वास्तव में श्रीमद्भगवद्गीता सभी वेदों-उपनिषदों का सार है. मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में से हूँ जिसे इस अद्भुत ग्रन्थ को पढने का अवसर मिला। श्रीमद्भगवद्गीता का व्यापक प्रचार-प्रसार पिछली शताब्दी में पूज्य संतो के तथा गीताप्रेस गोरखपुर व भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट के माध्यम से भारत और संपूर्ण विश्व में हुआ है। इस भौतिक जगत में ब्रह्मजिज्ञासा और जीवनपद्धति विषयक ऐसा कोई भी प्रश्न नहीं है जिसका उत्तर इस ग्रन्थ के माध्यम से न मिलता हो। आज दुनिया की प्रायः सभी भाषाओं में इस ग्रंथ का अनुवाद हो चुका है और यह विश्व के सर्वाधिक बिकने वाले ग्रंथों में से एक है (Gita Jayanti)।
सभी मत मतान्तरों को मानने वाले इसकी महत्ता को जानने के पश्चात, इसके नित्य स्वाध्याय के माध्यम द्वारा अपने जीवन को ईश्वर प्राप्ति हेतु भक्ति के श्रेष्ठ मार्ग पर लगा रहे हैं। निस्संदेह पाश्चात्य देशों के लोग इस अद्भुत ग्रन्थ के माध्यम से हिंदुत्व की ओर आकृष्ट हुए हैं। इस ग्रंथ की सर्वमान्य महत्ता से घबराकर, भारतवर्ष को निरंतर विखंडित करने हेतु सतत प्रयत्नशील शक्तियाँ इसे तुच्छ, हीन तथा सांप्रदायिक साबित करने में लगी हुईं हैं. आज से पाँच वर्ष पूर्व रूस ने इस पवित्र ग्रंथ की अपार लोकप्रियता से घबरा कर इसे आतंकवादी ग्रंथ घोषित करने का प्रयास किया था, परंतु दैवयोग से रूस की ईसाई सत्ता अपने इस कुत्सित प्रयास में सफल नही हो पायी।
भारतवर्ष के भीतर स्वामी विवेकानन्द को आधार बनाकर गीता को हीन व तुच्छ साबित करने का दुष्चक्र मार्क्सवादियों द्वारा वर्षों पूर्व से ही चलाया जा रहा है। कुछ दिन पूर्व मैंने देखा कि एक वामपंथी मित्र की वॉल पर स्वामी विवेकानन्द के दिव्य चित्र के साथ लिखा हुआ था कि "गीता पढने से अच्छा है फुटबाँल खेलना।" यह धूर्त वामपंथी स्वामी विवेकानंद की बात को आधे अधूरे ढंग से भ्रामक रूप में प्रस्तुत करके श्रीमद्भगवद्गीता के महत्व को हीन एवं तुच्छ साबित करने पर तुले हुए हैं।
वास्तव में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था – “....मैं चाहता हूँ कि युवा श्रीमद्भगवद्गीता को पढने से पूर्व फुटबाँल खेलकर अपने शरीर को बलिष्ठ बनायें, इस प्रकार जब वह अपने शरीर को शक्तिशाली बना लेंगे, तो वह मानसिक स्तर पर भी गीता के मूल तत्व को ग्रहण करने में ज्यादा सक्षम होंगे...”. किंतु इस बात को मार्क्सवादियों द्वारा तोड़-मरोड़कर आधे अधूरे ढंग से प्रस्तुत करना इस कालजयी ग्रंथ के साथ-साथ भारतवर्ष की चिरंतन संस्कृति को मलिन करना है। मैंने जब यह फोटो पोस्ट उन वामपंथी मित्र की फेसबुक फोटो गैलरी में देखी तो तुरन्त शाब्दिक बाण चलाये, मैंने उन्हें लिखा कि आदरणीय मित्र भारतीय संस्कृति से विद्वेष रखने वाली परकीय विचारधारायें स्वामी विवेकानन्द की कही बात को अत्यन्त चतुराई से आधे अधूरे ढंग से प्रस्तुत करके हमारे प्राचीन वाँऽमय को हीन, तुच्छ,सांप्रदायिक और कालबाह्य यानि आऊटडेटेड सिद्ध करना चाहतीं हैं.
उन्हें एक कहानी के माध्यम से मैंने कहा कि यह तो उसी प्रकार का दृष्टान्त है, जैसे – “...एक बार एक मौलवी जी जुमे की नमाज के बाद नमाजियों की भीड़ को जब तकरीर देने लगे, तो उन्होंने यह कहा "कभी नमाज मत पढो" और बोलते ही थोड़ा ठहर गए, सभी मुस्लिम अवाक रह गये कि आज मौलवी जी को यह क्या हो गया है. किंतु मौलवी जी ने फिर वही शब्द गरजकर कहे "कभी नमाज मत पढो" और फिर थोड़ा क्षण भर के लिए रूक गये। अब जनता आगबबूला होकर चिल्लाने लगी, कि मौलवी जी होश में रहकर बोलिए। तभी मौलवी जी ने फिर उसी वाक्य "कभी नमाज मत पढो" की पुनरावृत्ति कर दी.... अब तो सभी नमाजी गहरी धर्म भावना से भरकर क्रुद्ध होकर काँपने लगे। सभी नमाजी उठे और मौलवी जी को मारने के लिए आगे बढे।
तभी मौलवी जी ने उन सभी को रोककर कहा कि अमाँ मियाँ यह क्या करते हैं आप लोग? तनिक ठहरकर पूरी बात तो कह लेने दीजिए। जनता उन्हें तौहीने इस्लाम और कुफ्र करने के जुर्म में मुआफ़ी का अब और अधिक मौका देने के मूड में तो नहीं थी, फिर भी उनके आग्रह पर क्षण भर के लिए रूक गयी। अबकी बार मौलवी जी ने अपने अधूरे वाक्याँश को पूर्ण करते हुए कहा -- "कभी नमाज मत पढो, बिना वजू किए". सभी नमाजी कह उठे हाफिज जी,...वल्लाह!!! ... वल्लाह!!! ...सुभान अल्लाह....सुभान अल्लाह...!!!! सारा प्रांगण वल्लाह वल्लाह की ध्वनि से गूँज उठा।
यहाँ तो अंत में हाफिज ने अपनी अधूरी बात को समग्र रूप में ठीक से कह डाला, परन्तु वामपंथी लोग बिना गीता और समग्र विवेकानन्द को पढे भारतीय चिंतन धारा का ही अनर्थ करने पर तुले हुए हो, मैंने यह भी कहा कि आप वामपंथी लोग भारतीय संस्कृति ,आध्यात्म और आर्ष साहित्य की कालजयी परंपरा को दूषित करने के अभियान में लगी हुई राष्ट्र विघातक शक्तियों के हाथों का उपकरण बन रहे हैं। यहाँ पर मेरे दो अन्य साथियों ने भी फेसबुक पर उन्हें लताड़ा और उनका विरोध किया फलस्वरूप उन बंधु ने वह फोटो अपनी फेसबुक गैलरी से हटा दी। किंतु चूँकि बहुत कम लोग ही भारतीय शास्त्रों के मनन एवं अध्ययन में रुचि रखते हैं और उन्हें शास्त्रों का अत्यल्प मात्रा में ज्ञान होता है। इसके अतिरिक्त गीता संस्कृत में लिखित होने के साथ-साथ गूढ और जटिल भी है। इसी कारण भी बहुधा लोग इस ग्रंथ के अध्ययन से कतराते हैं। मैं इसे मैकालेवादी शिक्षा पद्धति का दीर्घकालिक असर कहूँगा कि आज लगभग डेढ दो सौ वर्षों की अल्पकालिक अवधि के भीतर ही हम अपनी भाषा-साहित्य और अवर्णनीय ज्ञान संपदा को त्याज्य मान बैठे हैं।
चूँकि अधिकांश हिन्दू जनता अपने धर्मशास्त्रों जो कि पुरातन ज्ञान के भण्डार हैं, इन के विषय में कुछ विशेष नहीं जानती और अपनी इस अज्ञानता के कारण इस प्रकार के ईसाई वित्त पोषित वामपंथी प्रचार षड्यन्त्रों को ही सच मानकर धर्म विमुख हो बैठी है। अतः हम सबका कर्तव्य बनता है कि समाज को अपने धर्म ग्रंथों का स्वयं उन तक जाकर ज्ञान दें और इन कुत्सित षडयन्त्रों का समय रहते पर्दाफाश करें। किंतु दुर्भाग्य देखिये जिन संतो, मठाधीशों को इस पुनीत कार्य को करने हेतु आगे आना चाहिए वह अपने मठों अखा़ड़ो में बैठे पैसा कूट रहे हैं। हालाँकि अभी भी कुछ नही बिगड़ा है, यदि समस्त जागरूक हिंदू समाज आज भी इस ईश्वरीय कार्य में तत्पर हो जाए तो हिंदू राष्ट्र की कल्पना का हमारा स्वप्न अवश्य ही साकार होगा।
"आह्वानेन जागृति जनाः
आह्वानेन सृजति संघः"।
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