अखिलेश, औरंगजेब और फिदायीन...

Written by मंगलवार, 07 फरवरी 2017 13:18

जो उत्तर प्रदेश की राजनीति में अखिलेश ने मुलायम का किया है उसके बाद से अक्सर उन्हें औरंगज़ेब बुलाया जाने लगा है| शक्तिशाली मुग़ल शहंशाहों में औरंगजेब आखरी थे, उनके बाद के 12-13 मुग़ल शासक योग्य नहीं थे और अंत में बहादुर शाह जफ़र को अंग्रेजों ने दिल्ली की गद्दी से उतार फेंका था|

कहते हैं उनके वंशज अब रिक्शा चलाने और अन्य किस्म की मजदूरी से जीवनयापन करते हैं| ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि आखिर औरंगज़ेब मुग़ल बादशाह बने कैसे?

औरंगज़ेब की गद्दी हथियाने की कहानी खून से सनी तो है ही साथ ही वो कई सबक भी सिखा जाती है| आम तौर पर जैसा कि हमारे साहित्यकार इतिहास के साथ करते हैं, वैसी ही प्रक्रिया से इसे भी आम लोगों को सिखाया नहीं गया| इतिहास से सबक लेकर लोग सुधार करते ऐसी कोई मंशा हमारा इतिहास लिखने वाली बिरादरी की शायद नहीं थी| दरअसल शाहजहाँ अपने बेटे दारा शिकोह को गद्दी सौंपना चाहते थे| लेकिन ये हुआ नहीं यहाँ तक सब जानते हैं|

दारा शिकोह अपने भाई औरंगज़ेब की तरह कट्टरपंथी नहीं थे| उन्होंने कई धर्मों का अध्ययन किया था, फारसी में उपनिषदों का अनुवाद करवाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है| इस वजह से कट्टरपंथी औरंगज़ेब को वो कभी पसंद नहीं थे| शाहजहाँ के बीमार पड़ने पर सबसे पहले शाह शुजा ने विद्रोह किया और खुद को बंगाल में मुग़ल सुल्तान घोषित कर दिया| इस विद्रोह को कुचलने के लिए दारा शिकोह को फ़ौज के साथ रवाना किया गया| 14 फ़रवरी 1658 को बहादुरपुर की लड़ाई में शुजा के इस विद्रोह को कुचल दिया गया|

इसी युद्ध से जब दारा शिकोह लौट रहे थे तो औरंगज़ेब और मुराद ने मई 1658 में उनपर हमला किया| धरमत की लड़ाई में औरंगज़ेब की फौज़ें दारा शिकोह की सेना को हरा चुकी थी, लेकिन गद्दी का फैसला सामुगढ़ की लड़ाई में 29 मई, 1658 को हुआ| चम्बल के पास एक गुप्त रास्ता औरंगज़ेब की सेना ने ढूंढ निकाला था| उसकी फ़ौज कम थी मगर वो मंजा हुआ योद्धा था, जबकि दारा शिकोह किताबों से ज्यादा वास्ता रखने वाले| दारा शिकोह की सेना की कमान हाड़ा राजपूतों ने संभाल रखी थी| पीले झंडे के साथ औरंगज़ेब और लाल के साथ दारा शिकोह की फौजें आमने सामने आ गई| राजा छत्रसाल हाड़ा बंदूकों और तलवारों से लैस टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे| यहाँ दारा शिकोह ने ठीक वही गलतियाँ की जो आम तौर पर हारने वाले हिन्दू राजा किया करते थे| पहले तो उन्होंने तोपों को जंजीरों से बाँध रखा था जिस से उन्हें इधर उधर ले जाना नामुमकिन था| ज़मबुरक (ऊँटों पर लगी बड़ी बंदूकें) उसके पीछे थी| दूसरी की वो हिन्दू राजाओं जैसा ही हाथी पर सवार थे| जीतने वाले, महाराणा प्रताप या शिवाजी जैसे राजा कभी हाथी पर से नहीं बल्कि घोड़े पर सवार होते थे| इस से उनको युद्ध क्षेत्र में एक जगह से दूसरी जगह जाने में सुविधा होती थी|

आम तौर पर जैसा मुस्लिम आक्रमणों की रणनीति होती है ठीक वैसी ही औरंगज़ेब ने इस्तेमाल की| मुराद की छत्रसाल हाड़ा से दुश्मनी थी| तो एक फ़िदायीन टुकड़ी ने सीधा राजा छत्रसाल हाड़ा पर हमला किया| दारा शिकोह शायद इस तरीके से वाकिफ़ रहे होंगे| उन्होंने राजा छत्रसाल हाड़ा की सुरक्षा के लिए उनकी तरफ बढ़ने की कोशिश की| लेकिन हाथी धीमा चलता है, और दोनों पक्ष की तोपों की मार में वो बढ़ नहीं पा रहा था| नतीजा ये हुआ कि मुराद राजा छत्रसाल की सवारों की टुकड़ी को भेदकर अन्दर पहुँच गए और राजा छत्रसाल हाड़ा को तीरों से मार गिराया| उधर राजा छत्रसाल हाड़ा मारे गए और इधर दारा शिकोह ने हाथी से उतर कर घोड़े पर राजा छत्रसाल हाड़ा की तरफ जाने की कोशिश की| अब दारा शिकोह की सेना को दिखा कि राजा छत्रसाल हाड़ा भी मारे जा चुके हैं और दारा शिकोह का हाथी भी खाली है! अपने नेतृत्व को मारा गया समझ कर उनमें से ज्यादातर युद्ध के मैदान से भाग खड़े हुए| इस तरह औरंगज़ेब मुराद की मदद से ये लड़ाई जीत गया| ये गद्दी का फैसला करने वाली जंग थी| इसके अगले ही महीने औरंगज़ेब ने आगरा के किले को घेर लिया और वहां का पानी भी बंद कर दिया| मजबूरन शाहजहाँ को आत्मसमर्पण करना पड़ा और औरंगज़ेब अगला मुग़ल बादशाह बना|

फ़िदायीन हमले जो सीधा एक लक्ष्य को निर्धारित कर के किये जाते हैं वो कोई आज के दौर की बात नहीं हैं| इनका इतिहास इस्लामिक आक्रमणों के शुरूआती दौर से ही शुरू हो गया था| इनका इस्तेमाल भारत के हरेक राजा की हार में दिखेगा| ऐसे ही हमलावरों के लिए गाज़ी और शहीद जैसी उपाधियाँ भी शुरूआती दौर से ही दी जाती रही हैं| समय बदलने के साथ ऐसे हमलावरों के तरीके भी बदले हैं| पहले युद्धक्षेत्र में सेना लड़ती थी| प्रचार तंत्र और सभ्यता संस्कृति पर हमले सीधा मंदिरों, या अन्य पूजा स्थलों, विद्यालयों को तोड़कर या जला कर किये जाते थे| अब समाचार और अन्य माध्यमों से पहले मनोबल तोड़ा जाता है और असली हमला बाद में आता है|

पहले के फ़िदायीन और आज के फ़िदायीन में एक अंतर तरीके बदलने के कारण भी आया है| पुराने फ़िदायीन की हमले के प्रयास में जान जा सकती थी| प्रचार तंत्र के फिदायीनों की जान नहीं जाती| जान के बराबर ही कीमत की उनकी विश्वसनीयता होती है| अक्सर समाचार देने वालों की विश्वसनीयता जाते भी देखा जाता है| लेकिन क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि फिदायीन हमले बंद होंगे? नहीं, जब तक हमला झेल रहा समुदाय ऐसे हमलों को पहचानना नहीं सीखता, ये बंद भी नहीं होंगे| पहचानना आसान है|

क्या हर तरफ से केवल एक ही लक्ष्य को नेस्तोनाबूद करने के प्रयास हो रहे हैं? क्या हर आक्रमण का निशाना एक ही होता है? अगर हाँ, तो पूरी संभावना है कि आप बदले हुए तरीके का फ़िदायीन हमला ही झेल रहे हैं| संभालिये, उनके निशाने की सुरक्षा हरेक का दायित्व है|

-- आनंद कुमार, पटना

====================

इसी लेख को वीडियो के रूप में देखने के लिए... 

https://youtu.be/-YqHxO_02NI  

 

Read 3936 times Last modified on मंगलवार, 07 फरवरी 2017 13:38