भारतीय मुस्लिम वैचारिक अधर में लटका

Written by शुक्रवार, 07 अगस्त 2015 13:08

इंटरनेट के कारण हिंदुस्तान में Cognitive Dissonance का सब से बड़ा मारा कोई है तो युवा मुसलमान है. वह जानता है कि अब सब जानते हैं कि जब उसके पुरखों ने इस्लाम कुबूल किया होगा, वह कोई बहुत गौरवशाली घटना नहीं होगी. वह जिनसे अपना संबंध बता रहा है, उनकी नजर में तो उसकी औकात धूल बराबर भी नहीं है यह भी सब जानते हैं. समाज के तथाकथित रहनुमाओं ने समाज को मजहब के नाम पर पिछड़ा रखा है, यह भी उसे पता है.

सबसे पहले Cognitive Dissonance का अर्थ समझ लें. अगर मनुष्य का किसी ऐसी जानकारी से सामना हो जाये या उसे कोई ऐसी जानकारी दी जाये, जो उसकी कोई दृढ़ मान्यता – विश्वास – श्रद्धा को ध्वस्त कर दें, तो जो मानसिक स्थिति पैदा होती है उसे Cognitive Dissonance कहते हैं । अचानक वो मानसिक रूप से खुद को एक शून्य अवकाश में लटकता पाता है और आधार के लिए हाथ पैर मारता है । Dissonance याने विसंगति, या अगर संगीत के परिभाषा में देखें तो बेसुरापन. मानव का स्वाभाविक आकर्षण सुसंगति या सुर (harmony) में रहने के लिए होता है, और उसका मन वही प्रयास करता है कि Cognitive Harmony पुनर्स्थापित हों । अब इस हेतु वह कोई आधार खोजता है... कोई सबूत खोजता है जो उसे Harmony पुनर्स्थापित करने हेतु योग्य लगे.. लेकिन यहाँ एक खतरा है, जिसमें वह अक्सर फंस ही जाता है. क्या है वह खतरा?

इस स्थिति में उसका तर्क कठोर नहीं रह जाता. वह निष्पक्ष नहीं रहता. वह यह भी नहीं देखता कि मिलनेवाला तर्क या सबूत सत्यता की कसौटी पर कितना खरा उतरता है. उसके लिए यह काफी है अगर वह उसकी स्थापित मान्यता को फिर से मजबूत कर सके. वह यह नहीं देखता कि जहां से ये आधार लिया जा रहा है वह कितना विश्वसनीय है. उस वक़्त तिनका भी जहाज हो जाता है उसके लिए. ऐसा क्यूँ होता है? - असल में सब से बड़ी बात है कि कोई भी व्यक्ति मूर्ख नहीं दिखना चाहता. वह नहीं चाहता कि कोई उस पर हँसे या उसे मूर्ख कहे कि वह किसी झूठ पर कैसे विश्वास करता रहा. इसलिए वह अपने जैसों को खोजता है. कोई महंगी चीज खरीदता है, तो उसके दस और खरीदार ढूँढता है, ताकि कल वह वस्तु फेल हो जाये तो उन दस लोगों का हवाला अपनी पत्नी और बाकी परिवार को दे सके. वह खुद उस वस्तु का मुफ्त प्रचारक भी बन जाता है. अपने निर्णय के समर्थन में संख्या का उसे बड़ा आधार महसूस होता है. जितनी बड़ी संख्या, उतना बड़ा सत्य.

धर्म के बारे में भी यही चीज होती है. अगर उसका मन उसे सवाल करता भी है, तो अपने मन को यही कहकर चुप कराता है – कि इतने सारे लोग मूर्ख हैं क्या? घर के बड़े, समाज के बड़े और देश और विश्व में इतने लोग अगर इसमें मानते हैं तो क्या वे मूर्ख हैं? मेरे से अधिक जानकार, अधिक विद्वान... और बड़े बड़े तीस्मारखां मानते हैं तो सत्य ही होगा. यहाँ पर एक बात और भी दिखती है. संख्या से जुड़कर न केवल खुद को आश्वस्त किया जाता है, बल्कि संख्या को अपने साथ जोड़कर विरोधी विचारकों को परास्त भी किया जाता है. जहां तक बात चर्चा, संवाद और विवाद तक सीमित है, ठीक है, लेकिन यह अक्सर हिंसा पर भी उतर आती है.

अगर फिर भी उसको कोई टोके या उसके प्रचार को ही नहीं बल्कि उसके विश्वास को ही बेबुनियाद साबित करें तो उसको बड़ा धक्का पहुंचता है. लेकिन इस वक़्त भी वो तिनके ही पहले ढूँढता है, और खोखले तिनकों के देनेवालों को अपना तारणहार मानता है. तर्क से नहीं लेकिन तर्क की परिणति से अधिक डरता है, क्योंकि अंत में जब सत्य का सामना होगा तो तेज:पुंज सामर्थ्यशाली कवचधारी योद्धा, केवल एक बिजूका – कागभगोड़ा दिखाई देगा. उसकी पूरी प्रतिमा ध्वस्त होगी, जिसके रक्षण के लिए वो जरूरत पड़ने पर हिंसक भी हो जाता है.


वह प्रश्नकर्ता की विश्वसनीयता पर पहला वार करता है – तुम झूठ बोल रहे हो.

दूसरा वार प्रश्नकर्ता की बनिस्बत अपनी योग्यता पर होता है, वह पूछता है – तुम्हारी औकात क्या है जो हमें सिखाने चले आए हो?

तीसरा वार प्रश्नकर्ता की निजता पर होता है, जो यूं देखें तो उसको भगाने के लिए होता है – तुम अपनी गिरेबान में झाँको जरा. यहाँ कुछ आरोप लगाकर निकल लेने की कवायद होती है, कि सामनेवाला भी नंगा हो जाये तो चुप हो जाएगा. सत्य का सामना नहीं करना पड़ेगा.

चौथा और सब से हिंसक वार यह होता है, कि तुम्हें हम से शत्रुता है, इसलिए ऐसे कह रहे हो, तुम्हारे साथ कठोर से कठोर व्यवहार होना चाहिए. अब यहाँ कुछ भी हो सकता है और अक्सर विश्व भर में होता आया है.

इसी बात के तहत ये मजेदार कहानी भी फिट बैठती है कि :- एक मनुष्य की टांग टूटी तो उसे बैसाखी लेनी पड़ी. बाद में वह तो सामान्य लोगों से भी अधिक चपल हो गया, तो लोगों में जिज्ञासा जागी और उन्होने भी जरूरत न होते भी बैसाखी अपनाई. बाद में तो यह प्रथा ही हो गयी और बगैर बैसाखी चलने पर रोक लगा दी गयी. अगर किसी ने बगैर बैसाखी चलने की जुर्रत की, तो या तो उसकी टांग तोड़ी गयी या वो गाँव छोड़ गए – बेचारे और कर ही क्या सकते थे?

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इंटरनेट के कारण हिंदुस्तान में Cognitive Dissonance का सब से बड़ा मारा कोई है तो युवा मुसलमान है. वह जानता है कि अब सब जानते हैं कि जब उसके पुरखों ने इस्लाम कुबूल किया होगा, वह कोई बहुत गौरवशाली घटना नहीं होगी. वह जिनसे अपना संबंध बता रहा है, उनकी नजर में तो उसकी औकात धूल बराबर भी नहीं है यह भी सब जानते हैं. समाज के तथाकथित रहनुमाओं ने समाज को मजहब के नाम पर पिछड़ा रखा है, यह भी उसे पता है. वह लगातार जिस मजहब की बड़ाई करता है, उसकी भी जानकारी सब को हासिल होने लगी है, यहाँ तक कि काफिर इस्लाम के बारे में उस से ज्यादा जानने लगे हैं और उनके सवाल, मन में सवाल पैदा कर रहे हैं कि क्या उसकी श्रद्धा सही है? उसकी हालत उस बाप की तरह है जो अपनी बेटी की मासूमियत को चिल्लाकर साबित करने की कोशिश कर रहा हो, और बेटी को उसी वक़्त आई मितली सब के सामने सच्चाई खोल दें.


अब सवाल यह है कि भारत का मुसलमान क्या करेगा? सोशल मीडिया में आजकल वो पहले जैसा आक्रामक नहीं दिखता – बुरी तरह एक्सपोज हो चुका है, और जानता है कि गंदी गालियां देना अपनी जीत नहीं है. वह कहाँ तक ये कह सकता है, कि आप लोग कुछ जानते नहीं तो कुछ बोलना मत, जबकि उसके सामने रखी आयत, खुद उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर है? कहाँ तक जाति प्रथा को ले कर टोकेगा, जब पास्मांदा और अशरफ के बारे में सवाल पूछे जाएंगे? और कहाँ तक काफिर देवताओं के नाम से गालियां देगा, जब हजरत के चरित्र के प्रसंग सही सबूतों के साथ उजागर किए जाते हैं ? कहीं तो मन के आईने में वो सच्चाई की बदसूरत शक्ल देख ही रहा है. Cognitive Dissonance सिद्धांत अपना काम कर रहा है. उसे समझ आ रहा है कि आज तक उसे सिर्फ इस्तेमाल किया गया है और अभी भी किया जा रहा है. कहीं तो वह वैचारिक खालीपन में सहारा ढूंढ रहा है.

और इसी स्तर पर उसे सहारा देने के लिए "तिनकों के दुकानदार" दौड़े आ रहे हैं. मेमन को शहीद कहनेवाली यही जमात है. गोद में उठाई जानेवाली छोटी बच्ची को भी हिजाब पहनाने वाले यही हैं. मदरसे में साईंस आवश्यक कर देने पर हल्ला मचानेवाले यही लोग हैं. अपनी दुकानों को ही उन्होने मजहब का नाम दे रखा है और दूकानदारी खतरे में दिखती है, तो मजहब खतरे में होने की आवाज उठाई जाती है.

हिंदुस्तान का युवा मुसलमान वाकई एक प्रैशर कुकर में है. Cognitive Dissonance का अभूतपूर्व प्रैशर है इक्कीसवीं सदी में. देखना यह है कि इस प्रेशर का निपटारा कैसे होगा. दुकानदार तो उन्हें इस तरह आंच दे रहे हैं कि कुकर का विस्फोट ही हो. भाँप अंदर जम रही है, सीटी तो रह रह कर बज रही है. इस खदबदाहट को उचित मार्ग दिखाकर ठण्डा करने में ना तो मुस्लिम धार्मिक नेताओं की रूचि है और ना ही सेकुलर-वामपंथ के पैरोकार इस युवा मुस्लिम को समझाते हैं कि वह किस खोखली जमीन पर खड़ा है...

इस "प्रेशर कुकर" की सीटी किसे सुनाई दे रही है?
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(फेसबुक के विद्वान श्री आनंद राजाध्यक्ष जी द्वारा लिखा गया अदभुत विश्लेषण)

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