desiCNN - Items filtered by date: अक्टूबर 2008
Hindu Organizations and Hindu Bashing for General Elections in India
मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी ने जब “राष्ट्रीय अनेकता परिषद” में सांप्रदायिकता का राग अलापा था उससे भी पहले से कांग्रेस में आत्ममंथन का दौर शुरु हो चुका था। आतंकवाद काबू में नहीं आ रहा, महंगाई आसमान छू रही है, शेयर मार्केट तलछटी में बैठ गया है, नौकरियाँ छिन रही हैं, केन्द्र की कांग्रेस सरकार जैसे-तैसे अमरसिंह जैसों के सहारे पर अपने दिन काट रही है। ऐसे में कांग्रेस और “सेकुलरों” को चिंता खाये जा रही है अगले आम चुनावों की। उन्हें भाजपा के सत्ता में लौटने का खतरा महसूस हो रहा है, इसलिये यह तय किया गया है कि पहले चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को पटखनी दी जाये और फ़िर लोकसभा के चुनावों में उतरा जाये।

“अनेकता परिषद” में जानबूझकर आतंकवाद का मुद्दा ठंडे बस्ते में डाल दिया गया, लेकिन “सांप्रदायिकता” पर जमकर हल्ला मचाया गया, उसी समय आभास हो गया था कि अब चुनाव सिर पर आ गये हैं और कांग्रेस, “सेकुलर” तथा उनकी कठपुतली मीडिया सभी एक सुर में हिन्दुओं, हिन्दुत्व और हिन्दू संघटनों पर हमला करने वाले हैं। हवा में अचानक एक शब्द सुनाई देने लगा है, “हिन्दू आतंकवाद”, साध्वी प्रज्ञा सिंह और उनके साथी गिरफ़्तार किये गये, फ़िर खबरें छापी जाने लगी हैं कि “हिन्दू कट्टरपंथियों को भी विदेशों से बड़ी मात्रा में धन मिलता रहा है…”, विश्व हिन्दू परिषद पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग भी जोर-शोर से उठने लगी है, कहने का तात्पर्य यह है कि बीते एक महीने में ही केन्द्र की कांग्रेस सरकार अचानक सक्रिय हो गई है, कानून-व्यवस्था चाक-चौबन्द करने के लिये कमर कसने लगी है, हिन्दुओं को बदनाम करने की साजिश शुरु हो चुकी है। यह सब आने वाले आम चुनावों का भय है और कुछ नहीं… इसलिये आने वाले अगले छह माह हिन्दुओं के लिये बेहद अपमानजनक और हिन्दूवादी संगठनों के लिये परीक्षा की घड़ी साबित होने वाले हैं।



सभी को याद होगा कैसे गत गुजरात चुनावों के ऐन पहले सारा का सारा बिका हुआ मीडिया नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ जहर उगलने लगा था, लगभग 3-4 माह तक लगातार नरेन्द्र मोदी को, उनकी नीतियों को, अहमदाबाद के दंगों को, भाजपा को, प्रवीण तोगड़िया को, संघ को सोच-समझकर निशाना बनाया गया था। NDTV जैसे “सेकुलर”(?) चैनल लगातार अपने-अपने महान पत्रकारों को गुजरात भेजकर नकली रिपोर्टिंग करवाते रहे, जब नतीजा सामने आया और मोदी भारी बहुमत से फ़िर मुख्यमंत्री बन गये तो सभी लोग वापस अपने-अपने बिलों में घुस गये। लगभग यही रणनीति इन चार विधानसभा चुनावों के पहले से ही शुरु कर दी गई है, और “हिन्दू आतंकवाद” नाम का शब्द इसी बड़ी रणनीति का हिस्सा है। बटला हाऊस पर मंडराते गिद्धों से आतंकित कांग्रेस ने मुस्लिम वोटों को गोलबन्द करने के लिये “गुजरात पैटर्न” पर काम करने का फ़ैसला लिया है। कौन कहता है कि “सिमी” और “अल-कायदा” का नेटवर्क बहुत मजबूत है? उस नेटवर्क से ज्यादा मजबूत है कांग्रेस-सेकुलर-मानवाधिकारवादी-मीडिया का मिलाजुला नेटवर्क… यकीन नहीं आता हो अगले कुछ ही दिनों में आपको इस नेटवर्क का असर महसूस होने लगेगा, शुरुआत की जा चुकी है, इलेक्ट्रानिक मीडिया, अखबार, ब्लॉग आदि के सहारे हिन्दुओं और हिन्दुत्ववादियों जमकर गरियाया जायेगा, उन्हें “जंगली बहुसंख्यक”, “आततायी”, “कट्टर”, “भेड़िये” आदि के खिताब दिये जायेंगे। मीडिया में चारों ओर “अल्पसंख्यकों पर अत्याचार” के किस्से आम हो जायेंगे, किसी बड़े हिन्दू संत या महात्मा के चरित्र पर कीचड़ या उनके बारे में कोई दुष्प्रचार किया जायेगा, आडवाणी, मोदी, विहिप, संघ आदि के बारे में अनाप-शनाप खबरें अखबारों में “प्लांट” की जाने लगेंगी… गरज कि सारे के सारे हथकण्डे अपनाये जायेंगे। NDTV, CNN-IBN, Times समूह जैसे “सेकुलर” मीडिया से कांग्रेस का मजबूत गठबंधन होने का जमकर फ़ायदा उठाया जायेगा। अफ़ज़ल गुरु को गोद में लेकर बैठने वाली कांग्रेस, भाजपा को पाठ पढ़ायेगी, सिंगूर-नन्दीग्राम में बेकसूरों को भूनने वाले वामपंथी नरेन्द्र मोदी को विकास पर लेक्चर देने लग जायेंगे, राज ठाकरे जैसे क्षुद्र स्वार्थी छुटभैये नेता कांग्रेस की छत्रछाया में मिलाजुला गेम खेलेंगे, और यदि किसी को यह सब कपोल-कल्पना मात्र लग रही हो तो वह जल्दी ही इसे वास्तविकता में बदलता हुआ देख लेगा। कांग्रेस के लिये यह आने वाले 6 महीने बहुत-बहुत महत्वपूर्ण हैं, उसके अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह लगने का खतरा मंडरा रहा है, ऐसे में वह “हर जरूरी” घटिया राजनैतिक कदम अवश्य उठायेगी, वरना आज कांग्रेस अकेले के दम पर सिर्फ़ आंध्रप्रदेश, हरियाणा और असम में है, हो सकता है कि कल ये भी ना रहे।

लेकिन आखिर में सभी को जनता के पास ही आना है, कोई कितने ही प्रयास कर ले आखिरी फ़ैसला तो जनता को ही करना है, हिन्दुओं के सामने विकल्प बहुत ही सीमित हैं। हालांकि जब 60 साल में कांग्रेस को पूरे देश से धकियाकर सिर्फ़ तीन-चार राज्यों में सीमित कर दिया गया है तो हो सकता है कि अगले 40 साल में कांग्रेस का कोई नामलेवा ही न रहे। 2 अक्टूबर को गाँधी जयन्ती के अवसर पर निकलने वाली प्रभात फ़ेरी में इस बार कुल 13 कांग्रेसी थे, जबकि 15-20 दिन बाद दशहरे पर निकलने वाले संघ के पथसंचलन में 130 बाल-सेवक और 1300 स्वयंसेवक ही थे। हिन्दुओं को विचारधारा का यह विशाल अन्तर लगातार और निरन्तर बनाये रखना होगा, जमीनी स्तर पर अपना काम करते रहना होगा, जिस तरह वक्त आने पर “मीडिया प्रायोजित दुष्प्रचार” को गुजरात की जनता ने जवाब दिया, वैसा ही जवाब आने वाले लोकसभा चुनाव में जनता दे तभी कोई बात बनेगी। देश को जितना बड़ा खतरा आतंकवादियों या जेहादियों से नहीं है, उतना अपने ही बीच में सेकुलर के भेष में बैठे हुए “घर के भेदियों” से है। अंग्रेजी का एक शब्द है “Enough is Enough”, तो अब भारत का स्वाभिमान जगाने तथा उसे “इंडिया” से “भारत” बनाने का समय आ रहा है… लेकिन उसके लिये सबसे पहले हिन्दुओं का एकजुट होना जरूरी है, और कुछ ताकतें इसके लिये काम करने वाले संगठनों को तोड़ना-मरोड़ना चाहती हैं…

एक बार पहले भी दीवाली के दिन ही शंकराचार्य को गिरफ़्तार करके एक खेल खेला गया था, अब भी दीवाली से ही “अनर्गल प्रचार” नाम का खेल शुरु किया गया है… सो अगले 6 माह के लिये इन “जयचन्दों” की गालियों, शब्दबाणों, उपमाओं आदि को झेलने के लिये तैयार हो जाईये… अधिकतर मुसलमान तो अपने ही भाई हैं, लेकिन यदि आप अपने देश से प्रेम करते हैं तो “कांग्रेसी और सेकुलर” नाम के दो लोगों से सावधान हो जायें…

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Become Secular Intellectual & Get Job in NDTV, CNN-IBN
मेरा भारत महान है इसमें कोई शक नहीं है, हाल के दिनों में तो यह और भी ज्यादा महान होता जा रहा है, क्योंकि यहाँ एक खास किस्म के बुद्धिजीवियों की “खरपतवार” उग आई है, ये महान बुद्धिजीवी (जिनमें से कुछ पत्रकार भी कहलाते हैं), विभिन्न चैनलों पर अपनी अमूल्य राय मुफ़्त में देते फ़िरते हैं, अखबारों में लेख लिखते हैं, सरकारों से पद्म पुरस्कार पाते हैं… यानी कि इनकी महिमा अपरम्पार है… यदि आप अभी युवा हैं और NDTV या फ़िर CNN-IBN जैसे चैनलों में नौकरी पाना चाहते हैं या फ़िर यदि आप एक “खास कैटेगरी” के बुद्धिजीवी का “चमकदार कैरियर” बनाना चाहते हैं तो ये टिप्स नोट कर लीजिये… आपके बहुत काम आयेंगे…

1) यदि आप हिन्दू हैं तो आप हिन्दुओं, हिन्दू धर्म और सनातन धर्म की अधिक से अधिक आलोचना करें। आपकी शैक्षणिक योग्यता, बुद्धिमानी, आपकी वर्तमान पोजीशन आदि कोई मायने नहीं रखता, बस आपको हिन्दुओं के खिलाफ़ लगातार, अबाध गति से बोलते जाना है।

2) भारतीय संस्कृति, भारतीय पुरातत्व और सांस्कृतिक गौरव को हमेशा हीन निगाह से देखें और उसे नीचा दिखाने की कोशिश करते रहें। अकबर जैसे दारूकुट्टे और औरंगजेब जैसे लुटेरे को भारत का नीति-नियन्ता बतायें तो और भी अच्छा रहेगा।

3) हिन्दू धर्म, पुरातन हिन्दू मान्यताओं, भगवा रंग, ओम्, मन्दिर, ब्राह्मण और पुजारियों की जमकर खिल्ली उड़ायें। आपको यह दर्शाना आना चाहिये कि सिर्फ़ आप ही हैं जो हिन्दू धर्म की बेहतरीन आलोचना कर सकते हैं।

4) दूसरे अन्य धर्मों की सिर्फ़ अच्छी-अच्छी बातें ही मीडिया को बतायें और हिन्दू धर्म की सतत आलोचना करते रहें। यदि आरएसएस और भाजपा, 2+2=4 बताये तो आप उसे 5 बताईये।

5) कभी भी भारतीय ग्रन्थों से किसी भी बात का उद्धरण (Quote) न दें, न सुनें, क्योंकि आपके मुताबिक तमाम भारतीय पुरातन ग्रन्थ एकदम घटिया और अवैज्ञानिक होने चाहिये। हमेशा पश्चिम की पुस्तकों, विचारकों, चीन के क्रान्तिकारियों और ईराक के नेताओं के वचनों का ही उद्धरण और उदाहरण पेश करें। यदि मजबूरी में भारत का ही कोई उद्धरण पेश करना पड़े, तो सिर्फ़ नेहरू और गाँधी परिवार द्वारा कही बातें ही पेश करें (उसमें से भी “जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है” जैसे वाक्य चुपचाप गोल कर जायें)।

6) अधिक से अधिक हिन्दू विरोधी बुद्धिजीवियों जैसे रोमिला थापर, माइकल विट्जेल, कांचा इल्लैया आदि की पुस्तकें पढ़ें और उसमें से छाँटकर उद्धरण पेश करें।

7) कभी भी भारत के भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य की तारीफ़ें न करें, हमेशा यह दर्शाने की कोशिश करें कि भारतीय रूढियों के कारण ही यह देश सदियों तक गुलाम बना रहा। जहाँ तक हो सके तो भारतीय उत्थान की कहानियाँ अंग्रेजों से शुरु करें, या अधिक से अधिक मुगलकाल से… लेकिन उसके पहले के इतिहास को कूड़ा-करकट बतायें।

8) हमेशा विदेशी वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को ही महान बतायें, हो सके तो कम्युनिस्ट देशों के। जबकि भारतीय वेदों, आयुर्वेद, आदि की आलोचना करें।

9) यदि कोई हिन्दू-विरोधी हस्ताक्षर अभियान चल रहा है, तो प्रेस के कैमरों के सामने उस पर हस्ताक्षर अवश्य करें।

10) मदर टेरेसा, ईमाम बुखारी, और सेंट जेवियर फ़्रांसिस आदि के बारे में मीठी-मीठी बातें बतायें (भले ही फ़्रांसिस ने गोआ में 480 मन्दिर ढहाये हों और हजारों हिन्दुओं का धर्मान्तरण करवाया हो)।



11) हमेशा यह आभास होना चाहिये कि आपको सब कुछ मालूम है, आप सारी दुनिया के मुद्दों के बारे में जानते हैं, चाहे वह इराक हो, ह्यूस्टन हो, कोरिया हो, लंका हो, मिजोरम हो, फ़िलीस्तीन हो, कुछ भी हो बस आपको बोलना है। सिर्फ़ कश्मीर, असम और नागालैण्ड के बारे में कोई नकारात्मक बात मुँह से न निकल जाये इसका ध्यान रखना होगा।

12) कश्मीर और नागालैण्ड में हमेशा भारतीय सेनाओं और पुलिस की ज्यादतियों के बारे में जोर-जोर से चिल्लाईये।

13) यदि कभी “अल्पसंख्यक आतंकवाद” के बारे में बोलना भी पड़ जाये तो उसके लिये “हिन्दू आतंकवाद” को दोषी बतायें।

14) जब आप किसी ईसाई संस्था में भाषण दें तो यह कहें कि आप अगले जन्म में ईसाई बनना चाहते हैं, और जब किसी मुस्लिम जलसे में बोलें तो कहें कि आप अगले जन्म में मुस्लिम बनना चाहते हैं, साथ में यह भी जोड़ दें कि वेद और उपनिषद् तो कुरान और बाईबल का ही एक अंश हैं।

15) हिन्दुओं के बड़े समारोहों और उत्सवों की आलोचना करें और हिन्दुत्व के बारे में अनाप-शनाप बकते रहें (आपका कुछ नहीं बिगड़ने वाला)। भगवान राम को काल्पनिक और रामसेतु को मनगढ़न्त बतायें…

16) यदि आप कोई पुस्तक लिखना चाहते हैं तो सबसे पहले हिन्दू-विरोधी, उनकी परम्परा विरोधी पुस्तक लिखें… आपको मार्केटिंग की आवश्यकता नहीं पड़ेगी और पुस्तक हाथों-हाथ बिकेगी।

17) यदि आप JNU या Jamia से पढ़ाई करके निकले हुए हैं, फ़िर तो आप समझिये कि खुद-ब-खुद स्थापित हो जायेंगे, क्योंकि तब “सेकुलर” शब्द आपके माथे पर ही लिखा पाया जायेगा।

18) जब भी कोई पुलिस मुठभेड़ हो, तुरन्त सबसे पहले तो उसे नकली बताईये, फ़िर उस पर जमकर हल्ला मचाईये…। अफ़ज़ल गुरु की रिहाई के लिये हस्ताक्षर अभियान चलाईये, मोमबत्तियाँ भी जलाईये…। भले ही कश्मीर में लाखों हिन्दू मरते रहें, आप सिर्फ़ फ़िलीस्तीन का राग अलापिये…

19) यदि आप महिला हैं तो माथे पर कम से कम पचास पैसे बराबर की बिन्दी लगाईये, यौन-शिक्षा की वकालत कीजिये, लिव-इन रिलेशनशिप, समलैंगिकता आदि का भी जोरदार समर्थन करें, साथ ही वाघा सीमा पर मोमबत्तियाँ भी जलाईये…

20) हमेशा बाल ठाकरे, नरेन्द्र मोदी को गिरफ़्तार करने की माँग करते रहिये, भले ही इमाम बुखारी के खिलाफ़ कई गैर-जमानती वारंट धूल खाते पड़े हों… हज सब्सिडी पर अपनी माँग बढ़ाते जाईये, और मन्दिरों-मठों के सरकारीकरण के लिये लॉबी बनाईये…

21) यदि किसी हिन्दू-विरोधी प्रदर्शनी पर हमला होता है तो उसे बजरंगियों की करतूत बताईये और लोकतन्त्र की दुहाई दीजिये, लेकिन कभी भी एमएफ़ हुसैन की आलोचना मत कीजिये, उन्हें सिर्फ़ महान बताईये। हमेशा हिन्दुओ के विरोध को “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” बताईये, लेकिन तसलीमा नसरीन को भारत मत आने दीजिये (वह सेकुलरिज़्म के लिये बहुत बड़ा खतरा है)। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर जमाने भर के नुक्कड़ नाटक खेलिये, लेकिन सलमान रशदी की पुस्तक और ईसाईयों की पोल खोलने वाली “द विंसी कोड” फ़िल्म को भारत में प्रतिबन्धित करवा दीजिये।

22) अब्दुल करीम तेलगी, दाऊद इब्राहीम, अफ़ज़ल गुरु, अबू सलेम, परवेज मुशर्रफ़ आदि को महिमामंडित करने की और इन्हें बेगुनाह साबित करने की कोशिश कीजिये और इनकी तारीफ़ों के पुल बाँधिये…लेकिन शंकराचार्य को तत्काल अपराधी घोषित कर दें।

23) अरुंधती रॉय जैसे लेखकों के करीब रहने और उनकी चमचागिरी करने का सतत प्रयास करते रहें… बांग्लादेशी घुसपैठियों को मज़लूम, मजबूर… और हो सके तो अपना छोटा भाई कहें। संभव हो तो कश्मीर जाकर किसी आतंकवादी की मय्यत में शामिल हो जायें और कैमरे पर दिखाई दें…

तो भाईयों अब लिस्ट लम्बी होती जा रही है, आप तो संक्षेप में समझ लीजिये कि यदि आपको “सेकुलर बुद्धिजीवी”, “इंटेलेक्चुअल” कहलवाना है, दिखाई देना है, NDTV और CNN-IBN जैसे महान चैनलों पर बहस में हिस्सा लेना है तो आपको इन उपायों पर अमल करना ही होगा… फ़िर देखियेगा, कैसे धड़ाधड़ आप इन चैनलों की बहस में, सेमिनारों, मीटिंग, उद्घाटन समारोहों आदि में बुलाये जायेंगे, तमाम अखबारों के लाड़ले बन जायेंगे, आप विभिन्न पुरस्कारों के लायक बन जायेंगे। यदि आप ज्यादा “उँचे लेवल” तक चले गये तो आपको पद्मभूषण जैसे पुरस्कार, और भी ज्यादा उँचे चले गये तो मेगसायसाय और बुकर पुरस्कार तक मिल सकता है…

यदि आपको ऐसा लगता है कि एकाध “क्वालिफ़िकेशन” छूट गई है, तो आप टिप्पणी में जोड़ सकते हैं…

और यदि आप यह सब नहीं कर पाते हैं तो आप साम्प्रदायिक, कट्टरतावादी, हिन्दुत्व के झंडाबरदार, संघ के समर्थक… आदि-आदि-आदि-आदि माने जायेंगे…


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Truth about Christian Riots in Mangalore
गत कुछ दिनों से उड़ीसा और कर्नाटक केन्द्र की कांग्रेस सरकार के निशाने पर है। उड़ीसा के कंधमाल में स्वामी लक्षमणानन्द सरस्वती की हत्या के कारण दंगे और अशांति पैदा हुई है, जबकि कर्नाटक में अभी इतनी तीव्रता से तनाव नहीं फ़ैला है, कुछ चर्चों पर हमले अवश्य हुए हैं लेकिन उड़ीसा के मुकाबले यह कुछ भी नहीं है। फ़िर भी केन्द्र की कांग्रेस सरकार दोनों राज्य सरकारों पर बराबर का दबाव बनाये हुए है और लगातार धारा 356 के उपयोग से बर्खास्त करने की धमकियाँ दी जा रही हैं।

दोनों राज्यों की ज़मीनी स्थिति में काफ़ी अन्तर होने के बावजूद ऐसा क्यों किया जा रहा है, इसे हम बाद में देखेंगे, पहले यह बात जान ली जाये कि आखिर कर्नाटक में ऐसा क्या हुआ है जिसके कारण तनाव और फ़साद धीरे-धीरे फ़ैलता जा रहा है। किसी भी भारतीय अखबार, और न ही किसी विदेशी अखबार ने इस हिंसा और तोड़फ़ोड़ के कारणों की तह में जाने की कोशिश की। एक ईसाई संगठन है जिसका नाम है “न्यू लाईफ़ वॉइस” (वेबसाईट यह है)। यह संगठन विदेशी पैसों पर चलने वाला एक मिशनरी केन्द्र है। कर्नाटक में इस संगठन की शुरुआत वीएम सैमुअल और उनकी पत्नी सोमी ने सन् 1983 में शुरु की थी, इस संगठन ने 1987 तक मंगलोर में काम किया फ़िर इसका मुख्यालय बंगलोर में स्थानान्तरित किया गया। इस संगठन का मुख्य काम ईसाई धर्म का प्रचार करना और प्रभु यीशु का गुणगान करना है। दक्षिण भारत में इस संगठन ने कई चर्चों की स्थापना की है। इनके लोग मंगलोर में विभिन्न ठिकानों (बस स्टैण्ड, रेल्वे स्टेशन, अस्पताल आदि) पर खड़े होकर अपना प्रचार करते हैं। इसके स्वयंसेवक ग्रामीणों और अनपढ़ लोगों को चर्च के फ़ादर से “मिलवाने”(?) ले जाते हैं। पहली मुलाकात में उस व्यक्ति को 2500/- रुपये दिये जाते हैं तथा उसे वेलनकन्नी आश्रम (तमिलनाडु) में ले जाया जाता है, जहाँ उसे 3000/- रुपये और दिये जाते हैं। यदि वह व्यक्ति पूरी तरह से ईसाई बन जाता है और नाम भी बदल लेता है तो उसे Incentive के रूप में और 10,000/- रुपये दिये जाते हैं। इस प्रकार एक MLM चलाने वाली कम्पनी की तरह Incentive की लड़ी तैयार की जाती है (यानी कि यदि एक व्यक्ति किसी अन्य दो अन्य व्यक्तियों को ईसाई बनाये तो उसे बोनस मिलेगा, इस प्रकार “चेन” चलाई जाती है)। शुरुआत में माथे से तिलक हटाने, मन्दिरों में न जाने और घरों में यीशु की तस्वीरें लगाने के छोटे Incentive होते हैं।



यहाँ तक तो किसी तरह वहाँ के हिन्दू अपना गुस्सा दबाये रहे, लेकिन इस संगठन ने एक पुस्तक प्रकाशित की जिसका नाम रखा गया “सत्य दर्शिनी”, और इस बुकलेटनुमा पुस्तक को बड़े पैमाने पर गाँव-गाँव में वितरित किया गया। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद लोग भड़क गये और यही इन दंगों का मुख्य कारण रहा (जो कि सेकुलरों को नहीं दिखाई देगा), पेश हैं इस पुस्तक के विवादास्पद अंशों का अनुवाद –

1) “…इन्द्रसभा की नृत्यांगना उर्वशी विष्णु की पुत्री थी, जो कि एक वेश्या थी…”।
2) “…गुरु वशिष्ठ एक वेश्या के पुत्र थे…”।
3) “…बाद में वशिष्ठ ने अपनी माँ से शादी की, इस प्रकार के नीच चरित्र का व्यक्ति भगवान राम का गुरु माना जाता है…” (पेज 48)।
4) “…जबकि कृष्ण खुद ही नर्क के अंधेरे में भटक रहा था, तब भला वह कैसे वह दूसरों को रोशनी दिखा सकता है। कृष्ण का चरित्र भी बहुत संदेहास्पद रहा था। हमें (यानी न्यूलाईफ़ संगठन को) इस झूठ का पर्दाफ़ाश करके लोगों को सच्चाई बताना ही होगी, जैसे कि खुद ब्रह्मा ने ही सीता का अपहरण किया था…” (पेज 50)।
5) “…ब्रह्मा, विष्णु और महेश खुद ही ईर्ष्या के मारे हुए थे, ऐसे में उन्हें भगवान मानना पाप के बराबर है। जब ये त्रिमूर्ति खुद ही गुस्सैल थी तब वह कैसे भक्तों का उद्धार कर सकती है, इन तीनों को भगवान कहना एक मजाक है…” (पेज 39)।

यह तो एक झलक भर थी, इस प्रकार के दुष्प्रचार लगातार किये गये और हिन्दू संगठन भड़क गये और उन्होंने चर्चों में तोड़फ़ोड़ शुरु कर दी। इसके बाद तमाम अन्य ईसाई संगठनों ने बयान जारी करके कहा कि हमारा “न्यूलाईफ़ फ़ाऊंडेशन” से कोई लेनादेना नहीं है, और धर्मांतरण करवाने वाले संगठन कोई और हैं और इसमें “चर्च” का कोई हाथ नहीं है। लेकिन ये सब “मुखौटे” वाली बातें हैं। सभी जानते हैं कि सच्चाई क्या है। गत कुछ वर्षों में, (खासकर सुनामी के बाद) तमिलनाडु के तटीय इलाकों में रामेश्वरम से लेकर कन्याकुमारी तक के गाँवों में ईसाईयों का जनसंख्या 2 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत तक हो गई है। जब उड़ीसा में एक निहत्थे और 84 वर्ष के बूढ़े स्वामी जी की हत्या की जाती है तब कोई “सेकुलर” या कोई “मानवाधिकारवादी” आगे नहीं आता, जब वाराणसी, अहमदाबाद में बम विस्फ़ोट होते हैं तो चैनलों पर गुहार लगाई जाने लगती है कि इसे “मुस्लिम आतंकवाद” का नाम न दिया जाये, आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता… आदि। लेकिन जब कर्नाटक और उड़ीसा में हिन्दू भड़कते हैं तो तत्काल उन्हें “हिन्दू संप्रदायवादी”, “बजरंग दली” घोषित कर दिया जाता है।

सिमी से “बैलेंस” बनाये रखने के लिये बजरंग दल पर प्रतिबन्ध लगाने की बात की जाती है, जबकि यदि सिमी या अल-कायदा जितनी “ताकत” वाला एक भी हिन्दू संगठन भारत में होता तो उनकी इधर देखने की भी हिम्मत नहीं होती थी, असल में हिन्दुओं के लगाये हुए बम नकली और फ़ुस्सी टाइप के होते हैं (जैसा कि ठाणे के गड़करी नाट्यगृह में लगाये हुए थे, या कि जैसे कानपुर में बरामद हुए थे)। हिन्दू अपने बहुसंख्यक (90 करोड़ से ज्यादा) होने पर ही इतराते रहते हैं, लेकिन हकीकत में हिन्दुओं के घर में “ढंग का” एक भी हथियार नहीं मिलेगा, ज्यादा से ज्यादा एकाध लाठी मिल जायेगी या सब्जी काटने वाला चाकू, बस… अहिंसा-अहिंसा का जाप करते रहो और कश्मीर से लेकर असम तक जूते खाते रहो, इस देश को कांग्रेस ने यही दिया है। दंगों के एक भुक्तभोगी का यह बयान आँखें खोलने वाला है कि यदि पुलिस हिन्दुओं की मदद न करे तो इस देश में हिन्दू लोग गाजर-मूली की तरह काटे जायें…

अब आते हैं उस बात पर कि क्यों कर्नाटक और उड़ीसा को एक ही तराजू में रखकर तौला जा रहा है, जबकि उड़ीसा में हालत काफ़ी गम्भीर है तथा कर्नाटक में बेहद छुटपुट। यहाँ पर बात है ईसाईयों में भी प्रचलित वर्गभेद की… कंधमाल में जिनके खिलाफ़ हिंसा हो रही है वह धर्मांतरित हुए आदिवासी हैं, जिनका दर्जा चर्च में “नीचा” होता है, जबकि मंगलोर में जिनके खिलाफ़ हमले हुए हैं वे उच्च वर्ग के ईसाई हैं, जिनकी चिंता में फ़्रांस के राष्ट्रपति भी दुबले होते हैं और बुश भी। इन दोनो राज्यों में ईसाईयों का असली चेहरा सामने आ जाता है, असल में उड़ीसा में जब बात बहुत आगे बढ़ गई तभी हल्ला मचाया गया, क्योंकि वहाँ गरीब और दलित ईसाई हिंसा के शिकार हुए, लेकिन ऑस्कर फ़र्नांडीस, मार्गरेट अल्वा जैसे ईसाईयों की कर्मभूमि होने के कारण मंगलोर की मामूली सी घटनाओं को बेवजह तूल दिया गया। सोनिया गाँधी को खुश करने के लिये लगातार धारा 356 की धमकी दी जा रही है, जबकि कर्नाटक से ज्यादा हिंसा की घटनायें तो हाल में अमरावती, धुळे और महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों में हो चुकी हैं, और इस सबके बीच में कर्नाटक में हाल ही में करारी हार से भी कांग्रेसी तिलमिलाये हुए हैं, उन्हें येदियुरप्पा बिलकुल नहीं सुहा रहे। हालांकि येदियुरप्पा ने त्वरित कार्रवाई करते हुए हिन्दू संगठनों पर लगाम कसने की कोशिश की है, लेकिन भाजपा के अन्य नेताओं के मुकाबले येदियुरप्पा में ही “दूसरा मोदी” बनने की क्षमता है।



अन्त में यही बात बार-बार उभरती है कि ऐसी घटनाओं के लिये हिन्दू भी उतने ही जिम्मेदार हैं, 80-90 करोड़ होने के बावजूद वे एकत्रित नहीं होते, कांग्रेस, सेकुलर और अल्पसंख्यक मिलकर उन्हें दबाते जाते हैं, कश्मीर-असम में पाकिस्तानी झंडे लहराये जा रहे हैं और वे असहाय से देख रहे हैं, केन्द्रीय मंत्री सिमी का खुलकर समर्थन कर रहे हैं, सेकुलर मीडिया अपना दुष्प्रचार लगातार चलाये हुए है, कोई कुछ नहीं बोलता, एक गहरी निद्रा में सोये हैं सब… हिन्दुओं के पास दिमाग है, पैसा है, ज्ञान है… सिर्फ़ एकता नहीं है। इस गहरी नींद से यदि समय रहते नहीं जागे तो मिशनरीकरण, अमेरिकीकरण, वामपंथीकरण और इस्लामीकरण की ताकतें मिलकर एक दिन सब कुछ खत्म कर देंगी… पहले ही बहुत देर हो चुकी है, अब और देर मत करो… जागो और एक बनो।

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Alliance between Church and Naxalites India
(गत भाग से जारी…) इस बात के साफ़ सबूत हैं कि कुछ अन्तराष्ट्रीय ईसाई संस्थायें उत्तर-पूर्व के राज्यों में आतंकवाद को खुला समर्थन दे रही हैं, उनका मकसद है समूचे उत्तर-पूर्व को भारत से अलग करना। इन विभिन्न आतंकवादी संगठनों को चर्च की ओर से पैसा और हथियार मुहैया करवाये जा रहे हैं।

त्रिपुरा
इस राज्य में नेशनल लिबरेशन ऑफ़ त्रिपुरा (NFLT) की स्थापना दिसम्बर 1989 में हुई थी। अपने स्थापना के समय से ही इसे बैप्टिस्ट चर्च का खुला समर्थन हासिल है, हालांकि इस संगठन पर 1997 में प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, लेकिन इसकी गतिविधियाँ बांगलादेश से सतत जारी हैं। नोआपारा बैप्टिस्ट चर्च के सचिव नागमनलाल हालम को सीआरपीएफ़ द्वारा सन् 2000 में आतंकवादियों को सीमापार करवाने और 60 जिलेटिन की छड़ें रखने के आरोपों में गिरफ़्तार किया गया था। इसी चर्च के दो अन्य कर्मचारियों को NFLT को हथियार सप्लाई करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था। हालम ने स्वीकार किया था कि वे NFLT के लिये हथियार खरीदने में बिचौलिये की भूमिका निभाते थे। एक और चर्च अधिकारी जतना कोलोई को भी NFLT के शिविर में गुरिल्ला प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये गिरफ़्तार किया जा चुका है।

त्रिपुरा के जंगलों में आदिवासियों को जबरिया धर्मान्तरित करने का धंधा जोरशोर से चलता है। NFLT पर कई बार स्थानीय आदिवासियों ने आरोप लगाये हैं कि वह धर्मान्तरण के जरिये उनकी स्थानीय संस्कृति को खतरे में डाल रहा है, लेकिन दिल्ली की लूली-लंगड़ी सरकारों तथा त्रिपुरा के मार्क्सवादियों की शह पर यह काम धड़ल्ले से जारी रहा। अब स्थिति यह है कि वहाँ के स्थानीय लोग अल्पसंख्यक हो गये हैं और दुर्गापूजा जैसा वार्षिक त्यौहार भी वे शान्ति से नहीं मना पाते। NFLT के घोषणापत्र में कहा गया है कि वे त्रिपुरा में 'क्राईस्ट" का राज्य लाकर रहेंगे। जमातिया नाम का आदिवासी समुदाय अपने परम्परागत रूप से मार्च में भगवान "गादिया" की पूजा करता आया है, जिसे वे शिव का अवतार मानते हैं, लेकिन चर्च और आतंकवादियों ने यह पूजा क्रिसमस के दिन करने हेतु "आदेश" दिया है। इन आतंकवादी समूहों को ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैण्ड के बैप्टिस्ट चर्चों से भी लगातार पैसा मिलता है। जो भोले-भाले आदिवासी इनकी बात नहीं मानते, उनकी औरतों के साथ अपहरण और बलात्कार किया जाता है, और उन्हें ईसाई धर्म मानने पर मजबूर कर दिया जाता है, और जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य हिन्दू संगठन वहाँ काम करने जाते हैं, तो उन्हें धमकियाँ दी जाती हैं और उन पर जानलेवा आक्रमण किये जाते हैं। अगस्त 2000 में स्वामी शान्तिकलि महाराज की हत्या कर दी गई थी। इसी प्रकार दिसम्बर 2000 में जमातिया कबीले के मुख्य पुजारी लबकुमार जमातिया की भी हत्या की गई, उनका भी कसूर वही था जो कि लक्ष्मणानन्द सरस्वती का था, यानी कि हिन्दुओं को धर्मान्तरण के खिलाफ़ जागृत करना। सिर्फ़ सन 2001 में त्रिपुरा में कुल 826 आतंकवादी हमले हुए और जिसमें 405 लोग मारे गये और 481 आदिवासियों का अपहरण हुआ।



नागालैण्ड
नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैण्ड (NSCN) के दो गुट हैं, दोनों ही गुट ईसाईयों द्वारा ही संचालित हैं और इन्हें वर्ल्ड काउंसिल ऑफ़ चर्चेस से आर्थिक मदद मिलती रहती है, चीन भी इन्हें हथियारों से मदद करता रहता है। NSCN के न्यूयॉर्क, जिनेवा और हेग में अपने ऑफ़िस हैं, जिस पर डिस्प्ले बोर्ड लगे हैं "पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ नागालैण्ड"। नागालैण्ड के इन दोनों आतंकवादी गुटों ने संयुक्त राष्ट्र में अब तक दो बार स्वतन्त्र नागालैण्ड की गुहार लगाई है। नागालैण्ड में इन दोनों गुटों की सरकार चलती है, वे लोगों से पैसा वसूलते हैं। भारत सरकार के कर्मचारियों की एक तिहाई तनख्वाह "नागालैण्ड टैक्स" के रूप में छीन ली जाती है। नागालैण्ड में अधिकतर सरकारी बैंक बन्द हो चुके हैं, क्योंकि उसमें से भारी धनराशि लूटी जा चुकी है। इन संगठनों के लेटरहेड पर लिखा हुआ है "नागालैण्ड फ़ॉर क्राईस्ट"। स्वतन्त्रता के बाद त्रिपुरा में ईसाईयों की संख्या नगण्य थी, जबकि आज 1,20,000 है, जो कि पिछली जनगणना (1991) के अनुसार 90% का उछाल है। अरुणाचल प्रदेश की स्थिति और भी भयावह है, उस राज्य में सन् 1961 में 1,710 ईसाई थे, लेकिन आज सिर्फ़ 40-45 सालों में बढ़कर एक करोड़ से ऊपर हो गये और चर्चों की संख्या हो गई है 780… आंध्रप्रदेश, जहाँ एक ईसाई मुख्यमंत्री हैं, में दूरदराज के इलाकों में रोज-ब-रोज एक नया चर्च खुलता है, क्या वाकई में ईसाई संस्थाएं इतनी समाजसेवा कर रही हैं? लेकिन यह सारी सूचनायें कांग्रेस सरकार और सेकुलरों के लिये या तो बेकार हैं या फ़िर "संघ का दुष्प्रचार" भर हैं।

लालच की हद तो यह है कि धर्मान्तरण होने के बाद चर्च से भारी आर्थिक मदद लेने के बावजूद ये "भगोड़े" लोग भारत सरकार से आरक्षण का लाभ लेने के लिये हल्ला करते हैं और सेकुलर लोग जो गरीबों के हमदर्द होने का दम भरते हैं, वास्तविक दलितों और पिछड़े वर्गों के हक मारकर इन्हें आरक्षण और अन्य सुविधायें दिलवाने की पैरवी करते रहते हैं, यानी धर्मान्तरित होने वाले को दोहरी मलाई मिलती है। चर्च भी इसमें अपना फ़ायदा देखते हुए इसका समर्थन करता है, जबकि असल में जो लोग धर्मान्तरित होकर ईसाई बनते हैं उनके लिये चर्च भी अलग होता है और उनसे दोहरा और अपमानजनक बर्ताव जारी रहता है, मूलरूप से ईसाई व्यक्ति इन्हें कभी भी दिल से स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। चर्च भी अपना "कथित भारतीयकरण" करने में लगा हुआ है, आजकल दलितों को धर्मान्तरण के बाद नाम बदलने पर जोर नहीं दिया जाता, दूरदराज के गाँवों में जहाँ बहुत ज्यादा अशिक्षा है, वहाँ पादरी गाँव में जाते हैं व अपने साथ यीशु की धातु की मूर्ति ले जाते हैं व भगवान की एक मूर्ति लकड़ी की भी ले जाते हैं, फ़िर दोनो को आग में डालते हैं, स्वाभाविक है कि भगवान की मूर्ति जल जाती है, लेकिन यीशु की मूर्ति सही-सलामत निकलती है, बस फ़िर भोले-भाले आदिवासियों का "ब्रेन-वॉश" करने में कितनी देर लगती है। हालांकि इस प्रकार के चमत्कार दिखाकर तो हिन्दुओं के बाबा भी अपनी दुकानदारियाँ चलाये हुए हैं, लेकिन यहाँ मामला साफ़-साफ़ देश की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। चर्च का भारतीयकरण करने के फ़ेर में आजकल छोटे-छोटे गाँवों में "फ़ादर" सफ़ेद की बजाय गेरुए अथवा पीले वस्त्र पहनने लगे हैं ताकि किसी को कोई शक न हो, लेकिन मौका मिलते ही वे अपने "असली रूप" में आ जाते हैं यानी कि भगवानों को भला-बुरा कहते हुए यीशु का गुणगान करना। यह स्थिति मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा धर्मान्तरण किये जाने से अधिक खतरनाक है, क्योंकि औरंगजेब जैसे मुस्लिम आक्रांता जब हिन्दुओं का धर्म परिवर्तित करवाते थे, तब नाम, भेष और रहन-सहन सभी बदलना पड़ता था, लेकिन ईसाई संस्थायें दलितों को ईसाई भी बना रही हैं और उनके नाम भी नहीं बदलतीं फ़िर धर्म परिवर्तन के बाद भी आरक्षण की बैसाखी मिलती रहती है, और असली गरीब दलितों (जिन्होंने धर्म परिवर्तन नहीं किया) का हक मारा जाता है…

शायद भारत ही विश्व एकमात्र ऐसा देश होगा जहाँ बहुसंख्यक आबादी को ही दबकर रहना पड़ता हो… लेकिन UPA की अध्यक्षा जब देश की सर्वेसर्वा हों, आस्तीन में सेकुलर बैठे हुए हों, मीडिया भी इनके साथ हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये…

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Alliance between Church and Naxalites India
नक्सली कमाण्डर पांडा ने एक उड़िया टीवी चैनल को दी गई भेंटवार्ता में दावा किया कि स्वामी लक्ष्मणानन्द को उन्होंने ही मारा है। पांडा का कहना था कि चूंकि लक्ष्मणानन्द सामाजिक अशांति(???) फ़ैला रहे थे, इसलिये उन्हें खत्म करना आवश्यक था। जिस प्रकार त्रिपुरा में NFLT नाम का उग्रवादी संगठन बैप्टिस्ट चर्च से खुलेआम पैसा और हथियार पाता है, उसी प्रकार अब यह साफ़ हो गया है कि उड़ीसा और देश के दूरदराज में स्थित अन्य आदिवासी इलाकों में नक्सलियों और चर्च के बीच एक मजबूत गठबंधन बन गया है, वरना क्या कारण है कि इन इलाकों में काम करने वाली मिशनरी संस्थाओं को तो नक्सली कोई नुकसान नहीं पहुँचाते, लेकिन गरीब और मजबूर आदिवासियों को नक्सली अपना निशाना बनाते रहते हैं?

कुरेदने पर पांडा ने स्वीकार किया कि नक्सलियों के उड़ीसा स्थित कैडर में ईसाई युवकों की संख्या ज्यादा है, उन्होंने माना कि उनके संगठन में ईसाई लोग बहुमत में हैं, उड़ीसा के रायगड़ा, गजपति, और कंधमाल में काम कर रहे लगभग सभी नक्सली ईसाई हैं।

पांडा की इस स्वीकृति से दो सवाल उठते हैं, पहला तो यह कि लक्ष्मणानन्द की हत्या की जिम्मेदारी अब वे क्यों ले रहे हैं? सबसे पहले इन्हीं माओवादियों कहा कि हाँ हमने यह हत्या की है, फ़िर उनका बयान आया कि नहीं हम इस प्रकार की धार्मिक हत्याएं नहीं करते, और अब फ़िर एक इंटरव्यू आया कि हाँ हमने हत्या की है, आखिर क्या मतलब है इसका? असल में शायद पांडा को उड़ीसा के अन्दरूनी इलाकों में हिन्दुओं की इतनी तीव्र प्रतिक्रिया का अंदेशा नहीं था, और अब चूंकि उनके काडर में ही फ़ूट पड़ने की नौबत आ गई तो उन्हें यह जिम्मेदारी लेना सूझा। दूसरा, यह कि कहीं यह स्वीकृति मिशनरियों को हिन्दुओं के हमले से बचाने की साजिश तो नहीं? जिससे कि मिशनरियों को “पवित्र गाय” दर्शाया जाये।

दूसरी तरफ़ देश में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग नाम का एक “पालतू बिजूका” भी है, जो तभी काम करता है जब किसी राज्य में मुस्लिम या ईसाईयों पर हमले और अत्याचार होते हैं। इस अल्पसंख्यक आयोग के लिये हिन्दू कहीं भी अल्पसंख्यक नहीं होते। जब भी किसी राज्य में जैसे नागालैण्ड, जहाँ हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, वहाँ उन पर अत्याचार होते हैं, या फ़िर कश्मीर जैसे राज्य जहाँ से लगभग सभी हिन्दुओं को भगा दिया गया है, वहाँ इस आयोग के सदस्य झाँकने भी नहीं जाते। इस नकली आयोग को मिजोरम से भगाये जा रहे हिन्दू भी नहीं दिखते, इस आयोग को त्रिपुरा में शरणार्थी कैम्पों में रह रहे 30000 हिन्दू भी दिखाई नहीं देते। इन्हें चिन्ता होती है सिर्फ़ गुजरात और उड़ीसा की।



अब उड़ीसा में राष्ट्रपति शासन लगाने की माँग की जा रही है, बजरंग दल और विहिप पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये जोर-शोर से गला फ़ाड़ा जा रहा है, चारों ओर यह माहौल तैयार करने की कोशिश जारी है कि मुस्लिम आतंकवाद नाम की कोई चीज़ नहीं होती या मिशनरी सिर्फ़ सेवा करती हैं, बाकी के लोग (यानी संघ परिवार) सिर्फ़ भड़काने में लगे हुए हैं। हो सकता है कि सोनिया को खुश करने के लिये शिवराज पाटिल और मनमोहन मिलकर उड़ीसा में राष्ट्रपति शासन लगा भी दें, आखिर सत्ता और पावर मैडम के हाथ में है, लेकिन कांग्रेस यह भूल न ही करे तो बेहतर होगा। पहले ही कांग्रेस हरियाणा, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश यानी सिर्फ़ तीन बड़े राज्यों में सत्ता में है, कहीं अगले आम चुनाव में वह और भी सिमटकर क्षेत्रीय पार्टी न बन जाये। राष्ट्रपति शासन लगाने की यह माँग बेहद बचकाना इसलिये भी है कि जब 1993 में मुम्बई बम विस्फ़ोट हुए तब भी, और मुम्बई में ही सदी के सबसे भीषण दंगे हुए तब भी, महाराष्ट्र की सुधाकरराव नाईक सरकार को बर्खास्त नहीं किया गया था। जबकि कांग्रेसी लोग सत्ता के इतने लालची हैं कि सैयद सिब्ते रजी (झारखंड के खलनायक) और रोमेश भंडारी (उत्तरप्रदेश के खलनायक) जैसे राज्यपालों और गुलाम नबी आज़ाद जैसे गैर-जनाधारी नेता को पालते-पोसते हैं।

सूचना के अधिकार से प्राप्त जानकारी के अनुसार केरल में 63 पादरियों पर मर्डर, बलात्कार, अवैध वसूली और हथियार रखने के मामले विभिन्न पुलिस थानों में दर्ज हैं। केरल पुलिस द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार पिछले सात वर्षों में दो पादरियों को हत्या के जुर्म में सजा मिल चुकी है, जबकि दस अन्य को “हत्या के प्रयास” की धाराओं में चार्जशीट किया गया है। माकपा का कैडर, नक्सली और चर्च ये तीनों मिलकर एक घातक “कॉम्बिनेशन” बनाते हैं। इसके लिये काफ़ी हद तक हमारे आस्तीन में पल रहे “सेकुलर” भी जिम्मेदार हैं। इन लोगों के आँखों पर “धर्मनिरपेक्षता” की ऐसी मजबूत पट्टी बँधी हुई है कि इन्हें यह भी दिखाई देना बन्द हो गया है कि देश का हित किसमें है, राष्ट्रवाद क्या है और देशद्रोह किसे कहते हैं। सेकुलर लोग धर्मान्तरण या मुस्लिम आतंकवाद को खतरा तभी मानेंगे जब यह उनके द्वार तक पहुँच जायेगा, और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

सरकार को चाहिये कि सभी मिशनरियों के खातों की बारीकी से जाँच की जाये, उनके सम्बन्धों के बारे में खुफ़िया जानकारी एकत्रित की जाये और एक स्वतन्त्र जाँच एजेंसी से चर्च और नक्सलियों के आपसी अन्तर्सम्बन्धों पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की जाये। लेकिन सोनिया गाँधी के रहते यह सम्भव नहीं है, क्योंकि अपने उड़ीसा दौरे के समय राहुल गाँधी एक रात बगैर सुरक्षा एजेंसियों को बताये अचानक गायब हो गये थे और बाद में पता चला कि वे घने जंगलों में एक मिशनरी के कामकाज को देखने(???) चले गये थे, इसलिये जनता को ही जागरूक बनना होगा, चुनावों में वोट देने के लिये घर से निकलना होगा और कांग्रेस नाम के इस कैंसर को देश से हटाना होगा… हिन्दुओं के सब्र का इम्तहान लिया जा रहा है, अब देखना यही है कि यह बाँध कब फ़ूटता है, एक बार गुजरात में यह फ़ूट चुका है, लेकिन “सेकुलर” और कांग्रेसी उससे कोई सबक सीखने को तैयार नहीं हैं…

(भाग-2 में जारी रहेगा…)


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Lata Mangeshkar Dinanath Mangeshkar Ashirwad
लता मंगेशकर का जन्मदिन हाल ही में मनाया गया। लता मंगेशकर जैसी दिव्य शक्ति के बारे में कुछ लिखने के लिये बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। उन पर और उनके बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अब शब्दकोष भी फ़ीके पड़ जाते हैं और उपमायें खुद बौनी लगती हैं। व्यस्तता की वजह से उस पावन अवसर पर कई प्रियजनों के आग्रह के बावजूद कुछ नहीं लिख पाया, लेकिन देवी की आराधना के लिये अष्टमी का दिन ही क्यों, लता पर कभी भी, कुछ भी लिखा जा सकता है। साथ ही लता मंगेशकर के गीतों में से कुछ अच्छे गीत छाँटना ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी छोटे बच्चे को खिलौने की दुकान में से एक-दो खिलौने चुनने को कहा जाये।

फ़िर भी कई-कई-कई पसन्दीदा गीतों में से एक गीत के बारे में यहाँ कुछ कहने की गुस्ताखी कर रहा हूँ। गीत है फ़िल्म “आशीर्वाद” का, लिखा है गुलज़ार जी ने तथा धुन बनाई है वसन्त देसाई ने। गीत के बोल हैं “एक था बचपन…एक था बचपन…”, यह गीत राग गुजरी तोड़ी पर आधारित है और इसे सुमिता सान्याल पर फ़िल्माया गया है। पहले आप गीत सुनिये, उसकी आत्मा और गुलज़ार के बोलों को महसूस कीजिये फ़िर आगे की बात करते हैं…



यू-ट्यूब पर यह गीत इस लिंक पर उपलब्ध है…

इस गीत को ध्यान से सुनिये, वैसे तो लता ने सभी गीत उनकी रूह के भीतर उतर कर गाये हैं, लेकिन इस गीत को सुनते वक्त साफ़ महसूस होता है कि यह गीत लता मंगेशकर उनके बचपन की यादों में बसे पिता यानी कि दीनानाथ मंगेशकर को लक्षित करके गा रही हों… उल्लेखनीय है कि दीनानाथ मंगेशकर की पुत्री के रूप में उन्हें वैसे ही ईश्वरीय आशीर्वाद प्राप्त हुआ था। दीनानाथ मंगेशकर 1930 में मराठी रंगमंच के बेताज बादशाह थे। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि उस वक्त के सोलह हजार रुपये महीने आज क्या कीमत रखते होंगे? जी हाँ उस वक्त दीनानाथ जी की मासिक आय 16000 रुपये थी, भेंट-उपहार-पुरस्कार वगैरह अलग से। उनका कहना था कि यदि ऊपरवाले की मेहरबानी ऐसे ही जारी रही तो एक दिन मैं पूरा गोआ खरीद लूँगा। उच्च कोटि के गायक कलाकार दीनानाथ मंगेशकर और उनकी भव्य नाटक कम्पनी ने समूचे महाराष्ट्र में धूम मचा रखी थी। वक्त ने पलटा खाया, दीनानाथ जी नाटक छोड़कर फ़िल्म बनाने के लिये कूद पड़े और उसमें उन्होंने जो घाटे पर घाटा सहन किया वह उन्हें भीतर तक तोड़ देने वाला साबित हुआ। मात्र 42 वर्ष की आयु में सन् 1942 में उच्च रक्तदाब की वजह से उनका निधन हो गया। उस वक्त लता सिर्फ़ 13 वर्ष की थीं और उन्हें रेडियो पर गाने के अवसर मिलने लगे थे, उन पर पूरे परिवार (माँ, तीन बहनें और एक भाई) की जिम्मेदारी आन पड़ी थी, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और देवप्रदत्त प्रतिभा के साथ उन्होंने पुनः शून्य से संघर्ष शुरु किया और “भारत रत्न” के उच्च स्तर तक पहुँचीं।



मृत्युशैया पर पड़े दीनानाथ जी ने रेडियो पर लता की आवाज़ सुनकर कहा था कि “अब मैं चैन से अन्तिम साँस ले सकता हूँ…” लता के सिर पर हाथ फ़ेरते हुए उन्होंने कहा था कि “मैंने अपने जीवन में बहुत धन कमाया और गंवाया भी, लेकिन मैं तुम लोगों के लिये कुछ भी छोड़कर नहीं जा रहा, सिवाय मेरी धुनों, एक तानपूरे और ढेरों आशीर्वाद के अलावा…तुम एक दिन बहुत नाम कमाओगी…”। लता मंगेशकर ने उनके सपनों को पूरा किया और आजीवन अविवाहित रहते हुए परिवार की जिम्मेदारी उठाई। यह गीत सुनते वक्त एक पुत्री का अपने पिता पर प्रेम झलकता है, साथ ही उस महान पिता की जुदाई की टीस भी शिद्दत से उभरती है, जो सुनने वाले के हृदय को भेदकर रख देती है… यह एक जेनेटिक तथ्य है कि बेटियाँ पिता को अधिक प्यारी होती हैं, जबकि बेटे माँ के दुलारे होते हैं। गीत के तीसरे अन्तरे में जब लता पुकारती हैं “मेरे होंठों पर उनकी आवाज़ भी है…” तो लगता है कि वाकई दीनानाथ जी का दिया हुआ आशीर्वाद हम जैसे अकिंचन लोगों को भीतर तक तृप्त करने के लिये ही था।

फ़िल्म इंडस्ट्री ने कई कलाकारों को कम उम्र में दुनिया छोड़ते देखा है, जिनकी कमी आज भी खलती है जैसे गुरुदत्त, संजीव कुमार, स्मिता पाटिल आदि… मास्टर दीनानाथ भी ऐसी ही एक दिव्य आत्मा थे, एक तरह से यह गीत पूरी तरह से उन्हीं को समर्पित है… गुलज़ार – जो कि “इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त कदम रस्ते, कुछ तेज कदम राहें…” या फ़िर “हमने देखी हैं उन आँखों की महकती खुशबू…” जैसे अजब-गजब बोल लिखते हैं उन्होंने भी इस गीत में सीधे-सादे शब्दों का उपयोग किया है, गीत की जान है वसन्त देसाई की धुन, लेकिन समूचे गीत पर लता-दीनानाथ की छाया प्रतिध्वनित होती है। यह भी एक संयोग है कि फ़िल्म में सुमिता सान्याल को यह गीत गायिका के रूप में रेडियो पर गाते दिखाया गया है।

आज लता मंगेशकर हीरों की अंगूठियाँ और हार पहनती हैं, लन्दन और न्यूयॉर्क में छुट्टियाँ बिताती हैं, पुणे में दीनानाथ मंगेशकर के नाम से विशाल अस्पताल है, और मुम्बई में एक सर्वसुविधायुक्त ऑडिटोरियम, हालांकि इससे दस गुना वैभव तो उन्हें बचपन में ही सुलभ था, और यदि दीनानाथ जी का अल्पायु में निधन न हुआ होता तो??? लेकिन वक्त के आगे किसी की कब चली है, मात्र 13 वर्ष की खेलने-कूदने की कमसिन आयु में लता मंगेशकर पर जो वज्रपात हुआ होगा, फ़िर जो भीषण संघर्ष उन्होंने किया होगा उसकी तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते। पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते स्वयं अविवाहित रहना भी तो त्याग की एक पराकाष्ठा है… इस गीत में लता का खोया हुआ बचपन और पिता से बिछुड़ने का दर्द साफ़ झलकता है। दुनिया में फ़ैले दुःख-दर्द, अन्याय, शोषण, अत्याचार को देखकर कभी-कभी ऐसा लगता है कि “ईश्वर” नाम की कोई सत्ता नहीं होती, परन्तु लता मंगेशकर की आवाज़ सुनकर फ़िर महसूस होता है कि नहीं… नहीं… ईश्वर ने अपने कुछ अंश धरती पर बिखेरे हुए हैं, जिनमें से एक है लता मंगेशकर…

गीत के बोल इस प्रकार हैं…

एक तथा बचपन, एक था बचपन
बचपन के एक बाबूजी थे, अच्छे-सच्चे बाबूजी थे
दोनों का सुन्दर था बन्धन…
एक था बचपन…

1) टहनी पर चढ़के जब फ़ूल बुलाते थे
हाथ उचके तो टहनी तक ना जाते थे
बचपन के नन्हें दो हाथ उठाकर वो
फ़ूलों से हाथ मिलाते थे…
एक था बचपन… एक था बचपन

2) चलते-चलते, चलते-चलते जाने कब इन राहों में
बाबूजी बस गये बचपन की बाहों में
मुठ्ठी में बन्द हैं वो सूखे फ़ूल अभी
खुशबू है सीने की चाहों में…
एक था बचपन… एक था बचपन

3) होठों पर उनकी आवाज भी है
मेरे होंठों पर उनकी आवाज भी है
साँसों में सौंपा विश्वास भी है
जाने किस मोड़ पे कब मिल जायेंगे वो
पूछेंगे बचपन का अहसास भी है…
एक था बचपन, एक था बचपन…
छोटा सा नन्हा सा बचपन…

एक और बात गौर करने वाली है कि अब “बाबूजी” शब्द भी लगभग गुम चुका है। वक्त के साथ “बाबूजी” से पिताजी हुए, पिताजी से पापा हुए, पापा से “डैड” हो गये और अब तो बाबूजी को सरेआम धमकाया जाता है कि “बाबूजी जरा धीरे चलो, बिजली खड़ी, यहाँ बिजली खड़ी, नैनों में चिंगारियाँ, गोरा बदन शोलों की लड़ी…” बस और क्या कहूँ, मैंने पहले ही कहा कि “वक्त के आगे सभी बेबस हैं…”।
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चलते-चलते दो लाईन – अक्सर सोचता हूँ कि इस प्रकार के और लेख लिखूँ, लेकिन “सेकुलर” और “कांग्रेस” नाम के शब्द सुनते ही तलुवे का खून मस्तक में पहुँच जाता है और मैं फ़िर से अपनी “सामाजिक जिम्मेदारी” निभाने निकल पड़ता हूँ…


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