Super User

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I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai. 


I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles. 

Website URL: http://www.google.com
Pepsi, Shahrukh, John, Uncle

हाल ही में पेप्सी का नया विज्ञापन जारी हुआ है जिसमें जॉन अब्राहम और शाहरुख को एक बच्चे द्वारा “अंकल” कहे जाने पर चुहलबाजी करते दिखाया गया है, लेकिन इस विज्ञापन के मूल में सन्देश यही है कि दोनों ही व्यक्ति (जॉन थोड़े युवा, लेकिन अधेड़ावस्था की उम्र पर खड़े शाहरुख भी) उस बालक द्वारा “अंकल” कहे जाने पर आहत होते हैं या एक-दूसरे की हँसी उड़ाते हैं। सहज ही प्रश्न उठता है कि क्या “अंकल” सुना जाना इतना बुरा लगता है? खासकर यदि “सही” उम्र के व्यक्ति द्वारा “सही” व्यक्ति को बोला गया हो। मतलब जैसा कि उस विज्ञापन से परिलक्षित होता है, वह बालक शायद दसवीं-बारहवीं का लगता है (अर्थात सोलह-सत्रह वर्ष का), ऐसे में यदि वह शाहरुख (जो कि चालीस पार हो चुके हैं) को अंकल कहता है तो उन्हें बुरा क्यों लगना चाहिये? यह दृष्टांत एक विशाल “बाजार” (चिरयुवा दिखाई देने के लिये बने उत्पादों का) के खेल का अहम हिस्सा है, जिसमें सतत हमारे दिमाग में ठसाया जाता है, “सफ़ेद बाल बहुत बुरे हैं”, “थोड़ी सी भी तोंद निकलना खतरे का संकेत है”, “लड़कियों वाली क्रीम नहीं बल्कि जवान दिखने के लिये मर्दों वाली क्रीम वापरना चाहिये” और तो और “सिगरेट पीने से बहादुरी और जवानी आती है” आदि-आदि-आदि। जबकि देखा जाये तो आजकल के किशोरों और युवाओं में “अंकल” बोलना एक फ़ैशन बन चुका है। फ़ैशन का मतलब होता है कि “ऐसी कोई बात जिसकी आपको कोई समझ नहीं है लेकिन सिर्फ़ भेड़चाल के लिये या किसी हीरो-हीरोइन की नकल करनी है, उसे फ़ैशन कहते हैं” जो कि युवाओं की स्वाभाविक हरकत होती है, लेकिन आश्चर्य तो तब होता है कि “अनुभव” और “अध्ययन” के कारण कनपटी पर पके बालों को भी अधेड़ लोग छुपाने के लिये विभिन्न उपाय करते पाये जाते हैं।

यदि अपने से आधी उम्र का कोई बालक-बालिका अंकल कहे तो उसमें बुरा मानने वाली क्या बात है (औरतों को उनके स्त्रीत्व की एक विशेष भावना के चलने “आंटी” सुनना बुरा लग सकता है, बल्कि लगता भी है)। लेकिन तथाकथित “फ़ैशन” की नकल के चलते कई बार “कमर पर चर्बी का टायर चढ़ाये” नवयौवनायें भी अपने से सिर्फ़ दो-पाँच साल बड़े व्यक्ति को अंकल कहती फ़िरती हैं, और स्थिति तब अधिक हास्यास्पद हो जाती है, जबकि आमतौर पर दिखने-चलने-फ़िरने में वह व्यक्ति उससे अधिक जवान दिखाई देता है। एक चीज होती है “कॉमन सेंस” (सामान्य बोध), जो कि आजकल “अनकॉमन” हो गया है, (यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है - जब एक “स्लीवलेस” पहनी हुई “युवती” जिसकी बाँहें, दो लटकी हुई बड़ी लौकियों की तरह दिखाई दे रही थीं, वह मुझे अंकल संबोधित कर रही थी, और तब मजबूरन मुझे, उन्हें “हाँ, बोलो बेटी...” कहना पड़ा था)।

सवाल फ़िर यही खड़ा होता है कि क्यों लोग उम्र को सही सन्दर्भों में नहीं लेते? (खुद की भी और दूसरों की भी), क्यों वे आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते कि अब नौजवानी का दामन छूटने को है और अधेड़ावस्था की आहट आ गई है? क्यों आजकल “सफ़ेद बालों” को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है? अक्षय खन्ना, सलमान खान, संजय दत्त या शाहरुख को “अंकल” सुनना क्यों बुरा लगता है? क्यों अमिताभ ने आज तक सार्वजनिक तौर पर अपनी “विग” नहीं उतारी, जबकि रजनीकान्त आमतौर पर सभाओं में बिना मेक-अप के, सफ़ेद बालों, गंजे सिर और सादी सी लुंगी में दिखाई दे जाते हैं (और फ़िर भी वे अपनी नाती की उम्र के साथ हीरो के रूप में अमिताभ से अधिक सुपरहिट हो जाते हैं), ऐसी हिम्मत अन्य कथित “स्टार”(?) क्यों नहीं दिखा पाते? आपका क्या कहना है?

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Ridiculous Foolish Statements

स्वतंत्रता के साठ वर्षों का जश्न हमने अभी-अभी ही मनाया। देश के पिछले साठ सालों पर सरसरी नजर डालें तो सबसे ज्यादा खटकने वाली बात हम पाते हैं नेताओं और प्रशासन द्वारा दिये गये मूर्खतापूर्ण, निरर्थक, ऊटपटाँग और उलजलूल वक्तव्य। नेता क्या बोलते हैं, क्यों बोलते हैं, प्रेस विज्ञप्ति क्यों जारी की जाती है, इस बात का न तो उन्हें कोई मतलब होता है, न ही जनता को इससे कुछ मिलता है। हम सभी रोज अखबार पढते हैं, उसमें प्रथम पृष्ठ पर स्थित कुछ “हेडलाइनों” पर नजर पड़ती ही हैं, लेकिन इतने सालों के बाद अब समाचार पर नजर पड़ते ही समझ में आ जाता है कि भीतर क्या लिखा होगा, कुछ वाक्यों की तो आदत सी पड़ गई है । आइये नजर डालें ऐसे ही कुछ बेवकूफ़ी भरे वाक्यों पर – “विकास का फ़ल आम आदमी को मिलना चाहिये”, “गरीबों और अमीरों के बीच की खाई कम होनी चाहिये”, “हमें गरीबी हटाना है”, “विकास की प्रक्रिया में सभी को समाहित करना आवश्यक है”, “आम आदमी का भला होना ही चाहिये”.... इस प्रकार के कुछ अनर्गल से वाक्य देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोग गाहे-बगाहे अपने मुखारविन्द से उवाचते रहते हैं, सतत और अनथक रूप से। बस भाषण देना है इसलिये देना है और इन वाक्यों का समावेश किये बगैर भाषण पूरा नहीं होगा, फ़िर उस “खास” (?) व्यक्ति ने बोला है तो अखबारों को छापना ही है, छपा है तो हम जैसों को पढ़ना ही है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इन नेताओं को ये रटे-रटाये और निरर्थक वाक्य बोलने में शर्म नहीं आती? स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लोकतंत्र स्वीकार करने के बाद आम जनता के लिये न्यायपालिका, प्रेस, अफ़सरशाही और विधायिका का गठन हो गया है, तो अब आम आदमी का भला करने से इन्हें कौन रोक रहा है, जनता ने चुनाव में वोट देकर सरकार बनवा दी तो अब विकास की दौड़ में सभी को शामिल करना उनका कर्तव्य है, इसके लिये लाऊडस्पीकर पर जोर-जोर से चिल्लाने की क्या जरूरत है? अब तो पन्द्रह अगस्त का प्रधानमंत्री का भाषण हो या छब्बीस जनवरी का राष्ट्रपति का भाषण, अव्वल तो कोई सुनता ही नहीं, सुनता भी है तो हँसी ही आती है, उसमें भी ऐसे ही वाक्यों की भरमार होती है, “ऐसी ऊँची-ऊँची रख-रख के देते हैं कि कनपटी सुन्न हो जाती है”, अरे भाई करके दिखा ना, कि बस यूँ ही बोलता रहेगा...लेकिन नहीं...साठ साल हो गये बकबक जारी है। साठ साल बाद भी प्रधानमंत्री यह कहें कि हमें गरीबी मिटाना है और आम आदमी का भला होना चाहिये तो बात कुछ समझ नहीं आती। ये तो ऐसे ही हुआ कि अंबानी अपने कर्मचारियों से कहे कि कंपनी की प्रगति होना चाहिये, सबको वेतनवृद्धि मिलनी चाहिये, लेकिन खुद मुकेश अंबानी कुछ ना करे। ये सब होना चाहिये, इसीलिये तो वह मालिक है, तमाम मैनेजर हैं, शेयर होल्डर हैं, मजदूर तो सिर्फ़ वही करेगा जो उसे कहा जायेगा। लेकिन “आम आदमी”... शब्द का उपयोग करके नेता सोचते हैं कि वे अपनी “इमेज” बना रहे हैं, जबकि लोग मन-ही-मन गालियाँ निकाल रहे होते हैं। यही हाल प्रत्येक आतंकवादी हमले के बाद आने वाली वक्तव्यों की बाढ़ का है – “सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गई है” (हँसी), “रेड अलर्ट जारी कर दिया गया है” (तेज हँसी), “हम आतंकवाद के सामने नहीं झुकेंगे”, “दोषी को सजा दिला कर रहेंगे” (ठहाके मार कर दोहरा होने लायक), “आम जनता से शांति बनाये रखने की अपील की है”, “मरने वाले को इतना और घायल को उतना मुआवजा दिया जायेगा”... अगड़म-बगड़म-तगड़म... क्या बकवास है यह सब? न उन्हें शर्म आती है, न हमें, न उन्हें गुस्सा आता है, न हमें। जेड श्रेणी की सुरक्षा में बैठा हुआ नेता यह सब बोलता रहता है, अखबारों में छपता है, हम पढ़ते हैं, फ़िर उसी अखबार में बच्चे को हगवा कर उसे नाली में फ़ेंक देते हैं, अगले दिन के अखबार की “हेडिंग” पढ़ने के इंतजार में.....

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Kumaraswami, BJP, Karnatak, Power sharing

जो काम मायावती एक जमाने में करते-करते रह गईं थी, वह बाप-बेटे की जुगलबन्दी और काँग्रेस की पिछवाड़े से की गई “उँगली” ने कर दिखाया। कर्नाटक में सत्ता की बन्दरबाँट में जब माल देने की बारी आई तो बिल्ली सारा माल अकेले हजम करने की जिद कर बैठी, और “बन्दर” देखते ही रह गये। इसे कहते हैं “चोरों को पड़ गये मोर”...। इन भाजपा वालों के साथ कम से कम एक बार यह चोट होना जरूरी था, सत्ता के लिये “यहाँ-वहाँ-जहाँ-तहाँ, मत पूछो कहाँ-कहाँ” मुँह मारते भाजपाईयों को यह चमाट कुछ ज्यादा ही जोरदार लगा है (जोर का झटका धीरे से)। आश्चर्य सिर्फ़ इस बात का है कि जनता को ठगने वाले दो चोर आपस में ही एक दूसरे को ठग लिये और जनता को मजा आ गया। इसे कहते हैं “बिन पैसे का तमाशा”, क्या-क्या नहीं किया भाजपा ने इनके लिये, लग्जरी बस से गुजरात और मध्यप्रदेश घुमाने ले गये, पहले सत्ता भी दी, मुख्यमंत्री पद भी नहीं माँगा, इतने सारे “त्याग” के बदले मिला क्या... ठेंगा...। कम से कम अब तो भाजपा वालों को अकल आ जानी चाहिये कि “धर्मनिरपेक्ष दल” (हा हा हा हा) अपने बाप के भी सगे नहीं है, तो इनके क्या होंगे। मजे की बात तो यह है कि तमाम विचार मंथन, शिविर और जाने क्या-क्या आयोजित करने वाले इनके आका इन्हें समझाते क्यों नहीं कि भाजपा को अकेले ही चलना चाहिये, जब तक पूर्ण सत्ता ना मिले (चाहे वह पचास साल बाद मिले)। भानुमति का जो पिटारा वाजपेयी जी किसी तरह पाँच साल चला ले गये, उस वक्त ने ही इनकी खटिया खड़ी की है। कल्पना करें कि भाजपा कह देती कि जब तक हमारे तीन मुद्दे – राम मन्दिर, धारा ३७० और समान नागरिकता कानून नहीं माने जायेंगे, हमे किसी से गठबन्धन नहीं करना, सब जाओ भाड़ में। उस वक्त ये सारे चूहे जैसे दल कहाँ जाते, निश्चित रूप से कांग्रेस की गोद में तो नहीं, क्योंकि अपने-अपने राज्यों में तो ये कांग्रेस के खिलाफ़ ही जीत कर आये थे, लेकिन भाजपा वालों को अपने मुद्दे या अपनी पहचान या सौदेबाजी करने से ज्यादा सत्ता की मलाई चाटने की जल्दी थी और ताबड़तोड़ “एनडीए” नाम का जमूरा खड़ा किया (ठीक वैसा ही जैसा की अभी “यूपीए” नाम का है), अंततः हुआ क्या, कन्धार का दाग सदा के लिये माथे पर लग गया, नायडू साहब, जयललिता और ममता केन्द्र को चूस कर अपने-अपने रास्ते निकल लिये, ये “राम के बन्दर” बैठे रह गये हाथ में फ़टा हुआ भगवा लिये। अब भी वक्त हाथ से नहीं निकला है, मोदी को आगे करो, हिन्दुत्व की राजनीति खुलकर करो, कम से कम इतनी सीटें लाओ (और मिल भी जायेंगी) कि मजबूत सौदेबाजी की स्थिति में आ जाओ, फ़िर अपना मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनवाओ.... राम मन्दिर पर जोरदार काम करो, सरकार गिर जाती है तो गिर जाने दो, अगली बार, उसकी अगली बार, नहीं तो और अगली बार... कभी न कभी ये “धर्मनिरपेक्ष”(?) दल भाजपा को उनकी शर्तों पर समर्थन जरूर देंगे, लेकिन उसके लिये सत्ता का त्याग करना पड़ेगा, जो कि भाजपा के लिये एक मुश्किल भरा काम है... आगे “राम” जाने....


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Symmonds Australia Indian Cricket Team

क्रिकेट में “स्लेजिंग” का मतलब होता है कुछ बोलकर या हरकतों से विपक्षी खिलाड़ी को छेड़ना, जिससे कि वह गुस्से में आये, उसकी एकाग्रता भंग हो और वह गलती करे।

हाल की भारत-ऑस्ट्रेलिया सीरिज में खिलाड़ियों के बीच काफ़ी तूतू-मैंमैं हुई, जिसमें दर्शक भी शामिल हुए और मामले ने काफ़ी तूल पकड़ लिया, हालांकि ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ियों द्वारा यह करना एक आम बात है, लेकिन दरअसल वे क्रोधित (बल्कि भौंचक्के) इसलिये थे कि इस बार स्लेजिंग की शुरुआत की भारतीय युवा खिलाड़ियों ने। गोरी चमड़ी के देशों के खिलाड़ी (ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, द.अफ़्रीका और न्यूजीलैंड) स्लेजिंग के कार्य में माहिर माने जाते हैं (यह उनके संस्कारों मे ही है – कैसे भी हो...जीतो), लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह स्थिति धीरे-धीरे बदलती नजर आ रही है।

भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और वेस्टईण्डीज के खिलाड़ी अब ताने, गालीगलौज और छींटाकशी सुनते-सुनते तंग आ चुके थे। इन देशों की युवा ब्रिगेड ने अब “जैसे को तैसा” का जवाब देने की ठान ली है, और हो भी क्यों नहीं? अब इस खेल पर गोरे देशों का एकतरफ़ा कब्जा नहीं रहा है। काले-सांवले देश भी उन्हें जब-तब हराने लगे हैं, उनके गेंदबाजों को धोने लगे हैं, दर्शक संख्या इन काले देशों में ही ज्यादा होती है, विश्व क्रिकेट प्रशासन का सबसे अधिक पैसा यहीं से आता है, फ़िर यहाँ के खिलाड़ी गोरों की बातें क्योंकर सुनें? और कोई माने या माने सबसे बड़ा बदलाव आया है देश की आर्थिक स्थिति और नई सदी में भारत के युवाओं की सोच में। गाँधी जिस सदी में मरे थे अब वह बीत चुकी है। इक्कीसवीं सदी में जो युवा भारत की क्रिकेट टीम में आ रहे हैं, वे महानगरों के कम हैं, कस्बों और छोटे शहरों के ज्यादा हैं। भले ही आरम्भ में इन खिलाडियों की आर्थिक स्थिति कमजोर हो, लेकिन अब भारत की तरक्की और बदली हुई परिस्थितियों में, वे कुछ भी चुपचाप सुन लेने वाले “मेमने” नहीं रहे, वे भी “मुँहजोरी” का जवाब “मुँहजोरी” से देना सीख गये हैं, और यह सही रवैया भी है। यह रवैया धीरे-धीरे हमें लगभग हरेक क्षेत्र में देखने को मिल रहा है। जिस दिन युवाओं के यही विद्रोही तेवर भारत में फ़ैले भ्रष्टाचार के प्रति हो जायेंगे, उस दिन सही मायनों में बदलाव आयेगा।

बहरहाल, वे दिन अब लद गये जब भारत या पाकिस्तान या किसी अन्य देश के खिलाड़ी को कोई “गोरा” कुछ कहता था तो वे उसे हँसकर टाल देते थे, या “महान खेलभावना”(?) का परिचय देते हुए भूल जाते थे, लेकिन अब जमाना बदल गया है, हर कोई जीतना चाहता है, लाखों-करोड़ों रुपये दाँव पर लगे हुए हैं, खिलाड़ी के कैरियर का सवाल है, तनाव है, दबाव है, अब यह सब नहीं सहा जायेगा, यदि ताना मारा जाता है तो ताना मारा जायेगा, यदि गाली दी जाती है तो और बड़ी गाली दी जाती है। इसके पीछे गोरे देशों की मानसिकता “ठाकुरों-ब्राह्मणों” वाली सवर्ण मानसिकता है, कि- “ऐ साला, काला लोग, हम ही तुमको उठना-बैठना-खेलना सिखाया है और साला तुम हमारे सामने आँख उठाकर कैसे चलता है, कैसे हमें हरा सकता है... साले हम शासक लोग हैं और तुम गुलाम लोग हो, गालियाँ खाते रहना तुम्हारी नियति है”, इसी घटिया मानसिकता के चलते अधिकतर काले देशों के खिलाड़ियों के साथ अन्याय होता आया है। “चकर” होगा तो शोएब अख्तर या मुरलीधरन, ब्रेट ली नहीं.... “दूसरा” नामक गेंद यदि हरभजन या सकलैन फ़ेंकेगा तो “वह थ्रो करता है”, यदि सचिन, इंजमाम या रणतुंगा, क्रीज पर अधिक देर तक टिक गया तो गालीगलौज, छेड़छाड़ तो पक्की है ही ऊटपटांग अपीलों का दौर भी प्रारम्भ हो जायेगा।

लेकिन अब जबकि क्रिकेट के तथाकथित “दलित” तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, उन्हें जब-तब हराने लगे हैं, रिकॉर्ड बुक में काले-सांवले लोगों के नाम ही ज्यादा आगे आने लगे हैं तो “गोरों” के पेट में दुखने लगा है और जिस चीज में वे अधिक माहिर हैं वे करने पर उतारू हो गये, लेकिन जब पासा पलटता दिखाई देने लगा, तब “उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे” की तर्ज पर पोंटिंग और सायमंड्स हल्ला मचाने लगे। उन्हें गुमान है “गोरी चमड़ी” का और “शासक वर्ग के होने” का, और इस गुमान को मुँहतोड़ जवाब देना जरूरी है। (भले ही “भारत का क्रिकेट खेल के उत्थान में कोई योगदान नहीं है, लेकिन इतने भी गये-गुजरे हम नहीं हैं कि कोई भी ऐरा-गैरा हमें गाली देता फ़िरे”)

अब यह तो सायमंड्स की धमकी से स्पष्ट हो गया है कि आने वाला ऑस्ट्रेलिया दौरा भारत के लिये खतरनाक रहेगा, लेकिन यदि सकारात्मक मानसिकता और “शठे शाठ्यम समाचरेत” का जज्बा दिल में रखते हुए, अग्नि परीक्षा पार करके वहाँ से लौटेंगे तब यह टीम एकदम बदली हुई टीम नजर आयेगी (यह आमतौर पर देखा जाता है कि किसी टीम के किसी खिलाड़ी को यदि कोई दूसरा गाली देता है तो टीम में एकजुटता बढ़ती है)।

सन्देश साफ़ है, “कौन बेवकूफ़ कहता है कि क्रिकेट एक जेंटलमैन गेम है”, मुगालता दूर कीजिये, क्रिकेट में भी छिछोरापन बढ़ता जा रहा है और, और बढ़ेगा, और हमारे युवा खिलाड़ी उसी भाषा में उसका जवाब भी देंगे।

“लेख के अगले भाग में क्रिकेट के इतिहास में घटित कुछ बेहद घटिया दर्जे की “स्लेजिंग” और पीड़ित खिलाड़ी द्वारा चुटीले और व्यंग्यात्मक अन्दाज में दिये गये जवाबी हमले, आदि के बारे में....”

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Astrology, Science, Fiction and Predictions

मेरे एक लेख “क्या आप भगवान को मानते हैं?” के जवाब में कुछ ज्योतिषी बन्धु बहुत लाल-पीले हुए थे और मुझे अधर्मी, अज्ञानी का खिताब दिया था। अक्सर अपने धन्धे की मार्केटिंग के लिये ज्योतिष को “विज्ञान” बताया जाता है, ताकि शिक्षित लोग भी उसके झाँसे में आ जायें। इसी विषय को लेकर मैंने कुछे मुद्दे उठाने की कोशिश इस लेखमाला में की है, जिस पर विचार किया जाना, बहस-मुबाहिसा किया जाना, नये-नये तर्क दिया जाना आवश्यक है ताकि भ्रम छँटे और वास्तविक स्थिति लोगों के सामने आ सके।

यह बात तो सभी मानेंगे कि जब तक ज्योतिष और ग्रहों के तथाकथित असर जब तक साबित नहीं हो जाते, कम से कम तब तक तो ज्योतिष विद्या एक “अप्रायोगिक विश्वास” ही है, लेकिन सिर्फ़ यही आधार ज्योतिष को विज्ञान नहीं होना सिद्ध नहीं करता, कुछ और भी आधार हैं जिन पर विचार किया जाना आवश्यक है ताकि साबित किया जा सके कि ज्योतिष विज्ञान नहीं है, बल्कि कोरे अनुमान, ऊटपटाँग कल्पनायें और खोखला अंधविश्वास है।

सिर्फ़ यह कह देने भर से कि रोजाना हजारों ज्योतिषियों के लाखों अनुमान गलत साबित होते हैं, इसलिये ज्योतिष विज्ञान नहीं है, भी काफ़ी नहीं होगा। ज्योतिष-भाग्य-पूर्वजन्म आदि को मानना न मानना हरेक का व्यक्तिगत मामला है, लेकिन जब ज्योतिष को “विज्ञान” बताया जाता है तब असली आपत्ति शुरु होती है। सबसे पहला प्रश्न तो उठता है- विज्ञान क्या है? ऑक्सफ़ोर्ड के एक शब्दकोष के अनुसार – “ज्ञान की एक शाखा, विशेषकर वह जो वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हो, एक संगठित संस्था द्वारा एकत्रित प्रयोग आधारित जानकारी पर आधारित सूचनाओं का भंडार”। विज्ञान की इस परिभाषा को यदि ‘ज्योतिष’ पर लागू किया जाये तो इनमें से कोई भी सिद्धांत ज्योतिर्विज्ञान पर लागू नहीं होता है, न तो वैज्ञानिक परिभाषायें ना ही भौतिक अवस्थायें, कैसे? आगे देखते हैं

“इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका” के अनुसार, “ग्रहों के काल्पनिक वृत्त (या निशान) अथवा कोई काल्पनिक गोलाकार (जैसे- राशियाँ आदि) किसी प्रकार की “शक्ति” से लैस होते हैं या उनके कोई विशेष प्रभाव होते हैं, यह सिद्धांत विज्ञान को मान्य नहीं हैं”। इसमें एक और बात भ्रम पैदा करने वाली यह है कि भारतीय ज्योतिषियों और पश्चिमी “एस्ट्रोलॉजी” के सिद्धांतकारों में भी इन “शक्तिशाली ग्रहों” के स्थान आदि पर भारी मतभेद हैं, इसी से ज्योतिष सम्बन्धी सारे अनुमान विसंगतिपूर्ण हो जाते हैं। ज्योतिष का मूल सिद्धांत यह है कि तमाम ग्रह या नक्षत्र अपने-अपने स्थान (घर) में स्थित होकर उसी के अनुसार व्यक्ति को फ़ल या कुफ़ल देते हैं, पूरी तरह से काल्पनिक और मात्र पूर्व अनुमानों पर आधारित होता है। ये कल्पनायें भी इस प्रकार हैं- “ग्रहों को अपना खुद का ज्ञान होता है”, “सारे ग्रह ज्योतिषियों की तरह जानकारी रखते हैं और जिस ‘घर’ में वे होते हैं उसी के अनुरूप वे सदा पवित्र या अपवित्र शक्तियाँ मानवों को देते चलते हैं”, जो कि ज्योतिषी तमाम गणनायें करके बताते हैं। इस प्रकार की अनोखी और अलौकिक कल्पनायें विज्ञान की कसौटी पर कहीं से कहीं तक खरी नहीं उतरतीं। इस तर्क का ज्योतिष विज्ञानी(?) कभी भी खंडन नहीं करते, इसलिये “ज्योतिष विज्ञान नहीं है, सिर्फ़ कल्पना है” इस बात को बल मिलता है।

क्या मनुष्य के जीवन को ग्रह प्रभावित करते हैं?
“स्वर्गीय” या ग्रहों के प्रभाव पृथ्वी पर दो तरह से असर डाल सकते हैं- पहला है प्राकृतिक या भौतिक और दूसरा है ज्योतिष के सिद्धांत के अनुसार।
(१) भौतिक रूप – सूर्य और चन्द्रमा मनुष्य जीवन को प्रभावित करते हैं, भौतिक स्वरूप में। मनुष्य जीवन ऊर्जा से चलता है, और सूर्य हमें अपनी भौतिक किरणों से हमें ऊर्जा और ऊष्मा प्रदान करता है। सूर्य के कारण ही भिन्न-भिन्न मौसम, वर्षा, ठंड आदि आते-जाते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण और चुंबकीय बलों के कारण धरती पर समुद्र में ज्वार-भाटा आदि आते हैं, इससे सिद्ध होता है कि सूर्य और चन्द्रमा मानव जीवन पर अपना भौतिक असर डालते हैं। इन प्रभावों को हम तमाम वैज्ञानिक विधियों और उपकरणों से नाप सकते हैं, प्रभाव को कम-ज्यादा कर सकते हैं। लेकिन क्या बाकी के सारे ग्रह भी इसी प्रकार हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं? इसका उत्तर है कि- यदि मान लिया जाये कि उन सभी ग्रहों का कुछ असर होता भी है तो उनकी दूरी के कारण वह बेहद अप्रभावी और लगभग उपेक्षा करने योग्य होता होगा। क्योंकि आज तक किसी ज्योतिषी ने किसी उपकरण द्वारा यह नहीं बताया है कि किसी ग्रह विशेष की किरणों(?) से मनुष्य को कितना नुकसान हुआ है? एक खास बात ध्यान देने वाली यह है कि सूर्य और चन्द्रमा के जो भी प्रभाव मनुष्य पर पड़ते हैं, वे सार्वजनिक और समानुपात से सभी पर पड़ते हैं, ना कि ज्योतिष के सिद्धांत के अनुसार, जिसमें “मंगल” चुन-चुनकर लड़कियों या लड़कों को अपना निशाना बनाता है। सीधी बात है कि किसी ग्रह का असर सभी मनुष्यों पर समान रूप से पड़ना चाहिये, न कि व्यक्तिगत रूप से (यदि यह विज्ञान है, तो)।
(२) दूसरा रूप विशुद्ध ज्योतिष के अनुसार- कि प्रत्येक ग्रह मनुष्य जीवन पर प्रभाव डालता है। ये और बात है कि आज तक प्रायोगिक रूप से इस बात को किसी महान ज्योतिषी ने साबित नहीं किया है, न कोई वैज्ञानिक उपकरण से मापा गया है, ना ही किसी अन्य विधि से सर्वमान्य रूप से इसे सिद्ध किया गया है, बस मान्यता है कि ऐसा होता है, कैसे और क्यों होता है, इसके बारे में पूछना बेकार है और ग्रहों का प्रभाव व्यक्ति विशेष पर ही क्यों पड़ता है, समूची धरती पर एक साथ नहीं? कार्ल ई.कोपेन्शर ने तथाकथित “मंगल प्रभाव” को सिरे से गलत साबित कर दिया है, साथ ही इस बात को भी गलत साबित कर दिया कि ग्रहों का प्रभाव अनुवांशिकी भी होता है (जैसी कि मान्यता है कि पिता और पुत्रों की कुंडलियों में काफ़ी समानतायें पाई जाती हैं)। इसलिये अब तक इस बारे में कोई पक्का सबूत पेश नहीं किया गया है कि ग्रहों और नक्षत्रों का प्रभाव होता है, या मनुष्य पर पड़ता है।

खगोल विज्ञान और ज्योतिष का घालमेल करना-
प्रत्येक ज्योतिषी और भारत में ज्योतिष को मानने वाले सदा जपते रहते हैं कि पृथ्वी और अन्य दूरस्थ ग्रहों का आपस में कुछ सम्बन्ध होता है। वे यह बात जन्म से ही मानकर चलते हैं और जमाने भर को घुट्टी में पिलाते रहते हैं, कि तारे और ग्रह कोई विशेष प्रकार की किरणें छोड़ते हैं जो धरती पर इन्सानों और यहाँ तक कि घटनाओं को भी प्रभावित करती है। तत्काल यह प्रश्न उठना चाहिये कि ये ज्योतिषीय प्रभाव या किरणें या असर (या जो भी कुछ है), वह पृथ्वी तक पहुँचता कैसे है? विज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि किसी भी प्रकार के बल या तरंगों को दूर तक प्रवास करने और वहाँ कुछ असर डालने के लिये तीन प्रकार के बलों की आवश्यकता होगी ही –

(१) इलेक्ट्रोमैग्नेटिक विकिरण (Electromagnetic Radiation)
(२) गुरुत्वाकर्षण (Gravitational Attraction) या
(३) चुम्बकीय तरंगे (Magnetic Fields)

अब कम से कम विज्ञान तो इन तीन कारणों के अलावा और कोई कारण नहीं जानता, जिससे कि सुदूर स्थित कोई पिंड अपना प्रभाव धरती तक पहुँचा सके। अब कुछ क्षणों के लिये मान भी लिया जाये कि इनमें से किसी एक कारण से कोई ग्रह हमें प्रभावित करता है तो यह देखना होगा कि ज्योतिषीय सिद्धांत इनमें से किसमें “फ़िट” बैठता है। ... जारी रहेगा भाग-२ में भी....

अगले भाग में इन्हीं सिद्धांतों पर जरा विस्तार से चर्चा करूँगा और साथ ही कुछ और तर्क...

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Contradictions in Astrological Methods
“ज्योतिष विज्ञान नहीं, कोरी कल्पना और अनुमान है” लेख में हमने देखा कि किस तरह से विज्ञान के मूल सिद्धांत पर भी ज्योतिष टिकता नहीं है और खामोश बना रहता है, अब उन “कथित” असरकारी तरंगों को देखें -

सबसे पहले याद करें ज्योतिष के मूल सिद्धांत को कि “ग्रह अपना प्रभाव धरती पर डालते हैं”, चलो मान लिया कि दूर आकाश से किसी प्रकार की किरणें मनुष्य के जन्म-स्थान तक पहुँच भी गईं, लेकिन यह समझ में नहीं आता कि वे किरणें धरती के दूसरे हिस्से में जन्म लेने वाले बच्चे तक कैसे पहुँच जाती हैं? (सभी जानते हैं कि धरती गोल है, इसलिये कोई भी ग्रह धरती के उसके सामने वाले हिस्से को ही प्रभावित कर सकता है, जैसे कि चन्द्र या सूर्यग्रहण कहीं-कहीं ही दिखाई देता है)। लेकिन ज्योतिष विज्ञान(?) के अनुसार ग्रहों और नक्षत्रों का असर धरती के उस दूसरे हिस्से पर भी होता है, जो उसके सामने नहीं है। शायद वे यह कहना चाहते हैं कि धरती तो चपटी है थाली की तरह, जिसमें सारी किरणें या जो भी कुछ है, सभी स्थानों पर जन्म लेने वालों पर समान प्रभाव डालेंगे।

(१) इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें – यह किरणें अधिकतर प्रकाश किरणों के रूप में होती हैं, और स्वाभाविक है कि ये किरणें धरती से अंधेरे वाले हिस्से में नहीं पहुँच सकतीं। न ही इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें धरती को भेदकर दूसरी तरफ़ पहुँच सकती हैं, मतलब ज्योतिष के लिये इन किरणों का कोई मतलब नहीं है।

(२) गुरुत्वाकर्षण – विज्ञान के अनुसार दो पिंडों के बीच की दूरी पर यह बल निर्भर होता है, लेकिन ज्योतिष विज्ञान को गुरुत्वाकर्षण से भी कोई लेना-देना नहीं होता। प्रत्येक ग्रह और धरती की दूरी समयानुसार थोड़ी-बहुत घटती-बढती रहती है, सो उसका असर भी कम-ज्यादा होना चाहिये, लेकिन ज्योतिष इस बात को नहीं मानता।

(३) चुम्बकीय किरणें – इनका प्रभाव एक बहुत ही सीमित हिस्से तक होता है, ये अधिक दूरी तक प्रवास नहीं कर सकतीं। करोड़ों मील दूर किसी ग्रह से चुम्बकीय किरणें यहाँ तक पहुँचना नितांत असम्भव है। इसी प्रकार वैदिक ज्योतिष के “खास” कमाई वाले ग्रह राहु-केतु की उपस्थिति के बारे में अभी तक तो विज्ञान को नहीं पता, कि वे धरती के किस कोण पर, कितनी दूरी पर स्थित हैं, राहु और केतु की तारामंडल में निश्चित स्थिति क्या है? न ही ज्योतिष विज्ञान ने किसी तरह से हमें यह बताने की जहमत उठाई है। क्या राहु-केतु कोई चुम्बकीय प्रभाव डाल सकते हैं? पता नहीं..। मतलब चुम्बकीय प्रभाव वाली “थ्योरी” भी नहीं लागू हो रही... तात्पर्य यह है कि यदि हम मान भी लें कि ग्रहों या नक्षत्रों का कोई प्रभाव होता भी है, तो कृपया बताया जाये कि वह पृथ्वी तक पहुँचता किस प्रणाली से है? स्वाभाविकतः एक सवाल मन में उठता है कि कहीं ये किरणें ग्रहों की बजाय ज्योतिषियों के दिमाग की तरंगें तो नहीं?

इस मोड़ पर आकर तमाम ज्योतिषी दैवी शक्ति, पुराण, पवित्रता, आदि की दुहाई देने लग जाते हैं। वे कुतर्क देने लग जाते हैं कि “ज्योतिष” कोई ऐसा-वैसा या ऐरा-गैरा विषय नहीं है, यह विषय विज्ञान के आगे की चीज है, जहाँ भौतिक विज्ञान समाप्त होता है, वहाँ से ज्योतिष आरम्भ होता है...आदि-आदि, और तारों-ग्रहों-नक्षत्रों का प्रभाव धरती के प्राणियों पर अवश्य पड़ता है। यह प्रभाव रहस्यमयी तरीके से यहाँ तक पहुँचता है। ऊपर दिये गये तर्कों को काटने के लिये कुछ प्रसिद्ध ज्योतिषियों ने इस प्रभाव को दैवीय और गुप्त रूप से उत्पन्न भी बताया है। वे सीधे कह देते हैं कि ग्रहों की स्थितियों के अनुसार पड़ने वाले प्रभावों को वैज्ञानिक तरीके से साबित नहीं किया जा सकता।

इन तर्कों के आधार पर ज्योतिषियों का दोमुँहापन साफ़-साफ़ उजागर हो जाता है, जब हम कहते हैं कि ज्योतिष शास्त्र दैवीय शक्तियों, चमत्कार आदि की बातें करता रहता है तो वे कहते हैं कि नहीं यह एक विज्ञान है, और जब विज्ञान सम्बन्धी उनके तर्क नहीं चलते तो वे गुप्त, रहस्यमयी, पाप-पुण्य, भाग्य आदि की बातें करके कहते हैं कि इसे विज्ञान द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता, अब इसे क्या कहा जाये?

वैदिक ज्योतिष में “दशा-पद्धति” की विसंगतियाँ और उठते प्रश्न –
“ज्योतिष” विज्ञान का मूल सिद्धान्त है “जैसा ऊपर, वैसा ही नीचे” अर्थात जैसा अन्तरिक्ष या सुदूर ब्रह्माण्ड में घटित होगा उसका असर धरती पर पड़ेगा। अर्थात ऐसी उनकी मान्यता होती है, और उसी के अनुसार वे भविष्य में आने वाली घटनाओं की गणना करके “ग्राहक” को बताते हैं। हमें देखना होगा कि जिस “ऊपर” नाम की चीज या “ब्रह्माण्ड” की बातें ये करते हैं और उसी के आधार पर राशियों और जन्म-कुण्डली का निर्धारण करते हैं, दर-असल वहाँ वैज्ञानिक समय पद्धति से क्या-क्या घट रहा है, जिसके आधार पर यहाँ “नीचे” मनुष्यों के भविष्य, भाग्य(?) और दुर्भाग्य(?) का निर्धारण वे सतत्‌ करते रहते हैं। ज्योतिष के मूल सिद्धान्त “दशा-पद्धति” में साफ़-साफ़ असंगत नजर आते हैं। “दशा-पद्धति” सिर्फ़ “मानो या ना मानो” के सिद्धान्त पर काम करती है, इसका ग्रहों या तारों से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता, न ही राशियों और जन्म-नक्षत्रों से। अद्‌भुत तरीके से यह “गणनायें” की जाती हैं और इसमें सिर्फ़ ग्रह का नाम देना ही पर्याप्त होता है, राशि का नाम जरूरी नहीं है। “दशा-पद्धति” ऐसी अनोखी पद्धति है जिसमें तारों और ग्रहों की कोई आवश्यकता नहीं है, सिर्फ़ उनका नाम लेना काफ़ी है।

दशा-पद्धति के आधारभूत तत्व-
इस पद्धति में ग्रह का नाम होता है, एक “प्रॉक्सी” के तौर पर, यह नाम ही उस ग्रह की तमाम “पॉवर ऑफ़ अटॉर्नी” लेकर चलता है, इसलिये ध्यान दें कि “ग्रह” मतलब सिर्फ़ एक नाम है, असली ग्रह नहीं। यह पद्धति मानकर चलती है हरेक ग्रह का अपना-अपना पूर्वनिर्धारित “स्वभाव” और “प्रभाव” होता है और ये ग्रह उसी के अनुसार मनुष्य पर कुछ वर्षों तक अपना असर डालते हैं, जिसे वे “दशा-काल” कहते हैं। ग्रहों के नाम और स्थान मनमाने तरीके से संयोजित किये हुए प्रतीत होते हैं, क्योंकि ये ग्रह उसी निर्धारित क्रम पर चलते हैं। वे एक के बाद एक आते हैं और मनुष्य के जीवन पर अपने निर्धारित वर्षों तक प्रभाव डालते हैं, फ़िर अगला ग्रह दूसरे ग्रह से “चार्ज” ग्रहण करता है और यह प्रक्रिया चलती रहती है। १२० वर्षों की दशा को “विंशोत्तरी” कहा जाता है जिसमें ग्रहों का क्रम इस प्रकार है – केतु (एक काल्पनिक ग्रह), शुक्र (Venus), सूर्य (Sun), चन्द्र (Moon), मंगल (Mars), राहु (काल्पनिक), गुरु (Jupiter), शनि (Saturn) और बुध (Merquery). इन ग्रहों का दशा-काल (प्रभाव समय) इस प्रकार मान लिया गया है – 7, 20, 6, 10, 7, 18, 16, 19, और 17 कुल मिलाकर 120 वर्ष। जबकि 108 वर्षों के दशा-काल, जिसे “अष्टोत्तरी” कहा जाता है, इसमें ‘केतु’ को निकाल दिया गया है। इस काल में शुक्र से मंगल तक तो क्रम वही है, लेकिन बाकी के चार ग्रहों को उलटे क्रम में लगा दिया जाता है, पता नहीं क्यों (जाहिर है कि ज्योतिष के विद्वान मेरे जैसे अज्ञानी और अधर्मी को इस बात का भी जवाब देंगे)। निश्चित तौर पर इन सबका कोई ठोस कारण नहीं नजर आता। जब राहु और केतु दोनों काल्पनिक ग्रह हैं फ़िर राहु का दशा काल 18 वर्ष और केतु का 7 वर्ष क्यों? दशा पद्धति का सम्बन्ध हमारे जीवन पर ऐसा माना गया है – बच्चे का जन्म नक्षत्र (Zodiac Birth) कुण्डली के आधार पर तय किया जाता है, इस जन्म-नक्षत्र का एक ‘स्वामी’ (Boss) या भगवान होता है। जब इसका कार्यकाल समाप्त हो जाता है तब अगल ग्रह आकर उसका स्थान ले लेता है और यह क्रम सम्पूर्ण जीवन तक चलता रहता है।

कुछ ज्योतिषी और पुराने लोग तो यह दावे भी करते रहते हैं कि – “कुछ प्राचीन ऋषियों ने हजारों साल पहले ताड़पत्रों पर समूची मानव जाति का भविष्य लिख दिया था”, “उन ऋषियों ने तो सारे अनुमान और जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य का भूत-भविष्य पहले ही देख लिया था”, “उन ताड़पत्रों को सिर्फ़ विशेषज्ञ लोग ही पढ़ सकते हैं क्योंकि वे एक विशिष्ट भाषा में लिखे हुए हैं”, तात्पर्य यह कि सब कुछ रहस्यमयी, मनमाना, अगणितीय, अवैज्ञानिक है। यदि नहीं, तो महान लोग बताने का कष्ट करें कि- एक ही स्थान और एक ही समय पर, यहाँ तक कि लगभग एक ही पारिवारिक पृष्ठभूमि रखने वाले दो बच्चों (यहाँ तक कि जुड़वाँ बच्चों) के कर्म, उनके भविष्य, उनकी नौकरी/व्यवसाय, उनकी शादी, उनके बच्चे, उनकी मृत्यु के बीच समानता क्यों नहीं होती? क्यों सुनामी में मारे गये लाखों लोगों की कुण्डली एक जैसी नहीं थी?

जब विज्ञान कहता है कि H2 और O को मिलाकर पानी बनता है तो वह पानी साइबेरिया में भी बनता है और ऑस्ट्रेलिया में भी बनता है। विज्ञान कभी भी यह नहीं कहता कि अब हम यह टेलीफ़ोन चालू कर रहे हैं, यदि आपका “कर्म” अच्छा होगा तो यह चलेगा, नहीं तो नहीं चलेगा। विज्ञान ने यह भी कभी नहीं कहा कि हम यह मोटर चालू कर रहे हैं, यदि आपका “भाग्य” साथ देता रहा तो यह चलती रहेगी, हो सकता है कि न भी चले, यह भी हो सकता है कि आपके पूर्वजन्म के कारण यह मोटर जल जाये। लेकिन ज्योतिषियों के पास इस बाबत्‌ तमाम कुतर्क होते हैं, और भोला भगत इस बात पर विश्वास कर लेता है कि “पंडित” जी ने तो भविष्य एकदम सही बताया था, लेकिन क्या करें “भाग्य में यही लिखा था”, “जो होना है वह होकर ही रहता है”, “हो सकता है कि हमारे कर्मों में कोई खोट हो” आदि-आदि। मतलब ज्योतिषी महोदय माल अंटी करके भी साफ़ बरी।

हाल ही में तमिलनाडु में एक व्यक्ति ने कोर्ट में धोखाधड़ी का मुकदमा दायर किया था जिसमें ज्योतिषी महोदय एक मृत व्यक्ति की कुण्डली देखकर उसके उज्जवल भविष्य और चमकदार कैरियर की भविष्यवाणियाँ करते पकड़े गये थे। जब कुण्डली देखकर वे यह भी नहीं बता सकते कि मौत हो चुकी है तब वे विवाह, गृहप्रवेश, परीक्षा में पास/फ़ेल होने जैसी बातों के बारे में एकदम सही कैसे बता सकते हैं। एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल (जो कि ज्योतिष, ज्योतिषियों, पंडों और पुजारियों के लिये मशहूर है) के एक प्रसिद्ध ज्योतिषी की लड़की ने घर से भागकर एक दूसरे धर्म के लड़के से शादी कर ली, ज्योतिषी महाशय को पता ही नहीं चल सका। दूसरे एक और महान ज्योतिषी ने अपनी लड़की की पचासों कुंडलियाँ मिलाकर, तमाम ठोक-बजाकर उसकी शादी की लेकिन “जमाईराजा” दारुकुट्टे और जुआरी निकले, उनकी लड़की को आत्महत्या करनी पड़ी, ऐसा क्यों? यदि वे पचास कुंडलियाँ देखकर भी अपने लिये एक सही दामाद नहीं ढूँढ सकते तो फ़िर उन्हें ज़माने को ‘ज्ञान’ बाँटने का क्या हक है? इसलिये इसे विज्ञान कहना तो कम से कम बन्द किया जाये, हाँ, यह जरूर कहा जा सकता है कि यह सिर्फ़ एक अनुमान है, जिसके सही या गलत होने की पूरी सम्भावना है, और यही तो हम कह रहे हैं... दिक्कत यह है कि “खगोल विज्ञान” का विस्तार करके स्वार्थी तत्वों ने उसे “ज्योतिष विज्ञान” बना दिया है।

दुनिया के बड़े-बड़े और विद्वान ज्योतिषी सेमिनार करें, गोष्ठियाँ करें, सभायें करें, कुछ उपकरणों की मदद लें और सभी मिलकर बतायें कि फ़लाँ लड़की की कुण्डली में भयानक सा “मंगल” बैठा हुआ है, अव्वल तो इसकी शादी होगी ही नहीं या यदि किसी ने इससे शादी की तो उसकी इतने-इतने समय में मृत्यु हो जायेगी, और वाकई में वैसा ही हो तब तो इसे विज्ञान माना जायेगा... और ऐसा एक कुंडली में नहीं बल्कि सर्वमान्य रूप से एक जैसी कुण्डलियों में होना चाहिये, यही तो विज्ञान का सिद्धान्त है कि जो एक जगह और एक व्यक्ति के लिये लागू है वही सभी के लिये लागू होगा। लेकिन नहीं, जहाँ आपने तर्क-वितर्क करने की कोशिश की, तत्काल आप अधर्मी, नालायक, बड़बोले आदि घोषित कर दिये जाते हैं, ताकि सच्चाई (जो अभी साबित होना बाकी है) सामने न आ सके, धन्धा-पानी बदस्तूर जारी रहे।

हाल ही में हरियाणा के रोहतक में एक डॉक्टर दंपति ने तथाकथित तन्त्र-मंत्र के चक्कर में अपने एक बेटे की बलि चढ़ा दी, यह निश्चित तौर पर झकझोरने वाली और समर्थ सोच रखने वाले लोगों के लिये वाकई चिन्ता की बात है। एक पढ़े-लिखे पति-पत्नी भी जब तंत्र-मंत्र के चक्कर में इस हद तक गिर जाते हैं तो बेचारे अनपढ़ और गाँव वाले लोगों को क्या दोष दिया जा सकता है? तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत, ज्योतिष-कुण्डली, धर्म-कर्म, भाग्य, अंधविश्वास आदि से हमारा समाज इतना प्रभावित है कि उच्च और वैज्ञानिक शिक्षा भी उसे “बाबागिरी”, “कर्मकाण्ड” आदि कुचक्रों से बाहर नहीं निकाल पा रही है।

ज्योतिषी जरा नील आर्मस्ट्रॉंग की कुंडली देखकर बतायें कि उस पर चन्द्रमा का कितना असर हुआ? और सुनीता विलियम्स की कुंडली भी देखें कि लगभग दो सौ दिन पृथ्वी से दूर रहने से मंगल का कितना प्रभाव उस पर कम-ज्यादा हुआ, क्योंकि पृथ्वी के चक्कर लगाने के दौरान सुनीता की दूरी रोज-ब-रोज मंगल और चन्द्रमा से घटती-बढ़ती रही थी? फ़िर वैज्ञानिक आँकड़ों के साथ विश्व के सामने आयें और बतायें। वरना यूँ ही ज्योतिष को ‘विज्ञान’ कह देने भर से विज्ञान मान लेना भी एक अज्ञानता होगी।

अधर्मी, विधर्मी, नालायक, बड़बोला, अज्ञानी, बेवकूफ़ आदि शब्दों को अग्रिम में ग्रहण करते हुए वैज्ञानिक और गणितीय तर्कों के इन्तजार में हूँ..... ताकि उनका भी सकारात्मक जवाब दिया जा सके। अगले भाग में कुछ और तार्किक प्रश्न होंगे, जाहिर है कि मुझमें अक्ल की कमी है...

(लेख में सन्दर्भ – महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के साहित्य से)

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Challenge Astrology Unanswered Astro Questions

ज्योतिष के सिद्धांतों और उनकी अप्रासंगिकता तथा अवैज्ञानिकता को लेकर पिछले दो लेखों के अभी तक मुझे सन्तोषजनक जवाब प्राप्त नहीं हुए हैं। संतोषजनक मतलब तार्किक और वैज्ञानिक जवाब। जो प्रतिक्रियायें अभी तक मुझे मिली हैं, उनमें से अधिकतर का सार यही हैं कि “ज्योतिष तो एक महान शास्त्र है”, “हमारे पूर्वजों और ऋषि-मुनियों ने जिस पद्धति को विकसित किया, वह जरूर अच्छी ही होगी”, “जानकारी तो नहीं है, लेकिन ज्योतिष सत्य ही होगा”... आदि... तात्पर्य यह कि मेरे प्रश्नों का सोच-विचार कर तर्कसम्मत जवाब देने की बजाय अधिकतर लोगों ने “ज्योतिष तो सच ही है, हमारा विश्वास (या अंधविश्वास?) है, हमारे बुजुर्ग कभी गलत नहीं होते....” आदि-आदि की टेक ही लगाये रखी। एक ज्योतिषी महोदय ने समस्त ज्योतिष विरोधियों को नास्तिक ठहराते हुए तमाम चुनौतियाँ ही दे डालीं.... अस्तु। अब पुनः एक बार विद्वान ज्योतिषियों की सुविधा (या असुविधा?) के लिये मैं अपने सवाल दोहरा देता हूँ-

प्रश्न १ – यदि दूरस्थ ग्रहों का प्रभाव मानव पर पड़ता है, तो कैसे पड़ता है? क्या इस सम्बन्ध में ज्योतिषियों ने कोई अध्ययन किये हैं, यदि हाँ तो इन्हें किस जर्नल में प्रकाशित किया है? किस ग्रह का असर कितना होता है, क्या यह विस्तार से बताया गया है?

प्रश्न २ – क्या राहु-केतु नामक ग्रह होते हैं? या यह काल्पनिक हैं? यदि होते हैं, तो सौरमंडल में उनकी सही स्थिति और कोण आदि क्या है? और यदि काल्पनिक हैं, तो उनका असर कुंडलियों और जीवन पर कैसे पड़ता है? क्यों राहु और केतु का दशा काल 18 और 7 वर्ष रखा गया है? कोई अध्ययन या वैज्ञानिक ग्रन्थ हो तो “रेफ़रेन्स” दें।

प्रश्न ३ – एक ही स्थान, एक ही समय, एक ही परिवार, एक ही पृष्ठभूमि में जन्म लेने वाले दो जुड़वाँ बच्चों के कर्म, आचरण, शिक्षा, विवाह, बच्चों का जन्म और मृत्यु आदि में अन्तर क्यों आना चाहिये? (“भाग्य में लिखा है” नामक जवाब छोड़कर)

फ़लज्योतिष या भविष्यवक्ताओं को असुविधा में डालने के लिये कई ऐसे विषय हैं, जिन पर ज्योतिषी सीधे तौर कुछ भी बोलने से बचते रहते हैं, इसीलिये कई लोग अब यह मानने लगे हैं कि ज्योतिष या भविष्यकथन आदि के जो दावे किये जाते हैं वह दरअसल Law of Probability (संभाव्यता के सिद्धांत) पर आधारित होते हैं। यदि मेरे पास दस व्यक्ति प्रश्न पूछते हैं कि गुरुजी मेरी भैंस खो गई है, कहाँ मिलेगी? और मैं उन दसों व्यक्तियों को कहूँ कि जाओ बच्चा, तुम्हारी भैंस पूर्व दिशा में मिलेगी... तो इस बात की संभावना 40% से भी अधिक है कि सच में भैंस पूर्व दिशा में ही मिले, अर्थात मेरे चार भगत तो पक्के बन गये, बाकी के छः लोग भी अपने मन को किसी कारण से समझा लेंगे, लेकिन “बाबा” को दोष कतई नहीं देंगे। यदि भविष्यकथन इतना ही सही होता तो तमाम ज्योतिषी शेयर मार्केट में पैसा लगाकर रातोंरात अरबपति हो जाते, लेकिन ऐसा है नहीं, वरना मुकेश अम्बानी की जन्मपत्रिका देखकर कोई महान ज्योतिषी आसानी से बता सकता है कि “रिलायंस पेट्रोलियम” का शेयर अगले तीन साल में कितना “रिटर्न” देगा, ऐसा दावा अभी तक किसी ज्योतिषी से सुनने में तो नहीं आया है।

ज्योतिष के मूल सिद्धांत अर्थात “जन्म समय” जिस पर सारा ज्योतिष टिका हुआ है, जब वही विवादों के घेरे में हो तब सही भविष्यवाणी कैसे की जा सकती है। जन्म समय किसे माना जाये? जब गर्भ में पहली बार कोई जीव जन्म लेता है तब (यह तो खुद माँ-बाप भी नहीं बता सकते)...यदि यह समय जीवात्मा के जीवन का नहीं माना जाता तो फ़िर कम से कम गर्भधारण का आठवाँ महीना तो माना ही जाना चाहिये, क्योंकि तब तक बच्चे की सुनने-समझने की शक्ति विकसित हो चुकी होती है (वरना अभिमन्यु के चक्रव्यूह भेद वाली “थ्योरी” धराशायी हो जायेगी)... या उस समय को माना जाये जब वह गर्भाशय से बाहर आता है तब... या फ़िर उस समय को जब उसकी नाल काटी जाती है और पहली बार उसके मुँह से आवाज निकलती है तब... ज्योतिषियों में इस पर मतभेद हैं, तो पहले यह बात तो स्पष्ट हो, फ़िर बाकी की बातें... क्योंकि इन सभी समय में कहीं नौ माह का, कहीं दो चार मिनट का तो कहीं-कहीं दस पन्द्रह मिनट का अन्तर भी आना स्वाभाविक है। जब हमारे ज्योतिषी बन्धु इस बात पर जोर देते हैं कि हर पन्द्रह मिनट में ग्रहों की स्थिति बदल जाती है, तब इतने बड़े अन्तर से तो कुछ का कुछ हो सकता है। और इस बात की भी क्या गारंटी है कि नर्स ने प्रसूतिगृह से बाहर आकर जो समय बताया वही सही हो, उसमें भी हेर-फ़ेर हो ही सकता है... फ़िर कैसे सही भविष्य देखा जायेगा?

अब बात आती है चुनौतियों की, डॉ.अब्राहम कोवूर (भारत में जन्मे और फ़िलहाल श्रीलंका में स्थाई निवासरत) नामक एक वैज्ञानिक ने वर्षों पहले भारत में चल रहे अंधविश्वासों और “बाबागिरी” के चमत्कारों(?) को लेकर कुछ चुनौतियाँ दी थीं, जैसे बन्द कमरे में कथित चमत्कार दिखाना, कम से कम कपड़ों में चमत्कार दिखाना, अंगूठी, भभूत जैसी छोटी चीजों की बजाय हवा में से कद्दू, गन्ना जैसी वस्तुयें प्रकट करना आदि शामिल थीं (इन चुनौतियों को स्वीकार करने और करके दिखाने पर इनाम राशि उस वक्त एक लाख रखी थी, जो अब बढ़कर पाँच लाख कर दी गई है)। आज तक इन चुनौतियों को किसी ने स्वीकार नहीं किया है। १ से ३ दिसम्बर १९८५ को तीसरे अखिल भारतीय ज्योतिष सम्मेलन में इन्हीं डॉ.कोवूर ने ज्योतिषियों को भी निम्नलिखित चुनौतियाँ दी थीं-

(१) ज्योतिषियों को दस अचूक जन्मसमय की कुंडलियाँ दी जायेंगी और साथ ही दस हाथों के निशान कागज पर दिये जायेंगे, उन्हें सिर्फ़ यह बताना होगा कि सम्बन्धित व्यक्ति जीवित है या मृत? तथा स्त्री है या पुरुष?

(२) इसी प्रकार दूसरे दस कुंडलियों और अंगूठे के निशान के समूह के आधार पर सम्बन्धित व्यक्ति के शिक्षण, विवाह, दुर्घटनायें, नौकरी/व्यवसाय और मृत्यु की बाबत भविष्यवाणियाँ करना हैं, यदि अस्सी प्रतिशत भी सही निकल जायें तो हम (अर्थात महाराष्ट्र अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति) इसे विज्ञान मान लेंगे।

(३) ऊपर दी गई पद्धति के अनुसार विख्यात ज्योतिषियों (जिनका चयन भी ज्योतिषियों की महासमिति ही करे) को अलग-अलग कमरों में बैठाकर भविष्यकथन करवाया जायेगा। इससे यह सिद्ध होगा कि भारत के नामचीन ज्योतिषियों द्वारा एक जैसी कुंडलियों और समय के आधार पर किया गया कथन सत्य से कितना दूर होगा और उन्हीं महानुभावों के आपस में एक-दूसरे के विरोधी कथन आने पर समाज के सामने असलियत आ सकेगी।

लेकिन इस चुनौती को स्वीकार करने के लिये आज तक कोई तैयार नहीं हुआ है...फ़िर वे इसे विज्ञान कैसे कह सकते हैं? अभी तो मेरे पास कई प्रश्न हैं, फ़िलहाल लेख के शुरुआत में दिये हुए तीन प्रश्नों का उत्तर जान लूँ, और इन चुनौतियों के बारे में महान लोगों के विचार देखूँ, फ़िर आगे और सवाल होंगे... ज्योतिषीगण कृपया इनके जवाब दें, चाहे तो अपने ब्लॉग पर ही दें, या मुझे व्यक्तिगत मेल करें...
(सन्दर्भ : महाराष्ट्र अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति एवं प्रकाश घाटपांडे, पुणे)

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Superstitions, Education and Urban Community

मध्यप्रदेश के मालवा निमाड़ अंचल में इन दिनों “हरे काँच की चूड़ियाँ पहनो” नामक अंधविश्वास चल रहा है। एक अफ़वाह के अनुसार यदि महिलायें हाथों में हरे काँच की चूड़ियाँ पहनेंगी तो उनके सुहाग, बच्चे और घर-द्वार सुरक्षित रहेगा। यदि किसी महिला ने यह नहीं पहनीं तो भारी अनिष्ट हो जायेगा। मजे की बात तो यह है कि गाँवों की अनपढ़ महिलाओं के साथ-साथ पढ़ी-लिखी, शहरी और कम्प्यूटर का उपयोग करने वाली मूर्ख महिलायें भी इस अंधविश्वास के चक्कर में पड़ रही हैं। “नारी शक्ति” और अबला-सबला आंदोलन चलाने वाली, सिन्दूर और मंगलसूत्र को गुलामी की निशानी मानने वाली कई महिलायें भी इसकी चपेट में हैं। चूड़ी निर्माता और विक्रेता जमकर माल कूट रहे हैं।

इसी प्रकार कुछ माह पहले इसी अंचल में “जलेबी” नामक अंधविश्वास चला था, जिसके अनुसार ढाई सौ ग्राम जलेबी को पूजा करके नर्मदा में विसर्जित करना था, जिससे कि महिलाओं/लड़कियों के भाईयों के जीवन पर आया संकट टल जाये। हालत यह हो गई थी कि नर्मदा नदी में जलेबी की चाशनी और मैदे की लुगदी के कारण घोर प्रदूषण के चलते प्रशासन को अन्त में यह चेतावनी देना पड़ी कि इस प्रकार की “जलेबी विसर्जन” ना किया जाये अन्यथा कड़ी कार्रवाई की जायेगी। भाई लोगों ने जमी-जमाई दुकानदारी छोड़कर नर्मदा किनारे जलेबी की दुकानें खोल ली थीं, अफ़वाह चलाई, महिलाओं को बेवकूफ़ बनाया, और अच्छा कमाया। नर्मदा नदी प्रदूषित होती है तो होती रहे, उनकी बला से, यूँ भी साल में दो बार गणेश और दुर्गा पूजा की लाखों मूर्तियाँ प्रवाहित करके पानी गन्दा करते ही हैं।

इसी प्रकार उज्जैन या आसपास के नगरों में धर्मप्राण(?) जनता को मूक प्राणियों, गाय-ढोर को चारा खिलाने का शौक होता है, उनका मानना है कि इससे पुण्य(?) मिलता है। अब यहाँ गणित यह खेला जाता है कि आवारा पशु, गाय-बैल आदि सड़क पर छोड़ दिये जाते हैं, फ़िर वही व्यक्ति खुद एक ठेला लेकर घास बेचने बैठ जाता है, घास बेच कर भी कमा लेता है, और अपने आवारा पशु को फ़ोकट में चारा भी खिलवा लेता है, सड़क पर गाय-बैल गोबर करते रहें, लोग टकरा-टकरा कर गिरते रहें, न प्रशासन को कोई मतलब होता है, ना ही धर्मालुओं(?) को, आखिर “धर्म” का मामला जो ठहरा। एक बात तो सिद्ध है, कि शिक्षा प्रसार का अंधविश्वास से कोई लेना-देना नहीं होता। हमारे एक पड़ोसी जो Ph.D. वाले डॉक्टर हैं, मुहूर्त देखकर घर से निकलते हैं, इसी प्रकार एक और MD डॉक्टर हैं जो पंचांग देखकर महत्वपूर्ण ऑपरेशन करते हैं, अब इसे क्या कहा जाये?

इस लगातार जारी मूर्खता का एक और प्रमाण हैं इंटरनेट पर सतत जारी ई-मेल अंधविश्वास अभियान, जिसमें आपसे कहा जाता है कि यह मेल जादू और चमत्कार भरी है, इसे आप बीस लोगों को Forward करेंगे तो आपको खजाना और सुख-समृद्धि प्राप्त होगी, पढ़े-लिखे लोग बगैर सोचे-समझे इसे Forward कर भी देते हैं। मेरे पास जब ऐसी कोई मेल आती है तो सबसे पहले उसे “कचरा पेटी” (Delete) का रास्ता दिखाता हूँ (वह भी Shift दबाकर)| लेकिन सिवाय माथा पीटने के या फ़िर हँसने के और क्या चारा रह जाता है? जब शिक्षित होकर भी लोगबाग इस तरह की हरकतें करते हैं तो गुस्सा भी आता है, शर्म भी आती है, और कभी-कभी लगता है कि क्यों हम खामख्वाह गाँव वालों और अनपढ़ों के पीछे पड़े रहते हैं, पहले शहरों में तो लोग छींकने और बिल्ली के रास्ता काटने जैसे घटियातम अंधविश्वासों से बाहर निकलें। लेकिन इसका कोई इलाज नहीं है।

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Astrology Supporters Logic Question

ज्योतिष सम्बन्धी मेरे पिछले लेखों “यह” और “यह” पर जैसी अपेक्षित थी वैसी ही प्रतिक्रिया आई, अर्थात अधिकतर विरोध में या फ़िर तटस्थ रूप में। ज्योतिषियों और ज्योतिष समर्थकों से ऐसी ही कुछ उम्मीद की थी मैने, लेकिन मुझे सबसे अधिक आश्चर्य इस बात का हुआ कि मेरे तर्कों के समर्थन में या उन्हें आगे बढ़ाते हुए कोई टिप्पणी तो दूर एक ई-मेल तक नहीं मिला। मैंने सोचा था कि बहस-मुबाहिसा होगा, कुछ नये विचार जानने को मिलेंगे, लेकिन सब व्यर्थ... इससे मेरी इस धारणा को और बल मिला कि या तो बुद्धिजीवी वर्ग और जनता इस विषय पर कुछ अप्रिय बोलने से बचते है, या फ़िर मन में गहरे बसे संस्कार उसे इस प्राचीन अध्ययन का विरोध करने या उसमें नुक्स निकालने से रोकते हैं। “प्राचीन अध्ययन”, मैने इसलिये कहा क्योंकि यह है ही प्राचीन... लेकिन हरेक प्राचीन विद्या या खोज हमेशा ही सच नहीं मानी जा सकती (यह मैंने नहीं महात्मा बुद्ध ने कहा है).... हमेशा यह नहीं कहा जा सकता कि वेदों, पुराणों और ग्रंथों मे यह लिखा है, इसलिये सतत्‌ यह खरा माना जायेगा, हमें इस पर विश्वास है.... जबकि असल में इसी का नाम अंधविश्वास है।

मजे की बात तो यह है कि मेरे विरोध में Anonymous (बेनामी) टिप्पणियाँ और ई-मेल भी आये, मानो पहचान उजागर हो जाने पर मैं उनका गला पकड़ लूँगा। तो तमाम ज्योतिष समर्थकों से मैं सिर्फ़ यही कहना चाहता हूँ कि भाई लोगों मैं तो पहले ही कह चुका हूँ कि मैं अज्ञानी हूँ, मुझे ज्ञान दो, मुझे समझाओ कि राहु-केतु कहाँ स्थित हैं? मेरे दिमाग में बैठाओ कि दूरस्थ ग्रहों का असर कैसे और किस सीमा तक होता है? कोई reference देकर मुझे बतायें कि फ़लाँ-फ़लाँ पुस्तक में इनके जवाब हैं, तो मैं उसे पढ़ सकूँ, लेकिन सिर्फ़ “तू अज्ञानी है, तू मूर्ख है, तू विधर्मी है, तुझे इस महान विद्या के बारे में कुछ पता नहीं है” आदि कहने से तो काम नहीं चलेगा ना... आईये देखते हैं एक ऐसी ही टिप्पणी को... सज्जन “बेनामी” हैं, और लिखते हैं –

aatmamugdhata ki parakashtha he aapke lekh.mere kuch chote chote aur tuccha prashno ka uttar dijiye taki mujhe aapka mansik star samajh aaye jyotish k vishay me ....
1.aap khud kitna jante he jyotish k bare me?
2.kitne jyotish k granth aapne khud padh liye he ?
3.sanskrit ka kitna gyan he aapko ki aap yeh granth padh paye?
4.aapne jo bhi likha he usme aapke khud k anubhav,ya shodh kiye huye kitne tatthya he ?
....pahle khud ko tatoliye janab aur fir aage ki baatein kijiye .....pahle us star par to aaiye ki aapko kuch samjhaya jaye....fir aapke tathakathit adhunik vaigyanik prashno k uttar aapko jaroor diye jayenge....


इस टिप्पणी से जाहिर है कि ये कोई महान(?) ज्योतिषी ही होंगे, मुझे “आत्ममुग्ध” तो बताते ही हैं, साथ में मुझे “नालायक” भी घोषित करते हैं, मैं राहु-केतु के बारे में पूछता हूँ तो “पहले कुछ बनिये, फ़िर बात करेंगे” वाली पर आ जाते हैं, भाई साहब चलो मान लिया कि मैं तो कीड़ा-मकोड़ा हूँ, एकदम तुच्छ प्राणी, जिसे कोई ज्ञान नहीं, लेकिन ज्ञान लेने ही तो ब्लॉगिंग की दुनिया में आया हूँ (यह सोचकर कि यहाँ एक से बढ़कर एक ज्ञानी-ध्यानी हैं और मुझे कुछ नया मिलेगा), फ़िर आप मुझे संक्षेप में ही सारे प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं देते? क्या ज्योतिष सम्बन्धी सारी पुस्तकें और ग्रन्थ संस्कृत में ही हैं? मेरे तर्क नासमझ ही सही, लेकिन क्या उनके लिये भी ग्रंथ पढ़ना पड़ता है, सामान्य बुद्धि से काम नहीं चलेगा? मेरा मानसिक स्तर तो बहुत घटिया है, लेकिन आप अपना भी तो मानसिक स्तर बताइय़े ना, ताकि यह पता चले कि जो अपना नाम तक जाहिर करने से डर रहा है, कितना विद्वान है?

रही बात मेरे व्यक्तिगत अनुभव की, तो मैंने ज्योतिष के प्रयोग(?) देखने के लिये अपनी कुंडली अब तक 17 ज्योतिषियों को दिखाई है और हर बार मुझे बहुत मजा आया (जॉनी वॉकर की कॉमेडी से भी ज्यादा), कोई बताता है कि तुम्हारा भाग्य ३० वर्ष की उम्र के बाद पलटेगा और बहुत पैसा आयेगा (जबकि ४३ वर्ष की उम्र में अभी भी मेरे पास एक पुरानी बाइक ही है), एक ने बताया था कि तुम शिक्षा में बहुत नाम कमाओगे (जबकि मैं बी.एससी. भी पूरी नहीं कर पाया), एक ने बताया था कि तुम सरकारी नौकरी में जाओगे (मैं बिजनेस करता हूँ), अब इनका मैं क्या करूँ, या तो वे सब के सब नालायक हैं, या फ़िर मेरा तथाकथित मंगल-राहु-शनि आदि इतने भारी-भरकम हैं कि वे इन ज्योतिषियों पर भी भारी पड़ते हैं... इसे विज्ञान का नाम कैसे दिया जा सकता है? विज्ञान में एक जैसे 17 प्रयोगों के परिणाम अलग-अलग नहीं आयेंगे।

अब आते हैं कुछ तथ्यात्मक टिप्पणी पर, “गत्यात्मक ज्योतिष” नामक ज्योतिष की एक नई शाखा के बारे में सुश्री संगीता जी काफ़ी लिखती हैं, और अच्छा लिखती हैं, उन्होंने कहा-
“मैं बस इतना ही कह सकती हूं कि योगा और आयुर्वेदा की तरह ही जब तक ज्योतिष ज्योतिशा के रुप में हमारे देश में वापस नहीं लौटेगा , हम इसके महत्व को स्वीकार कर ही नहीं पाएंगे।“

इसमें उन्होंने योग और आयुर्वेद को ज्योतिष से जोड़ दिया, जबकि योग और आयुर्वेद Result Oriented हैं, दोनों ने यह सिद्ध किया है कि फ़लाँ आसन लगाने से फ़लाँ बीमारी में फ़ायदा होता है या आयुर्वेद के अनुसार कोई दवा-काढ़ा पीने से कोई रोग ठीक होता है, ऐसा कुछ ज्योतिष ने तो सिद्ध नहीं किया है, कि इस कुंडली में यह योग बन रहा है तो यह होकर ही रहेगा। बहुत सारे “किन्तु-परन्तु, कर्म, भाग्य आदि के पुछल्ले जोड़कर” एक संभावना व्यक्त की जाती है, इसलिये इसे योग और आयुर्वेद से जोड़ना उचित नहीं है (ज्योतिष में तो जन्म समय पर ही विवाद है), संगीता जी ने अपने ब्लॉग पर Date of Birth के अनुसार विश्लेषण करके चुनौती दी कि इस दौरान जन्मे लोगों का जीवन अशांत होगा... आदि-आदि,

तो मैं आदरणीय संगीता जी से सिर्फ़ इतना ही कहना चाहता हूँ कि डॉ.अब्राहम कोवूर द्वारा दी गई चुनौतियों में से आज तक एक पर भी काम क्यों नहीं हुआ? ज्योतिष को विज्ञान सिद्ध करने का वह एक सुनहरा अवसर और अध्ययन है। सारे ज्योतिष विरोधियों के मुँह बन्द हो जायेंगे। और रही बात “योगा” और “आयुर्वेदा” की, तो “ज्योतिषा” पर भी पश्चिम में काफ़ी शोध हुए हैं, चर्चायें हुईं, प्रकाशन हुए हैं और उनमें से अधिकतर ने फ़लज्योतिष, मंगल प्रभाव या भविष्यकथन को तथ्यों से दूर ही पाया है (इनके reference मैं आपको आपके blog पर ही दूँगा)। अगली टिप्पणी में आप पायेंगे ज्योतिषियों का सनातन बहाना, जरा गौर फ़रमायें (ये भी मुझे बेनामी ही प्राप्त हुई है)-

“ab koi apni ladki ki patrika thik se kyon nahi padh paya...iske peeche do karan hain - jyotish koi brahmawakya nahi hai...jyotishi bhi manushya hai, ganana mein galtiyan ho sakti hain...dusara, jyotishi jo bhi bhavishya baanchata hai woh khara isliye bhi nahi utarta yeh manushya ke karmon pe nirbhar karta hai....hamara ek bhavishya hai...lekin hum karam bhi karte hain....aur unhi karmon ki wajah se hamara bhavishya badal sakta hai.”

ये साहब फ़रमाते हैं कि ज्योतिष कोई ब्रह्मवाक्य नहीं है, गणना में गलती हो सकती है आदि-आदि... तो साहब यही तो मैं भी कह रहा हूँ कि आप मानिये ना कि ज्योतिष कोई स्थापित विज्ञान या सत्य नहीं है, यह सिर्फ़ सम्भावना व्यक्त करता है भाग्य, कर्म, जन्म आदि का पुछल्ला लगाकर, तो भाई यदि सभी कुछ भाग्य के अनुसार ही होना है तो ज्योतिषी किस मर्ज की दवा हैं?

एक सज्जन ने तर्क दिया कि जब एलोपैथी के भी काफ़ी प्रयोग असफ़ल हो जाते हैं तो वे फ़िर नई दवा ईजाद करते हैं, एलोपैथी भी सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है आदि-आदि... मैं भी तो यही कह रहा हूँ कि कोई भी ज्ञान सम्पूर्ण नहीं होता, उसमें सतत्‌ प्रयोग चलते रहना चाहिये, अनुसन्धान होते रहना चाहिये। डॉक्टर कम से कम अपनी असफ़लता को स्वीकार तो करते हैं कि “हाँ, हमसे “डायग्नोस” करने में गलती हुई” या फ़िर “अब इसके आगे हमारे मेडिकल साइंस में कुछ नहीं है, मरीज को घर ले जाओ और दुआ करो”। डॉक्टर और चिकित्सा तो उपभोक्ता कानून के अन्तर्गत भी आते हैं, उन पर जिम्मेदारी आयद होती है, तय की जाती है, सजा होती है, अदालते हैं, मेडिकल फ़ोरम है..... ज्योतिष में यह सब नहीं है, कोई जिम्मेदारी नहीं, गलती हो जाये (जो कि कई बार हो ही जाती है) तो कोई सजा नहीं, कोई उपभोक्ता अदालत में घसीटने वाला नहीं है (सरकार से मैं माँग करता हूँ कि “यजमान” को भी ज्योतिषी की सेवाओं का उपभोक्ता माना जाना चाहिये), गरज यह कि एकदम बगैर किसी जिम्मेदारी का धन्धा है ज्योतिष, भविष्यवाणी सही निकली तो हमारी जय-जय, और गलत निकली तो तुम्हारे कर्म-भाग्य फ़ूटे हुए... यानी मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू... ऐसे काम नहीं चलता है भईया।

अन्त में मेरा सिर्फ़ यही कहना है कि सिर्फ़ विरोध करने के लिये विरोध मत करो, कुछ तर्क रखो, कुछ तथ्य रखो, कुछ “रेफ़रेंस” दो, किसी पुस्तक का अध्याय बताओ..... मैं तो मूढ़मति हूँ, इसलिये मेरे दिमाग में तो ऐसे अटपटे सवाल ही आते हैं, जवाब नहीं मालूम हों तो टिप्पणी मत करो, और मालूम हों तो विस्तार से लिखो, नहीं लिख सकते तो सिर्फ़ बताओ कि यहाँ-यहाँ-यहाँ तुम्हारे सवालों के जवाब हैं, खगोल शास्त्र और ज्योतिष का घालमेल मत करो, सिर्फ़ गरियाने या प्रतिकूल टिप्पणी से मैं डिगने, डरने वाला नहीं हूँ, ऐसे असुविधाजनक सवाल तो मैं पूछता रहूँगा...खुल्लमखुल्ला बगैर नाम छुपाये... और जल्दी ही आने वाले समय में कई लोग मेरे सवाल “धंधेबाजों” के सामने दोहराते हुए मिल जायेंगे...

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Slazing, Cricket, Gentleman Game

विकीपीडिया के अनुसार “स्लेजिंग” का मतलब है “विपक्षी खिलाड़ी को शब्द-बाणों से मानसिक संताप देकर उसका स्वाभाविक खेल बिगाड़ना”... क्रिकेट को भद्रजनों का खेल माना जाता है, माना जाता है इसलिये लिख रहा हूँ कि जब आप यह लेख पूरा पढ़ लेंगे तब इसे भद्रजनों का खेल मानेंगे या नहीं, कहना मुश्किल है। क्रिकेट में “स्लेजिंग” कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस स्लेजिंग या शब्दों के आक्रामक आदान-प्रदान के दौरान कई बार मजेदार स्थितियाँ भी बन जाती हैं, कई बार दाँव उलटा भी पड़ जाता है। मैंने अपने पिछले क्रिकेट लेख में पाठकों से वादा किया था कि क्रिकेट इतिहास की कुछ प्रसिद्ध(?) स्लेजिंग के बारे में लिखूँगा, तो पेश हैं कुछ खट्टी-मीठी, कुछ तीखी स्लेजिंग, जिसमें कई प्रसिद्ध खिलाड़ी शामिल हैं (महिला पाठकों से मैं अग्रिम माफ़ी माँगता हूँ, कोई-कोई वाक्य अश्लील हैं, लेकिन मैं भी मजबूर हूँ, जो महान(?) खिलाड़ियों के उद्‌गार हैं वही पेश कर रहा हूँ), लेकिन एक बात तो तय है कि स्लेजिंग से यह खेल नीरस और ऊबाऊ नहीं रह जाता, बल्कि इसमें एक “तड़का” लग जाता है, भारत दौरे पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाडियों के चिढ़ने का असली कारण यही था कि जिस स्लेजिंग के “खेल” में वे सबसे आगे रहते थे, उसी में भारतीय खिलाड़ी उनसे मुकाबला करने लगे।

स्लेजिंग की शुरुआत तो उसी समय हो गई थी, जब क्रिकेट के पितामह कहे जाने वाले इंग्लैंड के W.G.Grace ने एक बार अम्पायर द्वारा जल्दी आऊट दिये जाने पर उससे कहा था, “दर्शक यहाँ मेरी बल्लेबाजी देखने आये हैं, तुम्हारी उँगली नहीं”, समझे....और वे दोबारा बल्लेबाजी करने लगे। लेकिन एक बार जब गेंद से उनकी गिल्ली उड़ गई, तो ग्रेस महोदय सहजता से अम्पायर से बोले, “आज हवा काफ़ी तेज चल रही है, देखा गिल्लियाँ तक गिर गईं”, लेकिन अम्पायर साहब भी कहाँ कम थे, वे बोले, “हाँ वाकई हवा तेज है, और यह पेवेलियन जाते वक्त आपको जल्दी जाने में मदद करेगी”...।

डबल्यू जी ग्रेस को एक बार बहुत मजेदार “स्लेजिंग” झेलनी पड़ी थी, जब एक काऊंटी मैच में चार्ल्स कोर्टराईट नामक गेंदबाज की अपील चार-पाँच बार अम्पायर ने ठुकरा दी थी, और ग्रेस लगातार गेंदबाज को मुस्करा कर चिढ़ाये जा रहे थे, अन्ततः एक गेंद पर ग्रेस के दो स्टम्प उखड़ कर दूर जा गिरे, पेवेलियन जाते वक्त कोर्टराइट ने ताना मारा, “डॉक्टर..चाहो तो तुम अब भी खेल सकते हो, एक स्टम्प बाकी है...” और ग्रेस जल-भुनकर रह गये।

एक गेंद में हीरो से जीरो बनने का वाकया – वेंकटेश प्रसाद Vs आमिर सोहेल
विश्वकप में भारत ने पाकिस्तान को हमेशा हराया है। भारत में हुए विश्वकप के दौरान भारत के पहली पारी में बनाये गये 287/8 के स्कोर का पीछा करते हुए आमिर सोहेल और सईद अनवर ने 15 ओवर में 110 रन बना लिये थे, दोनो बल्लेबाज जहाँ चाहे वहाँ रन ठोक रहे थे, ऐसे में एक ओवर के दौरान वेंकटेश प्रसाद की गेंद पर आमिर सोहेल ने एक जोरदार चौका जड़ा, और प्रसाद को इशारा कर बताया कि तेरी अगली गेंद भी मैं वहीं पहुँचाऊँगा। वेंकटेश प्रसाद आमतौर पर शांत रहने वाले खिलाड़ी हैं। वे चुपचाप अगली गेंद डालने वापस गये, और भाग्य का खेल देखिये कि प्रसाद की अगली गेंद पर सोहेल बहादुरी दिखाने के चक्कर में बोल्ड हो गये, अब बारी प्रसाद की थी और उन्होंने पहली बार आपा खोते हुए चिल्लाकर आमिर को पेवेलियन की ओर जाने का इशारा किया, आमिर सोहेल का मुँह देखने लायक था। उस गेंद के बाद प्रसाद ने हजारों गेंदे फ़ेंकी होंगी, सैकड़ों विकेट लिये होंगे, लेकिन वह गेंद और उनका वह आक्रामक जवाब उन्हें (और हमें भी) आजीवन याद रहेगा। उस मैच में भी इतनी बेहतरीन शुरुआत के बावजूद पाकिस्तान भारत से हार गया था।

स्टीव वॉ और एम्ब्रोज प्रकरण-

यह वाकया दो महान खिलाडियों के बीच का है, त्रिनिदाद के एक टेस्ट मैच के दौरान जब कर्टली एम्ब्रोज अपनी आग उगलती गेंदों से स्टीव वॉ को परेशान किये हुए थे, अचानक स्टीव ने एम्ब्रोज को कहा - " What the f*ck are you looking at? " एम्ब्रोज भौंचक्के रह गये, क्योंकि आज तक उनसे किसी ने ऐसी भाषा में कोई बात नहीं की थी। एम्ब्रोज स्टीव की तरफ़ आक्रामक रूप से बढ़े और कहा, "Don't cuss me, man", लेकिन ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी किसी से हार नहीं मानते, स्टीव ने पलट कर फ़िर जवाब दिया-'Why don't you go and get f*cked.' " अब तो एम्ब्रोज लगभग स्टीव को मारने ही चले थे, वेस्टइंडीज के कप्तान रिची रिचर्डसन उन्हें बड़ी मुश्किल से संभाल पाये थे, वरना स्टीव वॉ एक घूँसा तो निश्चित खाते।

मैक्ग्राथ Vs एडो ब्रांडेस
एक बार जिम्बाब्वे की टीम के आखिरी बल्लेबाज एडो ब्रांडेस, मैक्ग्राथ के सामने खेल रहे थे, मैक्ग्राथ उन्हें आऊट करने की जी-तोड़ कोशिश करते रहे, ब्रांडेस ठहरे गेंदबाज, कभी गेंद चूक जाते, कभी कैच दूर से निकल जाता, कभी बल्ला कहीं लग जाता और गेंद कहीं और निकल जाती। जब आखिरी बल्लेबाज आऊट न हो रहा हो उस वक्त गेंदबाज सबसे ज्यादा निराश और गुस्से में होता है। मैक्ग्राथ चिढ़ कर ब्रांडेस से बोले- साले, तुम इतने मोटे क्यों हो?... हाजिरजवाबी की इन्तहा देखिये कि एक क्षण भी गँवाये बिना ब्रांडेस बोले, “क्योंकि जब-जब भी मैं तुम्हारी बीवी से प्यार करता हूँ, वह मुझे एक चॉकलेट देती है”... यह इतना तगड़ा झटका था कि ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी भी हँस पड़े थे।

विवियन रिचर्ड्स और ग्रेग थॉमस
यह वाकया काउंटी मैच के दौरान हुआ था, जब ग्लेमोर्गन और समरसेट के बीच मैच चल रहा था। ग्लेमोर्गन के तेज गेंदबाज ग्रेग थॉमस, महान रिचर्ड्स को दो-तीन बार “बीट” कर चुके थे, एक बाउंसर भी रिचर्ड्स की नाक के पास से गुजर चुका था, थॉमस ने कहा- “सुनो रिचर्ड्स, यह एक लाल गेंद है जो लगभग पाँच औंस की होती है, यदि तुम्हें पता न हो तो खेलना बन्द कर दो”, “किंग” के नाम से मशहूर रिचर्ड्स ने अगली दो गेंदों पर दो छक्के लगाये और ग्रेग से कहा- “ग्रेग जरा जाकर गेंद ढूँढो और मुझे बताओ कि वह कैसी लगती है”....

सचिन तेंडुलकर Vs अब्दुल कादिर
अमूमन भारतीय खिलाड़ी पहले के जमाने में किसी से उलझते नहीं थे, और तेंडुलकर तो शुरु से शांत खिलाड़ी रहे हैं और बल्ले से ही जवाब देत हैं। सन्‌की बात है, लिटिल मास्टर ने अपना पहला टेस्ट मैच पाकिस्तान में खेलना शुरु किया। उस वक्त उनकी उम्र ड्रायविंग लायसेंस प्राप्त करने लायक भी नहीं थी। पाकिस्तानी दर्शकों ने पोस्टर लगा रखे थे “दूध पीता बच्चा, घर जा के दूध पी”, सचिन ने लेग स्पिनर मुश्ताक अहमद के एक ओवर में दो छक्के लगाये। मुश्ताक के गुरु वरिष्ठ लेग स्पिनर अब्दुल कादिर से नहीं रहा गया, उसने कहा- “बच्चों को क्या मारता है बे, हमें भी मार कर दिखा”.... सचिन चुपचाप रहे, कादिर के अगले ओवर में सचिन सामने थे, बिना डरे उन्होंने 6, 0, 4, 6, 6, 6 का स्कोर उस ओवर में किया और दुनिया के सामने शंखनाद कर दिया कि एक महान खिलाड़ी मैदान में आ चुका है।

मैक्ग्राथ Vs रामनरेश सरवन
मई २००३ में एंटीगुआ टेस्ट के दौरान जब सरवन सभी ऑस्ट्रेलियन गेंदबाजों को धो रहे थे, उस वक्त मैक्ग्राथ का पारा गरम हो गया। वे लगातार सरवन को घूरते रहे, चिढ़ाते रहे, इशारे करते रहे, लेकिन सरवन आऊट नहीं हो रहे थे, मैक्ग्राथ ने एक भद्दी टिप्पणी की- "So what does Brian Lara's d*ck taste like?" सरवन ने भी तड़ से जवाब दिया- "I don't know. Ask your wife. " अब तो मैक्ग्राथ पूरी तरह उखड़ गये (क्योंकि उस समय उनकी पत्नी का कैंसर का इलाज चल रहा था), लगभग घूँसा तानते हुए मैक्ग्राथ ने कहा- "If you ever F*&king mention my wife again, I'll F*cking rip your F*fing throat out." लेकिन इसमें सरवन की कोई गलती नहीं थी, उन्होंने तो सिर्फ़ जवाब दिया था।

मार्क वॉ Vs एडम परोरे
मार्क वॉ जो अक्सर दूसरी स्लिप में खड़े रहते थे, हमेशा वहाँ से कुछ न कुछ बोलते रहते थे, एक बार उन्होंने एडम परोरे से कहा- "Ohh, I remember you from a couple years ago in Australia. You were sh*t then, you're fu*king useless now". परोरे ने जवाब दिया - "Yeah, that's me & when I was there you were going out with that old, ugly sl*t & now I hear you've married her. You dumb c*nt ".

रवि शास्त्री Vs माइकल व्हिटनी
भारत के एक और “कूल माइंडेड” खिलाड़ी रवि शास्त्री ने भी एक बार मजेदार जवाब दिया था। ऑस्ट्रेलिया में एक मैच के दौरान जब रवि शास्त्री एक बार रन लेने के लिये दौड़ने वाले थे, बारहवें खिलाड़ी माइकल व्हिटनी ने गेंद मारने के अन्दाज में कहा- “यदि तुमने एक कदम भी आगे बढ़ाया तो इस गेंद से मैं तुम्हारा सिर तोड़ दूँगा”, शास्त्री ने बगैर पलकें झपकाये जवाब दिया, “जितना तुम बोलने में अच्छे हो यदि उतना ही खेलने में अच्छे होते तो आज बारहवें खिलाड़ी ना होते”...

रॉबिन स्मिथ Vs मर्व ह्यूज
ऑस्ट्रेलिया के मर्व ह्यूज “स्लेजिंग” कला(?) के बड़े दीवाने थे, और लगातार कुछ ना कुछ बोलते ही रहते थे। एक बार लॉर्ड्स टेस्ट के दौरान जब एक-दो बार रॉबिन स्मिथ उनकी गेंद चूके तो ह्यूज बोले- “ए स्मिथ तुम्हें बल्लेबाजी नहीं आती”। अगली दो गेंदों पर दो चौके लगाने के बाद स्मिथ ने कहा-“ए मर्व, हम दोनों की जोड़ी सही रहेगी, मुझे बल्लेबाजी नहीं आती और तुम्हें गेंदबाजी...”

ऐसा नहीं है कि स्लेजिंग सिर्फ़ विपक्षी खिलाडियों में ही होती है, कई बार एक ही टीम के खिलाड़ी भी आपस में भिड़ लेते हैं (पाकिस्तान इस मामले में मशहूर है)। एक बार इंग्लैंड का पाकिस्तान दौरा चल रहा था, फ़्रैंक टायसन बहुत मेहनत से गेंदबाजी कर रहे थे, अचानक एक कैच स्लिप में रमन सुब्बाराव नामक खिलाड़ी की टाँगों के बीच से निकल गया। ओवर समाप्त होने के बाद रमन ने टायसन से माफ़ी माँगते हुए कहा, “सॉरी यार मुझे टाँगों के बीच गैप नहीं रखना था”... टायसन जो कि नस्लभेदी मानसिकता के थे, ने कहा- हरामी, तुम्हें नहीं बल्कि तुम्हारी माँ को टाँगों के बीच गैप नहीं रखना था”....

दो बदमजा वाकये –
ये दो वाकये हालांकि “स्लेजिंग” की श्रेणी में नहीं आते लेकिन यदि यह पूरी तौर से घटित हो जाते तो क्रिकेट इतिहास में काले धब्बों के नाम पर गिने जाते।

पहला वाकया है डेनिस लिली और जावेद मियाँदाद के बीच का- ऑस्ट्रेलिया में एक मैच के दौरान एक रन लेते समय मियाँदाद, लिली से टकरा गये। मियाँदाद के अनुसार लिली ने उन्हें जानबूझकर रन लेने से रोकने की कोशिश की थी। उस टक्कर के बाद अचानक, गुस्सैल लिली, मियाँदाद के पास पहुँचे और उनके पैड पर एक लात जड़ दी। मियाँदाद भी गुस्से से बैट लेकर आगे बढे और लिली के सिर पर प्रहार करने ही वाले थे, लेकिन अम्पायर ने किसी तरह बीच-बचाव किया और दोनों को शांत किया।

दूसरी घटना है गावसकर और लिली के बीच की, मेलबोर्न टेस्ट के दौरान जब गावस्कर 70 रनों पर खेल रहे थे, तब लिली ने एक एलबीडब्लयू की अपील की, गावसकर ने अम्पायर को अपना बल्ला दिखाते हुए कहा कि गेंद उनके बल्ले से लगने के बाद पैड पर लगी है, लेकिन लिली को धैर्य कहाँ, वे तेजी से आगे बढ़े और गावसकर के पैड पर इशारा करके बताया कि गेंद यहाँ लगी और पास आकर धीरे से एक गाली दी, अम्पायर के आऊट देने के बाद गावसकर जब पेवेलियन वापस जाने लगे तब लिली ने एक और गाली दी, बस तब गावसकर दिमाग खराब हो गया, वे चार कदम वापस लौटे और अपने साथी खिलाड़ी चेतन चौहान को साथ लेकर पेवेलियन जाने लगे। सभी हक्के-बक्के हो गये, क्योंकि इस तरह से किसी कप्तान और बल्लेबाज का मैदान छोड़कर जाना हैरानी भरा ही था। तत्काल मैनेजर और वरिष्ठ अधिकारियों ने बात को मैदान में आकर संभाला, वरना जो अर्जुन रणतुंगा और इंजमाम ने किया था, वह गावस्कर पहले ही कर चुके होते। हालांकि बाद में गावस्कर ने अपनी पुस्तक में इस घटना के बारे में लिखा था कि “वह निर्णय मेरे द्वारा लिया आवेश में गया एक बेहद मूर्खतापूर्ण कदम था”....

गावस्कर को ही एक बार रिचर्ड्स ने मजाक में ताना मारा था, हुआ यह था कि गावस्कर ने एक बार यह तय किया कि वह नम्बर चार पर बल्लेबाजी करने आयेंगे... और संयोग यह हुआ कि मैल्कम मार्शल ने पहली दो गेंदों पर ही अंशुमन गायकवाड़ और दिलीप वेंगसरकर को आऊट कर दिया था, गावस्कर जब बल्लेबाजी करने उतरे तो स्कोर था 0/2, रिचर्ड्स ने मजाक में कहा, “सनी तुम चाहे जो कर लो, तुम जब भी बल्लेबाजी के लिये उतरोगे, स्कोर 0 ही रहेगा”.....

स्टीव वॉ Vs पार्थिव पटेल
अपने आखिरी टेस्ट मैच में स्टीव बढिया बल्लेबाजी कर रहे थे, 19 वर्षीय पार्थिव विकेटकीपर थे, स्टीव वॉ स्वीप पर स्वीप किये जा रहे थे, पटेल से नहीं रहा गया, वह बोला- “कम ऑन क्रिकेट में आखिरी बार अपना स्वीप चला कर दिखा दो”... 38 वर्षीय स्टीव ने जवाब दिया, “कम से कम बड़ों के प्रति कुछ तो इज्जत दिखाओ, जब तुम लंगोट में थे तब मैं टेस्ट खेलना शुरु कर चुका था”.... उसके बाद पार्थिव पूरे मैच कुछ नहीं बोले....

1960 में जब इंग्लैंड के क्रिकेट मैदानों में पेवेलियन से आने के लिये एक लकड़ी का छोटा सा दरवाजा लगा होता था, एक नया बल्लेबाज क्रीज पर आने के लिये पेवेलियन से निकला और मैदान में आकर वह पीछे का लकडी का दरवाजा बन्द करने लगा, तब फ़्रेड ट्रूमैन तत्काल बोले, “रहने दो, खुला ही रहने दो बच्चे, तुम्हें जल्दी ही तो वापस आना है”....

1980 में इयान बॉथम का वह बयान बहुत चर्चित हुआ था, जिसमें उन्होंने कहा था, “पाकिस्तान नाम की जगह इतनी घटिया है कि हरेक व्यक्ति को अपनी सास को वहाँ भेजना चाहिये”, जाहिर है पाकिस्तानी इस बयान का बदला लेने के को बेताब थे। जब 1992 के विश्वकप में पाकिस्तान ने इंग्लैंड को हराया, तब आमिर सोहेल ने इयान बोथम से कहा, “क्यों नहीं तुम अपनी सास को पाकिस्तान भेजते, कम से कम वह तुम लोगों से तो अच्छा ही खेलेगी”.....

एक बार इंजमाम ने ब्रेट ली को खिजाते हुए कहा था, “यार स्पिन गेंदें फ़ेंकना बन्द करो”, और ऐसे ही भारत के पिछले पाक दौरे पर शाहिद अफ़रीदी ने पठान के बल्लेबाजी के लिये उतरने पर सीटी बजाते हुए कहा था, “ओय होय, मेरा शहजादा आ गया...”

तो पाठक बन्धुओं, स्लेजिंग तो क्रिकेट में सनातन चली आ रही है, और यह बढ़ती ही जायेगी, जब तक कि एकाध बार फ़ुटबॉल जैसी मारामारी (जिनेदिन झिडान जैसी) न हो जाये। एक बात तो तय है कि गोरे खिलाड़ी नस्लभेदी मानसिकता से ग्रस्त हैं, वे सोचते हैं कि सिर्फ़ हम ही स्लेजिंग कर सकते हैं, क्योंकि हम “श्रेष्ठ” हैं, साथ ही एक और निष्कर्ष निकलता है कि जिस प्रकार एशियाई खिलाड़ी अपनी माँ-बहन की गाली के प्रति संवेदनशील होते हैं, अंग्रेज खिलाड़ी अपनी पत्नी की गाली के प्रति होते हैं.... अस्तु। स्लेजिंग के और भी बहुत से उदाहरण दिये जा सकते हैं, लेकिन ज्यादा लम्बा लेख हो जायेगा तो ठीक नहीं होगा.... और हाँ... भगवान के लिये क्रिकेट को “भद्रजनों का खेल” (Gentlemen Game) कहना बन्द कीजिये। आमीन....

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