जैसे-जैसे आयोजकों और मंचासीन लोगों की असलियत खुलती गई, वैसे-वैसे परत-दर-परत इसका खुलासा होता चला गया. भीमा-कोरेगाँव में यह आयोजन प्रतिवर्ष होता है, जिसमें कुछ हजार दलित शामिल होते हैं. परन्तु इस वर्ष लगभग आठ माह पहले से ही तैयारी शुरू की गई थी कि इसमें लाखों लोग शामिल हों. षड्यंत्र कुछ ऐसा रचा गया कि प्रशासन पर दबाव बनाया जा सके और नफरत की चिंगारी भड़काई जा सके. शहरी माओवादी (Naxalism in India) इसमें माहिर हैं.
इस कार्यक्रम की निमंत्रण पत्रिका पर सरसरी निगाह डालते ही समझ में आ जाता है कि इस तथाकथित दलित आंदोलन को नक्सलवादियों ने पूरी तरह हाईजैक कर लिया है, और इसे परदे के पीछे से चर्च पोषित “नकली दलित चिंतकों” तथा खालिद उमर और महिला विरोधी संगठन ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के मौलाना अजहरी जैसे मुल्ला-परस्तों और देशविरोधी ताकतों ने समर्थन दिया. निमंत्रण पत्रिका में एक नाम है सुधीर ढवले, ये साहब हाल ही में नक्सलवादी गतिविधियों में शामिल होने को लेकर नागपुर की सेन्ट्रल जेल में चालीस महीने की कैद काटकर बाहर आए हैं. इसके अलावा निमंत्रण पत्रिका में उल्का महाजन और छग की नक्सल समर्थक सोनी सोरी का नाम भी शामिल है, जिनका इतिहास सभी को पता है. मंचासीन लोगों में जिग्नेश मेवानी (जो हाल ही में जातीय संघर्ष पैदा करके गुजरात में विधायक बन गया है, और जिसकी भाषा और भाषण बेहद घटिया और जहरीले हैं) था और JNU काण्ड का कुख्यात देशद्रोही उमर खालिद (जिसने JNU में भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह का नारा लगाया) भी शामिल था. इनके अलावा मौलाना अब्दुल अजहरी भी मंच पर मौजूद था.
इनके अलावा इस “तथाकथित आंदोलन” में परदे के पीछे से जो लोग शामिल थे, उनमें प्रमुख हैं बाबासाहब आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर (जिन्होंने खुलेआम नक्सलवादियों का समर्थन किया है, इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है). प्रकाश आंबेडकर के रिश्तेदार मिलिंद तेलतुम्बडे, माओवादियों की सेन्ट्रल कमेटी का सचिव है और फिलहाल फरार है. इनके अलावा हर्षाली पोतदार, कबीर कला मंच के शिलेदार (जो खुद पाँच वर्ष जेल में रहकर बाहर निकले हैं)... ये सभी लोग इस आंदोलन के सूत्रधार थे. इसी से समझा जा सकता है कि वास्तव में भीमा-कोरेगाँव का यह प्रदर्शन कतई दलितों का नहीं था, बल्कि शहरी नक्सलवादियों ने इसे पूरी तरह हाईजैक कर लिया था. शनिवार वाडा स्थित आमसभा में जिस उमर खालिद ने जहर उगला था, वह प्रोफ़ेसर साईबाबा नामक नक्सलवादी प्रोफ़ेसर को जमानत मिलने पर उनके स्वागत में नागपुर सेन्ट्रल जेल में हाजिर था.
इनके अलावा एक चौंकाने वाला नाम है, मुम्बई उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश बीजी कोलसे पाटिल, ये साहब मराठा आंदोलन के समय उस मोर्चा को समर्थन दे रहे थे और वहाँ किसी सम्मान-वम्मान की जुगाड़ में थे, लेकिन वहाँ किसी ने उन्हें भाव नहीं दिया तो अब माओवादियों की गोद में जा बैठे और मंच पर आसीन होकर हार-फूल धारण कर लिए.
उल्लेखनीय है कि माओवादी और नक्सलवादी हमेशा से भारत की पुलिस और अर्धसैनिक बलों को अपना दुश्मन मानते आए हैं (छत्तीसगढ़ में मारे गए 76 जवानों की मृत्यु के बाद JNU में मनाया गया जश्न सभी को याद है). भीमा-कोरेगाँव वाले मामले में सबसे ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इस कथित आंदोलन में शामिल होने आए 18 से 20 वर्ष के युवकों ने व्यवस्था में लगे पुलिस वालों को बेहद भद्दी-भद्दी गालियाँ दीं और सामान्य नागरिकों के साथ बदसलूकी की. पुलिस के लिए यह अनुभव एकदम नया था, अभी तक मुम्बई के आजाद मैदान में रजा अकादमी के मुल्लों ने जो हंगामा किया था, उसमें यह ट्रेंड देखा गया था, परन्तु भीमा-कोरेगांव में भी यही हुआ. पुलिस के प्रति इन दलित युवकों के मन में जहर कौन भर रहा है? और क्यों भर रहा है? क्या पुलिस दलितों की दुश्मन है? नहीं... क्या पुलिस ने दलितों पर लाठीचार्ज या गोलीबारी की? नहीं...पुलिस ने तो बहुत अधिक संयम बरता (उन्हें वैसे निर्देश थे) तो फिर इस आंदोलन में शामिल कार्यकर्ताओं ने पुलिस कर्मियों के साथ गालीगलौज क्यों की? इस बात का आश्चर्य दलित संगठनों के कुछ लोगों को भी हुआ. असल में ये सारा ब्रेनवॉश वाला खेल गाँव-गाँव में जाकर उपरोक्त नक्सलवादी खेल रहे हैं और दलितों का नेतृत्व धीरे-धीरे मायावती जैसों के हाथ से निकलकर नक्सलवादियों के हाथों में जा रहा है.
पुलिस को गरियाने-कोसने और घृणा प्रदर्शन का असली कारण ये है कि पिछले तीन वर्षों में मोदी सरकार ने महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में नक्सली आतंकियों का सफाया तो किया ही है, अपितु बाहर से आने वाली फंडिंग पर भी प्रभावी रोक लगी है. इस कारण ये शहरी नक्सली छटपटा रहे हैं और ऐसे ही किसी आंदोलन/प्रदर्शन की ताक में रहते हैं ताकि उसमें घुसपैठ करके हंगामा खड़ा किया जाए और सरकारों को बदनाम करके खुद के लिए चन्दे की जुगाड़ बैठाई जा सके. भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के रामदास आठवले केन्द्र सरकार में मंत्री बन चुके हैं, लेकिन उनके कट्टर विरोधी प्रकाश आंबेडकर काफी संघर्षों के बावजूद दलितों के बीच अभी तक कोई ठोस पहचान नहीं बना आए हैं, इसलिए हताशा में आकर वे नक्सलियों से जा मिले हैं. भीमा-कोरेगाँव की हिंसा पूर्व-नियोजित होने का संदेह इसलिए भी पैदा होता है क्योंकि पहले जो कार्यक्रम घोषित हुआ था, उसके अनुसार मेवानी, पाटिल, उमर खालिद को पुणे के शनिवार वाड़ा से भीमा-कोरेगाँव जाना था, लेकिन ये तीनों ही अचानक पुणे से ही गायब हो गए. संभवतः इन्हें कोरेगाँव में घटित होने वाली हिंसा के बारे में पहले से जानकारी थी, इसीलिए ये लोग वहाँ नहीं गए.
फडनवीस सरकार ने उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की अध्यक्षता में जाँच आयोग बैठा दिया है, इससे इस सम्पूर्ण घटना के पीछे कौन लोग थे, उनका उद्देश्य क्या था और उन्हें कहाँ-कहाँ से फंडिंग मिल रही थी, इसकी जाँच हो जाएगी. दंगा किसने भड़काया और जिस युवक की मृत्यु हुई वह कैसे हुई इसकी भी जाँच होगी. रोहित वेमुला (जो कि दलित नहीं है) की माँ, उमर खालिद, मौलाना अजहरी जैसे “गैर-दलित” लोग आंबेडकर का नाम लेकर किसे बेवकूफ बना रहे हैं ये भी पता चल जाएगा. लेकिन इतना तो तय है कि शहरों में छिपे बैठे “बुर्काधारी” माओवादी किसी बड़े युद्ध की तैयारियों में लगे हैं, मुश्किल ये है कि इन्हें पहचानना भी कठिन है. क्योंकि जिस प्रकार हिन्दू नामधारी दलित, लेकिन वास्तव में चर्च का मोहरा जिस प्रकार समाज में छिपा बैठा रहता है, उसी प्रकार ये नक्सली भी आम आदमी के भेष में छिपे बैठे हैं और ऐसे दलित आन्दोलनों की राह तकते रहते हैं कि कब इन्हें मौका मिले और कब ये अपना हिंसक खेल दिखाएँ...
नक्सलवादियों से सम्बन्धित कुछ और लेखों की लिंक यहाँ हैं, अवश्य पढ़ें...
१) क्या है कल्लूरी मॉडल और शहरी नक्सली कौन हैं?? -- http://www.desicnn.com/news/naxalism-in-india-kalluri-model-and-elite-naxalites-in-metro-cities-with-ngo-network
२) नक्सलवाद को समझने के लिए एक छोटा सा लेख... -- http://www.desicnn.com/news/how-to-understand-naxalism-and-what-is-naxalism-in-india-a-short-article
३) साईबाबा जैसा शिक्षक चाहिए या अब्दुल कलाम जैसा?? -- http://www.desicnn.com/news/gnsaibaba-naxalite-teacher-got-life-imprisonment-verdict