नेपाल में मिशनरी चमत्कार...
एकमात्र भूतपूर्व हिन्दू राष्ट्र, उर्फ भारत के एक विश्वस्त
पड़ोसी नेपाल में इन दिनों एक चमत्कार हो रहा है. नेपाल के उत्तरी पहाड़ी इलाकों तथा
दक्षिणी पठार के कुछ जिलों में अचानक लोग अपने भगवान बदलने लगे हैं. जी हाँ,
नेपाली धडल्ले से ईसाई बनने लगे हैं. सन २०११ के बाद से मात्र चार वर्षों में
“आधिकारिक” रूप से नेपाल के प्रमुख तीन जिलों में ढाई लाख लोगों ने अपना धर्म
परिवर्तन कर लिया है. सुनने में ढाई लाख कोई बहुत बड़ा आँकड़ा नहीं दिखाई देता,
परन्तु एक ऐसा देश जिसकी कुल आबादी ही लगभग साढ़े तीन-चार करोड़ हो, वहाँ यह संख्या
अच्छा ख़ासा सामाजिक तनाव उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त है.
लगभग आठ साल पहले सन २००६ में जब नेपाल का हिन्दू राजतंत्र समाप्त
हुआ तथा माओवादियों द्वारा नया “सेकुलर” अंतरिम संविधान अस्तित्त्व में लाया गया,
उसी दिन से मानो विदेशी मिशनरी संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई. मिशनरी गतिविधियों के
कारण नेपाल के पारंपरिक बौद्ध एवं शैव हिन्दू धर्मावलंबियों के बहुमत वाले समाज
में तनाव निर्मित होने शुरू हो गए हैं. यहाँ तक कि ईसाई धर्मांतरण की बढ़ती घटनाओं
के कारण वहाँ नेताओं को इस नए अंतरिम संविधान में भी “धार्मिक मतांतरण” पर रोक
लगाने का प्रावधान करना पड़ा. नए संविधान में भी जबरन धर्मांतरण पर पांच साल की जेल
का प्रावधान किया गया है. परन्तु इसके बावजूद मिशनरी संस्थाएँ अपना अभियान निरंतर
जारी रखे हुए हैं.
समाज में जारी वर्त्तमान संघर्ष की प्रमुख वजह है मिशनरी
संस्थाओं द्वारा लगातार यह माँग करना कि संविधान से धारा १६० एवं १६०.२ को हटाया
जाए. यह धारा धर्म परिवर्तन को रोकती है. मिशनरी संस्थाओं की माँग है कि
“स्वैच्छिक धर्म परिवर्तन” पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए. एक “सेक्यूलर लोकतंत्र” का
तकाज़ा है कि व्यक्ति जो चाहे वह धर्म चुनने के लिए स्वतन्त्र हो. जबकि नेपाल के
बौद्ध एवं हिन्दू संगठन संविधान की इस धारा को न सिर्फ बनाए रखना चाहते हैं, बल्कि
इसके प्रावधानों को और भी कठोर बनाना चाहते हैं. इस मामले में “आग में घी” का काम
किया नेपाल में ब्रिटेन के राजदूत एंड्रयू स्पार्क्स की टिप्पणी ने. अपने एक लेख
में ब्रिटिश राजदूत ने “सलाह दी” कि, नेपाल के नए बनने वाले संविधान में “अपनी
पसंद का धर्म चुनने का अधिकार सुरक्षित रखा जाए”. ब्रिटिश राजदूत की इस टिप्पणी को
वहाँ के प्रबुद्ध वर्ग ने देश के आंतरिक मामलों में “सीधा हस्तक्षेप” बताया.
राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के नेता कमल थापा कहते हैं कि
ब्रिटिश राजदूत का यह बयान सरकार पर दबाव बनाने के लिए है ताकि मिशनरी संस्थाएँ
बिना किसी रोकटोक एवं क़ानून के डर के बिना अपना धर्मांतरण मिशन जारी रख सकें. थापा
का वाजिब सवाल यही है कि नेपाल के धर्म परिवर्तन क़ानून पर ब्रिटिश राजदूत इतने
बेचैन क्यों हैं? क्योंकि यूरोप एवं दुसरे पश्चिमी देशों से आने वाली क्रिश्चियन
संस्थाओं को नेपाल में घुसपैठ करने का पूरा मौका मिल सके. कमल थापा के इस बयान का
नेपाल के बुद्धिजीवी वर्ग, समाचार पत्रों एवं आम जनता में ख़ासा प्रभाव देखा गया.
नेपाल में इस मुद्दे पर बहस छिड़ गई है कि धर्मान्तरण क़ानून को कठोर बनाया जाए, या
“सेक्यूलर लोकतंत्र” की खातिर इसे “स्वैच्छिक” कर दिया जाए (भारत में भी फिलहाल यही चल रहा है). नेपाल का एक बड़ा तबका
आज भी राजतंत्र का समर्थक है एवं माओवादी सरकार द्वारा जल्दबाजी में बिना
सोचे-समझे सेक्यूलर लोकतंत्र को अपनाए जाने के खिलाफ है. बहुत से लोगों का कहना है
कि सेक्यूलर लोकतंत्र का संविधान अपनाते समय किसी से कोई सलाह नहीं ली गई थी.
नुवाकोट, धादिंग, गुरखा, कास्की, म्याग्दी, रुकुम और चितवन
जिलों में मिशनरी गतिविधियों के कारण धडल्ले से धर्म परिवर्तन हो रहा है. सीमा पर
नए-नए चर्च खुल रहे हैं, जो आए दिन गरीब नेपालियों को रूपए-पैसों का लालच देकर
ईसाई बना रहे हैं. चर्च की संस्थाएँ गरीबों को अच्छे मकान, अच्छे कपड़े और कान्वेंट
स्कूलों में मुफ्त पढ़ाई का आश्वासन देकर अपने धर्म में खींच रहे हैं. जैसी की चर्च की चालबाजी होती
है, उसी प्रकार नेशनल कौंसिल ऑफ नेपाल चर्च का कहना है कि वे जबरन धर्म परिवर्तन
नहीं करवाते, बल्कि नेपाली हिन्दू ईसाई धर्म की अच्छाईयों से आकर्षित होकर ही
परिवर्तित हो रहे हैं.
सवाल यह है कि ऐसा अक्सर “सेकुलर” देशों में ही
क्यों होता है? क्या सेकुलर घोषित होते ही गरीबों का धर्म प्रेम जागृत हो जाता है?
या सेकुलरिज़्म के कारण अचानक ही सेवाभावी चर्च की संस्थाएँ फलने-फूलने लगती हैं?
लगता है कि अफ्रीकी गरीबों की जमकर “सेवा” करने के बाद अब
दक्षिण एशियाई गरीबों का नंबर है...
(वेबसाईट "स्वराज्य.कॉम" से साभार सहित अनुवादित).
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