सुप्रीम कोर्ट : हुबली का ईदगाह मैदान सार्वजनिक उपयोग के लिये – उमा भारती की नैतिक जीत… Hubli Idgah Land Issue, Supreme Court, Anjuman-BJP
Written by Super User रविवार, 17 जनवरी 2010 13:12
हुबली (कर्नाटक) में कई वर्षों से चल रहे ईदगाह मैदान के बारे में अन्ततः सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आ गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि ईदगाह का यह मैदान हुबली-धारवाड़ नगरपालिका निगम के स्वामित्व का माना जायेगा, तथा किसी भी अन्य संगठन को इस सम्पत्ति पर दावा प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं है।
कुछ लोग भूल गये होंगे इसलिये आईये पूरे मामले पर फ़िर से एक निगाह डालते हैं –
हुबली के ईदगाह के मैदान का भूमि विवाद सन् 1921 से चल रहा है, जब हुबली नगरपालिका ने स्थानीय अंजुमन-ए-इस्लाम को इस मैदान का 1.5 एकड़ हिस्सा नमाज के लिये कुछ शर्तों पर दिया था। शुरु से ही शर्तों का उल्लंघन होता रहा, प्रशासन, सरकारें आँखें मूंदे बैठे रहे। जब हिन्दूवादी संगठनों ने इस पर आपत्ति उठाना शुरु किया तब हलचल मची, इस बीच 1990 में अंजुमन ने इस भूमि पर पक्का निर्माण कार्य लिया, जिसने आग में घी डालने का काम कर दिया, और जब सरकार ने इस निर्माण कार्य को अतिक्रमण कहकर तोड़ने की कोशिश की तब मामला न्यायालय में चला गया, फ़िर जैसा कि होता आया है हमारे देश के न्यायालय न्याय कम देते हैं “स्टे ऑर्डर” अधिक देते हैं, मामला टलता गया, गरमाता गया, साम्प्रदायिक रूप लेता गया। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती ने इस मैदान पर जब तिरंगा फ़हराने की कोशिश की थी, तब “स्वार्थी तत्वों” दंगे भड़काये गये थे और पुलिस गोलीबारी मे 9 लोग मारे गये थे, उमा भारती के खिलाफ़ स्थानीय न्यायालय ने गैर-ज़मानती वारंट जारी किया था और उन्हें संवैधानिक बाध्यताओं के चलते अपना मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था।
कर्नाटक हाईकोर्ट ने 8 जून 1992 के अपने निर्णय में स्पष्ट कहा है कि –
1) ईदगाह मैदान अंजुमन-ए-इस्लाम की निजी सम्पत्ति नहीं है यह हुबली-धारवाड़ नगरपालिक निगम की सम्पत्ति है।
2) मैदान का कुछ हिस्सा, अंजुमन को वर्ष में “सिर्फ़ दो दिन” अर्थात बकरीद और रमज़ान के दिन नमाज़ अदा करने के लिये दिया गया है।
3) अंजुमन द्वारा जो स्थाई निर्माण किया गया है उसे 45 दिनों के अन्दर हटा लिया जाये।
4) अंजुमन इस ज़मीन का उपयोग किसी भी व्यावसायिक अथवा शैक्षणिक गतिविधियों के लिये नहीं कर सकता।
इस निर्णय के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई थी, जिस पर न्यायालय ने “स्टे” दिया था। संघ परिवार(?) ने भी सुप्रीम कोर्ट में दस्तावेज़ जमा करके 19 अप्रैल 1993 को उच्चतम न्यायालय में इस मैदान को सार्वजनिक सम्पत्ति घोषित करने की मांग की थी।
शुरुआत में स्थानीय नागरिकों ने इस सार्वजनिक मैदान के नमाज़ हेतु उपयोग तथा पक्के निर्माण पर आपत्ति ली थी, फ़िर एक संगठन ने 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन यहाँ तिरंगा फ़हराने की अनुमति मांगी, जिसका अंजुमन ने विरोध किया और तभी से मामला उलझ गया। असल में अंजुमन का इरादा यहाँ एक व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स बनाकर नीचे दुकानें और ऊपर धार्मिक गतिविधि के लिये पक्का निर्माण करके समूचे मैदान पर धीरे-धीरे कब्जा जमाने का था (बांग्लादेशी भी ऐसा ही करते हैं), लेकिन भाजपा और अन्य हिन्दू संगठनों के बीच में कूदने के कारण उनका खेल बिगड़ गया। फ़िर भी जो स्थाई निर्माण इतने साल तक रहा और उसकी वजह से अंजुमन को जो भी आर्थिक फ़ायदा हुआ होगा, कायदे से वह भी सुप्रीम कोर्ट को उनसे वसूल करना चाहिये।
अब देखना यह है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद उस जगह से अंजुमन का अतिक्रमण हटाने में कामयाब हो पाते हैं या नहीं (क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों को लतियाने की परम्परा रही है इस देश में)। वैसे तो यह पूरी तरह से एक भूमि विवाद था जिसे अतिक्रमणकर्ताओं ने “साम्प्रदायिक” रूप दे दिया, लेकिन फ़िर भी उमा भारती के लिये व्यक्तिगत रूप से यह एक नैतिक विजय कही जा सकती है।
इसलिये ऐ, “सेकुलर रुदालियों,” उठो, चलो काम पर लगो… कर्नाटक में भाजपा की सरकार है… अपने पालतू भाण्ड चैनलों को ले जाओ, कुछ मानवाधिकार संगठनों को पकड़ो, एकाध महेश भट्टनुमा सेलेब्रिटी(?) को पढ़ने के लिये स्क्रिप्ट वगैरह दो… कहीं ऐसा न हो कि येदियुरप्पा “अल्पसंख्यकों” पर “भारी अत्याचार” कर दें…
http://news.rediff.com/interview/2010/jan/14/hubli-idgah-maidan-is-for-public-use.htm
कुछ लोग भूल गये होंगे इसलिये आईये पूरे मामले पर फ़िर से एक निगाह डालते हैं –
हुबली के ईदगाह के मैदान का भूमि विवाद सन् 1921 से चल रहा है, जब हुबली नगरपालिका ने स्थानीय अंजुमन-ए-इस्लाम को इस मैदान का 1.5 एकड़ हिस्सा नमाज के लिये कुछ शर्तों पर दिया था। शुरु से ही शर्तों का उल्लंघन होता रहा, प्रशासन, सरकारें आँखें मूंदे बैठे रहे। जब हिन्दूवादी संगठनों ने इस पर आपत्ति उठाना शुरु किया तब हलचल मची, इस बीच 1990 में अंजुमन ने इस भूमि पर पक्का निर्माण कार्य लिया, जिसने आग में घी डालने का काम कर दिया, और जब सरकार ने इस निर्माण कार्य को अतिक्रमण कहकर तोड़ने की कोशिश की तब मामला न्यायालय में चला गया, फ़िर जैसा कि होता आया है हमारे देश के न्यायालय न्याय कम देते हैं “स्टे ऑर्डर” अधिक देते हैं, मामला टलता गया, गरमाता गया, साम्प्रदायिक रूप लेता गया। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती ने इस मैदान पर जब तिरंगा फ़हराने की कोशिश की थी, तब “स्वार्थी तत्वों” दंगे भड़काये गये थे और पुलिस गोलीबारी मे 9 लोग मारे गये थे, उमा भारती के खिलाफ़ स्थानीय न्यायालय ने गैर-ज़मानती वारंट जारी किया था और उन्हें संवैधानिक बाध्यताओं के चलते अपना मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था।
कर्नाटक हाईकोर्ट ने 8 जून 1992 के अपने निर्णय में स्पष्ट कहा है कि –
1) ईदगाह मैदान अंजुमन-ए-इस्लाम की निजी सम्पत्ति नहीं है यह हुबली-धारवाड़ नगरपालिक निगम की सम्पत्ति है।
2) मैदान का कुछ हिस्सा, अंजुमन को वर्ष में “सिर्फ़ दो दिन” अर्थात बकरीद और रमज़ान के दिन नमाज़ अदा करने के लिये दिया गया है।
3) अंजुमन द्वारा जो स्थाई निर्माण किया गया है उसे 45 दिनों के अन्दर हटा लिया जाये।
4) अंजुमन इस ज़मीन का उपयोग किसी भी व्यावसायिक अथवा शैक्षणिक गतिविधियों के लिये नहीं कर सकता।
इस निर्णय के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई थी, जिस पर न्यायालय ने “स्टे” दिया था। संघ परिवार(?) ने भी सुप्रीम कोर्ट में दस्तावेज़ जमा करके 19 अप्रैल 1993 को उच्चतम न्यायालय में इस मैदान को सार्वजनिक सम्पत्ति घोषित करने की मांग की थी।
शुरुआत में स्थानीय नागरिकों ने इस सार्वजनिक मैदान के नमाज़ हेतु उपयोग तथा पक्के निर्माण पर आपत्ति ली थी, फ़िर एक संगठन ने 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन यहाँ तिरंगा फ़हराने की अनुमति मांगी, जिसका अंजुमन ने विरोध किया और तभी से मामला उलझ गया। असल में अंजुमन का इरादा यहाँ एक व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स बनाकर नीचे दुकानें और ऊपर धार्मिक गतिविधि के लिये पक्का निर्माण करके समूचे मैदान पर धीरे-धीरे कब्जा जमाने का था (बांग्लादेशी भी ऐसा ही करते हैं), लेकिन भाजपा और अन्य हिन्दू संगठनों के बीच में कूदने के कारण उनका खेल बिगड़ गया। फ़िर भी जो स्थाई निर्माण इतने साल तक रहा और उसकी वजह से अंजुमन को जो भी आर्थिक फ़ायदा हुआ होगा, कायदे से वह भी सुप्रीम कोर्ट को उनसे वसूल करना चाहिये।
अब देखना यह है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद उस जगह से अंजुमन का अतिक्रमण हटाने में कामयाब हो पाते हैं या नहीं (क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों को लतियाने की परम्परा रही है इस देश में)। वैसे तो यह पूरी तरह से एक भूमि विवाद था जिसे अतिक्रमणकर्ताओं ने “साम्प्रदायिक” रूप दे दिया, लेकिन फ़िर भी उमा भारती के लिये व्यक्तिगत रूप से यह एक नैतिक विजय कही जा सकती है।
इसलिये ऐ, “सेकुलर रुदालियों,” उठो, चलो काम पर लगो… कर्नाटक में भाजपा की सरकार है… अपने पालतू भाण्ड चैनलों को ले जाओ, कुछ मानवाधिकार संगठनों को पकड़ो, एकाध महेश भट्टनुमा सेलेब्रिटी(?) को पढ़ने के लिये स्क्रिप्ट वगैरह दो… कहीं ऐसा न हो कि येदियुरप्पा “अल्पसंख्यकों” पर “भारी अत्याचार” कर दें…
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