desiCNN - Items filtered by date: अप्रैल 2009
सबसे पहले कुछ जरूरी सवाल –
1) मानो यदि किसी वकील को यह पता हो कि जिसका केस वह लड़ रहा है वह देशद्रोही है, फ़िर भी वह उसे बचाने के लिये जी-जान लगाता है और बचा भी लेता है तो इसे क्या कहेंगे “पेशे के प्रति नैतिकता और ईमानदारी” या “देशद्रोह”?

2) कोई पत्रकार किसी गुप्त जगह पर छिपे आतंकवादी का इंटरव्यू लेता है, उसकी राष्ट्रविरोधी टिप्पणियाँ प्रकाशित करता है और उसे “हीरो” बनाने की कोशिश करता है तो यह “पेशे के प्रति नैतिकता और ईमानदारी है या देशद्रोह”?

3) कोई वेश्या यह जानने के बावजूद कि ग्राहक “एड्स” का मरीज है उसे बगैर कण्डोम के “एण्टरटेन” करती है, तो यह “पेशे के प्रति नैतिकता और ईमानदारी” है या “मूर्खता”?

ऐसे कई उदाहरण दिये जा सकते हैं जहाँ “देश” “कर्तव्य” और पेशे की नैतिकता के बीच चुनाव के सवाल खड़े किये जा सकते हैं, अब आते हैं मूल बात पर…

जो अज़मल कसाब पहले तोते की तरह सारी बातें उगल-उगलकर बता रहा था, अचानक एक वकील की संगत में आते ही घाघ लोमड़ी की तरह बर्ताव करने लगा है। सबसे पहले तो वह अपनी कही पुरानी सारी बातों से ही मुकर गया, फ़िर उसके काबिल वकील ने उसे यह भी पढ़ाया कि “वह अदालत से माँग करे कि वह नाबालिग है, इसलिये उस पर इस कोर्ट में मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये”, फ़िर अज़मल कसाब ने एक और पाकिस्तानी वकील की भी माँग की, अब उसके माननीय वकील ने माँग की है कि पूरे 11000 हजार पेजों की चार्जशीट का उर्दू अनुवाद उसे दिया जाये ताकि वह अपने मुवक्किल को ठीक से केस के बारे में समझा सके और कसाब समझ सके… तात्पर्य यह कि अभी तो शुरुआत है… भारत के कानून और न्याय व्यवस्था के छेदों का फ़ायदा उठाते हुए पहले तो उसका केस सालों तक चलेगा, और कहीं गलती से फ़ाँसी की सजा हो भी गई तो फ़िर राष्ट्रपति के पास “क्षमायाचना” की अर्जी दाखिल करने का विकल्प भी खुला है, जहाँ यदि स्वतन्त्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका रखने वाली “गाँधी” की कांग्रेस रही तो वह भी अफ़ज़ल गुरु की तरह मौज करता रहेगा।

हालांकि कसाब को पाकिस्तानी वकील की माँग करने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि जो काम पाकिस्तान से आया हुआ वकील करेगा, वही काम हमारे यहाँ के वकील भी उसके लिये कर देंगे। कहावत है कि डॉक्टर और वकील से कुछ भी नहीं छिपाना चाहिये, ज़ाहिर है कि अपराधी (बल्कि देशद्रोही तत्व) भी अपनी हर बात वकील को बताते होंगे, ताकि घाघ वकील उसका “कानूनी तोड़” निकाल सके, ऐसे में सवाल उठता है कि जबकि वकील जान चुका है कि उसका “क्लाइंट” कितना गिरा हुआ इंसान है और देश के विरुद्ध षडयन्त्र करने और उसे तोड़ने में लगा हुआ है, तब उसे “पेशे के प्रति ईमानदारी” और “देशप्रेम” के बीच में किस बात का चुनाव करना चाहिये?

फ़िलहाल कसाब के लिये कड़ी सुरक्षा व्यवस्था, एयरकंडीशनर, वाटर कूलर, रोज़ाना मेडिकल चेक-अप, अच्छा खाना, आदि सुविधायें दी जा रही हैं जो कि लगभग अनन्त काल तक चलेंगी। चाट का ठेला लगाने वाले की, दो कौड़ी की औकात रखने वाली औलाद भला इस “शानदार भारतीय मेहमाननवाज़ी वाली व्यवस्था” को छोड़कर कहीं जाना चाहेगा? सवाल ही नहीं उठता, और फ़िर अब तो उसे “नेक सलाह” देने के लिये एक “वकील” भी मिल गया है, उधर अफ़ज़ल गुरु को भी तिहाड़ में रोज़ाना अखबार/पत्रिकायें, व्यायाम करने हेतु खुली हवा, चिकन/मटन आदि मिल ही रहा है, बस तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख बढ़वाये जाओ, देश को चूना लगाये जाओ, और कांग्रेस के इन “महान दोस्तों” को गोद में बैठाकर सहलाते रहो।

पहले कसाब अपने में खोया-खोया सा रहता था, परेशान और उदास दिखाई देता था, ठीक से भोजन नहीं करता था…। अब्बास काज़मी नामक वकील के मिलते ही कसाब में एक “ड्रामेटिक” बदलाव आ गया है, अब गत कुछ दिनों से वह वकीलों और पत्रकारों से बाकायदा आँखें मिलाकर बात करने लगा है, बड़ा बेफ़िक्र सा नज़र आने लगा है, वह अब मुस्कुराने भी लगा है, उसके साथ सह-अभियुक्त फ़हीम अंसारी ने जब अपनी पत्नी से मिलने की इजाजत माँगी (और उसे वह मिली भी) तो कसाब हँसा भी था… (ये सारी खबर मुकदमा कवर कर रहे पत्रकार ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया में यहाँ लिखी हैं)… कहने का मतलब ये कि वकील साहब की मेहरबानियों से मात्र 4-5 दिनों में ही वह समझ चुका है कि उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है, वह काफ़ी लम्बे समय तक जियेगा और मौज से जियेगा… अब कसाब भी हमारे नेताओं की तरह सार्वजनिक रूप से कह सकता है कि “मुझे भारत की न्याय व्यवस्था पर पूरा भरोसा है और मुझे पूरा न्याय मिलेगा…”। यही सनातन वाक्य कई बार अबू सलेम, तेलगी, शहाबुद्दीन और समर्पण की आस रखने वाले दाऊद इब्राहीम भी बक चुके हैं।

“सरकारी लीगल पैनल” वकीलों की एक पैनल होती है जिसके द्वारा ऐसे मुजरिमों को मदद दी जाती है जो खुद अपना वकील नियुक्त नहीं कर सकते। इस पैनल में शामिल वकीलों को फ़िलहाल 900/- रुपये प्रति केस की दर से भुगतान किया जाता है (हालांकि इस फ़ीस के बहुत कम होने को लेकर जस्टिस टहिलियानी ने सरकार से इसे बढ़ाने को कहा है)। अब आते हैं कसाब के वकील अब्बास काज़मी पर… ये सज्जन(?) प्रायवेट वकील हैं, लेकिन कोर्ट द्वारा इन्हें कसाब का वकील नियुक्त किया गया है। वकील काज़मी किसी भी सरकारी “लीगल पैनल” में नहीं हैं। इसलिये सरकार को इनकी अच्छी-खासी फ़ीस भी चुकानी पड़ेगी, हालांकि ऐसा बहुत ही कम होता है, लेकिन इस केस में हो रहा है। काज़मी साहब की फ़ीस कितनी है इसका खुलासा अभी नहीं हो पाया है, लेकिन अब्बास काज़मी साहब कोई ऐरे-गैरे वकील नहीं हैं, 1993 के मुम्बई बम काण्ड के काफ़ी सारे अभियुक्तों के वकील यही महाशय थे, 1997 के गुलशन कुमार हत्याकाण्ड में भगोड़े नदीम के वकील भी हैं, और गत वर्ष “इंडियन मुजाहिदीन” के खिलाफ़ लगे हुए केसों में भी यही वकील हैं, (खबर यहाँ देखें)। पाकिस्तानी वकील की माँग का राग अलापने वाले कसाब को जब अब्बास काज़मी के बारे में बताया गया तो उसने आज्ञाकारी बालक की तरह तत्काल इसे मान लिया। (अब तक तो आप जान ही गये होंगे कि ये कितने “पहुँचे” हुए वकील हैं)

काज़मी साहब का एक और कारनामा भी पढ़ ही लीजिये… 1993 के मुम्बई बम धमाकों के एक अंडरवर्ल्ड आरोपी एजाज़ पठान को षडयन्त्र रचने और विस्फ़ोट में उसकी भूमिका हेतु दस साल कैद और सवा दो लाख रुपये जुर्माना की सजा मुकर्रर हुई। टाडा कोर्ट ने उसे जेल में ही रखने का आदेश दिया था। (इस खबर को यहाँ पढ़ें) एजाज़ पठान को दाऊद के भाई इब्राहीम कासकर के साथ 2003 में भारत लाया गया था। अब्बास काज़मी साहब ने कोर्ट द्वारा सरकार से एजाज़ पठान को “दिल की बीमारी के इलाज” के नाम पर दो लाख रुपये स्वीकृत करवाये (यानी सवा दो लाख के जुर्माने में से दो लाख रुपये तो वापस मिल ही गये)। कठोर सजायाफ़्ता कैदियों को महाराष्ट्र की दूरस्थ जेलों में भेजा जाता है, लेकिन एजाज़ पठान, काज़मी साहब की मेहरबानी से मुम्बई में आर्थर रोड जेल अस्पताल में ही जमा रहा, जहाँ उसकी दिल का दौरा पड़ने से मौत हुई।

तो भाईयों और बहनों, इस मुगालते में मत रहियेगा कि कसाब को तुरन्त कोई सजा मिलने वाली है, वह भारत सरकार का एक नया-नवेला “दामाद” है, एकाध मानवाधिकार संगठन भी उसकी पैरवी में आता ही होगा, या कोई बड़ी बिन्दी वाली महिला किसी “भारतीय इस्लामिक चैनल” पर उसे माफ़ी देने की पुरजोर अपील भी कर सकती है, साथ ही उसकी सेवा में “महान वकील” अब्बास काज़मी भी लगे हुए हैं… आप तो बस भारतीय न्याय व्यवस्था और वकीलों की जय बोलिये। कानून के विद्वान ही बता सकते हैं कि कसाब पर “मकोका” क्यों नहीं लगा और प्रज्ञा ठाकुर पर कैसे लगा? लोकतन्त्र की दुहाई देने वाले बतायेंगे कि यदि कसाब अमेरिका में होता तो उसके साथ क्या और कैसा होता तथा चीन को अपना बाप मानने वाले बतायेंगे कि यदि कसाब चीन में होता तो उसके साथ क्या और कैसा होता?
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नोट – पढ़ते-पढ़ते यदि आपका खून खौलने लगा हो तो जाकर ठण्डे पानी से नहा आईये और दो रोटी ज्यादा खा लीजिये, इससे ज्यादा हम-आप कुछ कर भी नहीं सकते…

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“शर्मनिरपेक्षता” के खेल की धुरंधर खिलाड़ी, सेकुलर गैंगबाजों की पसन्दीदा अभिनेत्री, झूठे और फ़र्जी NGOs की “आइकॉन”, यानी सैकड़ों नकली पद्मश्रीधारियों में से एक, तीस्ता सीतलवाड के मुँह पर सुप्रीम कोर्ट ने एक तमाचा जड़ दिया है। पेट फ़ाड़कर बच्चा निकालने की जो कथा लगातार हमारा सेकुलर मीडिया सुनाता रहा, आखिर वह झूठ निकली। सात साल तक लगातार भाजपा और मोदी को गरियाने के बाद उनका फ़ेंका हुआ “बूमरेंग” उन्हीं के थोबड़े पर आ लगा है।

सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के तहत गठित “स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम” (SIT) ने सुप्रीम कोर्ट में तथ्य पेश करते हुए अपनी रिपोर्ट पेश की जिसके मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं –

1) कौसर बानो नामक गर्भवती महिला का कोई गैंगरेप नहीं हुआ, न ही उसका बच्चा पेट फ़ाड़कर निकाले जाने की कोई घटना हुई।

2) नरोडा पाटिया के कुँए में कई लाशों को दफ़न करने की घटना भी झूठी साबित हुई।

3) ज़रीना मंसूरी नामक महिला जिसे नरोडा पाटिया में जिंदा जलाने की बात कही गई थी, वह कुछ महीने पहले ही TB से मर चुकी थी।

4) ज़ाहिरा शेख ने भी अपने बयान में कहा कि तीस्ता ने उससे कोरे कागज़ पर अंगूठा लगवा लिया था।

5) तीस्ता के मुख्य गवाह रईस खान ने भी कहा कि तीस्ता ने उसे गवाही के लिये धमकाकर रखा था।

6) सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि सारे एफ़िडेविट एक ही कम्प्यूटर से निकाले गये हैं और उनमें सिर्फ़ नाम बदल दिया गया है।

7) विशेष जाँच दल ने पाया कि तीस्ता सीतलवाड ने गवाहों को धमकाया, गलत शपथ-पत्र दाखिल किये, कोर्ट में झूठ बोला।

कुल मिलाकर कहानी में जबरदस्त मोड़ आया है और धर्मनिरपेक्षता के झण्डाबरदार मुँह छिपाते घूम रहे हैं। NGO नामक पैसा उगाने वाली फ़र्जी संस्थाओं को भी अपने विदेशी आकाओं को जवाब नहीं देते बन रहा, गुजरात में उन्हें बेहतरीन मौका मिला था, लेकिन लाखों डॉलर डकार कर भी वे कुछ ना कर सके। हालांकि देखा जाये तो उन्होंने बहुत कुछ किया, नरेन्द्र मोदी की छवि खराब कर दी, गुजरात को बदनाम कर दिया, “भगवा” शब्द की खूंखार छवि बना दी… यानी काफ़ी काम किया।

अब समय आ गया है कि विदेशी मदद पाने वाले सभी NGOs की नकेल कसना होगी। इन NGOs के नाम पर जो फ़र्जीवाड़ा चल रहा है वह सबको पता है, लेकिन सबके अपने-अपने स्वार्थ के कारण इन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। हाल ही में रूस ने एक कानून पास किया है और उसके अनुसार विदेशी पैसा पाने वाले NGO और अन्य संस्थाओं पर रूसी सरकार का नियन्त्रण रहेगा। पुतिन ने साफ़ समझ लिया है कि विदेशी पैसे का उपयोग रूस को अस्थिर करने के लिये किया जा रहा है, जॉर्जिया में “गुलाबी क्रांति”, यूक्रेन में “ऑरेंज क्रांति” तथा किर्गिस्तान में “ट्यूलिप क्रांति” के नाम पर अलगाववाद को हवा दी गई है। रूस में इस समय साढ़े चार लाख NGO चल रहे हैं और अमेरिकी कांग्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार इन संगठनों को 85 करोड़ डॉलर का चन्दा “रूस में लोकतन्त्र का समर्थन”(?) करने के लिये दिये गये हैं। ऐसे में भारत जैसे ढीले-ढाले देश में ये “विदेशी पैसा” क्या कहर बरपाता होगा, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। हालांकि इस प्रकार के NGO पर भारत सरकार का नियन्त्रण हो भी जाये तो कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि जब “माइनो सरकार” का पीछे से समर्थन है तो उनका क्या बिगड़ेगा?

हमेशा की तरह हमारा “सबसे तेज” सेकुलर मीडिया इस मामले को दबा गया, बतायें इस खबर को कितने लोगों ने मीडिया में देखा है? पहले भी कई बार साबित हो चुका है कि हमारा मीडिया “हिन्दू-विरोधी” है, यह उसका एक और उदाहरण है। बड़ी-बड़ी बिन्दियाँ लगाकर भाजपा-संघ के खिलाफ़ चीखने वाली महिलायें कहाँ गईं? अरुंधती रॉय, शबाना आजमी, महेश भट्ट, तरुण तेजपाल, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई आदि के फ़टे हुए मुँह क्यों नहीं खुल रहे?

अब सवाल उठता है कि जिस “गुजरात के दंगों” की “दुकान” लगाकर तीस्ता ने कई पुरस्कार हड़पे उनका क्या किया जाये? पुरस्कारों की सूची इस प्रकार है –

1) पद्मश्री 2007 (मजे की बात कि पद्मश्री बरखा दत्त को भी कांग्रेसियों द्वारा ही मिली)

2) एमए थॉमस मानवाधिकार अवार्ड

3) न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री हेलेन क्लार्क के साथ मिला हुआ डिफ़ेंडर ऑफ़ डेमोक्रेसी अवार्ड

4) न्यूरेनबर्ग ह्यूमन राईट्स अवार्ड 2003

5) 2006 में ननी पालखीवाला अवार्ड।

अब जबकि तीस्ता सीतलवाड झूठी साबित हो चुकी हैं, यानी कि ये सारे पुरस्कार ही “झूठ की बुनियाद” पर मिले थे तो क्या ये सारे अवार्ड वापस नहीं लिये जाने चाहिये? हालांकि भारत की “व्यवस्था” को देखते हुए तीस्ता का कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है, वह अपने इन नकली कामों में फ़िर से लगी रहेगी…

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चलते-चलते – क्या आपने मैसूर में हाल ही में (2 अप्रैल को) हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बारे में किसी टीवी चैनल पर कोई खबर सुनी है? मुझे विश्वास है नहीं सुनी होगी… क्योंकि मीडिया को वरुण के बहाने हिन्दुत्व को गरियाने और लालू जैसे जोकर की फ़ूहड़ हरकतों से ही फ़ुर्सत नहीं है, इसलिये यहाँ पढ़िये…
http://mangalorean.com/news.php?newstype=broadcast&broadcastid=118985


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लगभग सभी बड़े शहरों में नैनो की बुकिंग शुरु हो चुकी है, आर्थिक रूप से सक्षम लोग इसे खरीदने हेतु उतावले हो रहे हैं, जिन्हें छठा वेतनमान मिला है वे अपनी “एक्स्ट्रा इनकम” से नैनो की बुकिंग करने की जुगाड़ में हैं और जो पड़ोसियों से जलन का भाव रखते हैं वे भी खामख्वाह ही लोन लेकर कार के मालिक बनने का सपना देखने लगे हैं। मार्केटिंग और विज्ञापन की ताकत के सहारे नैनो को लेकर जो रेलमपेल मची हुई है, उस चक्कर मे कई मूलभूत सवालों को लोग भूल रहे हैं। बाज़ार और बाज़ार आधारित सरकारें तो सवालों को पहले ही दरकिनार कर चुके होते हैं, लेकिन समाज के अन्य लोग अपना फ़र्ज़ भूलकर “नैनो” की चकाचौंध में क्यों खो गये हैं?

काफ़ी लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि पहले से ही चरमराये हुए आधारभूत ढाँचे पर नैनो कितना बोझ डालेगी और क्या भारत की सड़कें और यातायात व्यवस्था नैनो को झेलने में सक्षम हैं? आप बड़े शहरों में रहने वाले हों या छोटे कस्बे में, अपने आसपास नज़र घुमाईये, क्या आपको नहीं लगता कि नैनो (अभी तो नैनो ही आई है, पीछे-पीछे कई और भी आती होंगी) आपका साँस लेना दूभर कर देगी? जो लोग नैनो की बुकिंग की कतार में खड़े हैं उनमें से कितने घरों में गैरेज नाम की वास्तु है? यानी कि नैनो आने के बाद घर के बाहर सड़क पर ही खड़ी रहेगी। आज जबकि बड़े शहरों में मल्टी-स्टोरी के नीचे की जगह भी बच्चों के खेलने के लिये नहीं छोड़ी गई है तथा छोटे शहरों में भी खेल के मैदान अतिक्रमण और भू-माफ़िया की चपेट में हैं, नैनो को कहाँ खड़ा करोगे और फ़िर बच्चों के खेलने की जगह का क्या होगा? इस बारे में कोई चिंता ज़ाहिर नहीं कर रहा, बस लगे हैं नैनो के भजन गाने में।

दुर्घटनाओं की स्थिति देखें तो भारत में सड़क दुर्घटनाओं का आँकड़ा विश्व के शीर्ष देशों में दर्ज किया जाता है, गत दशक में जिस तेजी से अमीरज़ादों की संख्या बढ़ी है और अब नैनो बाज़ार में पधार चुकी है तो फ़ुटपाथ पर सोने वालों, साइकिल चलाने वालों और पैदल चलने वालों को अतिरिक्त सावधानी बरतना ही पड़ेगी, पता नहीं कब कोई 14-15 साल का अमीरज़ादा उसे नैनो से कुचल बैठे। ऐसा लगता है कि “सार्वजनिक परिवहन प्रणाली” को एक साजिश के तहत खत्म किया जा रहा है, जिस अमेरिका की तर्ज़ पर “हर घर में एक कार” का बेवकूफ़ी भरा सपना दिखाया जा रहा है, वहाँ की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली अभी भी भारत के मुकाबले दस-बीस गुना बेहतर अवस्था में है, लेकिन अक्सर भारत के नीति-नियंता, “करते पहले हैं सोचते बाद में हैं और प्लानिंग सबसे अन्त में बनाते हैं…”। पहले अनियंत्रित जनसंख्या बढ़ा ली अब मानव संसाधन के उपयोग के बारे में सोच रहे हैं, पहले तीव्र-औद्योगिकीकरण लागू किया अब खेती के लिये ज़मीन ढूँढ रहे हैं, पहले प्रदूषण करके नदियाँ-तालाब गन्दे कर दिये अब उनकी सफ़ाई के बारे में सोच रहे हैं, पहले कारें पैदा कर दीं अब सड़कें चौड़ी करने के बारे में सोच रहे हैं… एक अन्तहीन मूर्खता है हमारे यहाँ!!! अमेरिका में तो ऑटोमोबाइल उत्पादक लॉबी और सड़क निर्माण लॉबी ने एक मिलीभगत के जरिये अपनी कारें असीमित समय तक बेचने के लिये एक कुचक्र रचा था, क्या ऐसा ही कुछ भारत में भी होने जा रहा है? मारुति द्वारा पेश किये गये आँकड़ों के मुताबिक उसने 25 साल में अभी तक 27 लाख कारें बेची हैं, वैन और अन्य मॉडल अलग से (मान लेते हैं कि कुल 40 लाख)। अब नैनो आयेगी तो मान लेते हैं कि अगले 10 साल में वह अकेले 25 लाख कारें बेच लेगी। डेढ़ अरब की आबादी में 25 लाख लोगों की सुविधा के लिये कितनों को दुविधा में डाला जायेगा? चलो माना कि नैनो रोज़गार उत्पन्न करेगी, लेकिन कितने रोज़गार? क्या कोई हिसाब लगाया गया है? नहीं…

सस्ती कारें आ गईं, लोगों के पास पैसा है, या नहीं भी है तो खरीद डालीं। अब सड़क निर्माता ठेकेदारों-कम्पनियों की लॉबी सरकार पर सड़कें चौड़ी करने के लिये दबाव डालेगी, सरकार “जनता की माँग”(???) पर बजट में अच्छी सड़कों के लिये अलग से प्रावधान करेगी। बजट में प्रावधान करेगी मतलब यह कि प्राथमिक शिक्षा और सरकारी अस्पतालों की सुविधा और बजट छीनकर “चन्द पैसे वालों” (जी हाँ चन्द पैसे वालों, क्योंकि प्राथमिक स्कूल और सरकारी अस्पतालों के उपयोगकर्ता, नैनो को खरीदने वालों की संख्या से बहुत-बहुत ज्यादा हैं) के लिये सड़कें बनवायेगी। सड़कें भी “बिल्ड-ऑपरेट-ट्रांसफ़र” (BOT) की नीति से बनाई जायेंगी, जिसमें सभी का फ़ायदा हो (ये और बात है कि “टोल नाका” कितनी दूर हो और टोल के पैसे कितने हों इस पर सरकारी नियन्त्रण कम ही होगा), कुल मिलाकर समूची लॉबी के लिये “विन-विन” की स्थिति होगी। अब भला ऐसे में सिटी बस, टेम्पो, ट्राम आदि के बारे में सोचने की फ़ुर्सत किसे है, आम जनता जिसे रोजमर्रा के काम सार्वजनिक परिवहन के भरोसे ही निपटाने हैं उसकी स्थिति भेड़-बकरी से ज्यादा न कुछ थी, न कभी होगी।

नैनो के आने से पहले ही कुछ सतर्क लोगों और “असली” जनसेवी संस्थाओं ने सरकार को कई सुझाव दिये थे, जिनमें से कुछ को तुरन्त लागू करने का समय आ गया है, जैसे – रात को घर के बाहर खड़ी किये जाने पर कार मालिक से अतिरिक्त शुल्क वसूलना, कारों की साइज़ (जमीन घेरने) के हिसाब से रोड टैक्स लगाना, चार पहिया वाहनों के रोड टैक्स में भारी बढ़ोतरी करना, पार्किंग शुल्क बढ़ाना, साइकलों के निर्माण पर केन्द्रीय टैक्स शून्य करना, कारों के उत्पादन में दी जाने वाली छूट के बराबर राशि का आबंटन सार्वजनिक परिवहन के लिये भी करना आदि। इन सब उपायों से जो राशि एकत्रित हो उसके लिये अलग से एक खाता बनाकर इस राशि का 50% हिस्सा सिर्फ़ और सिर्फ़ ग्रामीण इलाकों में सड़क निर्माण, 20% हिस्सा सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को मजबूत बनाने तथा 20% राशि प्रदूषण नियन्त्रण रोकने के उपायों में खर्च किया जाये। नैनो के दुष्प्रभाव को कम करने के लिये यह टैक्स जायज़ भी हैं। साथ ही यह तमाम शुल्क वाजिब भी हैं और नैनो या कोई अन्य कार मालिक इससे इन्कार करने की स्थिति में भी नहीं होना चाहिये, क्योंकि जब वह “हाथी” खरीदने निकला ही है तो फ़िर उसके “भोजन हेतु गन्ने” और “बाँधने की जंजीर” पर होने वाला खर्च उसके लिये मामूली है… आप क्या सोचते हैं?

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लेख के भाग-1 (यहाँ देखें) से आगे जारी…

1980 में मलप्पुरम में कई सिनेमाघरों में बम विस्फ़ोट हुए, पुलिस ने कुछ नहीं किया, केरल के उत्तरी इलाकों में गत एक दशक में कई विस्फ़ोट हो चुके हैं लेकिन पुलिस कहीं भी हाथ नहीं डाल पा रही। बेपूर बन्दरगाह पर हुए विस्फ़ोट में भी आज तक एक भी आरोपी नहीं पकड़ाया है, ज़ाहिर है कि सत्ताधारी पार्टी ही जब समर्थन में हो तो पुलिस की क्या हिम्मत। लेकिन मलप्पुरम जिले का तालिबानीकरण अब बेहद खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है, हाल ही में 25 जुलाई 2008 के बंगलोर बम विस्फ़ोटों के सिलसिले में कर्नाटक पुलिस ने नौ आरोपियों के खिलाफ़ केस दायर किया है और सभी आरोपी मलप्पुरम जिले के हैं, क्या इसे सिर्फ़ एक संयोग माना जा सकता है? 6 दिसम्बर 1997 को त्रिचूर रेल धमाके हों या 14 फ़रवरी 1998 के कोयम्बटूर धमाके हों, पुलिस के हाथ हमेशा बँधे हुए ही पाये गये हैं।

पाठकों ने गुजरात, अहमदाबाद, कालूपुर-दरियापुर-नरोडा पाटिया, ग्राहम स्टेंस, कंधमाल आदि के नाम सतत सुने होंगे, लेकिन मराड, मलप्पुरम या मोपला का नाम नहीं सुना होगा… यही खासियत है वामपंथी और सेकुलर लेखकों और इतिहासकारों की। मीडिया पर जैसा इनका कब्जा रहा है और अभी भी है, उसमें आप प्रफ़ुल्ल बिडवई, कुलदीप नैयर, अरुंधती रॉय, महेश भट्ट जैसों से कभी भी “जेहाद” के विरोध में कोई लेख नहीं पायेंगे, कभी भी इन जैसे लोगों को कश्मीर के पंडितों के पक्ष में बोलते नहीं सुनेंगे, कभी भी सुरक्षाबलों का मनोबल बढ़ाने वाली बातें ये लोग नहीं करेंगे, क्योंकि ये “सेकुलर” हैं… इन जैसे लोग “अंसल प्लाज़ा” की घटना के बारे में बोलेंगे, ये लोग नरोडा पाटिया के बारे में हल्ला मचायेंगे, ये लोग आपको एक खूंखार अपराधी के मानवाधिकार गिनाते रहेंगे, अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी रुकवाने का माहौल बनाने के लिये विदेशों के पाँच सितारा दौरे तक कर डालेंगे…। यदि इंटरनेट और ब्लॉग ना होता तो अखबारों और मीडिया में एक छोटी सी खबर ही प्रकाशित हो पाती कि “केरल के मराड में एक हिंसा की घटना में नौ लोगों की मृत्यु हो गई…” बस!!!

अब केरल में क्या हो रहा है… घबराये और डरे हुए हिन्दू लोग मुस्लिम बहुल इलाकों से पलायन कर रहे हैं, मलप्पुरम और मलाबार से कई परिवार सुरक्षित(?) ठिकानों को निकल गये हैं और “दारुल-इस्लाम” बनाने के लिये जगह खाली होती जा रही है। 580 किमी लम्बी समुद्री सीमा के किनारे बसे गाँवों में हिन्दुओं के “जातीय सफ़ाये” की बाकायदा शुरुआत की जा चुकी है। पोन्नानी से बेपूर तक के 65 किमी इलाके में एक भी हिन्दू मछुआरा नहीं मिलता, सब के सब या तो धर्म परिवर्तित कर चुके हैं या इलाका छोड़कर भाग चुके हैं। बहुचर्चित मराड हत्याकाण्ड भी इसी जातीय सफ़ाये का हिस्सा था, जिसमें भीड़ ने आठ मछुआरों को सरेआम मारकर मस्जिद में शरण ले ली थी (देखें)। 10 मार्च 2005 को संघ के कार्यकर्ता अश्विनी की भी दिनदहाड़े हत्या हुई, राजनैतिक दबाव के चलते आज तक पुलिस कोई सुराग नहीं ढूँढ पाई। मलप्पुरम सहित उत्तर केरल के कई इलाकों में दुकानें और व्यावसायिक संस्थान शुक्रवार को बन्द रखे जाते हैं और रमज़ान के महीने में दिन में होटल खोलना मना है। त्रिसूर के माथिलकोम इलाके के संतोष ने इस फ़रमान को नहीं माना और शुक्रवार को दुकान खोली तथा 9 अगस्त 1996 को कट्टरवादियों के हाथों मारा गया, जैसा कि होता आया है इस केस में भी कोई प्रगति नहीं हुई (दीपक धर्मादम, केरलम फ़ीकरारूड स्वान्थमनाडु, pp 59,60)।

पाठकों ने इस प्रकार की घटनाओं के बारे में कभी पढ़ा-सुना या टीवी पर देखा नहीं होगा, सभी घटनायें सच हैं और वीभत्स हैं लेकिन हमारा “राष्ट्रीय मीडिया”(?) जो कि मिशनरी पैसों पर पलता है, हिन्दू-विरोध से ही जिसकी रोटी चलती है, वामपंथियों और कांग्रेसियों का जिस पर एकतरफ़ा कब्जा है, वह कभी इस प्रकार की घटनाओं को महत्व नहीं देता (वह महत्व देता है वरुण गाँधी को, जहाँ उसे हिन्दुत्व को कोसने का मौका मिले)। ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जिनमें हिन्दुओं की हत्या, अपहरण और बलात्कार हुए हैं, लेकिन “सेकुलरिज़्म” के कर्ताधर्ताओं को भाजपा-संघ की बुराई करने से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती। कोट्टायम और एर्नाकुलम जिलों के जागरूक नागरिकों ने जंगलों में चल रहे सिमी के कैम्पों की जानकारी पुलिस को दी, पुलिस आई, कुछ लोगों को पकड़ा और मामूली धारायें लगाकर ज़मानत पर छोड़ दिया। इन्हीं “भटके हुए नौजवानों”(???) में से कुछ देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकवादी गतिविधियों में पकड़ाये हैं। हाल ही में मुम्बई की जेलों में अपराधियों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिये दाऊद गैंग का हाथ होने की पुष्टि आर्थर रोड जेल के जेलर ने की थी, यह तकनीक केरल में भी अपनाई जा रही है और नये-पुराने अपराधियों को धर्म परिवर्तित करके मुस्लिम बनाया जा रहा है। जब “सिमी” पर प्रतिबन्ध लग गया तो उसने नाम बदलकर NDF रख लिया, इस प्रकार विभिन्न फ़र्जी नामों से कई NGO चल रहे हैं जिनकी गतिविधियाँ संदिग्ध हैं, लेकिन कोई देखने-सुनने वाला नहीं है (दैनिक मंगलम, कोट्टायम, 9 फ़रवरी 2009)।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया “पेट्रो डॉलर” ने केरल में हिन्दू-मुस्लिम के बीच आर्थिक खाई को बहुत चौड़ा कर दिया है, खाड़ी से आये हुए हवाला धन के कारण यहाँ कई जिलों में 70% से अधिक ज़मीन की रजिस्ट्रियाँ मुसलमानों के नाम हुई हैं और हिन्दू गरीब होते जा रहे हैं। पैसा कमाकर लाना और ज़मीन खरीदना कोई जुर्म नहीं है, लेकिन “घेट्टो” मानसिकता से ग्रस्त होकर एक ही इलाके में खास बस्तियाँ बनाना निश्चित रूप से स्वस्थ मानसिकता नहीं कही जा सकती। यहाँ तक कि ज़मीन के इन सौदों में मध्यस्थ की भूमिका भी “एक खास तरह के लोग” ही निभा रहे हैं और इसके कारण हिन्दुओं और मुसलमानों में आर्थिक समीकरण बहुत गड़बड़ा गये हैं (मलयालम वारिका सम्पादकीय, Vol.VII, No.12, 25 जुलाई 2003)।

सदियों से हिन्दू गाय को माता के रूप में पूजते आये हैं, लेकिन भारत में केरल ही एक राज्य ऐसा है जिसने गौवंश के वध की आधिकारिक अनुशंसा की हुई है। सन् 2002 के केरल सरकार के आधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक उस वर्ष पाँच लाख गायों का वध किया गया और 2,49,000 टन का गौमाँस निर्यात किया गया (न्यू इंडियन एक्सप्रेस, कोचीन 13 अगस्त 2003), जबकि असली आँकड़े निश्चित रूप से और भी भयावह होते हैं। भले ही मेडिकल साइंस इसके खतरों के प्रति आगाह कर रहा हो, भले ही हिन्दू धर्माचार्य और हिन्दू नेता इसका विरोध करते रहे हों, लेकिन केरल के किसी भी मुस्लिम नेता ने कभी भी इस गौवध का खुलकर विरोध नहीं किया।

केरल के सांस्कृतिक तालिबानीकरण की शुरुआत तो 1970 में ही हो चुकी थी, जबकि केरल के सरकारी स्कूल के “यूथ फ़ेस्टिवल” में “मोप्ला गीत” (मुस्लिम) और “मर्गमकल्ली” (ईसाई गीत) को एक प्रतियोगिता के तौर पर शामिल किया गया (केरल के 53 साल के इतिहास में 49 साल शिक्षा मंत्री का पद किसी अल्पसंख्यक के पास ही रहा है)। जबकि हिन्दुओं की एक कला “कोलकल्ली” का यूनिफ़ॉर्म बदलकर “हरी लुंगी, बेल्ट और बनियान” कर दिया गया… अन्ततः इस आयोजन से सारे हिन्दू छात्र धीरे-धीरे दूर होते गये। 1960 तक कुल मुस्लिम आबादी की 10% बुजुर्ग महिलायें “परदा” रखती थीं, जबकि आज 31% नौजवान लड़कियाँ परदा /बुरका रखती हैं, सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या मुस्लिम लड़कियों में कट्टरता बढ़ रही है, या कट्टरता उन पर थोपी जा रही है? वजह जो भी हो, लेकिन ऐसा हो रहा है।

6 नवम्बर 1999 को पोप जॉन पॉल ने दिल्ली के एक केथीड्रल में कहा था कि “जिस प्रकार पहली सदी में “क्रास” ने यूरोप की धरती पर कदम जमाये और दूसरी सदी में अमेरिका और अफ़्रीका में मजबूती कायम की, उसी प्रकार तीसरी सदी में हम एशिया में अपनी फ़सल बढ़ायेंगे…”, यह वक्तव्य कोई साधारण वक्तव्य नहीं है… थोड़ा गहराई से इसका अर्थ लगायें तो “नीयत” साफ़ नज़र आ जाती है। साफ़ है कि केरल पर दोतरफ़ा खतरा मंडरा रहा है एक तरफ़ “तालिबानीकरण” का और दूसरी तरफ़ से “मिशनरी” का, ऐसे में हिन्दुओं का दो पाटों के बीच पिसना उनकी नियति बन गई है। तीन साल पहले एक अमेरिकी नागरिक जोसेफ़ कूपर ने किलीमन्नूर में एक ईसाई समारोह में सार्वजनिक रूप से हिन्दू भगवानों का अपमान किया था (उस अमेरिकी ने कहा था कि “हिन्दुओं के भगवान कृष्ण विश्व के पहले एड्स मरीज थे…”), जनता में आक्रोश भी हुआ, लेकिन सरकार ने पता नहीं क्यों मामला रफ़ा-दफ़ा करवा दिया।

कश्मीर लगभग हमारे हाथ से जा चुका है, असम भी जाने की ओर अग्रसर है, अब अगला नम्बर केरल का होगा… हिन्दू जितने विभाजित होते जायेंगे, देशद्रोही ताकतें उतनी ही मजबूत होती जायेंगी… जनता के बीच जागरूकता फ़ैलाने की सख्त जरूरत है… हम उठें, आगे बढ़ें और सबको बतायें… मीडिया के भरोसे ना रहें वह तो उतना ही लिखेगा या दिखायेगा जितने में उसे फ़ायदा हो, क्योंकि ऊपर बताई गई कई घटनाओं में से कोई भी घटना “ब्रेकिंग न्यूज़” बन सकती थी, लेकिन नहीं बनी। “नेहरूवादी सेकुलरिज़्म” की बहुत बड़ी कीमत चुका रहा है यह देश…। नेहरू की “मानस संतानें” यानी “सेकुलर बुद्धिजीवी” नाम के प्राणी भी समझ से बाहर है, क्योंकि इन्हें भारत पर और खासकर हिन्दुओं पर कभी भी कोई खतरा नज़र नहीं आता…। जबकि कुछ बुद्धिजीवी “तटस्थ” रहते हैं, तथा जब स्थिति हाथ से बाहर निकल चुकी होती है तब ये अपनी “वर्चुअल” दुनिया से बाहर निकलते हैं… ऐसे में हिन्दुओं के सामने चुनौतियाँ बहुत मुश्किल हैं… लेकिन फ़िर भी चुप बैठने से काम नहीं चलने वाला… एकता ज़रूरी है… “हिन्दू वोट बैंक” नाम की अवधारणा अस्तित्व में लाना होगा… तभी इस देश के नेता-अफ़सरशाही-नौकरशाही सब तुम्हारी सुनेंगे…

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विशेष नोट - यह लेख त्रिवेन्द्रम निवासी डॉ सीआई इसाक (इतिहास के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर) द्वारा चेन्नै में 8 मार्च 2009 को रामाकृष्णन मेमोरियल व्याख्यानमाला में दिये गये उनके भाषण पर आधारित है।


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Talibanization Kerala Congress and Communist Secularism

जब वामपंथी कहते हैं कि “धर्म एक अफ़ीम की तरह है…” तो उनका मतलब सिर्फ़ हिन्दू धर्म से होता है, मुसलमानों और ईसाईयों के सम्बन्ध में उनका यह बयान कभी नहीं आता। पश्चिम बंगाल के 22 से 24 जिलों में मुस्लिम आबादी को 50% से ऊपर वे पहले ही पहुँचा चुके हैं, अब नम्बर आया है केरल का। यदि भाजपा हिन्दू हित की कोई बात करे तो वह “साम्प्रदायिक” होती है, लेकिन यदि वामपंथी कोयम्बटूर बम विस्फ़ोटों के आरोपी अब्दुल मदनी से चुनाव गठबन्धन करते हैं तो यह “सेकुलरिज़्म” होता है, कांग्रेस यदि केरल में मुस्लिम लीग को आगे बढ़ाये तो भी यह सेकुलरिज़्म ही है, शिवराज पाटिल आर्चबिशपों के सम्मेलन में जाकर आशीर्वाद लें तो भी वह सेकुलरिज़्म ही होता है… “शर्मनिरपेक्ष” शब्द इन्हीं कारनामों की उपज है। भाजपा-संघ-हिन्दुओं और भारतीय संस्कृति को सतत गरियाने वाले ज़रा केरल की तेजी से खतरनाक होती स्थिति पर एक नज़र डाल लें, और बतायें कि आखिर वे भाजपा-संघ को क्यों कोसते हैं?

केरल राज्य की स्थापना सन् 1956 में हुई, उस वक्त हिन्दुओं की जनसंख्या 61% थी। मात्र 50 साल में यह घटकर 55% हो गई है, जबकि दूसरी तरफ़ मुस्लिमों और ईसाईयों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। हिन्दुओं की नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि दर के पीछे कई प्रकार के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक कारण हैं, लेकिन सच यही है कि केरल का तेजी से तालिबानीकरण/इस्लामीकरण हो रहा है। केरल की राजनैतिक परिस्थितियों का फ़ायदा जितनी चतुराई से इस्लामी शक्तियाँ उठा रही हैं, उतनी ही चालाकी से मिशनरी भी उठा रही है। जनसंख्या के कारण वोटों का सन्तुलन इस प्रकार बन चुका है कि अब कांग्रेस और वामपंथी दोनों को “मेंढक” की तरह “कभी इधर कभी उधर” फ़ुदक-फ़ुदक कर उन्हें मजबूत बना रहे हैं।

केरल के बढ़ते तालिबानीकरण के पीछे एक कारण है “पेट्रो डॉलर” की बरसात, जो कि वैध या अवैध हवाला के जरिये बड़ी मात्रा में प्रवाहित हो रहा है। मिशनरी और मुल्लाओं को मार्क्सवादियों और कांग्रेस का राजनैतिक सहारा तो है ही, हिन्दू जयचन्दों और “सेकुलर बुद्धिजीवियों” का मानसिक सहारा भी है। जैसे कि एक मलयाली युवक जिसका नाम जावेद “था” (धर्म परिवर्तन से पहले उसका नाम प्रणेश नायर था) जब गुजरात के अहमदाबाद में (15 नवम्बर 2004 को) पुलिस एनकाउंटर में मारा गया और यह साबित हो गया कि वह लश्कर के चार आतंकवादियों की टीम में शामिल था जो नरेन्द्र मोदी को मारने आये थे, तब भी केरल के “मानवाधिकारवादियों” (यानी अंग्रेजी बुद्धिजीवियों) ने जावेद(?) को हीरो और शहीद बताने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। लेकिन जब हाल ही में कश्मीर में सुरक्षा बलों के हाथों मारे गये चार युवकों के पास से केरल के मतदाता परिचय पत्र मिले तब इन “सेकुलरिस्टों” के मुँह में दही जम गया।

केरल के तालिबानीकरण का इतिहास तो सन् 1921 के मोप्ला दंगों से ही शुरु हो चुका है, लेकिन “लाल” इतिहासकारों और गठबंधन की शर्मनाक राजनीति करने वाली पार्टियों ने इस सच को दबाकर रखा और इसे “सिर्फ़ एक विद्रोह” कहकर प्रचारित किया। “मोप्ला” के दंगों और हिन्दुओं के नरसंहार पर विस्तार से खबर देखने के लिये यहाँ क्लिक करें। एनीबेसेण्ट जैसी विदुषी महिला ने अपनी रिपोर्ट (29 नवम्बर 1921) में कहा था - ..The misery is beyond description. Girl wives, pretty and sweet, with eyes half blind with weeping, distraught with terror; women who have seen their husbands hacked to pieces before their eye, in the way "Moplas consider religious", old women tottering, whose faces become written with anguish and who cry at a gentle touch and a kind look, waking out of a stupor of misery only to weep, men who have lost all, hopeless, crushed, desperate. ..... I have walked among thousands of them in refugee camps, and sometimes heavy eyes would lift as a cloth was laid gently on the bare shoulder, and a faint watery smile of surprise would make the face even more piteous than the stupor.

तथा तत्कालीन कालीकट जिला कांग्रेस कमेटी के सचिव माधवन नायर ने रिपोर्ट में लिखा है - Can you conceive of a more ghastly and inhuman crime than the murder of babies and pregnant women? ... A pregnant woman carrying 7 months was cut through the abdomen by a rebel and she was seen lying dead with on the way with the dead child projecting out ... Another baby of six months was snatched away from the breast of the mother and cut into two pieces. ... Are these rebels human beings or monsters?

जबकि आंबेडकर, जो कि उच्च वर्ग के प्रति कोई खास प्रेम नहीं रखते थे, उन्होंने भी इस तथाकथित “खिलाफ़त” आन्दोलन के नाम पर चल रही मुस्लिम बर्बरता के खिलाफ़ कड़ी आलोचना की थी। अम्बेडकर के अनुसार “इस्लाम और भारतीय राष्ट्रीयता को समरस बनाने के सारे प्रयास विफ़ल हो चुके हैं… भारतीय संस्कृति के लिये इस्लाम “शत्रुतापूर्ण और पराया” है…”, लेकिन फ़िर भी गाँधी ने इस “बर्बर हत्याकाण्ड और जातीय सफ़ाये” की निंदा तो दूर, एक शब्द भी इसके खिलाफ़ नहीं कहा… मुस्लिमों को शह देकर आगे बढ़ाने और हिन्दुओं को सतत मानसिक रूप से दबाने का उनका यह कृत्य आगे भी जारी रहा… जिसके नतीजे हम आज भी भुगत रहे हैं…। तात्पर्य यह 1921 से ही केरल का तालिबानीकरण शुरु हो चुका था…

हद तो तब हो गई जब फ़रवरी 2005 में CPM (Communal Politicians of Marx) ने वरियमकुन्नाथु कुन्जाअहमद हाजी को एक महान कम्युनिस्ट योद्धा और शहीद का दर्जा दे दिया। उल्लेखनीय है कि ये हाजी साहब 1921 के मलाबार खिलाफ़त आंदोलन में हजारों मासूम हिन्दू औरतों और बच्चों के कत्ल के जिम्मेदार माने जाते हैं, यहाँ तक कि “मुस्लिम लीग” भी इन जैसे “शहीदों”(?) को अपना मानने में हिचकिचाती है, लेकिन “लाल” झण्डे वाले इनसे भी आगे निकले।

अक्सर देखा गया है कि जब भी कोई हिन्दू व्यक्ति धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बन जाता है तो उतना हो-हल्ला नहीं होता, भाजपा-संघ यदि हल्ला करें भी तो उन्हें “साम्प्रदायिक” कहकर दबाने की परम्परा रही है, लेकिन जब कोई मुस्लिम व्यक्ति हिन्दू धर्म स्वीकार कर ले तब देखिये कैसा हंगामा होता है और “वोट बैंक के सौदागर” और दूसरों (यानी हिन्दुओं) को उपदेश देने वाले बुद्धिजीवी कैसे घर में घुसकर छुप जाते हैं। इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं (ताजा मसला चांद-फ़िजा तथा इससे पहले कोलकाता का रिज़वान हत्या प्रकरण, जिसमें मुस्लिम से हिन्दू बनने पर हत्या तक हो गई)। लेकिन इस कथित “शांति का संदेश देने वाले” और “सभ्य” इस्लाम के अनुयायियों ने केरल में 1946 में ही उन्नियन साहब (मुस्लिम से हिन्दू बनने के बाद उसका नाम “रामासिंहम” हो गया था) और उनके परिवार की मलाबार इलाके के मलप्पुरम (बहुचर्चित मलप्पुरम हत्याकाण्ड) में सरेआम हत्या कर दी थी, क्योंकि “रामासिम्हन” (यानी उन्नियन साहब) ने पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया था। उस समय भी इन तथाकथित प्रगतिशील वामपंथियों ने पुलिस की जाँच को विभिन्न तरीके अपनाकर उलझाने की भरपूर कोशिश की थी ताकि असली मुजरिम बच सकें (EMS के चुनिंदा लेख (Vol.II, pp 356-57) और इनके तत्कालीन नेता थे महान वामपंथी ईएमएस नम्बूदिरिपाद। केरल की ये पार्टियाँ आज 60 साल बाद भी मुस्लिम तुष्टिकरण से बाज नहीं आ रही, बल्कि और बढ़ावा दे रही हैं।

हिन्दू विरोध धीरे-धीरे कम्युनिस्टों का मुख्य एजेण्डा बन गया था, 1968 में इसी नीति के कारण देश में एक “शुद्ध मुस्लिम जिले” मलप्पुरम का जन्म हुआ। आज की तारीख में यह इलाका मुस्लिम आतंकवाद का गढ़ बन चुका है, लेकिन देश में किसी को कोई फ़िक्र नहीं है। केरल सरकार ने मलप्पुरम जिले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा खोलने के लिये 24 एकड़ की ज़मीन अधिगृहीत की है, जिसे 1000 एकड़ तक बढ़ाने की योजना है, ताकि राज्य में जमात-ए-इस्लामी का “प्रिय” बना जा सके (अब आप सिर धुनते रहिये कि जब पहले से ही जिले में कालीकट विश्वविद्यालय मौजूद है तब उत्तरप्रदेश से हजारों किमी दूर अलीगढ़ मुस्लिम विवि की शाखा खोलने की क्या तुक है, लेकिन भारत में मुस्लिम वोटों के लिये “सेकुलरिज़्म” के नाम पर कुछ भी किया जा सकता है), भले ही केरल की 580 किमी की समुद्री सीमा असुरक्षित हो, लेकिन इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण कामों पर पैसा खर्च किया जा रहा है।

(भाग-2 में जारी रहेगा…)

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पश्चिमी देशों से भारत की विभिन्न धर्मादा संस्थाओं को दान में लाखों रुपये मिलना कोई नई बात नहीं है। भारत सरकार द्वारा इस प्रकार की सामाजिक, धार्मिक संस्थाओं, NGO आदि को विदेश से मिलने वाली मदद प्राप्त करने के लिये विशेष कानून भी बनाया हुआ है। आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरु होने से भी पहले भारत के कई संगठनों को विदेश से चन्दे में रकम प्राप्त होती रही है, जो कि धीरे-धीरे बढ़ती ही गई है।

हमें अक्सर उड़ीसा, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल आदि राज्यों में मिशनरी द्वारा धर्मान्तरण की खबरें सुनाई देती हैं, “संघी” लोग हो-हल्ला मचाते हैं, एकाध स्वामी जी हत्या होती है, सरकारें जाँच का नाटक करती हैं, फ़िर लोग हमेशा की तरह जल्दी ही सब भूल जाते हैं, लेकिन ऐसी घटनायें रह-रहकर होती हैं। इसी प्रकार देश में विभिन्न मदरसों, जमातों और अन्य मुस्लिम सामाजिक संस्थाओं को खाड़ी देशों और ईरान, लीबिया आदि देशों से पैसा सतत आता है। रह-रहकर सवाल उठता है कि आखिर ये अमीर पश्चिमी देश भारत जैसे देश में लाखों-करोड़ों डालर का चन्दा क्यों भेजते हैं? क्या इसलिये कि भारत एक गरीब देश है? लेकिन क्या उन देशों में गरीब नहीं पाये जाते? और चन्दे-दान-मदद के रूप में इतनी बड़ी राशि देने के बाद क्या ये देश उसे भूल जाते हैं? क्या अपने दिये हुए करोड़ों रुपये की उपयोगिता और उसके परिणाम (OUTPUT) के बारे में बिलकुल भी पूछताछ या चिन्ता नहीं करते? ऐसा तो हो नहीं सकता, क्योंकि जो भी दान दे रहा होगा, कम से कम वह उसके बारे में “अपेक्षा” तो रखेगा ही कि आखिर जिस “काम” के लिये वह चन्दा दे रहा है, वह “काम” ठीक से हो रहा है या नहीं।

हाल ही में एक पत्रकार संजीव नैयर ने सन् 2006-07 से अब तक भारत में आये हुए कुल आधिकारिक विदेशी धन, उसके स्रोत, धन पाने वाली संस्थाओं और क्षेत्रों का अध्ययन किया और उसके नतीजे बेहद चौंकाने वाले रहे। उन्होंने भारत सरकार की विदेशी मदद और चन्दे सम्बन्धी आधिकारिक वेबसाईट (यहाँ देखें) से आँकड़े लिये और उनका विश्लेषण किया। भारत में आये हुए विदेशी चन्दे में सबसे बड़ा हिस्सा अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली और स्पेन से आता है। आईये संक्षेप में देखें इस विदेशी मदद का गोरखधंधा, शायद आपकी आँखें भी फ़टी की फ़टी रह जायें –

1) 1993-94 से 2006-07 के बीच भारत में कुल 64,670 करोड़ रुपये का विदेशी चन्दा आया (यह आँकड़ा रजिस्टर्ड संस्थाओं द्वारा आधिकारिक रूप से प्राप्त चन्दे का है)।

2) 1993 में विदेशी चन्दा आया था 1865 करोड़ रुपये जबकि 2007 में आया 12990 करोड़ रुपये, यानी कि 650% की बढ़ोतरी… (क्या इसका अर्थ ये लगाया जाये कि 1993 के बाद भारत में गरीबों की संख्या में भारी बढ़त हुई है?)

3) जितनी संस्थायें 1997 में विदेशी चन्दे का हिसाब देती थीं और जितनी संस्थाएं 2006 में हिसाब देती हैं उनका प्रतिशत 66% से घटकर 56% हो गया है। इसका साफ़ मतलब यह है कि 12990 करोड़ का जो आँकड़ा है वह वास्तविकता से बहुत कम है और कई संस्थाएं झूठ बोल रही हैं।

4) गत पाँच वर्ष से जब से माइनो आंटी सत्ता में आई हैं, विदेशी मदद का प्रतिशत 100% से भी अधिक बढ़ा है।

5) सर्वाधिक चन्दा लेने वाली संस्थायें “संयोग से” (???) ईसाई मिशनरी हैं, जिन्हें अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन से 2002-2006 के दौरान क्रमशः 10,589 करोड़, 5233 करोड़ और 4612 करोड़ रुपये मिले हैं। पश्चिमी देशों से अधिक चन्दा प्राप्त करने में अपवाद है दलाई लामा का धर्मशाला स्थित दफ़्तर।

6) विदेशी चन्दा प्राप्त करने में अव्वल नम्बर हैं तमिलनाडु, दिल्ली, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र… (यानी कि “एक और संयोग” कि यहाँ भी 4-5 साल से UPA सत्ता में है)।

7) तमिलनाडु को सन् 2002 में 775 करोड़ का विदेशी चन्दा मिला था जबकि 2006 में 2244 करोड़ रुपये, “संयोग” से 200% की भारी-भरकम बढ़ोतरी।

8) विदेशी मददगारों(?) की लिस्ट में मुस्लिम देशों से कोई भी उल्लेखनीय नाम नहीं मिलता अर्थात या तो वे बेहद ईमानदार हैं या फ़िर “हवाला रूट” का उपयोग करते हैं।

2006-07 के टॉप 6 दानदाता संस्थायें और देश –

1) Misereor Postfach, Germany – 1244 करोड़ रुपये

2) World Vision (Gospel for Asia), USA – 469 करोड़ रुपये

3) Fundacion Vincente Ferrer, Spain – 399 करोड़ रुपये

4) ASA Switzerland – 302 करोड़ रुपये

5) Gospel For Asia – 227 करोड़ रुपये…

6) M/s Om Foundation, USA - 227 करोड़ रुपये

इनमें से सिर्फ़ ओम फ़ाउंडेशन यूएस, का नाम हिन्दू संगठन जैसा लगता है जिन्होंने दलाई लामा को चन्दा दिया है, बाकी सारी संस्थायें ईसाई मिशनरी हैं। ये तो हुई टॉप 6 दानदाताओं की आधिकारिक सूची, अब देखते हैं टॉप 6 विदेशी मदद(?) पाने वाली संस्थाओं की सूची –

2003-2006 के दौरान कुल विदेशी चन्दा लेने वाली टॉप 6 संस्थाओं की सूची –

1) Ranchi Jesuits, Jharkhand – 622 करोड़

2) Santhome Trust of Kalyan, Maharashtra – 333 करोड़

3) Sovereign Order of Malta, Delhi – 301 करोड़ रुपये

4) World Vision of India, Tamil Nadu – 256 करोड़ रुपये (इस संस्था पर “सुनामी” विपदा के दौरान भी गरीबों और बेघरों को पैसा देकर धर्मान्तरण के आरोप लग चुके हैं)

5) North Karnataka Jesuit Charitable Society – 230 करोड़ रुपये (अपुष्ट सूत्रों के मुताबिक विवादास्पद पुस्तक छापने पर चर्च-विहिप विवाद, में शामिल ईसाई संस्था इसकी Subsiadiary संस्था है)

6) Believers Church India, Kerala – 149 करोड़ रुपये।

यह तमाम डाटा भारत सरकार के FCRA रिपोर्ट पर आधारित है, हो सकता है कि इसमें कुछ मामूली गलतियाँ भी हों…। भारत में गत कुछ वर्षों से असली-नकली NGO की बाढ़ सी आई हुई है, इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि NGO का “मुखौटा” लगाये हुए ये संस्थायें किसी “गुप्त खतरनाक खेल” में लिप्त हों। जब सूचना का अधिकार लागू किया गया था उसी समय यह माँग उठी थी कि इस कानून के दायरे में सभी प्रकार के NGO को भी लाया जाये, ताकि सरकार की नज़र से बचकर जो भी “काले-सफ़ेद काम” NGO द्वारा किये जा रहे हैं उन्हें समाजसेवियों द्वारा उजागर किया जा सके, हालांकि हाल ही में सुनने में आया है कि सूचना अधिकार का यह कानून NGO पर भी लागू है, लेकिन अभी इस सम्बन्ध में कई बातों पर स्थिति अस्पष्ट है।

अब यह पाठकों पर निर्भर करता है कि वे इन आँकड़ों को वे किस सन्दर्भ में लेते हैं, इनका क्या मतलब निकालते हैं, लेकिन यह भी सच है कि गत 15 वर्षों में उत्तर-पूर्व में भी धर्मान्तरण को लेकर आये दिन विवाद होते रहे हैं, उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों में 1947 से 2007 के बीच ईसाई जनसंख्या में भारी बढ़ोतरी हो चुकी है तथा कहीं-कहीं मूल आदिवासी आबादी “अल्पसंख्यक” बन चुकी है। यह स्थिति असम के कई जिलों में भी आ चुकी है, जहाँ मुस्लिम धर्मान्तरण और बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण हिन्दू आबादी अल्पसंख्यक हो गई है…और सरेआम पाकिस्तानी झण्डे लहराये जा रहे हैं।

वैसे भी ये आँकड़े “शर्मनिरपेक्ष” नामक बेशर्मों के लिये नहीं हैं और न ही “कमीनिस्ट” नामक (यहाँ एक असंसदीय शब्द मन ही मन पढ़ा जाये) के लिये…

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एक सामान्य आम आदमी को दैनिक “व्यवहारों” में 1000 और 500 के नोटों की कितनी आवश्यकता पड़ती होगी? सवाल वैसे कुछ मुश्किल नहीं है क्योंकि भारत की 70% जनता की रोज़ाना की आय 50 रुपये से भी कम है। अब दूसरा पक्ष देखिये कि वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था के “ट्रांज़ेक्शन” में 92% नोट 50 रुपये से ऊपर के हैं, यानी कि सिर्फ़ 8% करंसी नोट (100 रुपये से कम वाले) ऐसे हैं जिनसे 70% से अधिक जनता को अपना रोज़मर्रा का काम करना है।

आजकल बैंकें प्रतिस्पर्धा के दौर में हैं और उनमें खाते खुलवाने की होड़ मची हुई है, यह तो बड़ी अच्छी बात है… लेकिन बैंक उस बचत खाते के साथ ATM कार्ड भी पकड़ा देती हैं। यह ATM की सुविधा है तो बड़ी अच्छी लेकिन जो समस्या ऊपर बताई है वही यहाँ भी है, यह जादुई मशीन भी सिर्फ़ 100 और 500 के नोट उगलती है। शायद बैंक सोचती होगी कि जब इसके पास बचत खाता है और ATM कार्ड भी है तो इसकी औकात भी कम से कम 100 रुपये खर्च करने की तो होगी ही। मुझे पता नहीं कि आजकल भारत में कितने लोगों को 100 रुपये से अधिक के नोटों की, दिन में कितनी बार आवश्यकता पड़ती है, लेकिन सच तो यही है कि बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल्स, वातानुकूलित सब्जी मार्केट और क्रेडिट कार्ड अभी फ़िलहाल भारत के 5% लोगों की ही पहुँच में हैं। भारत की बाकी 95% जनता निम्न-मध्यमवर्गीय लोग हैं जिनका वास्ता ठेले वाले, सब्जी वाले, प्रेस के लिये धोबी, सुबह-सुबह ब्रेडवाले आदि लोगों से पड़ता है, जिनके पास 100 का नोट “बड़ा” नोट माना जाता है।

अमेरिका की प्रति व्यक्ति वार्षिक औसत आय लगभग 40,000 (चालीस हजार) डॉलर है और वहाँ का सबसे बड़ा सामान्य नोट 100 डॉलर का है अर्थात 400 और 1 का अनुपात (400 : 1), दूसरी तरफ़ भारत में प्रति व्यक्ति वार्षिक औसत आय लगभग 30,000 रुपये है और सबसे बड़ा नोट 1000 रुपये का है यानी कि 30 और 1 का अनुपात (30 : 1)… और भारत में काले धन तथा भ्रष्टाचार के मूल में स्थित कई कारणों में से यह एक बड़ा कारण है। बड़े नोटों की सुगमता के कारण भारत में अधिकतर लेन-देन नगद में होता है और यही व्यवहार काले धन का कारण बनता है। अब कल्पना करें कि, यदि भारत सरकार 50 रुपये का नोट ही अर्थव्यवस्था में “सबसे बड़ा नोट” माने और इसके ऊपर के सभी नोट बन्द कर दिये जायें। ऐसे में यदि किसी व्यक्ति को दो लाख रुपये की रिश्वत देनी हो (जो कि आजकल भारत जैसे भ्रष्ट देश में छोटे-मोटे सौदे में ही दे दी जाती है) तो उसे 50 रुपये के नोटों की चालीस गड्डियाँ ले जाना होंगी, जो कि काफ़ी असुविधाजनक होगा, जबकि इतनी ही रिश्वत, 1000 के नोट की दो गड्डियाँ बनाकर आराम से जेब में रखकर ले जाई जाती है। यदि पाकिस्तानी आतंकवादियों को नकली नोट छापना ही हो तो उन्हें 50 के कितने नोट छापने पड़ेंगे? कहने का तात्पर्य यह कि जो बहुसंख्यक जनता अपना जीवन-यापन 50 रुपये रोज से कम में कर रही है, उसे सुविधा देने की बजाय रिश्वतखोर पैसे वाले “अल्पसंख्यक” जनता को 1000 के नोट की सौगात दी गई है। बड़े नोटों से सबसे ज्यादा तकलीफ़ छोटे व्यापारियों, फ़ुटकर धंधा करने वालों और खोमचे-रेहड़ी वालों को होती है, अव्वल तो उसे कभी-कभार ही 1000 या 500 का नोट देखने को मिलेगा (माना जाता है कि देश की 70 प्रतिशत से ज्यादा जनता ने 1000 के नोट को आज तक हाथ नहीं लगाया होगा)। फ़िर वह तनाव में आ जायेगा कि ये नोट “असली है या नकली”, इस समस्या से निपटते ही उसे और बड़ी समस्या होती है कि इसके छुट्टे कैसे करवाये जायें क्योंकि किसी ग्राहक ने 20 रुपये की सब्जी खरीदने के लिये 500 का नोट दिया है, किसी ने 8 रुपये की फ़ोटोकापी के लिये 100 का नोट दिया है, किसी ने 6 रुपये की ब्रेड खरीदने के लिये 100 का नोट दिया है… उस व्यक्ति को भी ATM से 100 या 500 का ही नोट मिला है, यदि 50 से बड़ा नोट ही ना हो तो गरीबों को थोड़ी आसानी होगी। जैसा कि पहले ही कहा गया कि देश में उपलब्ध कुल नोटों में से 8% नोटों का चलन 70% से अधिक जनता में हो रहा है… ज़ाहिर है कि परेशानी और विवाद होता ही है। बैंक कर्मचारी तो इतने “रईस” हो गये हैं कि दस-दस के नोटों की गड्डी देखकर उनके माथे पर बल पड़ जाते हैं, न तो बगैर मुँह टेढ़ा किये लेते हैं, ना ही देते हैं। ऐसे में वह व्यक्ति कहाँ जाये, जिसका दिन भर का आर्थिक व्यवहार ही 10-20-50 के नोटों में होना है और हमेशा ही होना है।

भ्रष्टाचार और काले धन के प्रवाह को रोकने हेतु हाल ही में दो सुझाव सामने आये हैं - 1) 50 रुपये से बड़े नोटों को रद्द किया जाये तथा 2) 2000 रुपये से ऊपर के सभी लेन-देन या खरीदी-बिक्री को चेक, क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड अथवा इलेक्ट्रानिक ट्रांसफ़र आदि तरीके से करना अनिवार्य कर दिया जाये। हालांकि उपाय क्रमांक 2 को अपनाने में थोड़ा समय लग सकता है, लेकिन उसकी प्रक्रिया शुरु हो चुकी है। आज की तारीख में येन-केन-प्रकारेण लगभग 50 से 70 प्रतिशत भारतीयों के पास (भले ही मजबूरी में ही सही) खुद का कम से कम एक बैंक खाता (सेविंग) हो चुका है। भारत में फ़िलहाल 80% आर्थिक व्यवहार नगद में होता है, जबकि इसके ठीक विपरीत पश्चिमी और विकसित देशों में 90% से अधिक कारोबार और व्यवहार बैंक के माध्यम से होता है। अमेरिका ने अल-कायदा के अधिकतर लेन-देन और अवैध मुद्रा के प्रवाह में कमी लाने में सफ़लता हासिल कर ली है, जबकि भारत में नेपाल और बांग्लादेश के रास्ते आराम से वैध-अवैध नोटों की तस्करी जारी है। भारत में 50 रुपये से ऊपर के नोट ही रद्द हो जायेंगे, तब एके-47 और अन्य हथियारों का लेन-देन भी ड्रग्स या सोने के बदले में करना पड़ेगा, देश में छुपे आतंकवादियों को “खर्चे-पानी” के लिये भी इन्हीं नोटों पर निर्भर रहना पड़ेगा, और 2000 रुपये से ज्यादा खर्चा करें तो कहीं न कहीं किसी सरकारी नेटवर्क में पकड़ में आने की काफ़ी उम्मीद रहेगी।

इसी प्रकार भारत में जब 2000 रुपये से अधिक के सभी लेनदेन बैंक के मार्फ़त होना तय हो जायेगा तब जेब में अधिक नोट रखने की आवश्यकता भी समाप्त हो जायेगी। हालांकि यह तभी हो सकता है जब भारत की अधिकांश जनता के पास बैंक खाता हो तथा सामान्य आय वाले हर व्यक्ति के पास चेक-बुक, डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड आदि हों। लगभग सभी बैंकें धीरे-धीरे अपना-अपना CBS नेटवर्क तैयार कर चुकी हैं या कर रही हैं, ऐसे में यह दो उपाय करने पर काले धन के प्रवाह को रोकने में काफ़ी मदद मिलेगी… ज़रा कल्पना कीजिये कि वह कैसा नज़ारा होगा कि सरकार अचानक घोषित कर दे कि कल से 500 और 1000 के नोट बन्द किये जा रहे हैं, जिसके पास जितने भी हों अगले एक महीने में बैंक में जमा करवा दें… उतना अमाउंट उनके बैंक खाते में डाल दिया जायेगा… जिसे “पैन कार्ड” से संलग्न किया जा चुका है… (हार्ट अटैक की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि होगी)।

काले धन और भ्रष्टाचार को रोकने हेतु समय-समय पर विभिन्न संस्थाओं/व्यक्तियों द्वारा सुझाव दिये जाते हैं, जैसे कि “आयकर” की बजाय “व्ययकर” लगाना आदि। उपरोक्त लेख में सुझाये गये दोनों सुझावों में कई व्यावहारिक दिक्कतें हो सकती हैं जैसे 50 की बजाय 100 का नोट अधिकतम, तथा नगद खर्च की सीमा 2000 की बजाय 5000 भी की जा सकती है… इन दिनों स्विस बैंकों में जमा काले धन पर भी बहस चल रही है, बहरहाल इन दो-तीन सुझावों पर भी अर्थशास्त्रियों में बहस और विचार-विमर्श जरूरी है… आप क्या सोचते हैं…?


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