इस छात्र आन्दोलन का मुख्य कारण यह था कि स्थानीय लोगों व वहां के विद्यार्थियों की यह मांग थी कि स्कूल में बांग्लाभाषी अध्यापकों का अभाव है, इसलिए स्कूल को बांग्ला-भाषी अध्यापक मिलने चाहिए. स्कूल सेवा आयोग, पश्चिम बंगाल द्वारा उस स्कूल के लिए एक संस्कृत का और उर्दू के दो अध्यापकों की नियुक्तियां होती है. इस स्कूल में पहले से एक उर्दू टीचर था, और स्कूल में उर्दू भाषा की कोई मांग नहीं थी क्योंकि स्कूल बांग्ला माध्यम है. पश्चिम-बंगाल में 2011 से स्कूलों में अध्यापकों की नियुक्तियां नहीं हुई हैं... इसलिये पश्चिम बंगाल में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की स्थिति दयनीय है. प्राथमिक स्कूलों के हाल यह है कि प्रदेश के ज्यादातर स्कूलों में गणित, बांग्ला-भाषा, इतिहास व अंग्रेजी पढ़ाने वाले शिक्षको का बेहद अभाव है. इस्लामपुर के दोतिबेता स्कूल में पिछले दो महीनो से यह प्रदर्शन चल रहा था कि स्कूल में बांग्ला-भाषा व अन्य विषयों के टीचरों की नियुक्ति हो.
इसी बीच पश्चिम-बंगाल स्कूल सर्विस कमीशन ने उस स्कूल के लिए तीन टीचरों को नियुक्ति पत्र प्रदान कर दिया. 17 सितंबर 2018 को स्कूल के विद्यार्थियों ने एक बड़ा विरोध प्रदर्शन किया और पुनः बांग्ला भाषी अध्यापकों मांग की. स्कूल में बढ़ते प्रतिरोध के कारण 18 सितंबर को उस जिले के “डिस्ट्रिक्ट इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल” ने स्कूल का निरीक्षण किया, और मांग एवं प्रतिरोध को ध्यान में रखते हुए उस स्कूल की प्रबंधन समिति व स्कूल के हेड मास्टर के साथ बैठक करके यह निर्णय लिया कि स्कूल में उर्दू टीचर नहीं भेजे जायेगें, बल्कि बांग्ला टीचर भेजे जायेगें क्योंकि इस स्कूल में उर्दू अध्यापक की जरूरत ही नहीं है. लेकिन यहाँ के स्थानीय विधायक व राज्य सरकार में पंचायत एवं ग्राम विकास राज्यमंत्री गुलाम रब्बानी ने डिस्ट्रिक्ट स्कूल इंस्पेक्टर व जिले के पुलिस अधीक्षक सुमित कुमार पर अपने राजनैतिक सत्ता के बल पर उनको दबाव में लेकर स्कूल में उर्दू टीचरों को सेवाभार (join) प्रदान करने के लिए राजी कर लिया. 20 सितंबर को वे दो उर्दू टीचर उस स्कूल में अपना सेवाभार ग्रहण करने के लिए आये और छात्रों के विरोध को देखते हुए उन दोनों टीचरों को सेवाभार ग्रहण करवाने के लिए 150 से 160 स्थानीय पुलिस बल भी आया था.
पुलिस के साथ में कुछ ऐसे लोग भी थे, जो अपना मुँह कपड़े से ढके थे. स्कूल में पुलिस बल के प्रवेश करते ही पहले से जारी विरोध करने वाले आंदोलनकारियों ने अपना प्रदर्शन और ज्यादा तेज कर दिया. सेवाभार ग्रहण का विरोध कर रहे टीचरों को विद्यार्थियों ने सेवाभार ग्रहण करने से रोंका, तो पुलिस ने पहले तो हाथापाई की... उन विद्यार्थियों को डराया धमकाया और स्कूल में अव्यवस्था की स्थिति पैदा कर दी. कुछ ही समय बाद पुलिस द्ववारा लाठी चार्ज कर दिया गया और आंसू गैस छोड़ी. इसका अंत तब हुआ जब पुलिस ने गोलियां चलाई और गोली लगने से राजेश सरकार की मृत्यु हो गयी. गुलाम रब्बानी द्वारा भेजे गए नकाबपोशों द्वारा देसी बम भी फेंके गए. बम किसने चलाया, किसी को नहीं पता लेकिन प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार पुलिस के साथ आये सफ़ेद नकाबपोश लोगो ने बम चलाये. मृतक राजेश सरकार की बहन जो कि इस पूरी घटना की चश्मदीह गवाह है, ने बताया की पुलिस ने गोली चलाई जिससे उसके भाई राजेश सरकार की मौके पर ही गोली लगने से मौत हो गयी. गोली चलने से एक अन्य छात्र तापस बर्मन गंभीर रूप से घायल हो गया व अन्य कुछ विद्यार्थी घायल हुए. इन घायलों को जब इलाज के लिए हॉस्पिटल ले जाया जा रहा था, तो बीच रस्ते में एक मुस्लिम बहुल गाँव है गोलापाड़ा, वहाँ एम्बुलेंस को 30 से 40 मिनट तक जबरन रोका गया और गोलीबारी में गंभीर रूप से घायल तापस बर्मन की स्थानीय लोगो ने बेदम पिटाई की, इस कारण उसने भी बाद में हॉस्पिटल में दम तोड़ दिया. एक अन्य विद्यार्थी बारिद चौधरी अभी भी गंभीर रूप से घायल है. और अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहा है.
ज्ञात हो की गुलाम रब्बानी एक उर्दू स्पीकिंग लीडर है जबकि पश्चिम बंगाल में अधिकांश मुस्लिम आबादी बांग्ला भाषा बोलती है, उर्दू उनकी भाषा नही है. दूसरी बड़ी बात यह गौरेतलब है कि स्कूल की मैनेजमेंट टीम/ प्रबंधन समिति एक अन्य लोकल TMC के विधायक कन्हैयालाल अग्रवाल का स्कूल की प्रबंधन समिति में वर्चस्व है. विधायक व मंत्री गुलाम रब्बानी ने स्कूल प्रबंधन समिति के आदेश को अमान्य करने के लिए स्थानीय प्रशासन पर दबाव डाला और अपने निकट सम्बन्धी मोहम्मद सनाउल्ला व एक अन्य संबंधी का नियुक्ति पत्र शासनादेश निकलवा दिया. दूसरी बड़ी बात यह कि इस्लामपुर की डेमोग्राफी बहुत ज्यादा नाजुक है. इस्लामपुर की सीमा एक तरफ बिहार (किशनगंज) से जुड़ी हुई है, तो दूसरी तरफ बांग्लादेश से जुडी हुई है. 1953 में इस्लामपुर को बिहार से जबरन बंगाल प्रान्त में मिला दिया गया था. साठ के दशक में यहाँ पर बांग्ला भाषा के लिए एक बड़ा आन्दोलन हुआ था, जिसमें एक व्यक्ति शहीद भी हुआ था. अगर गहराई से देखा जाये तो यह एक “सांस्कृतिक” लड़ाई है जहाँ पर उर्दू थोपने का छल-बल से प्रयास चल रहा है, और ताज़ा छात्र आंदोलन इसी के विरोध में था.
इस्लामपुर में हुई यह घटना राज्य सरकार पर गंभीर प्रश्न-चिन्ह खड़ा करती है. प्रथम द्रष्टया यह ममता सरकार की तानाशाही व तुष्टिकरण का मामला है. जब से प्रदेश में ममता की सरकार सत्ता में आई है तब से मुस्लिम परस्त नीतियों को आगे बढाया गया है उनके लिए अलग से विश्वविधालय तक खोले गए, जैसे की आलिया विश्वविधालय जो कि राज्य सरकार द्वारा संचालित है. इस विश्वविधालय में सभी मुस्लिम छात्रों को आवास व भोजन मुफ्त में मिलता है साथ ही साथ अध्ययन के दौरान स्कॉलरशिप भी मिलती है. ममता सरकार की तुष्टिकरण की नीतियाँ सिर्फ शैक्षिणक/सांस्कृतिक संस्थानों में ही सीमित नहीं है बल्कि हिन्दुओं के मंदिरों तक जा पहुंचा पिछले साल कोलकाता के काली मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष पद पर राज्य सरकार के एक मुस्लिम मंत्री की नियुक्ति हुई है. मंदिर संचालन, मंदिर प्रोपर्टी और मंदिर के खजाने पर मुस्लिम मंत्री काबिज़ हो गया है. इस बात शिकायत करने गए हिंदुओं को ममता की पुलिस प्रशासन ने जमकर दौड़ा दिया, पुलिस से डर से इस आन्दोलन ने खड़े होते ही दम तोड़ दिया.
पश्चिम-बंगाल की demography पर एक नज़र डाले तो राज्य में सन 2011 के सरकारी आंकड़ों में मुस्लिम आबादी 27.8 प्रतिशत है, लेकिन पश्चिम बंगाल में हिन्दू सम्हती के प्रमुख तपन घोष के अनुसार असल मे यह आबादी 35 प्रतिशत से ज़्यादा है. इसलिए ममता की मुस्लिम परस्त नीतियाँ यूँ ही नहीं बल्कि उसके पीछे एक मात्र बड़ा कारण मुस्लिम वोट बैंक है. इतिहास पर नज़र डालें तो पश्चिम बंगाल में 1977 में जब से प्रदेश में वाममोर्चे की सरकार सत्ता में आई, तभी से बांग्लादेशी मुस्लिम को वोट बैंक के रूप में देख और उनका वोट बैंक रूप में उपयोग किया, बल्कि पश्चिम बंगाल तो बांग्लादेशी मुस्लिमो की सुरक्षित अभ्यारण्य बन गयी. 2011 में प्रदेश में ममता बैनर्जी के नेतृत्व में TMC का राज्य में शासन शुरू हुआ और ममता बैनर्जी ने वामपंथियों से भी दस कदम आगे बढ़ते हुए मुस्लिमों को राजनैतिक रूप से बहुत मजबूत किया, उनको सत्ता में स्थान दिया व उन्ही के अनुरूप नीतियों को लागू किया. प्रदेश की नीतियों का अवलोकन किया जाए तो सार्वजनिक निधि का ज्यादातर व्यय मुस्लिम परस्त योजनाओ पर व्यय होता है. अगर इसका विरोध होता है तो प्रदेश सरकार तुरंत इसको आरएसएस से जोड़ देती है कि आरएसएस प्रदेश की शांति भंग कर रहा है. बंगाल और असम ही वे दरवाजे हैं जिनसे घुसकर बांग्लादेशी घुसपैठिए पूरे देश मे फैल गए हैं... कच्चा अनुमान है कि भारत मे कई राज्यों की संयुक्त आबादी से ज़्यादा आबादी, बांग्लादेशी घुसपैठियों की है अर्थात लगभग 10 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए.
वास्तव में होना यह चाहिए था कि इस्लामपुर की इस “सरकारी गुंडागर्दी” और दो युवाओं की मृत्यु संबंधी सवालों का जवाब स्वयं ममता बैनर्जी को आकर देना चाहिए था.... लेकिन मानता बैनर्जी उस समय यूरोप के एक सरकारी कार्यक्रम में व्यस्त थीं. इतनी बड़ी घटना इस्लामपुर में घटित हो गयी, इस घटना में सरकार के एक मंत्री की प्रत्यक्ष संलिप्तता है इसके वाबजूद हिन्दू युवकों के लिए ममता की संवेदनशीलता यहाँ आकर समाप्त हो जाती है. ममता बनर्जी ने इस घटना को भी तत्काल आरएसएस के साथ जोड़ दिया. ममता बैनर्जी ने बड़ी बेशर्मी से कहा कि पुलिस ने गोली नहीं चलाई. पुलिस अधीक्षक का तो यह कहना है कि गोली ही नहीं चली... जबकि चश्मदीह गवाह बोल रहे है कि गोली पुलिस द्वारा चलाई गयी है. इसी कारण से मृतक के परिजनों ने अभी तक राजेश सरकार व तापस बर्मन की मृत देह को हिन्दू रीतिरिवाजो के साथ जलाया नहीं है, बल्कि उनको जानबूझकर दफनाया गया है. मृतक के परिजनों व स्थानीय लोगो की मांग है कि इस घटना की जाँच सीबीआई से हो और उनकी देखरेख में दफनाये गए शवों की मेडिकल जाँच व बैलिस्टिक परीक्षण हो. इससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि उनकी मृत्यु पुलिस के गोली लगने से हुई है या अन्य कारणों से. इसी के साथ पुलिस की गोलियों का (गोला-बारूद) लेखा परीक्षण भी होना चाहिए जिससे की घटनां की सच्चाई देश के सामने आ सके.
यह आन्दोलन पूर्णतया एक छात्र आन्दोलन था, जिसे मीडिया का कवरेज मिलना चाहिए था... लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि देश का लेफ्ट-लिबरल मीडिया को गैर-भाजपा शासित राज्यों में होने वाले अपराध पहली बात तो दिखते ही नहीं है और अगर मज़बूरी में वे लोग कवरेज के लिए आ भी जाएँ तो वे उनके बचाव में ही उतरते हैं, जो शोषक हैं. इसी प्रकार मानवाधिकार एजेंसीज या मानवाधिकार के स्वघोषित स्वयंभू प्रवक्ताओं को मानवाधिकारों का उल्लंघन सिर्फ और सिर्फ गैर-भाजपा शासित राज्यों में दिखता है और वह भी उनका “चयनात्मक मानवाधिकार” होता है, अर्थात जो सिर्फ एक समुदाय विशेष का मानवाधिकार होता है.
बंगाल क्षेत्र पर दृष्टि डालें तो आज़ादी के बाद से यहाँ पर कभी भी शांति का वातावरण पैदा ही नहीं हो सका. शुरू में कांग्रेस सरकार ने इस प्रदेश के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया, और उनकी ही नीतियों के कारण प्रदेश को नक्सलवाद की चपेट में धकेल दिया. 1977 के बाद शासन में वाममोर्चा की सरकार आई और उसने जमकर मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ावा दिया. पूर्वी बंगाल में बंगालियों पर उर्दू थोपे जाने के कारण ही पाकिस्तान का टुकड़ा हुआ, और एक नया देश बांग्लादेश बना। अगर सरसरी नज़र से देखा जाये तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जब से सत्ता में आई है तब से पश्चिम-बंगाल के बांग्ला-भाषी लोगो के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया है. इतिहास में जाए तो पश्चिम बंगाल में एक परंपरा रही कि पहले लेफ्ट (वाममोर्चे की सरकार) ने उर्दू भाषी मुस्लिमो को बढ़ावा दिया और जब 2011 में TMC सत्ता में आई, तो ममता बनर्जी ने भी वही किया जो कि वाममोर्चे ने किया था. प्रदेश की जनता में यही बात घर कर गयी कि वर्तमान प्रदेश सरकार का एक विशेष समुदाय के लिए (मुस्लिमों) विशेष झुकाव है और वह स्थानीय बांग्ला-भाषियों के साथ नहीं है. ममता के कैबिनेट में छः मुस्लिम मंत्री है जिसमे सिर्फ एक बांग्लाभाषी है, जबकि प्रदेश में बहुलता से बांग्ला भाषा ही बोली जाती है.
इस्लामपुर की घटना के बाद प्रदेश में बीजेपी व अन्य राजनैतिक पार्टियों द्वारा 26 सितम्बर को प्रदेश बंद का आव्हान किया था, जो पूर्णतया सफल रहा. स्थिति यह रही कि इस्लामपुर में जो तीन बसें जलाई गयी वे भी सत्ताधारी पार्टी के लोगो ने जलाईं. मुख्यमंत्री का पदभार देख रहे प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री पार्थो चटर्जी सिर्फ पूजा कम्युनिटी में व्यस्त रहे. उधर इस्लामपुर जल रहा था, और इधर यह आने वाली दुर्गा-पूजा के लिए पैसा वसूल कर रहे थे... वहीं दूसरी तरफ TMC छात्र परिषद् उत्तर बंगाल में गोलगप्पे फेस्टिवल का आयोजन कर रहा था. इस बंद को पूरे पश्चिम बंगाल के लोगो ने समर्थन दिया.
ममता बैनर्जी को इतिहास से सीख लेने की आवश्यकता है... प्रदेश की सभी समस्याओं के लिए आरएसएस या बीजेपी को कोसने से काम नहीं चलेगा. अगर समय रहते यहाँ की राजनैतिक परिस्थितियों को गंभीरता से हल नहीं किया गया, तो जैसे वर्तमान हालात हैं उसे देखते हुए एक बड़ी अनहोनी की धमक सुनाई दे रही है.
वर्तमान स्थिति यह है कि इस्लामपुर के दारीभीत में हुए इस सांस्कृतिक संघर्ष ने उस क्षेत्र के स्थानीय लोगो में बहुत गहरा मनोवैज्ञानिक दबाव बन गया है. क्षेत्र के लोगो में भय का वातावरण है क्योंकि प्रभावित परिवार को TMC के गुंडों द्वारा यह धमकी मिली हुई है कि अगर उन्होंने मीडिया के सामने अपना मुँह खोला तो उनके परिवार के लोगो की खैर नहीं है. बांग्ला बनाम उर्दू (बांग्ला भाषा की जगह उर्दू भाषा बलपूर्वक थोपने की नापाक कोशिश) सांस्कृतिक संघर्ष के दौरान राजेश सरकार व तापस बर्मन की मौत से लोग अभी भी गहरे दुःख में हैं, और इसी दुःख व अवसाद की स्थिति में पश्चिम-बंगाल में दुर्गा-पूजा जो कि प्रदेश का सबसे बड़ा पर्व है... नहीं मनाने का निर्णय लिया है. लोगों की माँग है कि राजेश व तापस की मौत को जब तक न्याय नहीं मिल जाता, तब तक क्षेत्र के लोग दुर्गा-पूजा जैसे तमाम पर्व/त्यौहारों नहीं मनायेगें.