इन देशों में मानव अंगों, किडनी, आँखों के कॉर्निया, लीवर, चमड़ी आदि निकालकर बिचौलियों के जरिये बेचे जाते हैं। हाइवे पर अकेले चलने वाले ड्रायवर, नशे में हुए एक्सीडेंट जिनमें लाश लावारिस घोषित हो जाती है, अकेले रहने वाले बूढ़े जिनकी असामयिक मौत हो जाती है, गरीब, मजबूर और कर्ज से दबे हुए लोग आदि इस माफ़िया के आसान शिकार होते हैं (मुम्बई, गुड़गाँव, चेन्नई चारों तरफ़ इस प्रकार के अपराध पकड़ में आ रहे हैं, हाल ही में उज्जैन में एक किडनी रैकेट पकड़ाया है जो डॉकटरों की मिलीभगत से गरीबों और मजदूरों को किडनी बेचने के लिये फ़ुसलाता था)। “ऑर्डर” पूरा करने के चक्कर में कई बार ये अपराधी अपहरण करने से भी नहीं हिचकते। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्ययन के लिये शरीर के विभिन्न अंगों माँग बनी रहती है, इसी प्रकार आयरलैण्ड और जर्मनी आदि यूरोपीय देशों में टाँगों की लम्बी और मजबूत हड्डियाँ की फ़ार्मेसी कम्पनियाँ मंगवाती हैं जिन्हें दाँतों की “फ़िलिंग” के काम में लिया जाता है।
ऊपर दिये गये तथ्य निश्चित रूप से एक भयानक दुष्चक्र की ओर इशारा करते हैं… ऐसे में हमें अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है, किसी भी अन्जान जगह पर किसी अजनबी पर एकदम विश्वास न करें न ही उसके साथ अधिक समय अकेले रहें, बच्चों को रातों में अकेले सुनसान जगहों पर जाने से हतोत्साहित करें, यदि पार्टी में ज्यादा नशा हो गया हो तो किसी दोस्त को साथ लेकर ही देर रात को घर लौटें…
और इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हुआ न मानें, क्योंकि धरती पर सबसे खतरनाक प्राणी है “इंसान”, जिससे सभी को सावधान रहना चाहिये…
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ब्लॉग
शुक्रवार, 27 जून 2008 17:07
कौन कहता है भारत में पेट्रोल संकट है, गरीबी है?
Crude Oil Price Crisis, Indian Politicians
अभी हाल ही में उज्जैन में देश की दो सर्वोच्च हस्तियाँ आईं (वैसे सर्वोच्च तो एक ही थी)। पहले आईं सोनिया गाँधी और उसके कुछ ही दिन बाद आईं राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल। जब से सुरेश पचौरी मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं वे लगातार इस कोशिश में थे कि सोनिया का एक दौरा मप्र में हो जाये, और आखिरकार वह हो गया। हम उज्जैनवासियों के लिये किसी वीवीवीआईपी का आगमन वैसे तो कोई खास बात नहीं, क्योंकि महाकालेश्वर के दर्शनों के लिये यहाँ नेता-अभिनेता-खिलाड़ी-उद्योगपति आते ही रहते हैं। वैसे तो हर विशिष्ट व्यक्ति चुपचाप आता है, महाकाल के दर्शन करता है और बगैर किसी “ऐरे-गैरे” से मिले, निकल लेता है, लेकिन इस बार सोनिया एक रैली को सम्बोधित करने आ रही थीं और वह उज्जैन में कम से कम तीन घंटे रुकने वाली थीं। बस फ़िर क्या था, कांग्रेसी तो कांग्रेसी, प्रशासनिक अधिकारियों को भी लगा कि “घर की शादी है”।
सोनिया गाँधी के आने-जाने का मार्ग तय किया गया, उनकी सुरक्षा के लिये अन्य जिलों से पुलिस बल, रैपिड एक्शन फ़ोर्स, एसपीजी, कमांडो आदि सभी आये, चूंकि वे महाकाल भी जाने वाली थीं, इसलिये ठेठ हवाई अड्डे और सर्किट हाउस से लेकर मन्दिर तक की रिहर्सल कम से कम दस-बीस बार की गई, आईजी-डीआईजी-एसपी के दौरे पर दौरे चले, कलेक्टर-कमिश्नर लगातार उज्जैन भर में घूमते-फ़िरते रहे… कहने का मतलब यह कि सैकड़ों सरकारी गाड़ियाँ, जीपें, ट्रक, डम्पर, नगर निगम के वाहन आदि लगातार आठ-दस दिन तक व्यवस्था में लगे रहे। हजारों लीटर पेट्रोल-डीजल सरकारी और आधिकारिक तौर पर फ़ूंका गया, खामख्वाह तमाम छोटे-बड़े अधिकारी इधर-उधर होते रहे, नगर निगम में किसी काम के लिये जाओ तो पता चलता था कि “साहब सोनियाजी की व्यवस्था में लगे हैं… दौरे पर हैं”, उठाई गाड़ी निकल गये दौरे पर, कोई देखने वाला नहीं, कोई सुनने वाला नहीं। मनमोहन सिंह गला फ़ाड़-फ़ाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि पेट्रोल में मितव्ययिता बरतो, देश संकट के दौर से गुजर रहा है, और इधर कारों का बड़ा भारी लवाजमा (शायद अंग्रेजी में इसे कारकेट कहते हैं) चला जा रहा है, बेवजह। सबसे पहले दो पायलट वाहन टां-टूं-टां-टूं… की तेज आवाज करते हुए (कि ऐ आम आदमी, ऐ कीड़े-मकोड़े रास्ते से हट), फ़िर उसके पीछे दस-बीस कारें, उसके बाद एक-दो एम्बुलेंस, एक फ़ायर ब्रिगेड, एक रैपिड एक्शन फ़ोर्स का ट्रक, और उसके बाद न जाने कितने ही छुटभैये नेता अपनी-अपनी गाड़ियों पर… आखिर यह सब क्या है? और किसके लिये है? जनता को क्या हासिल होगा इससे? कुछ नहीं, लेकिन नहीं साहब फ़िर भी लगे पड़े हैं, दौड़ाये जा रहे हैं गाड़ियाँ मानो इनके लिये मुफ़्त में ईराक से सीधे पाइप लाइन बिछी है घर तक, और मजे की बात तो यह कि इतनी सारी कवायद के बाद सोनिया ने रैली को सम्बोधित किया सिर्फ़ 13 मिनट, जिसमें उनका आना, जमाने भर का स्वागत-हार-फ़ूल-माला-गुलदस्ते-चरण वन्दन आदि भी शामिल था, और महान वचनों का सार क्या था? – कि राज्य सरकार निकम्मी और भ्रष्ट है, महंगाई रोकने में हमारा साथ नहीं दे रही, और आने वाले चुनावों के लिये कांग्रेसियों को तैयार रहना चाहिये। ये तीन बातें तो दिन में चार-चार बार इनके प्रवक्ता विभिन्न टीवी पर बकते रहते हैं, फ़िर नया क्या हुआ?
खैर यह तो हुआ सरकारी खर्चा, जिसकी पाई-पाई हम करदाताओं की जेब से गई है, अब बात करते हैं निजी पेट्रोल-डीजल फ़ूंक तमाशे की… चूंकि यह मध्यप्रदेश में चुनावी वर्ष है, इसलिये हरेक नेता विधानसभा टिकट के लिये अपना शक्ति प्रदर्शन सोनिया के सामने करना चाहता था। आसपास की तहसीलों, गाँवों से सैकड़ों वाहन भर-भर कर लोग लाये गये, जीपें, ट्रक, बस, ट्रैक्टर ट्रालियाँ जिसे जो मिला उसी में किसानों को भरकर लाया गया। मजे की बात तो यह थी कि जब कई गाड़ियाँ उज्जैन की सीमा के बाहर ही थीं, उस वक्त तक तो सोनिया अपना भाषण समाप्त करके जा चुकी थीं। ऐसे में विचारणीय है कि यह पेट्रोल-डीजल संकट असल में किसके लिये है, जाहिर है कि हम-आप जैसे लोगों के लिये जो अपनी जेब से पैसा देकर ईंधन भरवाते हैं। यदि सोनिया गाँधी का यह एक दौरा ही रद्द हो जाता तो देश का लाखों लीटर डीजल बचाया जा सकता था, लेकिन परवाह है किसे…
इसी प्रकार ठीक आठ दिन बाद राष्ट्रपति का दौरा हुआ, प्रशासन की फ़िर से वही कवायद, फ़िर वही रिहर्सल (तीन-तीन बार) सरकारी गाड़ियाँ बगैर सोचे-समझे दौड़ रही हैं, अधिकारी सारे काम-धाम छोड़कर व्यवस्था में लगे हैं, कार्यक्रम बनाये-बिगाड़े जा रहे हैं, कई जगह रंगाई-पुताई की गई, फ़र्जी डामरीकरण किया गया (जो पहली बारिश में ही धुल जायेगा), सर्किट हाउस के पर्दे बदलवाये गये, महंगी क्रॉकरी खरीदी गई (मुझे आज तक समझ में नहीं आया, कि हर प्रमुख हस्ती के दौरे के समय सर्किट हाउस में, और जब भी कोई मंत्री या बड़ा अधिकारी नये बंगले में शिफ़्ट होता है सबसे पहले पर्दे, क्रॉकरी और सोफ़े क्यों बदलवाता है… कोई बताये कि क्या इसमें कोई “छुआछूत कानून” का मामला बनता है?)। तात्पर्य यह कि लाखों रुपये एक-एक दौरे पर सरकारी और निजी तौर पर खर्च होते हैं, इस “बहती गंगा” में अधिकारी और कर्मचारी अपने हाथ-पाँव-मुँह सब धो लेते हैं।
यह देश लुंजपुंज लोकतन्त्र और सड़ी-गली न्याय व्यवस्था की बहुत भारी कीमत चुका रहा है। एक नये प्रकार के राजा-रजवाड़े पैदा हो गये हैं, जो आम आदमी से बहुत-बहुत दूर हैं (शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से)। पिछले वर्ष 11 लाख चौपहिया और 38 लाख दुपहिया वाहनों की बिक्री हुई, चारों तरफ़ हल्ला मचाया जा रहा है कि भारत में बहुत गरीबी है, लेकिन नेताओं के ऐसे भव्य दौरों, पेट्रोल-डीजल की खुलेआम बरबादी और गाड़ियों के नित नये जारी होते मॉडलों को देखकर लगता नहीं कि आज भी कई परिवार 40-50 रुपये रोजाना पर गुजर-बसर कर रहे हैं। लेकिन व्यवस्था ही कुछ ऐसी बनी हुई है कि कफ़न-दफ़न में भी पैसा खाने की जुगाड़ देखने वाले अधिकारी, बच्चों के “कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट” जारी कर रहे हैं, और जिनकी जगह जेल में होना चाहिये वे मंत्रीपद का उपभोग कर रहे हैं।
इस विद्रूप और विषम परिस्थिति में भी “पॉजिटिव” देखना हो तो वह यह है कि इस बहाने कम से कम कुछ सड़कों का, कुछ समय के लिये ही सही कायाकल्प हो जाता है, जहाँ-जहाँ ये वीवीआईपी लोग जाने वाले हों वहाँ की नालियाँ साफ़ हो जाती हैं, उस इलाके की स्ट्रीट लाईटें ठीक हो जाती हैं, उन एक-दो दिनों के लिये बिजली कटौती नहीं होती आदि-आदि, वरना…
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अभी हाल ही में उज्जैन में देश की दो सर्वोच्च हस्तियाँ आईं (वैसे सर्वोच्च तो एक ही थी)। पहले आईं सोनिया गाँधी और उसके कुछ ही दिन बाद आईं राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल। जब से सुरेश पचौरी मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं वे लगातार इस कोशिश में थे कि सोनिया का एक दौरा मप्र में हो जाये, और आखिरकार वह हो गया। हम उज्जैनवासियों के लिये किसी वीवीवीआईपी का आगमन वैसे तो कोई खास बात नहीं, क्योंकि महाकालेश्वर के दर्शनों के लिये यहाँ नेता-अभिनेता-खिलाड़ी-उद्योगपति आते ही रहते हैं। वैसे तो हर विशिष्ट व्यक्ति चुपचाप आता है, महाकाल के दर्शन करता है और बगैर किसी “ऐरे-गैरे” से मिले, निकल लेता है, लेकिन इस बार सोनिया एक रैली को सम्बोधित करने आ रही थीं और वह उज्जैन में कम से कम तीन घंटे रुकने वाली थीं। बस फ़िर क्या था, कांग्रेसी तो कांग्रेसी, प्रशासनिक अधिकारियों को भी लगा कि “घर की शादी है”।
सोनिया गाँधी के आने-जाने का मार्ग तय किया गया, उनकी सुरक्षा के लिये अन्य जिलों से पुलिस बल, रैपिड एक्शन फ़ोर्स, एसपीजी, कमांडो आदि सभी आये, चूंकि वे महाकाल भी जाने वाली थीं, इसलिये ठेठ हवाई अड्डे और सर्किट हाउस से लेकर मन्दिर तक की रिहर्सल कम से कम दस-बीस बार की गई, आईजी-डीआईजी-एसपी के दौरे पर दौरे चले, कलेक्टर-कमिश्नर लगातार उज्जैन भर में घूमते-फ़िरते रहे… कहने का मतलब यह कि सैकड़ों सरकारी गाड़ियाँ, जीपें, ट्रक, डम्पर, नगर निगम के वाहन आदि लगातार आठ-दस दिन तक व्यवस्था में लगे रहे। हजारों लीटर पेट्रोल-डीजल सरकारी और आधिकारिक तौर पर फ़ूंका गया, खामख्वाह तमाम छोटे-बड़े अधिकारी इधर-उधर होते रहे, नगर निगम में किसी काम के लिये जाओ तो पता चलता था कि “साहब सोनियाजी की व्यवस्था में लगे हैं… दौरे पर हैं”, उठाई गाड़ी निकल गये दौरे पर, कोई देखने वाला नहीं, कोई सुनने वाला नहीं। मनमोहन सिंह गला फ़ाड़-फ़ाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि पेट्रोल में मितव्ययिता बरतो, देश संकट के दौर से गुजर रहा है, और इधर कारों का बड़ा भारी लवाजमा (शायद अंग्रेजी में इसे कारकेट कहते हैं) चला जा रहा है, बेवजह। सबसे पहले दो पायलट वाहन टां-टूं-टां-टूं… की तेज आवाज करते हुए (कि ऐ आम आदमी, ऐ कीड़े-मकोड़े रास्ते से हट), फ़िर उसके पीछे दस-बीस कारें, उसके बाद एक-दो एम्बुलेंस, एक फ़ायर ब्रिगेड, एक रैपिड एक्शन फ़ोर्स का ट्रक, और उसके बाद न जाने कितने ही छुटभैये नेता अपनी-अपनी गाड़ियों पर… आखिर यह सब क्या है? और किसके लिये है? जनता को क्या हासिल होगा इससे? कुछ नहीं, लेकिन नहीं साहब फ़िर भी लगे पड़े हैं, दौड़ाये जा रहे हैं गाड़ियाँ मानो इनके लिये मुफ़्त में ईराक से सीधे पाइप लाइन बिछी है घर तक, और मजे की बात तो यह कि इतनी सारी कवायद के बाद सोनिया ने रैली को सम्बोधित किया सिर्फ़ 13 मिनट, जिसमें उनका आना, जमाने भर का स्वागत-हार-फ़ूल-माला-गुलदस्ते-चरण वन्दन आदि भी शामिल था, और महान वचनों का सार क्या था? – कि राज्य सरकार निकम्मी और भ्रष्ट है, महंगाई रोकने में हमारा साथ नहीं दे रही, और आने वाले चुनावों के लिये कांग्रेसियों को तैयार रहना चाहिये। ये तीन बातें तो दिन में चार-चार बार इनके प्रवक्ता विभिन्न टीवी पर बकते रहते हैं, फ़िर नया क्या हुआ?
खैर यह तो हुआ सरकारी खर्चा, जिसकी पाई-पाई हम करदाताओं की जेब से गई है, अब बात करते हैं निजी पेट्रोल-डीजल फ़ूंक तमाशे की… चूंकि यह मध्यप्रदेश में चुनावी वर्ष है, इसलिये हरेक नेता विधानसभा टिकट के लिये अपना शक्ति प्रदर्शन सोनिया के सामने करना चाहता था। आसपास की तहसीलों, गाँवों से सैकड़ों वाहन भर-भर कर लोग लाये गये, जीपें, ट्रक, बस, ट्रैक्टर ट्रालियाँ जिसे जो मिला उसी में किसानों को भरकर लाया गया। मजे की बात तो यह थी कि जब कई गाड़ियाँ उज्जैन की सीमा के बाहर ही थीं, उस वक्त तक तो सोनिया अपना भाषण समाप्त करके जा चुकी थीं। ऐसे में विचारणीय है कि यह पेट्रोल-डीजल संकट असल में किसके लिये है, जाहिर है कि हम-आप जैसे लोगों के लिये जो अपनी जेब से पैसा देकर ईंधन भरवाते हैं। यदि सोनिया गाँधी का यह एक दौरा ही रद्द हो जाता तो देश का लाखों लीटर डीजल बचाया जा सकता था, लेकिन परवाह है किसे…
इसी प्रकार ठीक आठ दिन बाद राष्ट्रपति का दौरा हुआ, प्रशासन की फ़िर से वही कवायद, फ़िर वही रिहर्सल (तीन-तीन बार) सरकारी गाड़ियाँ बगैर सोचे-समझे दौड़ रही हैं, अधिकारी सारे काम-धाम छोड़कर व्यवस्था में लगे हैं, कार्यक्रम बनाये-बिगाड़े जा रहे हैं, कई जगह रंगाई-पुताई की गई, फ़र्जी डामरीकरण किया गया (जो पहली बारिश में ही धुल जायेगा), सर्किट हाउस के पर्दे बदलवाये गये, महंगी क्रॉकरी खरीदी गई (मुझे आज तक समझ में नहीं आया, कि हर प्रमुख हस्ती के दौरे के समय सर्किट हाउस में, और जब भी कोई मंत्री या बड़ा अधिकारी नये बंगले में शिफ़्ट होता है सबसे पहले पर्दे, क्रॉकरी और सोफ़े क्यों बदलवाता है… कोई बताये कि क्या इसमें कोई “छुआछूत कानून” का मामला बनता है?)। तात्पर्य यह कि लाखों रुपये एक-एक दौरे पर सरकारी और निजी तौर पर खर्च होते हैं, इस “बहती गंगा” में अधिकारी और कर्मचारी अपने हाथ-पाँव-मुँह सब धो लेते हैं।
यह देश लुंजपुंज लोकतन्त्र और सड़ी-गली न्याय व्यवस्था की बहुत भारी कीमत चुका रहा है। एक नये प्रकार के राजा-रजवाड़े पैदा हो गये हैं, जो आम आदमी से बहुत-बहुत दूर हैं (शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से)। पिछले वर्ष 11 लाख चौपहिया और 38 लाख दुपहिया वाहनों की बिक्री हुई, चारों तरफ़ हल्ला मचाया जा रहा है कि भारत में बहुत गरीबी है, लेकिन नेताओं के ऐसे भव्य दौरों, पेट्रोल-डीजल की खुलेआम बरबादी और गाड़ियों के नित नये जारी होते मॉडलों को देखकर लगता नहीं कि आज भी कई परिवार 40-50 रुपये रोजाना पर गुजर-बसर कर रहे हैं। लेकिन व्यवस्था ही कुछ ऐसी बनी हुई है कि कफ़न-दफ़न में भी पैसा खाने की जुगाड़ देखने वाले अधिकारी, बच्चों के “कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट” जारी कर रहे हैं, और जिनकी जगह जेल में होना चाहिये वे मंत्रीपद का उपभोग कर रहे हैं।
इस विद्रूप और विषम परिस्थिति में भी “पॉजिटिव” देखना हो तो वह यह है कि इस बहाने कम से कम कुछ सड़कों का, कुछ समय के लिये ही सही कायाकल्प हो जाता है, जहाँ-जहाँ ये वीवीआईपी लोग जाने वाले हों वहाँ की नालियाँ साफ़ हो जाती हैं, उस इलाके की स्ट्रीट लाईटें ठीक हो जाती हैं, उन एक-दो दिनों के लिये बिजली कटौती नहीं होती आदि-आदि, वरना…
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गुरुवार, 19 जून 2008 11:29
नशेड़ी भारतीय युवा, कारें-बाइक लिये सड़कों पर – कारण और इलाज
Drunken Driving Youths Road Accidents
लगभग रोज ही किसी न किसी चैनल पर एक खबर अवश्य होती है कि दिल्ली, मुम्बई, चंडीगढ़, गुड़गाँव, पुणे, हैदराबाद आदि महानगरों में किसी कार ने फ़ुटपाथ पर सोये लोगों को कुचल दिया, किसी बाइक सवार ने किसी बूढ़े की जान ले ली आदि-आदि। हम धीरे-धीरे इन खबरों के भी “आदी”(?) होते जा रहे हैं, और इन घटनाओं में सलमान जैसे “सेलेब्रिटी(?)” तक शामिल हैं। ऐसी घटनाओं के तेजी से बढ़ने के पीछे मुख्य कारण है “युवाओं में बढ़ती शराबनोशी”। शराब अब समाज के लगभग 70% तबके में त्याज्य, या बुरी वस्तु नहीं मानी जाती, शादी-पार्टियों में तो अब यह आम हो चली है, ये बात और है कि शराब पीने और पीने के बाद की हरकतों की तमीज सिखाने का कोई इंस्टीट्यूट अभी तक नहीं खुला है। अक्सर देखने में आया है कि शराब पीकर कार या बाइक से कुचलने की घटनायें आमतौर पर शनिवार-रविवार को ज्यादा होती हैं। हालांकि अमीरजादों के लिये क्या वीक-एण्ड और क्या काम का दिन, लेकिन जब से बीपीओ का बूम आया है, सॉफ़्टवेयर, हवाई सेवाओं, व अन्य सभी इंडस्ट्री ने अनाप-शनाप पैसा युवाओं के हाथों में पहुँचाना शुरु किया है, धीरे-धीरे इन क्षेत्रों के युवा अमूमन शनिवार-रविवार को “मस्ती”, “एंजॉय”, “रिलैक्स” के नाम पर शराब या अन्य नशे की गिरफ़्त में होते हैं। इसकी शुरुआत होती है बीयर से और अन्त होता है हवालात में या सिर फ़टने के कारण हुई मौत में। रोड एक्सीडेंट के 40-45% मामलों में इसकी जिम्मेदार शराब ही होती है और उसमें भी 90% की उम्र 17 से 30 वर्ष होती है, इसका क्या मतलब निकाला जाये? शराब ही शायद एकमात्र ऐसी चीज है जो खुशी में भी पी जाती है और गम में भी, और कई बार टाइम-पास के लिये भी (विजय माल्या देखते-देखते विशाल एयरलाइन के मालिक यूँ ही नहीं बन गये हैं)।
बहरहाल, अक्सर देखने में आया है कि ऐसी घटनाओं में टक्कर मारकर घायल करने वाला, बल्कि जान लेने तक के मामले में ड्रायवर बच निकलता है। पहले या तो वह भाग जाता है, या पकड़ा जाये तो रिश्वत देकर छूटने की कोशिश करता है, या उसका कोई वैध-अवैध बाप थाने में आकर उसे छुड़ा ले जाता है। मान लो किसी तरह संघर्ष करके केस कोर्ट में चला जाये तो उसे सजा होगी मात्र दो साल की। जी हाँ, कानून के अनुसार एक तो यह जमानती अपराध है, और सजा अधिकतम दो साल की हो सकती है, चाहे उसने कितने ही लोगों को कुचलकर मार दिया हो।
सबसे पहला सुधार तो कानून आयोग की सिफ़ारिशों के अनुसार यही होना चाहिये कि अपराध गैर-जमानती हो (जैसे कि दहेज या दलित उत्पीड़न के मामले में है) और अपराध साबित होने के बाद सजा को बढ़ाकर दो साल की बजाय दस साल किया जाना चाहिये। दो-चार रईसजादे दस साल के लिये अन्दर हो जायें और उनके “पिछवाड़े” पर जेल में डंडे बरसाये जायें तो बाकी के 50% तो वह आलम देखकर गाड़ी चलाना ही छोड़ देंगे, बाकी के दारू पीना छोड़ देंगे और बचे-खुचे लोग “दारू और गाड़ी का कॉम्बिनेशन” नहीं करेंगे। ये तो हुआ पहला और जरूरी कदम। यदि टक्कर के बाद कोई व्यक्ति घायल हुआ है तो लायसेंस निरस्ती और/या भारी जुर्माना तो होना ही चाहिये लेकिन यदि व्यक्ति की जान गई है तब तो कम से कम दस साल की सजा होना ही चाहिये।
हालांकि भारत जैसे देश में कानून का पालन करवाना ही कठिन काम होता है, देश में सरेआम सड़कों पर 100 रुपये में कानून बिकता है, ड्रायविंग लायसेंस हमारे यहाँ घर बैठे बन जाते हैं (राशन कार्ड और पासपोर्ट भी), ऐसे में सबसे पहला काम शिक्षित करने का होना चाहिये, खासकर पालकों को जो अपने आठ-दस साल के नौनिहाल को स्कूटी या लूना चलाते देखकर गदगद हुए जाते हैं। ये नजारे आमतौर पर कालोनियों में देखे जा सकते हैं, सबसे पहले उन बच्चों के वाहन जब्त करके पालकों को “हिन्दी में समझाइश” देना होगा।
कानून में बदलाव के अलावा मेरा सुझाव है कि –
1) नशे में वाहन चलाते पाये जाने पर, गलत लेन या “नो एंट्री” में वाहन पकड़े जाने पर – जान से मारने की कोशिश का केस बनाये जायें
2) दूसरा महत्वपूर्ण सुझाव यह कि “जुर्माने” में से ट्रैफ़िक जवान को Incentive का प्रावधान होना चाहिये। मान लें कि “गलत पार्किंग”, “जेब्रा क्रॉसिंग पार करना”, “रेड लाइट होते हुए भी गाड़ी भगा ले जाना”, “लायसेंस-रोड टैक्स के कागजात न होना”, “गाड़ी चलाते हुए मोबाइल पर बात करने” जैसे छोटे अपराधों के लिये हमें “गाड़ी की कीमत” के हिसाब से 5% जुर्माना ठोंकना चाहिये और उस जुर्माना राशि में से 10-15% की रकम ट्रैफ़िक जवान को मिलना चाहिये। जैसे यदि किसी चार लाख की कार पर जुर्माना हुआ 20,000/- तो उसमें से 2000/- ट्रैफ़िक जवान का Incentive होगा, किसी 60,000 कीमत की बाइक पर जुर्माना 3000/- और उसमें से 300-500 रुपये ट्रैफ़िक जवान को मिलेंगे, तो ऐसे में भला वह क्यों 50-100 रुपये की रिश्वत लेकर किसी को छोड़ेगा? वह तो चाहेगा कि दिन भर में आठ-दस केस पकड़े और आराम से 5-7 हजार रुपये लेकर घर जाये। ऊपर से सरकार की प्रशंसा अलग से… देखते-देखते ट्रैफ़िक नियमों के प्रति जागरूकता फ़ैलेगी ऐसा मेरा विश्वास है।
भारत के अधिकांश लोग समझाइश से या शिक्षित होने भर से अनुशासन नहीं मानते, इन्हें “डंडा” ही ठीक कर सकता है (कुछ मामलों में “आपातकाल” इसका गवाह है)…
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लगभग रोज ही किसी न किसी चैनल पर एक खबर अवश्य होती है कि दिल्ली, मुम्बई, चंडीगढ़, गुड़गाँव, पुणे, हैदराबाद आदि महानगरों में किसी कार ने फ़ुटपाथ पर सोये लोगों को कुचल दिया, किसी बाइक सवार ने किसी बूढ़े की जान ले ली आदि-आदि। हम धीरे-धीरे इन खबरों के भी “आदी”(?) होते जा रहे हैं, और इन घटनाओं में सलमान जैसे “सेलेब्रिटी(?)” तक शामिल हैं। ऐसी घटनाओं के तेजी से बढ़ने के पीछे मुख्य कारण है “युवाओं में बढ़ती शराबनोशी”। शराब अब समाज के लगभग 70% तबके में त्याज्य, या बुरी वस्तु नहीं मानी जाती, शादी-पार्टियों में तो अब यह आम हो चली है, ये बात और है कि शराब पीने और पीने के बाद की हरकतों की तमीज सिखाने का कोई इंस्टीट्यूट अभी तक नहीं खुला है। अक्सर देखने में आया है कि शराब पीकर कार या बाइक से कुचलने की घटनायें आमतौर पर शनिवार-रविवार को ज्यादा होती हैं। हालांकि अमीरजादों के लिये क्या वीक-एण्ड और क्या काम का दिन, लेकिन जब से बीपीओ का बूम आया है, सॉफ़्टवेयर, हवाई सेवाओं, व अन्य सभी इंडस्ट्री ने अनाप-शनाप पैसा युवाओं के हाथों में पहुँचाना शुरु किया है, धीरे-धीरे इन क्षेत्रों के युवा अमूमन शनिवार-रविवार को “मस्ती”, “एंजॉय”, “रिलैक्स” के नाम पर शराब या अन्य नशे की गिरफ़्त में होते हैं। इसकी शुरुआत होती है बीयर से और अन्त होता है हवालात में या सिर फ़टने के कारण हुई मौत में। रोड एक्सीडेंट के 40-45% मामलों में इसकी जिम्मेदार शराब ही होती है और उसमें भी 90% की उम्र 17 से 30 वर्ष होती है, इसका क्या मतलब निकाला जाये? शराब ही शायद एकमात्र ऐसी चीज है जो खुशी में भी पी जाती है और गम में भी, और कई बार टाइम-पास के लिये भी (विजय माल्या देखते-देखते विशाल एयरलाइन के मालिक यूँ ही नहीं बन गये हैं)।
बहरहाल, अक्सर देखने में आया है कि ऐसी घटनाओं में टक्कर मारकर घायल करने वाला, बल्कि जान लेने तक के मामले में ड्रायवर बच निकलता है। पहले या तो वह भाग जाता है, या पकड़ा जाये तो रिश्वत देकर छूटने की कोशिश करता है, या उसका कोई वैध-अवैध बाप थाने में आकर उसे छुड़ा ले जाता है। मान लो किसी तरह संघर्ष करके केस कोर्ट में चला जाये तो उसे सजा होगी मात्र दो साल की। जी हाँ, कानून के अनुसार एक तो यह जमानती अपराध है, और सजा अधिकतम दो साल की हो सकती है, चाहे उसने कितने ही लोगों को कुचलकर मार दिया हो।
सबसे पहला सुधार तो कानून आयोग की सिफ़ारिशों के अनुसार यही होना चाहिये कि अपराध गैर-जमानती हो (जैसे कि दहेज या दलित उत्पीड़न के मामले में है) और अपराध साबित होने के बाद सजा को बढ़ाकर दो साल की बजाय दस साल किया जाना चाहिये। दो-चार रईसजादे दस साल के लिये अन्दर हो जायें और उनके “पिछवाड़े” पर जेल में डंडे बरसाये जायें तो बाकी के 50% तो वह आलम देखकर गाड़ी चलाना ही छोड़ देंगे, बाकी के दारू पीना छोड़ देंगे और बचे-खुचे लोग “दारू और गाड़ी का कॉम्बिनेशन” नहीं करेंगे। ये तो हुआ पहला और जरूरी कदम। यदि टक्कर के बाद कोई व्यक्ति घायल हुआ है तो लायसेंस निरस्ती और/या भारी जुर्माना तो होना ही चाहिये लेकिन यदि व्यक्ति की जान गई है तब तो कम से कम दस साल की सजा होना ही चाहिये।
हालांकि भारत जैसे देश में कानून का पालन करवाना ही कठिन काम होता है, देश में सरेआम सड़कों पर 100 रुपये में कानून बिकता है, ड्रायविंग लायसेंस हमारे यहाँ घर बैठे बन जाते हैं (राशन कार्ड और पासपोर्ट भी), ऐसे में सबसे पहला काम शिक्षित करने का होना चाहिये, खासकर पालकों को जो अपने आठ-दस साल के नौनिहाल को स्कूटी या लूना चलाते देखकर गदगद हुए जाते हैं। ये नजारे आमतौर पर कालोनियों में देखे जा सकते हैं, सबसे पहले उन बच्चों के वाहन जब्त करके पालकों को “हिन्दी में समझाइश” देना होगा।
कानून में बदलाव के अलावा मेरा सुझाव है कि –
1) नशे में वाहन चलाते पाये जाने पर, गलत लेन या “नो एंट्री” में वाहन पकड़े जाने पर – जान से मारने की कोशिश का केस बनाये जायें
2) दूसरा महत्वपूर्ण सुझाव यह कि “जुर्माने” में से ट्रैफ़िक जवान को Incentive का प्रावधान होना चाहिये। मान लें कि “गलत पार्किंग”, “जेब्रा क्रॉसिंग पार करना”, “रेड लाइट होते हुए भी गाड़ी भगा ले जाना”, “लायसेंस-रोड टैक्स के कागजात न होना”, “गाड़ी चलाते हुए मोबाइल पर बात करने” जैसे छोटे अपराधों के लिये हमें “गाड़ी की कीमत” के हिसाब से 5% जुर्माना ठोंकना चाहिये और उस जुर्माना राशि में से 10-15% की रकम ट्रैफ़िक जवान को मिलना चाहिये। जैसे यदि किसी चार लाख की कार पर जुर्माना हुआ 20,000/- तो उसमें से 2000/- ट्रैफ़िक जवान का Incentive होगा, किसी 60,000 कीमत की बाइक पर जुर्माना 3000/- और उसमें से 300-500 रुपये ट्रैफ़िक जवान को मिलेंगे, तो ऐसे में भला वह क्यों 50-100 रुपये की रिश्वत लेकर किसी को छोड़ेगा? वह तो चाहेगा कि दिन भर में आठ-दस केस पकड़े और आराम से 5-7 हजार रुपये लेकर घर जाये। ऊपर से सरकार की प्रशंसा अलग से… देखते-देखते ट्रैफ़िक नियमों के प्रति जागरूकता फ़ैलेगी ऐसा मेरा विश्वास है।
भारत के अधिकांश लोग समझाइश से या शिक्षित होने भर से अनुशासन नहीं मानते, इन्हें “डंडा” ही ठीक कर सकता है (कुछ मामलों में “आपातकाल” इसका गवाह है)…
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सोमवार, 16 जून 2008 19:08
कोचिंग क्लास वालों, इतना क्यों इतराते हो?
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जून के महीने में अखबार पढ़ना एक बेहद त्रासदायक और संतापदायक काम होता है, आप सोचेंगे ऐसा क्यों? असल में मई के आखिरी सप्ताह या जून के पहले सप्ताह देश में “रिजल्ट” का मौसम होता है। दसवीं, बारहवीं, पीईटी, पीएमटी, आईआईटी-जेईई, और भी न जाने क्या-क्या लगातार रिजल्ट आते ही रहते हैं। जाहिर है कि रिजल्ट आयेंगे तो “सबसे ज्यादा मुनाफ़े वाले धंधेबाज” यानी कि कोचिंग क्लास वाले मानो पूरा का पूरा अखबार ही खरीद लेते हैं। रिजल्ट के अगले ही दिन फ़ुल पेज के विज्ञापन झलकने लगते हैं, “हमने ऐसा तीर मारा, हमारे यहाँ के अलाँ-फ़लाँ स्टूडेंट ने ये तोप मारी आदि-आदि”। विज्ञापन भी एक-दूसरे कोचिंग क्लास वालों को आपस में नीचा दिखाने की भाषा में किये जाते हैं… “मार लिया मैदान…”, “क्रैक करके रख दिया”, “है कोई दूसरा हमारे जैसा”, “हम ही हैं सिरमौर…” जैसे हेडिंग वाले भड़काऊ विज्ञापन दिये जाते हैं। अखबार वालों का क्या जा रहा है, उन्हें तो खासी मोटी रकम वाली कमाई हो रही है (मुश्किल हम जैसे मूर्खों की होती है जो तीन-चार रुपये का अखबार खरीदते हैं, जिसमें पढ़ने के लिये दो या तीन पेज ही होते हैं, बाकी के पेज कोचिंग क्लासेस, केन्द्र या राज्य सरकार की कोई फ़ालतू सी योजना, किसी कमीने नेता के जन्मदिन की बधाईयाँ, बाइक-मोबाइल-कार-फ़्रिज-टीवी बेचने के लिये फ़ूहड़ता… आदि होता है) और कोचिंग वालों का भी क्या लग रहा है “तेरा तुझको अर्पण…” की तर्ज पर पालकों से झटकी हुई मोटी रकम में से थोड़ा सा खर्च कर दिया, ताकि अगले साल के “कटने वाले बकरे” पहले से ही बुक किये जा सकें । एक ही छात्र की तस्वीर दो-तीन-चार कोचिंग क्लास वालों के विज्ञापन में दिखाई दे जाती है। यह संभव ही नहीं कि कोई छात्र एक साथ इतनी सारी कोचिंग क्लास में जा सकता है, लेकिन खामख्वाह “झाँकी” जमाने में क्या जा रहा है, कौन उनसे इस बाबत पूछताछ करने वाला है। रिजल्ट आते ही एक तरह का मकड़जाल बुन लिया जाता है, तरह-तरह के दावे और लुभावने विज्ञापन देकर “हम ही श्रेष्ठ हैं, बाकी सब तो बेकार हैं” का भाव पैदा किया जाता है।
यह खबर सबने सुनी होगी कि बिहार में शौकिया तौर पर गरीब छात्रों के लिये आईआईटी की क्लासेस चलाने वाले “सुपर-30” में सभी 30 गरीब छात्रों का चयन आईआईटी के लिये हो गया है (पिछले वर्ष यह 30 में से 28 था), अर्थात लगभग 100% छात्र सफ़ल। धन्य हैं श्री अभयानन्द जी जिन्होंने यह प्रकल्प हाथ में लिया है। अब नजर डालते हैं कोटा की महान(?) कोचिंग संस्थाओं पर… अव्वल तो ये लोग कभी भी विज्ञापन देकर जाहिर नहीं करते कि उनके यहाँ कुल कितने छात्रों ने प्रवेश लिया। लेकिन हाल ही में एक विज्ञापन देखकर पता चला कि एक “बड़ी” कोचिंग क्लास ने लिखा “1547 छात्रों में से 184 का चयन”, एक और उभरती हुई कोचिंग संस्था ने बताया कि कुल “48 छात्रों में से 4 का चयन आईआईटी-एआईईईई में”। अब खुद ही हिसाब लगाइये कि कितना प्रतिशत हुआ? मुश्किल से 12-14% सफ़लता!!! इस सड़ी सी बात पर इतना क्या इतराना? क्यों इतना डंका पीटना? अरे तुमसे दस गुना अच्छे तो “सुपर-30” वाले हैं, जिनके पास न तो चिकने पन्नों वाले ब्रोशर हैं, न ही एसी रूम हैं, न उनकी फ़ैकल्टी फ़ाइव स्टार में रुकती है, न ही वे मोटी फ़ीस वसूलते हैं, फ़िर भी उनका रिजल्ट लगभग 100% है, तो कोटा में “शिक्षा इंडस्ट्री” चलाने वाले किस बात पर गर्व करते हैं? अच्छा, एक बात और है… ये कथित महान कोचिंग क्लासेस वाले अपने यहाँ छात्रों को प्रवेश कैसे देते हैं… सबसे पहले वे 85-90 प्रतिशत अंक से कम लाने वाले को साफ़ मना कर देते हैं। फ़िर उच्च अंक लाने वाले बेहतरीन तीक्ष्ण बुद्धि वाले लड़के छाँटे जाते हैं, उनमें भी एक “एन्ट्रेन्स परीक्षा” आयोजित की जाती है, उसमें जो सफ़ल होते हैं उन्हें ही कोटा में प्रवेश मिलता है… इसका मतलब यह कि दूध में से क्रीम निकालने के बाद उस क्रीम को भी फ़ेंटकर सबसे बढ़िया घी निकाल लिया, फ़िर दावा करते हैं कि 1547 छात्रों में से 184 का चयन???? अरे भाई तुम तो पहले से ही कुशाग्र बुद्धि वाले लड़के छाँट चुके हो, फ़िर भी इतना कम सफ़लता प्रतिशत?? उम्दा किस्म का “हीरा” पहले से ही तुम्हारे पास है, सिर्फ़ उसे तराशना है, फ़िर भी??? यदि इतने ही शूरवीर(?) हो, तो किसी गरीब लड़के को जिसके 80 प्रतिशत नम्बर आये हों, मुफ़्त में पढ़ाकर दिखाओ और उसका सिलेक्शन आईआईटी में करवाओ। जब तुम्हें मालूम है कि आईआईटी में सिर्फ़ 6000-6500 सीटें हैं, तो एक साल के लिये ऐसा करके दिखाओ कि सब बड़े-बड़े कोचिंग वाले आपस में मिलकर सिर्फ़ और सिर्फ़ 8000 छात्रों को प्रवेश दो, और उसमें से ज्यादा नहीं तो 5000 सिलेक्शन करवा के दिखा दो, तो माना जाये कि वाकई में तुम्हारी शिक्षा(?) में कुछ दम है।
एक पेंच और है, जब इस “महान” देश में IAS, IPS की परीक्षा तक में धांधली हो जाती है, “मुन्नाभाई” किसी अन्य की जगह जाकर परीक्षा दे आते हैं, पैसा देकर पेपर आउट हो जाते हैं, होटलों में बैठकर परीक्षापत्र हल किये जाते हैं, तो क्या गारंटी है कि IIT, IIM, AIEEE की परीक्षा भी बेदाग होती होगी??? बड़े कोचिंग संस्थान जिनकी आमदनी करोड़ों में है, क्या “ऊपर” तक सेटिंग नहीं कर सकते? भारत जैसे “बिकाऊ लोगों के देश" में बिलकुल कर सकते हैं।
अब आते हैं खर्चों पर… एक छात्र की फ़ीस तीस हजार से पचास हजार (जैसी दुकान हो उस हिसाब से), 11वी-12वीं पास करवाने की गारंटी की जुगाड़ की फ़ीस अलग से, उस छात्र का रहना-खाना आदि का खर्च 5 से 10 हजार प्रतिमाह, इसके अलावा पुस्तकें, स्टेशनरी, परीक्षायें दिलवाने के खर्च, बीच-बीच में घर आने-जाने का खर्चा… कहने का मतलब यह कि एक लड़के पर दो साल में कम से कम तीन-चार लाख रुपये खर्च होता है, इसके बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि बेचारे का सिलेक्शन IIT नहीं, तो AIEEE नहीं, तो किसी अच्छे कॉलेज में ही हो जाये, और यदि हो भी जाये तो फ़िर से खर्चों की नई ABCD शुरु होगी वह अलग है, और सिलेक्शन नहीं हुआ तो तीन-चार लाख गये पानी में? बताइये इतना बड़ा जुआ खेलने की ताकत भारत के कितने प्रतिशत परिवारों में है? क्या यह भी एक प्रकार का आर्थिक आरक्षण नहीं है? क्योंकि मैंने ऐसे कई गरीब-निम्न मध्यमवर्गीय परिवार देखे हैं, जिनमें बच्चों ने 12वीं में 80-85 प्रतिशत तक अंक लाये हैं, लेकिन वे लोग पहले से ही इस “खेल” से बाहर हैं, क्योंकि वे बेचारे तो बड़े कोचिंग संस्थानों के दरवाजे में भी घुसने से डरते हैं। लेकिन हमारी “नौकरी पाने पर आधारित” शिक्षा व्यवस्था का यह एक दर्दनाक पहलू है कि हरेक पालक को इंजीनियर, डॉक्टर ही चाहिये, चाहे उसके लिये कुछ भी करना पड़े, आँखों में एक सपना लिये माँ-बाप दिन-रात खटते रहते हैं, लेकिन अन्य किसी विकल्प पर विचार तक नहीं करते। छोटे-छोटे कस्बों में ही तीन-तीन टेक्निकल कॉलेज खुल गये हैं, जिसमें 12वीं में सप्लीमेंट्री पाये हुए लड़के को भी एडमिशन दे दिया जाता है, फ़िर वह जैसे-तैसे धक्के खाते-खाते चार या पाँच साल में 60-70 प्रतिशत वाली डिग्री हाथ में लेकर बाहर निकलता है। उज्जैन से हर साल 350-400 सॉफ़्टवेयर/केमिकल/सिविल इंजीनियर पैदा होते हैं, जिनमें से 30-40 को ही ठीकठाक “प्लेसमेंट” मिल पाती है, बाकी के इंजीनियर सड़क नापते रहते हैं, कुछ “फ़्रस्ट्रेट” हो जाते हैं, कुछ ठेकेदार बन जाते हैं, कुछ कोई और धंधा कर लेते हैं, लेकिन ताकत न होते हुए भी हजारों परिवार यह महंगा जुआ हर साल खेल रहे हैं। आखिर क्या फ़ायदा है ऐसी शिक्षा का? फ़ायदा तो भरपूर हुआ लेकिन कोचिंग क्लास वालों का और उसके बाद प्रायवेट इंजीनियरिंग कॉलेज वालों का… लेकिन फ़िलहाल इस “शिक्षा बाजार के खेल” का कोई तात्कालिक हल नहीं है, इसके लिये शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे, चाहिये होगी दूरदृष्टि, पक्का इरादा और ईमानदार नीति निर्माता, जिनका काफ़ी समय से अकाल पड़ा हुआ है…
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जून के महीने में अखबार पढ़ना एक बेहद त्रासदायक और संतापदायक काम होता है, आप सोचेंगे ऐसा क्यों? असल में मई के आखिरी सप्ताह या जून के पहले सप्ताह देश में “रिजल्ट” का मौसम होता है। दसवीं, बारहवीं, पीईटी, पीएमटी, आईआईटी-जेईई, और भी न जाने क्या-क्या लगातार रिजल्ट आते ही रहते हैं। जाहिर है कि रिजल्ट आयेंगे तो “सबसे ज्यादा मुनाफ़े वाले धंधेबाज” यानी कि कोचिंग क्लास वाले मानो पूरा का पूरा अखबार ही खरीद लेते हैं। रिजल्ट के अगले ही दिन फ़ुल पेज के विज्ञापन झलकने लगते हैं, “हमने ऐसा तीर मारा, हमारे यहाँ के अलाँ-फ़लाँ स्टूडेंट ने ये तोप मारी आदि-आदि”। विज्ञापन भी एक-दूसरे कोचिंग क्लास वालों को आपस में नीचा दिखाने की भाषा में किये जाते हैं… “मार लिया मैदान…”, “क्रैक करके रख दिया”, “है कोई दूसरा हमारे जैसा”, “हम ही हैं सिरमौर…” जैसे हेडिंग वाले भड़काऊ विज्ञापन दिये जाते हैं। अखबार वालों का क्या जा रहा है, उन्हें तो खासी मोटी रकम वाली कमाई हो रही है (मुश्किल हम जैसे मूर्खों की होती है जो तीन-चार रुपये का अखबार खरीदते हैं, जिसमें पढ़ने के लिये दो या तीन पेज ही होते हैं, बाकी के पेज कोचिंग क्लासेस, केन्द्र या राज्य सरकार की कोई फ़ालतू सी योजना, किसी कमीने नेता के जन्मदिन की बधाईयाँ, बाइक-मोबाइल-कार-फ़्रिज-टीवी बेचने के लिये फ़ूहड़ता… आदि होता है) और कोचिंग वालों का भी क्या लग रहा है “तेरा तुझको अर्पण…” की तर्ज पर पालकों से झटकी हुई मोटी रकम में से थोड़ा सा खर्च कर दिया, ताकि अगले साल के “कटने वाले बकरे” पहले से ही बुक किये जा सकें । एक ही छात्र की तस्वीर दो-तीन-चार कोचिंग क्लास वालों के विज्ञापन में दिखाई दे जाती है। यह संभव ही नहीं कि कोई छात्र एक साथ इतनी सारी कोचिंग क्लास में जा सकता है, लेकिन खामख्वाह “झाँकी” जमाने में क्या जा रहा है, कौन उनसे इस बाबत पूछताछ करने वाला है। रिजल्ट आते ही एक तरह का मकड़जाल बुन लिया जाता है, तरह-तरह के दावे और लुभावने विज्ञापन देकर “हम ही श्रेष्ठ हैं, बाकी सब तो बेकार हैं” का भाव पैदा किया जाता है।
यह खबर सबने सुनी होगी कि बिहार में शौकिया तौर पर गरीब छात्रों के लिये आईआईटी की क्लासेस चलाने वाले “सुपर-30” में सभी 30 गरीब छात्रों का चयन आईआईटी के लिये हो गया है (पिछले वर्ष यह 30 में से 28 था), अर्थात लगभग 100% छात्र सफ़ल। धन्य हैं श्री अभयानन्द जी जिन्होंने यह प्रकल्प हाथ में लिया है। अब नजर डालते हैं कोटा की महान(?) कोचिंग संस्थाओं पर… अव्वल तो ये लोग कभी भी विज्ञापन देकर जाहिर नहीं करते कि उनके यहाँ कुल कितने छात्रों ने प्रवेश लिया। लेकिन हाल ही में एक विज्ञापन देखकर पता चला कि एक “बड़ी” कोचिंग क्लास ने लिखा “1547 छात्रों में से 184 का चयन”, एक और उभरती हुई कोचिंग संस्था ने बताया कि कुल “48 छात्रों में से 4 का चयन आईआईटी-एआईईईई में”। अब खुद ही हिसाब लगाइये कि कितना प्रतिशत हुआ? मुश्किल से 12-14% सफ़लता!!! इस सड़ी सी बात पर इतना क्या इतराना? क्यों इतना डंका पीटना? अरे तुमसे दस गुना अच्छे तो “सुपर-30” वाले हैं, जिनके पास न तो चिकने पन्नों वाले ब्रोशर हैं, न ही एसी रूम हैं, न उनकी फ़ैकल्टी फ़ाइव स्टार में रुकती है, न ही वे मोटी फ़ीस वसूलते हैं, फ़िर भी उनका रिजल्ट लगभग 100% है, तो कोटा में “शिक्षा इंडस्ट्री” चलाने वाले किस बात पर गर्व करते हैं? अच्छा, एक बात और है… ये कथित महान कोचिंग क्लासेस वाले अपने यहाँ छात्रों को प्रवेश कैसे देते हैं… सबसे पहले वे 85-90 प्रतिशत अंक से कम लाने वाले को साफ़ मना कर देते हैं। फ़िर उच्च अंक लाने वाले बेहतरीन तीक्ष्ण बुद्धि वाले लड़के छाँटे जाते हैं, उनमें भी एक “एन्ट्रेन्स परीक्षा” आयोजित की जाती है, उसमें जो सफ़ल होते हैं उन्हें ही कोटा में प्रवेश मिलता है… इसका मतलब यह कि दूध में से क्रीम निकालने के बाद उस क्रीम को भी फ़ेंटकर सबसे बढ़िया घी निकाल लिया, फ़िर दावा करते हैं कि 1547 छात्रों में से 184 का चयन???? अरे भाई तुम तो पहले से ही कुशाग्र बुद्धि वाले लड़के छाँट चुके हो, फ़िर भी इतना कम सफ़लता प्रतिशत?? उम्दा किस्म का “हीरा” पहले से ही तुम्हारे पास है, सिर्फ़ उसे तराशना है, फ़िर भी??? यदि इतने ही शूरवीर(?) हो, तो किसी गरीब लड़के को जिसके 80 प्रतिशत नम्बर आये हों, मुफ़्त में पढ़ाकर दिखाओ और उसका सिलेक्शन आईआईटी में करवाओ। जब तुम्हें मालूम है कि आईआईटी में सिर्फ़ 6000-6500 सीटें हैं, तो एक साल के लिये ऐसा करके दिखाओ कि सब बड़े-बड़े कोचिंग वाले आपस में मिलकर सिर्फ़ और सिर्फ़ 8000 छात्रों को प्रवेश दो, और उसमें से ज्यादा नहीं तो 5000 सिलेक्शन करवा के दिखा दो, तो माना जाये कि वाकई में तुम्हारी शिक्षा(?) में कुछ दम है।
एक पेंच और है, जब इस “महान” देश में IAS, IPS की परीक्षा तक में धांधली हो जाती है, “मुन्नाभाई” किसी अन्य की जगह जाकर परीक्षा दे आते हैं, पैसा देकर पेपर आउट हो जाते हैं, होटलों में बैठकर परीक्षापत्र हल किये जाते हैं, तो क्या गारंटी है कि IIT, IIM, AIEEE की परीक्षा भी बेदाग होती होगी??? बड़े कोचिंग संस्थान जिनकी आमदनी करोड़ों में है, क्या “ऊपर” तक सेटिंग नहीं कर सकते? भारत जैसे “बिकाऊ लोगों के देश" में बिलकुल कर सकते हैं।
अब आते हैं खर्चों पर… एक छात्र की फ़ीस तीस हजार से पचास हजार (जैसी दुकान हो उस हिसाब से), 11वी-12वीं पास करवाने की गारंटी की जुगाड़ की फ़ीस अलग से, उस छात्र का रहना-खाना आदि का खर्च 5 से 10 हजार प्रतिमाह, इसके अलावा पुस्तकें, स्टेशनरी, परीक्षायें दिलवाने के खर्च, बीच-बीच में घर आने-जाने का खर्चा… कहने का मतलब यह कि एक लड़के पर दो साल में कम से कम तीन-चार लाख रुपये खर्च होता है, इसके बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि बेचारे का सिलेक्शन IIT नहीं, तो AIEEE नहीं, तो किसी अच्छे कॉलेज में ही हो जाये, और यदि हो भी जाये तो फ़िर से खर्चों की नई ABCD शुरु होगी वह अलग है, और सिलेक्शन नहीं हुआ तो तीन-चार लाख गये पानी में? बताइये इतना बड़ा जुआ खेलने की ताकत भारत के कितने प्रतिशत परिवारों में है? क्या यह भी एक प्रकार का आर्थिक आरक्षण नहीं है? क्योंकि मैंने ऐसे कई गरीब-निम्न मध्यमवर्गीय परिवार देखे हैं, जिनमें बच्चों ने 12वीं में 80-85 प्रतिशत तक अंक लाये हैं, लेकिन वे लोग पहले से ही इस “खेल” से बाहर हैं, क्योंकि वे बेचारे तो बड़े कोचिंग संस्थानों के दरवाजे में भी घुसने से डरते हैं। लेकिन हमारी “नौकरी पाने पर आधारित” शिक्षा व्यवस्था का यह एक दर्दनाक पहलू है कि हरेक पालक को इंजीनियर, डॉक्टर ही चाहिये, चाहे उसके लिये कुछ भी करना पड़े, आँखों में एक सपना लिये माँ-बाप दिन-रात खटते रहते हैं, लेकिन अन्य किसी विकल्प पर विचार तक नहीं करते। छोटे-छोटे कस्बों में ही तीन-तीन टेक्निकल कॉलेज खुल गये हैं, जिसमें 12वीं में सप्लीमेंट्री पाये हुए लड़के को भी एडमिशन दे दिया जाता है, फ़िर वह जैसे-तैसे धक्के खाते-खाते चार या पाँच साल में 60-70 प्रतिशत वाली डिग्री हाथ में लेकर बाहर निकलता है। उज्जैन से हर साल 350-400 सॉफ़्टवेयर/केमिकल/सिविल इंजीनियर पैदा होते हैं, जिनमें से 30-40 को ही ठीकठाक “प्लेसमेंट” मिल पाती है, बाकी के इंजीनियर सड़क नापते रहते हैं, कुछ “फ़्रस्ट्रेट” हो जाते हैं, कुछ ठेकेदार बन जाते हैं, कुछ कोई और धंधा कर लेते हैं, लेकिन ताकत न होते हुए भी हजारों परिवार यह महंगा जुआ हर साल खेल रहे हैं। आखिर क्या फ़ायदा है ऐसी शिक्षा का? फ़ायदा तो भरपूर हुआ लेकिन कोचिंग क्लास वालों का और उसके बाद प्रायवेट इंजीनियरिंग कॉलेज वालों का… लेकिन फ़िलहाल इस “शिक्षा बाजार के खेल” का कोई तात्कालिक हल नहीं है, इसके लिये शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे, चाहिये होगी दूरदृष्टि, पक्का इरादा और ईमानदार नीति निर्माता, जिनका काफ़ी समय से अकाल पड़ा हुआ है…
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रविवार, 15 जून 2008 12:54
Aurangzeb and Kashi Vishwanath Temple
औरंगजेब और काशी विश्वनाथ सम्बन्धी एक नकली “सेकुलर” कहानी की धज्जियाँ
कुछ दिनों पूर्व “तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कड़गम” (TTMK) (नाम सुना है कभी???) के एक नेता एम एच जवाहिरुल्ला ने एक जनसभा में फ़रमाया कि “औरंगजेब के खिलाफ़ सबसे बड़ा आरोप है कि उसने काशी विश्वनाथ का मन्दिर ध्वस्त किया था, हालांकि यह सच है, लेकिन उसने ऐसा क्यों किया था यह भी जानना जरूरी है” उसके बाद उन्होंने स्व बीएन पांडे की एक पुस्तक का हवाला दिया और प्रेस को बताया कि असल में औरंगजेब के एक वफ़ादार राजपूत राजा की रानी का विश्वनाथ मन्दिर में अपमान हुआ और उनके साथ मन्दिर में लूट की घटना हुई थी, इसलिये औरंगजेब ने मन्दिर की पवित्रता बनाये रखने के लिये(???) काशी विश्वनाथ को ढहा दिया था”… (हुई न आपके ज्ञान में बढ़ोतरी)। एक कट्टर धार्मिक बादशाह, जो अपने अत्याचारों और धर्म परिवर्तन के लिये कुख्यात था, जिनके खानदान में दारुकुट्टे और हरमों की परम्परा वाले औरतबाज लोग थे, वह एक रानी की इज्जत के लिये इतना चिंतित हो गया? वो भी हिन्दू रानी और हिन्दू मन्दिर के लिये कि उसने “सम्मान” की खातिर काशी विश्वनाथ का मन्दिर ढहा दिया? कोई विश्वास कर सकता है भला? लेकिन इस प्रकार की “सेकुलर”(?) कहानियाँ सुनाने में वामपंथी लोग बड़े उस्ताद हैं।
जब अयोध्या आंदोलन अपने चरम पर था, उस वक्त विश्व हिन्दू परिषद ने अपने अगले लक्ष्य तय कर लिये थे कि अब काशी और मथुरा की बारी होगी। हालांकि बाद में बनारस के व्यापारी समुदाय द्वारा अन्दरूनी विरोध (आंदोलन से धंधे को होने वाले नुकसान के आकलन के कारण) को देखते हुए परिषद ने वह “आईडिया” फ़िलहाल छोड़ दिया है। लेकिन उसी समय से “सेकुलर” और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने काशी की मस्जिद के पक्ष में माहौल बनाने के लिये कहानियाँ गढ़ना शुरु कर दिया था, जिससे यह आभास हो कि विश्वनाथ का मन्दिर कोई विवादास्पद नही है, न ही उससे लगी हुई मस्जिद। हिन्दुओं और मीडिया को यह यकीन दिलाने के लिये कि औरंगजेब एक बेहद न्यायप्रिय और “सेकुलर” बादशाह था, नये-नये किस्से सुनाने की शुरुआत की गई, इन्हीं में से एक है यह कहानी। इसके रचयिता हैं श्री बी एन पांडे (गाँधी दर्शन समिति के पूर्व अध्यक्ष और उड़ीसा के पूर्व राज्यपाल)।
बहरहाल, औरंगजेब को “संत” और परोपकारी साबित करने की कोशिश पहले शुरु की सैयद शहाबुद्दीन (आईएफ़एस) ने, जिन्होंने कहा कि “मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाना शरीयत के खिलाफ़ है, इसलिये औरंगजेब ऐसा कर ही नहीं सकता” (कितने भोले बलम हैं शहाबुद्दीन साहब)। फ़िर जेएनयू के स्वघोषित “सेकुलर” बुद्धिजीवी कैसे पीछे रहते? उन्होंने भी एक सुर में औरंगजेब और अकबर को महान धर्मनिरपेक्षतावादी बताने के लिये पूरा जोर लगा दिया, जबकि मुगल काल के कई दस्तावेज, डायरियाँ, ग्रन्थ आदि खुलेआम बताते हैं कि उस समय हजारों मन्दिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं। यहाँ तक कि अरुण शौरी जी ने 2 सितम्बर 1669 के मुगल अदालती दस्तावेज जिसे “मासिरी आलमगिरी” कहा जाता है, उसमें से एक अंश उद्धृत करके बताया कि “बादशाह के आदेश पर अधिकारियों ने बनारस में काशी विश्वनाथ का मन्दिर ढहाया”, और आज भी उस पुराने मन्दिर की दीवार औरंगजेब द्वारा बनाई गई मस्जिद में स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है।
खैर, वापस आते हैं मूल कहानी की ओर… लेखक फ़रमाते हैं कि “एक बार औरंगजेब बंगाल की ओर यात्रा के दौरान लवाजमे के साथ बनारस के पास से गुजर रहा था, तब साथ चल रहे हिन्दू राजाओं ने औरंगजेब से विनती की कि यहाँ एक दिन रुका जाये ताकि रानियाँ गंगा स्नान कर सकें और विश्वनाथ के दर्शन कर सकें, औरंगजेब राजी हो गया(???)। बनारस तक के पाँच मील लम्बे रास्ते पर सेना तैनात कर दी गई और तमाम रानियाँ अपनी-अपनी पालकी में विश्वनाथ के दर्शनों के लिये निकलीं। पूजा के बाद सभी रानियाँ वापस लौट गईं सिवाय एक रानी “कच्छ की महारानी” के। महारानी की तलाश शुरु की गई, मन्दिर की तलाशी ली गई, लेकिन कुछ नहीं मिला। औरंगजेब बहुत नाराज हुआ और उसने खुद वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मन्दिर की तलाशी ली। अन्त में उन्हें पता चला कि गणेश जी की मूर्ति के नीचे एक तहखाना बना हुआ है, जिसमें नीचे जाती हुई सीढ़ियाँ उन्हें दिखाई दीं। तहखाने में जाने पर उन्हें वहाँ खोई हुई महारानी मिलीं, जो कि बुरी तरह घबराई हुई थीं और रो रही थी, उनके गहने-जेवर आदि लूट लिये गये थे। हिन्दू राजाओं ने इसका तीव्र विरोध किया और बादशाह से कड़ी कार्रवाई करने की माँग की। तब महान औरंगजेब ने आदेश दिया कि इस अपवित्र हो चुके मन्दिर को ढहा दिया जाये, विश्वनाथ की मूर्ति को और कहीं “शिफ़्ट” कर दिया जाये तथा मन्दिर के मुख्य पुजारी को गिरफ़्तार करके सजा दी जाये। इस तरह “मजबूरी” में औरंगजेब को काशी विश्वनाथ का मन्दिर गिराना पड़ा… ख्यात पश्चिमी इतिहासकार डॉ कोनराड एल्स्ट ने इस कहानी में छेद ही छेद ढूँढ निकाले, उन्होंने सवाल किये कि –
1) सबसे पहले तो इस बात का कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है कि औरंगजेब ने इस प्रकार की कोई यात्रा दिल्ली से बंगाल की ओर की थी। उन दिनों के तमाम मुगल दस्तावेज और दिन-ब-दिन की डायरियाँ आज भी मौजूद हैं और ऐसी किसी यात्रा का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता, और पांडे जी ने जिस चमत्कारिक घटना का विवरण दिया है वह तो अस्तित्व में थी ही नहीं।
2) औरंगजेब कभी भी हिन्दू राजाओं या हिन्दू सैनिकों के बीच में नहीं रहा।
3) जैसा कि लिखा गया है, क्या तमाम हिन्दू राजा अपनी पत्नियों को दौरे पर साथ रखते थे? क्या वे पिकनिक मनाने जा रहे थे?
4) सैनिकों और अंगरक्षकों से चारों तरफ़ से घिरी हुई महारानी को कैसे कोई पुजारी अगवा कर सकता है?
5) हिन्दू राजाओं ने औरंगजेब से कड़ी कार्रवाई की माँग क्यों की? क्या एक लुटेरे पुजारी(???) को सजा देने लायक ताकत भी उनमें नहीं बची थी?
6) जब मन्दिर अपवित्र(?) हो गया था, तब उसे तोड़कर नई जगह शास्त्रों और वेदों के मुताबिक मन्दिर बनाया गया, लेकिन कहाँ, किस पवित्र जगह पर?
दिमाग में सबसे पहले सवाल उठता है कि पांडे जी को औरंगजेब के बारे में यह विशेष ज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ? खुद पांडे जी अपने लेखन में स्वीकार करते हैं कि उन्होंने इसके बारे में डॉ पट्टाभि सीतारमैया की पुस्तक में इसका उल्लेख पढ़ा था (यानी कि खुद उन्होंने किसी मुगल दस्तावेज का अध्ययन नहीं किया था, न ही कहीं का “रेफ़रेंस” दिया था)। औरंगजेब को महात्मा साबित करने के लिये जेएनयू के प्रोफ़ेसर के एन पणिक्कर की थ्योरी यह थी कि “काशी विश्वनाथ मन्दिर ढहाने का कारण राजनैतिक रहा होगा। उस जमाने में औरंगजेब के विरोध में सूफ़ी विद्रोहियों और मन्दिर के पंडितों के बीच सांठगांठ बन रही थी, उसे तोड़ने के लिये औरंगजेब ने मन्दिर तोड़ा” क्या गजब की थ्योरी है, जबकि उस जमाने में काशी के पंडित गठबन्धन बनाना तो दूर “म्लेच्छों” से बात तक नहीं करते थे।
खोजबीन करने पर पता चलता है कि पट्टाभि सीतारमैया ने यह कहानी अपनी जेलयात्रा के दौरान एक डायरी में लिखी थी, और उन्होंने यह कहानी लखनऊ के एक मुल्ला से सुनी थी। अर्थात एक मुल्ला की जबान से सुनी गई कहानी को सेकुलरवादियों ने सिर पर बिठा लिया और औरंगजेब को महान साबित करने में जुट गये, बाकी सारे दस्तावेज और कागजात सब बेकार, यहाँ तक कि “आर्कियोलॉजी विभाग” और “मासिरी आलमगिरी” जैसे आधिकारिक लेख भी बेकार।
तो अब आपको पता चल गया होगा कि अपनी गलत बात को सही साबित करने के लिये सेकुलरवादी और वामपंथी किस तरह से किस्से गढ़ते हैं, कैसे इतिहास को तोड़ते-मरोड़ते हैं, कैसे मुगलों और उनके घटिया बादशाहों को महान और धर्मनिरपेक्ष बताते हैं। एक ग्राहम स्टेंस को उड़ीसा में जलाकर मार दिया जाता है या एक जोहरा के परिवार को बेकरी में जला दिया जाता है (यह एक क्रूर और पाशविक कृत्य था) लेकिन उस वक्त कैसे मीडिया, अंतरराष्ट्रीय समुदाय, ईसाई संगठन और हमारे सदाबहार घरेलू “धर्मनिरपेक्षतावादी” जोरदार और संगठित “गिरोह” की तरह हल्ला मचाते हैं, जबकि इन्हीं लोगों और इनके साथ-साथ मानवाधिकारवादियों को कश्मीर के पंडितों की कोई चिन्ता नहीं सताती, श्रीनगर, बारामूला में उनके घर जलने पर कोई प्रतिनिधिमंडल नहीं जाता, एक साजिश के तहत पंडितों के “जातीय सफ़ाये” को सतत नजर-अंदाज कर दिया जाता है। असम में बांग्लादेशियों का बहुमत और हिन्दुओं का अल्पमत नजदीक ही है, लेकिन इनकी असल चिंता होती है कि जेलों में आतंकियों को अच्छा खाना मिल रहा है या नहीं? सोहराबुद्दीन के मानवाधिकार सुरक्षित हैं या नहीं? अबू सलेम की तबियत ठीक है या नहीं? फ़िलिस्तीन में क्या हो रहा है? आदि-आदि-आदि। अब समय आ गया है कि इनके घटिया कुप्रचार का मुँहतोड़ जवाब दिया जाये, कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी इन “बनी-बनाई” कहानियों और “अर्धसत्य” के बहकावे में आ जाये (हालांकि कॉन्वेंट स्कूलों के जरिये इतिहास को विकृत करने में वे सफ़ल हो रहे हैं), क्योंकि NDTV जैसे कई कथित “धर्मनिरपेक्ष” मीडिया भी इनके साथ है। इस बारे में आप क्या सोचते हैं???
कुछ करेंगे या ऐसे ही बैठे रहेंगे? और कुछ नहीं तो कम से कम इस लेख की लिंक मित्रों को “फ़ॉरवर्ड” ही कर दीजिये…
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सन्दर्भ – डॉ कोनराड एल्स्ट एवं बी शान्तनु
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रविवार, 08 जून 2008 17:03
मनमोहन जी, गोली मारना “अपरिहार्य” कब बनेगा?
महान अर्थशास्त्री और भारत के सबसे मजबूत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में फ़रमाया कि महंगाई का बढ़ना “अपरिहार्य” है… महंगाई आज के दौर में जीवन की एक सच्चाई है (Inflation is a Fact of life), मेरे ख्याल से वे गलत नहीं कह रहे हैं, बल्कि उन्होंने तो सिर्फ़ एक ही बात गिनाई है जो “अपरिहार्य” है, ऐसी कुछ और बातें हैं जो “मेरा भारत महान” में अपरिहार्य हैं, जैसे –
1) पेट्रोल की कीमतें बढ़ना अपरिहार्य है
2) टैक्स (सर्विस टैक्स) आदि का बढ़ना अपरिहार्य (Fact of Life) है
3) भ्रष्ट नेता हमारे जीवन में अपरिहार्य है
4) “काला पैसा” (Black Money) भी अपरिहार्य है
5) आलसी, कामचोर और मक्कार सरकारी कर्मचारी भी अपरिहार्य हैं
6) खराब सड़कें अपरिहार्य हैं
7) बिजली चोरी करके बचने वाले अपरिहार्य हैं
8) गंदे शहर और अतिक्रमण हमारे लिये अपरिहार्य हैं
9) सांठगाँठ, अनियमिततायें, नेता-आईएएस-उद्योगपति गठजोड़ अपरिहार्य है
10) आतंकवाद, मारकाट, खून-खच्चर भी अपरिहार्य है
11) नेताओं के भव्य जन्मदिन अपरिहार्य हैं
12) पेट्रोल खरीदने की औकात न होने पर भी LPG से कारें-होटलें चलाने वाले अपरिहार्य हैं
13) किसानों की आत्महत्यायें भी अपरिहार्य है
14) बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी, अपरिहार्य है….
और भी गिनाऊँ क्या? “मन्नू भाई”, मैं सिर्फ़ एक बात जानना चाहता हूँ, कि इन सब कामों के लिये जिम्मेदार व्यक्तियों को जेल में सड़ाना और गोली से उड़ाना कब अपरिहार्य होगा????
नोट : कभी-कभी छोटा ब्लॉग पोस्ट भी लिखना चाहिये, ऐसा एक वरिष्ठ ने कहा था…
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1) पेट्रोल की कीमतें बढ़ना अपरिहार्य है
2) टैक्स (सर्विस टैक्स) आदि का बढ़ना अपरिहार्य (Fact of Life) है
3) भ्रष्ट नेता हमारे जीवन में अपरिहार्य है
4) “काला पैसा” (Black Money) भी अपरिहार्य है
5) आलसी, कामचोर और मक्कार सरकारी कर्मचारी भी अपरिहार्य हैं
6) खराब सड़कें अपरिहार्य हैं
7) बिजली चोरी करके बचने वाले अपरिहार्य हैं
8) गंदे शहर और अतिक्रमण हमारे लिये अपरिहार्य हैं
9) सांठगाँठ, अनियमिततायें, नेता-आईएएस-उद्योगपति गठजोड़ अपरिहार्य है
10) आतंकवाद, मारकाट, खून-खच्चर भी अपरिहार्य है
11) नेताओं के भव्य जन्मदिन अपरिहार्य हैं
12) पेट्रोल खरीदने की औकात न होने पर भी LPG से कारें-होटलें चलाने वाले अपरिहार्य हैं
13) किसानों की आत्महत्यायें भी अपरिहार्य है
14) बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी, अपरिहार्य है….
और भी गिनाऊँ क्या? “मन्नू भाई”, मैं सिर्फ़ एक बात जानना चाहता हूँ, कि इन सब कामों के लिये जिम्मेदार व्यक्तियों को जेल में सड़ाना और गोली से उड़ाना कब अपरिहार्य होगा????
नोट : कभी-कभी छोटा ब्लॉग पोस्ट भी लिखना चाहिये, ऐसा एक वरिष्ठ ने कहा था…
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