desiCNN - Items filtered by date: मार्च 2009
भास्कर ग्रुप के DNA अखबार द्वारा इज़राइल की कम्पनी और भारत सरकार के बीच हुए मिसाइल खरीद समझौते की खबरें लगातार प्रकाशित की जा रही हैं। बाकायदा तारीखवार घटनाओं और विभिन्न सूत्रों के हवाले से 600 करोड़ रुपये के इस घोटाले को उजागर किया गया है, जिससे राजनैतिक हलकों में उठापटक शुरु हो चुकी है, और इसके लिये निश्चित रूप से अखबार बधाई का पात्र है।

जिन पाठकों को इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है उनके लिये इस सौदे के कुछ मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं –

1) मिसाइल आपूर्ति का यह समझौता जिस कम्पनी इज़राइल एयरोस्पेस इंडस्ट्री (IAI) से किया गया है वह पहले से ही “बराक” मिसाइल घोटाले में संदिग्ध है और मामले में दिल्ली के हथियार व्यापारी(?) नंदा पर सीबीआई केस दायर कर चुकी है।

2) इस सौदे में IAI अकेली कम्पनी थी, न कोई वैश्विक टेण्डर हुआ, न ही अन्य कम्पनियों के रेट्स से तुलना की गई।

3) बोफ़ोर्स, HDW और इस प्रकार की अन्य कम्पनियों को संदेह होते ही अर्थात सीबीआई में मामला जाने से पहले ही हथियार खरीद प्रक्रिया में “ब्लैक लिस्टेड” कर दिया गया था, लेकिन इस इज़राइली फ़र्म को आज तक ब्लैक लिस्टेड नहीं किया गया है।

4) ज़मीन से हवा में मार करने वाली इसी मिसाइल से मिलती-जुलती “आकाश” मिसाइल भारत की संस्था DRDO पहले ही विकसित कर चुकी है, लेकिन किन्हीं संदिग्ध कारणों से यह मिसाइल सेना में बड़े पैमाने पर शामिल नहीं की जा रही, और इज़राइली कम्पनी कि मिसाइल खरीदने का ताबड़तोड़ सौदा कर लिया गया है।

5) इस मिसाइल कम्पनी के संदिग्ध सौदों की जाँच खुद इज़राइल सरकार भी कर रही है।

6) इस कम्पनी की एक विज्ञप्ति में कहा जा चुका है कि “अग्रिम पैसा मिल जाने से हम इस सौदे के प्रति आश्वस्त हो गये हैं…” (यानी कि काम पूरा किये बिना अग्रिम पैसा भी दिया जा चुका है)।

7) 10,000 करोड़ के इस सौदे में “बिजनेस चार्जेस” (Business Charges) के तहत 6% का भुगतान किया गया है अर्थात सीधे-सीधे 600 करोड़ का घोटाला है।

8) इस संयुक्त उद्यम में DRDO को सिर्फ़ 3000 करोड़ रुपये मिलेंगे, बाकी की रकम वह कम्पनी ले जायेगी। भारत की मिसाइलों में “सीकर” (Seeker) तकनीक की कमी है, लेकिन यह कम्पनी उक्त तकनीक भी भारत को नहीं देगी।

9) केन्द्र सरकार ने इज़राइल सरकार से विशेष आग्रह किया था कि इस सौदे को फ़िलहाल गुप्त रखा जाये, क्योंकि भारत में चुनाव होने वाले हैं।

10) सौदे पर अन्तिम हस्ताक्षर 27 फ़रवरी 2009 को बगैर किसी को बताये किये गये, अर्थात लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक दो दिन पहले।

(यह सारी जानकारियाँ DNA Today में यहाँ देखें…, यहाँ देखें और यहाँ भी देखें, दी जा चुकी हैं, इसके अलावा दैनिक भास्कर के इन्दौर संस्करण में दिनांक 22 से 28 मार्च 2009 के बीच प्रकाशित हो चुकी हैं)

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तो यह तो हुई घोटाले में संदिग्ध आचरण और भारत में भ्रष्टाचार की जननी कांग्रेस सरकार की भूमिका, लेकिन पिछले एक-दो महीने (बल्कि जब से यह सौदा सत्ता और रक्षा मंत्रालय के गलियारे में आया तब) से हमारे भारत के महान चैनल, स्वयंभू “सबसे तेज़” चैनल, खासतौर पर गुजरात का कवरेज करने वाले “सेकुलर” चैनल, भूतप्रेत चुड़ैल और नौटंकी दिखाने वाले चैनल, “न्यूज़” के नाम पर छिछोरापन, राखी सावन्त और शिल्पा शेट्टी को दिखाने वाले चैनल…… आदि-आदि-आदि सभी चैनल कहाँ थे? क्या इतना बड़ा रक्षा सौदा घोटाला किसी भी चैनल की हेडलाइन बनने की औकात नहीं रखता? अभिषेक-ऐश्वर्या की करवा चौथ पर पूरे नौ घण्टे का कवरेज करने वाले चैनल इस खबर को एक घंटा भी नहीं दिखा सके, ऐसा क्यों? कमिश्नर का कुत्ता गुम जाने को “ब्रेकिंग न्यूज़” बताने वाले चैनल इस घोटाले पर एक भी ढंग का फ़ुटेज तक न दे सके?

पिछले कुछ वर्षों से इलेक्ट्रानिक मीडिया (और कुछ हद तक प्रिंट मीडिया) में एक “विशेष” रुझान देखने में आया है, वह है “सत्ताधारी पार्टी के चरणों में लोट लगाने की प्रवृत्ति”, ऐसा नहीं कि यह प्रवृत्ति पहले नहीं थी, पहले भी थी लेकिन एक सीमित मात्रा में, एक सीमित स्तर पर और थोड़ा-बहुत लोकलाज की शर्म रखते हुए। लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद जैसे-जैसे पत्रकारिता का पतन होता जा रहा है, वह शर्मनाक तो है ही, चिंतनीय भी है। चिंतनीय इसलिये कि पत्रकार, अखबार या चैनल पैसों के लिये बिकते-बिकते अब “विचारधारा” के भी गुलाम बनने लगे हैं, मिशनरी-मार्क्स-मुल्ला-मैकाले और माइनो ये पाँच शक्तियाँ मिलकर मीडिया को “मानसिक बन्धक” बनाये हुए हैं, इसका सबसे सटीक उदाहरण है उनके द्वारा किये गये समाचारों का संकलन, उनके द्वारा दिखाई जाने वाली “हेडलाइन”, उनके शब्दों का चयन, उनकी तथाकथित “ब्रेकिंग न्यूज़” आदि। अमरनाथ ज़मीन विवाद के समय “वन्देमातरम” और “भारत माता की जय” के नारे लगाती हुई भीड़, मीडिया को “उग्रवादी विचारों वाले युवाओं का झुण्ड” नज़र आती है, कश्मीर में 80,000 हिन्दुओं की हत्या सिर्फ़ “हत्याकाण्ड” या कुछ “सिरफ़िरे नौजवानों”(?) का घृणित काम, जबकि गुजरात में कुछ सौ मुस्लिमों (और साथ में लगभग उतने ही हिन्दू भी) की हत्याएं “नरसंहार” हैं? क्या अब मीडिया के महन्तों को “हत्याकांड” और “नरसंहार” में अन्तर समझाना पड़ेगा? कश्मीर से बाहर किये गये साढ़े तीन लाख हिन्दुओं के बारे में कोई रिपोर्टिंग नहीं, मुफ़्ती-महबूबा की जोड़ी से कोई सवाल जवाब नहीं, लेकिन गुजरात के बारे में रिपोर्टिंग करते समय “जातीय सफ़ाया” (Genocide) शब्द का उल्लेख अवश्य करते हैं। केरल में सिस्टर अभया के बलात्कार और हत्याकाण्ड तथा उसमें चर्च की भूमिका के बारे में किसी चैनल पर कोई खबर नहीं आती, केरल में ही बढ़ते तालिबानीकरण और चुनावों में मदनी की भूमिका की कोई रिपोर्ट नहीं, लेकिन आसाराम बापू के आश्रम की खबर सुर्खियों में होती है, उस पर चैनल का एंकर चिल्ला-चिल्ला कर, पागलों जैसे चेहरे बनाकर घंटों खबरें परोसता है। सरस्वती वन्दना का विरोध कभी हेडलाइन नहीं बनता, लेकिन हवालात में आँसू लिये शंकराचार्य खूब दिखाये जाते हैं… लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या पर खामोशी, लेकिन मंगलोर की घटनाओं पर विलाप-प्रलाप…रैम्प पर चलने वाली किसी घटिया सी मॉडल पर एक घंटा कवरेज और छत्तीसगढ़ में मारे जा रहे पुलिस के जवानों पर दस मिनट भी नहीं?… ये कैसे “राष्ट्रीय चैनल” हैं भाई? क्या इनका “राष्ट्र” गुड़गाँव और नोएडा तक ही सीमित है? हिन्दुओं के साथ भेदभाव और गढ़ी गई नकली खबरें दिखाने के और भी सैकड़ों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं, लेकिन इन “रसूख”(?) वाले चैनलों को मिसाइल घोटाला नहीं दिखाई देता? इसे कांग्रेस द्वारा “अच्छी तरह से किया गया मीडिया मैनेजमेंट” कहा जाये या कुछ और, कि आजम खान द्वारा भारतमाता को डायन कहे जाने के बावजूद हेडलाइन बनते हैं “वरुण गाँधी”? कल ही जीटीवी पर एंकर महोदय दर्शकों से प्रश्न पूछ रहे थे कि पिछले 5 साल में आपने वरुण गाँधी का नाम कितनी बार सुना और पिछले 5 दिनों में आपने वरुण गाँधी का नाम कितनी बार सुन लिया? लेकिन वह ये नहीं बताते कि पिछले 5 दिनों में उन्होंने खुद ही वरुंण गाँधी का नाम हजारों बार क्यों लिया? ऐसी क्या मजबूरी थी कि बार-बार वरुण गाँधी का वही घिसा-पिटा टेप लगातार चलाया जा रहा है… यदि वरुण की खबर न दिखाये तो क्या चैनल का मालिक भूखा मर जायेगा? वरुण को हीरो किसने बनाया, मीडिया ने… लेकिन मीडिया कभी भी खुद जवाब नहीं देता, वह कभी भी खुद आत्ममंथन नहीं करता, कभी भी गम्भीरता से किसी बात के पीछे नहीं पड़ता, उसे तो रोज एक नया शिकार(?) चाहिये…। यदि मीडिया चाहे तो नेताओं द्वारा “धर्म” और उकसावे के खेल को भोथरा कर सकता है, लेकिन जब TRP नाम का जिन्न गर्दन पर सवार हो, और “हिन्दुत्व” को गरियाने से फ़ुर्सत मिले तो वह कुछ करे…

मीडिया को सोचना चाहिये कि कहीं वह बड़ी शक्तियों के हाथों में तो नहीं खेल रहा, कहीं “धर्मनिरपेक्षता”(?) का बखान करते-करते अनजाने ही किसी साजिश का हिस्सा तो नहीं बन रहा? माना कि मीडिया पर “बाज़ार” का दबाव है उसे बाज़ार में टिके रहने के लिये कुछ चटपटा दिखाना आवश्यक है, लेकिन पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धान्तों को भूलने से कैसे काम चलेगा? पत्रकार का मुख्य काम होना चाहिये “सरकार” के बखिये उधेड़ना, लेकिन भारत में उल्टा ही होता है इधर तो मीडिया विपक्ष के बखिये उधेड़ने में ही भिड़ा हुआ है… ऐसे में भला मिसाइल घोटाले पर रिपोर्टिंग क्योंकर होगी? या फ़िर ऐसा भी हो सकता है कि मीडिया को “भ्रष्टाचार” की खबर में TRP का कोई स्कोप ही ना दिखता हो… या फ़िर किसी चैनल का मालिक उसी पार्टी का राज्यसभा सदस्य हो, मंत्री का चमचा हो…। फ़िर खोजी पत्रकारिता करने के लिये जिगर के साथ-साथ थोड़ा “फ़ील्ड वर्क” भी करना पड़ता है… जब टेबल पर बैठे-बैठे ही गूगल और यू-ट्यूब के सहारे एक झनझनाट रिपोर्ट बनाई जा सकती है तो कौन पत्रकार धूप में मारा-मारा फ़िरे? कोलकाता के “स्टेट्समैन” अखबार ने कुछ दिनों पहले ही “इस्लाम” के खिलाफ़ कुछ प्रकाशित करने की “सजा”(?) भुगती है… इसीलिये मीडिया वाले सोचते होंगे कि कांग्रेस के राज में घोटाले तो रोज ही होते रहते हैं, सबसे “सेफ़” रास्ता अपनाओ, यानी हिन्दुत्व-भाजपा-संघ-मोदी को गरियाते रहो, जिसमें जूते खाने, नौकरी जाने आदि का खतरा नहीं के बराबर हो… क्योंकि एक अरब हिन्दुओं वाला देश ही इस प्रकार का “सहनशील”(???) हो सकता है…

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Muslim Invaders, Indian History, King Hemu, Ibrahim Lodi

क्या आपने इब्राहीम लोदी का नाम सुना है? ज़रूर सुना होगा… क्या आपने हेमचन्द्र विक्रमादित्य (हेमू) का नाम सुना है? क्या कहा – याद नहीं आ रहा? इतनी आसानी से याद नहीं आयेगा… असल में हमें, बाबर, हुमायूं, अकबर, शाहजहाँ, औरंगज़ेब आदि के नाम आसानी से याद आ जाते हैं, लेकिन हेमचन्द्र, सदाशिवराव पेशवा, पृथ्वीराज चौहान आदि के नाम तत्काल दिमाग में या एकदम ज़ुबान पर नहीं आते… ऐसा क्यों होता है, इसका जवाब बेहद आसान है - हमारी मैकाले आधारित और वामपंथी शिक्षा प्रणाली ने हमारा “ब्रेन वॉश” किया हुआ है।



सबसे पहले ऊपर दिये गये दोनों राजाओं का संक्षिप्त परिचय दिया जाये… इब्राहीम लोदी कौन था? इब्राहीम लोदी एक मुस्लिम घुसपैठिया था जिसने मेवाड़ पर आक्रमण किया था और राणा सांगा के हाथों पराजित हुआ था। इब्राहीम लोदी के बाप यानी सिकन्दर लोदी ने कुरुक्षेत्र के पवित्र तालाब में हिन्दुओं के डुबकी लगाने पर रोक लगाई थी, और हिमाचल में ज्वालामुखी मन्दिर को ढहा दिया था, उसने बोधन पंडित की भी हत्या करवा दी थी, क्योंकि पंडित ने कहा था कि सभी धर्म समान हैं। इब्राहीम लोदी का दादा बहोल लोदी अफ़गानिस्तान से आया था और उसने दिल्ली पर कब्जा कर लिया था। ऐसे महान(?) वंश के इब्राहीम लोदी की कब्र के रखरखाव और मरम्मत के लिये केन्द्र और हरियाणा सरकार ने गत वर्ष 25 लाख रुपये स्वीकृत किये हैं, जबकि रेवाड़ी स्थित हेमू के स्मारक पर एक मस्जिद का अतिक्रमण हो रहा है।

अब जानते हैं राजा हेमू (1501-1556) के बारे में… “राजा हेमू” जिनका पूरा नाम हेमचन्द्र था, हरियाणा के रेवाड़ी से थे। इतिहासकार केके भारद्वाज के शब्दों में “हेमू मध्यकालीन भारत का ‘नेपोलियन’ कहा जा सकता है”, यहाँ तक कि विन्सेंट स्मिथ जिन्होंने समुद्रगुप्त को भी नेपोलियन कहा था, मानते थे कि हेमू को भी भारतीय नेपोलियन कहा जाना चाहिये। हुमायूं के पतन के बाद हेमचन्द्र ने बंगाल से युद्ध जीतना शुरु किया और बिहार, मध्यप्रदेश होते हुए आगरा तक पहुँच गया। हेमचन्द्र ने लगातार 22 युद्ध लड़े और सभी जीते। आगरा को जीतने के बाद हेमचन्द्र ने दिल्ली कूच किया और 6 अक्टूबर 1556 को दिल्ली भी जीत लिया था, तथा उन्हें दिल्ली के पुराने किले में “विक्रमादित्य” के खिताब से नवाज़ा गया। 5 नवम्बर 1556 को अकबर के सेनापति बैरम खान की विशाल सेना से पानीपत में उसका युद्ध हुआ। अकबर और बैरम खान युद्ध भूमि से आठ किमी दूर थे और एक समय जब हेमचन्द्र जीतने की कगार पर आ गया था, दुर्भाग्य से आँख में तीर लगने की वजह से वह हाथी से गिर गया और उसकी सेना में भगदड़ मच गई, जिससे उस युद्ध में वह पराजित हो गये। अचेतावस्था में शाह कुलीन खान उसे अकबर और बैरम खान के पास ले गया, अकबर जो कि पहले ही “गाज़ी” के खिताब हेतु लालायित था, उसने हेमू का सिर धड़ से अलग करवा दिया और कटा हुआ सिर काबुल भेज दिया, जबकि हेमू का धड़ दिल्ली के पुराने किले पर लटकवा दिया… हेमू की मौत के बाद अकबर ने हिन्दुओं का कत्लेआम मचाया और मानव खोपड़ियों की मीनारें बनीं, जिसका उल्लेख पीटर मुंडी ने भी अपने सफ़रनामे में किया है… (ये है “अकबर महान” की कुछ करतूतों में से एक)।

एक तरह से देखा जाये तो हेमचन्द्र को अन्तिम भारतीय राजा कह सकते हैं, जिसके बाद भारत में मुगल साम्राज्य और मजबूत हुआ। ऐसे भारतीय योद्धा राजा को उपेक्षित करके विदेश से आये मुस्लिम आक्रांता को महिमामण्डित करने का काम इतिहास की पुस्तकों में भी किया जाता है। भारत के हिन्दू राजाओं और योद्धाओं को न तो उचित स्थान मिला है न ही उचित सम्मान। मराठा पेशवा का साम्राज्य कर्नाटक से अटक (काबुल) तक जा पहुँचा था… पानीपत की तीसरी लड़ाई में सदाशिवराव पेशवा, अहमदशाह अब्दाली के हाथों पराजित हुए थे। भारत में कितनी इमारतें या सड़कें सदाशिवराव पेशवा के नाम पर हैं? कितने स्टेडियम, नहरें और सड़कों का नाम हेमचन्द्र की याद में रखा गया है? जबकि बाबर, हुमायूँ के नाम पर सड़कें तथा औरंगज़ेब के नाम पर शहर भी मिल जायेंगे तथा इब्राहीम लोदी की कब्र के रखरखाव के लिये 25 लाख की स्वीकृति? धर्मनिरपेक्षता नहीं विशुद्ध “शर्मनिरपेक्षता” है ये…।

धर्मनिरपेक्ष(?) सरकारों और वामपंथी इतिहासकारों का यह रवैया शर्मनाक तो है ही, देश के नौनिहालों का आत्म-सम्मान गिराने की एक साजिश भी है। जिन योद्धाओं ने विदेशी आक्रांताओं के खिलाफ़ बहादुरी से युद्ध लड़े और देश के एक बड़े हिस्से में अपना राज्य स्थापित किया उनका सम्मानजनक उल्लेख न करना, उनके बारे में विस्तार से बच्चों को न पढ़ाना, उन पर गर्व न करना एक विकृत समाज के लक्षण हैं, और यह काम कांग्रेस और वामपंथियों ने बखूबी किया है।

इतिहास की दो महत्वपूर्ण घटनायें यदि न हुई होतीं तो शायद भारत का इतिहास कुछ और ही होता – 1) यदि राजा पृथ्वीराज चौहान सदाशयता दिखाते हुए मुहम्मद गोरी को जिन्दा न छोड़ते (जिन्दा छोड़ने के अगले ही साल 1192 में वह फ़िर वापस दोगुनी शक्ति से आया और चौहान को हराया), 2) यदि हेमचन्द्र पानीपत का युद्ध न हारता तो अकबर को यहाँ से भागना पड़ता (सन् 1556) (इतिहास से सबक न सीखने की हिन्दू परम्परा को निभाते हुए हम भी कई आतंकवादियों को छोड़ चुके हैं और अफ़ज़ल अभी भी को जिन्दा रखा है)। फ़िर भी बाहर से आये हुए आक्रांताओं के गुणगान करना और यहाँ के राजाओं को हास्यास्पद और विकृत रूप में पेश करना वामपंथी "बुद्धिजीवियों" का पसन्दीदा शगल है। किसी ने सही कहा है कि “इतिहास बनाये नहीं जाते बल्कि इतिहास ‘लिखे’ जाते हैं, और वह भी अपने मुताबिक…”, ताकि आने वाली पीढ़ियों तक सच्चाई कभी न पहुँच सके… इस काम में वामपंथी इतिहासकार माहिर हैं, जबकि कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण में… इसीलिये अकबर और औरंगज़ेब का गुणगान करने वाले लोग भारत में अक्सर मिल ही जाते हैं… तथा शिवाजी की बात करना “साम्प्रदायिकता” की श्रेणी में आता है…

जाते-जाते एक बात बताईये, आपके द्वारा दिये गये टैक्स का पैसा इब्राहीम लोदी जैसों की कब्र के रखरखाव के काम आने पर आप कैसा महसूस करते हैं?

लेख के कुछ स्रोत – www.hindujagruti.org तथा विकीपीडिया से

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फ़ॉक्स न्यूज़ अमेरिका की एक खबर के अनुसार न्यूयॉर्क से 150 मील दूर पश्चिमी कैट्स्किल्स के घने जंगलों में एक प्राइवेट कालोनी बनाई गई है, जिसका नाम रखा है “इस्लामबर्ग”। यह बस्ती मुख्य सड़क से थोड़ी दूर अन्दर जाकर बनाई गई है और बाहर नाम के साथ “बिना इजाज़त प्रवेश निषेध” का बोर्ड लगा हुआ है। इस बस्ती में कुछ छोटे-छोटे मकान हैं जिनमें लगभग 100 परिवार रहते हैं।

“इस्लामबर्ग” की स्थापना 1980 में शेख सैयद मुबारिक अली शाह गिलानी (पता नहीं ‘गिलानी’ नाम में ऐसा क्या है?) नामक एक पाकिस्तानी व्यवसायी ने बसाई है, जिसने उस समय 70 एकड़ का यह फ़ार्म खरीदा था, और इसमें प्लॉट खरीदने की अनुमति सिर्फ़ उन्हीं को थी जो मुस्लिम हैं। इस छोटी सी टाउनशिप में उनकी खुद की एक मस्जिद, बाज़ार और स्कूल भी है, आसपास के गाँवों के निवासी बताते हैं कि उक्त बस्ती में एक “फ़ायरिंग रेंज”(?) भी है। गिलानी ने इसी से मिलती-जुलती और भी बस्तियाँ बसाई हैं, जिसमें प्रमुख है दक्षिण वर्जिनिया में बसी “रेड हाउस कम्यूनिटी”, गिलानी महाशय ने “मुस्लिम्स ऑफ़ अमेरिका” नाम का एक संगठन भी बनाया हुआ है।

अमेरिकी अधिकारी कहते हैं कि गिलानी जमात-अल-फ़क्रा का संस्थापक भी है, जो कि विभिन्न इलाकों में बम विस्फ़ोट के लिये जिम्मेदार माना जाता है, इस समूह का 1993 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हुए बम विस्फ़ोट में भी हाथ रहा है और इसके 10 सदस्य पोर्टलैण्ड में एक होटल में हुए विस्फ़ोट के मामले में दोषी पाये गये हैं, हालांकि गिलानी इस आरोप से इन्कार करते हैं। यह गिलानी साहब वही व्यक्ति हैं जिनका पाकिस्तान में इंटरव्यू लेने की कोशिश डेनियल पर्ल कर रहे थे। पाकिस्तान सरकार ने भी गिलानी को पूछताछ के लिये रोका था, लेकिन बाद में छोड़ दिया था। इस मुस्लिम बस्ती को छोड़ चुके एक व्यक्ति ने नाम गुप्त रखने पर बताया कि यहाँ रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आय का 10 से 30 प्रतिशत हिस्सा गिलानी को देना पड़ता है। फ़ॉक्स न्यूज़ ने यहाँ रहने वाले अन्य लोगों से बात करने की कोशिश की, लेकिन सभी ने मीडिया से बात करने से मना कर दिया…

ऐसा लगता है कि अमेरिका को आज पता चला है कि “अलग मुस्लिम बस्ती” नाम की भी कोई चीज़ होती है…बेचारा!!! भारत के पाठक अपने दिल पर हाथ रखकर कहें कि क्या भारत के प्रत्येक शहर में इस प्रकार की दो-चार बस्तियाँ नहीं हैं? और इन बस्तियों में वे खुद जाना तो दूर, प्रशासनिक अधिकारी, जल-विद्युत आपूर्ति अधिकारी और पुलिस अधिकारी भी सोच-समझकर ही घुसते हैं… 60 साल के कांग्रेस के “जय हो…” शासन की यह भी एक देन है…

खबर का स्रोत – यहाँ देखें

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(भाग-2 – यहाँ देखें) से आगे जारी… समापन किस्त)

इस लेखमाला का उद्देश्य यही है कि आप और हम भले ही पाकिस्तान द्वारा पढ़ाये जा रहे इस प्रकार के पाठ्यक्रम को पढ़कर या तो हँसें या गुस्से में अपना माथा पीटें, लेकिन सच तो यही है कि पाकिस्तान में 1971 के बाद पैदा हुई पूरी एक-दो पीढ़ियाँ यही पढ़-पढ़कर बड़ी हुई हैं और फ़िर भी हम उम्मीद कर रहे हैं कि पाकिस्तान कभी हमारा दोस्त बन सकता है? जो खतरा साफ़-साफ़ मंडरा रहा है उसे नज़र-अन्दाज़ करना समझदारी नहीं है। सरस्वती शिशु मन्दिरों को पानी पी-पीकर कोसने वाले अपने दिल पर हाथ रखकर कहें कि क्या इतना घृणा फ़ैलाने वाला कोर्स सरस्वती शिशु मन्दिरों में भी बच्चों को पढ़ाया जाता है? देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति पैदा करने वाला कोर्स पढ़ाने और किसी धर्म/देश के खिलाफ़ कोर्स पढ़ाने में मूलभूत अन्तर है, इसे “सेकुलर”(?) लोग नहीं समझ रहे। शिवाजी को “राष्ट्रनायक” बताना कोई जुर्म है क्या? या ऐसा कहीं लिखा है कि पृथ्वीराज चौहान की वीरता गाथायें पढ़ाना भी साम्प्रदायिक है? पाकिस्तान से तुलना की जाये तो हमारे यहाँ पढ़ाये जाने वाला पाठ्यक्रम अभी भी पूरी तरह से सन्तुलित है। हालांकि इसे विकृत करने की कोशिशे भी सतत जारी हैं, और सेकुलरों की असली चिढ़ यही है कि लाख चाहने के बावजूद भाजपा, हिन्दूवादी संगठनों और सरस्वती शिशु मन्दिरों के विशाल नेटवर्क के कारण वे पाठ्यक्रम् को “हरे” या “लाल” रंग से रंगने में सफ़ल नहीं हो पा रहे… हाँ, जब भी भाजपा पाठ्यक्रम में कोई बदलाव करती है तो “शिक्षा का भगवाकरण” के आरोप लगाकर हल्ला मचाना इन्हें बेहतर आता है।

गत 60 साल में से लगभग 50 साल तक ऐसे ही “लाल” इतिहासकारों का सभी मुख्य शैक्षणिक संस्थाओं पर एकतरफ़ा कब्जा रहा है चाहे वह ICHR हो या NCERT। उन्होंने इतिहास पुनर्लेखन के नाम पर तमाम मुस्लिम आक्रांताओं का गौरवगान किया है। लगभग हर जगह भारतीय संस्कृति, प्राचीन भारत की गौरवशाली परम्पराओं, संस्कारों से समृद्ध भारत का उल्लेख या तो जानबूझकर दरकिनार कर दिया गया है या फ़िर अपमानजनक तरीके से किया है (एक लेख यह है)। इनके अनुसार 8वी से लेकर 10वीं शताब्दी में जब से धीरे-धीरे मुस्लिम हमलावर भारत आना शुरु हुए सिर्फ़ तभी से भारत में कला, संस्कृति, वास्तु आदि का प्रादुर्भाव हुआ, वरना उसके पहले यहाँ रहने वाले बेहद जंगली और उद्दण्ड किस्म के लोग थे। इसी प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों के शासनकाल को भी भारतवासियों को “अनुशासित” करने वाला दर्शाया जाता है, लेकिन “लाल” इतिहासकारों का “असली और खरा प्रेम” तो मुस्लिम शासक और उनका शासनकाल ही हैं। सिक्ख गुरुओं द्वारा किये गये संघर्ष को “लाल मुँह वाले” लोग सिर्फ़ एक राजनैतिक संघर्ष बताते हैं। ये महान इतिहासकार कभी भी नहीं बताते कि बाबर से लेकर ज़फ़र के शासनकाल में कितने हिन्दू मन्दिर तोड़े गये? क्यों आज भी कई मस्जिदों की दीवारों में हिन्दू मन्दिरों के अवशेष मिल जाते हैं?

NCERT की सातवीं की पुस्तक “हमारे अतीत – भाग 2” के कुछ नमूने –

1) तीसरा अध्याय, पाठ : दिल्ली के सुल्तान – लगभग 15 पेज तक अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद तुगलक और उनके शासन का गुणगान।

2) चौथा पाठ – 15 पेज तक मुगल सेना तथा बाबर, अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, औरंगज़ेब की ताकत का बखान। फ़िर अकबर की प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन।

3) पाँचवा पाठ – “रूलर्स एण्ड बिल्डिंग्स”, कुतुब मीनार, दिल्ली की जामा मस्जिद, हुमायूं का मकबरा और ताजमहल आदि का बखान।

4) दसवाँ अध्याय – 18वीं सदी का राजनैतिक खाका – ढेर सारे पेजों में नादिरशाह, निजाम आदि का वर्णन, जबकि राजपूत, जाट, मराठा और सिख राजाओं को सिर्फ़ 6 पेज।

कुल मिलाकर मुस्लिम शासकों और उनके बारे में 60-70 पेज हैं, जबकि हिन्दुओं को पहली बार मुगल शासकों की गुलामी से मुक्त करवाकर “छत्रपति” कहलाने वाले शिवाजी महाराज पर हैं कुल 7 पेज। शर्म की बात तो यह है कि विद्वानों को “शिवाजी” का एक फ़ोटो भी नहीं मिला (पुस्तक में तस्वीर की जगह खाली छोड़ी गई है, क्या शिवाजी महाराज यूरोप में पैदा हुए थे?), जबकि बाबर का फ़ोटो मिल गया। इसी पुस्तक में राजपूत राजाओं पर दो पेज हैं जिसमें राजा जयसिंह का उल्लेख है (जिसने मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया था), जबकि घास की रोटी खाकर अकबर से संघर्ष करने वाले महाराणा प्रताप पर सिर्फ़ एक पैराग्राफ़… हिन्दुओं से ऐसी भी क्या नफ़रत!!! इतिहास की पुस्तक में “मस्जिद कैसे बनाई जाती है?” “काबा की दिशा किस तरफ़ है…” आदि बताने की क्या आवश्यकता है? लेकिन जब बड़े-बड़े संस्थानों में बैठे हुए “बुद्धिजीवी”(?), “राम” को काल्पनिक बताने, रामसेतु को तोड़ने के लिये आमादा और भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव को हीरो की बजाय “आतंकवादी” दर्शाने पर उतारू हों तो ऐसा ही होता है।

अक्सर इतिहास की पुस्तकों में बाबर और हुमायूँ को “उदारवादी” मुस्लिम बताया जाता है जिन्होंने “जज़िया” नहीं लगाया और हिन्दुओं को मन्दिर बनाने से नहीं रोका… फ़िर जैसे ही हम अकबर के शासनकाल तक पहुँचते हैं अचानक हमें बताया जाता है कि अकबर इतना महान शासक था कि उसने “जज़िया” की व्यवस्था समाप्त कर दी। ऐसे में सवाल उठता है कि जो जजिया बाबर और हुमायूं ने लगाया ही नहीं था उसे अकबर ने हटा कैसे दिया? “लाल” इतिहासकारों का इतिहास बोध तो इतना उम्दा है कि उन्होंने औरंगज़ेब जैसे क्रूर शासक को भी “धर्मनिरपेक्ष” बताया है… काशी विश्वनाथ मन्दिर तोड़ने को सही साबित करने के लिये एक कहानी भी गढ़ी गई (यहाँ देखें…) फ़िर जब ढेरों मन्दिर तोड़ने की बातें साबित हो गईं, तो कहा गया कि औरंगज़ेब ने जो भी मन्दिर तोड़े वह या तो राजनैतिक उद्देश्यों के लिये थे या फ़िर दोबारा बनवाने के लिये (धर्मनिरपेक्षता मजबूत करने के लिये)… क्या कमाल है “शर्मनिरपेक्षता” का।

ये तो सिर्फ़ एक उदाहरण भर है, अधिकतर पुस्तकों का “टोन” कुछ ऐसा है कि “मुस्लिम शासक” ही असली शासक थे, हिन्दू राजा तो भगोड़े थे… बच्चों के दिमाग में एक “धीमा ज़हर” भरा जा रहा है। “लाल इतिहासकारों” का “अघोषित अभिप्राय” सिर्फ़ यह होता है कि “तुम हिन्दू लोग सिर्फ़ शासन किये जाने योग्य हो तुम कभी शासक नहीं थे, नहीं हो सकते…”। हिन्दुओं के आत्मसम्मान को किस तरह खोखला किया जाये इसका अनुपम उदाहरण हैं इस प्रकार की पुस्तकें… और यही पुस्तकें पढ़-पढ़कर हिन्दुओं का खून इतना ठण्डा हो चुका है कि “वन्देमातरम” का अपमान करने वाला भी कांग्रेस अध्यक्ष बन सकता है, “सरस्वती वन्दना” को साम्प्रदायिक बताने पर भी किसी को कुछ नहीं होता, भारत माता को “डायन” कहने के बावजूद एक व्यक्ति मंत्री बन जाता है, संसद जैसे सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्थान पर हमले के बावजूद अपराधी को फ़ाँसी नहीं दी जा रही…सैकड़ों-सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं, और यह सब हो रहा है “सेकुलरिज़्म” के नाम पर… यह इसी “विकृत मानसिक शिक्षा” की ही देन है कि ऐसे नापाक कामों के समर्थन में उन्हें भारत के ही “हिन्दू बुद्धिजीवी” भी मिल जाते हैं, क्योंकि उनका दिमाग भी या तो “हरे”/“लाल” रंग में रंगा जा चुका है अथवा खाली कर दिया गया है… ऐसा होता है “शिक्षा” का असर…

शिवाजी महाराज का पालन-पोषण जीजामाता ने भगवान राम और कृष्ण की कहानियाँ और वीरता सुनाकर किया था और उन्होंने मुगलों की नाक के नीचे “पहले हिन्दवी स्वराज्य” की स्थापना की थी, लेकिन जिस तरह से आज के नौनिहालों का “ब्रेन वॉश” किया जा रहा है ऐसे में हो सकता है कि आने वाले कुछ सालों के बाद पाठ्यपुस्तकों में ओसामा बिन लादेन, सद्दाम हुसैन, दाऊद इब्राहीम, परवेज़ मुशर्रफ़ की वीरता(?) के किस्से भी प्रकाशित हो सकते हैं और उससे क्या और कैसी प्रेरणा मिलेगी यह सभी को साफ़ दिखाई दे रहा है सिवाय “सेकुलर बुद्धिजीवियों” के…
शिक्षा व्यवस्था को सम्पूर्ण रूप से बदले बिना, (अर्थात भारतीय संस्कृति और देश के बहुसंख्यक, फ़िर भी सहनशील हिन्दुओं के अनुरूप किये बिना) भारतवासियों में आत्मसम्मान, आत्मगौरव की भावना लाना मुश्किल ही नहीं असम्भव है, वरना “हिन्दुत्व” तो खत्म होने की ओर अग्रसर हो चुका है। मेरे जैसे पागल लोग भले ही चिल्लाते रहें लेकिन सच तो यही है कि 200 वर्ष पहले कंधार में मन्दिर होते थे, 100 वर्ष पहले तक लाहौर में भी मन्दिर की घंटियाँ बजती थीं, 50 वर्ष पहले तक श्रीनगर में भी भजन-कीर्तन सुनाई दे जाते थे, अब नेपाल में तो हिन्दुत्व खत्म हो चुका, सिर्फ़ वक्त की बात है कि “धर्मनिरपेक्ष भारत”(?) से हिन्दुत्व 50-100 साल में खत्म हो जायेगा… और इसके लिये सबसे अधिक जिम्मेदार होंगे “कांग्रेस” और “सेकुलर बुद्धिजीवी” जो जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं… लेकिन इन्हें अक्ल तब आयेगी जब कोई बांग्लादेशी इनके दरवाजे पर तलवार लेकर खड़ा होगा और उसे समर्थन देने वाला कोई कांग्रेसी उसके पीछे होगा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

अमूमन एक सवाल किया जाता है कि इस्लामिक देशों में लोकतन्त्र क्यों नहीं पनपता? इसका जवाब भी इसी लेख में निहित है कि “लोकतांत्रिक” होना भी एक जीवन पद्धति है जो हिन्दू धर्म में खुद-ब-खुद मौजूद है, न तो वामपंथी कभी लोकतांत्रिक हो सकते हैं, ना ही इस्लामिक देश। एक तरफ़ पाकिस्तान की शिक्षा व्यवस्था और दूसरी तरफ़ भारत की शिक्षा व्यवस्था, आप खुद ही फ़ैसला कर लीजिये कि हम कहाँ जा रहे हैं और हमारा “भविष्य” क्या होने वाला है…


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Cold Drinks, Ice, Road side vendors in India

प्रतिवर्ष गर्मी नये-नये रिकॉर्ड बना रही है, ऐसे में आम आदमी को गला तर करने के लिये सड़क किनारे मिलने वाले बर्फ़ के गोले और नींबू पानी पर निर्भर होना होता है, क्योंकि गरीब आदमी महंगे-महंगे बहुराष्ट्रीय शीतलपेय नहीं खरीद सकता।

सड़क किनारे मिलने वाले खाद्य और पेय पदार्थों में अक्सर मिलावट और हल्की सामग्री मिलाने के समाचार तो आते ही रहते हैं। गंदगी और अशुद्धता के बारे में भी खबरें प्रकाशित होती रहती हैं, लेकिन हाल ही में एक चौंकाने वाली खबर आई है कि सड़क किनारे मिलने वाले ठण्डे नींबू पानी में शवगृहों के शव के नीचे रखे बर्फ़ का पानी मिलाया जा रहा है। इसका खुलासा उस समय हुआ जब मुम्बई के विभिन्न शवगृहों के बाहर बर्फ़ खरीदने वाले व्यापारियों का जमघट देखा गया। असल में शव को सड़ने से बचाने के लिये उसे बर्फ़ की सिल्लियों पर रखा जाता है, जब यह बर्फ़ की सिल्ली पिघलते-पिघलते आधी से भी कम हो जाती है तब अस्पतालों और सरकारी शवगृहों के कर्मचारियों की मिलीभगत से उसे बाहर आधे से भी कम दामों पर बेच दिया जाता है। सड़क किनारे ठण्डा नींबू पानी, बर्फ़ के गोले, मछली, मटन ठंडा रखने और फ़्रेश जूस(?) आदि बेचने वाले, इस शव रखे हुए बर्फ़ को खरीद लेते हैं, ताकि मुनाफ़ा बढ़े, क्योंकि बर्फ़ फ़ैक्टरियों से उन्हें बर्फ़ महंगे दामों पर मिलता है। जबकि बर्फ़ फ़ैक्टरी वाले भी बर्फ़ बनाने के लिये शुद्ध पानी का उपयोग न करते हुए, गाय-भैंस को पानी पिलाने वाले भरे-भराये हौद तथा प्रदूषित पोखरों-तालाबों से लाये गये पानी का उपयोग ही बर्फ़ बनाने के लिये करते हैं, लेकिन फ़िर भी शवगृहों से बर्फ़ खरीदने की खबर चिंतित करने वाली है। पैसा देकर भी ठीक-ठाक वस्तु न मिले तो आखिर गरीब आदमी कहाँ जाये?

और सिर्फ़ गरीबों की ही बात क्या करें, मिठाई पर लगने वाले चांदी के वर्क बनाने के लिये उसे भैंस के लीवर में रखकर कूटा जाता है ताकि उसे बेहद पतला से पतला किया जा सके…। रोज़ भगवान के सामने जलाई जाने वाली अगरबत्ती में लगने वाले बाँस की काड़ी में भी, शव जलाने से पहले फ़ेंके जाने वाले अर्थी के बाँस का उपयोग हो रहा है, क्योंकि प्रत्येक शव के साथ दो बाँस मुफ़्त में मिल जाते हैं…

इस खबर को स्थानीय छोटे व्यापारियों का विरोध और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का समर्थन न समझा जाये, क्योंकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भले ही साफ़-सफ़ाई रखें, चमक-दमक से मोहित करें, लेकिन पीछे से आपकी और देश की जेब काटने में लगी हैं, इसलिये वे तो और भी खतरनाक हैं… बताओ कहाँ-कहाँ और कैसे बचोगे इस देश में…

(नोट - किसी वरिष्ठ ब्लॉगर ने कहा है कि स्वाद बदलने के लिये ऐसी माइक्रो-पोस्ट लिखते रहना चाहिये)

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Pakistan Education System & Indian Secular Intellectuals (part-2)

… भाग-1 (यहाँ देखें) से आगे जारी…

कल्पना कीजिये कि 14-15 साल के बच्चे को कक्षा 9-10 में बताया जा रहा है कि “दक्षिण एशिया और समूचे विश्व में मुसलमानों की गिरती हालत इसलिये है क्योंकि मुसलमानों में “जेहाद” की भावना में कमी आ गई है…” (पाकिस्तान स्टडीज़, पेज 7, कक्षा 9)। “इस्लाम में जेहाद एक बहुत महत्वपूर्ण बात है, जो जेहाद करता है वह कभी नहीं मरता…” (पाकिस्तान स्टडीज़, पेज 10, कक्षा 9-10)। “हर मुसलमान को जेहाद के लिये अपनी जिन्दगी और सम्पत्ति दाँव पर लगाने को तैयार रहना चाहिये, जेहाद और सारी कुर्बानियों का मकसद सिर्फ़ “अल्लाह” को खुश करना है…” (पाकिस्तान स्टडीज़, पेज 4, कक्षा 12)। “अंग्रेजों ने हमारी लायब्रेरियों से कई दुर्लभ पुस्तकें इंग्लैण्ड भेज दीं ताकि इस्लाम का विश्व में प्रसार ना हो सके…” (सोशल स्टडीज़, पेज 99, कक्षा 6)। कराची निवासी प्रोफ़ेसर मियाँ मुहम्मद असलम और काज़ी सज्जाद कहते हैं कि “हमारी सरकार बच्चों को ‘जीवन’ की शिक्षा देने की बजाय मौत का खेल सिखा रही है, और इस तरह का विकृत इतिहास और समाजशास्त्र पढ़ने के बाद “फ़िदायीन” और मानव बम न बनें ऐसा हो ही नहीं सकता…, यह सरकार और इसकी शिक्षा पद्धति पाकिस्तान के समाज को एक हमलावर समाज बनाकर रख देंगे…” (यह आशंका कितनी सच निकली है यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है) (यहाँ देखें)।

ऐसा नहीं कि इस शिक्षा पद्धति और पाठ्यक्रम पर कोई सवाल नहीं उठे, लेकिन सवाल उठाने वालों की संख्या और सत्ता में उनकी भागीदारी बेहद कमजोर है। इसमें व्यापक बदलाव करके इतिहास को हिन्दुत्व, बौद्ध परम्पराओं और सम्राट चन्द्रगुप्त से शुरु करने की बात उठते ही अधिकतर राजनैतिक पार्टियों ने एक सुर में कहा कि “हमारा इतिहास मक्का और मदीना से शुरु होता है…”। पाकिस्तान में शिक्षाविदों ने राजनैतिक पार्टियों और धार्मिक समूहों को समझाने की भरसक कोशिश की, कि इस प्रकार की पढ़ाई करवाने से एक पूरी पीढ़ी सच्चे तथ्यों, सही इतिहास और ज्ञान से वंचित रह जायेगी, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी। सिन्धु घाटी और गंधार (आज का कंधार) सभ्यता के बारे में भी एकाध-दो पाठ बड़ी मुश्किल से शामिल करवाये गये। “काफ़िरों को मारने के लिये मुहम्मद बिन कासिम और महमूद गजनवी को महिमामंडित किया गया है…, “बाबर” ने भारत की वास्तुकला को इसलिये बदल दिया क्योंकि उसे हिन्दुओं द्वारा निर्मित छोटे-छोटे और अंधेरे कमरे पसन्द नहीं थे…” किस तरह से हिन्दुओं और भारत को नीचा दिखाया जाये और उसके खिलाफ़ नफ़रत फ़ैलाई जाये इसका उदाहरण हैं पाकिस्तान की पाठ्य-पुस्तकें और ऐसे माहौल में, ऐसी पुस्तकों से पढ़े-लिखे बच्चे बड़े होकर “कसाब” नहीं बनेंगे तो क्या बनेंगे?

सिर्फ़ वहाँ के मदरसों को दोष क्यों दें, जब पाकिस्तान की सरकार खुद ही बच्चों के मन में भारत के विरुद्ध लगातार जहर घोल रहा है। पाकिस्तान के सैनिक शासक अय्यूब खान ने 1959 में पहला राष्ट्रीय शिक्षा आयोग बनाया जिसकी रिपोर्ट को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तौर पर स्वीकार किया गया, जबकि प्राथमिक शिक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को सौंप दी गई। दूसरी पंचवर्षीय योजना (1960-65) के दौरान प्राथमिक और सेकण्डरी शिक्षा व्यवस्था और पाठ्यक्रम को बदलने की कोशिशें तेज हो गईं और सरकार की ओर से कहा गया कि “बच्चों के पाठ्यक्रम में इस्लामिक और धार्मिक शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाना चाहिये…”। 1965 में भारत के साथ युद्ध के कारण शिक्षा संस्थानों की आर्थिक मदद में भारी कटौती कर दी गई, और यही समय था जब विभिन्न जमातों ने धीरे-धीरे शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में दबदबा बढ़ाना शुरु कर दिया। 1969 में एक बार पुनः एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाई गई जिसमें पारम्परिक मदरसों और सरकारी स्कूलों के बीच पैदा हुई खाई को कम करने हेतु कदम उठाने की बात थी, लेकिन 1971 के युद्ध और बांग्लादेश के अलग हो जाने की “चोट” भुट्टो सरकार भुला नहीं सकी और पाठ्यक्रम में इस्लामिक बदलाव की प्रक्रिया और तेज हो गई। एक और सैनिक विद्रोह और जनरल जिया-उल-हक के सत्ता संभालने के तुरन्त बाद एक राष्ट्रीय शिक्षा समागम का आयोजन किया गया, जिसमें शिक्षा व्यवस्था में “आमूलचूल” (?) परिवर्तन करने की बात कही गई। जनरल जिया की भाषण के अनुसार “आमूलचूल परिवर्तन” यानी कि “हमारा पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिये पाकिस्तान के बच्चे एक सच्चे मुसलमान बन सकें, बच्चों में इस्लामिक संस्कार भरना और उन्हें इस प्रकार की शिक्षा देना हमारा कर्तव्य है…”। जो प्रक्रिया पहले ही तेज हो चुकी थी उसे और जोरदार इस्लामिक ईंधन मिला और शिक्षा पद्धति के मुख्यतः चार बिन्दु तय किये गये… 1) पाकिस्तान सिर्फ़ मुसलमानों का है, 2) इस्लामिक शिक्षा और कुरान को कण्ठस्थ करना प्रत्येक छात्र को अनिवार्य किया जाये भले ही वह किसी भी धर्म का हो… 3) पाकिस्तान की छवि और विचारधारा इस प्रकार बनाना कि हिन्दुओं और भारत के विरोध को उसमें प्रमुखता दी जाये… 4) छात्रों को “जेहाद” और “शहादत” के बारे में विस्तार से बताना ताकि वे उस रास्ते पर चल सकें…।

धीरे-धीरे सभी शैक्षणिक संस्थायें उसी राह पर चल पड़ीं और पाकिस्तान में रहने वाले प्रत्येक धर्मावलम्बी के बच्चे को प्राथमिक स्तर पर कम से कम पाँच बातें आना अनिवार्य कर दिया गया, नेशनल अर्ली चाइल्डहुड कुर्रिकुलम (NECEC) के अनुसार, किसी से मिलने पर “अस्सलाम वालैकुम” कहना, “बिस्मिल्लाह” कब कहा जाता है यह जानना, पहला “कलमा” क्या होता है और उसका अर्थ क्या है तथा रमजान और ईद पर रोज़ाना पढ़ी जाने वाली पाँच प्रार्थनायें कौन सी हैं… यह तमाम बातें अनिवार्य की गईं। फ़िर बारी आती है मिडिल स्कूल और हाई स्कूल की… एक झलक उसकी भी…
“हिन्दू हमेशा इस्लाम के दुश्मन रहे हैं, हिन्दू अपने बच्चों को बुरी-बुरी बातें सिखाते हैं… (कक्षा 5 पेज 108 पंजाब बोर्ड लाहौर), हिन्दू लोग अपनी औरतों का सम्मान नहीं करते हैं, हिन्दुओं के मन्दिर अक्सर गन्दे और अंधेरे होते हैं वहीं उनकी पूजा की मूर्तियाँ रखी होती हैं, हिन्दुओं के मन्दिर में एक बार में सिर्फ़ एक ही आदमी घुस सकता है… जबकि हमारी मस्जिदें खुली हुई होती हैं और वहाँ सभी एक साथ नमाज़ पढ़ सकते हैं… (मुआशरेती उलूम, कक्षा चौथी, पेज 81, कक्षा 5, पेज 109) तथा “हिन्दुओं में कई प्रकार की सामाजिक बुराईयाँ होती हैं, हिन्दू सोचते हैं कि उनके अलावा और कोई देश इस दुनिया में नहीं है, भारत के लोगों को कोई खास ज्ञान नहीं होता है… (कक्षा 6, सोशल स्टडीज़, पेज 59, मार्च 2002)। (क्या सरस्वती शिशु मन्दिरों में मुसलमानों के बारे में ऐसा कुछ पढ़ाया जाता है?)

मीनार-ए-पाक की कहानी के अंश - 1) मुसलमानों द्वारा(?) जब आज़ादी हासिल कर ली तो उन्हें एक अपना देश चाहिये था, जहाँ वे इस्लाम के मुताबिक रह सकें और कुरान/शरीयत के कानून लागू कर सकें, लेकिन उन्हें मालूम था कि हिन्दू लोग ऐसा कभी नहीं करने देंगे क्योंकि वे हिन्दुस्तान में बहुमत में थे। जब अंग्रेज जा रहे थे तब वे साजिश कर रहे थे कि समूचे राज्य पर हिन्दुओं और भगवान का राज हो जाये और हिन्दू कानून(?) लागू कर दिये जायें, इस कानून के मुताबिक सभी मुसलमान अछूत बन जाते… 2) मुसलमानों को भय सताने लगा था कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के बाद वे हिन्दुओं के गुलाम बन जायेंगे… 3) मुसलमानों ने अपनी सच्ची आज़ादी की माँग की और पाकिस्तान ले लिया ताकि अल्लाह का राज कायम हो सके… (कक्षा 4, विषय उर्दू, पेज 36-39, पंजाब शिक्षा बोर्ड)।

“हिन्दू पण्डित हमेशा अल-बरूनी से जलते थे, क्योंकि वे कभी भी अल-बरूनी की विद्वत्ता का मुकाबला नहीं कर सकते थे…। दिल्ली के सुल्तान धार्मिक मामलों में बेहद मुलायम थे, उन्होंने कभी भी किसी को इस्लाम अपनाने पर जोर नहीं दिया… उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों में कभी भी भेद नहीं किया… (कक्षा 8, विषय अंग्रेजी, पाठ 3) (लगभग यही बातें भारत में भी “सेकुलर लोग” हमारे बच्चों को पढ़ाते हैं, जबकि औरंगज़ेब हो, बाबर हो या अकबर सभी की पोल बाकायदा विभिन्न कागज़ातों से खुल चुकी है कि ये लोग न सिर्फ़ धर्मान्ध थे बल्कि औरतखोर और दारुकुट्टे भी थे)। कक्षा आठवीं की सोशल स्टडीज़ की पुस्तक में “मुस्लिम विश्व”, “मुस्लिम विश्व के पहाड़”, “मुस्लिम विश्व की नदियाँ”, “मुस्लिम विश्व के समुद्र” आदि का उल्लेख किया गया है, अब इस “मुस्लिम पहाड़, मुस्लिम नदियाँ” आदि का मतलब तो तालिबान ही समझा सकता है…। इन पुस्तकों में मुहम्मद-बिन-कासिम को पहला पाकिस्तानी नागरिक(?) बताया गया है, कक्षा 6 की सोशल स्टडीज़ (सिन्ध टेक्स्टबुक बोर्ड, 1997) में दर्शाया गया है कि सिंधी शासक राजा धीर बेहर कूर और निर्दयी था और उसके ज़ुल्मों के कारण क्षेत्र के निवासियों ने मुहम्मद-बिन-कासिम से हाथ मिला लिया जिसने सभी के साथ बराबरी का व्यवहार किया…। बांग्लादेश के बनने की हकीकत को बड़ी सफ़ाई से छिपाकर भारत को इसके लिये जिम्मेदार ठहरा दिया गया है… कहा गया है कि “1965 के युद्ध में हार(?) जाने के बाद भारत ने पूर्वी पाकिस्तान के हिन्दुओं को पश्चिमी पाकिस्तान के खिलाफ़ भड़काया और पहले आंदोलन करवाकर फ़िर उनकी सैनिक मदद करके बांग्लादेश नामक देश बनवा दिया…”।

अगले समापन भाग में हम देखेंगे भारत की धर्मनिरपेक्ष शिक्षा(?), और नकली सेकुलरिज़्म के खतरे के बारे में (भाग-3 में जारी…)

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Pakistan Education System & Indian Secular Intellectuals

“1947 से पहले भारत, पाकिस्तान का ही एक हिस्सा था”… “1965 के युद्ध में पाकिस्तान ने भारत के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था, लेकिन निश्चित हार देखकर नई दिल्ली ने संयुक्त राष्ट्र से बचाव की गुहार लगाई और हमने युद्धविराम कर दिया…”, “1971 की लड़ाई में पाकिस्तानी सेना ने बड़ी हिम्मत दिखाते हुए भारत के पूर्वी और पश्चिमी वायु कमान को बुरी तरह नष्ट कर दिया था…” ना, ना, ना भाईयों ये पंक्तियाँ मैं भांग खाकर नहीं लिख रहा, असल में यही कुछ पाकिस्तान के मदरसों में बच्चों को पढ़ाया जा रहा है, और ये बात आरएसएस या भाजपा नहीं कह रही, बल्कि पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसियाँ इस बात की तसदीक कर चुकी हैं कि बगैर किसी सरकारी मदद से चलने वाले हजारों मदरसों में इस प्रकार की विकृत शिक्षा और बे-सिर-पैर के पाठ पढ़ाये जा रहे हैं।

जब मुम्बई में आतंकी हमले हुए तब लोगों ने टीवी पर देखा कि कम उम्र के बेहद कमसिन से नज़र आने वाले छोकरे हाथों में एके-47 और झोले में हथगोले भरे हुए ताबड़तोड़ सुरक्षा बलों और आम आदमियों पर हमले कर रहे हैं। संयोग से उसमें से एक अजमल कसाब पकड़ा भी गया। उस समय कई भारतीयों ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया था कि इतनी कम आयु में ये बच्चे आतंकवादी कैसे बन गये? किसने इनके दिमाग में भारत के प्रति इतना जहर भर दिया है कि अपने परिवार और अपनी उम्र को भूलकर ये आतंकवादी बन गये? इसका एकमात्र और विस्तृत जवाब है पाकिस्तान की मौजूदा शिक्षा प्रणाली, पाकिस्तान के स्कूलों में पढ़ाये जा रहे पाठ्यक्रम, प्रायमरी और मिडिल कक्षाओं में कोर्स में भारत के विरुद्ध उगला गया जहर…

आज जबकि तालिबान का शिकंजा अफ़गानिस्तान से होते हुए स्वात घाटी और कराची तक पहुँच चुका है, भारत के ये “सेकुलर” और “नॉस्टैल्जिक” अभी भी पाकिस्तान से दोस्ती के मुगालते पाले बैठे हैं। न सिर्फ़ खुद मुगालते पाले हुए हैं, NCERT की पुस्तकों की मदद से भारत के बच्चों को भी अपनी तरह के “नकली सेकुलर” बनाने की जुगत में लगे हुए हैं। हाल ही में अखबारों में वाघा सीमा से लौटते हुए कुछ महानुभावों का चित्र छपा था, ये महानुभाव पाकिस्तान की सदभावना यात्रा पर गये थे, जाहिर है कि ये सेकुलर ही होंगे, इनमें शामिल थे महेश भट्ट, कुलदीप नैयर और स्वामी अग्निवेश। अब ये कहना मुश्किल है कि ये सज्जन “नॉस्टैल्जिक” हैं, आवश्यकता से अधिक आशावादी हैं, या फ़िर एकदम मूर्ख हैं… इनमें से पहली सम्भावना सबसे अधिक मजबूत लगती है। इन जैसे कई-कई लोग भारत में भरे पड़े हैं जो 60 साल बाद भी यह सोचते हैं कि मुस्लिम बहुल पाकिस्तान कभी भारत का दोस्त बन जायेगा। एक बड़ा सा समूह है जो पाकिस्तान से दोस्ती के राग अलापता रहता है, लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि पाकिस्तान में कोर्स में क्या-क्या पढ़ाया जा रहा है… और इससे भी ज्यादा दुःखद बात यह है कि इन जैसे लोग लगातार “सरस्वती शिशु मन्दिरों” की शिक्षा प्रणाली पर हमले बोलते रहते हैं, शिक्षा का भगवाकरण रोकने के नाम पर बच्चों के मन में एक विकृत सेकुलरिज़्म थोपते जा रहे हैं। भारत, भारतीय संस्कृति आदि से इन सेकुलर लोगों को कोफ़्त महसूस होती है। भारत के प्राचीन इतिहास को किस तरह या तो बदनाम किया जाये या फ़िर तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाये इसी कोशिश में ये लोग सतत लगे रहते हैं… सेकुलरिज़्म के मसीहा अर्जुनसिंह का मंत्रिकाल हो या JNU के किसी प्रोफ़ेसर का लिखा हुआ पाठ्यक्रम हो, अथवा किसी वामपंथी द्वारा ICHR में चमचागिरी से घुसपैठ करके लिखा गया खास सेकुलर इतिहास हो, इस सारी मानसिकता की एक झलक हमें NCERT की पुस्तकों में देखने मिल जाती है… इस लेख के आगे के हिस्सों में हम भारत में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के बारे में भी जानेंगे, लेकिन पहले हमारे “छोटे भाई”(?) के घर क्या पढ़ाया जा रहा है, यह देख लेते हैं…

यह एक स्वाभाविक सी बात है कि बच्चा एक कच्ची मिट्टी के घड़े के समान होता है उसे जिस प्रकार ढाला जाये ढल जायेगा और एक विशेष आयु के बाद उसका दिमाग इतना “कण्डीशण्ड” हो चुका होता है कि उसे बदलना बेहद मुश्किल होता है। कच्चे दिमागों पर काबू पाने और उन्हें अपनी विचारधारा के मुताबिक मोड़ने में सबसे ज्यादा प्रभावशाली हथियार है “स्कूली पढ़ाई”, पाकिस्तान के प्रायमरी और मिडिल स्कूलों में सरकारी तौर पर क्या पढ़ाया जा रहा है और बच्चों का इतिहास बोध कितना सही है, इसके सर्वेक्षण हेतु पाकिस्तान के कुछ शिक्षाविदों की एक समिति बनाई गई थी, जिसने अपने अध्ययन में बेहद चौंकाने वाले खुलासे किये हैं और इस पाठ्यक्रम को तत्काल बदलने की सिफ़ारिश की है (हालांकि ऐसा कुछ होने की उम्मीद कम ही है)। Sustainable Development Policy Institute (SDPI) द्वारा इस समिति की एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई है, जिसका नाम है “The Subtle Subversion : The State of Curricula and Textbook in Pakistan” जिसके सम्पादक हैं एएच नैयर और अहमद सलीम (कुल पृष्ठ 154)। (यहाँ देखें)

SDPI द्वारा जो अध्ययन किया गया था वह पाकिस्तान के सरकारी स्कूलों में पढ़ाये जा रहे पाठ्यक्रम के बारे में है, उसी पाकिस्तान सरकार के बारे में जिसके “प्रेम और विश्वास” में गाँधी-नेहरु और समूची कांग्रेस 60 साल से डूबे हैं। जब सरकार के स्तर पर यह हालात हैं तो “जमात-उद-दावा” द्वारा संचालित और आर्थिक मदद से चलने वाले मदरसों में क्या पढ़ाया जाता होगा इसकी एक हल्की सी झलक लेख के पहले पैराग्राफ़ में आप पढ़ चुके हैं।

भारत की खुफ़िया एजेंसी आईबी द्वारा भी विभिन्न सीमावर्ती मदरसों से जब्त पुस्तकों और कश्मीरी आतंकवादियों से पूछताछ के दौरान पता चला है कि कच्चे दिमागों को “हरे रंग” में रंगने के लिये पाकिस्तान के मदरसों में अनवर-अल-अवलाकी द्वारा लिखित पुस्तक “जेहाद का समर्थन करने के 44 तरीके…” पढ़ाई जाती है। (यहाँ देखें) पाकिस्तान के मदरसों में पढ़ाई जाने वाली कक्षा 11 की पुस्तक में “संस्कृति” अध्याय की शुरुआत ही “भारत के साथ युद्ध” से की जाती है। लगभग हरेक पुस्तक में भारत को एक दुश्मन के रूप में चित्रित किया गया है तथा “जेहाद” और “शहादत” को जबरदस्त तरीके से महिमामण्डित किया गया है। इसी प्रकार खास तरह की अंग्रेजी भी पढ़ाई जा रही है, जिसमें B से बन्दूक, K से नाइफ़ (चाकू), R से रॉकेट, T से टैंक और S से सोर्ड (तलवार) के उदाहरण दिये गये हैं… दूसरी तरफ़ “सेकुलरों के देश” भारत में “ग” से गणेश की बजाय “ग” से गधा पढ़ाया जा रहा है।

तात्पर्य यह कि मदरसों में हिंसा को महिमामंडित किया जा रहा है। इतिहास और सामाजिक अध्ययन की पुस्तकें पाकिस्तान में बाजार में नहीं मिलती हैं इन्हें जमात-उद-दावा द्वारा सीधे मदरसों में पहुँचाया जाता है, जिसमें बताया गया है कि किस तरह मुस्लिम पीरों और फ़कीरों ने जाहिल और मूर्ख हिन्दुओं को उनके अन्धविश्वासों और अन्य गलत कामों से मुक्ति दिलवाई। एक अध्याय मुहम्मद अली जिन्ना पर भी है जिसमें उन्हें मुसलमानों का उद्धारक बताया गया है और कहा गया है कि भारत की “हिन्दू कांग्रेस पार्टी” मुसलमानों को गुलाम बनाना चाहती थी लेकिन जिन्ना ने जिद करके हमें गुलाम बनने से बचा लिया। इन मदरसों से निकले “प्रतिभाशाली”(?) छात्रों को लश्कर-ए-तोयबा में शामिल कर लिया जाता है, जहाँ पहले साल उनका नाम “व्हाईट फ़ॉल्कन” होता है, और 10-12 वर्ष की आयु से उनकी “जेहाद” की ट्रेनिंग शुरु हो जाती है। एक रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान में लगभग 6000 गैर-सरकारी मदरसे हैं जिनमें अधिकतर में सिर्फ़ और सिर्फ़ नफ़रत का पाठ पढ़ाया जाता है। पाकिस्तान में मदरसों में लगभग 5 लाख छात्र पढ़ते हैं जिसमें से 16000 अफ़गानी बच्चे हैं और लगभग 18000 अन्य इस्लामी देशों के। लश्कर-ए-तैयबा अमूमन गरीब घरों के बच्चों को चुन लेता है और उनके परिवारों को हर महीने एक निश्चित रकम भेजी जाती है, सो परिवार वालों को भी कोई आपत्ति नहीं होती।

यह तो हुई गैर-सरकारी मदरसों में पढ़ाये जाने वाले लश्कर और जमात के पाठ्यक्रम के बारे में, लेकिन खुद पाकिस्तान सरकार भी आधिकारिक रूप से क्या पढ़ा रही है यह हम देखेंगे लेखमाला के अगले भाग में…
(भाग-2 में जारी…)

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Azaharuddin, Match Fixing, Dawood, Congress, Secularism

हाल ही में पाकिस्तान में श्रीलंकाई क्रिकेटरों पर हमला हुआ, जिस बात की आशंका काफ़ी समय से सभी को थी, अन्ततः वह बात सच साबित हुई कि पाकिस्तान का सत्ता प्रतिष्ठान, आईएसआई, तालिबान, लश्कर आदि सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं, यानी कि चोर-चोर मौसेरे भाई। इसी प्रकार पाकिस्तान में क्रिकेट भी एक सट्टे का रूप है, यह बात काफ़ी वर्षों से सभी लोग जानते हैं कि पाकिस्तान की सत्ता में रहने वाले दाऊद के बेहद करीबी हैं। दाऊद के हजारों धंधों में से एक है क्रिकेट पर सट्टा लगाना, खिलाड़ियों को खरीदना और मैच फ़िक्स करवाना। इस धंधे में भारत और पाकिस्तान के कई खिलाड़ी शामिल रहे हैं और उनकी घनिष्ठता इतनी बढ़ी है कि दाऊद ने जावेद मियाँदाद को अपना समधी भी बना लिया, मोहम्मद अज़हरुद्दीन के पाकिस्तानी क्रिकेटरों से काफ़ी करीबी सम्बन्ध रहे हैं, और मुशर्रफ़ के हालिया भारत दौरे के समय अज़हरुद्दीन उनसे भी गलबहियाँ कर रहे थे।

उल्लेखनीय है कि हाल ही में कांग्रेस ने हैदराबाद सीट से पूर्व् क्रिकेटर अजहरुद्दीन को टिकट देने का फ़ैसला लगभग कर ही लिया है। एक तरफ़ तो राहुल बाबा पार्टी में शुद्धता आदि की बातें कर रहे हैं और साफ़ छवि वाले युवाओं को मौका देने की “लाबिंग” कर रहे हैं ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर मुस्लिम वोटों की लालच में कांग्रेस को अज़हरुद्दीन जैसे दागी क्रिकेटर (वे अभी भी पूरी तरह से पाक-साफ़ घोषित नहीं हुए हैं) की जरूरत क्यों आन पड़ी है? यह वही अज़हरुद्दीन हैं जो क्रिकेट से बाहर का दरवाजा दिखाये जाने और जेल जाने की नौबत आने के तुरन्त बाद प्रेस से मुखातिब होते हुए बोले थे कि “चूंकि वे अल्पसंख्यक हैं इसलिये उन्हें फ़ँसाया गया है…” हालांकि बाद में मीडिया के दबाव में उन्होंने वह कथन वापस ले लिया था, लेकिन उनकी “मानसिकता” तत्काल उजागर हो गई थी। एक बार एक इंटरव्यू में दाऊद इब्राहीम ने भी कहा है कि वे तो भारत में आत्मसमर्पण करना चाहते हैं लेकिन चूंकि भारत की न्याय व्यवस्था पर उन्हें यह भरोसा नहीं है कि उन्हें उचित न्याय(?) मिलेगा, इसलिये वे समर्पण नहीं करेंगे…। एक और छैला बाबू हैं सलमान खान, हिरण के शिकार के मामले में जब वे जोधपुर जेल जाने को हुए, उन्होंने भी तुरन्त मुसलमानों की सफ़ेद जाली वाली टोपी पहन ली थी… आखिर यह कैसी मानसिकता है और इन सभी के विचारों(?) में इतनी समानता कैसे है? जबकि यही वह देश है, जहाँ आज भी अफ़ज़ल गुरु मस्ती से चिकन चबा रहे हैं, आज भी अबू सलेम आराम से अपनी प्रेमिका से बतिया रहे हैं, आज भी धरती का बोझ अब्दुल करीम तेलगी महंगा इलाज ले रहा है, आज भी शहाबुद्दीन संसद में ठहाके लगा रहे हैं, आज भी सोहराबुद्दीन के एनकाउंटर पर सेकुलर लोग “स्यापा” कर रहे हैं, और अब अज़हरुद्दीन भी हमारी छाती पर मूंग दलने आ पहुँचे हैं… ऐसे में इस महान देश से ज्यादा महफ़ूज़ ठिकाना कौन सा हो सकता है?

अज़हरुद्दीन के मामले पर सीबीआई अभी जाँच कर रही है, ऐसे में कहीं उनके कांग्रेस में शामिल होने की कोई गुप्त शर्त तो नहीं है? क्या इसका मतलब यह लगाया जाये कि कांग्रेस अबू सलेम को भी आज़मगढ़ से टिकट दे सकती है? सुप्रीम कोर्ट हाल ही में बेशर्म कांग्रेस को सीबीआई का दुरुपयोग करने हेतु सरेआम डाँट लगा चुकी है, लेकिन कोई असर नहीं। सीबीआई की विभिन्न रिपोर्टों में साफ़-साफ़ उल्लेख है कि अज़हरुद्दीन दाऊद के दो खास आदमियों अनीस इब्राहीम और अबू सलेम के सतत सम्पर्क में थे। शारजाह में होने वाले मैच खासतौर पर फ़िक्स किये जाते थे, क्योंकि वह इलाका भी दाऊद के लिये “घर” जैसा ही है। पाठकों को भारतीय क्रिकेट टीम के फ़िजियो डॉ अली ईरानी भी याद होंगे, वे गाहे-बगाहे मैचों के बीच में किसी न किसी बहाने मैदान के बीच पहुँच जाते थे और बतियाते रहते थे, आखिर ऐसा बार-बार क्यों होता था? सीबीआई की 162 पृष्ठों की एक रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख है कि किस तरह से अंडरवर्ल्ड का पैसा अज़हरुद्दीन के मार्फ़त घूम-फ़िरकर माफ़िया के हाथों में वापस पहुँचता था। कुख्यात बुकी मुकेश गुप्ता और हांसी क्रोन्ये के बयानों से भी साबित हुआ था कि क्रिकेट मैच सट्टे और फ़िक्सिंग में दाऊद गैंग गले-गले तक सक्रिय है। अभी-अभी उत्तरप्रदेश के एक और डॉन बबलू श्रीवास्तव ने कहा है कि वे और अज़हरुद्दीन लगभग एक जैसे ही हैं, लेकिन अज़हरुद्दीन सिर्फ़ इसलिये जेल से बाहर हैं क्योंकि उनके दाऊद से मधुर सम्बन्ध हैं। इस बयान का बहुत गहरा मतलब है, आज की तारीख में अज़हरुद्दीन हैदराबाद के जिस पॉश इलाके बंजारा हिल्स में रहते हैं, वहाँ कड़ी सुरक्षा व्यवस्था होती है और मुम्बई पुलिस की एक खुफ़िया रिपोर्ट आने के बाद वहाँ “शार्प शूटर्स” की तैनाती भी की गई है, भला एक “पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी” को इतनी भारी-भरकम सुरक्षा व्यवस्था की क्या आवश्यकता है? हालांकि बबलू ने कहा है कि अज़हरुद्दीन को जान का कोई खतरा हो ही नहीं सकता, क्योंकि उनके सभी “भाई” लोगों से मधुर सम्बन्ध हैं। जब अबू सलेम पुर्तगाल में आज़ादी से घूमता था उस वक्त सीबीआई ने अज़हरुद्दीन को किये गये उसके कई फ़ोन कॉल्स ट्रेस किये थे (दिव्या चावला की रिपोर्ट देखें)।

कोई न कोई अन्दरूनी बात है जो कि अभी खुलकर सामने नहीं आ रही है और अब अज़हरुद्दीन के कांग्रेस में शामिल हो जाने के बाद ऐसा कुछ सामने आने की सम्भावना भी कम होती जा रही है। “जय हो…” के कॉपीराइट खरीदने की बजाय कांग्रेस 25-50 साफ़ छवि वाले उम्मीदवार ही खड़े कर दे तो शायद देश का कुछ भला हो…

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World Women’s Day, Shobha De, SITA Sena

हालांकि महिला दिवस पर शोभा डे और खुशवन्त सिंह जैसों के बारे में कुछ लिखना एक कड़वा अनुभव होता है, लेकिन ये “पेज-थ्री हस्तियाँ”(?) अपनी “गिरावट” से मजबूर कर देती हैं कि उनके बारे में कुछ लिखा जाये। जैसा कि सभी जानते हैं शोभा डे नाम की एक “पोर्न लेखिका” भारत के “प्रगतिशील तबके”(?) में मशहूर हैं, अधिकतर अंग्रेजी में ही सोचती, बोलती और लिखती हैं, उन्होंने राम सेना के अत्याचारों के विरोध में महिला दिवस यानी 8 मार्च को नई दिल्ली में “सीटी बजाओ” अभियान का आयोजन किया है और अपनी इस किटी पार्टी सेना को नाम दिया है “सीता सेना”। जी हाँ, राम सेना के विरोध में उन्हें सीता सेना नाम ही सूझ पाया। एक तो यह हिन्दू नाम है और दूसरा इस नाम का “प्रोपेगंडा” करके सेकुलरों की जमात में और भी गहरे पैठा जा सकता है। यदि वे “फ़ातिमा सेना” या “मदर मैरी सेना” जैसा नाम (अव्वल तो रख ही नहीं पातीं) रखतीं और इंडिया गेट पर किसी प्रकार की लेक्चरबाजी करतीं तो उनका सिर फ़ूटना तय था। ये मोहतरमा इतनी महान और प्रगतिशील लेखिका हैं कि इनके हर तीसरे लेख में ‘S’ से शुरु होने वाला अंग्रेजी का तीन अक्षरों का शब्द अवश्य मौजूद होता है, सो बिक्री भी बहुत होती है, ठीक खुशवन्त सिंह की तरह, जो दारू और औरत पर लिखने के मामले में उस्ताद(?) हैं। मैडम का संक्षिप्त सा परिचय इस प्रकार है - शोभा राजाध्यक्ष, जिनका जन्म जनवरी 1947 में हुआ, ये एक मराठी सारस्वत ब्राह्मण हैं। इनके दूसरे पति दिलीप डे हैं और फ़िलहाल ये अपने छः बच्चों के साथ मुम्बई में निवास करती हैं।

भई हम तो ठहरे “साम्प्रदायिक”, “फ़ासिस्ट” “पिछड़े” और “दकियानूसी” लोग, इसलिये मैडम को हम सिर्फ़ सुझाव दे सकते हैं कि इंडिया गेट पर जमने वाली इन महिलाओं के इस झुण्ड को ये “शूर्पणखा सेना” का नाम भी तो दे सकती थीं…।

उधर एक और महिला हैं साध्वी प्रज्ञा, जो कि जेल में भोजन में अंडा परोसे जाने के कारण कई दिनों से भूख हड़ताल पर हैं, उनकी हालत नाजुक है और कोर्ट ने कहा है कि उन्हें अस्पताल में भरती किया जा सकता है (यह कोर्ट ही तय करेगा, भले ही साध्वी की हालत कितनी ही खराब हो जाये, कोई महिला संगठन उनके पक्ष में सामने नहीं आयेगा)। साध्वी प्रज्ञा जी को यह बात समझना चाहिये कि खाने में अण्डा दिये जाने जैसी “छोटी सी बात” पर इतना नाराज़ होने की क्या आवश्यकता है? क्या उन्हें पता नहीं कि “हिन्दुओं की धार्मिक भावना” नाम की कोई चीज़ नहीं होती? इसलिये सरेआम “सीता सेना” भी बनाई जा सकती है, और कोई भी पेंटर हिन्दुओं के भगवानों की नग्न तस्वीरें बना सकता है।

अब महिला दिवस पर इतने बड़े-बड़े लोगों के बारे में लिख दिया कि “फ़ुन्दीबाई सरपंच” (यहाँ देखें) जैसी आम और पिछड़ी महिलाओं के बारे में लिखने की क्या जरूरत है?

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हिन्दी फ़िल्मों की एक हीरोइन अमृता अरोरा (नाम कितने लोगों ने सुना है?) ने 4 मार्च को अपने “बॉयफ़्रेण्ड” शकील से “मैरिज” कर ली। जिसने उनका नाम नहीं सुना हो उन्हें बता दूँ कि ये मोहतरमा, सलमान खान के भाई अरबाज़ खान की पत्नी मलाईका अरोरा की बहन हैं (उफ़्फ़्फ़्फ़ इतना लम्बा परिचय), और अक्सर शाहरुख के बंगले में होने वाली पार्टियों में पाई जाती हैं। इस माइक्रो पोस्ट का लब्बेलुआब यह है कि इन्होंने 4 मार्च को ईसाई वेडिंग पद्धति से “मैरिज” की, फ़िर 6 मार्च को इस्लामी पद्धति से “निकाह” भी किया। असल में इनकी माताजी एक मलयाली ईसाई जोयस पोलीक्रैप हैं और ताजा-ताजा पति मुस्लिम हैं, सो माताजी और पति की “धार्मिक भावनाओं”(?) का खयाल रखते हुए उन्होंने अपना “कर्तव्य” निभाया। अब बेचारे पिताजी ठहरे एक पंजाबी हिन्दू, तो इन्हें हिन्दू पद्धति से शादी करने की बिलकुल नहीं सूझी, न उन्हें किसी ने सुझाया होगा, (हिन्दुओं की भावनाओं का खयाल रखने का तो प्रचलन रहा नहीं अब…) आखिर “सेकुलरिज़्म” का मामला है भाई… जय हो… जय हो… (और ये तो उनका व्यक्तिगत मामला है, वे चाहे जैसे शादी करें हम कौन होते हैं दखल देने वाले, हमारा काम आपको सूचित करना भर है…)

“व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के पक्षधर” और “सेकुलर” लोग लट्ठ (की-बोर्ड) लेकर आते ही होंगे, चलो निकलो भाईयों इधर से…। आजकल हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति आदि के बारे में कोई सवाल उठाना “ओल्ड फ़ैशन्ड” माना जाता है… और यदि किसी को अमृता जी द्वारा हिन्दू पद्धति से किये गये विवाह के बारे में कोई जानकारी हो लिंक दें ताकि उनके पिताजी के साथ-साथ हम जैसे दकियानूसी(?) लोगों का कलेजा भी ठण्डा हो सके…। एक बार फ़िर जय हो…

(नोट – “स्वास्थ्य” की बेहतरी के लिये कभी कभार ऐसी बेहद माइक्रो पोस्ट भी लिखना चाहिये… जिसमें एक भी “टैग” ना लगा हो)
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