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दीर्घकाल तक इस्लाम की आंधी से हिन्दुस्थान ने टक्कर ली है। इस प्रक्रिया में जहां एक ओर हिंदू समाज को मर्मांतक पीड़ा मिली और उसका सामाजिक एवं आर्थिक जीवन बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया वहीं इस्लाम को भी हिंदुत्व के उदात्त विचारों ने अपने रंग में गहरे रंग देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। भक्ति आंदोलन को अगर इस रूप में देखें तो उस कालखण्ड में एक बार ऐसा लगने लगा था कि इस्लाम का असहिष्णु जीवन प्रवाह भक्ति की महान सुरसरिता में समाहित हो जाएगा।

संतों के निर्मल और साधनापूर्ण जीवन ने देश में हमेशा सभी को प्रभावित किया। उनके चिंतन, आदर्श व्यवहार, सेवाभाव, त्यागमय जीवन और भगवद्भक्ति ने एक ओर जहां हिंदुओं में कोई भेदभाव नहीं माना वहीं इस्लाम को मानने वाले भी इसके आकर्षण में खिंचे चले आए। इन संतों के सत्संग, भजन, कीर्तन, प्रवचन आदि कार्यक्रमों में ऐसी रसधारा बहती थी कि जो इसके निकट आया वही उस में सराबोर हो गया। भक्ति को कभी कोई भेदभाव स्वीकार नहीं था। इसी के प्रभाव में आकर बहुत से मुसलमान भी हिंदू संतों के शिष्य बन गए और संतों के समान ही जीवन जीने लगे। मध्यकाल में हम देखें तो पाएंगे कि ऐसे हजारों मुस्लिम संत थे जिन्होंने हिंदुत्व के अमर तत्व को अपने इस्लाम मतावलंबियों के बीच बांटना शुरू कर दिया था। यहां हम कबीर, संत रज्जब, संत रोहल साहेब और संत शालबेग के अतिरिक्त ऐसे संतों की चर्चा करेंगे जिन्होंने भारतीय इस्लाम को एक नवीन चेहरा दिया। इस्लाम के परंपरागत असहिष्णु चेहरे से कहीं अलग भक्ति के मधुर रस से आप्लावित और सभी को आनंद देने वाला यह चेहरा था।

सोलहवीं सदी में रसखान दिल्ली के समृद्ध पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे। लेकिन उनका सारा जीवन ही कृष्ण भक्ति का पर्याय बन गया। लोकपरंपरा में कथा आती है कि एक बार वे गोवर्धनजी में श्रीनाथ जी के दर्शन को गए तो द्वारपार ने उन्हें मुस्लिम जानकर मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया। भक्त रसखान तीन दिनों तक बिना कुछ खाए-पिए मंदिर के पास पड़े रहे और कृष्ण भक्ति के पद गाते रहे। बाद में लोगों को पता चला कि ये तो कृष्ण को अनन्य भक्त हैं। गोस्वामी विट्ठलनाथ जो को रसखान की कृष्णभक्ति के बारे में पता चला तो उन्होंने उन्हें बाकायदा गोविन्द कुण्ड में स्नान कराकर दीक्षा दी। रसखान ने भी अपना अगला जन्म भी प्रभु के श्रीचरणों में ही पाने की प्रार्थना गाई।

मानुस हों तो वही रसखान, बसौं बृज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहां बस मेरौ, चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करों, नित कालिंदी कूल कदंब की डारन।।

मथुरा में यमुनातट पर रमणरेती में निर्मित इस महान कृष्ण भक्त की समाधि आज भी करोड़ों कृष्ण भक्तों के ह्दयों को लुभाती और आनन्दमय प्रवाह से भर देती है।

ऐसे ही थे बाबा फरीद। पंजाब के कोठिवाल नामक ग्राम के रहने वाले। भक्त फरीद भक्ति में तल्लीन अपनी प्रार्थना में कहते हैं- हे काग अर्थात कौवे, तू मेरा सारा शरीर चुन-चुन कर खा लेना किंतु मेरी दो आंखें मत खाना क्योंकि मुझे ईश्वर के दर्शन करने हैं- कागा सब तन खाइयो, मेरा चुन-चुन मांस। दो नैना मत खाइयो, मोहि पिया मिलन की आस।।

राजस्थान के अलवर में सोलहवीं सदी में पैदा हुए संत लालदास भी मुसलमान थे। उनका जन्म मेव मुस्लिम जाति में हुआ था। लकड़हारे के रूप में उनका प्रारंभिक जीवन व्यतीत हुआ। और इसी जीवन के कारण वे साधुओं की संगत में आ गए, मुसलमान से भक्त लालदास होगए। ऊंच-नीच और हिंदू-मुस्लिम के भेद को तो उन्होंने अपने जीवन में जाना तक नहीं। कब उन्होंने मांस खाना छोड़ा और नमाज भुला दी, ये भी उन्हें पता न चला। गांव-गांव हरि का सुमिरन करने का उपदेश करने लगे। हिरदै हरि की चाकरी पर, घर कबहुं न जाए। ऐसे पद गाते हुए उन्होंने लालपंथ की नींव रखी और भरतपुर क्षेत्र के नगला ग्राम में उनकी समाधि आज भी लालदासी पंथियों की प्रमुख दर्शन स्थली है।

भक्ति आंदोलन और मुस्लिम राजवंश

हिंदू भक्ति आंदोलन ने सामान्य मुस्लिमों से लेकर मुस्लिम सम्राटों तक के परिजनों को हिलाकर रख दिया। रहीम, अमीर खुसरो और दारा शिकोह इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। और केवल पुरूष ही नहीं मुस्लिम शहजादियां भी भक्ति के रंग में रंग गईं। इसी कड़ी में औरंगजेब की बेटी जैबुन्निसां बेगम तथा भतीजी ताज बेगम का नाम बहुत आदर से लिया जाता है।

इनमें ताज़बीबी के कृष्णभक्ति के पदों ने तो पूरी मुस्लिम सियासत में ही हलचल मचा दी। ताज़ दोनों हाथ ऊंचे कर भावविभोर होकर जिस तरह से कृष्णभक्ति के पद गाती थी, उसकी तुलना मीरा के साथ सहज ही की जा सकती है। ताज़बीबी का एक प्रसिद्ध पद है-

छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला
बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत जो है कान,
कुण्डल मन मोहै, लाल मुकुट सिर धारा है।
दुष्टजन मारे, सब संत जो उबारे ताज,
चित्त में निहारे प्रन, प्रीति करन वारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावन वारा, कृष्ण साहेब हमारा है।।
सुनो दिल जानी, मेरे दिल की कहानी तुम,
दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं।
देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूं भुलानी,
तजे कलमा-कुरान साड़े गुननि गहूंगी मैं।।
नन्द के कुमार, कुरबान तेरी सुरत पै,
हूं तो मुगलानी, हिंदुआनी बन रहूंगी मैं।।

तो कृष्णभक्ति में विह्वल ताज़ मुगल सल्तनत से जुड़ी होने के बावजू़द हिंदुवानी रौ में बहने की प्रतिज्ञा करती है। ताज़ ने बाद में गोस्वामी विट्ठलनाथ से विधिवत् वैष्णव मत की दीक्षा ली।

ऐसे ही थे भक्त कारे बेग जिनका पुत्र मरणासन्न हो गया तो उसे मंदिर की देहरी पर लिटाकर वह आंसू बहाते हुए कृष्ण से कहने लगे-

एहौं रन धीर बलभद्र जी के वीर अब।
हरौं मेरी पीर क्या, हमारी बेर-बार की।।
हिंदुन के नाथ हो तो हमारा कुछ दावा नहीं,
जगत के नाथ हो तो मेरी सुध लिजिए।

काशी में जन्मे थे कबीर से कमाल। कमाल साहेब का अड़ोस-पड़ोस और सगे-संबंधी मुसलमान थे लेकिन कबीर साहेब के कारण उन्हें घर में बचपन से अलग माहौल मिला था। बचपन में ही भक्ति की धार उनमें प्रबल हो गई और राम के प्रति वे अति आसक्त हो गए। गाने लगे-

राम नाम भज निस दिन बंदे और मरम पाखण्डा,
बाहिर के पट दे मेरे प्यारे, पिंड देख बह्माण्डा ।
अजर-अमर अविनाशी साहिब, नर देही क्यों आया।
इतनी समझ-बूझ नहीं मूरख, आय-जाय सो माया।

मराठवाड़ा क्षेत्र में जन्में कृष्णभक्त शाही अली कादर साहेब ने तो गजब भक्तिपूर्ण रचनाएं की हैं। उन्हीं की सुप्रसिद्ध पदावली है- चल मन जमुना के तीर, बाजत मुरली री मुरली री।।

दाराशिकोह का नाम भला किसने नहीं सुना। मुगलिया सल्तनत के उत्तराधिकार संघर्ष में उन्हें अपने प्राणों का बलिदान करना पड़ा। वे शाहजहां के ज्येष्ठ पु्त्र थे लेकिन उनमें हिंदुत्व के उदात्त विचारों ने इतना ज्यादा प्रभाव डाला कि वे वेदों और उपनिषदों का अध्ययन करने लगे। उपनिषदों का ज्ञान फारसी में अनुदित हुआ तो इसके पीछे दारा शिकोह की तपस्या थी जो उन्होंने प्रयाग और काशी में गंगा तट पर रहते हुए की थी। उनके हिंदुत्व प्रेम के कारण ही औरंगजेब ने उनका वध करवा डाला।

अकबर के नवरत्नों में एक अब्दुर्ररहीम खानखाना को भी जहांगीर ने इसी कारण परेशान किया। अपने जीवन की संझाबेला में वे चित्रकूट आ गए और भगवान राम की भक्ति करने लगे। चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवधनरेश, जा पर विपदा परत है, सो आवत एहि देश।

राम और कृष्ण दोनों के प्रति ही रहीम के मन में गहरा अनुराग था। वे मुसलमान थे लेकिन उन्होंने सच्चे अर्थों में भारत की सहिष्णु परंपरा का अवगाहन किया। मुगलिया सल्तनत में एक समय उनका प्रभाव वर्तमान प्रधानमंत्री और केबिनेट सचिव जैसा हुआ करता था। लेकिन उनका निर्मल मन सदा ही राजनीति के छल-प्रपंचों से दूर भगवद्दभक्ति में रमता था। यही कारण है कि जो पद, दोहे और रचनाएं वह कर गए वह हमारी महान और समृद्ध विरासत का सुंदर परिचय है।

भारतीय जीवनदर्शन और मूल्यों को रहीम ने व्यक्तिगत जीवन में न सिर्फ जिया वरन् उसे शब्द देकर हमेशा के लिए अमर कर दिया। एक बार किसी ने रहीम से पूछा कि यह हाथी अपने सिर पर धूल क्यों डालता है तो रहीम ने उसे उत्तर दिया- यह उस रजकण को ढूंढता फिरता है जिसका स्पर्श पाकर अहिल्या तर गई थी।

धूर धरत निज सीस पर, कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज मुनिपत्नी तरी, सो ढूंढत गजराज।

गुरू नानक के शिष्य मरदाना, संत रविदास के शिष्य सदना, महाराष्ट्र के संत लतीफ शाह, अमेठी के पास जायसी ग्राम के मलिक मोहम्मद जायसी, नर्मदा तट पर रमण करने वाले संत बाबा मलेक, गुजरात के ही भक्त बाबा दीन दरवेश, दरिया साहेब, अनाम जैसे संत यारी साहेब, ग्वालियर के संत बुल्ला शाह, मेहसाणा के रामभक्त मीर मुराद, नज़ीर अक़बराबादी, बंगाल के संत मुर्तजा साहेब, और तो और सम्राट शाहजहां तक के जीवन में भक्ति आंदोलन ने ऐसी लहर पैदा की इनके पग भक्ति के महान पथ पर चल पड़े।

यह भक्ति की भावना सभी को आत्मसात करने वाली थी। आज़ भी जब हम डागर बंधुओं से ध्रुवपद सुनते हैं तो हमें उस भक्ति परंपरा का अनायास स्मरण हो उठता है जिसने इस्लाम के तूफान को गंगा की लहरों के सामने नतमस्तक होने पर मजबूर कर दिया था।

यही कारण था कि इस्लाम के हिंदुत्व के साथ बढ़ते तादात्मीकरण ने कट्टरपंधी मुल्लाओँ की नींद हराम कर दी। मौलाना हाली ऐसे ही एक कट्टरपंथी मुसलमान थे जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम समन्वय के इस महान कार्य पर चिंता जताई। उन्होंने कहा-

वो दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा,
निशां जिसका अक्साए आलम में पहुंचा,
मज़ाहम हुआ कोई खतरा न जिसका,
न अम्मां में ठटका, न कुलज़म में झिझका,
किए पै सिपर जिसने सातों समंदर,
वो डुबा दहाने में गंगा के आकर।।


यानी मौलाना हाली दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं कि इस्लाम का जहाज़ी बेड़ा जो सातों समुद्र बेरोक-टोक पार करता गया और अजेय रहा, वह जब हिंदुस्थान पहुंचा और उसका सामना यहां की संस्कृति से हुआ तो वह गंगा की धारा में सदा के लिए डूब गया।

मुस्लिम समाज़ पर हिंदू तथा मुस्लिम संतों की भगवद्भक्ति का इतना प्रभाव बढ़ता गया कि इस्लामी मौलवी लोगों को लगने लगा कि इस प्रकार तो हिंदुत्व इस्लाम को निगल जाएगा। इस कारण प्रतिक्रिया में आकर भारतीय मुसलमान संतों पर मौलवियों ने कुफ्र अर्थात नास्तिकता के फतवे ज़ारी कर दिये। मौलानाओं ने साधारण मुसलमानों को सावधान किया-

हमें वाइजों ने यह तालीम दी है।
कि जो काम दीनी है या दुनियावी है,
मुखालिफ़ की रीस उसमें करनी बुरी है,
निशां गैरते दीने हक का यही है,
न ठीक उसकी हरगिज़ कोई बात समझो,
वह दिन को कहे दिन तो तुम रात समझो।।

तो इस प्रकार अठारहवीं सदी आते आते हिंदु-मुस्लिम समन्वय की महान भक्ति परंपरा पर कट्टरपंथियों का ग्रहण लगना तेज़ हो गया। धूर्त और चालाक अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुस्लिमों में पनप रहे प्रेम को भी अपने लिए गंभीर खतरा माना। येन-केन-प्रकारेण वे मुसलमानों को उन हिंदुओं से सांस्कृतिक तौर पर भी अलग करने में सफल हो गए जिन हिंदुओं के साथ मुसलमानों का नाभि-नाल का सम्बंध था। आज यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि यदि अंग्रेज़ भारत में न आए होते तो निर्मल भक्ति, प्रेम तथा संतों के पवित्र एवं त्यागमयी आचरण के दैवीय आकर्षण से करोड़ों मुसलमान अपने पुरखों की संस्कृति, धर्म और परंपरा से उसी भांति जुड़ जाते और आनन्द मानते जैसे एक बच्चा अपनी मां की गोदी में सुख का अनुभव करता है।

चूंकि अधिकाधिक लोगों तक यह बात पहुँच सके, इसलिये यह पोस्ट प्रवक्ता.कॉम से साभार ली गई है, जिसका मूल लिंक यह है http://www.pravakta.com/?p=6375 
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लेखक: डॉ. कृष्णगोपाल

कृष्णगोपालजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जीवन समर्पित प्रचारकों की टोली से जुड़े यशस्वी और मेधावी प्रचारक हैं। वनस्पति विज्ञान में शोध करने के उपरांत उन्होंने अपना जीवन राष्ट्रकार्य के लिए अर्पित किया। संप्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजनानुसार वह पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक का दायित्व निर्वाह कर रहे हैं। व्यक्तिरूप से वे गहन जिज्ञासु और अध्यावसायी हैं। स्वदेशी, डंकेल प्रस्तावों पर उन्होंने करीब 15 वर्ष पूर्व विचारपूर्वक अनेक पुस्तकों का लेखन किया। कालांतर में डॉ. भीमराव अम्बेडकर के जीवन पर अत्यंत सारगर्भित पुस्तक की रचना की। वर्तमान लेखमाला उनके द्वारा लिखित पुस्तक भारत की संत परंपरा पर आधारित है, यद्यपि इसमें कुछ नए आयाम भी उन्होंने जोड़े हैं।
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प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी पद्म पुरस्कारों की घोषणा की रस्म निभाई गई। जिस प्रकार पुराने जमाने में राजा-बादशाह खुश होकर अपनी रियासत के कलाकारों, राजा की तारीफ़ में कसीदे काढ़ने वाले भाण्डों और चारण-भाट को पुरस्कार, सोने के सिक्के, हार आदि बाँटा करते थे, वही परम्परा लोकतन्त्र के साठ साल (यानी परिपक्व ? लोकतन्त्र हो जाने) के बावजूद जारी है।

जैसा कि सभी जानते हैं “भारत रत्न” भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है, फ़िर आता है पद्म विभूषण, पद्मभूषण और पद्मश्री आदि। अब तक कुल 41 लोगों को भारत रत्न का सम्मान दिया जा चुका है (यह संख्या 42 भी हो सकती थी, यदि “तकनीकी आधार”(??) पर खारिज किया गया सुभाषचन्द्र बोस का सम्मान भी गिन लिया जाता)। भारत रत्न प्रदान करने के लिये बाकायदा एक विशेषज्ञ समिति होती है जो यह तय करती है कि किसे यह सम्मान दिया जाना चाहिये और यह अनुशंसा राष्ट्रपति को भेजी जाती है, जिस पर वे अपनी सहमति देते हैं। इतनी भारी-भरकम समिति और उसमें तमाम पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी और इतिहासविद उपस्थित होने के बावजूद यदि भारत रत्न प्राप्त लोगों की लिस्ट देखी जाये तो कई अति-प्रतिष्ठित नाम उसमें नहीं मिलेंगे, जबकि कुछ “बेहद साधारण” किस्म के नाम भी इसमें देखे जा सकते हैं। चूंकि गाँधी को तो “राष्ट्रपिता” का दर्जा मिला हुआ है, इसलिये इस नाम को छोड़ भी दें, तो अंधे को भी साफ़ दिखाई दे सकता है कि भारत रत्न सम्मान प्राप्त करने के लिये सिर्फ़ निस्वार्थ भाव से देश की सेवा करना जरूरी नहीं है, इसके लिये सबसे पहली शर्त है नेहरु-गाँधी परिवार की चमचागिरी, दूसरी शर्त है “सेकुलरिज़्म का लबादा” और तीसरी तो यह कि या तो वह कलाकार इतने ऊँचे स्तर का हो कि कोई भी समिति उसका विरोध कर ही न सके, जैसे कि लता मंगेशकर, रविशंकर या पण्डित भीमसेन जोशी।

खिलाड़ियों, कलाकारों को छोड़ दिया जाये, तो जब राजनीति और समाजसेवा से जुड़े लोगों को ये नागरिक सम्मान दिये जाते हैं तब इनमें पहली और दूसरी शर्त सबसे महत्वपूर्ण होती है। यहाँ तक कि खिलाड़ियों और कलाकारों के सम्बन्ध में भी एक अदृश्य शर्त तो यह होती ही है कि उसने कभी भी “हिन्दुत्व” के सम्बन्ध में कोई खुल्लमखुल्ला बयान न दिया हो, कभी संघ-भाजपा के कार्यक्रम में न गया हो (क्योंकि ये अछूत हैं)…और सबसे बड़ी बात, कि गाँधी परिवार का कभी खुला विरोध न किया हो। मैं जानता हूं कि इन सम्मानों में क्षेत्रवाद, जातिवाद, सेकुलरवाद आदि की बातें करने से कुछ “कथित बुद्धिजीवियों” की भौंहें तन सकती हैं, लेकिन कुछ बिन्दु आपके सामने रख रहा हूं जिससे पूरी तरह से खुलासा हो जायेगा कि ये सम्मान निहायत ही पक्षपाती, राजनीति से प्रेरित और एक खास परिवार या विचारधारा के लोगों के लिये आरक्षित हैं –

1) देश की आज़ादी के आंदोलन को सबसे महत्वपूर्ण आहुति देने वाले, अंग्रेजों के साथ-साथ कांग्रेस का खुला विरोध करने वाले वीर दामोदर सावरकर को अभी तक यह पुरस्कार नहीं दिया गया है, बल्कि मणिशंकर अय्यर जैसे लोग तो अंडमान में भी इनकी समाधि की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं कर पाते – कारण सिर्फ़ एक, उनके “हिन्दुत्ववादी विचार”, लेकिन इससे उनके अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ी गई लड़ाई का महत्व कम नहीं हो जाता।

2) आज़ादी के बाद सभी रियासतों को अपने बल, बुद्धि और चातुर्य के बल पर भारत संघ में मिलाने वाले सरदार वल्लभाई पटेल को भारत रत्न दिया गया 1991 में। इंदिरा गाँधी, मदर टेरेसा और एमजीआर के बहुत बाद। कारण सिर्फ़ एक – उनकी विचारधारा कभी भी गाँधी परिवार से मेल नहीं खाई, नेहरु की उन्होंने कई बार (चीन के साथ एकतरफ़ा मधुर सम्बन्धों तथा हज सबसिडी की) खुलकर आलोचना भी की।

3) संविधान के निर्माता के रूप में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अम्बेडकर को यह पुरस्कार मिला 1990 में, वह भी इसलिये कि तब तक देश में “दलित आंदोलन” एक मजबूत वोट बैंक का रूप ले चुका था, वरना तब भी नहीं मिलता, क्योंकि ये महानुभाव भी देश की वर्तमान परिस्थिति के लिये नेहरुवादी नीतियों को जिम्मेदार मानते थे, तथा देश में ब्राह्मणवाद फ़ैलाने के लिये कांग्रेस की आलोचना करते थे।

4) मौलाना आज़ाद ने खुद ही भारत रत्न लेने से इसलिये मना कर दिया क्योंकि उनके अनुसार सरकार में मौजूद प्रभावशाली लोगों तथा समिति के सदस्य होने के नाते यह उनका नैतिक अधिकार नहीं था, जबकि नेहरु ने 1955 में ही भारत रत्न “हथिया” लिया। उनकी बेटी ने भी इसी परम्परा को जारी रखा और 1971 में (पाकिस्तान के 90000 सैनिकों को मुफ़्त में छोड़ने और बकवास टाइप शिमला समझौता करने के बावजूद) खुद ही भारत रत्न ले लिया, और पायलटी करते-करते “उड़कर” प्रधानमंत्री बने, इनके बेटे को भी मौत के बाद सहानुभूति के चलते 1991 में फ़ोकट में ही (“जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है” जैसे बयान और शाहबानो मामले में वोटबैंक जुगाड़ू, ढीलाढाला और देशघाती रवैया अपनाने तथा अपनी मूर्खतापूर्ण विदेशनीति के चलते श्रीलंका में शान्ति सेना के नाम पर हजारों भारतीय सैनिक मरवाने के बावजूद) भारत रत्न दे दिया गया।

5) जयप्रकाश नारायण, जिन्होंने कांग्रेस की चूलें पूरे देश से हिलाने में बड़ी भूमिका निभाई, उन्हें 1999 में यह सम्मान मिला, जबकि सिर्फ़ तमिलनाडु के लिये आजीवन काम करने वाले एमजी रामचन्द्रन को 1988 में ही मिल गया था, क्योंकि उस समय कांग्रेस को तमिल वोटों को लुभाना था।

ये थे चन्द उदाहरण, कि सन् 1980-85 तक तो भारत रत्न उसे ही मिल सकता था, जो या तो कांग्रेस का सदस्य हो, या गाँधी परिवार का चमचा हो या फ़िर अपवाद स्वरूप कोई बहुत बड़ा कलाकार अथवा नोबल विजेता। लेकिन जिस किसी व्यक्ति ने कांग्रेस का विरोध किया अथवा कोई जन-आंदोलन चलाया उसे अपने जीवनकाल में भारत रत्न तो नहीं मिलने दिया गया, मरणोपरांत ही मिला। कश्मीर में अपनी जान लड़ाने वाले (बल्कि जान गंवाने वाले) डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जिन्होंने शेख अब्दुल्ला को कश्मीर हथियाने से रोका, विभिन्न विवादास्पद कानूनों का विरोध किया उन्हें भारत रत्न देना तो दूर, संदेहास्पद स्थितियों में हुई उनकी मौत की नेहरु ने विधिवत जाँच तक नहीं करवाई। जबकि जिस तरह से “भड़ैती मीडिया” सोनिया मैडम के “त्याग और बलिदान” के किस्से गढ़ रहा है, जल्दी ही उन्हें भी भारत रत्न देने की नौबत आ जायेगी, पीछे-पीछे देश के “कथित युवा भविष्य” राहुल गाँधी हैं ही, एक उनके लिये भी…।

यह तो हुई भारत रत्न की बात, जो कि देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है और जिसे विदेशों में भी अच्छी निगाह से देखा जाता है, कम से कम इसमें तो राजनीति नहीं होना चाहिये, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और कांग्रेसी घिनौनी चालें सतत चलती रहीं। पद्म विभूषण हों, पद्मभूषण अथवा पद्मश्री, सारे पुरस्कार मनमर्जी से “बादशाहों” की तर्ज पर बाँटे गये हैं। प्रणब मुखर्जी को सिर्फ़ “सोनिया भक्ति” की वजह से 2008 में पद्मविभूषण, पत्रकार रामचन्द्र गुहा को सिर्फ़ और सिर्फ़ भाजपा-संघ विरोध की वजह से और इसी तर्ज पर राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त या महेश भट्ट-शबाना आज़मी को “सेकुलर” वजहों से खैरात बाँटी गई हैं, और ऐसे नाम सैकड़ों की संख्या में हैं।

अपने पाँच वर्षीय कार्यकाल के दौरान वाजपेयी चाहते तो श्यामाप्रसाद मुखर्जी, सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय, कुशाभाऊ ठाकरे आदि को पुरस्कृत कर सकते थे, लेकिन वे सदाशयता के नाते चाहते थे कि इस सर्वोच्च सम्मान में राजनीति नहीं होना चाहिये और कोई भाजपा सरकार पर उंगली न उठाये, लेकिन उनके इस रवैये की फ़िर भी कोई तारीफ़ मीडिया ने नहीं की। आज की तारीख में अटलबिहारी वाजपेयी का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा, कभी भी कुछ भी हो सकता है ऐसे में वे “सही अर्थों में भारत के प्रथम गैर-कांग्रेसी” प्रधानमंत्री और राजनीति में बेदाग 50 वर्ष पूर्ण करने के नाते भारत रत्न के एकमात्र जीवित हकदार हैं, लेकिन उन्हें यह मिलेगा नहीं (कम से कम जीवित रहते)। पिछले तीनों भारत रत्न कलाकारों को ही मिले हैं (क्योंकि अब यही लोग थोड़े गैर-विवादास्पद बचे हैं)… और मान लिया जाये कि यदि किसी राजनैतिक व्यक्ति को यह सम्मान मिलने की बारी आई भी, तब भी ज्योति बसु का नम्बर पहले लग जायेगा (भले ही वे कभी बंगाल से बाहर चुनाव नहीं लड़े हों या सिर्फ़ एक राज्य के मुख्यमंत्री भर रहे हों), लेकिन वाजपेयी को भारत रत्न तो कतई नहीं। खैर… संघ-भाजपा से सम्बन्ध रखने वालों को “अछूत” बनाये रखने की यह परम्परा कई वर्षों से चली आ रही है, अब इसमें आश्चर्य नहीं होता

आश्चर्य तो इस बात का है कि इस वर्ष के पुरस्कारों में “संगीत के बेताज बादशाह” इलैया राजा को एआर रहमान के समकक्ष रखा गया है, जबकि देखा जाये तो रहमान उनके सामने “शब्दशः” बच्चे हैं और इलैया राजा के महान योगदान के सामने कुछ भी नहीं (शायद रहमान को “झोंपड़पट्टी वाला करोड़पति कुत्ता” फ़िल्म में पश्चिम द्वारा मिली तारीफ़ की वजह से दिया होगा), जबकि हिरण मारने वाले सैफ़ अली को वरिष्ठ अभिनेता धर्मेन्द्र और सनी देओल पर भी तरजीह दे दी गई (क्योंकि धर्मेन्द्र भाजपा सांसद रहे)।

आश्चर्य तो इस साल घोषित सम्मानों की लिस्ट में अमेरिकी NRI होटल व्यवसायी चटवाल का नाम  देखकर भी हुआ है। जिस व्यक्ति पर स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के करोड़ों रुपये के गबन और हेराफ़ेरी का मामला चल चुका हो, जो व्यक्ति एक बार गिरफ़्तार भी हो चुका हो, पता नहीं उसे किस आधार पर पद्म पुरस्कार के लायक समझा गया है (शायद अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में अच्छा चन्दा दिया होगा, या मनमोहन-चिदम्बरम की उम्दा खातिरदारी की होगी इसने)। खैर, कांग्रेस द्वारा “भ्रष्टों को संरक्षण” देने की परम्परा तो शुरु से रही है, चाहे जस्टिस रामास्वामी का महाभियोग मामला हो या जस्टिस दिनाकरन के महाभियोग प्रस्ताव में कांग्रेसी सांसदों का दस्तखत न करना रहा हो।

धीरे-धीरे हमें ऐसे पुरस्कारों की भी आदत डाल लेना चाहिये, क्योंकि जब राठौर और आरके शर्मा जैसे “महादागी” पुलिस अफ़सर भी राष्ट्रपति पदक “जुगाड़” सकते हैं, तो पप्पू यादव, शहाबुद्दीन, अरुण गवली, दाऊद इब्राहीम आदि को भी किसी दिन “पद्मश्री” मिल सकता है… लेकिन वीर सावरकर, तिलक, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, अटलबिहारी वाजपेयी को कभी नहीं… क्योंकि इन लोगों का “जुर्म” अधिक बड़ा है… इन्होंने कांग्रेस-नेहरु-गाँधी परिवार का विरोध और हिन्दुत्व का समर्थन किया है… जो इस देश में “बहुत बड़ा और अक्षम्य अपराध” है… जय हो।

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भारतभूमि नामक महान धरा के तथाकथित “फ़िल्मी बादशाह” यानी शाहरुख, पाकिस्तानी खिलाड़ियों के साथ हुए “बर्ताव”(?) से बहुत दुखी हैं, उन्होंने कहा है कि जो भी हुआ गलत हुआ (यानी जब टीम के लिये खिलाड़ियों की बोली लगाई जा रही थी, तब वे सो रहे थे)। प्रियंका गाँधी के बच्चों के लाड़ले और कांग्रेस के टिकिट पर लोकसभा चुनाव लड़ने को बेताब शाहरुख कहते हैं कि खेलों में राजनीति नहीं होना चाहिये और IPL की नीलामी में जो हुआ वह उन्होंने जानबूझकर नहीं किया। पाकिस्तान को इस मामले में संयम बरतना चाहिये… http://ibnlive.in.com/news/ipl-could-have-been-respectful-to-pak-srk/109146-5.html?utm_source=IBNdaily_MCDB_250110&utm_medium=mailer अब भला शाहरुख खान जब “माहौल” बनाने में लगे हैं तो फ़िर शाहिद अफ़रीदी को कौन रोक सकेगा IPL-3 में?

उधर तत्काल ऑस्ट्रेलिया से ताबड़तोड़ गालीगलौज में माहिर शाहिद अफ़रीदी का “थूक कर चाटने वाला बयान” भी आ गया कि “जो भी हुआ उसे वे भुला चुके हैं और IPL की बोली के अगले दौर के लिये वे उपलब्ध रहेंगे”, http://cricket.rediff.com/report/2010/jan/26/shahid-afridi-decides-to-forgive-and-forget-open-to-ipl-in-future.htm यानी कहाँ तो लड़ने की बातें कर रहे थे, और अपना आत्मसम्मान भुलाकर फ़िर से IPL के पैसों पर लार टपकाने लगे। अब बेचारे जहीर अब्बास के बयान का क्या होगा, पाकिस्तानी कबड्डी टीम के बयानों का क्या होगा, पाकिस्तानी हॉकी संघ के टीम न भेजने के फ़ैसले का क्या होगा… और एक “सज्जन” ने पाकिस्तानी कोर्ट में जो याचिका (http://cricket.rediff.com/report/2010/jan/25/pak-court-issues-notice-to-indian-govt-over-ipl-snub.htm) लगाई है उस पर अब कोर्ट को शाहिद अफ़रीदी और शाहरुख खान को नोटिस जारी करके पूछना चाहिये कि “भाई लोगों, जब अपनी बात से पलटना ही था, पैसों के लिये स्वाभिमान गिरवी रखना ही था, दोनों देशों की नकली दोस्ती के राग-तराने गाना ही था… तब पहले क्यों दहाड़ रहे थे?”… लेकिन पाकिस्तानी हैं ही ऐसे… आज़ादी के समय से ही भारत के पैसों पर पलने वाले…

इधर हमारे चिदम्बरम साहब भी बड़े उदास मूड में कह रहे हैं कि “पाकिस्तान को इस मुद्दे को इतना तूल नहीं देना चाहिये, उन्हें बुरा लगना स्वाभाविक है लेकिन इस मामले में सरकार की अपनी सीमाएं हैं” (यानी कि मेरे बस में होता तो ललित मोदी के कान पकड़कर उसे पाकिस्तानी खिलाड़ियों को शामिल करने को कहता)…

बहरहाल, मुझे तो ऐसा लगता है कि शाहरुख की आने वाली फ़िल्म जिसका नाम ज़ाहिर है कि “माइ नेम इज़ खान” है (क्योंकि “माइ नेम इज़ कश्मीरी पंडित” बनाने की परम्परा इस देश में नहीं है) के पाकिस्तान में होने वाले “बिजनेस” पर फ़र्क पड़ने की आशंका को लेकर शाहरुख बेचैन हैं, उधर भारत के कुछ “सेकुलर चैनल” वाले भी IPL-3 के पाकिस्तान में प्रसारण न होने को लेकर चिन्तित होंगे… क्योंकि उनकी विज्ञापन की कमाई मारी जायेगी… सो बात का लब्बेलुआब यह है कि पिछले दरवाजे से किसी बहाने पाकिस्तानी खिलाड़ियों के लिये दरवाजे खोलने की तैयारी चल रही है…

जैसा कि मैं पहले भी कई बार कह चुका हूं कि भारतीयों के लिये (और पाकिस्तानियों के लिये भी) “धंधा” अधिक महत्वपूर्ण होता है राष्ट्र के स्वाभिमान की अपेक्षा…। चीन हमारी जमीन हथियाता जा रहा है, नकली और घटिया माल से हमारे बाज़ार बिगाड़ रहा है और हम उससे “धंधे” की बात कर रहे हैं… पाकिस्तान तो 60 साल में भारी नुकसान पहुँचा चुका, उसे भी हमने “धंधे” की खातिर “मोस्ट फ़ेवर्ड नेशन” का दर्जा दे रखा है, बांग्लादेश हमारे वीर जवानों की लाशों को भी बेइज्जती से भेजता है और हम उसे 400 करोड़ का अनुदान देते हैं “धंधे” के नाम पर… क्योंकि मैकाले आधारित शिक्षा पद्धति ने हमें “आत्मसम्मान” क्या होता है, यह कभी सिखाया ही नहीं…
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IPL नामक बाजीगरीनुमा भौण्डा तमाशा मुझे पहले एपीसोड से ही पसन्द नहीं था, इसके दूसरे एपीसोड के बाद, जबकि इसे अपने देश से बाहर आयोजित किया गया तब भी इसके प्रति कभी खास रुचि जागृत नहीं हुई। कितनी ही चीयरलीडर्स आई-गईं, लेकिन कभी भी शान्ति से बैठकर IPL के 4 ओवर देखने की भी इच्छा नहीं हुई।

इसीलिये जब IPL के तीसरे संस्करण की बोलियाँ लगाने सम्बन्धी खबर पढ़ी तब कोई उत्सुकता नहीं जागी, कोई भी धनपति किसी भी खिलाड़ी को खरीदे-बेचे मुझे क्या फ़र्क पड़ने वाला था, नीता अम्बानी, प्रीति जिण्टा से हारे या जीते मुझे अपनी नींद खराब क्यों करना चाहिये? वैसा ही सब कुछ आराम से चल रहा था, लेकिन खिलाड़ियों की नीलामी के अगले दिन जब यह सुखद खबर आई कि टी-20 विश्वकप के “मैन ऑफ़ द सीरिज” शाहिद अफ़रीदी समेत सभी पाकिस्तानी खिलाड़ियों को कोई खरीदार नहीं मिला, तब मुझे बड़ा ही सुकून मिला। मन में तत्काल विचार आया कि 26/11 के हमले के बाद हमारे बतोलेबाज और बयानवीर नेताओं ने जो काम नहीं किया था, उसे इन धनपतियों ने मजबूरी में ही सही, कर दिखाया है।

यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिये था, लेकिन “देर आयद दुरुस्त आयद”, पाकिस्तान को उसकी “सही जगह” दिखाने की कम से कम एक रस्म निभा दी गई है, और यह काम “धंधेबाजी” में माहिर हमारे क्रिकेटरों, उन्हें पालने वाले धनकुबेरों ने भले ही मजबूरी में किया हो, इसका स्वागत किया ही जाना चाहिये। यह कदम, हमारे “सेकुलर मीडिया” द्वारा खामख्वाह पाकिस्तान से दोस्ती के नाम पर चलाये जा रहे नौटंकीनुमा हाईप और बाल ठाकरे द्वारा धमकी नहीं दिये जाने के बावजूद हो गया, इसलिये ये और भी महत्वपूर्ण है। अब पाकिस्तानी खिलाड़ियों, अभिनेताओं, बिजनेसमैनों के खैरख्वाह अपने कपड़े फ़ाड़-फ़ाड़कर भले ही रोते फ़िरें, लेकिन भारत की करोड़ों जनता के मनोभावों को इस काम से जो मुखरता मिली है, उसने कई दिलों पर मरहम लगाया है, वरना यही अफ़रीदी, जो गौतम गम्भीर को धकियाकर उसे मां-बहन की गाली सुनाकर भी बरी हो जाता था, और हम मन मसोसकर देखते रह जाते थे, अब उसका मुँह सड़े हुए कद्दू की तरह दिखाई दे रहा है। सड़क चलते किसी भी क्रिकेटप्रेमी से इस बारे में पूछिये, वह यही कहेगा कि अच्छा हुआ *&;$*^*$*# को इधर नहीं खेलने दे रहे।

पाकिस्तान में लोग उबाल खा रहे हैं, लेकिन कोई इस बात पर आत्ममंथन करने को तैयार नहीं है कि मुम्बई हमले के बाद उनकी सरकार ने क्या किया अथवा इन रोने-धोने वालों ने पाकिस्तानी सरकार पर इसके लिये क्या दबाव बनाया? इधर भारत में भी विधवा प्रलाप शुरु हो चुका है, जिसमें कुछ “सेकुलर” शामिल हैं जबकि कुछ (ज़मीनी हकीकत से कटे हुए) “बड़ा भाई-छोटा भाई” वाली गाँधीवादी विचारधारा के लोग हैं। जबकि IPL में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के न खेलने से क्रिकेट का कोई नुकसान नहीं होने वाला है, किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है उनके न होने से।

अब पाकिस्तानी खिलाड़ियों के “Humiliation” और अपमान की बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं, लेकिन यही लोग उस समय दुबककर बैठ जाते हैं जब शारजाह में संजय मांजरेकर को अंधेरे में खेलने पर मजबूर किया जाता है, तब इन्हें मांजरेकर की आँखों के आँसू नहीं दिखाई देते? अकीब जावेद जैसा थर्ड क्लास गेंदबाज जब शारजाह में 5-5 भारतीय खिलाड़ियों को LBW आउट ले लेता है तब किसी का मुँह नहीं खुलता, जब अन्तिम गेन्द पर छक्का मारकर जितवाने वाले जावेद मियांदाद को दाऊद इब्राहीम सोने की तलवार भेंट करते हैं तब सारे सेकुलर देशभक्त घर में घुस जाते हैं? ऐसा क्यों भाई, क्या खेलभावना के नाम पर जूते खाते रहने का ठेका सिर्फ़ भारतीय खिलाड़ियों ने ही ले रखा है? जो लोग “खेलों में राजनीति का दखल नहीं होना चाहिये…” टाइप की आदर्शवादी बातें करते हैं, वे इमरान खान और जिया-उल-हक के पुराने बयान भूल जाते हैं।

भले ही IPL-3 में फ़्रेंचाइज़ी ने यह निर्णय मजबूरी में लिया हो, धंधे में रिस्क न लेने की प्रवृत्ति से लिया हो, अथवा एक विशेष विज्ञापन “प्रोपेगैण्डा” के तहत किया गया हो, लेकिन जो काम भारत के रीढ़विहीन नेताओं को बहुत पहले कर देना चाहिये था, वह जाने-अनजाने इसके जरिये हो गया है। टाइम्स और जंग अखबार द्वारा शुरु की गई “अमन की आशा” नौटंकी"  की भी इस एक कदम से ही हवा निकल गई है।

होंगे पाकिस्तानी खिलाड़ी टी-20 के विश्व चैम्पियन, हमें क्या? जब IPL एक “तमाशा” है, तब इसमें पाकिस्तान के 2-4 खिलाड़ी नहीं खेलें तो कोई तूफ़ान नहीं टूटने वाला भारतीय क्रिकेट पर, लेकिन कम से कम एक “संदेश” तो गया पाकिस्तान में। जो लोग इस थ्योरी पर विश्वास करते हैं कि “स्थिर, शान्त और विकसित पाकिस्तान भारत के लिये अच्छा दोस्त साबित होगा”, वे लोग तरस खाने लायक हैं। 1948 से अब तक 60 साल में जितने घाव इस गन्दे देश ने भारत के सीने पर दिये हैं इसके लिये उनके पेट पर जहाँ-जहाँ और जितनी लातें जमाई जा सकती हों, निरन्तर जमाना चाहिये। जिस मुल्क के बाशिंदे कोरिया से आई चायपत्ती की चाय पीते हों, चार सौ रुपए किलो अदरक खरीदते हों, पांच हजार में जिन्हें साइकिल की सवारी नसीब होती हो, सोलह रुपए की अखबार व पिच्चासी रुपए में पत्रिका खरीदते हों, सोचना “उन्हें” चाहिए कि भारत से दोस्ती का कितना फायदा हो सकता है, बार-बार हम ही क्यों सोचें?
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नोट – ऑस्ट्रेलिया के साथ ऐसा कोई “सबक सिखाने वाला” कदम कब उठाया जाता है यह देखना अभी बाकी है… या हो सकता है कि “यूरेनियम” के लालच में फ़िलहाल भारतीयों को पिटने ही दिया जाये उधर… क्योंकि हमारे लिये “धंधा” अधिक महत्वपूर्ण है, राष्ट्रीय स्वाभिमान से…

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अंग्रेजों के नववर्ष के दिन अर्थात 1 जनवरी 2010 से भारत के टाइम्स समूह तथा पाकिस्तान के अखबार “जंग” ने एक तथाकथित शांति मुहिम की शुरुआत के तहत “अमन की आशा” के नाम से एक अभियान छेड़ा है। इसके उद्देश्यों की फ़ेहरिस्त में, भारत और पाकिस्तान के बीच मैत्रीपूर्ण एकता स्थापित करना, दोनों देशों की जनता के बीच मधुर सम्बन्ध बनाना तथा आतंकवाद का मिलजुलकर मुकाबला करने जैसी “महान रोमांटिक” किस्म की लफ़्फ़ाजियाँ शामिल हैं। इन अखबारों के इस “पुरस्कार-जुगाड़ू” काम में इनकी मदद करने के लिये कुछ सेलेब्रिटी (बल्कि इन्हें “नॉस्टैल्जिक” कहना ज्यादा उचित है) नाम भी सदा की तरह शामिल हैं, जैसे कुलदीप नैयर, अमिताभ बच्चन, महेश भट्ट, सलमान हैदर तथा गुलज़ार आदि… और हाँ… यासीन मलिक जैसे सेकुलरों के “कृपापात्र” आतंकवादी भी

पाकिस्तान में जो हैसियत, इज़्ज़त और छवि कराची से निकलने वाले “डॉन” अखबार की है उसके मुकाबले टाइम्स समूह ने “जंग” जैसे अखबार से हाथ मिलाने का फ़ैसला क्यों किया, सबसे पहला सवाल तो यही उठाया जा रहा है। संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि जंग अखबार के मालिकान की विवादास्पद भूमिका और उनके धनलोलुप होने की वजह से ही इस गठबंधन ने आकार लिया है और “धंधेबाजी” का शक यहीं से गहराना शुरु हो जाता है, क्योंकि इस अभियान की शुरुआत ही इस बात से हुई है कि भारत-पाकिस्तान के बीच व्यापार की क्या संभावनाएं हैं, इसे कैसे बढ़ाया जा सकता है, इसमें और किन क्षेत्रों को शामिल किया जा सकता है… आदि-आदि।

ऊपर नामित महान नॉस्टेल्जिक लोगों और टाइम्स ने कभी इस मामूली बात पर गौर किया है कि 1947 में एक साथ आज़ाद होने के बावजूद आज पाकिस्तान कहाँ रह गया और भारत कहाँ पहुँच गया है, तो उसका कारण क्या है? कारण साफ़ है कि पाकिस्तान का गठन इस्लाम के नाम पर हुआ है और वहाँ कभी लोकतन्त्र नहीं पनप सका, लेकिन सावन के अंधों को अब भी हरा ही हरा सूझ रहा है और ये लोग इस उम्मीद में अपना सिर पत्थर से फ़ोड़ रहे हैं कि शायद पत्थर टूट जाये। क्या कभी इन्होंने सोचा है कि विश्व भर के तमाम आतंकवादी अपनी सबसे सुरक्षित पनाहगाह पाकिस्तान को क्यों मानते हैं? क्योंकि उन आतंकवादियों जैसी मानसिकता वाले लाखों लोग वहाँ उन्हें “पारिवारिक” वातावरण मुहैया करवाते हैं, क्योंकि पाकिस्तान की शिक्षा व्यवस्था में ही दो-दो पीढ़ियों में “भारत से घृणा करो” का भाव फ़ैलाया गया है, क्या ऐसे लोगों से स्वस्थ दोस्ती सम्भव हो सकती है? कभी नहीं। लेकिन ये आसान सी बात स्वप्नदर्शियों को समझाये कौन?

ऐसे में शक होना स्वाभाविक है कि टाइम्स और जंग द्वारा “भारत-पाक भाई-भाई” (http://timesofindia.indiatimes.com/amankiasha.cms) का रोमांटिक नारा लगाने के पीछे आखिर कौन सी चाल है? शान्ति के पक्ष में जैसे कसीदे टाइम्स ने भारत की तरफ़ से काढ़े हैं, वैसे ही कसीदे जंग ने उधर पाकिस्तान में क्यों नहीं काढ़े? क्या यहाँ भी बांग्लादेशी भिखारियों को 4500 करोड़ का अनुदान देने जैसा एकतरफ़ा “संतत्व” का भाव है… या कश्मीर के मामले पर अन्दर ही अन्दर कोई खिचड़ी पक रही है, जिसकी परिणति शर्म-अल-शेख जैसे किसी शर्मनाक हाथ मिलाने के रूप में होगी? या फ़िर दोनों अखबार मिलकर, कहीं से किसी अन्तर्राष्ट्रीय “फ़ण्ड” या पुरस्कार की व्यवस्था में तो नहीं लगे हैं? पान, चावल, शकर और आलू निर्यात व्यापारियों की लॉबी तो इसमें प्रमुख भूमिका नहीं निभा रही? फ़िल्म वालों के जुड़ने की वजह से यह बॉलीवुड इंडस्ट्री द्वारा अपना व्यवसाय पाकिस्तान में मजबूत करने की भी जुगाड़ नज़र आती है…। यह सारी शंकाएं-कुशंकाएं इसीलिये हैं कि भारतीय हो या पाकिस्तानी, जब फ़ायदा, धंधा, लाभ, पैसे का गणित जैसी बात सामने आती है तब राष्ट्र-गौरव, स्वाभिमान जैसी बातें (जो कभीकभार 15 अगस्त वगैरह को झाड़-पोंछकर बाहर निकाली जाती हैं), तुरन्त “पैरपोंछ” के नीचे सरका दी जाती हैं, और हें-हें-हें-हें करते हुए दाँत निपोरकर पाकिस्तान तो क्या, ये लोग लादेन से भी हाथ मिलाने में संकोच नहीं करेंगे, इसलिये इन दोनों अखबारों की गतिविधियों पर बारीक नज़र रखने की जरूरत तो है ही, “तथाकथित शान्ति” के इस “बड़े खेल” में परदे के पीछे से इन दोनों के कान में फ़ुसफ़ुसाने वाली “ताकत” कौन सी है, यह अभी पहचानना बाकी है। अधिक अफ़सोसनाक इसलिये भी है कि यह तमाशा तब हो रहा है जब कश्मीरी पंडितों को “घाटी से निकल जाओ और अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ” का फ़रमान सुनाने के बीस वर्ष पूरे हो चुके हैं, लेकिन चूंकि कश्मीरी पंडित कोई “फ़िलीस्तीनी मुसलमान” तो हैं नहीं इसलिये इस महान “सेकुलर” देश में ही पराये हैं।

शक का आधार मजबूत है, क्योंकि यह एक नितांत हवाई कवायद है, इसमें फ़िलहाल भारत सरकार और इसके आधिकारिक संगठन खुले रूप में कहीं भी तस्वीर में नहीं हैं। पाकिस्तान, उसके इतिहास और वहाँ की सरकारों द्वारा किये वादों से मुकरने का एक कटु अनुभव हमारे साथ है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया वाले पाकिस्तान से यह पुरानी बात क्यों नहीं पूछते कि विभाजन के समय जो करोड़ों का ॠण (अब ब्याज मिलाकर अरबों का हो गया है) वह पाकिस्तान कब लौटाने वाला है? या फ़िर एकदम ताजी बात, कि 26/11 के हमले के बाद पाकिस्तान ने कोई ठोस कदम उठाकर किसी आतंकवादी को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया? लेकिन मेहमानों से असुविधाजनक सवाल पूछने की परम्परा हमारे यहाँ कभी रही नहीं, उन्हें बिरयानी-मटन खिलाने की जरूर रही है। अब भारत के “गीली मिट्टी” के मंत्री, हवाई जहाज के अपहरण करने पर मौत की सजा के प्रावधान की दिखावटी और भोंदू किस्म की बातें कर रहे हैं, जबकि जिसे सुप्रीम कोर्ट मौत की सजा दे चुका है उसे तो फ़ाँसी देने की हिम्मत हो नहीं रही… (अब तो कसाब को बचाने के लिये भी कुछ “कुख्यात बुद्धिजीवी” आगे आने लगे हैं), उधर ये दोनों धंधेबाज अखबार उपदेश झाड़ने, एकता के गीत गाने और नॉस्टेल्जिक लोगों के सहारे बासी कढ़ी में उबाल लाने की कोशिशों में लगे हैं। वे बतायें कि पिछले एक साल में पाकिस्तान की मानसिकता में ऐसा क्या बदलाव आ गया है जो हम हाथ बढ़ाने के लिये मरे जायें।

अमन की आशा कम से कम भारत में तो काफ़ी लोगों को सदा से रही है, पाकिस्तान के लोगों से अच्छे सम्बन्ध बनें इसकी भी चाहत है, लेकिन यदि पिछले 60 साल में गंगा और चिनाब में बहे पानी को भूल भी जायें तब भी पिछले एकाध-दो साल में ही इतना कुछ हो चुका है कि भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती की बात करना लगभग “थूक कर चाटने” जैसा मामला बन चुका है।

हमारी पिलपिलाई हुई विदेश नीति तो ऐसी है कि मुम्बई हमले के बाद, 40 आतंकवादियों की लिस्ट से शुरु करके धीरे से 20 पर आ गये, फ़िर “सैम अंकल” के कहने पर सिर्फ़ एक लखवी पर आ गये और अब तो अमेरिका की शह पर पाकिस्तान खुलेआम कह रहा है कि किसी को भारत को सौंपने का सवाल ही नहीं है… सोच-सोचकर हैरत होती है कि वे लोग कितने मूर्ख होंगे जो यह सोचते हैं कि पाकिस्तान कभी भारत का दोस्त भी बन सकता है। जिस देश का विभाजन/गठन ही धार्मिक आधार पर हुआ, जिसके मदरसों में कट्टर इस्लामिक शिक्षा दी जाती हो, जो देश भारत के हाथों चार-चार बार पिट चुका हो, जिसके दो टुकड़े हमने किये हों… क्या ऐसा देश कभी हमारा दोस्त हो सकता है? दोनों जर्मनी एकत्रित हो सकते हैं, दोनो कोरिया आपस में दोस्त बन सकते हैं, लेकिन हमसे बार-बार पिटा हुआ एक ऐसा देश जिसकी बुनियाद इस्लाम के नाम पर रखी गई है… वह कभी भी “मूर्तिपूजकों के देश” का सच्चा दोस्त नहीं बन सकता, कभी न कभी पीठ में छुरा घोंपेगा जरूर…। लेकिन इतनी सी बात भी उच्च स्तर पर बैठे लोगों को समझ में नहीं आती?… तरस आता है…

चलते-चलते इस लिंक पर एक निगाह अवश्य डालियेगा http://www.indianexpress.com/news/man-moves-hc-to-get-back-wife/563838/ जो साफ़ तौर पर रजनीश-अमीना यूसुफ़ जैसा ही मामला नज़र आ रहा है… टाइम्स वाले बतायें कि ऐसी मानसिकता वाले लोगों से आप "अमन की आशा" की उम्मीद रखे हुए हैं? रिज़वान मामले पर रो-रोकर अपने कपड़े फ़ाड़ने वाले देश के नामचीन "सेकुलर पत्रकार"(?) रजनीश मामले पर चुप्पी साधे हुए हैं, यदि वाकई मर्द हैं तो अमन की आशा के अलावा कभी "आशीष की आयशा" जैसा नारा भी लगाकर तो दिखायें…, कश्मीर की असली "मानसिकता" को समझें और पाकिस्तान नामक "खजेले कुत्ते" से दोस्ती का ढोंग-ढकोसला छोड़ें…"धंधा" ही करना है तो उसके लिये सारी दुनिया पड़ी है… कभी स्वाभिमान भी तो दिखाओ।

विषय से सम्बन्धित कुछ लेख अवश्य देखें ताकि आपको पाकिस्तान (और वहाँ की मानसिकता) की सही जानकारी मिल सके…

1) http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2009/06/jamat-e-islami-pakistan-talibani-plans_09.html

2) http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2009/03/pakistan-education-system-indian_17.html

3) http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2008/08/secular-intellectuals-terrorism-nation.html


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हुबली (कर्नाटक) में कई वर्षों से चल रहे ईदगाह मैदान के बारे में अन्ततः सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आ गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि ईदगाह का यह मैदान हुबली-धारवाड़ नगरपालिका निगम के स्वामित्व का माना जायेगा, तथा किसी भी अन्य संगठन को इस सम्पत्ति पर दावा प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं है।

कुछ लोग भूल गये होंगे इसलिये आईये पूरे मामले पर फ़िर से एक निगाह डालते हैं –

हुबली के ईदगाह के मैदान का भूमि विवाद सन् 1921 से चल रहा है, जब हुबली नगरपालिका ने स्थानीय अंजुमन-ए-इस्लाम को इस मैदान का 1.5 एकड़ हिस्सा नमाज के लिये कुछ शर्तों पर दिया था। शुरु से ही शर्तों का उल्लंघन होता रहा, प्रशासन, सरकारें आँखें मूंदे बैठे रहे। जब हिन्दूवादी संगठनों ने इस पर आपत्ति उठाना शुरु किया तब हलचल मची, इस बीच 1990 में अंजुमन ने इस भूमि पर पक्का निर्माण कार्य लिया, जिसने आग में घी डालने का काम कर दिया, और जब सरकार ने इस निर्माण कार्य को अतिक्रमण कहकर तोड़ने की कोशिश की तब मामला न्यायालय में चला गया, फ़िर जैसा कि होता आया है हमारे देश के न्यायालय न्याय कम देते हैं “स्टे ऑर्डर” अधिक देते हैं, मामला टलता गया, गरमाता गया, साम्प्रदायिक रूप लेता गया। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती ने इस मैदान पर जब तिरंगा फ़हराने की कोशिश की थी, तब “स्वार्थी तत्वों” दंगे भड़काये गये थे और पुलिस गोलीबारी मे 9 लोग मारे गये थे, उमा भारती के खिलाफ़ स्थानीय न्यायालय ने गैर-ज़मानती वारंट जारी किया था और उन्हें संवैधानिक बाध्यताओं के चलते अपना मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था।

कर्नाटक हाईकोर्ट ने 8 जून 1992 के अपने निर्णय में स्पष्ट कहा है कि –

1) ईदगाह मैदान अंजुमन-ए-इस्लाम की निजी सम्पत्ति नहीं है यह हुबली-धारवाड़ नगरपालिक निगम की सम्पत्ति है।

2) मैदान का कुछ हिस्सा, अंजुमन को वर्ष में “सिर्फ़ दो दिन” अर्थात बकरीद और रमज़ान के दिन नमाज़ अदा करने के लिये दिया गया है।

3) अंजुमन द्वारा जो स्थाई निर्माण किया गया है उसे 45 दिनों के अन्दर हटा लिया जाये।

4) अंजुमन इस ज़मीन का उपयोग किसी भी व्यावसायिक अथवा शैक्षणिक गतिविधियों के लिये नहीं कर सकता।

इस निर्णय के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई थी, जिस पर न्यायालय ने “स्टे” दिया था। संघ परिवार(?) ने भी सुप्रीम कोर्ट में दस्तावेज़ जमा करके 19 अप्रैल 1993 को उच्चतम न्यायालय में इस मैदान को सार्वजनिक सम्पत्ति घोषित करने की मांग की थी।

शुरुआत में स्थानीय नागरिकों ने इस सार्वजनिक मैदान के नमाज़ हेतु उपयोग तथा पक्के निर्माण पर आपत्ति ली थी, फ़िर एक संगठन ने 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन यहाँ तिरंगा फ़हराने की अनुमति मांगी, जिसका अंजुमन ने विरोध किया और तभी से मामला उलझ गया। असल में अंजुमन का इरादा यहाँ एक व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स बनाकर नीचे दुकानें और ऊपर धार्मिक गतिविधि के लिये पक्का निर्माण करके समूचे मैदान पर धीरे-धीरे कब्जा जमाने का था (बांग्लादेशी भी ऐसा ही करते हैं), लेकिन भाजपा और अन्य हिन्दू संगठनों के बीच में कूदने के कारण उनका खेल बिगड़ गया। फ़िर भी जो स्थाई निर्माण इतने साल तक रहा और उसकी वजह से अंजुमन को जो भी आर्थिक फ़ायदा हुआ होगा, कायदे से वह भी सुप्रीम कोर्ट को उनसे वसूल करना चाहिये।

अब देखना यह है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद उस जगह से अंजुमन का अतिक्रमण हटाने में कामयाब हो पाते हैं या नहीं (क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों को लतियाने की परम्परा रही है इस देश में)। वैसे तो यह पूरी तरह से एक भूमि विवाद था जिसे अतिक्रमणकर्ताओं ने “साम्प्रदायिक” रूप दे दिया, लेकिन फ़िर भी उमा भारती के लिये व्यक्तिगत रूप से यह एक नैतिक विजय कही जा सकती है।

इसलिये ऐ, “सेकुलर रुदालियों,” उठो, चलो काम पर लगो… कर्नाटक में भाजपा की सरकार है… अपने पालतू भाण्ड चैनलों को ले जाओ, कुछ मानवाधिकार संगठनों को पकड़ो, एकाध महेश भट्टनुमा सेलेब्रिटी(?) को पढ़ने के लिये स्क्रिप्ट वगैरह दो… कहीं ऐसा न हो कि येदियुरप्पा “अल्पसंख्यकों” पर “भारी अत्याचार” कर दें…

http://news.rediff.com/interview/2010/jan/14/hubli-idgah-maidan-is-for-public-use.htm
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यह एक सामान्य सा लेकिन जरूरी सरकारी प्रोटोकॉल है कि उस प्रत्येक शासकीय कार्यक्रम में जिसमें प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री तथा राज्यपाल अध्यक्षता कर रहे हों उस कार्यक्रम में “जन-गण-मन” गाया भले न जाये लेकिन उसकी धुन बजाना आवश्यक है। हाल ही में केरल के त्रिवेन्द्रम में 3 जनवरी को 97 वीं भारतीय साइंस कांग्रेस का उदघाटन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था। इस साइंस कांग्रेस के उदघाटन समारोह में देश-विदेश के बड़े-बड़े भारतीय वैज्ञानिकों ने शिरकत की थी। केरल दौरे पर प्रधानमंत्री ने केरल प्रदेश कांग्रेस के दो अन्य कार्यक्रमों में भी उपस्थिति दर्ज करवाई थी।

लेकिन अत्यन्त खेद के साथ सूचित किया जाता है कि तीनों ही कार्यक्रमों में राष्ट्रगीत नहीं बजाया गया, बाद वाले दोनों कार्यक्रम भले ही पार्टी स्तर के हों (लेकिन यह पार्टी भी तो अपनी 125 वीं सालगिरह मना रही है, और जन-गण-मन तथा वन्देमातरम की ही रोटी खा रही है अब तक), लेकिन पहला कार्यक्रम एक शासकीय, अन्तर्राष्ट्रीय और बेहद महत्वपूर्ण कार्यक्रम था।

मीडिया के सूत्रों के अनुसार कार्यक्रम आयोजकों को प्रधानमंत्री ऑफ़िस से यह निर्देश मिले थे कि इस कार्यक्रम में जन-गण-मन नहीं बजाया जाये, क्योंकि कई कार्यक्रमों में राष्ट्रगीत को जो पर्याप्त सम्मान मिलना चाहिये वह नहीं मिल पाता। चकरा गये ना??? यानी कि भारतीय साइंस कांग्रेस के कार्यक्रम को प्रधानमंत्री ऑफ़िस ने एक सिनेमाघर में उपस्थित टपोरी दर्शकों के स्तर के बराबर समझ लिया, जहां राष्ट्रगीत को सम्मान नहीं मिलने वाला? अर्थात जिस अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रम में देश के बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेता, वरिष्ठ नागरिक, सम्माननीय वैज्ञानिक तथा केरल के उच्च प्रशासनिक अधिकारी मौजूद हों, वहाँ राष्ट्रगीत को उचित सम्मान नहीं मिलता??? कैसी अजीब सोच है…

इससे कई सवाल अवश्य उठ खड़े होते हैं, जैसे –

1) इस घटना के लिये किसे जिम्मेदार माना जाये, प्रधानमंत्री कार्यालय को या कार्यक्रम आयोजकों को?

2) क्या इस मामले में राष्ट्रगीत के अपमान का केस दायर किया जा सकता है? यदि हाँ तो किस पर?

3) समाचार पत्र, ब्लॉग में प्रकाशित इस समाचार पर क्या कोई न्यायालय स्वयं संज्ञान लेकर सम्बन्धितों को नोटिस दे सकता है?

4) वन्देमातरम के बाद अब जन-गण-मन को किसके इशारे पर निशाना बनाया जा रहा है?

यदि इसमें कोई साजिश नहीं है तब क्यों इस गलत और आपत्तिजनक निर्णय के लिये अब तक किसी अधिकारी, जूनियर मंत्री, आयोजकों आदि में से किसी को सजा नहीं मिली? राहुल महाजन जैसे छिछोरे और दारुकुट्टे का स्वयंवर दिखाते सबसे तेज चैनल देश के अपमान की इस खबर को क्यों दबा गये?

वन्देमातरम तो “साम्प्रदायिक”(?) बना ही दिया गया है, क्या गोरे साहबों की वन्दना करने वाला यह गीत भी जल्दी ही “साम्प्रदायिक” बनने जा रहा है? सरस्वती वन्दना साम्प्रदायिक है, वन्देमातरम साम्प्रदायिक है, दूरदर्शन का लोगो “सत्यं शिवं सुन्दरम्” भी साम्प्रदायिक है, पाठ्यपुस्तकों में “ग” से गणेश भी साम्प्रदायिक है (उसकी जगह गधा कर दिया गया है), रेल्वे में ई अहमद ने नई ट्रेनों की पूजा पर रोक लगा दी है, इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय कि “गीता” को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित किया जाये, भी साम्प्रदायिक है। क्या एक दिन ऐसा भी आयेगा कि जब “जय हिन्द” और तिरंगा भी साम्प्रदायिक हो जायेगा?

http://www.organiser.org/dynamic/modules.php?name=Content&pa=showpage&pid=327&page=4
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महाराष्ट्र की ग्रामीण लोक-परम्परा में “लावणी” और “तमाशा” का एक विशिष्ट स्थान हमेशा से रहा है। यह लोकनृत्य और इसमें प्रयुक्त किये जाने वाले गीत-संगीत-हावभाव आदि का मराठी फ़िल्मों में हमेशा से प्रमुख स्थान रहा है। बीते कुछ वर्षों में हिन्दी फ़िल्मों के बढ़ते प्रभाव, फ़िल्मों के कथानक का “कमाई” के अनुसार बाज़ारीकरण, तथा मराठी फ़िल्मों में भी पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते असर की वजह से अव्वल तो ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनने वाली फ़िल्में ही कम हो गईं और उसमें भी लावणी और तमाशा के गीत तथा दृश्य मृतप्राय हो गये थे।

महाराष्ट्र के लोगों में नाटक-कला-संस्कृति-फ़िल्में-गायन-वादन-खेल आदि की परम्परा सदा से ही पुष्ट रही है। इसमें भी “नाटक” और “गायन” प्रत्येक मराठी के दिल में बसता है, और यदि संगीत-नाटक (जिसमें कहानी के साथ गीत भी शामिल होते हैं) हो तो क्या कहने। बदलते आधुनिक युग के साथ महाराष्ट्र के ग्रामीण भागों में भी लावणी-तमाशा की परम्परा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। अलबत्ता मुम्बई जैसे महानगर अथवा नासिक, पुणे, औरंगाबाद, सोलापुर, कोल्हापुर आदि शहरों में अच्छे नाटकों के शो आज भी हाउसफ़ुल जाते हैं।




1 जनवरी 2010 को महाराष्ट्र की इस विशिष्ट परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयास करते हुए एक फ़िल्म प्रदर्शित हुई है, नाम है “नटरंग”, रिलीज़ होने से पहले ही इसका संगीत बेहद लोकप्रिय हो चुका था और रिलीज़ होने के बाद इस फ़िल्म ने पूरे महाराष्ट्र में धूम मचा रखी है। जी टॉकीज़ द्वारा निर्मित यह फ़िल्म प्रख्यात मराठी लेखक और महाराष्ट्र साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष आनन्द यादव के उपन्यास पर आधारित है और इसमें मुख्य भूमिका निभाई है “अतुल कुलकर्णी” ने। अतुल कुलकर्णी को हिन्दी के दर्शक, - हे-राम, पेज 3, चांदनी बार, रंग दे बसन्ती, ये है इंडिया, जेल आदि फ़िल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाओं में देख चुके हैं।

 दो साल पहले जब इस फ़िल्म के उपन्यास पर आधारित पटकथा जी टॉकीज़ वालों को सुनाई गई थी, उस समय इसकी कहानी के फ़िल्म बनने पर “कमाऊ” होने में निश्चित रूप से संशय था, क्योंकि लावणी-तमाशे की मुख्य पृष्ठभूमि पर आधारित ग्रामीण कहानी पर फ़िल्म बनाना एक बड़ा जोखिम था, लेकिन जी टॉकीज़ वालों ने निर्देशक की मदद की और यह बेहतरीन फ़िल्म परदे पर उतरी। रही-सही कसर अतुल कुलकर्णी जैसे “प्रोफ़ेशन” के प्रति समर्पित उम्दा कलाकार ने पूरी कर दी।



हिन्दी के दर्शक अतुल के बारे में अधिक नहीं जानते होंगे, लेकिन मराठी से आये हुए अधिकतर कलाकार चाहे वह रीमा लागू हों, डॉ श्रीराम लागू हों, नाना पाटेकर, अमोल पालेकर, मधुर भण्डारकर या महेश मांजरेकर कोई भी हों… सामान्यतः नाटक और मंच की परम्परा के जरिये ही आते हैं इसलिये फ़िल्म निर्देशक का काम वैसे ही आसान हो जाता है। हिन्दी में भी परेश रावल, सतीश शाह, पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी आदि मंजे हुए कलाकार नाटक मंच के जरिये ही आये हैं। बात हो रही थी अतुल कुलकर्णी की, इस फ़िल्म की पटकथा और कहानी से वे इतने प्रभावित थे कि उन्होंने सात महीने की एकमुश्त डेट्स निर्देशक को दे दीं, तथा इस बीच अपने रोल के साथ पूरा न्याय करने के लिये उन्होंने मणिरत्नम, विशाल भारद्वाज और रामगोपाल वर्मा जैसे दिग्गजों को नई कहानी या पटकथा सुनाने-सुनने से मना कर दिया।


इस फ़िल्म में अतुल कुलकर्णी का रोल इंटरवल के पहले एक पहलवान का है, जबकि इंटरवल के बाद तमाशा में नृत्य करने वाले एक हिजड़ानुमा स्त्री पात्र का है, जिसे “तमाशा” में मुख्य स्त्री पात्र का सहायक अथवा “नाच्या” कहा जाता है। फ़िल्म में पहलवान दिखने के लिये पहले दुबले-पतले अतुल कुलकर्णी ने अपना वज़न बढ़ाकर 85 किलो किया और जिम में जमकर पसीना बहाया। फ़िर दो माह के भीतर ही भूमिका की मांग के अनुसार इंटरवल के बाद “स्त्री रूपी हिजड़ा” बनने के लिये अपना वज़न 20 किलो घटाया। सिर्फ़ तीन माह के अन्तराल में अपने शरीर के साथ इस तरह का खतरनाक खिलवाड़ निश्चित रूप से उनके लिये जानलेवा साबित हो सकता था, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फ़िजिकल ट्रेनर शैलेष परुलेकर की मदद से यह कठिन काम भी उन्होंने पूरा कर दिखाया।

अतुल कुलकर्णी ने 30 वर्ष की आयु में 1995 में नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से कोर्स पूरा किया, उसी के बाद उन्होंने अभिनय को अपना प्रोफ़ेशन बनाना निश्चित कर लिया। अतुल कुलकर्णी ने अब तक 4 भाषाओं में आठ नाटक, 6 भाषाओं में छब्बीस फ़िल्में की हैं तथा उन्हें दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। उनका कहना है कि फ़िल्म की भाषा क्या है, अथवा निर्देशक कौन है इसकी बजाय कहानी और पटकथा के आधार पर ही वे फ़िल्म करना है या नहीं यह निश्चित करते हैं, मुझे अधिक फ़िल्में करने में कोई रुचि नहीं है, अच्छी फ़िल्में और रोल मिलते रहें बस… बाकी रोजी-रोटी के लिये नाटक तो है ही…”।

अब थोड़ा सा इस अदभुत फ़िल्म की कहानी के बारे में…


फ़िल्म का मुख्य पात्र गुणा कागलकर अर्थात अतुल एक ग्रामीण खेत मजदूर हैं। गुणाजी को सिर्फ़ दो ही शौक हैं, पहलवानी करना और तमाशा-लावणी देखना, उसके मन में एक दबी हुई इच्छा भी है कि वह अपनी खुद की नाटक-तमाशा कम्पनी शुरु करे, उसमें स्वयं एक राजा की भूमिका करे तथा विलुप्त होती जा रही लावणी कला को उसके शिखर पर स्थापित करे। ग्रामीण पृष्ठभूमि और सुविधाओं के अभाव में उसका संघर्ष जारी रहता है, वह धीरे-धीरे गाँव के कुछ अन्य नाटकप्रेमी लोगों को एकत्रित करके एक ग्रुप बनाता है जिसमें लावणी नृत्य पेश किया जाना है। उसे हीरोइन भी मिल जाती है, जो उसे भी नृत्य सिखाती है। इन सबके बीच समस्या तब आन खड़ी होती है, जब “नाच्या” (स्त्री रूपी मजाकिया हिजड़े) की भूमिका के लिये कोई कलाकार ही नहीं मिलता, लेकिन गुणाजी पर नाटक कम्पनी खड़ी करने और अपनी कला प्रदर्शित करने का जुनून कुछ ऐसा होता है कि वह मजबूरी में खुद ही “नाच्या” बनने को तैयार हो जाता है। उसके इस निर्णय से उसकी पत्नी बेहद खफ़ा होती है और उनमें विवाद शुरु हो जाते हैं, उस पर गाँव की भीतरी राजनीति में नाटक की हीरोइन तो “जेण्डर बायस” की शिकार होती है साथ ही साथ हिजड़े की भूमिका निभाने के लिये गुणाजी को भी गाँव में हँसी का पात्र बनना पड़ता है। कहाँ तो गुणाजी अपने तमाशे में एक “विशालकाय मजबूत राजा” का किरदार निभाना चाहता है, लेकिन बदकिस्मती से उसे साड़ी-बिन्दी लगाकर एक नचैया की भूमिका करना पड़ती है…नाटक के अपने शौक और अपनी लावणी कम्पनी शुरु करने की खातिर वह ऐसा भी करता है। बहरहाल तमाम संघर्षों, पक्षपात, खिल्ली, धनाभाव, अपने परिवार की टूट के बावजूद गुणाजी अन्ततः अपने उद्देश्य में सफ़ल होता है और उसकी नाटक कम्पनी सफ़लता से शुरु हो जाती है, लेकिन उसकी पत्नी उसे छोड़कर चली जाती है। (अतुल कुलकर्णी की हिजड़ानुमा औरत वाली भूमिका की तस्वीर जानबूझकर नहीं दे रहा हूं, क्योंकि वह देखने और अनुभव करने की बात है)

मराठी नाटकों की सौ वर्ष से भी पुरानी समृद्ध नाट्य परम्परा में लावणी-तमाशा में “नाच्या” की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि यह नाच्या कभी कहानी को आगे बढ़ाने के काम आता है, कभी सूत्रधार, कभी विदूषक तो कभी नर्तक बन जाता है। इस तरह नृत्य करने वाली मुख्य नृत्यांगना के साथ ही इसका रोल भी जरूरी होता है, लेकिन जैसा कि हमारे समाज में होता आया है, “थर्ड जेण्डर” अर्थात हिजड़ों के साथ अन्याय, उपेक्षा और हँसी उड़ाने का भाव सदा मौजूद होता है, वैसा नाच्या के साथ भी जेण्डर बायस किया जाता है, जबकि अधिकतर तमाशों में यह भूमिका पुरुष ही निभाते आये हैं। मराठी नाटकों में पुरुषों द्वारा स्त्री की भूमिका बाळ गन्धर्व के ज़माने से चली आ रही है, कई-कई नाटकों में पुरुषों ने स्त्री की भूमिका बगैर किसी फ़ूहड़पन के इतने उम्दा तरीके से निभाई है कि नाटक देखते वक्त कोई जान नहीं सकता कि वह कलाकार पुरुष है। ऐसे ही एक महान मराठी कलाकार थे गणपत पाटील, जिन्होंने बहुत सारी फ़िल्मों में “नाच्या” की भूमिका अदा की, और उनके अभिनय में इतना दम था तथा उनकी भूमिकाएं इतनी जोरदार थीं कि नाटक-फ़िल्मों के बाहर की दुनिया में भी उनके बच्चों को भी लोग उनका बच्चा मानने को तैयार नहीं होते थे, अर्थात जैसी छवि हिन्दी फ़िल्मों में प्राण अथवा रंजीत की है कि ये लोग बुरे व्यक्ति ही हैं, ठीक वैसी ही छवि गणपत पाटील की हिजड़े के रूप में तथा निळू फ़ुले की “खराब आदमी” के रूप में मराठी में प्रचलित है।

मराठी नाटकों की समृद्ध परम्परा की बात निकली है तो एक उल्लेख करना चाहूंगा कि मराठी फ़िल्मों के स्टार प्रशांत दामले 1983 से अब तक नाटकों के 8000 "व्यावसायिक" शो कर चुके हैं तथा एक ही दिन में 3 विभिन्न नाटकों के 5 शो हाउसफ़ुल करने के लिये लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स में उनका नाम  दर्ज है…।

चलते-चलते :-

उज्जैन में प्रतिवर्ष सरकारी खर्च और प्रचार पर कालिदास समारोह आयोजित किया जाता है, जिसमें संस्कृत और हिन्दी के नाटक खेले जाते हैं, लेकिन सारे तामझाम के बावजूद कई बार 100 दर्शक भी नहीं जुट पाते, जो दर्शक इन हिन्दी नाटकों में पाये जाते हैं, उनमें से कुछ सरकारी अधिकारी होते हैं जिनकी वहां उपस्थिति “ड्यूटी” का एक भाग है, कुछ अखबारों के कथित समीक्षक, तथा कुछ आसपास घूमने वाले अथवा टेण्ट हाउस वाले दिखाई देते हैं। जबकि इसी उज्जैन में जब महाराष्ट्र समाज द्वारा मराठी नाटक मुम्बई अथवा इन्दौर से बुलवाया जाता है, तब बाकायदा “टिकिट लेकर” देखने वाले 500 लोग भी आराम से मिल जाते हैं।

फ़िल्म रिलीज़ के मौके पर मंच पर प्रस्तुत इस फ़िल्म का एक गीत यहाँ देखा जा सकता है…



http://www.youtube.com/watch?v=79xzHDM11eQ

तथा “नटरंग” फ़िल्म का ट्रेलर यहाँ देखा जा सकता है…



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जैसा कि अब लोग धीरे-धीरे जान चुके हैं कि आंध्र के दिवंगत मुख्यमंत्री “सेमुअल” राजशेखर रेड्डी एक “नकली रेड्डी” और असली पक्के एवेंजेलिस्ट ईसाई थे, फ़िलहाल उनका बेटा जगनमोहन तो फ़िलहाल केन्द्र में सोनिया की नाक में दम किये हुए है, उनके दामाद “बेंजामिन” अनिल कुमार भी एक एवेंजेलिस्ट ईसाई (कट्टर धर्म प्रचारक) हैं। दुःख की बात यह है कि शादी से पहले अनिल कुमार एक ब्राह्मण थे।

इस पोस्ट में प्रस्तुत वीडियो में अनिल कुमार बड़ी बेशर्मी से उनके ब्राह्मण से ईसाई बनने के बारे में बता रहे हैं, इस वीडियो की शूटिंग दक्षिण के किसी मन्दिर में की गई है और इसमें दिखाया गया है कि वे बचपन में मन्दिर में सोते थे और वहाँ की सेवा किया करते थे। अनिल कुमार बताते हैं कि उन्होंने बचपन में अपने माता-पिता से भगवान, पुनर्जन्म और संस्कृति के बारे में पूछा था, लेकिन उन्हें कोई संतोषजनक(?) जवाब नहीं मिला, जबकि जब वे जवान होकर चर्च में जाने और बाइबल पढ़ने लगे तभी उनके “ज्ञानचक्षु” अचानक खुल गये। हालांकि इस वीडियो की शूटिंग में मन्दिर दिखाने की कतई आवश्यकता नहीं थी, लेकिन फ़िर YSR परिवार की हिन्दू धर्म के प्रति घृणा कैसे प्रदर्शित होती? हिन्दुओं को नीचा दिखाना, उनके धर्म-परम्पराओं-संस्कृति की आलोचना करना और मजाक उड़ाना, यही तो “सेकुलरिज़्म” की पहली शर्त है।

YSR की बेटी शर्मिला, रिश्ते में अपने “मामा” अनिल कुमार नामक ब्राह्मण युवक पर तभी से फ़िदा थी जब वह उसे अमेरिका में मिली थी, भारत आकर उनकी दोस्ती प्यार में बदल गई और YSR के प्रकोप से बचने के लिये दोनों ने भागकर शादी कर ली और वारंगल जिले में जाकर छिप गये। YSR इतने बड़े “सेकुलर” थे कि उन्हें ब्राह्मण जमाई चलने वाला नहीं था, इसलिये हैरान-परेशान शर्मिला ने भोले-भाले अनिल कुमार पर ऐसा जादू चलाया कि वे ईसाई बन बैठे।

 जब कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता है तो उस नये धर्म के प्रति प्रतिबद्धता ज़ाहिर करने के लिये अत्यधिक धार्मिक बनने का प्रयास करता है, यही कुछ अनिल कुमार के साथ हुआ। “बेंजामिन” अनिल कुमार बनने के बाद जल्दी ही वे पक्के धर्म प्रचारक बन गये। वे जमकर “चंगाई सभाएं”(?) आयोजित करते हैं और सरकारी मदद पर आंध्र-तेलंगाना के गरीबों को फ़ुसलाकर ईसाई बनाने के काम में लगे हुए हैं। वीडियो के अन्त में आप देखेंगे किस तरह अनिल कुमार सिर पर हाथ रखकर जादूगरनुमा मंत्र आदि फ़ेरते हैं, किस तरह सभाओं में “बाहरी हवा से बाधित”(?) गरीबों पर “पवित्र जल” छिड़ककर उन्हें ठीक(?) किया जाता है आदि-आदि, लेकिन यही “कर्मकाण्ड” हिन्दू धर्मगुरु करें तो वह पिछड़ेपन और दकियानूस की श्रेणी में आ जाता है अर्थात यदि हिन्दू करे तो वह अंधविश्वास और जड़ता, लेकिन अनिल कुमार और YSR करे तो चंगाई और गरीबों का भला, “वारी जाऊं बलिहारी जाऊं ऐसे सेकुलरिज़्म पर…”।




वीडियो की सीधी लिंक यह है, http://www.youtube.com/watch?v=oF_Gz2WHorw

विश्व प्रसिद्ध तिरुपति-तिरुमाला मन्दिर जो कि विश्व का सबसे अधिक धनी मन्दिर है, वहाँ भक्तों-दर्शनार्थियों की लम्बी-लम्बी कतारें लगती हैं। अमूमन उन कतारों के बीच एक-दो महिलाएं "टाइम-पास" के नाम पर ईसाई साहित्य मुफ़्त बाँटते हुए दिखाई देती हैं, उत्सुकतावश उनके बारे में जानकारी लेने पर पता चलता है कि वे इसी तिरुपति मन्दिर की कर्मचारी हैं। अर्थात जो महिला तिरुमाला देवस्थानम की कर्मचारी है, जिसकी दाल-रोटी इस संस्थान के रुपये से चलती है, वह औरत उसी मन्दिर में भक्तों के बीच ईसाई धर्म के पेम्फ़लेट बाँट रही है… इससे बढ़िया बात मिशनरियों के लिये क्या हो सकती है। यही तो सेमुअल राजशेखर रेड्डी (जो कि "सेवन्थ डे एडवेन्टिस्ट क्रिस्चियन थे) की कलाकारी है। सेमुअल रेड्डी जैसे कई "सेकुलर" हैं जो हिन्दू मन्दिरों की सम्पत्ति पर अप्रत्यक्ष कब्जा जमाये बैठे हैं, आप सोचते हैं कि आपने मन्दिर में दान दिया है, जबकि असल में वह दान आंध्रप्रदेश सरकार के खाते में जाता है, और उस पैसे से मस्जिदों को अनुदान और ईसाईयों को यरुशलम जाने के लिये सब्सिडी दी जाती है…। एक बात बताईये, आप में से कितने लोग जानते हैं कि तिरुपति-तिरुमाला देवस्थानम में काम करने वाले 60 प्रतिशत कर्मचारी ईसाई हैं? मेरा दावा है कि अधिकांश लोग नहीं जानते होंगे… यही तो "सेकुलरिज़्म" है…



आंध्र-तेलंगाना में दशकों के निज़ाम के शासनकाल में भी जितने हिन्दू धर्म परिवर्तित करके मुस्लिम नहीं बने थे, उससे अधिक तो 10 साल में इस एक YSR परिवार ने हिन्दू से ईसाई बना दिये हैं, अब आपको समझ में आया होगा कि उनके शव को ढूंढने के लिये हेलीकॉप्टर, विमान, रॉकेट, उपग्रह, सोनिया-अमेरिका यूं ही नहीं बेचैन हो रहे थे। यही तो दिल्ली की “मैडम” का जलवा है, जिनके गीत गाने में हमारा "भाण्ड-गवैया मीडिया" दिन-रात लगा रहता है, कोरस में साथ देने के लिये सेकुलर पत्रकार और सेकुलर ब्लॉगर तो हैं ही…

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नोट – मैंने एक बार www.Scribd.com पर धर्म परिवर्तन विषय पर अमेरिका में प्रदान की गई एक Ph.D. देखी थी, लेकिन उसका लिंक मुझे कहीं मिल नहीं रहा। उस Ph.D. थेसिस के Content (विषय सूची) में “धर्म परिवर्तन कैसे करवाया जाता है…”, “धर्म परिवर्तन हेतु आसान लक्ष्य कैसे ढूंढे जायें…”, “भारत तथा अन्य विकासशील देशों में धर्म परिवर्तन का क्या स्कोप है…” आदि बिन्दु दिये हुए हैं। इस थीसिस को मैं “सेव” करना भूल गया, यदि किसी सज्जन को वह Ph.D. दिखे या मिले तो उसकी लिंक भी अपनी टिप्पणी में चेप दें, ताकि सभी को पता चले कि उधर धर्म परिवर्तन पर डॉक्टरेट भी मिलती है जबकि “मूर्ख हिन्दू” अभी भी सोये हुए हैं… क्योंकि उनके घर में “सेकुलर” गद्दार भरे पड़े हैं। कभी भी कोई कहे कि मैं "सेकुलर" हूं, तब तड़ से जान जाईये कि वह असल में कहना चाहता है कि "मैं हिन्दू विरोधी हूं…"।



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जिस समय आंध्रप्रदेश का गठन हो रहा था उस समय नेहरु ने कहा था कि “एक मासूम लड़की की शादी एक शरारती लड़के के साथ हो रही है, जब तक सम्भव हो वे साथ रहें या फ़िर अलग हो जायें…”। 50 साल तक इस मासूम लड़की ने शरारती युवक के साथ किसी तरह बनाये रखी कि शायद वह सुधर जायेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, और आज जब “मासूम लड़की” अलग होना चाहती है तो वह शरारती लड़का (आंध्र-रायलसीमा) (जो अब गबरू पहलवान बन चुका है) अपने बाप (केन्द्र) को भी आँखे दिखा रहा है, और बाप हमेशा की तरह “हर धमकाने वाले” के सामने जैसा घिघियाता रहा है, वैसा ही अब भी घिघिया रहा है।

तेलंगाना के पक्ष में कुछ बिन्दु हाल ही में तेलंगाना नेता डॉ श्रीनिवास राजू के एक इंटरव्यू में सामने आये हैं – जैसे :

1) जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के बारे में हम लोगों ने कई-कई पन्ने पढ़े हैं, लेकिन यह बात बहुत कम लोगों को पता होगी कि हैदराबाद के निजाम ने तेलंगाना के लोगों के साथ जलियाँवाला जैसे लगभग 6 हत्याकाण्ड अंजाम दिये हैं, जब तेलंगाना के लोगों ने उस समय निजाम से अलग होने की मांग करने की “जुर्रत” की थी, यही निजाम भारत की आज़ादी के समय भी बहुत गुर्रा रहा था, लेकिन सरदार पटेल ने उसे पिछवाड़े में दुम दबाने पर मजबूर कर दिया था।

2) तेलंगाना क्षेत्र की विधानसभा भवन, उच्च न्यायालय भवन आदि निजाम के ज़माने से बन चुके हैं। सन् 1909 में आधुनिक इंजीनियरिंग के पितामह एम विश्वेश्वरैया ने हैदराबाद में भूमिगत ड्रेनेज सिस्टम बनवाया था जिसमें से अधिकतर हिस्सा आज सौ साल बाद भी काम में लिया जा रहा है।

3) कृष्णा नदी के जलग्रहण क्षेत्र का 69 प्रतिशत हिस्सा तेलंगाना में आता है, लेकिन एक भी बड़ा बाँध इस इलाके में नहीं है।

4) डॉ बीआर अम्बेडकर भी हैदराबाद को भारत की दूसरी अथवा आपातकालीन राजधानी बनाने के पक्ष में थे।

5) आंध्र राज्य के निर्माण के समय कांग्रेस ने सबसे पहला वादा तोड़ा नामकरण को लेकर, तय यह हुआ था कि नये प्रदेश का नाम “आंध्र-तेलंगाना” रखा जायेगा, लेकिन पता नहीं क्या हुआ सिर्फ़ “आंध्रप्रदेश” रह गया।

6) दूसरी बड़ी वादाखिलाफ़ी निजामाबाद जिले में बनने वाले श्रीराम सागर बाँध को लेकर हुई, 40 साल बाद भी इस बाँध का प्रस्ताव ठण्डे बस्ते में है।

7) यदि तेलंगाना का गठन होता है तो इसका क्षेत्रफ़ल विश्व के 100 देशों से बड़ा और भारत के 18 राज्यों से बड़ा होगा।

8) तेलंगाना क्षेत्र के लोगों के साथ हमेशा आंध्र के लोगों ने खिल्ली उड़ाने वाले अंदाज़ में ही बात की है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि तेलुगू फ़िल्मों में एक भी बड़ा हीरो तेलंगाना क्षेत्र से नहीं है, जबकि तेलुगु फ़िल्मों में हमेशा विलेन अथवा जोकरनुमा पात्र को तेलंगाना का दर्शाया जाता है।

मीडिया का रोल –

तेलंगाना आंदोलन शुरु होने के बाद से अक्सर खबरें आती हैं कि तेलंगाना के लोगों की वजह से करोड़ो का नुकसान हो रहा है, बन्द और प्रदर्शनों की वजह से भारी नुकसान हो रहा है आदि-आदि। डॉ श्रीनिवास के अनुसार आंध्रप्रदेश रोडवेज को जो 7 करोड़ का नुकसान हुआ है वह पथराव और बन्द की वजह से बसें नहीं चलने की वजह से हुआ है। जितना उग्र प्रदर्शन आंध्र और रायलसीमा में हो रहा है उसके मुकाबले तेलंगाना के लोग बड़े ही लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात रख रहे हैं। उदाहरण के लिये आंध्र और रायलसीमा में 70 करोड़ की बसें और सम्पत्ति जलाई गई हैं। BSNL ने भी अपनी एक पुलिस रिपोर्ट में कहा है कि कुछ युवकों द्वारा उसके ऑप्टिकल फ़ाइबर जला दिये जाने की वजह से उसे रायलसीमा में 2 करोड़ का नुकसान हुआ है। रायलसीमा में ही जेसी दिवाकर रेड्डी के समर्थकों द्वारा एक रेल्वे स्टेशन को बम से उड़ाने के कारण 10 करोड़ का नुकसान हुआ है, लेकिन यह सभी खबरें तेलुगु मीडिया द्वारा दबा दी गईं क्योंकि मीडिया के अधिकतर हिस्से पर आंध्र के शक्तिशाली रेड्डियों का कब्जा है। आंध्र के पैसे वाले रेड्डियों ने तेलंगाना और हैदराबाद में सस्ती ज़मीनें गरीबों के आगे पैसा फ़ेंककर उस वक्त कौड़ियों के दाम खरीद ली थीं, जो अब अरबों की सम्पत्ति बन चुकी हैं… आंध्र-रायलसीमा के लोगों का मुख्य विरोध इसी बात को लेकर है कि तेलंगाना बन जाने के बाद बाँध बन जायेंगे और उधर पानी सीमित मात्रा में पहुँचेगा तथा हैदराबाद पर तेलंगाना का अधिकार हो जायेगा तो उनकी सोना उगलने वाली सम्पत्तियों का क्या होगा… इसीलिये दिल्ली से लेकर हैदराबाद तक पैसा झोंककर मीडिया सहित सबको मैनेज किया जा रहा है अथवा धमकाया जा रहा है।

इस सारे झमेले के बीच संघ प्रमुख भागवत जी ने एक मार्के की बात कही है, उन्होंने छोटे राज्यों के गठन का विरोध करते हुए कहा है कि अधिक राज्य बनाने से गैर-योजनागत व्यय में कमी आ जाती है, राज्य बनने से वहाँ के मंत्रियों-अधिकारियों-मंत्रालयों आदि के वेतन पर जो खर्च होता है उस कारण आम जनता के लिये चलने वाली योजनाओं के पैसे में कमी आती है। मंत्री और आईएएस अधिकारी अपनी राजसी जीवनशैली छोड़ने वाले नहीं हैं, ऐसे में छोटे राज्यों में प्रशासनिक खर्च ही अधिक हो जाता है और वह राज्य सदा केन्द्र का मुँह तकता रहता है।

सोनिया ने तो अपनी जयजयकार करवाने के चक्कर में तेलंगाना के निर्माण का वादा कर दिया (यहाँ देखें), लेकिन अब रेड्डियों के दबाव में आगे-पीछे हो रही हैं। निज़ाम के वंशज अभी से सपने देखने लगे हैं कि प्रस्तावित तेलंगाना में 20% आबादी मुस्लिम होगी तब वे अपना मुख्यमंत्री बनवा सकेंगे और अधिक फ़ायदा उठा सकेंगे। उधर नक्सली मौके की ताक में हैं, कि कब तेलंगाना में आग भड़काकर अपना फ़ायदा देखा जाये… यानी मुर्दा अभी घर से उठाया ही नहीं है उससे पहले ही तेरहवीं के भोज खीर मिलेगी या लड्डू, इसकी चर्चा शुरु हो गई है, जबकि भोंदू युवराज दलितों की थाली में ही लगे हुए हैं… यदि महारानी और युवराज सच्चे नेता होते तो मामले पर आगे आते और जनता/मीडिया से बात करते, लेकिन ये लोग “फ़ैब्रिकेटेड नेता” हैं। कुछ दिनों पहले चीन के एक सैन्य अखबार ने लिखा था कि थोड़े से प्रयासों से हम आसानी से भारत के कई टुकड़े कर सकते हैं, लेकिन अब वे चैन से सो सकते हैं… ये काम हम ही कर लेंगे… पहले भी करते आये हैं। यदि तेलंगाना बन भी गया तो अब तक यहाँ के उपेक्षित और अपमानित स्थानीय व्यक्तियों / आदिवासियों को कोई लाभ मिल सकेगा इसमें संदेह ही है, क्योंकि “गिद्ध” अभी से मंडराने लगे हैं। तेलंगाना राज्य तभी बनेगा, जब कांग्रेस को इसमें अपना फ़ायदा दिखाई देगा, फ़िलहाल ऐसे आसार नहीं हैं, इसलिये चाहे जितनी सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान हो, चाहे जितनी रेलें रोकी जायें, चाहे जितनी बसें जलाई जायें, अपनी गलतियों को ढँकने के लिये, मामले को लम्बा लटकाने की भूमिका अन्दर ही अन्दर तैयार हो चुकी है…।

खैर, कांग्रेस की सैकड़ों वादाखिलाफ़ियों और ऐतिहासिक गलतियों की सजा पूरे देश में कितनी पीढ़ियाँ, कितने समय तक झेलती रहेंगी, पता नहीं… यह देश अभिशप्त है कांग्रेस को झेलते रहने के लिये…


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