बहराइच - एक क्रूर मुगल आक्रांता की कब्र पर मेला? Mughal Invader Defeated by Hindu Kings in Behraich
Written by Super User मंगलवार, 05 मई 2009 13:15
जैसा कि पहले भी कई बार कहा जा चुका है कि वामपंथियों और कांग्रेसियों ने भारत के गौरवशाली हिन्दू इतिहास को शर्मनाक बताने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है… क्रूर, अत्याचारी और अनाचारी मुगल शासकों के गुणगान करने में इन लोगों को आत्मिक सुख की अनुभूति होती है। लेकिन यह मामला उससे भी बढ़कर है, एक मुगल आक्रांता, जो कि समूचे भारत को “दारुल-इस्लाम” बनाने का सपना देखता था, की कब्र को दरगाह के रूप में अंधविश्वास और भेड़चाल के साथ नवाज़ा जाता है, लेकिन इतिहास को सुधार कर देश में आत्मगौरव निर्माण करने की बजाय हमारे महान इतिहासकार इस पर मौन हैं।
मुझे यकीन है कि अधिकतर पाठकों ने सुल्तान सैयद सालार मसूद गाज़ी के बारे में नहीं सुना होगा, यहाँ तक कि बहराइच (उत्तरप्रदेश) में रहने वालों को भी इसके बारे में शायद ठीक-ठीक पता न होगा। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं बहराइच (उत्तरप्रदेश) में “दरगाह शरीफ़”(???) पर प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के पहले रविवार को लगने वाले सालाना उर्स के बारे में…। बहराइच शहर से 3 किमी दूर सैयद सालार मसूद गाज़ी की दरगाह स्थित है, ऐसी मान्यता है(?) कि मज़ार-ए-शरीफ़ में स्नान करने से बीमारियाँ दूर हो जाती हैं (http://behraich.nic.in/) और अंधविश्वास के मारे लाखों लोग यहाँ आते हैं। सैयद सालार मसूद गाज़ी कौन था, उसकी कब्र “दरगाह” में कैसे तब्दील हो गई आदि के बारे में आगे जानेंगे ही, पहले “बहराइच” के बारे में संक्षिप्त में जान लें – यह इलाका “गन्धर्व वन” के रूप में प्राचीन वेदों में वर्णित है, ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा जी ने ॠषियों की तपस्या के लिये यहाँ एक घने जंगल का निर्माण किया था, जिसके कारण इसका नाम पड़ा “ब्रह्माइच”, जो कालांतर में भ्रष्ट होते-होते बहराइच बन गया।

अब आते हैं सालार मसूद पर… पाठकगंण महमूद गज़नवी (गज़नी) के बारे में तो जानते ही होंगे, वही मुगल आक्रांता जिसने सोमनाथ पर 16 बार हमला किया और भारी मात्रा में सोना हीरे-जवाहरात आदि लूट कर ले गया था। महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर आखिरी बार सन् 1024 में हमला किया था तथा उसने व्यक्तिगत रूप से सामने खड़े होकर शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े किये और उन टुकड़ों को अफ़गानिस्तान के गज़नी शहर की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में सन् 1026 में लगवाया। इसी लुटेरे महमूद गजनवी का ही रिश्तेदार था सैयद सालार मसूद… यह बड़ी भारी सेना लेकर सन् 1031 में भारत आया। सैयद सालार मसूद एक सनकी किस्म का धर्मान्ध मुगल आक्रान्ता था। महमूद गजनवी तो बार-बार भारत आता था सिर्फ़ लूटने के लिये और वापस चला जाता था, लेकिन इस बार सैयद सालार मसूद भारत में विशाल सेना लेकर आया था कि वह इस भूमि को “दारुल-इस्लाम” बनाकर रहेगा और इस्लाम का प्रचार पूरे भारत में करेगा (जाहिर है कि तलवार के बल पर)।
सैयद सालार मसूद अपनी सेना को लेकर “हिन्दुकुश” पर्वतमाला को पार करके पाकिस्तान (आज के) के पंजाब में पहुँचा, जहाँ उसे पहले हिन्दू राजा आनन्द पाल शाही का सामना करना पड़ा, जिसका उसने आसानी से सफ़ाया कर दिया। मसूद के बढ़ते कदमों को रोकने के लिये सियालकोट के राजा अर्जन सिंह ने भी आनन्द पाल की मदद की लेकिन इतनी विशाल सेना के आगे वे बेबस रहे। मसूद धीरे-धीरे आगे बढ़ते-बढ़ते राजपूताना और मालवा प्रांत में पहुँचा, जहाँ राजा महिपाल तोमर से उसका मुकाबला हुआ, और उसे भी मसूद ने अपनी सैनिक ताकत से हराया। एक तरह से यह भारत के विरुद्ध पहला जेहाद कहा जा सकता है, जहाँ कोई मुगल आक्रांता सिर्फ़ लूटने की नीयत से नहीं बल्कि बसने, राज्य करने और इस्लाम को फ़ैलाने का उद्देश्य लेकर आया था। पंजाब से लेकर उत्तरप्रदेश के गांगेय इलाके को रौंदते, लूटते, हत्यायें-बलात्कार करते सैयद सालार मसूद अयोध्या के नज़दीक स्थित बहराइच पहुँचा, जहाँ उसका इरादा एक सेना की छावनी और राजधानी बनाने का था। इस दौरान इस्लाम के प्रति उसकी सेवाओं(?) को देखते हुए उसे “गाज़ी बाबा” की उपाधि दी गई।
इस मोड़ पर आकर भारत के इतिहास में एक विलक्षण घटना घटित हुई, ज़ाहिर है कि इतिहास की पुस्तकों में जिसका कहीं जिक्र नहीं किया गया है। इस्लामी खतरे को देखते हुए पहली बार भारत के उत्तरी इलाके के हिन्दू राजाओं ने एक विशाल गठबन्धन बनाया, जिसमें 17 राजा सेना सहित शामिल हुए और उनकी संगठित संख्या सैयद सालार मसूद की विशाल सेना से भी ज्यादा हो गई। जैसी कि हिन्दुओ की परम्परा रही है, सभी राजाओं के इस गठबन्धन ने सालार मसूद के पास संदेश भिजवाया कि यह पवित्र धरती हमारी है और वह अपनी सेना के साथ चुपचाप भारत छोड़कर निकल जाये अथवा उसे एक भयानक युद्ध झेलना पड़ेगा। गाज़ी मसूद का जवाब भी वही आया जो कि अपेक्षित था, उसने कहा कि “इस धरती की सारी ज़मीन खुदा की है, और वह जहाँ चाहे वहाँ रह सकता है… यह उसका धार्मिक कर्तव्य है कि वह सभी को इस्लाम का अनुयायी बनाये और जो खुदा को नहीं मानते उन्हें काफ़िर माना जाये…”।
उसके बाद ऐतिहासिक बहराइच का युद्ध हुआ, जिसमें संगठित हिन्दुओं की सेना ने सैयद मसूद की सेना को धूल चटा दी। इस भयानक युद्ध के बारे में इस्लामी विद्वान शेख अब्दुर रहमान चिश्ती की पुस्तक मीर-उल-मसूरी में विस्तार से वर्णन किया गया है। उन्होंने लिखा है कि मसूद सन् 1033 में बहराइच पहुँचा, तब तक हिन्दू राजा संगठित होना शुरु हो चुके थे। यह भीषण रक्तपात वाला युद्ध मई-जून 1033 में लड़ा गया। युद्ध इतना भीषण था कि सैयद सालार मसूद के किसी भी सैनिक को जीवित नहीं जाने दिया गया, यहाँ तक कि युद्ध बंदियों को भी मार डाला गया… मसूद का समूचे भारत को इस्लामी रंग में रंगने का सपना अधूरा ही रह गया।
बहराइच का यह युद्ध 14 जून 1033 को समाप्त हुआ। बहराइच के नज़दीक इसी मुगल आक्रांता सैयद सालार मसूद (तथाकथित गाज़ी बाबा) की कब्र बनी। जब फ़िरोज़शाह तुगलक का शासन समूचे इलाके में पुनर्स्थापित हुआ तब वह बहराइच आया और मसूद के बारे में जानकारी पाकर प्रभावित हुआ और उसने उसकी कब्र को एक विशाल दरगाह और गुम्बज का रूप देकर सैयद सालार मसूद को “एक धर्मात्मा”(?) के रूप में प्रचारित करना शुरु किया, एक ऐसा इस्लामी धर्मात्मा जो भारत में इस्लाम का प्रचार करने आया था। मुगल काल में धीरे-धीरे यह किंवदंती का रूप लेता गया और कालान्तर में सभी लोगों ने इस “गाज़ी बाबा” को “पहुँचा हुआ पीर” मान लिया तथा उसकी दरगाह पर प्रतिवर्ष एक “उर्स” का आयोजन होने लगा, जो कि आज भी जारी है।
इस समूचे घटनाक्रम को यदि ध्यान से देखा जाये तो कुछ बातें मुख्य रूप से स्पष्ट होती हैं-
(1) महमूद गजनवी के इतने आक्रमणों के बावजूद हिन्दुओं के पहली बार संगठित होते ही एक क्रूर मुगल आक्रांता को बुरी तरह से हराया गया (अर्थात यदि हिन्दू संगठित हो जायें तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता)
(2) एक मुगल आक्रांता जो भारत को इस्लामी देश बनाने का सपना देखता था, आज की तारीख में एक “पीर-शहीद” का दर्जा पाये हुए है और दुष्प्रचार के प्रभाव में आकर मूर्ख हिन्दू उसकी मज़ार पर जाकर मत्था टेक रहे हैं।
(3) एक इतना बड़ा तथ्य कि महमूद गजनवी के एक प्रमुख रिश्तेदार को भारत की भूमि पर समाप्त किया गया, इतिहास की पुस्तकों में सिरे से ही गायब है।
जो कुछ भी उपलब्ध है इंटरनेट पर ही है, इस सम्बन्ध में रोमिला थापर की पुस्तक “Dargah of Ghazi in Bahraich” में उल्लेख है
एन्ना सुवोरोवा की एक और पुस्तक “Muslim Saints of South Asia” में भी इसका उल्लेख मिलता है,
जो मूर्ख हिन्दू उस दरगाह पर जाकर अभी भी स्वास्थ्य और शारीरिक तकलीफ़ों सम्बन्धी तथा अन्य दुआएं मांगते हैं उनकी खिल्ली स्वयं “तुलसीदास” भी उड़ा चुके हैं। चूंकि मुगल शासनकाल होने के कारण तुलसीदास ने मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिखा है, लेकिन फ़िर भी बहराइच में जारी इस “भेड़िया धसान” (भेड़चाल) के बारे में वे अपनी “दोहावली” में कहते हैं –
लही आँखि कब आँधरे, बाँझ पूत कब ल्याइ ।
कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाइ॥
अर्थात “पता नहीं कब किस अंधे को आँख मिली, पता नहीं कब किसी बाँझ को पुत्र हुआ, पता नहीं कब किसी कोढ़ी की काया निखरी, लेकिन फ़िर भी लोग बहराइच क्यों जाते हैं…” (यहाँ भी देखें)
“लाल” इतिहासकारों और धूर्त तथा स्वार्थी कांग्रेसियों ने हमेशा भारत की जनता को उनके गौरवपूर्ण इतिहास से महरूम रखने का प्रयोजन किया हुआ है। इनका साथ देने के लिये “सेकुलर” नाम की घृणित कौम भी इनके पीछे हमेशा रही है। भारत के इतिहास को छेड़छाड़ करके मनमाने और षडयन्त्रपूर्ण तरीके से अंग्रेजों और मुगलों को श्रेष्ठ बताया गया है और हिन्दू राजाओं का या तो उल्लेख ही नहीं है और यदि है भी तो दमित-कुचले और हारे हुए के रूप में। आखिर इस विकृति के सुधार का उपाय क्या है…? जवाब बड़ा मुश्किल है, लेकिन एक बात तो तय है कि इतने लम्बे समय तक हिन्दू कौम का “ब्रेनवॉश” किया गया है, तो दिमागों से यह गंदगी साफ़ करने में समय तो लगेगा ही। इसके लिये शिक्षण पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे। “मैकाले की अवैध संतानों” को बाहर का रास्ता दिखाना होगा, यह एक धीरे-धीरे चलने वाली प्रक्रिया है। हालांकि संतोष का विषय यह है कि इंटरनेट नामक हथियार युवाओं में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है, युवाओं में “हिन्दू भावनाओं” का उभार हो रहा है, उनमें अपने सही इतिहास को जानने की भूख है। आज का युवा काफ़ी समझदार है, वह देख रहा है कि भारत के आसपास क्या हो रहा है, वह जानता है कि भारत में कितनी अन्दरूनी शक्ति है, लेकिन जब वह “सेकुलरवादियों”, कांग्रेसियों और वामपंथियों के ढोंग भरे प्रवचन और उलटबाँसियाँ सुनता है तो उसे उबकाई आने लगती है, इन युवाओं (17 से 23 वर्ष आयु समूह) को भारत के गौरवशाली पृष्ठभूमि का ज्ञान करवाना चाहिये। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि भले ही वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नौकर बनें, लेकिन उन्हें किसी से “दबकर” रहने या अपने धर्म और हिन्दुत्व को लेकर किसी शर्मिन्दगी का अहसास करने की आवश्यकता नहीं है। जिस दिन हिन्दू संगठित होकर प्रतिकार करने लगेंगे, एक “हिन्दू वोट बैंक” की तरह चुनाव में वोटिंग करने लगेंगे, उस दिन ये “सेकुलर” नामक रीढ़विहीन प्राणी देखते-देखते गायब हो जायेगा।
हमें प्रत्येक दुष्प्रचार का जवाब खुलकर देना चाहिये, वरना हो सकता है कि किसी दिन एकाध “गधे की दरगाह” पर भी हिन्दू सिर झुकाते हुए मिलें…
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मुझे यकीन है कि अधिकतर पाठकों ने सुल्तान सैयद सालार मसूद गाज़ी के बारे में नहीं सुना होगा, यहाँ तक कि बहराइच (उत्तरप्रदेश) में रहने वालों को भी इसके बारे में शायद ठीक-ठीक पता न होगा। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं बहराइच (उत्तरप्रदेश) में “दरगाह शरीफ़”(???) पर प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के पहले रविवार को लगने वाले सालाना उर्स के बारे में…। बहराइच शहर से 3 किमी दूर सैयद सालार मसूद गाज़ी की दरगाह स्थित है, ऐसी मान्यता है(?) कि मज़ार-ए-शरीफ़ में स्नान करने से बीमारियाँ दूर हो जाती हैं (http://behraich.nic.in/) और अंधविश्वास के मारे लाखों लोग यहाँ आते हैं। सैयद सालार मसूद गाज़ी कौन था, उसकी कब्र “दरगाह” में कैसे तब्दील हो गई आदि के बारे में आगे जानेंगे ही, पहले “बहराइच” के बारे में संक्षिप्त में जान लें – यह इलाका “गन्धर्व वन” के रूप में प्राचीन वेदों में वर्णित है, ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा जी ने ॠषियों की तपस्या के लिये यहाँ एक घने जंगल का निर्माण किया था, जिसके कारण इसका नाम पड़ा “ब्रह्माइच”, जो कालांतर में भ्रष्ट होते-होते बहराइच बन गया।

अब आते हैं सालार मसूद पर… पाठकगंण महमूद गज़नवी (गज़नी) के बारे में तो जानते ही होंगे, वही मुगल आक्रांता जिसने सोमनाथ पर 16 बार हमला किया और भारी मात्रा में सोना हीरे-जवाहरात आदि लूट कर ले गया था। महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर आखिरी बार सन् 1024 में हमला किया था तथा उसने व्यक्तिगत रूप से सामने खड़े होकर शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े किये और उन टुकड़ों को अफ़गानिस्तान के गज़नी शहर की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में सन् 1026 में लगवाया। इसी लुटेरे महमूद गजनवी का ही रिश्तेदार था सैयद सालार मसूद… यह बड़ी भारी सेना लेकर सन् 1031 में भारत आया। सैयद सालार मसूद एक सनकी किस्म का धर्मान्ध मुगल आक्रान्ता था। महमूद गजनवी तो बार-बार भारत आता था सिर्फ़ लूटने के लिये और वापस चला जाता था, लेकिन इस बार सैयद सालार मसूद भारत में विशाल सेना लेकर आया था कि वह इस भूमि को “दारुल-इस्लाम” बनाकर रहेगा और इस्लाम का प्रचार पूरे भारत में करेगा (जाहिर है कि तलवार के बल पर)।
सैयद सालार मसूद अपनी सेना को लेकर “हिन्दुकुश” पर्वतमाला को पार करके पाकिस्तान (आज के) के पंजाब में पहुँचा, जहाँ उसे पहले हिन्दू राजा आनन्द पाल शाही का सामना करना पड़ा, जिसका उसने आसानी से सफ़ाया कर दिया। मसूद के बढ़ते कदमों को रोकने के लिये सियालकोट के राजा अर्जन सिंह ने भी आनन्द पाल की मदद की लेकिन इतनी विशाल सेना के आगे वे बेबस रहे। मसूद धीरे-धीरे आगे बढ़ते-बढ़ते राजपूताना और मालवा प्रांत में पहुँचा, जहाँ राजा महिपाल तोमर से उसका मुकाबला हुआ, और उसे भी मसूद ने अपनी सैनिक ताकत से हराया। एक तरह से यह भारत के विरुद्ध पहला जेहाद कहा जा सकता है, जहाँ कोई मुगल आक्रांता सिर्फ़ लूटने की नीयत से नहीं बल्कि बसने, राज्य करने और इस्लाम को फ़ैलाने का उद्देश्य लेकर आया था। पंजाब से लेकर उत्तरप्रदेश के गांगेय इलाके को रौंदते, लूटते, हत्यायें-बलात्कार करते सैयद सालार मसूद अयोध्या के नज़दीक स्थित बहराइच पहुँचा, जहाँ उसका इरादा एक सेना की छावनी और राजधानी बनाने का था। इस दौरान इस्लाम के प्रति उसकी सेवाओं(?) को देखते हुए उसे “गाज़ी बाबा” की उपाधि दी गई।
इस मोड़ पर आकर भारत के इतिहास में एक विलक्षण घटना घटित हुई, ज़ाहिर है कि इतिहास की पुस्तकों में जिसका कहीं जिक्र नहीं किया गया है। इस्लामी खतरे को देखते हुए पहली बार भारत के उत्तरी इलाके के हिन्दू राजाओं ने एक विशाल गठबन्धन बनाया, जिसमें 17 राजा सेना सहित शामिल हुए और उनकी संगठित संख्या सैयद सालार मसूद की विशाल सेना से भी ज्यादा हो गई। जैसी कि हिन्दुओ की परम्परा रही है, सभी राजाओं के इस गठबन्धन ने सालार मसूद के पास संदेश भिजवाया कि यह पवित्र धरती हमारी है और वह अपनी सेना के साथ चुपचाप भारत छोड़कर निकल जाये अथवा उसे एक भयानक युद्ध झेलना पड़ेगा। गाज़ी मसूद का जवाब भी वही आया जो कि अपेक्षित था, उसने कहा कि “इस धरती की सारी ज़मीन खुदा की है, और वह जहाँ चाहे वहाँ रह सकता है… यह उसका धार्मिक कर्तव्य है कि वह सभी को इस्लाम का अनुयायी बनाये और जो खुदा को नहीं मानते उन्हें काफ़िर माना जाये…”।
उसके बाद ऐतिहासिक बहराइच का युद्ध हुआ, जिसमें संगठित हिन्दुओं की सेना ने सैयद मसूद की सेना को धूल चटा दी। इस भयानक युद्ध के बारे में इस्लामी विद्वान शेख अब्दुर रहमान चिश्ती की पुस्तक मीर-उल-मसूरी में विस्तार से वर्णन किया गया है। उन्होंने लिखा है कि मसूद सन् 1033 में बहराइच पहुँचा, तब तक हिन्दू राजा संगठित होना शुरु हो चुके थे। यह भीषण रक्तपात वाला युद्ध मई-जून 1033 में लड़ा गया। युद्ध इतना भीषण था कि सैयद सालार मसूद के किसी भी सैनिक को जीवित नहीं जाने दिया गया, यहाँ तक कि युद्ध बंदियों को भी मार डाला गया… मसूद का समूचे भारत को इस्लामी रंग में रंगने का सपना अधूरा ही रह गया।
बहराइच का यह युद्ध 14 जून 1033 को समाप्त हुआ। बहराइच के नज़दीक इसी मुगल आक्रांता सैयद सालार मसूद (तथाकथित गाज़ी बाबा) की कब्र बनी। जब फ़िरोज़शाह तुगलक का शासन समूचे इलाके में पुनर्स्थापित हुआ तब वह बहराइच आया और मसूद के बारे में जानकारी पाकर प्रभावित हुआ और उसने उसकी कब्र को एक विशाल दरगाह और गुम्बज का रूप देकर सैयद सालार मसूद को “एक धर्मात्मा”(?) के रूप में प्रचारित करना शुरु किया, एक ऐसा इस्लामी धर्मात्मा जो भारत में इस्लाम का प्रचार करने आया था। मुगल काल में धीरे-धीरे यह किंवदंती का रूप लेता गया और कालान्तर में सभी लोगों ने इस “गाज़ी बाबा” को “पहुँचा हुआ पीर” मान लिया तथा उसकी दरगाह पर प्रतिवर्ष एक “उर्स” का आयोजन होने लगा, जो कि आज भी जारी है।
इस समूचे घटनाक्रम को यदि ध्यान से देखा जाये तो कुछ बातें मुख्य रूप से स्पष्ट होती हैं-
(1) महमूद गजनवी के इतने आक्रमणों के बावजूद हिन्दुओं के पहली बार संगठित होते ही एक क्रूर मुगल आक्रांता को बुरी तरह से हराया गया (अर्थात यदि हिन्दू संगठित हो जायें तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता)
(2) एक मुगल आक्रांता जो भारत को इस्लामी देश बनाने का सपना देखता था, आज की तारीख में एक “पीर-शहीद” का दर्जा पाये हुए है और दुष्प्रचार के प्रभाव में आकर मूर्ख हिन्दू उसकी मज़ार पर जाकर मत्था टेक रहे हैं।
(3) एक इतना बड़ा तथ्य कि महमूद गजनवी के एक प्रमुख रिश्तेदार को भारत की भूमि पर समाप्त किया गया, इतिहास की पुस्तकों में सिरे से ही गायब है।
जो कुछ भी उपलब्ध है इंटरनेट पर ही है, इस सम्बन्ध में रोमिला थापर की पुस्तक “Dargah of Ghazi in Bahraich” में उल्लेख है
एन्ना सुवोरोवा की एक और पुस्तक “Muslim Saints of South Asia” में भी इसका उल्लेख मिलता है,
जो मूर्ख हिन्दू उस दरगाह पर जाकर अभी भी स्वास्थ्य और शारीरिक तकलीफ़ों सम्बन्धी तथा अन्य दुआएं मांगते हैं उनकी खिल्ली स्वयं “तुलसीदास” भी उड़ा चुके हैं। चूंकि मुगल शासनकाल होने के कारण तुलसीदास ने मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिखा है, लेकिन फ़िर भी बहराइच में जारी इस “भेड़िया धसान” (भेड़चाल) के बारे में वे अपनी “दोहावली” में कहते हैं –
लही आँखि कब आँधरे, बाँझ पूत कब ल्याइ ।
कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाइ॥
अर्थात “पता नहीं कब किस अंधे को आँख मिली, पता नहीं कब किसी बाँझ को पुत्र हुआ, पता नहीं कब किसी कोढ़ी की काया निखरी, लेकिन फ़िर भी लोग बहराइच क्यों जाते हैं…” (यहाँ भी देखें)
“लाल” इतिहासकारों और धूर्त तथा स्वार्थी कांग्रेसियों ने हमेशा भारत की जनता को उनके गौरवपूर्ण इतिहास से महरूम रखने का प्रयोजन किया हुआ है। इनका साथ देने के लिये “सेकुलर” नाम की घृणित कौम भी इनके पीछे हमेशा रही है। भारत के इतिहास को छेड़छाड़ करके मनमाने और षडयन्त्रपूर्ण तरीके से अंग्रेजों और मुगलों को श्रेष्ठ बताया गया है और हिन्दू राजाओं का या तो उल्लेख ही नहीं है और यदि है भी तो दमित-कुचले और हारे हुए के रूप में। आखिर इस विकृति के सुधार का उपाय क्या है…? जवाब बड़ा मुश्किल है, लेकिन एक बात तो तय है कि इतने लम्बे समय तक हिन्दू कौम का “ब्रेनवॉश” किया गया है, तो दिमागों से यह गंदगी साफ़ करने में समय तो लगेगा ही। इसके लिये शिक्षण पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे। “मैकाले की अवैध संतानों” को बाहर का रास्ता दिखाना होगा, यह एक धीरे-धीरे चलने वाली प्रक्रिया है। हालांकि संतोष का विषय यह है कि इंटरनेट नामक हथियार युवाओं में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है, युवाओं में “हिन्दू भावनाओं” का उभार हो रहा है, उनमें अपने सही इतिहास को जानने की भूख है। आज का युवा काफ़ी समझदार है, वह देख रहा है कि भारत के आसपास क्या हो रहा है, वह जानता है कि भारत में कितनी अन्दरूनी शक्ति है, लेकिन जब वह “सेकुलरवादियों”, कांग्रेसियों और वामपंथियों के ढोंग भरे प्रवचन और उलटबाँसियाँ सुनता है तो उसे उबकाई आने लगती है, इन युवाओं (17 से 23 वर्ष आयु समूह) को भारत के गौरवशाली पृष्ठभूमि का ज्ञान करवाना चाहिये। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि भले ही वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नौकर बनें, लेकिन उन्हें किसी से “दबकर” रहने या अपने धर्म और हिन्दुत्व को लेकर किसी शर्मिन्दगी का अहसास करने की आवश्यकता नहीं है। जिस दिन हिन्दू संगठित होकर प्रतिकार करने लगेंगे, एक “हिन्दू वोट बैंक” की तरह चुनाव में वोटिंग करने लगेंगे, उस दिन ये “सेकुलर” नामक रीढ़विहीन प्राणी देखते-देखते गायब हो जायेगा।
हमें प्रत्येक दुष्प्रचार का जवाब खुलकर देना चाहिये, वरना हो सकता है कि किसी दिन एकाध “गधे की दरगाह” पर भी हिन्दू सिर झुकाते हुए मिलें…
Mughal Rule in India, Muslim Emperors of India, Syed Salar Masud Ghazi, Bahraich Dargah, Hindu Kings United, Fake History Books by Communists and Congress, Tulsidas, Feroze Shah Tuglak, Mahmood Gaznavi, भारत में मुगल शासन, वामपंथी विकृत इतिहास, सैयद सालार मसूद गाज़ी, बहराइच दरगाह उर्स, संगठित हिन्दू राजा, तुलसीदास, फ़िरोज़शाह तुगलक, महमूद गजनवी, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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