कीड़े-मकोड़ों (भारत की जनता) को विदेशी परमाणु संयंत्र सप्लायरों के भरोसे छोड़ने की बेशर्म तैयारी… Nuclear Liability Bill, Atomic Energy Companies

Written by सोमवार, 15 मार्च 2010 11:17
जैसा कि सभी जानते हैं, भारत के नेताओं-अफ़सरों-उद्योगपतियों की “कुटिल त्रिमूर्ति” भारत की जनता को हमेशा से कीड़ा-मकोड़ा समझती आई है, आज़ादी के पहले से ही इन्होंने कभी भी आम जनता को रेंगने वाले गंदे प्राणियों से अधिक कुछ समझा नहीं है। अब एक बार फ़िर से भोपाल गैस काण्ड की तरह बरसों तक उनके ज़ख्मों पर नमक मलने और भारत की आम जनता (जिसे अपने वोट की ताकत पर कुछ ज्यादा ही गुमान है) को लूटने के लिये लोकसभा में सोमवार को मनमोहन-सोनिया एक बिल पेश करने जा रहे हैं, जिसका नाम है “असैनिक परमाणु क्षति दायित्व विधेयक” (Civil Liability for Nuclear Damage Bill)।


इस विधेयक के प्रावधानों के अनुसार भारत में लगने वाले किसी भी परमाणु संयंत्र (या बिजलीघर) से आम जनता को होने वाले नुकसान की भरपाई की सीमा न्यूनतम 300 करोड़ तथा अधिकतम 2300 करोड़ रखी गई है, यह राशि परमाणु संयंत्र चलाने वाली कम्पनी देगी, सरकार चाहे तो बाद में इस मुआवज़ा राशि को बढ़ा सकती है। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने गत 20 नवम्बर को ही इस विधेयक को मंजूरी दे दी है और अब इसे लोकसभा में पेश किया जाना है। इस विधेयक में सबसे खतरनाक बात यह है कि न्यूक्लियर प्लाण्ट में किसी प्राकृतिक कारणों से (भूकम्प, ज्वालामुखी आदि) होने वाले, किसी आतंकवादी हमले से होने वाले, अथवा किसी कर्मचारी की मानवीय भूल से होने वाले किसी भी विकिरण या नुकसान के लिये उस कम्पनी (या कम्पनी मालिक) को दोषी नहीं माना जायेगा (वारेन एण्डरसन मामले से सबक लेकर अमेरिकियों ने यह पेंच डाला है)। भारत जैसे देश में, जहाँ अफ़सरशाही और नेता कम्पनियों के हाथों बिके हुए हों, किसी भी औद्योगिक दुर्घटना को “आतंकवादी हमला” या “मानवीय भूल” साबित करना कौन सा बड़ा काम है? लेकिन सरकार परमाणु बिजली को लेकर इतनी उतावली है कि वह “कीड़े-मकोड़ों” की परवाह नहीं करना चाहती जबकि इन्हीं कीड़े-मकोड़ों से उसे हर 5 साल में वोट लेना है।

http://news.rediff.com/report/2010/mar/14/nuke-liability-bill-to-be-tabled-in-ls-on-monday.htm

लोकसभा में भाजपा और वामदलों ने मिलकर इसका विरोध करने का फ़ैसला किया है और सरकार से माँग की है कि इसे संसद की स्थायी समिति को सौंप दिया जाये और इसे पास करने की जल्दबाजी न की जाये, लेकिन मनमोहन सिंह अपने बॉस “हुसैन” ओबामा (जो शायद जून 2010 में भारत दौरे पर आने वाले हैं) को खुश करने के लिये एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं (मनमोहन वैसे भी अमेरिका, विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुश रखने में माहिर माने जाते हैं, और इसीलिये बतौर प्रधानमंत्री अमेरिका की पहली पसन्द भी हैं)। उनके खासमखास व्यक्ति शिवशंकर मेनन ने भाजपा के अरुण जेटली और सुषमा स्वराज से मुलाकात करके इन्हें इस विधेयक का समर्थन करने के लिये मनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन स्वराज और जेटली के साथ सीताराम येचुरी भी इस विधेयक को इसके वर्तमान स्वरूप में पास करने के खिलाफ़ हैं।

यहाँ तक कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय और स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी इस विधेयक पर कुछ आपत्तियाँ जताई थीं, लेकिन उन्हें दरकिनार कर दिया गया। पर्यावरण मंत्रालय की मुख्य आपत्ति यह थी कि किसी भी परमाणु दुर्घटना की स्थिति में मुआवज़ा राशि को न्यूनतम या अधिकतम तय करना सही नहीं है, क्योंकि जब परमाणु विकिरण या दुर्घटना होगी तब मानव जीवन के साथ-साथ उस परमाणु संयंत्र के आसपास के इलाके के पेड़-पौधों, प्राणियों और जलवायु पर भी भयानक असर होगा। कई मामलों में परमाणु दुर्घटना के दुष्प्रभाव कई साल बाद तक उभरते हैं (जैसा कि भोपाल गैस काण्ड में भी हम देख चुके हैं) इसलिये उसे भी इस मुआवज़ा राशि में शामिल किया जाना चाहिये।

इसी प्रकार स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी कहा है कि विधेयक में “दुर्घटना के दस वर्ष बाद तक ही” मुआवज़े की मांग की जा सकती है इस बिन्दु को भी हटाया जाये, क्योंकि परमाणु विकिरण फ़ैलने के 50 साल बाद जापान में आज भी बच्चे अपंग पैदा हो रहे हैं और परमाणु दुर्घटना के जहरीले असर की वजह से DNA और Genes में भी बदलाव के संकेत मिले हैं…। ऐसे में कहीं ऐसा न हो कि परमाणु बिजलीघर बनाने वाली कम्पनी या “एण्डरसन टाइप का कोई डकैत” आसानी से 500 करोड़ का मुआवज़ा चुकाकर चलता बने और हमारी आने वाली पीढ़ियाँ इसे भुगतती रहें, क्योंकि विधेयक यह भी कहता है कि यह मुआवज़ा “अन्तिम” (Final) है, “अन्तरिम” (Interim) नहीं…।

सरकार के “एक और भोंपू” वैज्ञानिक अनिल काकोडकर कहते हैं कि, 300 करोड़ (बिजलीघर ऑपरेटर कम्पनी की जिम्मेदारी 500 करोड़ तक) की न्यूनतम राशि बिलकुल उचित है, क्योंकि परमाणु बिजलीघर अत्यधिक सुरक्षा वाले होंगे और इनमें दुर्घटना की सम्भावना न के बराबर होगी। अब इन्हें कौन समझाये कि इस दुनिया में “फ़ुलप्रूफ़” कुछ भी नहीं। काकोड़कर जी, भारत की जनता को भीख में मिलने वाले इस 500 करोड़ के मुआवज़े की तुलना अमेरिका के कानून से करें

1) अमेरिका में प्रत्येक परमाणु संयंत्र ऑपरेटर को प्रतिवर्ष “वर्तमान बाज़ार भाव” से उपलब्ध दुर्घटना इंश्योरेंस करवाना पड़ता है।

2) किसी भी सम्भावित परमाणु दुर्घटना की स्थिति में यदि मुआवज़ा राशि इंश्योरेंस की रकम से अधिक हो तब बाकी की रकम “प्राइस एण्डरसन फ़ण्ड” से ली जायेगी। इस सामूहिक फ़ण्ड की स्थापना अमेरिका में कार्यरत सभी परमाणु बिजलीघर (संयंत्र) कम्पनियों द्वारा की गई है, जिसमें सभी मिलकर वार्षिक अनुदान देते हैं और यह फ़ण्ड वर्तमान में लगभग 10 अरब डालर का हो चुका है।

3) कोई सा भी मुआवज़ा दावा नुकसान के उभरने के तीन साल बाद तक भी किया जा सकता है, न कि दुर्घटना दिनांक के दस साल तक ही।

4) कोई भी व्यक्ति, समूह, कम्पनी, संस्थान अथवा सरकार उस कम्पनी के खिलाफ़ कभी भी मुआवज़ा दावा पेश कर सकती है।

इन प्रावधानों की तुलना में मात्र 500 करोड़ रुपये देकर छुटकारा पाने के लिये भारत की निरीह-गरीब जनता ही मिली थी क्या? यहाँ तक कि अमेरिका के कानून में सैनिक, असैनिक, व्यावसायिक और अन्य सभी प्रकार के परमाणु संयंत्र इसमें शामिल हैं, जबकि भारत में ऐसा कुछ नहीं है… यह भेदभाव क्यों? माना कि परमाणु बिजली हमारे लिये जरूरी है, लेकिन दुर्घटना से बचावों के उपाय और मिलने वाले मुआवज़े पर उचित सौदेबाजी करना भी उतना ही जरूरी है। कांग्रेस ने यूनियन कार्बाइड और एण्डरसन के खिलाफ़ आज तक कोई प्रभावशाली कदम नहीं उठाया तो वह अमेरिका और फ़्रांस की दिग्गज परमाणु कम्पनियों का क्या बिगाड़ लेगी?

बिल पास करवाने के लिये मरे जा रहे कांग्रेसियों को यह भी पता नहीं होगा कि अमेरिका में हुई एक परमाणु दुर्घटना (जिसमें एक भी व्यक्ति की मौत नहीं हुई थी) के बाद इलाके की “वैज्ञानिक और जैविक साफ़-सफ़ाई” करने मे ही 4500 करोड़ रुपये खर्च हो गये थे, रूस में चेरनोबिल में हुई दुर्घटना के बाद प्लाण्ट के आसपास के इलाके में अभी भी विकिरण मौजूद है, और इधर 500 करोड़ के मुआवज़े का लॉलीपॉप देकर भारत की जनता और विपक्ष को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है?



जबकि होना यह चाहिये कि किसी भी सम्भावित परमाणु दुर्घटना की स्थिति में भविष्य का आकलन के मुताबिक, अर्थात उस समय की रुपये-डॉलर का विनिमय दर, मुआवज़े की राशि में मुद्रास्फ़ीति की दर, कम्पनी द्वारा लगाये जा रहे परमाणु बिजलीघर की ज़मीन का उस समय का भाव आदि को जोड़कर मुआवज़ा तय होना चाहिये… इससे उन कम्पनियों को भी इंश्योरेंस की रकम तय करने में मदद मिलेगी। यदि प्राकृतिक आपदा (भूकम्प आदि) को छोड़ भी दिया जाये तो किसी आतंकवादी हमले तथा कर्मचारी की लापरवाही से हुई दुर्घटना में कम्पनी और सरकार दोनो को मिलजुलकर जिम्मेदारी उठाना चाहिये, क्योंकि प्लाण्ट की आन्तरिक और बाहरी सुरक्षा दोनों की जिम्मेदारी है।

समस्या यह है कि इन मुद्दों पर बात करने, बहस करने के लिये किसी के पास वक्त नहीं है। आप बताईये, कितने प्रमुख राष्ट्रीय चैनलों और हिन्दी के मुख्य अखबारों ने इन मुद्दों पर जनता को बताने या जागरूक करने की कोशिश की है? चलिये माना कि देश की 70-75% जनता तो महंगाई और रोज़ाना की दाल-रोटी से ही जूझ रही है, लेकिन IPL के तमाशे में डूबे और उपभोक्तावाद की आँधी में बही जा रही बाकी की 20% जनता को भी कहाँ मालूम है कि उनका भविष्य बाले-बाले ही बेचा जा रहा है… लेकिन जब उनके घर के पिछवाड़े में कोई परमाणु दुर्घटना होगी तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

अन्त में एक भयानक सा काल्पनिक चित्र – मान लीजिये पुणे से 50-60 किमी दूर किसी परमाणु बिजलीघर में दुर्घटना होती है, और ऑपरेटर कम्पनी तथा सरकार मिलकर 2500 करोड़ का मुआवज़ा देकर पल्ला झाड़ने की तैयारी में है, जबकि यदि आज का ही भाव लिया जाये तो मेरा मोटा अनुमान है कि पुणे शहर के सिर्फ़ 5000 मकानों /व्यक्तियों का मुआवज़ा ही 2500 करोड़ हो जायेगा… बाकी लोगों का क्या? भोपाल मामले में तो फ़िर भी काफ़ी मुआवज़ा मिल गया जबकि गैस दुर्घटना और परमाणु दुर्घटना में ज़मीन-आसमान का अन्तर है…। 60 साल से पैसा खा रहे कांग्रेसी तो अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर स्विटज़रलैण्ड निकल लेंगे, लेकिन हमारा क्या?

http://www.greenpeace.org/india/stop-the-vote2

खैर, ग्रीनपीस की इस ऑनलाइन याचिका पर दस्तखत करें और अपना विरोध दर्ज करें, शायद बहुत सारे कीड़े-मकोड़े मिलकर कुछ शोर पैदा कर सकें, और सोनिया-मनमोहन-मोंटेक के कानों पर जूं रेंगे…

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