वीर सावरकर के विरुद्ध फैलाए गए दुष्प्रचार का पर्दाफ़ाश

Written by गुरुवार, 02 मार्च 2017 11:08

इंदिरा गांधी ने इस व्यक्ति को देशभक्ति और साहस का पर्याय बताया था, जबकि सी राजगोपालाचारी ने उन्हें शक्ति का प्रतीक। भारत में साम्यवाद के जनक रहे एम एन रॉय उन्हें अपनी प्रेरणा एवं निडर नेता के रूप में मानते थे, तो वहीं एक और साम्यवादी एमपी हिरेन मुखर्जी ने उनके निधन पर लोकसभा में शोकप्रस्ताव रखा.

मगर फिर भी न जाने क्यों सावरकर इन साम्यवादियों तथा भारत के कथित उदारवादी गुटों के द्वारा सुनियोजित मिथ्या चरित्र हनन का मुख्य शिकार बन गए। विनायक दामोदर सावरकर एक ऐसे व्यक्ति बन गए, जिनके चरित्र का मिथ्या तथ्यों के आधार पर हनन आरम्भ हो गया। कुछ ने उन्हें अंग्रेज सरकार का जासूस कहना शुरू कर दिया जिसने हिन्दू मुस्लिम एकता के लक्ष्य को तोड़ने के लिए जानबूझ कर लार्ड लिनिथ्गो के एजेंडे को आगे बढ़ाया। जानबूझ कर झूठ फैलाने वालों ने उनके द्वारा अच्छे आचरण वाले शपथपत्र पर हस्ताक्षर करने को बहुत ही शातिराना तरीके से दया याचिका पर हस्ताक्षर बता दिया।

वर्ष 1919 में अंग्रेजी सरकार ने अंडमान में सजा देना बंद करने का निर्णय लिया मगर उन्हें रिहा नहीं किया गया। उसी वर्ष अलीपुर बमकांड में दोषी पाए गए लोगों को भी अंडमान से रिहा कर दिया गया मगर उन्हें जेल से नहीं छोड़ा गया। बाद में वर्ष 1920 में अंग्रेजी सरकार ने राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए एक योजना आरम्भ की बशर्ते वे अपनी राजनीतिक गतिविधियों का त्याग कर दें। अगर उन्हें दोबारा से ऐसा करते हुए पाया जाएगा तो उन्हें अपनी बाकी सज़ा दोबारा से कालापानी में काटनी होगी। सावरकर की यह योजना अपने बाहर आने के लिए और अपनी मातृभूमि की सेवा करने के लिए सर्वथा उपयुक्त मौक़ा लगी। अगर वे एक जासूस होते तो उन्हें वर्ष 1920 में इस योजना के आते ही रिहा कर दिया गया होता न कि वर्ष 1921 में। उन्हें रिहा नहीं किया गया था, उन्हें केवल छूट दी गयी थी। वर्ष 1921 में उन्हें अलीपुर जेल में 8 दिनों के लिए भेजा गया जहां से उन्हें रत्नागिरी जेल भेजा गया जहाँ पर वे वर्ष 1923 तक रहे। अंडमान में उन्हें तरह तरह की यातनाएं दी गयी थी। उनके साथी कैदियों को सेल्युलर जेल में पांच वर्ष की कैद के बाद अपने परिवार से मिलने की अनुमति थी, मगर उन्हें आठ वर्ष के बाद उनकी पत्नी से मिलने की अनुमति दी गयी और वह भी उनकी पत्नी जो सामान उनके लिए लाई थी, उन्हें वह भी लेने नहीं दिया गया। उनकी सर्वक्षमा याचना मुम्बई सरकार द्वारा तीन बार ठुकराई गयी। दो बार वर्ष 1919 में और एक बार पुन: वर्ष 1921 में। तो आखिर अंग्रेज अपने ही जासूस की क्षमायाचना दो बार क्यों ठुकराएंगे, यह सोचने वाली बात है? 

सावरकर को पहली बार कोल्हू में 16 अगस्त 1911 में जोता गया। जब उन्होंने 16 जून 1914 को कोई भी काम करने से इंकार किया था तो उन्हें जूट के बोरे में आठ दिनों के लिए हाथ बांधकर खड़ा कर दिया गया था और जब उन्होंने यह दोबारा किया तो उनकी गर्दन में एक बड़े क्रोस बार के साथ इसे चार महीनों के लिए और बढ़ा दिया गया था। उन्हें ऐसी सज़ा 22 बार मिली थी। क्रांति की अलख जगाने वाली और इस तरह के तमाम कष्ट सहने वाली पवित्र आत्मा को किसी के द्वारा अंग्रेजी जासूस कहना घोर निंदनीय है। वे अंग्रेजों के भारत छोड़ने तक भारतीय स्वतंत्रता में तन मन और आत्मा से समर्पित थे।
दिसंबर 1923 में उन्हें महाराष्ट्र के एक पिछड़े इलाके रत्नागिरी में नज़रबंद रखा गया जहां पर कोई भी डाक पता या टेलीफोन जैसी सुविधा नहीं थी। अगर वे अंग्रेजों के जासूस होते तो उन्हें ऐसी जगह पर क्यों रखा जाता जो किसी भी तरह से किसी भी उपयोग की नहीं थी? एक और मार्क्सवादी नेता नारायण राव बापट अर्थात उल्हास ने सावरकर के साथ के अपने अनुभवों के विषय में अपनी आत्मकथा में लिखा है और वे कहते हैं कि “जो भी यह कहता है कि सावरकर केवल इस वजह से उदार हो गए थे कि उन्होंने अपनी रिहाई के लिए सरकार की बातें मान ली थीं तो उनकी मूर्खता पर हंसा ही जा सकता है!”

1

रत्नागिरी में अपने प्रवास के दौरान युसुफ मेहरली और वीवीएस अय्यर जैसे साम्यवादी नेताओं का मार्गदर्शन किया। यह बहुत ही आसानी से माना जा सकता है कि जब जब वे सावरकर का अपमान करते हैं तो कहीं न कहीं वे खुद को भी अपमानित करते हैं, और सावरकर ने क्रांतिकारियों और उनके शिष्यों जैसे बैडी चावान को भी मार्गदर्शन एवं प्रशिक्षण दिया जिन्होनें अंग्रेज सार्जेंट को 26 अप्रेल 1934 को मुम्बई के धोबी तलाव क्षेत्र में मार गिराया था और जिसके लिए उन्हें 45 दिनों तक का दंड भी मिला था। उनके एक और शिष्य आत्माराम नाना पाटिल और एक वीबी गोगटे ने 22 जुलाई 1931 को फर्गुसन कॉलेज के पुस्तकालय में मुम्बई के कार्यकारी गवर्नर सर जॉन अर्नेस्ट होस्टन पर गोली चलाई थी। ये घटनाएं यह दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं कि अपने 25 वर्षों के राजनीतिक निर्वासित जीवन में सावरकर ने अपना रुख इंच मात्र भी बदला नहीं था। केवल अंडमान से भारत आने के लिए उन्होंने नाटक किया था| 

वे श्रद्धानन्द के नाम से एक साप्ताहिक का प्रकाशन कर रहे थे और युवाओं को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने के लिए अपने लेखों के द्वारा आह्वान कर रहे थे। उन्होंने अंग्रेजों के लाठीचार्ज में घायल हुए लाला लाजपत राय की मृत्यु पर युवाओं को इसका बदला लेने के लिए भी प्रेरित किया था। सावरकर को उनकी सीमित नज़रबंदी से 10 मई 1937 को रिहा किया गया। उन्होंने रासबिहारी बोस से संपर्क किया और सुभाषचंद्र बोस को हिटलर से मिलने के लिए और भारत से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए हिटलर से संपर्क स्थापित करने के लिए और अंतत: आज़ाद हिन्द फौज के गठन के लिए प्रेरित किया। उन पर नाजीवाद का भी आरोप लगता है मगर यह किसी ने स्पष्ट नहीं किया है कि सावरकर ने किसी यहूदी राज्य की स्थापना का स्वागत क्यों किया और हिन्दुओं से उनसे सीखने के लिए प्रेरित किया।

जब भी हम एक पत्थर सावरकर की तरफ उछालते हैं, हम अपने स्वतंत्रता आन्दोलन का अनादर करते हैं। वे 1857 के विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहने वाले प्रथम व्यक्ति थे और उनकी किताब पर अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया था और इस किताब को भगत सिंह ने लाहौर विश्वविद्यालय में 1928 में प्रकाशित किया था। क्या भगत सिंह ने अंग्रेजी एजेंट की किताबों का प्रकाशन किया? उत्तर है नहीं, सपने में भी नहीं, वे सपने में भी ऐसा नहीं कर सकते थे! सावरकर के बारे में ये सभी झूठ जानबूझकर डाले गए गए हैं, और इन्हें बार बार इस तरह से दोहराया जाता है कि युवा भ्रमित होकर इस झूठी कहानी पर भरोसा कर लें।

दुखद है कि रोमिला थापर और इरफ़ान हबीब जैसे इतिहासकारों ने बहुत ही चतुराई और धूर्ततापूर्ण पद्धति से अपने आकाओं को खुश करने के लिए सावरकर के स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान को एकदम से नकार दिया और उन्हें पूरे परिदृश्य में एक खलनायक बना दिया गया है

Read 6992 times Last modified on गुरुवार, 02 मार्च 2017 11:54