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शुक्रवार, 28 जून 2013 07:52

Devi Mother Mary and Vishnu Saibaba



“देवी”(?) मदर मेरी और “विष्णु”(?) साईं – यह विकृति कहाँ ले जाएगी?


कुछ वर्ष पूर्व की बात है, पंजाब में सिख समुदाय गुस्से से उबल रहा था. सिखों और पंजाब-हरियाणा में एक प्रमुख “पंथ”(?) बन चुके डेरा सच्चा सौदा के समर्थकों के बीच खूनी संघर्ष चला. इस संघर्ष के पीछे का कारण था डेरा सच्चा सौदा प्रमुख “राम-रहीम सिंह” की वेषभूषा... डेरा सच्चा सौदा प्रमुख रामरहीम सिंह ने एक पोस्टर में जैसी वेषभूषा पहन रखी थी और दाढ़ी-पगड़ी सहित जो हावभाव बनाए थे, वह सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह से बिलकुल मिलते-जुलते थे. उस पोस्टर से ऐसा आभास होता था मानो रामरहीम सिंह कोई “पवित्र गुरु” हैं, और सिखों को भी उनका सम्मान करना चाहिए. भला सिखों को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता था, नतीजा यह हुआ कि दोनों पंथों के लोग आपस में जमकर लड़ पड़े.

लेख के आरम्भ में यह उदाहरण देने की जरूरत इसलिए आवश्यक था, ताकि धर्म और उससे जुड़े प्रतीकों के बारे में उस धर्म (या पंथ) के समर्थकों, भक्तों की भावनाओं को समझा जा सके. गत कुछ वर्षों में हिन्दू धर्म के भगवानों, देवियों और धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों पर “बौद्धिक” किस्म के आतंकवादी हमले अचानक बढ़ गए हैं. यह “ट्रेंड” देखने में आया है कि किसी खास पंथ को लोकप्रिय बनाने अथवा दूसरे धर्मों के लोगों को अपने पंथ में शामिल करने (अर्थात धर्मांतरण करने) की फूहड़ होड़ में अक्सर हिन्दू धर्म को ही सबसे पहले निशाना बनाया जाता रहा है. हाल ही में एक लेख में मैंने दक्षिण भारत (जहाँ चर्च और वेटिकन से जुड़ी संस्थाएं बहुत मजबूत हो चुकी हैं) के कुछ इलाकों में हिन्दू धर्म और उसकी संस्कृति से जुड़े प्रतीकों और आराध्य देवताओं को विकृत करने के कई मामलों का ज़िक्र किया था. इसमें यीशु को एक हिन्दू संत की वेषभूषा में, ठीक उसी प्रकार आशीर्वाद की मुद्रा बनाए हुए एक पोस्टर एवं इस चित्र के चारों तरफ “सूर्य नमस्कार” की विभिन्न मुद्राओं को दर्शाया गया (मानो सूर्य नमस्कार और जीसस नमस्कार समकक्ष ही हों). इसी प्रकार भरतनाट्यम प्रस्तुती के गीतों में यीशु के वंदना गीत, चर्च को “यीशु मंदिर कहना”, मदर मैरी को साड़ी-बिंदी सहित “देवी” के रूप में प्रस्तुत करना तथा कुछ चर्चों के बाहर “दीप स्तंभ” का निर्माण करना... जैसी कई “शरारतें”(?) शामिल हैं. ज़ाहिर है कि ऐसा करने से भोले-भाले हिन्दू ग्रामीण और आदिवासियों को मूर्ख बनाकर आसानी से उनका भावनात्मक शोषण किया जा सकता है और उन्हें ईसाई धर्म में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जाता है.


हाल ही में ऐसे दो और मामले सामने आए हैं, जिसमें भारत की सनातन संस्कृति और हिन्दू धर्म के प्रतीकों को विकृत किया गया है. पहला मामला है झारखंड का, जहाँ धर्मांतरण की “मिशनरी” गतिविधियाँ उफान पर हैं. झारखंड के “सरना” आदिवासी जिस देवी की पूजा करते हैं, उसे वे “माँ सरना देवी” कहते हैं. सरना आदिवासी महिलाएँ भी उसी देवी की वेशभूषा का पालन करते हुए शुभ अवसरों पर “लाल रंग की बार्डर वाली सफ़ेद साड़ी” पहनती हैं. हाल ही में धुर्वा विकासखंड के सिंहपुर गाँव में एक चर्च ने मदर मैरी की एक मूर्ति स्थापित की, जिसमें मदर मैरी को ठीक उसी प्रकार की साड़ी में दिखाया गया है तथा जिस प्रकार से आदिवासी महिलाएँ काम करते समय अपने बच्चे को एक झोली में लटकाकर रखती हैं, उसी प्रकार मदर मैरी के कंधे पर एक झोली है, जिसमें यीशु दिखाए गए हैं. इस मूर्ति का अनावरण कार्डिनल टेलेस्पोर टोप्पो ने किया. “आदिवासी देवी” के हावभाव वाली इस मूर्ति के मामले पर पिछले कई दिनों से रांची सहित अन्य ग्रामीण इलाकों में प्रदर्शन हो चुके हैं. सरना आदिवासियों के धर्मगुरु बंधन तिग्गा ने आरोप लगाया है कि “हालांकि सफ़ेद साड़ी कोई भी पहन सकता है, परन्तु मदर मैरी को जानबूझकर लाल बार्डर वाली साड़ी पहनाकर प्रदर्शित करना निश्चित रूप से सरना आदिवासियों को धर्मांतरण के जाल में फँसाने की कुत्सित चाल है. मदर मैरी एक विदेशी महिला है, उसे इस प्रकार आदिवासी वेशभूषा और हावभाव में प्रदर्शित करने से साफ़ हो जाता है कि चर्च की नीयत खराब है...इस मूर्ति को देखने से अनपढ़ और भोले आदिवासी भ्रमित हो सकते हैं... यदि ऐसी ही हरकतें जारी रहीं, तो आज से सौ साल बाद आदिवासी समुदाय यही समझेगा कि मदर मैरी झारखंड की ही कोई देवी थीं...”. 

धर्मगुरु बंधन तिग्गा आगे कहते हैं कि झारखंड में लालच देकर अथवा हिन्दू देवताओं के नाम से भ्रमित करके कई आदिवासियों को धर्मान्तरित किया जा चुका है. हालांकि चर्च का दावा होता है कि इन धर्मान्तरित आदिवासियों के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा, परन्तु अब यह सर्वमान्य तथ्य है कि “गोरों” द्वारा शासित वेटिकन के कैथोलिक ईसाई खुद को “शुद्ध” ईसाई मानते हैं, जबकि अन्य धर्मों से धर्मान्तरित होकर आए हुए व्यक्तियों को “निम्न कोटि” का ईसाई मानते हैं. इनमें आपस में जमकर भेदभाव तो होता ही है, अपितु इनके चर्च भी अलग-अलग हैं.


इसी से मिलता-जुलता दूसरा मामला है शिर्डी के सांईबाबा को भगवान विष्णु के “गेटअप” में प्रदर्शित करने का.... उल्लेखनीय है कि फिल्म “अमर-अकबर’एंथोनी” से पहले शिर्डी के सांईबाबा को बहुत कम लोग जानते थे, परन्तु इसे “मार्केटिंग पद्धति” की सफलता कहें या हिन्दू धर्म के अनुयायियों की तथाकथित “सहिष्णुता”(?) कहें... देखते ही देखते पिछले बीस वर्ष में शिर्डी वाले साईंबाबा, भारत का एक प्रमुख धर्मस्थल बन चुका है, जहाँ ना सिर्फ करोड़ों रूपए का चढावा आता है बल्कि सिर्फ कुछ दशक पहले जन्म लिए हुए एक फ़कीर (जिसने ना तो कोई चमत्कार किया है और ना ही हिन्दू धर्म के वेद-पुराणों में इस नाम का कोई उल्लेख है) को अब भगवान राम और कृष्ण के साथ जोड़कर “ओम साईं-राम”, “ओम साईं-कृष्ण” जैसे उदघोष भी किए जाने लगे हैं. अर्थात भारतीय संस्कृति की पुरातन परम्परा के अनुसार “सीता-राम” और “राधे-कृष्ण” जैसे उदघोष इस संदिग्ध फ़कीर के सामने पुराने पड़ गए हैं. यानी एक जमाने में रावण भी सीता को राम से अलग करने में असफल रहा, लेकिन आधुनिक “धर्मगुरु”(?) शिर्डी के सांईबाबा ने “सीताराम” को “सांई-राम” से विस्थापित करने में सफलता हासिल कर ली? अब इसके एक कदम आगे बढकर, ये साईं भक्त ईश्वर के अवतारों से सीधे आदि देवताओं पर ही आ गए हैं...

हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार सिर्फ तीन ही देवता आदि-देवता हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश. बाकी के अन्य देवता या तो इन्हीं का अवतार हैं अथवा इन्हीं से उत्पन्न हुए हैं. साईं की ताज़ा तस्वीर में साईबाबा को सीधे विष्णु के रूप में चित्रित कर दिया गया है, अर्थात शेषनाग पर बैठे हुए. हो सकता है कि कल को किसी साईं भक्त का दिमाग और आगे चले तो वह लक्ष्मी जी को साईबाबा के पैर दबाते हुए भी चित्रित कर दे... किसी साईं भक्त के दिमाग में घुसे तो वह श्रीकृष्ण के स्थान पर साईं के हाथ में सुदर्शन चक्र थमा दे... जब कोई विरोध करने वाला ना हो तथा संस्कृति और धर्म की मामूली सी समझ भी ना हो, तो ऐसे हादसे अक्सर होते रहते हैं. साईबाबा के भक्त उन्हें “गुरु” कह सकते हैं, “अवतार” कह सकते हैं (हालांकि अवतार की परिभाषा में वे फिट नहीं बैठते), “पथप्रदर्शक” कह सकते हैं... लेकिन साईं को महिमामंडित करने के लिए राम-कृष्ण और अब विष्णु का भौंडा उपयोग करना सही नहीं है. फिर मिशनरी और चर्च द्वारा फैलाए जा रहे “भ्रम” और साईं भक्तों द्वारा फैलाई जा रही “विकृति” में क्या अंतर रह जाएगा? 

सवाल सिर्फ यही है कि क्या हिन्दू धर्म को “लचीला” और “सहिष्णु” मानने की कोई सीमा होनी चाहिए या नहीं? क्या कोई भी व्यक्ति या संस्था, कभी भी उठकर, किसी भी हिन्दू देवता का अपमान कर सकते हैं? मैं यह नहीं कहता कि जिस प्रकार सुदूर डेनमार्क में बने एक कार्टून पर यहाँ भारत में लोग आगज़नी-पथराव करने लगते हैं, वैसी ही प्रतिक्रिया हिंदुओं को भी देनी चाहिए, लेकिन इस “तथाकथित सहिष्णुता” पर कहीं ना कहीं तो लगाम लगानी ही होगी... आवाज़ उठानी ही होगी.. 
 
Published in ब्लॉग
सोमवार, 03 जून 2013 18:38

Surya Namaskar or Jesus Namaskar?



सूर्य नमस्कार या यीशु नमस्कार???

हिंदुओं का धर्मान्तरण करने के लिए चर्च और वेटिकन की विभिन्न चालबाजियों और मानसिक तथा मार्केटिंग तकनीकों के बारे में पहले भी कई बार लिखा जा चुका है. झाबुआ, डांग, बस्तर अथवा उड़ीसा के दूरदराज इलाकों में रहने वाले भोलेभाले ग्रामीणों व आदिवासियों को मूर्ख बनाकर “चर्च के गुर्गे” अक्सर धर्मांतरण करवाने में सफल रहते हैं. जो गरीब ग्रामीण इन चालबाजियों में नहीं फंसते हैं, उन्हें पैसा, चावल, कपड़े इत्यादि देकर ईसाई बनाने की कई घटनाएं सामने आती रहती हैं.

कुछ ऐसा ही मामला हाल ही में सामने आया है. नीचे प्रस्तुत चित्र (केरल की एक संस्था :- निर्मला मेडिकल सेंटर) को ध्यान से देखें... 


भारतीय परम्परा और संस्कृति में “सूर्यनमस्कार” का बहुत महत्त्व है, चित्र में गोल घेरे के भीतर यीशु का चित्र है, जबकि उसके चारों ओर सूर्य नमस्कार की विभिन्न मुद्राएं हैं. यहाँ तक कि क्राइस्ट का जो चित्र है, वह भी “भगवान बुद्ध” की मुद्रा में है. पद्मासन में बैठे हुए आशीर्वाद की मुद्रा में उठे हुए हाथ वाली प्रभु यीशु की तस्वीर, अभी तक कितने लोगों ने, कितने ईसाई ग्रंथों में देखी है?? लेकिन स्वयं अपने ही आराध्य को, अपने ही स्वार्थ (यानी धर्मान्तरण) के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश करने जैसा कृत्य सिर्फ वेटिकन ही कर सकता है. क्योंकि “मकसद” हल होना चाहिए, चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े. धर्मान्तरित हो चुके दलित ईसाईयों को ही यह सोचना चाहिए कि जो धर्म खुद ही इतना दिवालिया हो कि उसे अपनी बात कहने के लिए दूसरे धर्मों के प्रतीक चिन्हों व खुद के आराध्य को ही विकृत करना पड़ रहा हो, उस धर्म में जाकर उन्होंने गलती तो नहीं कर दी? क्योंकि निजी बातचीत में कई धर्मान्तरित ईसाईयों ने स्वीकार किया है कि ईसाई धर्म में “आध्यात्मिकता से प्राप्त होने वाली मनःशांति” नहीं है, जो कि हिंदू धर्म में है, और इसी कार्य के लिए उन्हें वापस हिंदू धर्म की परम्पराओं और प्रतीक चिन्हों को “Digest” (हजम) करने का उपक्रम करना पड़ता है. अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन से धर्मान्तरण कार्य के लिए त्रिचूर आए हुए विदेशी पादरियों ने देवी-देवताओं की आराधना वाले भारतीय भजनों को हूबहू कॉपी-पेस्ट करके याद कर लिया है, अंतर सिर्फ इतना है कि जहाँ-जहाँ भगवान विष्णु का नाम आता है, वहाँ-वहाँ प्रभु यीशु कर दिया गया है, और जहाँ-जहाँ “देवी अथवा माता” का नाम आता है, वहाँ “मरियम” या “मैरी” कर दिया गया है.

यीशु की “महिमा”(??) का बखान करने के लिए अक्सर आदिवासी क्षेत्रों में पादरी लोग देवी की पीतल की मूर्ति और हूबहू पीतल जैसी दिखने वाली लकड़ी की यीशु की मूर्ति को पानी में फेंककर उन्हें दिखाते हैं कि किस तरह “तुम्हारे भगवान” की मूर्ति तो डूब गई, लेकिन “यीशु” की मूर्ति पानी पर तैरती रही है. इसलिए जब भी कोई मुसीबत आएगी, तो “तुम्हारे प्राचीन भगवान” तुम्हें नहीं बचा पाएंगे, तुरंत यीशु की शरण में आ जाओ. इस “ट्रिक” को दिखाने से पहले ही चर्च का नेटवर्क उन इलाकों में दवाईयाँ और आर्थिक मदद लेकर धर्मांतरण की पृष्ठभूमि तैयार कर चुका होता है. दूरदराज के इलाकों में एक झोंपड़ी में मरियम “देवी”(???) की मूर्तियाँ स्थापित करना, उस मूर्ति की हार-फूल से पूजा-अर्चना भी करना, दवाई से ठीक हुए मरीज को “यीशु” की कृपा बताने जैसे कई खेल चर्च इन अनपढ़ इलाकों में करता रहता है. अर्थात धर्मान्तरण के लिए वेटिकन में स्वयं के धर्म के प्रति इतना विश्वास भी नहीं है कि वे “अपनी कोई खूबियाँ” बताकर हिंदुओं का धर्मान्तरण कर सकें, इस काम के लिए उन्हें भारतीय आराध्य देवताओं और हिन्दू संस्कृति के प्रतीक चिन्हों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. यह उनका अध्यात्मिक दिवालियापन तो है ही, साथ ही “बेवकूफ बनाने की क्षमता” का उम्दा मार्केटिंग प्रदर्शन भी है.

हिन्दू धर्म के प्रतीक चिन्हों को ईसाई धर्म में “हजम करने” (Digest) अर्थात शहरी पढ़े-लिखों को मूर्ख बनाने के प्रयास भी सतत जारी रहते हैं. पिछले कुछ वर्ष से दक्षिण के कान्वेंट स्कूलों में, भरत-नाट्यम और मोहिनी-अट्टम जैसे परम्परागत भारतीय नृत्यों पर जो बच्चे मंच प्रदर्शन करते हैं, उन नृत्यों में जो गीत या बोल होते हैं, वे यीशु के चमत्कारों की प्रार्थना के बारे में होते हैं, अर्थात आने वाले कुछ वर्षों में बच्चों के मन पर यह बात स्थापित कर दी जाएगी, कि वास्तव में भरत नाट्यम, प्रभु यीशु की तारीफ़ में किया जाने वाला नृत्य है. इसी प्रकार दक्षिण के कुछ चर्च परिसरों में “दीप-स्तंभ” स्थापित करने की शुरुआत भी हो चुकी है. क्या “दीप-स्तंभ” की कोई अवधारणा, बाइबल के किसी भी अध्याय में दिखाई गई है? नहीं...| लेकिन चूँकि हिंदुओं को ईसाई धर्म की ओर आकर्षित करने के लिए जो मार्केटिंग तकनीक चाहिए, उसमें विशुद्ध ईसाई प्रतीक काम नहीं आने वाले, इसलिए हिन्दू प्रतीकों को, तोड़-मरोड़कर, विकृत करके अथवा उन प्रतीकों को ईसाई धर्म के मुकाबले निकृष्ट बताकर ही “मार्केटिंग” की जा सकती है... और यही किया भी जा रहा है. इसीलिए धर्मान्तरित होने के पश्चात उस पहली पीढ़ी के हिंदुओं के मूल नाम भी नहीं बदले जाते. राजशेखर रेड्डी का नाम हिन्दू ही बना रहता है, ताकि हिंदुओं को आसानी से मूर्ख बनाया जा सके इसी प्रकार धीरे-धीरे “अनिल विलियम” का पुत्र अगली पीढ़ी में “जोसेफ विलियम” बन जाता है, और एक चक्र पूरा होता है.

वास्तव में हकीकत यही है कि हिन्दू धर्म के मुकाबले में, चर्च के पास ईसाई धर्म को “शो-केस” करने के लिए कोई जोरदार सकारात्मक प्रतीक है ही नहीं. हिन्दू धर्म ने कभी भी “पुश-मार्केटिंग” के सिद्धांत पर काम ही नहीं किया, जबकि वेटिकन धर्मांतरण के लिए इस मार्केटिंग सिद्धांत का जमकर उपयोग करता रहा है, चाहे वह अफ्रीका हो अथवा चीन. जैसा कि हालिया सर्वे से उजागर हुआ है, पश्चिम में ईसाई धर्म के पाखंडी स्वभाव तथा आध्यात्मिक दिवालिएपन की वजह से “Atheists” (नास्तिकों) की संख्या तेजी से बढ़ रही है. चूँकि दक्षिण एशिया में गरीबी अधिक है, और हिन्दू धर्म अत्यधिक सहिष्णु और खुला हुआ है, इसलिए वेटिकन का असली निशाना यही क्षेत्र है.
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