ये लोग हैं गुमनाम लेकिन “असली” हीरो… (Unnoticed Unsung Heroes of India)
Written by Super User सोमवार, 29 जून 2009 11:08
उन्नीस साल पहले जब माताप्रसाद ने अपने दो एकड़ के खेत के चारों तरफ़ जंगल लगाने की बात की थी, तब उनके पड़ोसियों ने सोचा था कि शायद इनका “दिमाग चल गया” है। लखनऊ से 200 किमी दूर जालौन के मीगनी कस्बे में माताप्रसाद के जमीन के टुकड़े को एक समय “पागल का खेत” कहा जाता था, आज 19 वर्ष के बाद लोग इज्जत से उसे “माताप्रसाद की बगीची” कहते हैं।
बुन्देलखण्ड का इलाका सूखे के लिये कुख्यात हो चुका है, इस बड़े इलाके में माताप्रसाद के खेत ऐसा लगता है मानो किसी ने विधवा हो चुकी धरती के माथे पर हरी बिन्दी लगा दी हो। माताप्रसाद (57) कोई पर्यावरणविद नहीं हैं, न ही “ग्लोबल वार्मिंग” जैसे बड़े-बड़े शब्द उन्हें मालूम हैं, वे सिर्फ़ पेड़-पौधों से प्यार करने वाले एक आम इंसान हैं। “हमारा गाँव बड़ा ही बंजर और सूखा दिखाई देता था, मैं इसे हरा-भरा देखना चाहता था”- वे कहते हैं।
बंजर पड़ी उजाड़ पड़त भूमि पर माताप्रसाद अब तक लगभग 30,000 पेड़-पौधे लगा चुके हैं और मरने से पहले इनकी संख्या वे एक लाख तक ले जाना चाहते हैं। इनमें से लगभग 1100 पेड़ फ़लों के भी हैं जिसमें आम, जामुन, अमरूद आदि के हैं। विभिन्न प्रकार की जड़ीबूटी और औषधि वाले भी कई पेड़-पौधे हैं। दो पेड़ों के बीच में उन्होंने फ़ूलों के छोटे-छोटे पौधे लगाये हैं। माताप्रसाद कहते हैं “ मेरे लिये यह एक जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान का मिलाजुला रूप है, यहाँ कई प्रकार के पक्षियों, कुत्ते, बिल्ली, मधुमक्खियों, तितलियों आदि का घर है…”। माताप्रसाद ने इन पेड़ों के लिये अपने परिवार का भी लगभग त्याग कर दिया है। इसी बगीची में वे एक छोटे से झोपड़े में रहते हैं और सादा जीवन जीते हैं। माताप्रसाद आगे कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि मैंने अपने परिवार का त्याग कर दिया है, मैं बीच-बीच में अपनी पत्नी और बच्चों से मिलने जाता रहता हूँ, लेकिन इन पेड़-पौधों को मेरी अधिक आवश्यकता है…”। उनका परिवार दो एकड़ के पुश्तैनी खेत पर निर्भर है जिसमें मक्का, सरसों, गेहूँ और सब्जियाँ उगाई जाती हैं, जबकि माताप्रसाद इस “मिनी जंगल” में ही रहते हैं, जो कि उनके खेत से ही लगा हुआ है।
किताबी ज्ञान रखने वाले “पर्यावरण पढ़ाकुओं” के लिये माताप्रसाद की यह बगीची एक खुली किताब की तरह है, जिसमें जल प्रबन्धन, वाटर हार्वेस्टिंग, मिट्टी संरक्षण, जैविक खेती, सस्ती खेती के पाठ तो हैं ही तथा इन सबसे ऊपर “रोजगार निर्माण” भी है। पिछले साल तक माताप्रसाद अकेले ही यह पूरा विशाल बगीचा संभालते थे, लेकिन अब उन्होंने 6 लड़कों को काम पर रख लिया है। सभी के भोजन का प्रबन्ध उस बगीचे में उत्पन्न होने वाले उत्पादों से ही हो जाता है। माताप्रसाद कहते हैं कि “जल्दी ही मैं उन लड़कों को तनख्वाह देने की स्थिति में भी आ जाउंगा, जब कुछ फ़ल आदि बेचने से मुझे कोई कमाई होने लगेगी, यदि कुछ पैसा बचा तो उससे नये पेड़ लगाऊँगा, और क्या?…”।
हममें से कितने लोग हैं जो “धरती” से लेते तो बहुत कुछ हैं लेकिन क्या उसे वापस भी करते हैं? माताप्रसाद जैसे लोग ही “असली हीरो” हैं… लेकिन “सबसे तेज चैनल” इनकी खबरें नहीं दिखाते…
(मूल खबर यहाँ है)
(2) शारदानन्द दास –
पश्चिम बंगाल के दक्षिण दीनाजपुर में बेलूरघाट कस्बे का एक हाई-स्कूल है, जिसके हेडमास्टर साहब आजकल तीर्थयात्रा करने अज्ञातवास पर चले गये हैं, आप सोचेंगे कि भई इसमें कौन सी खास बात है, एक बेनाम से स्कूल के किसी शिक्षक का चुपचाप तीर्थयात्रा पर चले जाना कोई खबर है क्या? लेकिन ऐसा है नहीं…
एक तरह से कहा जा सकता है कि शारदानन्द दास नामक इस शिक्षक का समूचा जीवन स्कूल में ही बीता। आजीवन अविवाहित रहने वाले सत्तर वर्षीय इस शिक्षक ने 1965 में स्कूल में नौकरी शुरु की, रिटायर होने के बाद भी वे बच्चों को शिक्षा देते रहे। अपने-आप में खोये रहने वाले, अधिकतर गुमसुम से रहने वाले इस व्यक्ति को उसके आसपास के लोग कई बार उपहास कि निगाह से भी देखते थे, क्योंकि ये व्यक्ति पूरी उम्र भर जमीन पर ही सोता रहा, उनके शरीर पर कपड़े सिर्फ़ उतने ही होते थे और उतने ही साफ़ होते थे जितने कि आम जनजीवन में रहने को पर्याप्त हों। किसी ने भी शारदानन्द जी को अच्छा खाते या फ़ालतू पैसा उड़ाते नहीं देखा, पान-गुटका-शराब की तो बात दूर है। ज़ाहिर है कि लगातार 40-50 साल तक इस प्रकार की जीवनशैली जीने वाले व्यक्ति को लोग “सनकी” कहते होंगे, जी हाँ ऐसा होता था और कई बार स्कूल के शरारती छात्र भी उनकी खिल्ली उड़ाया करते थे।
शारदानन्द दास का पूरा जीवन जैसे मानो गरीबी और संघर्ष के लिये ही बना है। उनके माता-पिता विभाजन के समय बांग्लादेश से भागकर भारत आये थे। कोई और होता तो एक नामालूम से स्कूल में, नामालूम सा जीवन जीते हुए शारदानन्द नामक कोई शिक्षक अपना गुमनाम सा जीवन जीकर चला जाता, कोई भी उन्हें याद नहीं करता, जैसे भारत के लाखों स्कूलों में हजारों शिक्षकों के साथ होता ही है। लेकिन बेलूरघाट-खादिमपुर हाईस्कूल के बच्चे आजकल शारदानन्द “सर” का नाम बड़ी इज्जत से लेते हैं, और उनका नाम आने वाले कई वर्षों तक इस क्षेत्र में गूंजता रहेगा, किसी भी नेता से ज्यादा, किसी भी अभिनेता से ज्यादा।
कुछ दिन पूर्व ही आधिकारिक रूप से 81 लाख रुपये से निर्मित एक ट्रस्ट शुरु किया गया जिसका नाम रखा गया “दरिद्र मेधावी छात्र सहाय्य तहबील”। इस ट्रस्ट के द्वारा बेलूरघाट कॉलेज के दस गरीब छात्रों को 600 रुपये प्रतिमाह, बेलूरघाट कन्या कॉलेज की दस गरीब लड़कियों को 800 रुपये प्रतिमाह तथा मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे पाँच गरीब छात्रों को 1000 रुपये महीना इस ट्रस्ट की राशि में से दिया जायेगा। जी हाँ, आप सही समझे… इस ट्रस्ट के संस्थापक हैं श्री शारदानन्द दास, जिन्होंने अपनी जीवन भर की कमाई और अपनी पुश्तैनी सम्पत्ति बेचकर यह ट्रस्ट खड़ा किया है। सारी जिन्दगी उन्होंने बच्चों को पढ़ाने में व्यतीत की और अब गरीब बच्चों के लिये इस ट्रस्ट की स्थापना करके वे अमर हो गये हैं।
करतल ध्वनि के बीच जब इस ट्रस्ट की घोषणा की गई तब इस गुमनाम शिक्षक को लोग चारों तरफ़ ढूँढते रहे, लेकिन पता चला कि 20 मई को ही शारदानन्द दास जी चुपचाप बगैर किसी को बताये तीर्थयात्रा पर चले गये हैं… कहाँ? किसी को पता नहीं… क्योंकि उनका करीबी तो कोई था ही नहीं!!!
लोगबाग कहते हैं कि मैंने असली संत-महात्मा देखे हैं तो वह पुनर्विचार करे कि शारदानन्द दास क्या हैं? सन्त-महात्मा या कोई अवतार… दुख सिर्फ़ इस बात का है कि ऐसी खबरें हमारे चैनलों को दिखाई नहीं देतीं…।
किसी दो कौड़ी के अभिनेता द्वारा बलात्कार सम्बन्धी रिपोर्ट, किसी अन्य अभिनेता को गाँधीगिरी जैसी फ़ालतू बात से “गाँधी” साबित करने, या गरीबी हटाओ के नारे देता हुआ किसी “टपोरी नेता” के इंटरव्यू, अथवा समलैंगिकता पर बहस(???) प्राइम-टाइम में दिखाना उन्हें अधिक महत्वपूर्ण लगता है… वाकई हम एक “बेशर्म-युग” में जी रहे हैं, जिसके वाहक हैं हमारे चैनल और अखबार, जिनका “ज़मीन” से रिश्ता टूट चुका है।
(मूल खबर यहाँ है)
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बुन्देलखण्ड का इलाका सूखे के लिये कुख्यात हो चुका है, इस बड़े इलाके में माताप्रसाद के खेत ऐसा लगता है मानो किसी ने विधवा हो चुकी धरती के माथे पर हरी बिन्दी लगा दी हो। माताप्रसाद (57) कोई पर्यावरणविद नहीं हैं, न ही “ग्लोबल वार्मिंग” जैसे बड़े-बड़े शब्द उन्हें मालूम हैं, वे सिर्फ़ पेड़-पौधों से प्यार करने वाले एक आम इंसान हैं। “हमारा गाँव बड़ा ही बंजर और सूखा दिखाई देता था, मैं इसे हरा-भरा देखना चाहता था”- वे कहते हैं।
बंजर पड़ी उजाड़ पड़त भूमि पर माताप्रसाद अब तक लगभग 30,000 पेड़-पौधे लगा चुके हैं और मरने से पहले इनकी संख्या वे एक लाख तक ले जाना चाहते हैं। इनमें से लगभग 1100 पेड़ फ़लों के भी हैं जिसमें आम, जामुन, अमरूद आदि के हैं। विभिन्न प्रकार की जड़ीबूटी और औषधि वाले भी कई पेड़-पौधे हैं। दो पेड़ों के बीच में उन्होंने फ़ूलों के छोटे-छोटे पौधे लगाये हैं। माताप्रसाद कहते हैं “ मेरे लिये यह एक जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान का मिलाजुला रूप है, यहाँ कई प्रकार के पक्षियों, कुत्ते, बिल्ली, मधुमक्खियों, तितलियों आदि का घर है…”। माताप्रसाद ने इन पेड़ों के लिये अपने परिवार का भी लगभग त्याग कर दिया है। इसी बगीची में वे एक छोटे से झोपड़े में रहते हैं और सादा जीवन जीते हैं। माताप्रसाद आगे कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि मैंने अपने परिवार का त्याग कर दिया है, मैं बीच-बीच में अपनी पत्नी और बच्चों से मिलने जाता रहता हूँ, लेकिन इन पेड़-पौधों को मेरी अधिक आवश्यकता है…”। उनका परिवार दो एकड़ के पुश्तैनी खेत पर निर्भर है जिसमें मक्का, सरसों, गेहूँ और सब्जियाँ उगाई जाती हैं, जबकि माताप्रसाद इस “मिनी जंगल” में ही रहते हैं, जो कि उनके खेत से ही लगा हुआ है।
किताबी ज्ञान रखने वाले “पर्यावरण पढ़ाकुओं” के लिये माताप्रसाद की यह बगीची एक खुली किताब की तरह है, जिसमें जल प्रबन्धन, वाटर हार्वेस्टिंग, मिट्टी संरक्षण, जैविक खेती, सस्ती खेती के पाठ तो हैं ही तथा इन सबसे ऊपर “रोजगार निर्माण” भी है। पिछले साल तक माताप्रसाद अकेले ही यह पूरा विशाल बगीचा संभालते थे, लेकिन अब उन्होंने 6 लड़कों को काम पर रख लिया है। सभी के भोजन का प्रबन्ध उस बगीचे में उत्पन्न होने वाले उत्पादों से ही हो जाता है। माताप्रसाद कहते हैं कि “जल्दी ही मैं उन लड़कों को तनख्वाह देने की स्थिति में भी आ जाउंगा, जब कुछ फ़ल आदि बेचने से मुझे कोई कमाई होने लगेगी, यदि कुछ पैसा बचा तो उससे नये पेड़ लगाऊँगा, और क्या?…”।
हममें से कितने लोग हैं जो “धरती” से लेते तो बहुत कुछ हैं लेकिन क्या उसे वापस भी करते हैं? माताप्रसाद जैसे लोग ही “असली हीरो” हैं… लेकिन “सबसे तेज चैनल” इनकी खबरें नहीं दिखाते…
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(2) शारदानन्द दास –
पश्चिम बंगाल के दक्षिण दीनाजपुर में बेलूरघाट कस्बे का एक हाई-स्कूल है, जिसके हेडमास्टर साहब आजकल तीर्थयात्रा करने अज्ञातवास पर चले गये हैं, आप सोचेंगे कि भई इसमें कौन सी खास बात है, एक बेनाम से स्कूल के किसी शिक्षक का चुपचाप तीर्थयात्रा पर चले जाना कोई खबर है क्या? लेकिन ऐसा है नहीं…
एक तरह से कहा जा सकता है कि शारदानन्द दास नामक इस शिक्षक का समूचा जीवन स्कूल में ही बीता। आजीवन अविवाहित रहने वाले सत्तर वर्षीय इस शिक्षक ने 1965 में स्कूल में नौकरी शुरु की, रिटायर होने के बाद भी वे बच्चों को शिक्षा देते रहे। अपने-आप में खोये रहने वाले, अधिकतर गुमसुम से रहने वाले इस व्यक्ति को उसके आसपास के लोग कई बार उपहास कि निगाह से भी देखते थे, क्योंकि ये व्यक्ति पूरी उम्र भर जमीन पर ही सोता रहा, उनके शरीर पर कपड़े सिर्फ़ उतने ही होते थे और उतने ही साफ़ होते थे जितने कि आम जनजीवन में रहने को पर्याप्त हों। किसी ने भी शारदानन्द जी को अच्छा खाते या फ़ालतू पैसा उड़ाते नहीं देखा, पान-गुटका-शराब की तो बात दूर है। ज़ाहिर है कि लगातार 40-50 साल तक इस प्रकार की जीवनशैली जीने वाले व्यक्ति को लोग “सनकी” कहते होंगे, जी हाँ ऐसा होता था और कई बार स्कूल के शरारती छात्र भी उनकी खिल्ली उड़ाया करते थे।
शारदानन्द दास का पूरा जीवन जैसे मानो गरीबी और संघर्ष के लिये ही बना है। उनके माता-पिता विभाजन के समय बांग्लादेश से भागकर भारत आये थे। कोई और होता तो एक नामालूम से स्कूल में, नामालूम सा जीवन जीते हुए शारदानन्द नामक कोई शिक्षक अपना गुमनाम सा जीवन जीकर चला जाता, कोई भी उन्हें याद नहीं करता, जैसे भारत के लाखों स्कूलों में हजारों शिक्षकों के साथ होता ही है। लेकिन बेलूरघाट-खादिमपुर हाईस्कूल के बच्चे आजकल शारदानन्द “सर” का नाम बड़ी इज्जत से लेते हैं, और उनका नाम आने वाले कई वर्षों तक इस क्षेत्र में गूंजता रहेगा, किसी भी नेता से ज्यादा, किसी भी अभिनेता से ज्यादा।
कुछ दिन पूर्व ही आधिकारिक रूप से 81 लाख रुपये से निर्मित एक ट्रस्ट शुरु किया गया जिसका नाम रखा गया “दरिद्र मेधावी छात्र सहाय्य तहबील”। इस ट्रस्ट के द्वारा बेलूरघाट कॉलेज के दस गरीब छात्रों को 600 रुपये प्रतिमाह, बेलूरघाट कन्या कॉलेज की दस गरीब लड़कियों को 800 रुपये प्रतिमाह तथा मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे पाँच गरीब छात्रों को 1000 रुपये महीना इस ट्रस्ट की राशि में से दिया जायेगा। जी हाँ, आप सही समझे… इस ट्रस्ट के संस्थापक हैं श्री शारदानन्द दास, जिन्होंने अपनी जीवन भर की कमाई और अपनी पुश्तैनी सम्पत्ति बेचकर यह ट्रस्ट खड़ा किया है। सारी जिन्दगी उन्होंने बच्चों को पढ़ाने में व्यतीत की और अब गरीब बच्चों के लिये इस ट्रस्ट की स्थापना करके वे अमर हो गये हैं।
करतल ध्वनि के बीच जब इस ट्रस्ट की घोषणा की गई तब इस गुमनाम शिक्षक को लोग चारों तरफ़ ढूँढते रहे, लेकिन पता चला कि 20 मई को ही शारदानन्द दास जी चुपचाप बगैर किसी को बताये तीर्थयात्रा पर चले गये हैं… कहाँ? किसी को पता नहीं… क्योंकि उनका करीबी तो कोई था ही नहीं!!!
लोगबाग कहते हैं कि मैंने असली संत-महात्मा देखे हैं तो वह पुनर्विचार करे कि शारदानन्द दास क्या हैं? सन्त-महात्मा या कोई अवतार… दुख सिर्फ़ इस बात का है कि ऐसी खबरें हमारे चैनलों को दिखाई नहीं देतीं…।
किसी दो कौड़ी के अभिनेता द्वारा बलात्कार सम्बन्धी रिपोर्ट, किसी अन्य अभिनेता को गाँधीगिरी जैसी फ़ालतू बात से “गाँधी” साबित करने, या गरीबी हटाओ के नारे देता हुआ किसी “टपोरी नेता” के इंटरव्यू, अथवा समलैंगिकता पर बहस(???) प्राइम-टाइम में दिखाना उन्हें अधिक महत्वपूर्ण लगता है… वाकई हम एक “बेशर्म-युग” में जी रहे हैं, जिसके वाहक हैं हमारे चैनल और अखबार, जिनका “ज़मीन” से रिश्ता टूट चुका है।
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