बेल्जियम में जन्मे फादर कामिल बुल्के की जीवनभर कर्मभूमि हिंदुस्तान की माटी रही। हिंदी के पुजारी बुल्के मृत्युपर्यंत हिंदी, तुलसीदास और वाल्मीकि के अनन्य भक्त रहे। ‘कामिल’ शब्द के दो अर्थ हैं। एक- वेदी-सेवक जबकि दूसरा अर्थ है- एक पुष्प का नाम। फ़ादर कामिल बुल्के ने दोनों ही अर्थों को जीवन में चरितार्थ किया। वह जेसुइट संघ में दीक्षित संन्यासी के रूप में ‘वेदी-संन्यासी’ थे और एक व्यक्ति के रुप में महकते हुए पुष्प। फादर बुल्के का हिंदी प्रेम जगजाहिर रहा।

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Corrupt Hindi Language & Education

“लफ़ड़ा”, “हटेले”, “खाली-पीली”, “बोम मत मार”, “निकल पड़ी”..... क्या कहा, इन शब्दों का मतलब क्या है? मत पूछिये, क्योंकि यह एक नई भाषा है, जिसका विस्तार (?) तेजी से हो रहा है, स्रोत है मायानगरी मुम्बई की हिन्दी फ़िल्में। दृश्य मीडिया की भाषा की एक बानगी – “श्रीलंकन गवर्नमेंट ने इस बात से डिनाय किया है कि उसने जफ़ना अपने ट्रूप्स को डिप्लॉय करने का प्लान बनाया है”, हाल ही में हिन्दी के सबसे ज्यादा प्रसार संख्या वाले “भास्कर” में छपा एक विज्ञापन- “कृतिकार भास्कर क्रिएटिव अवार्ड्स में एंट्री भेजने की लास्ट डेट है 31 अगस्त“... ऐसी भाषा का स्रोत हैं नये-नवेले भर्ती हुए तथाकथित चॉकलेटी पत्रकार जो कैमरा और माईक हाथ में आते ही अपने-आप को सभी विषयों का ज्ञाता और जमीन से दो-चार इंच ऊपर समझने लगते हैं। जिन्हें न तो भाषा से कोई मतलब है, ना हिन्दी से कोई वास्ता है, ना इस बात से कि इस प्रकार की भाषा का संप्रेषण करके वे किसके दिलो-दिमाग तक पहुँचना चाहते हैं।

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Hindi Computing Hindi Diwas

जब मैंने पिछली पोस्ट (हिन्दी दिवस भाग-१ : हिन्दी के लिये आईटी उद्योग ने क्या योगदान किया?) लिखी, उसमें मैंने हिन्दी के कतिपय निस्वार्थ सेवकों का मात्र उल्लेख किया था। अब इस भाग में मैं उनके कामों पर कुछ रोशनी डालूँगा। हालांकि यह जानकारी ब्लॉग जगत में रमने वाले को आमतौर पर है, लेकिन ब्लॉग जगत के बाहर भी कई मित्र, शुभचिंतक हैं जिन्हें यह जानकारी उपयोगी, रोचक और ज्ञानवर्द्घक लगेगी। उन्हें यह पता चलेगा कि कैसे संगणक पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में बिखरे तौर पर ही सही लेकिन समाजसेवियों ने काम शुरु किया, उसे आगे बढाया, प्रचारित किया, मुफ़्त में लोगों को बाँटा, नेटवर्क तैयार किया, उसे मजबूत किया और धीरे-धीरे हिन्दी को कम्प्यूटर पर आज यह मुकाम दिलाने में सफ़ल हुए।

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रविवार, 11 मार्च 2007 16:26

Hindi Language in India and Hindi Diwas

"सुद्ध" नहीं "शुद्ध" हिन्दी बोलो / लिखो


हमारी राष्ट्रभाषा अर्थात हिन्दी, जिसकी देश में स्थापना के लिये अब तक न जाने कितने ही व्यक्तियों, विद्यालयों और संस्थाओं ने लगातार संघर्ष किया, इसमें वे काफ़ी हद तक सफ़ल भी रहे हैं । अब तो दक्षिण से भी हिन्दी के समर्थन में आवाजें उठ रही हैं, और हमारी प्यारी हिन्दी धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रही है और अब इसे कोई रोक भी नहीं सकता । वैसे भी "बाजार"की ताकतें बहुत बडी हैं और हिन्दी में "माल" खींचने की काफ़ी सम्भावनायें हैं इसलिये कैसे भी हो हिन्दी का झंडा तो बुलन्द होकर रहेगा । तमाम चैनलों के चाकलेटी पत्रकार भी धन्धे की खातिर ही सही टूटी-फ़ूटी ही सही, लेकिन हमें "ईराक के इन्टेरिम प्रधानमन्त्री मिस्टर चलाबी ने यूएन के अध्यक्ष से अधिक ग्रांट की माँग की है" जैसी अंग्रेजी की बघार लगी हिन्दी हमें झिलाने लगे हैं, खैर कैसे भी हो हिन्दी का प्रसार तो हो रहा है ।

परन्तु हिन्दी बेल्ट (जी हाँ, जिसे अंग्रेजों और हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक जमात ने "गोबर पट्टी" का नाम दे रखा है, पता नहीं क्यों ?) अर्थात उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश के रहवासी शुद्ध हिन्दी लिखना तो दूर, ठीक से बोल भी नहीं पाते हैं, यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है । इन प्रदेशों को हिन्दी का हृदय-स्थल कहा गया है, अनेक महान साहित्यकारों की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि यही चारों प्रदेश रहे हैं और इस पर गर्व भी किया जाता है । हिन्दी साहित्य को अतुलनीय योगदान इन्हीं प्रदेशों की विभूतियों ने दिया है । इन्हीं चारों प्रदेशों का गठन भाषा के आधार पर नहीं हुआ, इसलिये जहाँ बाकी राज्यों की हिन्दी के अलावा कम से कम अपनी एक आधिकारिक भाषा तो है, चाहे वह मराठी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, उडिया, बंगाली, पंजाबी, मणिपुरी, कोंकणी आदि हों, वहीं दूसरी ओर से इन चारों हिन्दी प्रदेशों की आधिकारिक भाषा हिन्दी होते हुए भी आमजन में इसकी भीषण दुर्दशा साफ़ देखी जा सकती है । इन प्रदेशों में, मालवी है, बुन्देलखंडी है, बघेली, निमाडी़, भोजपुरी, अवधी और भी बहुत सी हैं.... गरज कि हिन्दी को छोडकर सभी अपनी-अपनी जगह हैं, और हिन्दी कहाँ है ? हिन्दी अर्थात जिसे हम साफ़, शुद्ध, भले ही अतिसाहित्यिक और आलंकारिक ना हो, लेकिन "सिरी बिस्वास" (श्री विश्वास) जैसी भी ना हो । ऐसी हिन्दी कहाँ है, क्या सिर्फ़ उपन्यासों में, सहायक वाचनों, बाल भारती, आओ सुलेख लिखें जैसी किताबों में । आम बोलचाल की भाषा में जो हिन्दी का रूप हमें देखने को मिलता है उससे लगता है कि कहीं ना कहीं बुनियादी गड़बडी है । यहाँ तक कि प्रायमरी और मिडिल स्कूलों में पढाने वाले कई अध्यापक / अध्यापिकायें स्नातक और स्नातकोत्तर होने के बावजूद सरेआम... "तीरंगा" और "आर्शीवाद" लिखते हैं, और यही संस्कार (?) वे नौनिहालों को भी दे रहे हैं, फ़िर उनके स्नातकोत्तर होने का क्या उपयोग है ? आम तौर पर देखा गया है कि 'श' को 'स' और 'व' को 'ब' तो ऐसे बोला जाता है मानो दोनों एक ही शब्द हों और उन्हें कैसे भी बोलने पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता । "अरे बिस्नू जी जे डीस तो बासेबल है" (विष्णु जी यह डिश वाशेबल है) सुनकर भला कौन अपना सिर नहीं पीट लेगा ?

लेकिन जैसा कि पहले ही कहा गया कि मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्सों में ऐसी हिन्दी बोलना कतई गलत नहीं माना जाता, बल्कि यह आम बोलचाल की भाषा बन गई है, लेकिन हिन्दी ही कहलाती है । कई स्थानीय चैनलों के समाचारों में 'चेनल' (चैनल), टावर चोक (चौक), बेट (बैट) और रेट (रैट) हमेशा सुनाई दे जाता है, जो कि बडा़ भद्दा लगता है । लेकिन जब "बिद्या" प्रदान करने वाले ही गलत-सलत पढायेंगे तो भविष्य में उसे ठीक करना मुश्किल हो जाता है । इसके मूल में है शुद्ध संस्कृत के अध्ययन का अभाव । जो अध्यापक या विद्यार्थी संस्कृत की तमाम क्रिया, लकारों के साथ शुद्ध बोल पायेंगे वे कभी भी हिन्दी में बोलते समय या लिखते समय "ब्योपारी", "बिबेक" या "संबिधान संसोधन" जैसी गलती कर ही नहीं सकते । रही-सही कसर हिन्दी को "हिंग्रेजी" बना देने की फ़ूहड़ कोशिश करने वालों के कारण हो रही है । खामख्वाह अपनी विद्वत्ता झाडने के लिये हिन्दी के बीच में अंग्रेजी शब्दों को घुसेड़ना एक फ़ैशन होता जा रहा है । यदि अंग्रेजी शब्द सही ढंग और परिप्रेक्ष्य में बोला जाये तो भी आपत्ति नहीं है, लेकिन "छत पर बाऊंड्री वॉल" (अर्थात पैराफ़िट वॉल), या "सिर में हेडेक", "सुबह मॉर्निंग में ही तो मिले थे", "उन्हें बचपन से बहुत लेबर करने की आदत है इसीलिये आज वे एक सेक्सीफ़ुल व्यक्ति हैं" सुनकर तो कोई भी कपडे़ फ़ाडने पर मजबूर हो जायेगा ।

जब किसी बडे अधिकारी या पढे-लिखे व्यक्ति के मुँह से ऐसा कुछ सुनने को मिलता है तो हैरत के साथ-साथ क्षोभ भी होता है, कि वर्षों से हिन्दी क्षेत्र में रहते हुए भी वे एक सामान्य सी साफ़ हिन्दी भी नहीं बोल पाते हैं और अपने अधीनस्थों को सरेआम "सांबास-सांबास" कहते रहते हैं, किसी अल्पशिक्षित व्यक्ति या सारी जिन्दगी गाँव में बिता देने वाले किसी वृद्ध के मुँह से ऐसी हिन्दी अस्वाभाविक नहीं लगती, लेकिन किसी आईएएस अधिकारी या प्रोफ़ेसर के मुँह से नहीं । इसलिये हमें "दुध" (दूध), "लोकि" (लौकी), "शितल" (शीतल) आदि लिखे पर ध्यान देने की आवश्यकता तो है ही, बल्कि क्या और कैसे बोला जा रहा है, क्या उच्चारण किया जा रहा है, इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है । आईये प्रण करें कि भविष्य में जब कभी किसी से "पीछे का बैकग्राऊंड", "आगे का फ़्यूचर", "ओवरब्रिज वाला पुल", "मेरा तो बैडलक ही खराब है", जैसे वाक्य सुनाई दे जायें तो तत्काल उसमें सुधार करवायें, भले ही सामने वाला बुरा मान जाये...

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