#Adarsh_Liberal इस हैशटैग के साथ अंग्रेजी भाषा में लगातार "आदर्श लिबरल" की जमकर बखिया उधेड़ी जा रही है. बजाने का यह काम हिन्दी में हम पहले से ही "छद्म प्रगतिशील" (छद्म सेकुलर) कहकर करते आ रहे हैं. फिर भी संक्षेप में थोड़ा और परिचय दे दूँ.

जब एक आधे-अधूरे मंदिर, फटे हुए टेंट में बैठे हुए रामलला, सैकड़ों सुरक्षाकर्मियों की बंदूकों के बावजूद तीन सौ करोड़ रूपए कमा लिए तो जब एक भव्य-विशाल-सुन्दर राम मंदिर बनेगा तो यूपी सरकार के खजाने में कितने हजार करोड़ रूपए प्रतिवर्ष आएँगे??

Ban on Beef - The Other Side of Coin

Written by रविवार, 08 मार्च 2015 14:20
गौहत्या प्रतिबन्ध : धर्म, राजनीती और वोट बैंक से अलग दृष्टिकोण...

(कुछ दिन पहले गौहत्या बंदी के पक्ष में श्री आनंद कुमार जी का लेख ब्लॉग पर लिया था. आज इस समस्या का दूसरा पक्ष भी प्रस्तुत है. बेहद तर्कसंगत पद्धति से जमीनी हकीकत को एक गौपालक के नज़रिए से समझाया गया है. आशा करता हूँ कि सभी मित्र पूरे लेख को ध्यान से पढ़ेंगे, गौहत्या बंदी जैसे मुद्दे को सिर्फ भावनात्मक नज़रिए की बजाय व्यावहारिक एवं वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में समझने का प्रयास करेंगे, ताकि एक समुचित चर्चा हो, दोनों पहलुओं का विस्तृत अध्ययन हो और सरकार तथा गौपालक मिलकर इसका समाधान खोजें). पेश है गौहत्या बंदी कानून का दूसरा पहलू... अपनी राय अवश्य दें एवं शेयर करके सम्बन्धित नेताओं-अधिकारियों तक पहुँचाने की कोशिश करेंगे)... अनाद्य प्रकाश त्रिपाठी जी (https://www.facebook.com/AnadyaPrakashTripathi) का यह लेख निश्चित ही विचारणीय है...

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गाँव के जितने किसानो के गायों को बछड़ा होता है वो दूध दुहने के बाद बछड़े को गाँव के बाहर छोड़ देते हैं. उत्तर प्रदेश देवरिया जिला गाँव सिरजम में मेरे गाँव के बाहर के दो एकड़ खेत में मटर बोया गया था, इन लावारिस बछड़ो ने पूरा सत्यानाश कर दिया, भाई इसका क्या हल है, मुझ जैसे सैकड़ो किसानो को इन लावारिस बछड़ो के आतंक से मुक्ति दिलाने का कोई तो मार्गदर्शन करे? महाराष्ट्र में गौहत्या बंद होने पर जश्न मनाने वालो में से है कोई बताने वाला, मेरे इस समस्या का हल.......

प्रथम बार जब मैंने फेसबुक पर आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) के द्वारा होने वाले फसल बर्बादी का मुद्दा उठाया, तो मुझे जबाब दिया गया की गौशालो से संपर्क करो। मै अपनी सोच पुनः आप लोगो के साथ शेयर करना चाहूँगा. "वाह भैया, दुनिया अपने बछड़े मेरे खेतो में छोड़ जाये और मैं गौशाला- खोजता फिरूं?" इतना उत्तम तरीका सुझाने के लिए धन्यवाद, मास्टर डिग्री धारक मेरे दिमाग में भूसा भरा था जो इतना भी नहीं समझ सकता की आवारा बछड़ो को गौशाला में भेजो, अरे भाई साहब अब यह राय दे दिए हो तो उत्तर प्रदेश में स्थित कुछ गौशालाओं के नाम पता भी बता दीजिये, ये भी बता दीजिये के उनके पास अभी और कितने बिना दूध देने वाले बछड़ो के रखने की कैपिसिटी है. हाँ, साथ में ये भी बता देते की बछड़ो को मेरे गाँव से गौशाला भेजने का लेबर चार्ज और ट्रांसपोर्टेशन चार्ज का बंदोबस्त कौन सा गौशाला दे रहा है। वास्तव में ये संवाद हमारी मूर्खता को परिलक्षित कर रहा है कि आज भी हम उचित और ब्यवहारिक मुद्दो नजरअंदाज करते हुए भावनाओ और वोट बैंक के लिए कैसे काम करते है, हँसी आती है उन लोगो द्वारा गाय पालने के फायदे सुन कर जिनको गाय के गोबर की गंध से ही उलटी आने लगती है.

सरकार द्वारा लिए गए इस फैसले के कई दूरगामी परिणाम सामने आएँगे... 

(१) आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) के द्वारा होने वाले फसल बर्बादी का मुद्दा भी एक गंभीर प्रश्न है

(२) सीमा पर (बंगाल और पाकिस्तान) पशु तस्करी बहुत बढ़ जाएगी

(३) अप्रत्यक्ष  रूप से हम बंगाल और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में मदद के जिम्मेदार होंगे

(४) जो जॉब और आमदनी अभी भारतीयों और भारत सरकार को हो रही है उसको खुले हस्त से हम बंगाल और पाकिस्तान को दे देंगे

(५)पशु तस्करी के माध्यम से पुलिस और कस्टम के अधिकारियों को भ्रस्टाचार करने का खुला न्योता

(६) अब तक इतने कत्लखानो के सञ्चालन के बाद भी बाद भी गायों और शहरों की सडको पर आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) द्वारा फैलाई जाने वाली गन्दगी और झुण्ड द्वारा किया जाने वाला अतिक्रमण.

(७) और हाँ, एक बात तो बताना भूल गया, जो लोग मांसभक्षी है, जब उनके मुँह से माँस छिन जायेगा तो वो सब्जी खाएंगे, अब सब्जियों की पैदावार बढ़ने के लिए अलग से जमीनें तो पैदा होने वाली नहीं है, सो "डिमांड एंड सप्लाई" के साधारण अर्थशास्त्र से सब्जियों के दाम दोगुने होने की पूर्ण संभावना है, जो हर भारतबासी चाहे उसका संप्रदाय जो भी हो के जेब पर भरी पड़ने वाला है.


राजनीती में वोट बैंक के लिए नब्य भारत के सृजन में लोगो को अपने पैर पे कुल्हाड़ी मारते हुए देख और उससे होने वाले जख्म के दर्द से अनजान लोगो को उल्लास मानते हुए देख के मन में पीड़ा हो रही है। धर्म अपनी जगह है आस्था अपनी जगह है. लेकिन धर्म के नाम पर अपने भविष्य को बिगड़ना किसी भी लिहाज़ से समझदारी भरा कदम नहीं हो सकता है।

फेसबुक पे संदीप बसला जी दूध के अर्थशास्त्र को भारतीय बिजली कंपनियो के अर्थ शास्त्र से तुलना करते हुए बहुत अच्छे से इस समस्या के आर्थिक पहलू को उजागर करते है. संदीप जे कहते है :
"दूध का अर्थ शास्त्र को ऐसे समझो: नाकारा बिजली अधिकारी, नेताओं का तुष्टिकरण, पुलिस की कमी, और बेईमान जनता की वजह से अब आप जो बिजली के पैसे चुका रहे हो उसमे उस चोरी हुई बिजली का मूल्य भी शामिल है जबकि वो बिजली आपने उपभोग नहीं की उसका दंड भुगत रहे हम सब दूसरों पर खर्च हुई बिजली के मूल्य का - यही है बिजली का अर्थ शास्त्र.

ठीक इसी तरह से अब जब दूध देने वाले पशु तो दूध उतना ही देंगे पर दूध ना देने वाले पशु को भी चारा तो चाहिए ही उसकी लागत कहाँ से आएगी ? जो दूध बेचा जा रहा उसी से. तो जो दूध 40 rs लीटर है वो 100 rs मिलेगा. और रहने के लिए जगह ? सच्चाई ये है कि रहने के लिए जिन्दा लोगों के लिए नहीं है, पशुधन कहाँ रहेगा ? सिर्फ भावनाओं से काम नहीं चलता। देश पर बहुत भारी पड़ेगा ये फैसला।" अगर भावनाओ से ऊपर उठकर विचार करें तो इस तथ्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है, कि इस निर्णय से लोगो को लाभ तो कुछ भी नहीं होगा लेकिन हर ब्यक्ति को इसकी कीमत जरूर चुकानी पड़ेगी.

कहने का तात्पर्य ये है की जब तक किसी भी योजना का व्यावहारिक लाभ और सामाजिक समरसता सुनिश्चित नहीं किया जायेगा तब तक वह सिर्फ विद्वानों के लिए वादविवाद का विषय भर रहेगा. फेसबुक पर नितिन त्रिपाठी जी कहते है कि "सोशल मीडिया पर चाहे जो कोई जो कुछ कहे, कटु सत्य है कोई किसान बैल या बछड़े को नहीं पालता, सरकार गौशाला के लिए ऋण दे यह भी समाधान नहीं क्योंकि गौशाला के नाम पर तो सबसे ज्यादा फ्रॉड होता है| वित्तीय फ्रॉड की चर्चा किये बगैर केवल कार्य पद्धति में ही जाऊं तो मैंने लगभग सौ गौशालाएं देखीं और ज्यादातर में बैल या बछड़े नहीं दिखाई दिए. इतना ही नहीं गाय भी केवल वही ही दिखाई दीं जो दुध देती हैं. बात बिल्कुल साफ़ है, कोई भी मॉडल जब तक वित्तीय तरीके से लाभ दायक नहीं होगा तब तक उसे कोई भी किसान या व्यवसाई नहीं अपनाएगा. कृषि मेले में गौ मूत्र का खेती में उपयोग आदि की खूब चर्चा की जाती है| पर इन सबका प्रैक्टिकल इम्प्लीमेंटेशन दिखाई नहीं देता असल जिंदगी में बैल आधारित खेती भी असंभव है प्रैक्टिकली आधुनिक युग में, अगर सम्भव भी है तो प्रैक्टिकल में कहीं दिखती नहीं. इन सब परिस्थितियों में मुझे नहीं लगता की किसान या व्यवसाई को मजबूर किया जाना चाहिए बैल पालन हेतु.



नितिन जी का ये तथ्य हमे सोचने पे मज़बूर कर रहा है की क्या समर्थ और उन्नत भारत की कल्पना के साथ हम सही दिशा में चल रहे है या भावनाओ में बह कर राजनीतिक लाभ के लिए पिचले ६५ साल से जो कोंग्रेस कराती आई है, हम भी वही कर रहे है. देश के विकास और जन कल्याण की योजनाओं को टाक पर रख कर कांग्रेस एक समुदाय विशेष को लाभ पहुचाने का काम कर रही थी. नयी सरकार दुसरे समुदाय की भावनाओ से खेल रही है, महाराष्ट्र सरकार के इस निर्णय से मुझे किसी भी समुदाय या ऐसा कहें कि भारत के किसी भी ब्यक्ति को कोई लाभ होते हुए नहीं दिख रहा है. हाँ दूरगामी दुष्परिणाम सब को भोगना होगा.

जब किसानी पारम्परिक तौर तरीको से की जाती थी तब गौ पालन इतना खर्चीला नहीं होता था आप के ज्ञानवर्धन के लिए कुछ तथ्य : आज कम्बाइन हार्वेस्टर जमाना है, जब ये नहीं था, तब गेहूँ और धान की कटाई हाथो से होती थी. फसल से गेहू और धान निकलने के बाद जो बाई-प्रोडक्ट बचता था वो भूसा होता था, मुफ्त में मिल जाता था गेहू और धान की मड़ाई के साथ साथ.. अब कम्बाइन हार्वेस्ट से गेहूँ और धान की बालियां ऊपर ऊपर चुन लिया जाता है, कोई भूसा नहीं मिलता है, शेष खेत में आग लगा के उसे पुनः जुताई योग्य बनाया जाता है. अब भूसा चाहिए वो भूसा वाला हार्वेस्टर ले के उसी खेत की पुनः मड़ाई करे, प्रोसेस कॉस्ट दोगुना, और भूसा का खर्च ६-१० रुपये प्रति किलो।

एक गाय (दूध दे या न दे ) प्रति दिन ५-८ किलो भूसा खायेगी, मतलब ८० रुपये रोज, महीने के २४००। बाकि दाना पानी अलग से. इस खिलाने-पिलाने के दौरान लगाने वाला मानव संसाधन का महत्व हीं नहीं है. अब आप खुद अंदाज़ा लगाओ की एक दूध न देने वाली गाय को पालने का खर्च कितना है ? गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर करने वाला किसान जो अपना पेट पालने में असमर्थ है वो इनका क्या करेगा ? और हाँ... डेरी इंडस्ट्री वालो से कोई उम्मीद ही ना रखो, आत्मा काँप उठेगी आप की अगर एक बार भारत के किसी डेयरी में जा के देख लो, कि दूध न देने वाली गाय का ये लोग कैसे पालन पोषण करते है? और मर जाने पर क्या करते है? किसी ने सुझाव दिया कि राजीव दीक्षित जी ने बताया है की गाय दूध ने देते हुए भी लाखो का फायदा करा सकती है!!!!!! बताया गया है कि ८० लाख तक की आमदनी हो सकती है. मैंने कहा जी भैया ४०० क्विंटल गोबर हर महीने उत्पादन होता है मेरे यहाँ... पूरा का पूरा गाँव वाले फ्री में उठा के ले जाते है, जरा पता तो बता दीजिये उस इंडस्ट्री का, जो इस गोबर का व्यावसायिक उपयोग कर सके? हवा में बातें बनाना अलग बात है और धरातल पर कर्तब्य करना और बात. हाँ जिस दिन ऐसे इंडस्ट्री भारत के कोने-कोने में होगी, चाहे कोई कानून हो या न हो, कत्लखानो को गायें नहीं मिलेंगी कटाने के लिए, वो वैसे ही बंद हो जाएँगी।

किसी ने सुझाव दिया, आप गोबर गैस प्लांट क्यों नहीं लगा लेते? आइये आपको गोबर गैस प्लांट की व्यावहारिक हकीकत से रूबरू करते है. गोबर गैस प्लांट एलपीजी सिलेंडर जैसा नहीं होता। पहले गोबर गैस प्लांट के निर्माण के लिए लगभग २ लाख की पूंजी चाहिए। फिर उसमे गोबर डालना और हर १५ दिन बाद उसमे से सड़ चुके गोबर को बाहर निकालने के लिए पर्याप्त मानव संसाधन जुटाना मुस्किल है, भारत में कोई भी ऐसे काम को करने के लिए तैयार नहीं है, अगर कोई मिल भी गया तो काम १५-२० हज़ार रुपए महीने से काम ना लेगा। अब आते है गैस पर, गोबर गैस का व्यावसायिक उपयोग न के बराबर है, घरेलू उपयोग खाना बनाना और प्रकाश की व्यवस्था तक ही सीमित है. खाना बनाने के लिए एलपीजी ५०० प्रति सिलिंडर में मिलेगी, महीने भर के लिए पूर्ण है. प्रकाश के लिए LED लाइट कही ज्यादा सुभिधाजनक सस्ता और उपयोगी है. अब आप सोच के बताइये कि गोबर गैस सयंत्र बना कर, उसमे इतना निवेश कर के मै कितनी बुद्धिमानी का परिचय दूंगा ? जब तक गैस के बारे व्यावसायिक उपयोग के लिए हर गाँव में प्लांट नहीं लगेंगे, और जब तक इस गैस को बॉटलिंग कर के एलपीजी के बराबर का व्यावहारिक दर्ज़ा नहीं मिलता, ये सारी बातें बस कोरी कल्पना मात्र रह जाएँगी।

इस क़ानून का सबसे निर्मम पक्ष ये है कि गाँव में जब लोग बछड़ो और दूध न देने वाली गयो को बहार जा के छोड़ देते है तो वो गाये किसानो की फसल बर्बाद कराती है. किसान अपनी फसल रक्षा के लिए बड़े पैमाने पर कीटनाशको का इस्तेमाल करते हैं, ये कीटनाशक खाकर गायें तड़प तड़प कर मरती है. शहरों की स्थिति और भी खतरनाक है, लोग गायों को खाना पानी भी नहीं देते. सुबह दूध दुहने के बाद गाय के बच्चे को बांध लेते है और गाय को सड़को पर छोड़ आते हैं. प्लास्टिक कचरा और विषैले पदार्थो को खा कर वह गाय शाम के पुनः दूध देने आ जाती है, बाद में इसका जो दुष्परिणाम होता है वह यह कि इन गायों को कैंसर और Gastrointestine की बीमारियाँ हो जाती है और ये गाएँ तिल-तिल कर मरने के लिए मज़बूर हो जाती है.

समाधान यही है कि हम अपनी भावनाओ में बहने से बाहर निकलें हिन्दू धर्म में हर जीव को समान सत्ता माना गया है, मुर्गिया और बकरिया कटे तो कटे, और गाय कटे तो वो हमारी माता। दोनों के जीवात्मा में फर्क क्या है? कोई है हिन्दू तत्व दर्शन की व्याख्या के साथ इस रहस्य को समझने या समझाने वाला? हिन्दू धर्म तो ये भी कहता है जीव कभी नहीं मरता, उसका तो बस चोला बदल जाता है. फिर ये स्यापा रोना क्यों? ईश्वर ने सृष्टि बनाई तो पालक विष्णु और संहारक महेश (शंकर) दोनों को बनाया। सृष्टि को संतुलित बनाये रखने में पालक और संहारक दोनों का योगदान है, ऐसा तो नहीं की हम विष्णु को माने और शंकर की पूजा छोड़ दे. हर कोई गाय को अपनी माता मानना चाहता है, लेकिन कोई नहीं चाहता की एक बिना दूध देने वाले गाय को पालने की जिम्मेदारी उसके ऊपर डाल दी जाये। पैसा लगता है ना गाय के पोषण में और दूध भी नहीं मिलेगा। फिर इस स्वार्थ के रिश्ते को माता कह के बदनाम क्यों किया जा रहा है।

आप जिस धर्म को मानते हो, उस धर्म के भगवान के खातिर इस मुद्दे में धर्म को मत घुसेडिये, गाय को पालना हो पालिए, खाना हो खाइए, आप की अंतरआत्मा आप को जो भी करने को कहे करिए लेकिन बीच में धर्म को मत लाईये. कभी भारत कृषि प्रधान देश होता था गोवंश भारतीय अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग था. समाज धर्म के आधार पर चलता था, इसी लिए गाय को भी उच्च धार्मिक दर्जा प्राप्त था, आज समाज बदल रहा है, अर्थव्यवस्था का संचालन स्रोत बदल रहा है. हम एक ऐसे समय से गुजर रहे है जो संक्रांति काल है, हम अपने सोच में अभी इतने परिपक्व नहीं हो पाए है की धर्म और अर्थ के सोच को समानांतर बिना एक दुसरे को बाधित किये सोच सके. ऐसे परिस्थिति में एक बैकल्पिक रास्ते की जरूरत है जहाँ धर्म और अर्थ को निर्बाध गति से बिना किसी की भावनाओ को ठेस पहुचाये गति प्रदान कर सके. अर्थ या धर्म दोनों में किसी की भी अति किसी अवस्था में समाज के लिए आदर्श परिस्थिति नहीं उत्पन्न कर सकती. ये एक गंभीर विषय है, अर्थ को प्रधान मान के या धर्मान्ध हो अगर हम कोई निर्णय लेते है तो आने वाला भविष्य उसके दुष्परिणाम को भोगेगा, और जीवन भर हमे कोसेगा कि सही समय में हम ने सही फैसला नहीं लिया. इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए हमे सभी पहलुओं और वैकल्पिक रास्तो पर विचार करना चाहिए.


मेरा मानना है कि जो भी गौ पालक है उनको एनिमल हसबेंडरी की एडवांस टेक्नोलॉजी के बारे में जागृत किया जाये, उनके सामने आने वाली हर समस्या के निदान के लिए आर्थिक और सामाजिक माहौल मुहैया कराया जाये, अपनी माता (गाय ) के पालन पोषण में उनको खुद सक्षम बनाने पर बल दिया जाये. फेसबुक पर ही स्वाति गुप्ता जी कहती हैं कि "विदेशों मे काउ-फार्मिंग (गोपालन) होती है, जिसमें दो तीन लोग मिलकर दो हज़ार गाएँ मैनेज करते है । इन गायों का खाना भी अच्छा होता है और दूध भी अच्छा देती है । इधर उधर भी नहीं फिरती". सोचने वाली बात ये है कि हम वो टेक्नोलॉजी भारत में क्यों नहीं ला रहे है? गौपालकों को गौशाला के नाम पर सब्सिडी के वकालत करने वाले लोग इस दिशा में क्यों नहीं सोचते कि ये सब्सिडी काउ फार्मिंग (गोपालन) टेक्नोलोजी में लगे और हम उन्नत तरीके से गौपालन करे.

अगर वास्तविक रूप से इस समस्या के समाधान के लिए अगर किसी चीज के जरूरत है तो वो यह है कि उन्नत टेक्नोलॉजी और सरकारी सामाजिक सहयोग से एक इण्डस्ट्रियल विकास की, जिससे गैस, पावर, मिल्क प्रोडक्ट और बहुत से चीजों का व्यावसायिक इस्तेमाल हो सकता है। जब तक ये व्यवस्था गाँव गाँव में नहीं कर दी जाती तब तक समस्या जस की तस बनी रहेगी. पहले गौ आधारित इण्डस्ट्रियल विकास करना होगा, फिर एक-एक गोपालक को कच्चा मॉल सप्लाई के लिए इस चेन से जोड़ना होगा

इस मुद्दे पे अतुल दुबे जी कहते है के "भाई लोग जो गाय दूध नहीं देती उनकी रक्षा हो सकती है, जिसके लिए आप को दान देने की भी जरूरत नहीं / गौ मूत्र और गोबर से बहुत सारे समान ( मंजन से मच्छर मार अगरबत्ती तक) बनते है अगर हम ईस्तेमाल करे तो गौ रक्षा हो सकती है. बस जरूरत है लोगो तक इसकी अच्छाई पहुँचाई जाए". मै अतुल जी के इस सोच से काफी हद तक सहमत हूँ, पर मुख्य समस्या वही है जो चूहों के एक मीटिंग में चूहों के सरदार के सामने थी, बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? आप गोपालक से ये उम्मीद नहीं कर सकते की गोबर और मूत्र का व्यावसायिक उपयोग के लिए संसाधन पूंजी निवेश और बने सामानों की मार्केटिंग खुद करे. ये अन्याय होगा. हाँ एक और सच्चाई यह है कि मै अब तक अपने संपर्क में किसी को नहीं जानता जो मंजन में गोमूत्र और गोबर से बना प्रोडक्ट प्रयोग करते हो, और मच्छर मार में आलआउट और मार्टिन छोड़ कर कुछ दूसरा प्रयोग करते हो. बात कड़वी हो सकती है लेकिन सच्चाई से हम मुह नहीं मोड़ सकते. व्यापारी को जब तक शुद्ध मुनाफा नहीं होगा, वो ऐसी कोई भी इंडस्ट्री लगाने वाला नहीं. तो बात वहीं आ कर रुक जाती है, ऐसी योजना का विकास कैसे किया जा सके, कि गौसेवक गाय के मूत्र और गोबर को उन कंपनियों तक पंहुचा सके जो इसका व्यावसायिक उपयोग कर सके... और साथ में इतनी कमाई भी पा सके कि उनकी लागत मूल्य निकल सके? बिना दूध देने वाले एक गाय को पालने में लगने वाला मासिक खर्च ४-५ हज़ार पड़ता है, वास्तविक धरातल पर रहते हुए अगर बात करें तो क्या हम ऐसे इंडस्ट्री का विकास कर सकते हैं, जो गाय का गोबर और मूत्र के बदले गोपालक को प्रति माह ५-६ हज़ार रूपये दे सकती है ? वर्त्तमान में तो ये असंभव ही प्रतीत हो रहा है.


साथ में जो लोग बीफ (गौ मांस) के उद्योग से जुड़े हैं, उनको भी स्लाटर हाउस की एडवांस टेक्नोलॉजी के बारे में जागृत किया जाये और उनको इस उद्योग से अधिकतम मुनाफा कैसे बनाये इस बात की सीख दी जाये. इस मामले में राजकीय हस्तक्षेप करने की बजाय पालक और संहारक को अपना संतुलन बनाने के लिए स्वंत्रता प्रदान की जाये। क्योंकी पालक है, तो ही संहारक है, संहारक अपने उद्योग के फायदे के लिए पालक को ज्यादा गोबंश उत्पादन के लिए प्रेरित करे, इसी प्रकार पालक स्वय निश्चित करे की उसके हित में क्या है, ये समन्वय ही सृष्टि को अब तक चला रहा था और इसमें हस्तक्षेप सृष्टि श्रृंखला में परिवर्तन लाएगा जिसके दुष्परिणाम भयानक हो सकते है.

जैसा कि सब जानते है की मदिरा-गुटखा-बीड़ी-सिगरेट खतरनाक और नुकसानदेह है, सिवाय नुकसान के इन से कोई फायदा नहीं है, फिर भी सरकार इनके फैक्ट्री को बंद नहीं कराती है, बस जागरूकता अभियान चलती है. क्यों? ऐसे ही कत्लखाने बंद करना समस्या उपाय नहीं है, समुचित और सही उपाय तो तब होगा जब इन कत्लखाने के मालिको को कोई गौवंश बेचने वाला ही नहीं मिलेगा, जब गोपालकों को गौवंश का सही और फायदेमंद उपयोग (बायोगैस, जैविक फ़र्टिलाइज़र, आदि ) करने का टेक्नोलॉजी किफायती मूल्य पर उपलब्ध होगा तो वो इन्हे बेचेंगे क्यों? हमारा दुर्भाग्य ये है कि हमारी सरकारे मूल समस्या का इलाज ना कर के बस भावनाओ के साथ खेलना जानती है. वोट बैंक का सवाल है न. अगर आज बायोगैस, जैविक फ़र्टिलाइज़र, आदि टेक्नोलॉजी और इंस्ट्रूमेंट गौ-पालकों को मिल जाये, तो मै दावे साथ कह सकता हूँ कि ये कत्लखाने अपने-आप बंद हो जायेंगे. आज जो समस्या गौपालकों के सामने है, कल को इन स्लाटर हाउस मालिको के सामने भी वही समस्या होगी। उम्मीद करता हूँ कि सरकार जनभावनाओं से खेलने के जगह गौपालकों के लिए कुछ ठोस बंदोबस्त करने की दिशा में कदम उठायेगी...


Open Invitation for Guest Blogging on My blog

Written by गुरुवार, 05 मार्च 2015 12:06
अतिथि ब्लॉगर बनें... 

नमस्कार मित्रों...

जैसा कि आप जानते ही हैं कि व्यस्तता के कारण मेरा ब्लॉग लेखन लगभग बन्द सा ही है. मुश्किल से महीने में दो-तीन लेख लिख पाता हूँ, कभीकभार फेसबुक की छोटी-छोटी पोस्ट को ब्लॉग पर पोस्ट कर देता हूँ ताकि ब्लॉग "जीवित" रहे...| विगत एक माह में मैंने Anand Rajadhyaksha जी, Anand Kumar जी तथा भाई Gaurav Sharma जी की चुनिंदा बेहद उम्दा फेसबुक पोस्ट्स को (उनकी अनुमति से) अपने ब्लॉग पर कॉपी-पेस्ट किया.

आश्चर्यजनक रूप से इसके बाद मुझे ई-मेल पर बहुत ही उत्साहवर्धक फीड-बैक मिला है. बहुत से पुराने मित्रों, ऐसे मित्रों जो फेसबुक पर नहीं हैं, तथा वे लोग जो विस्तृत एवं गंभीर लेख पढ़ने के इच्छुक हैं उन सभी ने लिखा है कि हम भी लिखना चाहते हैं, और "हिन्दी में" कुछ अच्छा पढ़ना चाहते हैं.. क्या आप अपने ब्लॉग पर उसे स्थान देंगे?? आज होली के अवसर पर मैं अपने सभी मित्रों से आव्हान एवं अनुरोध करता हूँ कि "यदि वे चाहें तो" अपने लेख मुझे भेज सकते हैं. उनके नाम, उनकी फेसबुक लिंक आदि के साथ पूर्ण क्रेडिट देते हुए मैं उसे अपने ब्लॉग पर स्थान दे सकता हूँ.

इसके दो-तीन लाभ हैं :- १) जिन मित्रों का अभी तक खुद का ब्लॉग नहीं है, लेकिन फेसबुक पर भी वे लंबी-लंबी पोस्ट्स लिखते हैं, उन्हें मेरे ब्लॉग पर एक स्थायी ठिकाना मिल सकता है (फेसबुक पोस्ट की आयु अधिक नहीं होती). २) मेरे ब्लॉग की "साँसें" भी चलती रहेंगी... ३) जो लोग फेसबुक पर नहीं हैं, वे भी यहाँ की उम्दा पोस्ट्स से वंचित नहीं रहेंगे...

इसके अलावा ऐसा भी होता है कि अक्सर कई लोग जोश-जोश में अपना ब्लॉग तो बना लेते हैं, लेकिन नियमित लिख नहीं पाते, उन्हें भी मेरे ब्लॉग के रूप में एक प्लेटफार्म मिलेगा, जहाँ उन्हें अधिक पाठक मिल सकते हैं...

ज़ाहिर है कि भले ही ब्लॉग मेरा हो, लेखक के रूप में उनका नाम, आभार एवं कोई लिंक (यदि हो तो) दी ही जाएगी, एवं मेरी फेसबुक वाल से उस लेख को प्रचारित किया जाएगा ताकि अधिकाधिक लोगों तक वह पहुँचे...

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जो भी इच्छुक मित्र हों वे अपने लेख ujjaincyber@gmail.com पर अपने लेख भेज सकते हैं.

(इसमें एक बिंदु और जोड़ना चाहूँगा, कि कई मित्र मुझे कुछ सूचनाएँ भेजते हैं, शासकीय सेवा में होने के कारण वे अपना नाम ज़ाहिर नहीं करते, मैं भी उनकी गोपनीयता का पूरा सम्मान करता आया हूँ. यदि वे भी अपने विभाग से संबंधित कोई विस्फोटक लेख भेजना चाहें तो भेज सकते हैं, ज़ाहिर है कि सुरक्षा की खातिर, उस लेख में उनका नाम नहीं दिया जाएगा).

सभी मित्रों को होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ... ऐसे पावन अवसर पर इस नई पहल पर आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा...

A Boost for RSS Ghar Vapsi

Written by शुक्रवार, 27 फरवरी 2015 20:55
"घर वापसी" पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर... 


हिन्दू धर्म के लिए खुशखबरी तथा...हिन्दू धर्म द्रोहियों, चर्च-वेटिकन के गुर्गों और गाँव-गाँव में सेवा के नाम पर "धंधा" करने वाले फादरों के लिए बुरी खबर है कि सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाईकोर्ट के निर्णय को धता बताते हुए यह निर्णय सुनाया है कि यदि कोई व्यक्ति हिन्दू धर्म में वापसी करता है तो उसका दलित स्टेटस बरकरार रहेगा और उसे आरक्षण की सुविधा मिलती रहेगी... 

मामला केरल का है, जहाँ एक व्यक्ति ने हिन्दू धर्म में "घर-वापसी" की. उसे उसकी मूल दलित जाति का प्रमाण-पत्र जारी कर दिया गया. जब वह आरक्षण लेने पहुँचा तो वेटिकन के "दोगलों" ने हंगामा खड़ा करते हुए केरल हाईकोर्ट में याचिका लगा दी कि वह ईसाई बन चुका था, इसलिए उसे अब आरक्षण नहीं दिया जा सकता. अब सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दे दी है कि हिन्दू धर्म में लौटने के बाद भी वह दलित माना जाएगा और उसे आरक्षण मिलेगा.

ऊपर मैंने चर्च के सफ़ेद शांतिदूतों को "दोगला" इसलिए कहा, क्योंकि इन्हीं लोगों की माँग थी कि जो दलित ईसाई धर्म में जाए उसे भी "दलित ईसाई" श्रेणी में आरक्षण मिलना चाहिए. लेकिन जब वही व्यक्ति उनके चंगुल से निकलकर हिन्दू धर्म में वापस आया तो उसे आरक्षण के नाम पर रुदालियाँ गाने लगे. ठीक ऐसी ही दोगली कोलकाता निवासी एक महिला भी थी जिसे "सेवा"(?) उसी स्थिति में करनी थी, जब सरकार कठोर धर्मांतरण विरोधी क़ानून न बनाए. इस प्रस्तावित क़ानून के विरोध में मोरारजी देसाई को चिठ्ठी भी लिख मारी.

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पाखण्ड, धूर्तता, चालाकी, झूठ, फुसलाना आदि के सहारे हिंदुओं को बरगलाने वालों को तगड़ा झटका लगा है... अब गरीब दलितों के सामने अच्छा विकल्प है कि पहले वे चर्च से "मोटा माल" लेकर ईसाई बन जाएँ फिर कुछ वर्ष बाद हिन्दू धर्म में "घर वापसी" कर लें और मजे से आरक्षण लें... "आम के आम, गुठलियों के दाम'.." wink emoticon wink emoticon 


How to Debate Effectively on TV

Written by बुधवार, 25 फरवरी 2015 20:22
टीवी बहस और उसकी प्रभावोत्पादकता 

(साभार - आनंद राजाध्यक्ष जी)

Jeet Bhargava जी ने मुद्दा उठाया है कि टीवी डिबेट में आने वाले हिन्दू नेता न तो स्मार्ट ढंग से अपनी बात रख पा रहे है और ना ही विरोधियो के तर्कों को धार से काट रहे हैं.




विहिप, बजरंग दल और हिन्दू महासभा वाले बंधुओ, ज़रा ढंग के ओरेटर लाओ. होम वर्क करके बन्दे भेजो. 
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जीत भार्गव जी, मुद्दा आप ने १००% सही उठाया है लेकिन उत्तर इतना सहज और सरल नहीं है. वैसे इस विषय पर बहुत दिनों से लिखने की मंशा थी, आज आप ने प्रेरित ही कर दिया. लीजिये : 
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अच्छे वक्ता जो अच्छे तर्क भी दे सकें, और विषय की गहरी जानकारी भी रखते हों, आसानी से नहीं मिलते. मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो लिखते बेहद तार्किक और मार्मिक भी हैं, लेकिन लेखन और वक्तृत्व में फर्क होता है, डिलीवरी का अंदाज, आवाज, बॉडी लैंग्वेज इत्यादि बहुतही मायने रखते हैं जो हर किसी में उपलब्ध नहीं होते. अंदाज, आवाज और बॉडी लैंग्वेज तो खैर, सीखे और विक्सित भी किये जा सकते हैं लेकिन मूल बुद्धिमत्ता भी आवश्यक है. अनपढ़ गंवार के हाथों में F16 जैसा फाइटर विमान भी क्या काम का? 
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एक्टर और ओरेटर में यही तो फर्क होता है. अक्सर जो देखने मिलते हैं उन्हें वक्ता न कहकर ‘बकता’ कहना ही सही होगा. 


ज्ञान के साथ साथ वक्ते के वाणी मैं ओज और अपनी बात मैं कॉन्फिडेंस होना अत्यावश्यक है, तभी उसकी बात सुननेवाले के दिल को छू पाएगी. यह सब कुछ नैसर्गिक देन नहीं होता. कुछ अंश तक होता है, बाकी लगन, मेहनत और प्रशिक्षण अत्यावश्यक है. हीरा तराशने के बाद ही निखरता है .
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टीवी डिबेट एक और ही विधा है, केवल वक्तृत्व से काम नहीं चलता. भारतीय दर्शन परंपरा मैं वाद विवाद पद्धति पर ज्ञान उपलब्ध है; जरूरत है उसके अभ्यास की. इसको टीवी डिबेट के तांत्रिक अंगों से align करना आवश्यक है कि विपक्ष से कैसे फुटेज खाया जा सके, आवाज कैसी लगानी चाहिए, बॉडी लैंग्वेज कैसी होनी चाहिए, मुख मुद्रा (एक्सप्रेशन) कैसे हों, आवाज के चढ़ उतार इत्यादि.
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पश्चिमी देशों की और अपने यहाँ वामपंथियों की इस विषय में गहरी सोच है, यह विषय का महत्त्व समझते हैं. पश्चिमी देशों में यह तो बाकायदा एक व्यवसाय है और ऐसे प्रोफेशनल्स की सेवाएं लेना वहां के राजनेता अनिवार्य मानते हैं. मोदीजी ने भी ऐसे मीडिया कंसल्टेंट्स की सेवाएं लेने की बात सुनी है, लेकिन अधिकारिक रूप से पुष्टि नहीं कर सकता. वैसे, डिबेट के स्तर का नेता या प्रवक्ता और मंच पर जनसमुदाय को सम्बंधित करनेवाला वक्ता उन दोनों में अंतर रहता है, लेकिन वो विषय विस्तार इस पोस्ट के दायरे से बाहर है. अमेरिका में प्रेसिडेंट पद के लिए शीर्ष के दो प्रत्याशियों को डिबेट करनी पड़ती है, अपने यहाँ वो प्रणाली नहीं है. 
अपने यहाँ वामपंथी लोग कॉलेज स्तर से ही विद्यार्थियों को अपने जाल में फंसाते हैं और उनका कोचिंग करना शुरू होता है. एक सुनियोजित पद्धति से उनकी जमात बनाई जाती है जो उनकी सामाजिक सेना भी है. यहाँ http://on.fb.me/1mFlPkB और यहाँhttp://on.fb.me/1CFIwMO पढ़ें. 
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इसमें अब हिन्दुत्ववादी संघटनों को करने जैसे तात्कालिक उपाय क्या होंगे जो बिना प्रचुर धन खर्चे हो सके? हाँ, समय अवश्य लगेगा, लेकिन बच्चा शादी के दूसरे दिन तो पैदा नहीं हो सकता भाई ! Full term delivery ही सही होगी. तो प्रस्तुत है :
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1. संघ की हर "शाखा" में विषय चुन कर वक्तृत्व को उत्तेजन दें. अभ्यासी, होनहार लोगों / मेधावी बच्चों का चयन करें. विविध विषयों का चयन हो, और वक्ता के आकलन शक्ति, delivery इत्यादि उपरनिर्दिष्ट शक्तियों का अभ्यास किया जाए, बिना पक्षपात के. 
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2. इनमे से छंटे वक्ताओं की तालुका, जिला, शहर और राज्य स्तर पर परीक्षा हो. किसमें कौनसी / कितनी भाषा में किस हद तक धाराप्रवाह और तार्किक वक्तृत्व की क्षमता है यह जांचा जाए. कौनसा वक्ता मंच का है और कौन सा टीवी डिबेट का, किसे प्रचार टीम में जोड़ा जाए, किसे थिंक टैंक में समाया जाए ये काफी उपलब्धियां इस उपक्रम से हो सकती हैं. इसी परीक्षा का विस्तार राष्ट्रीय स्तर पर भी किया जाए ये भी अत्यावश्यक है, सारी मेहनत इसी के लिए ही तो है. 
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3. उनमें जो कॉलेज के छात्र हों उन्हें अपने सहाध्यायिओं को प्रभावित कर के इस धारा में जोड़ने का प्रयास करना चाहिए. कॉलेज में भी वक्तृत्व स्पर्धा में अवश्य भाग लें, इस से लोकप्रियता भी बढ़ेगी, एक neutral या hostile क्राउड का भी अनुभव होगा, stage-fright जाती रहेगी. 
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4. अभी जो लोग लिख रहे हैं, विडिओ पर भाषण देने का भी अभ्यास करें. आजकल विडियो बिलकुल मुफ्त की चीज हो गई है मोबाइल के चलते. कम से कम ढाई मिनट और ज्यादा से ज्यादा दस मिनट तक भाषण कर के देख सकते हैं कहाँ तक प्रभावशाली हैं और कहाँ तक लोगों को पकड़ में रख सकते हैं. आपस में स्काइप पर विडिओ कॉन्फ़्रेंसिंग कर के डिबेट कर के भी देख सकते हैं कि किस लायक है नेशनल टीवी पर जाने के लिए ?
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5. उपरोक्त जो विडिओ टॉक की बात कही गई है, अपने आप में एक स्वतंत्र और महत्वपूर्ण विधा भी है. अपना फोल्लोविंग बढाकर पक्ष विचार से अधिकाधिक लोग जोड़ सकते हैं. सेना में हर कोई जनरल नहीं होता, पर हर किसी का योगदान अपनी जगह पर बहुत महत्त्व रखता है, और बिना १००% योगदान के मुहीम फेल हो सकती है. वो कहावत तो आप ने पढ़ी ही होगी . नाल से गिरी कील वापस न ठोंकने पर घोडा गिरा, इसीलिए घुड़सवार गिरा.... कील ही सही, लेकिन यह जान लें की यह कील दुश्मन के coffin में ठोंकी जा रही है, अगर मजबूत न रही तो coffin तोड़कर Dracula बाहर आएगा जरूर...
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6. और जो प्रभावी लेखक हैं अगर वक्ता नहीं है तो कोई बात नहीं, आदमी पढ़ना नहीं छोडनेवाला... आप की भी बहुत भारी जरुरत है भाई, बस आप भी अपनी क्षमता की एक बार जांच कर लें और अपने niche में अपनी तलवार – मतलब कलम – को और धारदार बनाए – वार उसका भी खाली नहीं जाता और न जाए... 


A Wise Advise to Hinduvta Forces

Written by सोमवार, 23 फरवरी 2015 10:51

हिंदूवादियों को प्यार भरा एक पत्र


(कूटनीति से अनजान, "उतावले हिन्दूवादियों" को भाई गौरव शर्मा की एक तेज़ाबी, लेकिन यथार्थवादी नसीहत...) 

खुर्शीद अनवर याद है , जेएनयू का बहुत बड़ा नारीवादी बुद्धिजीवी था और बलात्कारी भी , पर दुस्साहस देखिये जब उसका मामला आया तब पूरी सेक्युलर जमात उसके पीछे खड़ी हो गयी , वही सेक्युलर जमात जो बुद्धिजीवियों से भरी पडी है और जहाँ "एक हो जाओ" जैसी बातें करना बचकाना समझा जाना चाहिए , खैर हमने सोचा की इकलौता केस होगा , फिर लिफ्ट में अपनी बच्ची की सहेली के साथ बलात्कार करने वाले वहशी तरुण तेजपाल की बारी आई , बड़े बड़े बुद्धिजीवियों ने उसके समर्थन में अख़बार के अख़बार भर डाले , नहीं नहीं साहब जमानत तो मिलना चाहिए उन्हें रेप ही तो किया है मर्डर थोड़े ही किया , ऐसे जुमले फेंके गए , कल तीस्ता जैसी फ्रॉड दलाल के समर्थन में सैकड़ों सेक्युलर सडकों पर उतर गए, दंगा पीड़ितों का पैसा खा जाने वाली के सारे अपराध सिर्फ इसलिए माफ़ हो गए क्योंकि उसने मोदी से लोहा लिया , ट्विटर , फेसबुक पर उसके समर्थन में मुहीम चल रही है , आज दलालों की दलाल बुरखा दत्त एनडीटीवी से विदाई ले रही हैं , ट्विटर पर उसकी विदाई का ऐसे वर्णन हो रहा है जैसे कोई योद्धा बरसों तक लड़ने के बाद रिटायर हुआ हो , और ये सब तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवी ही तो हैं जो उसके सारे गुणदोष भूलकर अपने साथी के साथ खड़े हैं!! इन सब का एजेंडा साफ़ है हिन्दुत्ववादी ताकतों को हराना , ये अपने दिमाग में कोई फितूर नहीं पालते की सही क्या है और गलत क्या है , कॉमरेड है बस , बात खत्म !!



एक हम हैं... महान बुद्धिजीवी , किरण बेदी जैसी महिला हमारी आँखों के सामने कृष्णानगर से हार गयी और हम वहीँ पान की दुकान पर पिचकारी मारते रहे , कहते हैं की किरण बेदी हमारी विचारधारा के लिए नयी थी इसलिए काम नहीं किया .....तो भाई मेरे..... अरविन्द केजरीवाल नितीश कुमार और प्रकाश करात का कोई लंगोटिया यार था क्या ? फिर क्यों वे सब उसके पीछे एक हो गए ? क्यों गोयल और मुखियों की तरह उन्हें ये डर नहीं सताया की ये आदमी आगे बढ़ गया तो हमारा करियर भी ख़राब कर देगा ? देखा जाए तो असली बुद्धिजीवी तो हम हिंदूवादी हैं क्योंकि हम ज्यादा देर तक किसी की अच्छाई के साथ खड़े हो ही नहीं सकते , मीन मेक निकालना , आपस में ही अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता की होड़ मचाना कोई हमसे सीखे , हमसे कोई कह दे की आपको 1 महीने तक मोदी के खिलाफ कुछ नहीं लिखना है फिर देखिये पेट दुखने लगेगा, दस्त लग जायेंगे , हम बाल नोचने लगेंगे पर थोड़े दिन चुप नहीं रह सकेंगे  ? आखिर निष्पक्ष फेसबुकिस्म भी कोई चीज़ है !! और ये मानसिकता फेसबुक तक नहीं बल्कि ऊपर से लेकर ज़मीन पर काम करने तक फैली है ...जेटली और राजनाथ को विरोधियों ने नहीं बल्कि हमने खुद फ्लॉप किया , खैर जब हम मोदी को ही नहीं बक्शते तो ये कहाँ के सूरमा हैं !! 


जैसे कुछ महीनों पहले मोदी की फ़र्ज़ी चापलूसी करना एक फैशन था वैसे ही आजकल मोदी को गरियाना भी एक फैशन हो चला है , छोटा छोटा फेसबुकिया भी अपने आप को मोदी से बड़ा हिंदूवादी समझता है , हमें मोदी से ये शिकायत है की वो हमारे हिसाब से क्यों नहीं चलता , काम होते हुए दिख तो रहा है पर हमारी इन्द्रियों को तुष्ट करने वाली स्टाइल से नहीं हो रहा , हम चाहते हैं की वाड्रा को घर से घसीटते हुए सड़क पे पीटते पीटते थाने तक लाया जाए जबकि मोदी अपनी स्टाइल से कानून के सहारे वही सब कर रहे हैं , हम चाहते हैं गौ वध , धर्मान्तरण क़ानून अभी के अभी लाया जाये भले ही ओंधे मुँह गिर किरकिरी क्यों ना हो जाये  , जबकि मोदी उसके लिए राज्यसभा में बहुमत इकठा करने की जुगत में हैं !! हम चाहते हैं की अरब देशों की चापलूसी बंद हो और इज़राइल से दोस्ती बढे ......तो उसके लिए तेल की निर्भरता खत्म करनी होगी , अब रूस के साथ संधि के बाद ये निर्भरता खत्म होने की पहल शुरू हुई है !! हम चाहते हैं मीडिया पर लगाम कसी जाए पर बताते नहीं की कैसे ? क्या स्टूडियों में घुस जाएँ और गर्दन पकड़ लें ? अब बात ये है की मीडिया की जान उनके व्यावसायिक घपलों में छिपी है जिन्हे एक एक कर बाहर लाया जा रहा है , डेक्कन क्रॉनिकल के मालिक की गिरफ़्तारी उसी कड़ी में समझी जाये , एनडीटीवी बहुत जल्द कानून के शिकंजे में आने वाला है , आईबीएन समूह बहुत हद तक अपनी लाइन सही कर चुका है !! 



एक बात गाँठ बाँध के रख लो दोस्तों , मोदी हिन्दुओं की आखिरी उम्मीद है , सैकड़ों साल से गायें कट रही हैं , पांच साल और कट जाएँगी तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा , पर अगली बार मोदी नहीं आया तो ये सारे सेक्युलर की खाल में बैठे जेहादी मिलके तुम्हारा ऐसा हश्र करेंगे की आने वाले कई सालों तक किसी दूसरे मोदी के दिल्ली तक पहुँचने  का सपना देखने में भी डर लगेगा  !! ऐसा नहीं है की मैं मोदी से हर चीज़ में सहमत हूँ , विरोध मैंने भी किया है, पर बहुत विचार के बाद अब चुप रहना सीख लिया है , उसे पांच साल मौका देने का मन बना लिया है क्योंकि मेरे मोदी के बारे में विचार भले कुछ भी हों....... मुझे मेरे और मेरी आने वाली पीढ़ियों के दुश्मनों का पूरा आभास है ,और जिन हिन्दुओं को ये आभास होते हुए भी मोदी को गरियाने में एक विशिष्ट संतुष्टि का अनुभव होता है उन्हें आज की परिस्थितियों में मैं "महामूर्ख" की श्रेणी में रखना पसंद करूँगा !!

समय की ज़रुरत है की मोदी के विकास मन्त्र को , उपलब्धियों को घर घर पहुँचाया जाए , क्योंकि मोदी को वोट सिर्फ आपने ही नहीं कईयों ने कई कारण से दिया है , आप घराती हो आपके लिए खाना बचे न बचे ये मेहमान आपके घर से भूखे नहीं जाना चाहियें , हिन्दुओं को भी उनकी सुरक्षा और भविष्य के संकट समझाना मुश्किल है और विकास के मुद्दे समझाना आसान !! और ये करना भी इसलिए जरूरी है ताकि एक हिंदूवादी ना सही हिन्दू हितैषी स्थिर सरकार भारतवर्ष में बनी रहे क्योंकि याद रहे जब तक मुर्गी ज़िंदा रहेगी तब तक ही अंडे देगी  , अटल जी की तरह उसका भी पेट चीर दोगे तो अगला मनमोहन केजरीवाल के रूप में पाओगे , फिर लड़ते रहना इन टोपीवालों से ज़िंदगी भर !!  

Windows Versus Linux

Written by रविवार, 22 फरवरी 2015 18:49
विन्डोज़ Vs लाईनक्स 

(फेसबुक की वाल से कॉपी - ताकि भविष्य में सनद रहे)
Windows के करप्ट होने, क्रैश होने, वायरस हमलों आदि से बहुत परेशानी होती है... बारम्बार Install करने अथवा Restore/Recovery करने में समय बर्बाद होता है...
समस्या यह है कि मेरा साइबर कैफे होने के कारण सभी पीसी पर Linux भी नहीं अपना सकता... क्योंकि कैफे पर जो सामान्य ग्राहक, Gmail तक को गूगल सर्च बॉक्स में जाकर खोजते हों, जो अनभिज्ञ ग्राहक आज भी Chrome की बजाय, इंटरनेट का मतलब Internet Explorer ही समझते हों... उन्हें Linux का ले-आउट और इंटरफेस कैसे सिखाऊँगा?? कुछ ऐसा होना चाहिए, कि Windows करप्ट या क्रैश होने की स्थिति में सिर्फ पेन ड्राईव लगाकर दस-पन्द्रह मिनट में पूरा का पूरा सिस्टम (डाटा, प्रिंटर्स, साफ्टवेयर आदि सहित) Restore हो जाए...

=====================यदि ऐसा हो जाए तो फिर तो तमाम एंटी-वायरस से भी तौबा की जा सकती है... आने दो वायरसों को... जैसे ही विंडोज क्रैश हुआ... दस मिनट में पीसी को फिर से ओके कर लिया... क्या ऐसा कुछ होता है?? 

समाधान हेतु आए कुछ चुनिंदा जवाब को भी यहाँ लिख रहा हूँ... ताकि रिकॉर्ड में रहे... 

Adhokshaj Mishra · Aisa ho to sakta hai, lekin

1) 10 min me nahi hoga
2) thoda tedha kaam hai.

Disk cloning and recovery software use kariye. Aam taur pe 30-40 min pe sab ready ho jayega. Sare software, driver, settings sab kuch. 


Adhokshaj Mishra · Friends with Anand G. Sharma





Ranjan Jain लिनक्स हॉट इमेज या रेडी तो यूज़ इमेज ट्राई करो। हर बार एक ही स्टेटस रहेगा सिस्टम का। बूट होते ही पहले जैसा। 

 · 
Agar aap windows hi use karna chahte hai to Acronic True Image install kijiye. jisse aap apna system crash or corrupt ho jaane par aap pehle jaisa restore kar sakte hai maatr 15 min me. 

Ankush Kalia · Friends with लवी भरद्वाज सावरकर


किशोर बड़थ्वाल fedora Linux kar sakte hain.. interface lagbhag window jaisa he hai aur chrome to sabhi Linux me chal jata hai... mai 19 saal se pahle UNIX aur fir Linux use kar raha hun.. kabhi koi samasya nahi aayi... aur virus to kabhi nahi... 


Prabhat Sandheliya Linux install कर लीजिये फिर उसमें windows virtualbox चला लीजिये। कभी भी विंडोज currupt हो जाये तो virtual machine फिर से कॉपी कर लीजिये। 


Shyam Rathore 1. Install Linux 2. Install VirtualBox 3. Create virtual machine 4. Virtual machine ko clone kare and every morning reset to initial state. I can demo on teamviewer to you. 


Hridayesh Gupta clonezilla se pure system ki image bana kar rakh sakte hain. jab corrupt ho jaye to 30 minutes me pura system waisa ka waisa sab kuch installed aa jayega jab image banayi hogi
http://clonezilla.org/ 


  •  linux mint प्रयोग करें .. इसमें mozila firefox और google chrome दोनों ब्राउज़र डाल सकते हैं .. किसी डिवाइस ड्राइवर की भी जरुरत नहीं .. एकदम विंडोज जैसा है .. किसी मदद के लिए मुझे फोन कर सकते हैं नंबर मेसेज बॉक्स में भेज रहा हूँ
  • Samant B Jain ९९% लिनिक्स का पेन ड्राइव से बूट करने वाला वर्शन बनाना संभव है .. ये टूल डाउनलोड करें http://www.pendrivelinux.com/universal-usb-installer.../ 


दिब्यम प्रभात् Suresh Chiplunkar जी शायद मेरे दो सुझाव आपके काम आ सकता है....
(1) Linux का OS install करे फिर उसके ऊपर Oracle का Virtual Box install करने से आपकी समस्या हल हो जाएगी....और फिर आप उसमे Xp install कर दीजिये....सारा सॉफ्टवेर install करने के बाद आप एक Snapsort ले लीजिये बाद में समस्या आने में आप मिनट में सिस्टम को Restore/Revert कर सकते है... 
लिंक :- https://www.virtualbox.org/ 

पर इसके लिए एक अच्छा हार्डवेयर चाहिये...
(2) सबसे अच्छा और सबसे हल्का linux जिसे आप पेन ड्राइव से चला सकते है और data और सारा configuration भी save कर सकते है वो Puppy Linux है जिसे आप यहाँ से डाउनलोड कर सकते "OS Size is aprox. 170 MB" साथ में ऑफिस package भी और काम की बहुत सॉफ्टवेर Preloaded रहती है....है...http://puppylinux.org/main/Download%20Latest%20Release.htm
वैसे मैंने अपने कैफे में काफी हद तक सफल प्रयोग किया था...आप भी अपने किसी एक PC में Trial कर के देख लीजिये.... 


Sponsored Mass Movements in India - Technique and Targets

Written by गुरुवार, 12 फरवरी 2015 11:46
मार्केटिंग तकनीक से खड़े किए गए जन-आंदोलन 

(आनंद राजाध्यक्ष जी का एक और अदभुत विवेचन)

मुझे यकीन है कि आप इस पोस्ट को  पूरा पढेंगे,  लेकिन आप को पहले ही बता दूँ कि यह पोस्ट लम्बी है. पढ़ने में ५ मिनट लेगी और सोचने में १० . इसीलिए अगर आप इसे न पढ़ना चाहें तो आप से अनुरोध है कि इसे SHARE करते जाएँ, औरों को भी काम आ सकता है . 
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आज के भारत में लोकतंत्र में सत्ता के विरोध में जन आन्दोलन खड़ा करना बहुत ही आसान है और कठिन भी. कठिन इसलिए है कि आप को बहुत सारा पैसा लगेगा.  ये काम में सहयोगी लगेंगे और वे भी फुल टाइमर. हज़ारों की संख्या में कार्यकर्ता भी लगेंगे, फुल टाइमर.  उनके payment का प्रबंध आप को करना होगा.


मान लेते हैं कि यह हो गया. कैसे, ये बताया जायेगा, लेकिन फिलहाल देखते हैं कि आज के भारत में लोकतंत्र में सत्ता विरोध में जन आन्दोलन खड़ा करना बहुत ही आसान क्यूँ है.  यह जन आन्दोलन कैसे चलाया जाए, अन्य देशों में कैसे चलाया गया, यह सब विस्तृत स्टेप by स्टेप जानकारी उपलब्ध है ही और वो भी बाकायदा “course module” के तर्ज पर ! तो चलें देखते हैं कि ये कैसे हो सकता है.
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लेकिन उस से भी पहले PG Wodehouse का एक चुटकुला सुनिए. सम्बन्ध अपनेआप समझ में आ ही जाएगा. होता यूँ है कि एक रौबदार व्यक्तिमत्ववाला पुख्ता उम्र का सजा संवरा व्यक्ति, जहाँ भी जाता है, खुद पहल कर जो भी मिले उस से बात छेड़ता है. उसकी opening line एक ही होती है, “How are you keeping, my dear? And how's the old complaint?" इस आदमी  के साथ किस्सा बयान करनेवाला अपना नायक खड़ा है, और अचंभित है कि किस कदर अनजान लोग इस आदमी के सामने अपने दिल के राज खोल देते हैं. ये पांच दस मिनिट के लिए सुन लेता है, सांत्वना देता है और फिर बहुत ही आराम से अपना काम उनसे करवा लेता है. काम वैसे बहुत मुश्किल नहीं होते, लेकिन जाहिर है कि ऐसे ही किसी अनजान व्यक्ति के लिए यूँही नहीं किये जाते. अंत में ये व्यक्ति अपनी कामयाबी का राज बता देता है... हर किसी को कोई न कोई तकलीफ होती है, और उस से भी बड़ी तकलीफ ये होती है कि कोई सुननेवाला नहीं होता.... बस, काम ऐसे ही होते हैं, समझे?
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तो भाई, आप के पास दो लडके और एक लड़की भी आती है. स्मार्ट से हैं, अच्छी इंग्लिश बोल लेते हैं लेकिन आप से तो बिलकुल शालीनता से हिंदी में बात करते हैं. आप से एरिया की समस्याएं के बारे में पूछते है.  क्या समस्याएं हैं, कोई इलाज होता भी है या नहीं, कोई आप की सुनता भी है या नहीं, इत्यादि.
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आप को बता दूँ, हर कोई सरकार से हमेशा नाराज ही रहता है. सरकार को गाली देना लोगों के लिए रोज का  टाइमपास  है. लेकिन सोचिये, यही लोग अगर चार महीने में आप को दस बार मिले, तो एक सम्बन्ध बन जाता है. और अगर आप को अपने प्रॉब्लम को हल करने के लिए कोई ख़ास तकलीफ नहीं, बस इनके सुझाये लोगों को वोट देना है, तो बात मन में उतर जाती है, क्योंकि बहुतही लॉजिकल तरीकेसे समझाई जाती है, वो भी हंसते हंसते शालीनता से और मिठास से. और साथ साथ और भी ऐसे रोजमर्रा के प्रोब्लेम्स का जिक्र होता है और आप का वोट इन सब मर्ज की दवा बताई जाती है.... अब आप ही बताएं, जो पक्ष की टोपी पहनकर बतौर कार्यकर्ता आप के घर आये – क्या  आप उनकी इतनी सुनेंगे?


चलिए, अब लेते हैं दूसरे मुख्य मुद्दे को, कि यह सब करने के लिए जो संसाधन जुटाने होंगे, उसके लिए पैसे कहाँ से आयेंगे?  इसका भी उत्तर है अगर आप राजनीति से हट कर marketing के  ढंग से सोचें. निवेश के लिए उद्योगपति अपनी योजना ले कर ऐसी संस्थाओं के पास जाता है जिन्हें उस योजना में अपना लाभ दिखाई दे, तो वे निवेश करें. आप उन्हें पूरा प्रोजेक्ट रिपोर्ट दें, आप क्या करेंगे, कैसे करेंगे, सब समझा दें. कुछ सुझाव वे भी देंगे, जो आप मानेंगे अगर उतने बड़े निवेश करनेवाले दूसरे आप के पास न हों.  और एक बात है. उद्योजक के अक्ल पर निवेशक को विश्वास है तो खुद भी चले आते हैं कि उसके काम में वे अपने लाभ के लिए पैसे लगायें.
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अब ये योजना है सरकार बदलने की तो आप सोचिये इसके लाभार्थी कौन हो सकते हैं?

१ बाहरी देश जो टार्गेट देश का महत्व कम करना चाहते है, उसकी प्रगति रोकना चाहते हैं वे चाहेंगे कि अगर सरकार पलट दी गई या उसको करारा धक्का दिया गया तो उसके विकास में अवरोधना पैदा होगी. वैसे वे तो सामने नहीं आयेंगे तो बात और अच्छी है. सरकारी तौर पर सम्बन्ध भी नहीं बिगड़ेंगे और डायरेक्टली involve भी नहीं होंगे. दामन बेदाग़ ! सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे ....

२  वे सभी संस्था जिन्हें विद्यमान सरकार की नीतियों से तक़लीफ़ हो रही हो. यहाँ ये बात नहीं कि संस्था का कार्य राष्ट्रहित में है या नहीं. सरकार का हस्तक्षेप अगर संस्था हित में खलल पैदा करता है तो वो संस्था सहकार्य करेगी. Money power , man power, जो बन पड़े.

३  अन्य राजनीतिक दल जिनका भी विद्यमान सरकार को बदलनेका अजेंडा हो. उनकी सहाय्यता विविध रूप ले सकती है; जैसे कि सिर्फ सरकार पक्ष के वोट काटने के लिए दुर्बल प्रत्याशी खड़े करें, कोई जगह न ही करें और अपने निष्ठावान मतदाताओं को समझाये कि किसे वोट देना है.

४  अगर सरकार पक्ष को किसी विशिष्ट विचारधारा या धर्म से जोड़ दिया जाए तो बाकी सारे संप्रदायोँ से उनके विरोध में समर्थन की मांग की जा सकती है ये तो आप समझ ही गए होंगे...

५   प्रवासी जन समुदायों को उनके मूल स्थानों से संदेसे आने की व्यवस्था की जा सकती है, विशेषकर अगर उन स्थानों के शासक भी इस सत्ता परिवर्तन में अपना लाभ देखते हों. Money power , man power, जो बन पड़े वाला नियम यहाँ भी पुरजोश लागू होता है.


ये तो हुई मार्केटिंग बाहरवाले निवेशकों को. याने पैसो का इंतजाम हो जाता है, man power का भी. लेकिन इस योजना में स्थानिक जनता का ही मुख्य रोल है तो जनता को अपने तरफ मोड़ना है. इसमें भी अलग अलग तरीके काम आते हैं.

अ) अगर उन्हें लगे कि उनके तकलीफों का इलाज आप कर सकते हैं 

ब)  सरकार प्रति रोष – जायज / नाजायज से मतलब नहीं, जो वोट दे सकता है  वो अपना है . नाराज सरकारी कर्मचारी इसमें गिने जा सकते हैं. अवैध निवासी, अवैध हॉकर इत्यादि भी आपके पास आयेंगे अगर आप में  उन्हें एक  तगडा पर्याय दिखें.

क)  सीधा प्रलोभन – मुफ्त , या साथ में वोट के लिए कॅश / वस्तू, दारु....
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हो गया मार्केटिंग पूरा . पहले संस्थात्मक निवेशकों को issue बेच दिया, बाकी public को ...हो गया over subscribe ! आसान नहीं है  ये सब पापड बेलना , लेकिन जिन्हें कुछ करने की जिद होती है वे कुछ भी कर जाते हैं. कुछ भी .... इमानदारी, राष्ट्रहित, कोई मायने नहीं रखता ....
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तो ये एक अनदेखा पहलू . ख़ास कर के लम्बे समय तक सर्वे से सेल्समन से कार्यकर्ता तक का, उसके लिए लगनेवाले हजारों ट्रेंड लोगों का जिनका कहीं रिकॉर्ड ही नहीं क्यूंकि वो सब जिम्मा आप के इन्वेस्टर उठाते है.  जहाँ से आये, चले गए... सम्प्रदायिक वोटरों को संभालने उनके रहनुमाँ, राहबर और shepherds, उनके ही खर्चे से ... वे भी इन्वेस्टर... प्रवासी वोटरों को आप के साथ जोड़ने के लिए उनके मूल राज्यों से भेजे गए लोग –सब बतौर इन्वेस्टमेंट !  न आपको  खर्चा उठाना है, न आपको कोई रिकॉर्ड रखना, और ना ही कहीं रिकॉर्ड  दिखेगा ....


इन सब ऑफ द रिकॉर्ड ताकतों का प्रभाव तो दिखाई देगा ,  लेकिन अस्तित्व नहीं.  नतीजा ये कि ये आभास सफलता से बनाया जा सकता है  कि ये  दीये की  तूफ़ान से लड़ाई हैये दिया नहीं, मुल्क को राख कर देनेवाला दावानल है ये अंदाजा शायद बहुतों को आता  ही नहीं, और जिन्हें समझ आता है  वे बताते नहीं हालांकि बताना ही उनका धर्म और कर्म है. शायद वे मुद्दा क्र. २ में अंतर्भूत हैं...
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बाकी काफी बातें तो आप पढ़ ही रहे हैं.  और आप ने अगर देखा होगा तो इस आलेख में कोई भी नामनिर्देश नहीं है.  आप चाहें तो इसे परिकल्पना समझ सकते हैं.
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इतनी लम्बी पोस्ट पढ़ने का शुक्रिया, शेयर करने का अनुरोध तो है.... 

Economic Horror - Mufflerman Kejriwal of India

Written by रविवार, 08 फरवरी 2015 12:48

आ रही है भारत की सब से डरावनी हॉरर फिल्म – "मफलर मैन" !



(7 फरवरी को दिल्ली विधानसभा के Exit Polls एवं संभावित परिणामों के आधार पर श्री आनंद राजाध्यक्ष जी की पोस्ट)... 

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येशु  को जब सूली पर चढ़ाया गया तब उसने परमेश्वर से प्रार्थना की थी: इन्हें क्षमा करो, ये जानते नहीं ये क्या कर रहे हैं.

येशु  एक महान आत्मा था, लेकिन economy येशु नहीं होती, और माफ़ तो बिलकुल भी नहीं करती.दिल्ली ने AAP को वोट दे कर जो पाप किया है उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी. दुःख की बात ये है कि ये कीमत केवल दिल्ली को ही नहीं, पूरे भारत को भी चुकानी पड़ेगी.
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बनिया अगर जानता है कि पार्टी उधार देने की लायक नहीं है, तो वो कभी उधार नहीं देता. केजरीवाल के चुनावी वादे प्रैक्टिकल नहीं थे. उसके हर वादे पर प्रश्न चिहन है कि ये इसके पैसे कहाँ से लाएगा? जाहिर है कि अगर ऐसा आदमी सत्ता में आता है तो वो पूरे देश के अर्थतंत्र पर खराब असर करेगा जब तक वो सत्ता में रहता है. इसका सीधा असर शेयर मार्केट पर होगा, जैसे ही इसकी जीत कन्फर्म होगी, मार्केट फिसलने लगेगा. करोड़ों का नुकसान होगा और दिल्लीवाले भी इसमें नहीं बचेंगे.


मार्किट के चरमराते इसका असर देश के अलग अलग क्रेडिट रेटिंग्स पर भी पड़ेगा, एक उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की साख को धक्का लगना तय है. नए प्रोजेक्ट्स का जोश ठंडा हो जाएगा, पूरे अर्थव्यवस्था को दुनिया शंकाशील नज़रों से देखने लगेगी. एक्सपोर्ट इम्पोर्ट वालों के व्यवहार पर भी इसका असर पड़ेगा. वे भी हम-आप जैसे नॉर्मल लोग ही हैं, और उनके कंपनियों में कई कर्मचारी काम करते हैं जो बिलकुल आम आदमी ही हैं.
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इसके दिवालिया वादे पूरे न करने पड़े इसलिए ये पहले तो समय मांगेगा और वो देना भी होगा. लेकिन उस अवकाश का उपयोग ये केंद्र सरकार को परेशां करने के लिए करेगा. अराजक को बढ़ावा देनेवाले मोर्चा को खुली छूट होगी, और अव्यवस्था के लिए ये जिम्मेदार केंद्र सरकार को ठहराएगा. इसकी सहयोगी और मोदिविरोधी मीडिया का सहयोग इसमें आग में घी का काम करेगा.
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अपनी जिम्मेदारी वो मोहल्ला समितियों पर सौंपेगा. काम होगा या नहीं होगा, लेकिन ये उन्हें जिम्मेदार ठहराके खुद का बचाव करेगा. नयी समितियां बनाएगा, खेल चलता रहेगा.
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झुग्गियां और पटरी पे व्यवसाय करनेवालों को ये क़ानून के दायरे से छूट दिला देगा. इस के चलते अगर सभी जगह झुग्गियां फूट आये तो इसके जिम्मेदार दिल्लीवाले खुद ही होंगे. पुलिस की अथॉरिटी ख़त्म सी होगी. इनका जो core सपोर्टर वर्ग है, उसको तो आप जानते – पहचानते ही होंगे, अब जरा कुछ ज्यादा ही करीब से जानने के लिए तैयार हो जाइए – रोजमर्रा की भाषा में उसे ‘झेलना’ कहते हैं....  आपने ही इन्हें वोट दिया है, या अगर घर बैठे रहे या वीकेंड मनाने चले गए तो भी आप उतने ही जिम्मेदार है....
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पानी और बिजली का तो बस देखते जाइए. मुझे सोचने से भी डर लगता है, दिल्लीवालों को अगर हॉरर पिक्चर देखने का शौक है तो उनकी मर्जी.....
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आप ने containment शब्द सुना है? क्या होता है, आप को पता है? एक उदाहरण देता हूँ जो झट से समझ आएगा आप को. कोई दुकानदार प्रतिस्पर्धी दुकानदार का धंधा खराब करने नगर निगम के पाइप लाइन वालों को पैसे खिलाता है कि उसके दूकान के सामने फूटपाथ खोद रखो ताकि ...समझ गए न? तो ये थी बहुत आर्डिनरी containment. इंटरनेशनल तौर पर किसी देश की प्रगति रोकने के लिए बहुत सारे प्रकार किये जाते हैं. देश के अन्दर अराजक फैलाना उसमें अग्रसर है. अब जब आप को ये सुनने में आता है कि इसको प्रमोट करने वाले ताकतों में चाइना का भी नाम शुमार है, और पाकिस्तान का तो नाम खुलेआम चर्चा में आया ही है तो कुछ समझ में आ रहा है दिल्लीवालों ने देश का कितना बड़ा नुकसान किया है?
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मीडिया को क्या कहें? ये वो जमात होती है जो उड़ते पक्षी के पर गिन सकती हैं. क्या ये बातें उन्हें पता नहीं होंगी? उनपर तो विस्तृति से लिखूंगा. मराठी के एक जानेमाने पत्रकार भाऊ तोरासेकर आज कल इनकी वो पोल खोल रहे हैं, वही डेटा जरा जमा कर लूँ, फिर इनकी भी जम के खबर लेते हैं... दिल्लीवालों को बरगलाने में इनका रोल काबिल इ ...  जाने दो, महिलाएं भी ये पढ़ रही होंगी.... 


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Arthur Hailey के किताब तो पढ़े होंगे आप ने... एअरपोर्ट पढ़ी है? उसमें एक पात्र होता है – Marcus Rathbone – विमान के अन्दर एक टेररिस्ट है ये बात सिर्फ स्टाफ को पता चली है , अन्य यात्रियों को नहीं. तो वे उस टेररिस्ट को घेर लेते हैं, और एयर होस्टेस उसके हाथ से बम वाला पार्सल झट से छीन लेती है. तब ये आदमी; जिसे युनिफोर्म पहने महिलाओं से तिरस्कार होता है, फुर्ती से ऐअर होस्टेस के हाथ से वो पार्सल छीनकर उस टेररिस्ट को देता है.  ये सोचता है कि मैंने एक सत्ताधारी वर्ग के प्रतिनिधी के खिलाफ एक आम आदमी की मदद की. अब इस फिल्म में ये रोल किसका है? मिडिल क्लास और कूल डूड्स .
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ये हॉरर फिल्म कितनी लम्बी चलेगी? पता नहीं दिल्लीवालों, आप ने अपने और बाकी देशवासियों के नसीब में क्या लिखवाया है... हाँ, इंटरवल तक आप हॉल के बाहर भी नहीं निकल सकते, तो देखिये अब भारत की सबसे डरावनी  हॉरर फिल्म – मफलरमैन !
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यह पोस्ट सेव कर लीजिये अगर इच्छा हो. बीच बीच में पढ़ लीजियेगा. और हाँ, मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ, बस, कॉमन सेंस खोया नहीं है....
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जैसे मैंने कहा कि मैं ज्योतिषी नहीं हूँ. अगर ये सब बस एक दु:स्वप्न निकले और १० तारीख बीजेपी जीत जाए तो मैं बहुत खुश होऊंगा ये भी बताये देता हूँ.. 


- (अदभुत लेखक एवं विचारक श्री आनंद राजाध्यक्ष जी के फेसबुक नोट से जस का तस साभार...) 

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नोट :- इस पोस्ट पर श्री Vivek Chouksey का कमेन्ट भी उल्लेखनीय है :- दक्षिण अमेरिका का इतिहास जानने वाले जानते की यह कहानी अर्जेंटीना में घटित हो चुकी है. कभी विश्व की समृद्धतम अर्थव्यवस्था को जुआन परोन और एविटा ने माल ए मुफ्त लुटाकर कुछ ही वर्षों में कंगाल कर दिया. अर्जेन्टीना फिर नहीं उबर सका. जुआन की पत्नी ईवा उसके लिए ज़िम्मेदार थी पर अपनी 'दयालुता' के लिए आज भी वहां मदर एविटा के रूप में याद की जाती है.