desiCNN - Items filtered by date: जुलाई 2009
हाल ही में एक अमेरिकी पत्रिका “न्यूज़वीक” ने राहुल गाँधी पर एक कवर स्टोरी तैयार की है, जिसमें पत्रिका के कवर पर उनका एक बड़ा सा फ़ोटो लगा है और लेख में राहुल गाँधी को “एक खामोश क्रान्ति का जनक” बताया गया है। हालांकि यह उपमा वामपंथियों को बिलकुल नहीं सुहायेगी, क्योंकि इतिहास में क्रान्तिकारी तो सिर्फ़ एक-दो ही हुए हैं, जैसे कार्ल मार्क्स या चे ग्वेवारा या माओ त्से तुंग और मजे की बात यह है कि इस लेख के लेखक सुदीप मजूमदार नक्सलवाद के समर्थक माने जाते हैं। बहरहाल, लेख में आगे कहा गया है कि राहुल गाँधी इस देश का “रीमेक” करने जा रहे हैं (मानो यह देश सदियों से एक मिट्टी का लोंदा हो और राहुल एक दक्ष कुम्हार) (लेख यहाँ देखें… http://www.newsweek.com/id/200051 - Sudip Mazumdar)।

पिछले सौ वर्षों में नेहरू-गाँधी परिवार के लगभग सभी सदस्यों ने विदेश में उच्च शिक्षा(?) हासिल की है, या फ़िर इंग्लैंड-अमेरिका में काफ़ी समय बिताया है। पश्चिमी मीडिया और नेहरु-गाँधी पीढ़ी और उनके विरासतियों के बीच प्रगाढ़ सम्बन्ध बहुत पहले से ही रहे हैं। कुछ वर्ष पहले तक राहुल गाँधी विश्व में कुछ खास नहीं पहचाने जाते थे (भारत में ही कौन से जाने-पहचाने जाते थे), पश्चिम और पश्चिमी मीडिया में कुछ समय पहले तक राहुल गांधी की चर्चा कभी-कभार ही हुआ करती थी, वह भी एक “राजपरिवार” के सदस्य के रूप में ही। लेकिन अब अचानक एक लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद पश्चिमी मीडिया ने उन्हें “भारत का भविष्य” घोषित कर दिया है, ठीक वैसे ही जैसे 60 साल पहले “पश्चिम के ही एक और दुलारे” जवाहरलाल, को घोषित किया था। सबसे पहले पश्चिमी मीडिया ने ही नेहरू को भारत का कर्णधार और प्रधानमंत्री घोषित किया था और सरदार पटेल तथा अन्य की राह में मुश्किलें खड़ी कर दी थीं। पश्चिमी मीडिया अपनी मुहिम में सफ़ल भी हुआ और नेहरू-महात्मा की महत्वाकांक्षा के चलते आखिर वे ही प्रधानमंत्री बने। अब यही मीडिया उनके परनाती को भारत का अगला प्रधानमंत्री बनाने पर तुल गया है, और गुणगान करने लग पड़ा है। लेकिन इसमें नया कुछ भी नहीं है, जैसा कि पहले कहा गया कि पश्चिमी सत्ता संस्थान और वहाँ के मीडिया को गाँधी परिवार से खास लगाव है, और यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि ये लोग पश्चिमी शिक्षा-दीक्षा के कारण वहाँ के रंग-ढंग, आचार-विचार में पूरी तरह से ढल चुके होते हैं और फ़िर इनसे कोई काम निकलवाना (यानी कोई विशेष नीतिगत मामला, अंतर्राष्ट्रीय मंचों और समझौतों, UNO आदि में पश्चिम के पक्ष में वोटिंग या “हाँ/ना” में मुंडी हिलाना, तथा अपना माल बेचने के लिये परमाणु करार, हथियार सौदे या क्रूड तेल बेचना आदि करना) आसान हो जाता है।

यह पश्चिमी मीडिया का बहुत पुराना आजमाया हुआ तरीका है, वे पहले एक व्यक्ति को जनता में “प्रोजेक्ट” करते हैं, वर्षों पहले उन्होंने नेहरु को भी भारत का भाग्य-विधाता बताया था, जबकि उन्होंने 1952 के जीप घोटाले में कृष्ण मेनन का पक्ष लेकर भारत में भ्रष्टाचार की नींव का पहला पत्थर रखा था। हालांकि पश्चिम में यह सब पहले से तय किया हुआ होता है कि वे किस देश में “अपने अनुकूल रहने वाला” कैसा नेतृत्व चाहते हैं, वे हमें बताते हैं कि नेहरु अच्छे हैं, इन्दिरा अच्छी हैं, राजीव बहुत सुदर्शन और भोले हैं, सोनिया त्यागमयी हैं और राहुल क्रान्तिकारी हैं। हम पश्चिम की हर बात अपने सिर-माथे लेने के आदी हो चुके हैं, चाहे वह फ़ैशन हो, फ़िल्में हों या कुसंस्कार हों, लगे हाथ नेता भी उनका बताया हुआ ले लेते हैं। पश्चिमी मीडिया के अनुसार राहुल गाँधी भारत की “खोज” कर रहे हैं, ठीक ऐसी ही एक खोज उनके परनाना ने भी की थी। राहुल गाँधी भारत को खोज कैसे रहे हैं, कलावती के झोपड़े में, उत्तरप्रदेश में एक दलित के यहाँ रात गुज़ारकर, और सड़क किनारे खाना खाकर। यदि इसी पैमाने को “भारत खोजना” या “क्रान्तिकारी कदम” कहते हैं तो इससे सौ गुना अधिक तो भाजपा-बसपा-वामपंथी सभी पार्टियों के कई नेता अपनी जवानी में कर चुके हैं, गाँव-गाँव सम्पर्क बनाकर, पदयात्रा करके, धूल-मिट्टी फ़ाँककर… उन्हें तो कभी क्रान्तिकारी नहीं कहा गया। जबकि राहुल गाँधी की शिक्षा-दीक्षा के बारे में संदेह अभी भी बना हुआ है, कि आखिर उन्होंने कौन सी डिग्री ली है? (यहाँ देखें http://baltimore.indymedia.org/newswire/display/14469/index.php)

वैसे अब नवीन चावला के रहते अब हम कभी भी नहीं जान पायेंगे कि आखिर कांग्रेस ने वोटिंग मशीनों में किस प्रकार हेराफ़ेरी की और चुनाव जीती, लेकिन एक बात तय है कि पश्चिम के सत्ता संस्थानों और पश्चिमी मीडिया में “गाँधी परिवार” की अच्छी पकड़ है, उनके बीच एक अच्छी “समझ” और गठबन्धन विकसित हो चुका है, और फ़िर 100 साल से “कैम्ब्रिज” इस परिवार का पसन्दीदा स्थान रहा है। क्या यह मात्र संयोग है या कुछ और? अनौपचारिक बातचीत में कई बड़े-बड़े राजनेता इस बात को दबे-छिपे स्वर में मानते हैं कि बगैर अमेरिका और ब्रिटेन की सहमति के भारत का प्रधानमंत्री बनना बहुत मुश्किल है, यदि कोई बन भी जाये तो टिकना मुश्किल है। अमेरिका को धता बताकर पोखरण परमाणु विस्फ़ोट करने के बाद से ही भाजपा उनकी आँख की किरकिरी बनी, जबकि विश्व बैंक पेंशन होल्डर मनमोहन सिंह उनके सबसे पसन्दीदा उम्मीदवार हैं। कई वरिष्ठ पत्रकार भी मानते हैं कि हमेशा आम चुनावों के दौरान अमेरिका और ब्रिटेन के दिल्ली स्थित दूतावासों में अनपेक्षित और संदेहास्पद गतिविधियाँ अचानक बढ़ जाती हैं।

वापस आते हैं नेहरु-गाँधी के शिक्षा बैकग्राउंड पर, नेहरू ने हार्वर्ड और कैम्ब्रिज में शिक्षा ग्रहण की यह बात सत्य है, उनकी बेटी इन्दिरा प्रियदर्शिनी ने भी लन्दन में काफ़ी समय बिताया (शिक्षा प्राप्त की, कितनी की, क्या प्रभाव छोड़ा आदि कहना जरा मुश्किल है, क्योंकि उस समय का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है), हाँ लेकिन वहाँ इन्दिरा कम्युनिस्टों के सम्पर्क में अवश्य आईं, जैसे कृष्ण मेनन, पीएन हक्सर और ज्योति बसु। राजीव गाँधी भी कैम्ब्रिज में पढ़े और बगैर डिग्री के वापस चले आये, और अब राहुल गाँधी, जो कि न्यूज़वीक के अनुसार पहले हारवर्ड गये, लेकिन डिग्री ली रोलिंस कॉलेज फ़्लोरिडा से और एमफ़िल की कैम्ब्रिज से। मतलब ये कि कैम्ब्रिज भारत के शासकों का एक पसन्दीदा स्थान है, और ये हमारा “सौभाग्य”(?) है कि हमेशा भारत की तकदीर बदलने, अथवा क्रान्तिकारी परिवर्तन होने का सारथी पूरे भारत में सिर्फ़ और सिर्फ़ नेहरु-गाँधी परिवार ही होता है, पहले-पहल ये बात हमें पश्चिमी मीडिया बताता है, फ़िर भारत का मीडिया भी “सदासर्वदा पिछलग्गू” की तरह इस विचार के समर्थन में मुण्डी हिलाता है फ़िर जनता को मूर्ख बनाने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है। हालांकि जनता कभी-कभार अपना रुख बदलती है (1977, 1998-99) आदि, लेकिन फ़िर जल्दी ही वह “लाइन” पर आ जाती है।

अभी “न्यूज़वीक” ने यह शुरुआत की है, अब आप जल्द ही अन्य चिकने पन्नों वाली पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर राहुल गाँधी की तस्वीर पायेंगे, पीछे-पीछे हारवर्ड और येल-ठेल-पेल यूनिवर्सिटियों के कथित मैनेजमेंट गुरु हमें बतायेंगे कि भारत का भविष्य यानी राहुल गाँधी तुम्हारे सामने खड़ा है, उठो और चुन लो। फ़िर नम्बर आयेगा संयुक्त राष्ट्र अथवा किसी अन्य बड़े अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उनके “अवतरण” का, जहाँ एक लिखा-लिखाया भाषण देकर वे ससम्मान विश्व मंच पर आसीन हो जायेंगे, सबसे अन्त में (हो सकता है एक साल के भीतर ही) बराक ओबामा उन्हें मिलने बुलायें या ऐसा कोई “विशिष्ट संयोग” बन जाये कि हमें बराक ओबामा अथवा बिल गेट्स के साथ दाँत निपोरते और हाथ मिलाते हुए राहुल गाँधी के फ़ोटो देखने को मिल जायें।

अब ये मत पूछियेगा कि अब तक राहुल गांधी का भारत के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक उन्नयन में कितना योगदान है (हिन्दी भाषा में इसे “कौन सा तीर मार लिया”, कहते हैं)? ये भी न पूछियेगा कि यदि राहुल बाबा इतने ही ज्ञानवान और ऊर्जा से भरपूर हैं तो युवाओं से सम्बन्धित मामलों जैसे धारा 377 (समलैंगिकता), हरियाणा की पंचायत द्वारा हत्या किये जाने जैसे मामलों पर बहस करने या बयान देने कभी आगे क्यों नहीं आते? अक्सर उन्हें टीवी पर हाथ हिलाते और कॉलेज के युवकों-युवतियों के साथ मुस्कराते हुए ही क्यों देखा जाता है, बजाय इसके कि वे देश में फ़ैले भ्रष्टाचार के बारे में कुछ करने की बातें करें (आखिर यह रायता भी तो उन्हीं के परिवार ने फ़ैलाया है, इसे समेटने की बड़ी जिम्मेदारी भी उन्हीं की है)? अमरनाथ-कश्मीर-शोपियाँ, धर्मनिरपेक्षता-साम्प्रदायिकता-आरक्षण-युवाओं में फ़ैलती निराशा, देश की जर्जर प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे ज्वलंत मुद्दों पर कभी आपने उन्हें कभी टीवी पर किसी बहस में हिस्सा लेते देखा है? नहीं देखा होगा, क्योंकि खुद उनकी “मम्मी” ने आज तक मुश्किल से दो-चार इंटरव्यू दिये होंगे (वो भी उस पत्रकार पर बड़ा अहसान जताकर)। “बड़े लोग” (खासकर कैम्ब्रिज/ऑक्सफ़ोर्ड/हार्वर्ड आदि में पढ़े-लिखे) कभी भी “फ़ड़तूस” और “दो कौड़ी के पत्रकारों” को अव्वल तो घर में घुसने ही नहीं देते और जब भी कोई इंटरव्यू या बहस हेतु “बाइट्स” देते भी हैं तो इसकी पूरी व्यवस्था पहले ही की जा चुकी होती है कि चैनल/अखबार का मालिक “चादर से बाहर पैर” न निकाल सके, संवाददाता या पत्रकार की तो औकात ही क्या है, क्योंकि यदि पैसा और पावर हो तो मीडिया को “मैनेज करना” (हिन्दी भाषा में इसे “दरवाजे पर दरबान बनाना” कहते हैं) बेहद आसान होता है।

तो भाईयों और बहनों, राजकुमार के स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछाये तैयार रहिये, जल्द ही आपका सुनहरा भविष्य आपके सामने एक जगमगाते हुए प्रधानमंत्री के रूप मे मौजूद होगा, भारत एक महाशक्ति बनेगा, गरीबी मिटेगी, असमानता हटेगी, खुशहाली आने ही वाली है…। और हाँ, यदि आपकी भी इच्छा हो भारत के सुनहरे भविष्य में कुछ हाथ बँटाने की, तो चलिये, उठिये और कैम्ब्रिज की राह पकड़िये…। कहाँ IIT और IIM के चक्कर में पड़े हैं, इन जगहों पर पढ़कर आप अधिक से अधिक किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के “नौकर” बन सकते हैं, “भारत के सत्ताधारी” नहीं…

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सेकुलर समाचार - कोलकाता से 200 किमी दूर मुर्शिदाबाद के नावदा इलाके के ग्राम त्रिमोहिनी में पुलिस की फ़ायरिंग में 2 ग्रामीणों की मौत हो गई, जबकि दो अन्य की मौत धारदार हथियारों की चोट से हुई। गाँव में दो गुटों के बीच झगड़े में हुई गोलीबारी के बीच यह घटना हुई। इस घटना में भीड़ द्वारा 5 दुकानें जला दी गईं और कुछ दुकानों को लूट लिया गया। पुलिस के अनुसार इस घटना में एक डीएसपी रैंक का अधिकारी और सात अन्य पुलिस वाले पथराव में घायल हुए हैं। राज्य के गृह सचिव अर्धेन्दु सेन ने कहा कि “कुछ बाहरी तत्वों” ने एक स्थानीय स्कूल में घुसकर छात्रों को पीटा, और इस घटना के कारण पास के गाँव त्रिमोहिनी में झगड़ा शुरु हो गया। पुलिस ने दोनों गुटों के बीच संघर्ष को रोकने के लिये बलप्रयोग किया लेकिन असफ़ल रही, और पुलिस फ़ायरिंग में दो ग्रामीणों की मौत हो गई। गृह सचिव के अनुसार “स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियन्त्रण में है तथा जिला मजिस्ट्रेट ने कल गाँव में एक शान्ति बैठक का आयोजन रखा है…”। (12 जुलाई, इंडियन एक्सप्रेस, कोलकाता संस्करण)

ऐसे सैकड़ों समाचार आप रोज़-ब-रोज़ अखबारों में पढ़ते होंगे, यह है “सेकुलर” समाचार बनाने की कला… जिसका दूसरा नाम है सच को छिपाने की कला… एक और नाम दिया जा सकता है, मूर्ख बनाने की कला। क्या आप इस समाचार को पढ़कर जान सकते हैं कि “दो गुट” का मतलब क्या है? किन दो ग्रामीणों की मौत हो गई है? पुलिस पर पथराव क्यों हुआ और डीएसपी रैंक का अधिकारी कैसे घायल हुआ? “बाहरी तत्व” का मतलब क्या है? स्कूल में छात्रों की पिटाई किस कारण से हुई? “शान्ति बैठक” का मतलब क्या है?… यह सब आप नहीं जान सकते, क्योंकि “सेकुलर मीडिया” नहीं चाहता कि आप ऐसा कुछ जानें, वह चाहता है कि जो वह आपको दिखाये-पढ़ाये-सुनाये उसे ही आप या तो सच मानें या उसकी मजबूरी हो तो वह इस प्रकार की “बनाई” हुई खबरें आपको परोसे, जिसे पढकर आप भूल जायें…

लेकिन फ़िर असल में हुआ क्या था… पश्चिम बंगाल की “कमीनिस्ट” (सॉरी कम्युनिस्ट) सरकार ने खबर को दबाने की भरपूर कोशिश की, फ़िर भी सच सामने आ ही गया। जिन दो ग्रामीणों की धारदार हथियारों से हत्या हुई थी, उनके नाम हैं मानिक मंडल और गोपाल मंडल, जबकि सुमन्त मंडल नामक व्यक्ति अमताला अस्पताल में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहा है। त्रिमोहिनी गाँव के बाज़ार में जो दुकानें लूटी या जलाई गईं “संयोग से” वह सभी दुकानें हिन्दुओं की थीं। “एक और संयोग” यह कि दारपारा गाँव (झाउबोना तहसील) के जलाये गये 25 मकान भी हिन्दुओं के ही हैं।

झगड़े की मूल वजह है स्कूल में जबरन नमाज़ पढ़ने की कोशिश करना… झाऊबोना हाईस्कूल इलाके का एक बड़ा हाईस्कूल है जो कि मुर्शिदाबाद के बेलडांगा सब-डिवीजन में नावदा पुलिस स्टेशन के तहत आता है। इस स्कूल में लगभग 1000 छात्र हैं जिसमें से 50% छात्र मुस्लिम हैं, काफ़ी लम्बे समय से ये छात्र स्कूल में शुक्रवार की सामूहिक नमाज़ पढने की अनुमति माँग रहे थे, लेकिन स्कूल प्रशासन ने ऐसा करने की अनुमति नहीं दी। इसके बाद मुस्लिम छात्रों ने स्कूल में बरसों से चली आ रही सरस्वती पूजा को लेकर आपत्ति जता दी, इस पर स्कूल प्रशासन ने सरस्वती की पूजा रोक दी। लेकिन मुस्लिम छात्र इससे सन्तुष्ट नहीं थे और 10 जुलाई को मुस्लिम छात्रों के एक गुट ने स्कूल परिसर में जबरन नमाज़ पढ़ने की कोशिश की, हिन्दू छात्रों के विरोध के बाद दोपहर 12 बजे के आसपास झगड़ा शुरु हो गया। तत्काल मोबाइल फ़ोनों से मुस्लिम छात्रों ने “बाहरी तत्वों” को स्कूल में बुला लिया जो की “पूरी तैयारी” से आये थे, “बाहरी तत्व” कोई और नहीं पास के त्रिमोहिनी गाँव के मदरसे से छात्र थे। उन्होंने स्कूल में घुसकर हिन्दू छात्रों को पीटा और धारदार हथियारों से मारना शुरु कर दिया। इसी बीच त्रिमोहिनी और दारपारा गाँव के बाज़ार में कई मकान और दुकानों में लूटपाट शुरु हो गई। एक मकान में आग के दौरान एक व्यक्ति की अपनी बच्ची सहित जलकर मौत हो गई (शुक्र है कि वह ग्राहम स्टेंस नहीं था, वरना एक और राष्ट्रीय शोक कहलाता)। दोपहर ढाई बजे तक पुलिस और RAF घटनास्थल पर पहुँच चुके थे, लेकिन डीएसपी सरतलाल मीणा और कई पुलिसवाले मिलकर भी दंगाइयों को रोकने में नाकाम रहे। अचानक मस्जिद से यह घोषणा की गई कि जो पुलिसवाले गाँव में आये हैं वे “नकली” पुलिसवाले हैं और उन्हें बेलदांगा के भारत सेवाश्रम संघ के स्वामी कार्तिक महाराज ने भेजा है, इसके बाद पुलिस पर जमकर पथराव शुरु हो गया, जिसमें डीएसपी समेत कई पुलिसवाले घायल हो गये। संघर्ष रात साढ़े 11 बजे तक चलता रहा तब भी पुलिस काबू पाने में सफ़ल नहीं हो सकी थी। अपुष्ट सूत्रों के अनुसार 13 जुलाई तक करीब 11 हिन्दुओं की मौत हो चुकी थी और लगभग इतने ही लापता भी थे। यह थी पूरी खबर, बिना “सेकुलरिज़्म” का मुलम्मा चढ़ाये हुए।

यह तो हुई इस घटना के बारे में जानकारी, अब इसके पीछे की बातें भी जान लें… मुर्शिदाबाद एक सीमावर्ती मुस्लिम बहुल जिला है, और हाल ही में प्रणब मुखर्जी ने यहाँ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा खोलने हेतु भारी अनुदान और ज़मीन देने की घोषणा की है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास पर मैं जाना नहीं चाहता, साथ ही ऐसे संवेदनशील इलाके में इस विश्वविद्यालय की शाखा खोलने की ऐसी कौन सी आपातकालीन आवश्यकता आन पड़ी थी इसके कारणों पर भी नहीं जाना चाहता, लेकिन इस राजनीति के पीछे हाल के लोकसभा चुनाव के नतीजे महत्वपूर्ण हैं। मुर्शिदाबाद के चुनावों में कांग्रेस के अब्दुल मन्नान हुसैन जीते थे, उन्होने कम्युनिस्ट पार्टी के अनीसुर रहमान सरकार को लगभग 36,000 वोटों से हराया था, जबकि भाजपा के प्रत्याशी निर्मल कुमार साहा को 42,000 वोट मिले थे। अर्थात भाजपा को मिले वोटों के कारण कम्युनिस्ट प्रत्याशी हार गया। मुस्लिमों को खुश करने और अपने पाले में करने के लिये कांग्रेस और कम्युनिस्टों की अन्दरूनी राजनीति का घिनौना खेल भी इस घटना के पीछे है। प्रणब मुखर्जी रविवार को अपने निर्वाचन क्षेत्र जंगीपुर के दौरे पर आये थे, लेकिन उन्होंने इन गाँवों का दौरा करना “उचित नहीं समझा”, क्योंकि प्रभावित लोग “वोट बैंक” नहीं थे। क्षेत्र में रहने वाले हिन्दुओं को भय है कि बांग्लादेश से सटे इस जिले में स्थापित भारत सेवाश्रम संघ के अध्यक्ष स्वामी प्रदीप्तानन्दजी (कार्तिक महाराज) पर जानलेवा हमला हो सकता है (हालांकि ऐसी आशंका स्वामी लक्ष्मणानन्दजी सरस्वती की हत्या के पहले भी जताई जा चुकी थी, सरकार ने उस सम्बन्ध में क्या किया और उनके साथ क्या हुआ यह किसी से छिपा नहीं है)। हमेशा की तरह प्रत्येक दंगे के बाद “शांति बैठक” आयोजित की जाती है ताकि हिन्दुओं को शान्ति और सदभाव का लेक्चर पिलाया जा सके और उन्हें समझाया जा सके कि या तो वे “शांति” से रहे या फ़िर इलाका छोड़कर चले जायें, अथवा अधिक आसान रास्ता अपनायें और धर्म-परिवर्तन कर लें… जिस प्रकार धीरे-धीरे उत्तर-पूर्व के कुछ राज्य अब ईसाई बहुसंख्यक बनने जा रहे हैं, उसी प्रकार।

ये सब तो हुईं घटिया राजनीति की बातें, लेकिन यहाँ असल मुद्दा है कि किसी मामले में मीडिया का क्या “रोल” होना चाहिये और भारत का मीडिया इतना हिन्दू विरोधी क्यों है? क्या आपने यह खबर किसी राष्ट्रीय चैनल के प्राइम टाइम में सुनी-देखी है? शायद नहीं सुनी होगी… क्योंकि राष्ट्रीय मीडिया के पास और भी बहुत से “जरूरी” काम हैं। साथ ही एक बार विचार करके देखिये कि इसके विपरीत घटनाक्रम वाली कोई घटना यदि गुजरात में घटी होती तो क्या होता? निश्चित जानिये उसे “जातीय सफ़ाये” का नाम देकर NGOs और मानवाधिकार वाले अब तक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बना चुके होते। कश्मीर में तो “बेचारे” कुछ “गुमराह युवक” हैं जिनसे सहानुभूति से पेश आने की आवश्यकता है, बाकी भारत में दो-चार संत-महात्मा गोलियों के शिकार हो भी जायें तो किसे परवाह है, कम से कम मीडिया को तो बिलकुल नहीं है, क्योंकि उसके लिये “धर्मनिरपेक्ष मूल्य”(?) बनाये रखना अधिक महत्वपूर्ण है, पता नहीं भारत के मीडिया वाले बांग्लादेश, पाकिस्तान और छद्म धर्मनिरपेक्षता के बारे में “सच का सामना” कब करेंगे?

(भारतीय मीडिया के हिन्दू विरोधी रुख के “डॉक्यूमेंटेशन” की यह कोशिश जारी रहेगी, आप हमारे साथ बने रहिये, अभी हाजिर होते हैं एक ब्रेक के बाद…)

सूचना स्रोत : http://www.indianexpress.com/news/ahead-of-pranab-visit-clashes-in-murshidabad-claim-4-curfew-clamped/488211/ तथा http://www.telegraphindia.com/1090711/jsp/bengal/story_11223561.jsp एवं http://hindusamhati.blogspot.com/2009/07/murshidabad-riot-update.html


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“सच का सामना”(?) नामक फ़ूहड़ टीवी कार्यक्रम से सम्बन्धित मेरी पिछली पोस्ट “नारी का सम्मान और TRP के भूखे…” पर आई हुई विभिन्न टिप्पणियों से एक नई बहस का जन्म होने जा रहा है… वह ऐसे कि उनमें से कई टिप्पणियों का भावार्थ यह था कि “यदि स्मिता (या कोई अन्य प्रतियोगी) को पहले से ही पता था कि उससे ऐसे सवाल पूछे जायेंगे तो तब वह वहाँ गई ही क्यों…?”, “यदि प्रतियोगी को पैसों का लालच है और वह पैसों के लिये सब कुछ खोलने के लिये तैयार है तब क्या किया जा सकता है, यह तो उसकी गलती है”… “चैनलों का तो काम यही है कि किस तरह से अश्लीलता और विवाद पैदा किया जाये, लोग उसमें क्यों फ़ँसते हैं?”… “स्मिता ने अपनी इज़्ज़त खुद ही लुटवाई है, इसे बलात्कार नहीं कहा जा सकता, बलात्कार और स-सहमति शयन में अन्तर है…”।

कुछ टिप्पणियों का भावार्थ यह भी था कि “फ़िर क्यों ऐसे चैनल देखते हो?”, “यह कार्यक्रम वयस्कों के लिये है, क्यों इसे परिवार के साथ देखा जाये?”, “टीवी बन्द करना तो अपने हाथ है, फ़िर इतनी हायतौबा क्यों?”… ज़ाहिर है कि मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्नाः की तर्ज़ पर हरेक व्यक्ति के अपने विचार है, और यही स्वस्थ लोकतन्त्र की निशानी भी है।

अब ज़रा निम्नलिखित घटनाओं पर संक्षेप में विचार करें –

1) सोना दोगुना करने का लालच देकर कई ठग “अच्छी खासी पढ़ी-लिखी” शहरी महिलाओं को भी अपना शिकार बना लेते हैं, वह महिला लालच के शिकार में उस ठग की बातों में आ जाती है और अपना सोना लुटवा बैठती है। इस “लुट जाने के लिये” वह महिला अधिक जिम्मेदार है या वह ठग? सजा उस “ठग” को मिलनी चाहिये अथवा नहीं, सोना गँवाकर महिला तो सजा पा चुकी।

2)शेयर बाज़ार में पैसा निवेश करते समय निवेशक को यह पता होता है कि वह एक “सट्टा” खेलने जा रहा है और इसमें धोखाधड़ी और “मेनिपुलेशन” भी सम्भव है, ऐसे में यदि कोई हर्षद मेहता या केतन पारेख उसे लूट ले जाये तो क्या मेहता और पारेख को छोड़ देना चाहिये?

3) मान लें यदि कोई पागल व्यक्ति आपके घर के सामने कूड़ा-करकट फ़ैला रहा है, सम्भव है कि वह कूड़ा-करकट आपके घर को भी गन्दा कर दे, तब आप क्या करेंगे? A) पागल को रोकने की कोशिश करेंगे, B) अपने घर के दरवाजे बन्द कर लेंगे कि, मुझे क्या करना है? (यह बिन्दु शंकर फ़ुलारा जी के ब्लॉग से साभार)

4) इसी से मिलता जुलता तर्क कई बार बलात्कार/छेड़छाड़ के मामले में भी दे दिया जाता है, कि अकेले इतनी रात को वह उधर गई ही क्यों थी, या फ़िर ऐसे कपड़े ही क्यों पहने कि छेड़छाड़ हो?

इन तर्कों में कोई दम नहीं है, क्योंकि यह पीड़ित को दोषी मानते हैं, अन्यायकर्ता को नहीं। मेरे ब्लॉग पर आई हुई टिप्पणियों को इन सवालों से जोड़कर देखें, कि यदि स्मिता लालच में फ़ँसकर अपनी इज़्ज़त लुटवा रही है तो आलोचना किसकी होना चाहिये स्टार प्लस की या स्मिता की? सामाजिक जिम्मेदारी किसकी अधिक बनती है स्मिता की या स्टार प्लस की? “चैनलों का काम ही है अश्लीलता फ़ैलाना और बुराई दिखाना…” यह कहना बेतुका इसलिये है कि ऐसा करने का अधिकार उन्हें किसने दिया है? और यदि वे अश्लीलता फ़ैलाते हैं और हम अपनी आँखें या टीवी बन्द कर लें तो बड़ा दोष किसका है? आँखें (टीवी) बन्द करने वाले का या उस चैनल का? इस दृष्टि से तो हमें केतन पारिख को रिहा कर देना चाहिये, क्योंकि स्मिता की तरह ही निवेशक भी लालच में फ़ँसे हैं सो गलती भी उन्हीं की है, वे लोग क्यों शेयर बाजार में घुसे, केतन पारेख का तो काम ही है चूना लगाना? शराब बनाने वालों को छोड़ देना चाहिये क्योंकि यह तो “चॉइस” का मामला है, सिगरेट कम्पनियों को कानून के दायरे से बाहर कर देना चाहिये क्योंकि पीने वाला खुद ही अपनी जिम्मेदारी से वह सब कर रहा है? यह भी तो एक प्रकार का “स-सहमति सहशयन” ही है, बलात्कार नहीं।

इसी प्रकार यदि कहीं पर कोई अपसंस्कृति (कूड़ा-करकट) फ़ैला रहा है तब अपने दरवाजे बन्द कर लेना सही है अथवा उसकी आलोचना करके, उसकी शिकायत करके (फ़िर भी न सुधरे तो ठुकाई करके) उसे ठीक करना सही है। दरवाजे बन्द करना, आँखें बन्द करना अथवा टीवी बन्द करना कोई इलाज नहीं है, यह तो बीमारी को अनदेखा करना हुआ। ऐसे चैनल क्यों देखते हो का जवाब तो यही है कि वरना पता कैसे चलेगा कि कौन-कौन, कहाँ-कहाँ, कैसी-कैसी गन्दगी फ़ैला रहा है? न्यूज़ चैनल देखकर ही तो पता चलता है कि कितने न्यूज़ चैनल भाजपा-संघ-हिन्दुत्व विरोधी हैं?, कौन सा चैनल एक परिवार विशेष का चमचा है, कौन सा चैनल “तथाकथित प्रगतिशीलता” का झण्डाबरदार बना हुआ है। अतः इस “अपसंस्कृति” (यदि कोई इसे अपसंस्कृति नहीं मानता तो यह उसकी विचारधारा है) की आलोचना करना, इसका विरोध करना, इसे रोकने की कोशिश करना, एक जागरूक नागरिक का फ़र्ज़ बनता है (भले ही इस कोशिश में उसे दकियानूसी या पिछड़ा हुआ घोषित कर दिया जाये)।

यदि यह शो वयस्कों के लिये है तब इस प्रकार की वैधानिक चेतावनी क्यों नहीं जारी की गई और इसका समय 10.30 की बजाय रात 12.30 क्यों नहीं रखा गया? कांबली-सचिन के फ़ुटेज दिखा-दिखाकर इसका प्रचार क्यों किया जा रहा है? क्योंकि पहले भी कंडोम के प्रचार में राहुल द्रविड और वीरेन्द्र सहवाग को लिया जा चुका है और कई घरों में बच्चे पूछते नज़र आये हैं कि पापा क्रिकेट खेलते समय मैं भी राहुल द्रविड जैसा कण्डोम पहनूंगा… क्या यह कार्यक्रम बनाने वाला चाहता है कि कुछ और ऐसे ही सवाल बच्चे घरों में पूछें?

बहरहाल, यह बहस तो अन्तहीन हो सकती है, क्योंकि भारत में “आधुनिकता”(?) के मापदण्ड बदल गये हैं (बल्कि चालबाजी द्वारा मीडिया ने बदल दिये गये हैं), एक नज़र इन खबरों पर डाल लीजिये जिसमें इस घटिया शो के कारण विभिन्न देशों में कैसी-कैसी विडम्बनायें उभरकर सामने आई हैं, कुछ देशों में इस शो को प्रतिबन्धित कर दिया गया है, जबकि अमेरिका जैसे “खुले विचारों”(?) वाले देश में भी इसके कारण तलाक हो चुके हैं और परिवार बिखर चुके हैं…।

प्रकरण – 1 : मोमेंट ऑफ़ ट्रुथ का ग्रीक संस्करण प्रतिबन्धित किया गया…

मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक जिन्होंने अपनी पोती की उम्र की लड़की वेंडी से शादी की है और मीडिया के जरिये “बाजारू क्रान्ति” लाने के लिये विख्यात हैं उनकी पुत्री एलिज़ाबेथ मर्डोक द्वारा निर्मित यह शो कई देशों में बेचा गया है और इसकी हू-ब-हू नकल कई देशों में जारी है, का ग्रीक संस्करण ग्रीस सरकार ने प्रतिबन्धित कर दिया है। ग्रीस के सरकारी चैनल “एण्टेना” द्वारा इस शो में विभिन्न भद्दी स्वीकृतियों और परिवार पर पड़ने वाले बुरे असर के चल्ते यह शो बन्द कर दिया गया। इसके फ़रवरी वाले एक शो में एक माँ से उसकी बेटी-दामाद के सामने पूछा गया था कि “क्या वह अपनी बेटी की शादी एक अमीर दामाद से करना चाहती थी”, उसने हाँ कहा और उसके गरीब दामाद-बेटी के घर में दरार पड़ गई। मार्च में हुए एक शो में पति के सामने महिला से पूछा गया था कि क्या वह पैसों के लिये किसी गैर-मर्द के साथ सो सकती है?
खबर का स्रोत यहाँ है http://www.guardian.co.uk/world/2009/jun/24/greek-quiz-show-confessions-banned

इसका वीडियो लिंक यहाँ है http://www.youtube.com/watch?v=yMvuQugBKCE

प्रकरण 2 – पति की हत्या के लिये भाड़े का हत्यारा लेना स्वीकार करने पर कोलम्बिया में भी इस शो पर प्रतिबन्ध (मूल रिपोर्ट जोशुआ गुडमैन APP)

कोलम्बिया में गेम शो “नथिंग बट ट्रूथ” को बैन कर दिया गया, जब एक प्रतिभागी ने 25,000 डालर के इनाम के लिये यह स्वीकार कर लिया कि उसने अपने पति की हत्या के लिये एक भाड़े के हत्यारे को पैसा दिया था। कोलम्बिया में प्रसारित इस शो में सभी प्रतिभागियों ने ड्रग स्मगलिंग, समलैंगिक सम्बन्धों और शादीशुदा होने के बावजूद रोज़ाना वेश्यागमन को स्वीकार किया। लेकिन 2 अक्टूबर 2007 को रोज़ा मारिया द्वारा यह स्वीकार किये जाने के बाद कि उसने अपने पति की हत्या की सुपारी दी थी लेकिन ऐन वक्त पर उसका पति हमेशा के लिये कहीं भाग गया और यह काम पूरा न हो सका, के बाद यह शो बन्द कर दिया गया।
खबर का स्रोत यहाँ देखें http://www.textually.org/tv/archives/2007/10/017595.htm

प्रकरण 3 – लॉरेन क्लेरी : मोमेंट ऑफ़ ट्रुथ ने उसका तलाक करवा दिया…

इस शो में लॉरेन क्लेरी नामक महिला ने यह स्वीकार कर लिया कि वह अपने पति को धोखा दे रही है और अपने पूर्व मित्र से शादी करना चाहती है। लॉरेन ने स्वीकार किया किया कि वह यह सब पैसे के लिये कर रही है। उसके पति फ़्रैंक क्लेरी ने कहा कि उसे शक था कि उसकी पत्नी उसके प्रति वफ़ादार नहीं है और शायद मामला धीरे-धीरे सुलझ जायेगा, लेकिन इस तरह सार्वजनिक रूप से पत्नी के यह स्वीकार करने के बाद उसे बेहद शर्मिन्दगी हुई है। लॉरेन क्लेरी इस कार्यक्रम से कुछ पैसा ले गई, लेकिन शायद यह उसे तलाक दिलवाने से नहीं रोक सकेगा।

इसका वीडियो लिंक देखने के लिये यहाँ चटका लगायें…
Video link : http://www.transworldnews.com/NewsStory.aspx?id=38398&cat=14

प्रकरण 4 – अमेरिका में इस शो के सातवें एपीसोड में एक कारपेंटर ने स्वीकार किया कि वह अपनी पत्नी की बहन और उसकी सहेलियों के साथ सोता रहा है और कई बार उसने एक माह में विभिन्न 25 महिलाओं के साथ सेक्स किया है। एपीसोड क्रमांक 9 में पॉल स्कोन ने एक लाख डालर में यह सच(?) कहा कि वह प्रत्येक सेक्स की जाने वाली महिला की अंडरवियर संभालकर रखता है, और कई महिलाओं से उसने सेक्स करने के पैसे भी लिये हैं।

खबर का स्रोत देखने के लिये यहाँ चटका लगायें http://en.wikipedia.org/wiki/List_of_The_Moment_of_Truth_episodes#Episode_7

अब कहिये… इतना सब हो चुकने के बावजूद फ़िर भी यदि हम भारत में इस शो को जारी रखने पर उतारू हैं तब तो वाकई हमारा भयानक नैतिक पतन हो चुका है। एक बात और है कि “नाली में गन्दगी दिखाई दे रही है तो उसे साफ़ करने की कोशिश करना चाहिये, यदि नहीं कर सकते तो उसे ढँकना चाहिये, लेकिन यह जाँचने के लिये, कि नाली की गन्दगी वाकई गन्दगी है या नहीं, उसे हाथ में लेकर घर में प्रवेश करना कोई जरूरी नहीं…”।

(नोट – इस लेख के लिये भी मैं अपनी कॉपीराइट वाली शर्त हटा रहा हूँ, इस लेख को कहीं भी कॉपी-पेस्ट किया जा सकता है।)

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किसी महिला की इज़्ज़त, सम्मान और उसके परिवार के प्रति समर्पण की क्या कीमत तय की जा सकती है? उत्तरप्रदेश में तो रीता बहुगुणा ने मायावती की इज़्ज़त का भाव एक करोड़ लगाया है, लेकिन यहाँ बात दूसरी है। स्टार प्लस ने अपने कार्यक्रम “सच का सामना” में महिला की बेइज़्ज़ती की कीमत सीढ़ी-दर-सीढ़ी तय कर रखी है, कार्यक्रम में प्रतियोगी (चाहे वह मर्द हो या औरत) जिस स्तर तक अपमानित होना चाहता उसे उस प्रकार की कीमत दी जायेगी, यानी 1 लाख, 5 लाख, 10 लाख आदि।

जिन पाठकों ने अभी तक यह कार्यक्रम नहीं देखा है उन्हें ज़रूर देखना चाहिये, ताकि उन्हें भी पता चले कि “बालिका वधू” द्वारा बुरी तरह पिटाई किये जाने के बाद, TRP नामक गन्दगी के लिये इलेक्ट्रानिक मीडियारूपी भेड़िया कितना नीचे गिर सकता है।

कार्यक्रम के निर्माताओं द्वारा दावा किया जा रहा है कि यह कार्यक्रम “पॉलिग्राफ़िक टेस्ट” (झूठ पकड़ने वाली मशीन) के आधार पर तैयार किया गया है। इसमें प्रतियोगी को पहले इस मशीन पर बैठाकर उससे उसकी निजी जिन्दगी से जुड़े 50 सवाल किये जाते हैं, जिसकी रिकॉर्डिंग मशीन में रखी जाती है कि किस सवाल पर उसने सच बोला या झूठ बोला (हालांकि इस मशीन की वैधानिकता कुछ भी नहीं है, शायद न्यायालय ने भी इसे सबूत के तौर पर मानने से इंकार किया हुआ है, क्योंकि व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है इस बारे में यह मशीन शरीर में होने वाले परिवर्तनों और उतार-चढ़ावों के आधार पर “सम्भावना” – सिर्फ़ सम्भावना, व्यक्त करती है, इसमें दर्ज जवाबों को पूरी तौर पर सच नहीं माना जा सकता, क्योंकि यदि ऐसा होता तो भारत में सभी अपराधी सजा पा जाते)। प्रतियोगियों को उनके द्वारा दिये गये “मशीन टेस्ट” के उत्तरों के बारे में नहीं बताया जाता, और यही चालबाजी है।

हालांकि कहने के लिये तो इस कार्यक्रम को खेल का नाम दिया गया है, लेकिन हकीकत में यह “दूसरों की इज़्ज़त उतारकर उसे सरेआम नीचा दिखाकर खुश होने” के मानव के आदिम स्वभाव पर आधारित है। इसमें एंकर 21 सवाल पूछेगा और पूरी तरह से नंगा होने वाले आदमी (या औरत) को एक करोड़ रुपये दिये जायेंगे। जिस तरह आज भी दूरस्थ इलाके में स्थित गाँवों में दलितों की स्त्रियों को नंगा किया जाता है और लोग आसपास खड़े होकर तालियाँ पीटते हैं, यह कार्यक्रम “सच का सामना” उसी का “सोफ़िस्टिकेटेड” स्वरूप है। आपकी सास ज्यादा अच्छी है या माँ? क्या आपको अपने भाई से कम प्यार मिला? यह तो हुए आसान सवाल, लेकिन पाँचवां सवाल आते-आते स्टार प्लस अपनी औकात पर आ जाता है…… क्या आप अपने पति की हत्या करना चाहती थीं?, क्या आपने कभी अपने पति से बेवफ़ाई की है? (यहाँ बेवफ़ाई का मतलब पर्स में से रुपये से चुराने से नहीं है), यदि आपके पति को पता ना चले तो क्या आप किसी गैर-मर्द के साथ सो सकती हैं? ऐसे सवाल पूछे जाने लगते हैं, यानी निजी सम्बन्धों और बेडरूम को सार्वजनिक किया जाने लगता है “सच बोलने” के महान नैतिक कर्म(?) के नाम पर।

जिन्होंने पहला एपीसोड देखा है उन्होंने महसूस किया होगा कि किस प्रकार एक मध्यमवर्गीय महिला जो टीचर है और टिफ़िन सेंटर का भी काम करती है, जिसका पति मुश्किल से शराब की लत से बाहर निकला है और उस महिला ने एक बेहद संघर्षमय जीवन जिया है… ऐसी महिला को यह बताया जाना कि पॉलिग्राफ़िक मशीन में उसने यह जवाब दिया था कि, “हाँ वह किसी गैर-मर्द के साथ सो सकती है…” कितना कष्टदायक हो सकता है। प्रतियोगी स्मिता मथाई के चेहरे पर अविश्वास मिश्रित आश्चर्य और आँसू थे, तथा स्टार प्लस अपना TRP मीटर देख रहा था।

सवाल उठाया जा सकता है कि सब कुछ मालूम होते हुए भी प्रतियोगी क्यों ऐसे कार्यक्रम में शामिल होने के लिये राजी होते हैं? इसका जवाब यह है कि जो 50 सवाल उनसे पहले पूछे जाते हैं, उनमें से सिर्फ़ 10 सवाल ही ऐसे होते हैं जो उनके निजी जीवन और अंतरंग सम्बन्धों से जुड़े होते हैं, बाकी के सवाल… क्या आपको रसगुल्ला अच्छा लगता है?, क्या आप बगीचे में घूमते समय फ़ूल तोड़ लाती हैं? इस प्रकार के सवाल होते हैं, प्रतियोगी को पता नहीं होता कि इन 50 सवालों में से कौन से 21 सवाल कार्यक्रम में पूछे जायेंगे, फ़िर साथ में 10-20 लाख के “लालच की गाजर” भी तो लटकी होती है। एक सामान्य व्यक्ति का इस चालबाजी में फ़ँसना स्वाभाविक है। चालबाजी (बल्कि घटियापन कहना उचित है) भी ऐसी कि वह प्रतियोगी पॉलिग्राफ़िक मशीन के टेस्ट को चुनौती तो दे नहीं सकता, अब यदि स्टार प्लस ने कह दिया कि आपने उस समय यह जवाब दिया था, वही सही मानना पड़ेगा। भले ही फ़िर प्रतियोगी बाद में लाख चिल्लाते रहें कि मैंने कभी नहीं कहा था कि “मैं गैर-मर्द के साथ सोने को तैयार हूँ”, कौन सुनने वाला है? प्रतियोगी का तो परिवार बर्बाद हो गया, उसे आने वाले जीवन में ताने, लानत-मलामत सुनना ही है, इस सबसे चैनल को क्या… उस “गंदगी से खेलने वाले चैनल को तो मजा आ गया”, उसका तो मकसद यही था किस तरह से नाली की ढँकी हुई गन्दगी में थूथनी मारकर उसे सड़क पर सबसे सामने फ़ैला दिया जाये। दुख की बात यह है कि बात-बेबात पर नारी सम्मान का झण्डा बुलन्द करने वाले महिला संगठन नारी के इस असम्मान पर अभी तक चुप हैं।

हालांकि राखी सावन्त या मल्लिका शेरावत का सम्मान भी नारी का सम्मान ही है, लेकिन चूँकि वे लोग “पेज थ्री” नामक कथित सामाजिक स्टेटस(?) से आते हैं इसलिये वे खुद ही चाहती हैं कि लोग उनके निजी सम्बन्धों और गैर-मर्द से रोमांस के बारे में जानें, बातें करें, चिकने पृष्ठों पर उनकी अधनंगी तस्वीरें छपें। फ़िर वे ठहरीं कथित “हाई सोसायटी” की महिलायें, जिनके लिये समलैंगिकता, सरेआम चूमाचाटी या सड़क पर सेक्स करना भी “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” हो सकती है। दूसरे एपिसोड में आलोचना से बचने और महिला-पुरुष के बीच “बैलेंस” बनाने के लिये एक मुस्लिम अभिनेता को शो में बुलाया गया और उससे भी वही फ़ूहड़ सवाल पूछे गये कि “आपकी तीन बीवियों में से आप किसे अधिक चाहते हैं?”, “अपनी बेटी को दूसरी पत्नी को सौंपने पर आपको अफ़सोस है?”, “क्या आपकी दूसरी बीबी पैसों की लालची है?”, “क्या आपकी कोई नाजायज़ औलाद है?” आदि-आदि…। वे भी बड़ी बहादुरी(?) और खुशी से इन सवालों के जवाब देते रहे, लेकिन जैसा कि पहले कहा ये लोग “पेज थ्री सेलेब्रिटी”(?) हैं इन लोगों की इज्जत क्या और बेइज़्ज़ती क्या? लेकिन यहाँ मामला है एक आम स्त्री का जो शायद लालच, मजबूरी अथवा स्टार की धोखेबाजी के चलते सार्वजनिक रूप से शर्मिन्दा होने को बाध्य हो गई है।

अब आते हैं इस कार्यक्रम के असली मकसद पर, जैसा सर्वविदित है कि कलर्स चैनल पर आने वाले कार्यक्रम “बालिका वधू” द्वारा TRP के खेल में स्टार प्लस को बुरी तरह खदेड़ दिया गया है। स्टार प्लस पहले भी विदेशी कार्यक्रमों की नकल करके अपनी TRP बढ़ाता रहा है, अथवा एकता कपूर मार्का “घरतोड़क और बहुपतिधारी बीमारी वाले सीरियलों” को बढ़ावा देकर गन्दगी फ़ैलाता रहा है, लेकिन जब उसे एक खालिस देशी “कॉन्सेप्ट” पर आधारित बालिका वधू ने हरा दिया तो बेकरारी और पागलपन में स्टार प्लस को TRP बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका लगा “नंगई का प्रदर्शन”। पहले तो स्टार प्लस ने ओछे हथकण्डे अपनाकर कभी सामाजिक संगठनों, कभी बाल-विवाह विरोधी NGOs को आगे करके और कभी शरद यादव के जरिये संसद में सवाल उठवाकर बालिका वधू को बन्द करवाने / बदनाम करने की कोशिश की, लेकिन फ़िर भी बात नहीं बनी तो “लोकप्रियता”(?) पाने का यह नायाब तरीका ढूँढ निकाला गया। सच का सामना नामक यह कार्यक्रम पूरी तरह से धोखेबाजी पर आधारित है, जिसमें स्टार प्लस जब चाहे बेईमानी कर सकता है (पहले ही एपिसोड में की) (इस बात में कोई दम नहीं है कि इतना बड़ा चैनल और पैसे वाले लोग थोड़े से पैसों के लिये बेईमानी नहीं कर सकते)।

माना कि TRP के भूखे भेड़िये किसी भी हद तक गिर सकते हैं (मुम्बई हमलों के वक्त ये लोग राष्ट्रद्रोही की भूमिका में थे), लेकिन आखिर सेंसर बोर्ड क्या कर रहा है? सूचना-प्रसारण मंत्रालय क्यों सोया हुआ है? महिला आयोग क्या कर रहा है? सुषमा स्वराज, ममता बैनर्जी, गिरिजा व्यास, मीरा कुमार जैसी दबंग महिलायें क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं? क्या मायावती की इज़्ज़त ही इज़्ज़त है, स्मिता मथाई की इज़्ज़त कुछ नहीं है?

क्या स्टार प्लस किसी IAS अफ़सर को बुलाकर लाई-डिटेक्टर टेस्ट कर सकता है कि उस अफ़सर ने कितने करोड़ रुपये भ्रष्टाचार से बनाये हैं? या क्या स्टार प्लस किसी नेता को बुलाकर पूछ सकता है कि क्या आपने कभी चुनाव में धांधली की है? हरगिज़ नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि कार्यक्रम का मकसद सिर्फ़ नंगापन प्रदर्शित करके सनसनी फ़ैलाना है ताकि स्टार प्लस की “परम्परा” के अनुसार परिवारों और समाज में और दरारें पैदा हों… अमेरिका में इस शो के मूल संस्करण ने कई परिवारों को बरबाद कर दिया है (वह भी तब जबकि अमेरिका में परिवार नामक संस्था पहले ही कमजोर है), इसके निहितार्थ भारतीय संस्कृति और समाज पर कितने गहरे हो सकते हैं, इसका अन्दाज़ा शायद अभी किसी को नहीं है।

सुना है कि सिर्फ़ एक पोस्टकार्ड के आधार को भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश किसी मामले में जनहित याचिका के तौर पर स्वीकार कर सकते हैं? क्या इस लेख को भी समाज में अनैतिकता फ़ैलाने और एक घरेलू महिला को सार्वजनिक तौर पर अपमानित करने की शिकायत हेतु जनहित याचिका के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है???

(नोट – इस लेख के लिये मैं अपनी कॉपीराइट वाली शर्त हटा रहा हूँ, इस लेख को कहीं भी कॉपी-पेस्ट किया जा सकता है। इस बात का भी विश्वास है कि महिला ब्लॉगर्स इस घटिया “खेल” को समझेंगी और इसके खिलाफ़ उचित मंचों से अवश्य आवाज़ उठायेंगी)

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(भाग-1 - भाजपा को “हिन्दुत्व” और “राष्ट्रवाद” से दूर हटने और “सेकुलर” वायरस को गले लगाने की सजा मिलनी ही चाहिये… से आगे)

मीडिया, सेकुलर पत्रकार, कुछ अन्य विदेशी ताकतें और “कथित प्रगतिशील” लोग भाजपा से उसकी पहचान छीनने में कामयाब हो रहे हैं और उसे “कांग्रेस-बी” बना रहे हैं। भ्रष्टाचार और हिन्दुत्व की वैचारिक शून्यता के कारण भाजपा धीरे-धीरे कांग्रेस की नकल बनती जा रही है, फ़िर आम मतदाता (यदि वह मन ही मन परिवर्तन चाहता भी हो) के पास ओरिजनल कांग्रेस को चुनने के अलावा विकल्प भी क्या है? मीडिया-सेकुलर-प्रगतिशील और कुलकर्णी जैसे बुद्धिजीवियों ने बड़ी सफ़ाई से भाजपा को रास्ते से भटका दिया है (कई बार शंका होती है कि कल्याण-उमा-ॠतम्भरा जैसे प्रखर हिन्दुत्ववादी नेताओं को धकियाने के पीछे कोई षडयन्त्र तो नहीं? और यदि नरेन्द्र मोदी ने अपनी छवि “लार्जर दैन लाइफ़” नहीं बना ली होती तो अब तक उन्हें भी “साइडलाइन” कर दिया होता)।

एक अन्य मुद्दा है भाजपा नेताओं का मीडिया-प्रेम। यह जानते-बूझते हुए भी कि भारत के मीडिया का लगभग 90% हिस्सा भाजपा-संघ (प्रकारान्तर से हिन्दुत्व) विरोधी है, फ़िर भी भाजपा मीडिया को गले लगाने की असफ़ल कोशिश करती रहती है। जिस प्रकार भाजपा को “भरभराकर थोक में मुस्लिम वोट मिलने” के बारे में मुगालता हो गया है, ठीक वैसा ही एक और मुगालता यह भी हो गया है कि “मीडिया या मीडियाकर्मी या मीडिया-मुगल कभी भाजपा की तारीफ़ करेंगे…”। जिस मीडिया ने कभी आडवाणी की इस बात के लिये तारीफ़ नहीं की कि उन्होंने हवाला कांड में नाम आते ही पद छोड़ दिया और बेदाग बरी होने के बाद ही चुनाव लड़े, जिस मीडिया ने कभी भी नरेन्द्र मोदी के विकास की तारीफ़ नहीं की, जिस मीडिया ने कभी भी भाजपा में लगातार अध्यक्ष बदलने की स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्परा की तारीफ़ नहीं की, जिस मीडिया ने मोदी-वाजपेयी-आडवाणी-जोशी जैसे दिग्गज नेताओं द्वारा अपने परिवार के सदस्यों को राजनीति में आगे नहीं बढ़ाने की तारीफ़ नहीं की, जिस मीडिया ने भाजपा की कश्मीर नीति का कभी समर्थन नहीं किया… (लिस्ट बहुत लम्बी है…) क्या वह मीडिया कभी भाजपा की सकारात्मक छवि पेश करेगा? कभी नहीं…। भागलपुर-मलियाना-मेरठ-मुम्बई-मालेगाँव जैसे कांग्रेस के राज में और कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के काल में हुए सैकड़ों दंगों के बावजूद सबसे बदनाम कौन है, नरेन्द्र मोदी…। नेहरू के ज़माने से जीप घोटाले द्वारा भ्रष्टाचार को “सदाचार” बनाने वाली पार्टी की मीडिया कोई छीछालेदार नहीं करता। पहले “पप्पा” और फ़िर राजकुमार सरेआम बेशर्मी से कहते फ़िरते हैं कि “दिल्ली से चला हुआ एक रुपया नीचे आते-आते 5 पैसे रह जाता है…” उनसे मीडिया कभी सवाल-जवाब नहीं करता कि 50 साल शासन करने के बाद यह किसकी जिम्मेदारी है कि वह पैसा पूरा नीचे तक पहुँचे…?, क्यों नहीं 50 साल में आपने ऐसा कुछ काम किया कि भ्रष्टाचार कम हो? उलटे मीडिया स्टिंग ऑपरेशन करता है किसका? बंगारू लक्ष्मण और दिलीप सिंह जूदेव का?

ज़ाहिर है कि लगभग समूचे मीडिया पर एक वर्ग विशेष का पक्का कंट्रोल है, यह वर्ग विशेष जैसा कि पहले कहा गया “मुल्ला-मार्क्स-मिशनरी-मैकाले” का प्रतिनिधित्व करता है, इस मीडिया में “हिन्दुत्व” का कोई स्थान नहीं है, फ़िर क्यों मीडिया को तेल लगाते फ़िरते हो? हाल ही में NDTV पर वरुण गाँधी की सुरक्षा सम्बन्धी एक बहस आ रही थी, एंकर बार-बार कह रही थी कि “भाजपा की ओर से अपना पक्ष रखने कोई नहीं आया…”, अरे भाई, आ भी जाता तो क्या उखाड़ लेता, क्योंकि “नेहरु डायनेस्टी टीवी” (NDTV) उसे कुछ कहने का मौका भी देता क्या? और यदि भाजपा की ओर से कोई कुछ कहे भी तो उसका दूसरा मतलब निकालकर हौवा खड़ा नहीं करता इसकी क्या गारंटी? इसलिये बात साफ़ है कि इन पत्रकारों को फ़ाइव स्टार होटलों में कितनी ही उम्दा स्कॉच पिलाओ, ये बाहर आकर “सेकुलर उल्टियाँ” ही करेंगे, इसलिये इनसे “दुरदुराये हुए खजेले कुत्ते” की तरह व्यवहार भी किया जाये तो कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं है, क्योंकि ये कभी भी तुम्हारी जय-जयकार करने वाले नहीं हैं। आज का मीडिया “हड्डी” का दीवाना है, उसे हड्डी डालना चाहिये, लेकिन पूरी कीमत वसूलने के बाद… (हालांकि इसकी उम्मीद भी कम ही है, क्योंकि इनके जो “टॉप बॉस” हैं वे खाँटी भाजपा-विरोधी हैं, मार्क्स-मुल्ला-मिशनरी-मैकाले की विचारधारा को आगे बढ़ाने के अलावा जो खबरें बच जाती हैं, वे एक और M यानी “मनी” से संचालित होती हैं, यानी कि जिन खबरों में पैसा कूटा जा सकता हो, किसी को ब्लैकमेल किया जा सकता हो, वही प्रकाशित हों, देश जाये भाड़ में, नैतिकता जाये चूल्हे में, पत्रकारिता के आदर्श और मानदण्डों पर राख डालो, ये लोग “हिन्दुत्व” और “राष्ट्रवाद” का साथ देने वाले नहीं हैं)।

क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम इतने वर्षों से मीडिया के बिना नहीं चल रहा है? आराम से चल रहा है। जब RSS के वर्ग, सभायें आदि हो रही होती हैं तब मीडिया वालों को उधर से दूर ही रखा जाता है, तो क्या बिगड़ गया RSS का? क्या संघ बरबाद हो गया? या संघ कमजोर हो गया? सीधा हिसाब है कि जो लोग तुम्हारा सही पक्ष सुनेंगे नहीं, तुम्हारे पक्ष में कभी लिखेंगे नहीं, तुम्हारे दृष्टिकोण को छूटते ही “साम्प्रदायिक” घोषित करने में लगे हों, उनसे मधुर सम्बन्ध बनाने की बेताबी क्यों? काहे उन्हें बुला-बुलाकर इंटरव्यू देते हो, काहे उन्हें 5 सितारा होटलों में भोज करवाते हो? भूत-प्रेत-चुड़ैल दिखाने, जैक्सन-समलैंगिकता-आरुषि जैसे बकवास मुद्दों पर समय खपाने और फ़ालतू की लफ़्फ़ाजी हाँकने की वजह से आज की तारीख में मीडिया की छवि आम जनता में बहुत गिर चुकी है…। क्यों यह मुगालता पाले बैठे हो कि इस प्रकार का मीडिया कभी भाजपा का उद्धार कर सकेगा? मीडिया के बल पर ही जीतना होता तो “इंडिया शाइनिंग” कैम्पेन के करोड़ों रुपये डकारकर भी ये मीडिया भाजपा को क्यों नहीं जितवा पाया? चलो माना कि हरेक राजनैतिक पार्टी को मीडिया से दोस्ती करना आवश्यक है, लेकिन यह भी तो देखो कि जो व्यक्ति खुलेआम तुम्हारा विरोधी है, जिस पत्रकार का इतिहास ही हिन्दुत्व विरोधी रहा है, जो मीडिया-हाउस सदा से कांग्रेस और मुसलमानों का चमचा रहा है, उसे इतना भाव क्यों देना, उसे उसकी औकात दिखाओ ना?

चुनाव जीता जाता है कार्यकर्ता के बल पर, आन्दोलनों के बल पर… तुअर दाल के भाव 80 रुपये को पार कर चुके हैं, क्या कोई आन्दोलन किया भाजपा ने? एकाध जोरदार किस्म का प्रदर्शन करते तो मीडिया वालों को मजबूर होकर कवरेज देना ही पड़ता (दारू भी नहीं पिलानी पड़ती), लेकिन AC लगे कमरों में बैठने से जनता से नहीं जुड़ा जायेगा। 5 साल विपक्ष में रहे, अगले 5 साल भी रहोगे… अब “सुविधाभोग” छोड़ो, हिन्दुत्व से नाता जोड़ो। सड़क-बिजली-पानी अति-आवश्यक मुद्दे हैं ये तो सभी सरकारें करेंगी, करना पड़ेगा… लेकिन “हिन्दुत्व” तो तुम्हारी पहचान है, उसे किनारे करने से काम नहीं चलेगा। नरेन्द्र मोदी वाला फ़ार्मूला एकदम फ़िट है, “विकास + हिन्दुत्व = पक्की सत्ता”, वही आजमाना पड़ेगा, खामखा इन सेकुलरों के चक्कर में पड़े तो न घर के रहोगे न घाट के। “आधी छोड़ पूरी को धाये, आधी पाये न पूरी पाये” वाली कहावत तो सुनी होगी, मुसलमानों को जोड़ने के चक्कर में “सेकुलर उलटबाँसियाँ” करोगे, तो नये मतदाता तो मिलेंगे नहीं, अपने प्रतिबद्ध मतदाता भी खो बैठोगे।

सार-संक्षेप : दो मुगालते भाजपा जितनी जल्दी दूर कर ले उतना अच्छा कि –

1) मुसलमान कभी भाजपा को सत्ता में लाने लायक वोटिंग करेंगे, और
2) मीडिया कभी भाजपा की तारीफ़ करेगा या कांग्रेस के मुकाबले उसे तरजीह देगा

मैं तो एक अदना सा व्यक्ति हूँ, बड़े-बड़े दिग्गजों को क्या सलाह दूँ, लेकिन एक बात तो तय है कि “हिन्दुत्व” और “राष्ट्रवाद” की बात करने वाली एक ठोस पार्टी और ठोस व्यक्ति की “मार्केट डिमाण्ड” बहुत ज्यादा है जबकि “सप्लाई” बहुत कम। इस सीधी-सादी इबारत को यदि कोई पढ़ नहीं सकता हो तो क्या किया जा सकता है। भाजपा के काफ़ी सारे समर्थक एक “विचारधारा” के समर्थक हैं, किसी खास “परिवार” के चमचे नहीं। जो भी हिन्दुत्व की विचारधारा को खोखला करने या उससे हटने की कोशिश करेगा (चाहे वह नरेन्द्र मोदी ही क्यों न हों) पहले उसे हराना या हरवाना उन समर्पित कार्यकर्ताओं का एक दायित्व बन जायेगा। हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद से दूर हटने की सजा भाजपा को अगले दो-चार-छः बार के चुनावों में देना होगी, शायद तब “सेकुलरिज़्म का भूत” उसके दिमाग से उतरे। हालांकि कांग्रेसी और वामपंथी यह सुनकर/पढ़कर बहुत खुश होंगे, लेकिन यदि और 10-20 साल तक कांग्रेस सत्ता में रह भी जाये तो क्या हर्ज है, पहले भी 50 साल शासन करके कौन से झण्डे गाड़ लिये हैं। लेकिन जब तक भाजपा “सेकुलर” वायरस मुक्त होकर, पूरी तरह से हिन्दुत्व की ओर वापस नहीं आती, तब तक उसे सबक सिखाना ही होगा (ज़ाहिर है कि वोट न देकर, और फ़िर भी नहीं सुधरे तो किसी ऐरे-गैरे को भी वोट देकर)।

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एक सज्जन हैं जो एक समय पर पक्के और ठोस कम्युनिस्ट थे, हिन्दुत्व और साम्प्रदायिकता को कोसने का जो फ़ैशन आज भी चलता है, उसी के ध्वजवाहक थे उन दिनों… आईआईटी मुम्बई के ग्रेजुएट बुद्धिजीवी। माकपा की छात्र इकाई, स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया के सक्रिय कार्यकर्ता। जब ये साहब माकपा में थे तब उन्होंने मास्को का दौरा भी किया था और मुम्बई की लोकल ट्रेनों में “साम्प्रदायिकता” (ज़ाहिर है कि हिन्दू साम्प्रदायिकता) के खिलाफ़ सैकड़ों पोस्टर चिपकाये थे, ये पोस्टर जावेद आनन्द और तीस्ता सीतलवाड के साथ मिलकर इन्होंने संघ-विरोध और सेकुलर-समर्थन में लगाये थे। सस्पेंस बनाने की कोई तुक नहीं है, क्योंकि काफ़ी लोग इन सज्जन को जानते हैं, ये हैं “सुधीन्द्र कुलकर्णी”, जो 1998 में वाजपेयी के दफ़्तर (प्रधानमंत्री कार्यालय) में डायरेक्टर के पद पर रहे, 2004 में भाजपा के राष्ट्रीय सचिव, और 2005 से आडवाणी के सलाहकार हैं, इनका मानना है कि भाजपा को संघ से अपना नाता तोड़ लेना चाहिये। माना जाता है कि इन्हीं की सलाह पर आडवाणी ने अपनी “इमेज” सुधारने(?) के लिए पाकिस्तान दौरे में जिन्ना की मज़ार पर सिर झुकाया और विश्वस्त सूत्रों की मानें तो नरेन्द्र मोदी को अमेरिका का वीजा न मिले इसके लिये भी ये पर्दे के पीछे से प्रयासरत रहे। अब तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिये, कि आखिर भाजपा की वर्तमान दुर्गति कैसे-कैसे लोगों की सलाहकारी के कारण हो रही है। चुनाव हारने के बाद सारा ठीकरा वरुण गाँधी और नरेन्द्र मोदी के सिर फ़ोड़ने की कोशिश हो रही है, इसके पीछे भाजपा का वैचारिक पतन ही है।

हाल के लोकसभा चुनावों में भाजपा की हार के बाद तमाम मंथन-वंथन हुए, पार्टी की मीटिंग-दर-मीटिंग हुईं, लेकिन नतीजा सिफ़र ही रहा और पार्टी को मजबूत करने के नाम पर भाजपाई नेता, नौ दिन में अढ़ाई कोस भी नहीं चल पाये। जमाने भर की मगजमारी और माथाफ़ोड़ी के बाद भी इतने बड़े-बड़े और विद्वान नेतागण यह समझने में नाकाम रहे कि भाजपा की इस हार की एक वजह “हिन्दुत्व” और “राष्ट्रवाद” से दूर हटना और “सेकुलर” वायरस से ग्रस्त होना भी है। कालिदास की कथा सभी ने पढ़ी होगी जो जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे, भाजपा का किस्सा भी कुछ ऐसा ही है। 1984 में जब पार्टी को सिर्फ़ 2 सीटें मिली थीं, उसके बाद 1989, 1991, 1996, 1999 के चुनावों में पार्टी को 189 सीटों तक किसने पहुँचाया? प्रखर हिन्दुत्व और राष्ट्रवादी विचारों वाली पार्टी के वफ़ादार स्वयंसेवकों और प्रतिबद्ध भाजपाई वोटरों ने। इसमें आडवाणी की रथयात्रा के महत्व को खारिज नहीं किया जा सकता, लेकिन जो प्रतिबद्ध वोटर हर बुरे से बुरे वक्त में भाजपा को वोट देता था उसे खारिज करने और उपेक्षित करने का काम 1999 से शुरु हुआ, खासकर जबसे पार्टी में “सत्ता” के कीटाणु घुसे।

सत्ता के इन कीटाणुओं ने प्रेस के एक वर्ग के साथ मिलकर पार्टी के भीतर और बाहर ऐसा माहौल बनाया कि भाजपा जब तक “सेकुलर”(?) नहीं बनेगी तब तक दिल्ली की सत्ता उसे नहीं मिलेगी। इस झाँसे में आकर कई ऊटपटांग गठबंधन किये गये, कई जायज-नाजायज समझौते किये गये, किसी तरह धक्के खाते-खाते 5 साल सत्ता चलाई। गठबंधन किया इसमें कोई हर्ज नहीं, लेकिन गठबंधन के सहयोगियों के ब्लैकमेल के आगे लगातार झुकते रहे यह सबसे बड़ी गलती रही। जब नायडू, बीजू, जयललिता, ममता, माया और फ़ारुक जैसे घोर अवसरवादी लोग अपनी शर्तें भाजपा पर थोपते रहे और मनवाते रहे, तब क्या भाजपा में इतना भी दम नहीं था कि वह अपनी एक-दो मुख्य हिन्दुत्ववादी और राष्ट्रवादी शर्तें मनवा पाती? असल में भाजपा के नेता सत्ता के मद में इतने चूर हो चुके थे कि वे भूल गये कि वे किस प्रतिबद्ध वोटर के बल पर 189 सीटों तक पहुँचे हैं, और उन्होंने राम-मन्दिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता आदि मुद्दों को दरी के नीचे दबा दिया। सेकुलरों की बातों में आकर आडवाणी को भी लगा कि शायद मुस्लिमों के वोट के बिना सत्ता नहीं मिलने वाली, सो वे भी जिन्ना की मज़ार पर जाकर सजदा कर आये (जबकि कोई मूर्ख ही यह सोच सकता है कि मुस्लिम कभी थोक में भाजपा को वोट देंगे)।

भाजपा की सबसे बड़ी गलती (बल्कि अक्षम्य अपराध) रही कंधार प्रकरण… जिस प्रकरण से पार्टी अपनी ऐतिहासिक छवि बना सकती थी और खुद को वाकई में “पार्टी विथ डिफ़रेंस” दर्शा सकती थी, ऐसा मौका न सिर्फ़ गँवा दिया गया, बल्कि “खजेले कुत्ते की तरह पीछे पड़े हुए” मीडिया के दबाव में पार्टी ने अपनी जोरदार भद पिटवाई। वह प्रकरण पार्टी के गर्त में जाने की ओर एक बड़ा “टर्निंग पॉइंट” साबित हुआ। उस प्रकरण के बाद पार्टी के कई प्रतिबद्ध वोटरों ने भी भाजपा को वोट नहीं दिया, और पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं में निराशा फ़ैलना शुरु हो चुकी थी। आज भी कांग्रेसी जब-तब हमेशा कंधार प्रकरण का उदाहरण देते फ़िरते हैं (यानी सूप बोले तो बोले, छलनी भी बोले जिसमें सौ छेद)।

ज़रा याद करके बतायें कि कितने लोगों ने पिछले 5-7 साल में, धारा 370 को हटाने, राम सेतु को गिराने के मुद्दे, बांग्लादेशियों को खदेड़ने, असम में पाकिस्तानी झंडा लहराये जाने, कश्मीर में जारी कत्लेआम आदि राष्ट्रवादी मुद्दों पर भाजपा को बेहद आक्रामक मूड में देखा है? नहीं देखा होगा, क्योंकि “सत्ता के सुविधाभोग” में आंदोलनों की जो गर्मी थी, वह निकल चुकी। मीडिया और सेकुलर पत्रकारों ने भाजपा के नेताओं पर कुछ ऐसा जादू किया है कि पार्टी कुछ भी बोलने से पहले यह सोचती है कि “लोग क्या कहेंगे…?”, “मुस्लिम क्या सोचेंगे…?”, “पार्टी की छवि को नुकसान तो नहीं होगा…?”, यानी जिस पार्टी को “फ़्रण्टफ़ुट” पर आकर चौका मारना चाहिये था, वह “बैकफ़ुट” पर जाकर डिफ़ेंसिव खेलने लग पड़ी है। असल में पार्टी इस मुगालते में पूरी तरह से आ चुकी है कि मुसलमान उसे वोट देंगे, जबकि हकीकत यह है कि इक्का-दुक्का इलाकाई “पॉकेट्स” को छोड़ दिया जाये तो अखिल भारतीय स्तर पर भाजपा को मुसलमानों के 1-2 प्रतिशत वोट मिल जायें तो बहुत बड़ी बात होगी। लेकिन इन 1-2 प्रतिशत वोटों की खातिर अपने प्रतिबद्ध वोटरों को नाराज करने वाली, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाली पार्टी यानी भाजपा।

जब वरुण गाँधी पैदा भी नहीं हुए थे उस समय से भाजपा-संघ-जनसंघ, मुसलमानों के लिये एक “हिन्दू पार्टी” हैं। चाहे भाजपा सर के बल खड़ी हो जाये, डांस करके दिखाये, उठक-बैठक लगा ले, मुस्लिमों की ओर से उसे तालियाँ मिलेंगी, कुछ सेकुलर अखबारों में प्रशंसात्मक लेख मिल सकते हैं लेकिन वोट नहीं मिलेंगे। वन्देमातरम की बजाय किसी कव्वाली को भी यदि राष्ट्रगान घोषित कर दिया जाये तब भी मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देंगे। फ़िर क्यों खामखा, सफ़ेद जाली वाली टोपी लगाकर इधर-उधर सम्मेलन आयोजित करते फ़िरते हो, क्यों खामखा हरे साफ़े और हरी चद्दरें विभिन्न मंचों पर ओढ़ते फ़िरते हो, इस कवायद की बजाय यदि अपने प्रतिबद्ध वोटरों की ओर ध्यान दिया होता तो शायद आज कांग्रेस के बराबर न सही उसके आसपास तो सीटें आतीं। माना कि किसी भी राजनैतिक पार्टी को सत्ता में आने के लिये दूसरे समुदायों को भी अपने साथ जोड़ना पड़ता है, लेकिन क्या यह जरूरी है कि “सेकुलर कैबरे” करते समय अपने प्रतिबद्ध वोटरों और कार्यकर्ताओं को नज़र-अंदाज़ किया जाये? कांग्रेस की बात अलग है, क्योंकि उसकी तो कोई “विचारधारा” ही नहीं है, लेकिन भाजपा तो एक विचारधारा आधारित पार्टी है फ़िर कैसे वह अपने ही समर्पित कार्यकर्ताओं को भुलाकर अपनी मूल पहचान खो बैठी।

इन ताज़ा लोकसभा चुनावों में जो पार्टी अपने प्रतिबद्ध वोटरों से हटी, वही पिटी। बसपा ने “सोशल इंजीनियरिंग” का फ़ार्मूला अपनाकर ब्राह्मणों को पास लाने की कोशिश की तो उसका मूल आधार ही सरक गया, वामपंथियों ने अपनी सोच को खुला करके टाटा को लाने की कोशिश की, किसानों-गरीबों की जमीन छीनी, अपने प्रतिबद्ध वोटरों को नाराज कर दिया, उसके पटिये उलाल हो गये, यही भाजपा भी कर रही है। वरुण गाँधी के बयान के बाद भाजपा के नेता ऊपर बताये गये 1-2 प्रतिशत वोटों को खुश करने के चक्कर में कैमरे के सामने आने से बचते रहे, वरुण के समर्थन में बयान भी आया तो कब जब वरुण पीलीभीत में एक “शख्सियत” बन गये तब!!! ऐसा ढुलमुल रवैया देखकर कार्यकर्ता तो ठीक, आम वोटर भी भ्रमित हो गया। भाजपा को उसी समय सोचना चाहिये था कि मुल्ला-मार्क्स-मिशनरी-मैकाले के हाथों बिका हुआ मीडिया दिन-रात वरुण गाँधी के फ़ुटेज दिखा-दिखाकर एक जाल फ़ैला रहा है, और उस जाल में भाजपा आराम से फ़ँस गई, 1-2 प्रतिशत वोटरों को खुश करने के चक्कर में “श्योर-शॉट” मिलने वाले वोटों से हाथ धो लिया। भाजपा के प्रतिबद्ध वोटर जब नाराज होते हैं तब वे वोट नहीं करते, क्योंकि कांग्रेस को तो गिरी से गिरी हालत में भी दे नहीं सकते, और कार्यकर्ताओं का यह “वोट न देना” तथा ज़ाहिर तौर पर अन्य मतदाताओं को वोट देने के लिये प्रेरित न करना भाजपा को भारी पड़ जाता है, कुछ-कुछ ऐसा ही इस चुनाव में भी हुआ है। जो पार्टी अपने खास वोटरों को अपना बँधुआ मजदूर समझती हो और उसे ही नाराज करके आगे बढ़ना चाहती हो, उसका यह हश्र हुआ तो कुछ गलत नहीं हुआ। भाजपा ने वर्षों की मेहनत से एक खून-पसीना बहाने वाला कार्यकर्ता और एक प्रतिबद्ध वोटरों का समूह खड़ा किया था। विश्वास जमने में बरसों का समय लगता है, टूटने में एक मिनट भी नहीं लगता। हिन्दू वोटरों को विश्वास था कि भाजपा उनके मुद्दे उठायेगी, चारों तरफ़ जब हिन्दुओं को गरियाया-लतियाया जा रहा हो तब भाजपा हिन्दुओं के पक्ष में खम-ताल ठोंककर खड़ी होगी, लेकिन ये क्या? “सत्ता प्रेम” इतना बढ़ गया कि प्रमुख मुद्दों को ही गठबंधन के नाम पर भूल गये… और गठबंधन भी किनसे, जो मेंढक हैं, थाली के बैंगन हैं, जब चाहे जिधर लुढ़क जाते हैं, उनसे? ऐसे नकली गठबंधन से तो अकेले चलना भला… धीरे-धीरे ही सही 2 से 189 तक तो पहुँचे थे, कुछ राज्यों में सत्ता भी मिली है, क्या इतना पर्याप्त नहीं है? दिल्ली की सत्ता के मोह में “सेकुलर कीचड़” में लोट लगाने की क्या आवश्यकता है? वह कीचड़ भरा “फ़ील्ड” जिस टाइप के लोगों का है, तुम उनसे उस “फ़ील्ड” में नहीं जीत सकते, फ़िर क्यों कोशिश करते हो?

(भाग-2 में जारी रहेगा… -- अगले भाग में भाजपा और मीडिया के रिश्तों पर कुछ खरी-खरी…)

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