ई-मीडिया, डाटा युद्ध और कठपुतली बनी हुई जनता...

Written by रविवार, 13 सितम्बर 2020 13:16

कुछ सालों के अंदर सोशल मीडिया के चलन में बहुत बढ़त हुई है। गूगल, फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम ने सारी दुनियाँ से स्त्री-पुरुष, बेरोजगार-रोजगार हर तपके और उम्र के लोगों को अपनी ओर खींचा है। सब अपने-अपने तरीके और स्तर से इस क्षेत्र में अपनी आजमाईश कर रहे हैं। तकनीक जगत में लगातार बनते नित नए रास्ते इस क्षेत्र की सीमाओं को और भी बढ़ाए जा रहे हैं।

 

ऐसा भी नहीं है कि सोशल मीडिया का प्रयोग बहुत कठिन है और सब इसका इस्तेमाल नहीं कर सकते। बल्कि यह तो बड़े लोक-लुभावन तरीके से लोगों को अपनी ओर खींच रहा है और लोगों के विचारों और भावनाओं के अभिव्यक्ति के लिए एक खुली और बड़ी जगह बना रहा है। जबरदस्त बात यह है कि इंटरनेट जगत में कम्प्यूटर, मोबाईल जैसे छोटे-से उपकरण पर पलक झपकते ही सूचनाओं का अंबार लग जाता है। यह दुनिया के लिए अपने-आप में घटित होने वाला क्रांतिकारी बदलाव है।

इसी क्रम में सोशल मीडिया के द्वारा लाए गए बदलाव ने हमारी पीढ़ी के लिए आजादी और अभिव्यक्ति की नई सकारात्मक परिभाषाएँ गढ़ी है। लेकिन इसकी कुछ चुनौतियाँ भी हैं, जिनपर हमें विचार करना चाहिए। सबसे पहले तो यह कि इंटरनेट और सोशल मीडिया पर मौजूद सूचनाएँ मात्रा और वजन में तो भारी-भरकम होती हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि यह अकाट्य सत्य भी हों। सामान्य उपयोगकर्ताओं को लगता है कि इससे ज्यादा जानकारी तो और कहीं नहीं मिलेगी और यही सोच बुद्धिमत्ता की सीमा घेर देती है। लोगों के लिए यह सूचनाएँ बहुत मायने रखती हैं। लोग इन्हीं सूचनाओं के जरिए अपनी पसंद-नापसंद का विवेक तैयार करते हैं। ऐसे में सोशल मीडिया पर निर्भर आदमी का ज्ञान बहुधा अधकचरा हो जाता है। वह ‘नीम हकीम’ से ज्यादा कुछ नहीं बन पाता है और यह ‘नीम हकीम’,व्यक्तिगत और सामाजिक दोनो स्तर पर, खतरा पैदा करेगा ही।
लेकिन सवाल यह है कि लोगों को इन सूचनाओं पर इतना भरोसा क्यों होता है? कहा जाता है कि जब एक ही झूठ को सौ बार कहा जाए तो झूठ भी सच लगने लगता है। सोशल मीडिया कई मायनों में यही काम कर रहा है। सोशल मीडिया में सरासर झूठ को भी सादा-सीधा सच की तरह पेश किया जाता है। लोग इसे मान भी लेते हैं। माने भी क्यों न? जब तक सच-झूठ के निर्णय एवं छानबीन में समय बर्बाद करेंगे तब तक कोई और उस सूचना को प्रसारित या साझा करने का श्रेय अपने माथे पर ले लेगा। लोग सोचते हैं कि अगर ऐसा हो गया तो यह दौड़ में पीछे छूट जाने जैसी बात हो जाएगी और दौड़ में पीछे छूटना किसे पसंद है? दौड़ में अव्वल रहने का लालच सोशल मीडिया का एक बड़ा औजार है। सोशल मीडिया ने अपने इसी औजार के द्वारा आदमी को हड़बड़ में गड़बड़ करने वाला बना दिया है। गड़बड़ भी ऐसी-ऐसी कि अगर ज़रा-सी भी खोज-बीन की जाय तो सोशल मीडिया की ढेरों सूचनाएँ लँगड़ी हो जाएँगी। मिसाल के तौर पर हाल के कुछ वर्षों में हर 14 फरवरी, जिसे दुनिया भर में वैलेण्टाइन्स डे के रूप में जाना जाता है, को सोशल मीडिया पर एक सूचना बहुत फैलाई जाती है कि इसी दिन भारतीय स्वाधीनता संग्रामी क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरू, और सुखदेव को अंग्रेजों नें फाँसी पर चढ़ा दिया था। इसलिए इसे वैलेण्टाईन्स डे के रूप में मनाना अंग्रेजी संस्कृति को अपनाना तथा देशद्रोह है। अतः देशभक्त बनकर हर भारतवासी को इस दिन को शहीद दिवस के रूप में याद करना चाहिए।

इस सूचना को बहुत से जाने-माने मीडिया चैनल भी बिना तथ्य की पड़ताल किए चला देते है। जबकि हकीकत में यह कोरी बकवास और भारतीय इतिहास के साथ किया जाने वाला अपमानजनक व्यवहार है। इंटरनेट पर थोड़ी-सी खोजबीन करने मात्र से ही दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा लेकिन इसके लिए किसी को फुरसत नहीं है क्योंकि लोगों को दौड़ में अव्वल होना है। कहीं की फोटो, कहीं की आवाज, कहीं की घटना, कहीं का नाम, कहीं का रंग आदि के साथ थोड़ा तकनीकी नमक-मिर्च लगाकर एक ऐसा सूचना संसार खड़ा किया जा रहा है, जो लौकी-कुम्हड़ा के पौधो की तरह जल्दी-जल्दी फैल तो रहा है पर अपनी सच्चाई के दम पर अपने आप खड़ा नहीं रह सकता, बल्कि उसे छद्म मिथ्याओं के खंभों का सहारा लेना पड़ता है। यह सब आत्माभिव्यक्ति की हड़बड़ाहट की वजह से हो रहा है। यहाँ यह बात गौर करनी चाहिए कि यह काम कौन, क्यों और कैसे करवा रहा है? हिंदू मिथक में एक पौराणिक पात्र हैं– चित्रगुप्त। वह यमलोक में बैठकर आदमी की हर करनी का हिसाब-किताब रखते हैं। सोशल मीडिया पर भी एक वर्चुअल या तकनीकी चित्रगुप्त बैठा है। हम यहाँ क्या कर रहे हैं, कहाँ कितना समय बिता रहे हैं, किसे देखकर ललचा रहे हैं, कहाँ रुचि-अरुचि दिखा रहे हैं— इस सब का हिसाब-किताब वर्चुअल चित्रगुप्त अपने बही-खाते में रख रहा है। लेकिन इस पौराणिक चित्रगुप्त और वर्चुअल चित्रगुप्त में फर्क यह है कि (ऐसा माना जाता है कि) पौराणिक चित्रगुप्त का बही-खाता यमलोक में रहता है, जिसके पन्ने मरने के बाद यमलोक में यमराज के सामने खुलते हैं। लेकिन इस वर्चुअल चित्रगुप्त का बही-खाता ‘बिग डेटा’ या ‘इनॉर्मस डेटा’ के रूप में यहीं विभिन्न संग्राहक संस्थानों के पास रहता है। यह ‘बिग डेटा’ यमलोक के यमराज के न्याय के काम नहीं आता बल्कि विभिन्न धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि घरानों के उद्देश्यपूर्ति के काम आता है। इन विभिन्न घरानो के अपने मकसद होते है। मिसाल के तौर पर क्या आपने गौर किया है कि किसी ऑनलाइन खरीदारी के वेबसाइट (अमेजन, फ्लिपकार्ट जैसे) पर आप जिन वस्तुओं या उत्पादों को थोड़ा अधिक रुचि और समय देकर देखते हैं तो दूसरे किसी वेबसाइट पर उन खरीदारी वाले वेबसाइट के विज्ञापन में उन्हीं वस्तुओं या उत्पादों के विज्ञापन क्यों दिखाई पड़ते हैं?
किसी सोशल नेटवर्किंग के वेबसाइट पर जिस तरह की सूचनाओं को देखने में ज्यादा समय और रुचि दिखाते हैं बाद में उसी तरह की सूचनाएँ अपडेट के रूप में क्यों दिखाई देने लगती हैं? मतलब कोई डिजिटल चित्रगुप्त जरूर है जो अपने ‘बिग डेटा’ के बही-खाते में हमारे वक्त और रूचियों का हिसाब रख रहा है। ऐसे में रुचियों के हिसाब से वैयक्तिक अभिमत को प्रभावित करवाना और उसे किसी तय एजेंडा या मिशन के हिसाब से तैयार करवाना कोई बड़ी बात नहीं है। किसी को अपने अनुयायी बढ़ाने हैं। किसी को अपना सामान बेचकर पैसा कमाना है। किसी को लोगो के कन्धों की सवारी कर के सत्ता के गलियारे में पहुँचना है। किसी को खुद को पॉपुलर करना है। इस सब के लिए लोगों की इच्छाओं, रुचियों और आदतों का हिसाब लगाकर उसी के आधार पर विभिन्न घरानों को अपने लाभ के लिए लोगों को तैयार करना होता है। यही काम बिग डेटा करता है। लेकिन बिग डेटा यह काम करता कैसे है? इसका उत्तर है– आदमी के लालच को औजार बनाकर। ‘लालच’ आदमी का आदिम गुण है। आदमी अपने जिंदगी में लालच के अलग-अलग तहों में बंद है। स्वाद, संसाधन, धन, मान, ज्ञान के लालच की परतों के भीतर आदमी का परतदार व्यक्तित्व प्याज बनकर दुर्गंध मार रहा है। विभिन्न घराने अपना मकसद पूरा करने के लिए इसी इंसानी लालच को एक औजार की तरह इस्तेमाल करते हैं।

सोशल मीडिया के जरिए ये बिग डाटा की मदद से पहले अपने काम लायक लोगों या लक्षित आबादी को वर्चुअल (आभासी) जगत पर चिह्नित करते हैं। ध्यान देने की बात है कि ज्यादातर लोगों को यह पता भी नहीं होता कि वो किसी के निशाने पर हैं। धीरे-धीरे शिकारी जैसे दाना डाल-डाल कर चिड़िया को जाल तक ले आता है, वैसे ही लक्षित आदमी या आबादी को भी विभिन्न् घराने अपने मकसद के जाल में फाँसते हैं। ऐसा माना जाता है कि हम जो खाते है, उसका असर हमारे तन और मन दोनों पर पड़ता है। यह असर चरित्र का हिस्सा बन जाता है। इस नज़र से देखें तो सोशल मीडिया पान, बीड़ी, गुटखा, खैनी, दारू से भी तगड़ा नशा देता है। इस नशे के भी अपने मजे और पंगे हैं। दिन-रात कच्ची, पक्की या अधपकी सच्ची-झूठी सूचनाओं की जुगाली करवाते-करवाते सोशल मीडिया अंततः हमे जुगाली करने वाला बकरा बना ही देता है। मजे की बात यह है कि बकरों से सच-झूठ के खबरदारी विवेक की कल्पना करना बेमानी है। अगर व्यक्ति के पास सूचनाओं को खँगालने और छानने के अपने संसाधन व अपनी बुद्धिमत्ता नहीं है तो यह सोशल मीडिया व्यक्ति के चरित्र में वैचारिक अविवेक पैदा कर देता है। यह वैचारिक अविवेक भले ही हमारे खुद के लिए एक कमजोरी है लेकिन विभिन्न घरानों के लिए यह बहुत फायदेमंद होता है। अगर हम सावधान नहीं होंगे तो ये घराने सोशल मीडिया के पर्दे के पीछे छिपकर हमारे लालच के धागे में हमें ही बाँधकर अपनी अंगुलियों के इशारे से हमें कठपुतली की तरह नचाते रहेंगे।

(संदीप प्रसाद)

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