जब से मोदी सरकार ने केन्द्र में सत्ता संभाली है, अक्सर हमें विभिन्न चैनलों और अखबारों में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी “भगवाकरण हो रहा है” जैसा कुछ बडबडाते हुए मिल ही जाते हैं. “संस्थाओं का, शिक्षा का भगवाकरण हो रहा है” यह कथित आरोप कोई नई बात नहीं है, जब वाजपेयी सरकार में मुरलीमनोहर जोशी मानव संसाधन मंत्री थे, तब भी ऐसे कथित बुद्धिजीवी यही बात लगातार दोहराते थे. चूँकि मोदी सरकार इस बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई है, इसलिए वामपंथ नियंत्रित और विदेशों की नाजायज़ स्कॉलरशिप से “पोषित” बुद्धिजीवियों के गिरोह का स्वर इस बार और भी तीखे हैं. पिछले दो-तीन माह से पुणे स्थित फिल्म एंड टीवी इंस्टीट्यूट (FTII) में गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति को लेकर जो बवाल काटा जा रहा है, वह इसी गिरोह की कारस्तानी है. FTII में छात्रों के कंधे पर रखकर जो वामपंथी बन्दूक चल रही है, उसकी जड़ में इस संस्थान पर पिछले कई वर्षों का कब्ज़ा गँवाने का डर तथा इन वर्षों में किए गए तमाम लाल-काले कारनामों के उजागर होने का डर, यह दो प्रमुख कारण हैं.
हाल ही में आई किसी नई फिल्म में एक संवाद था कि, “वो करें तो चमत्कार, और हम करें तो बलात्कार”. शिक्षा संस्थाओं के “भगवाकरण” और अन्य संस्थाओं को दक्षिणपंथी बनाने का आरोप ठीक ऐसा ही है जैसे कोई बलात्कारी व्यक्ति खुद को संत घोषित करते हुए सामने वाले पर चोरी का आरोप मढ़ने की कोशिश करे. मोदी सरकार द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग करते हुए जनता के धन से चलने वाली इस संस्था का प्रमुख नियुक्त करने को लेकर जैसा फूहड़ आंदोलन किया जा रहा है, वह इसी मानसिकता का नतीजा है. 1960 से लेकर अभी तक पिछले चालीस-पचास साल में वामपंथियों ने देश की विभिन्न शैक्षिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के साथ “बौद्धिक बलात्कार” किया है वह अकल्पनीय है, और यही लोग जब अचानक “भगवाकरण-भगवाकरण” चिल्लाने लगते हैं तो फिल्म का वही संवाद याद आता है. आईये पहले संक्षेप में देखें कि देश की जनता के टैक्स के पैसों पर चलने वाले इस संस्थान में इन बुद्धिजीवियों ने पिछले तमाम वर्षों में कैसी “लालमलाल” मचा रखी थी.
FTII की स्थापना 1960 में पुणे स्थित प्रभात स्टूडियो के परिसर में हुई. आरम्भ में इसका नाम सिर्फ “फिल्म इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया” (FII) था, 1974 में इसमें टीवी शब्द जोड़कर इसे FTII बनाया गया. इस संस्था के गठन का उद्देश्य था कि देश की नई पीढ़ी के प्रतिभावान छात्रों को दृश्य-श्रव्य माध्यमों की तकनीकी जानकारी और फिल्म निर्माण की बारीकियाँ सिखाई जाएँ. उस समय देश को आज़ादी मिले हुए अधिक समय नहीं हुआ था, गाँधी के वध के पश्चात नेहरू ने देश की सत्ता पर पूर्ण पकड़ बना ली थी. नेहरू ने वामपंथ के प्रति अपना प्रेम कभी नहीं छिपाया, इसलिए उन दिनों से ही वामपंथी विचारधारा ने भी कुछ क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत करना आरम्भ कर दिया था. शीतयुद्ध के दिन थे और नेहरू का सोवियत प्रेम उफान पर था. भारत सिर्फ कहने भर का “गुटनिरपेक्ष” देश था, लेकिन वास्तव में वह रूस का बगलबच्चा ही बनता चला जा रहा था. भारत की प्रत्येक नीति और संस्थाओं का गठन रूस की साम्यवादी संस्थाओं के पैटर्न पर बनती थी. जैसा सोवियत संघ ने अपने देश की प्रत्येक संस्था पर पूर्णतः काबिज होने की नीति बनाई, ठीक उसी तरह भारत में भी नेहरू और वामपंथियों ने बिलकुल निचले स्तर तक शासकीय नियंत्रण के सहारे विचारधारा का प्रसार किया. देश के युवाओं की विचारधारा पर नियंत्रण का सबसे अच्छा माध्यम होता है साहित्य, शिक्षा, नाटक, फ़िल्में और टीवी. 1960 में सोवियत संघ ने इन सभी विधाओं की संस्था पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखा, यही भारत में भी किया गया. FTII की स्थापना का उद्देश्य भी देश के युवाओं को भारत की संस्कृति और हिन्दू सभ्यता से तोड़कर, वामपंथ और समाजवाद की दिशा में मोड़ने का ही था. मजे की बात यह है कि भारत को मिलाकर विश्व में सिर्फ पाँच ही देश ऐसे हैं, जहाँ शासकीय धन और संरक्षण में फिल्मों से सम्बन्धित पढ़ाई करवाई जाती है, अन्य देश हैं रूस, क्यूबा, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया.
1962 से 1971 तक इंस्टीट्यूट के कर्ताधर्ता थे जगत मुरारी. इस समय तक इस संस्थान को वामपंथी “लाल रंग” से पोतने का काम पूरा नहीं हो पाया था. इसी दौरान देश के राजनैतिक फलक पर नेहरू की तानाशाह बेटी इंदिरा का आगमन हुआ. 1967 से 1971 के बीच इंदिरा गाँधी ने काँग्रेस पार्टी और देश की सत्ता पर लगभग पूर्ण तानाशाही स्टाईल का नियंत्रण हासिल कर लिया था. इंदिरा गाँधी ने कई निजी संस्थाओं को “राष्ट्रीय” बना दिया. 1971-72 में टेलीविजन के आगमन की आहट पर इस संस्थान के नाम में टीवी भी जोड़ा गया. FTII का उपयोग दूरदर्शन के कर्मचारियों को ट्रेनिंग देने के लिए भी किया जाने लगा. उद्देश्य था कि इसी माध्यम से टीवी कलाकारों और समाचारों पर सरकारी नियंत्रण कायम रहे. 1970-71 में ही इंदिरा गाँधी और भारत के वामपंथियों के बीच एक “अलिखित समझौता” हो गया कि जिन क्षेत्रों में काँग्रेस मजबूत है, वहाँ वामपंथी दखल नहीं देंगे और शिक्षा और मीडिया के क्षेत्र में वामपंथी दबदबे को काँग्रेस तब तक चुनौती नहीं देगी, जब तक उसके हितों पर आँच न आए. यह अलिखित समझौता आज तक चला आ रहा है.
बहरहाल, 1971 में इंदिरा गाँधी ने “शिक्षा मंत्री” के रूप में अपनी पहली कठपुतली चुनी, जिसका नाम था डॉक्टर नूरुल हसन. नूरुल हसन एक घोषित वामपंथी थे, जो राज्यसभा के मार्ग से मंत्रिमंडल में घुसे. इनके नेतृत्व में ही सबसे पहले वामपंथियों ने देश की शिक्षा और मीडिया संस्थाओं पर कब्ज़ा करना आरम्भ किया. देश के बौद्धिक वातावरण को लाल रंग से पोतने का काम पूरा किया गया, जिससे यह देश आज तक नहीं उबर सका है. 1974 से 1977 तक FTII के अध्यक्ष बने अनवर जमाल किदवई. ये सज्जन भी सिर्फ रीढ़विहीन नौकरशाह थे जो इंदिरा गाँधी का हुक्म तामील करते थे. किदवई ने जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर का गठन किया ताकि “अपने लोगों” को वहाँ समाहित किया जा सके. किदवई साहब का फिल्मों या फिल्म की तकनीक अथवा ज्ञान से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं था. इनके बाद आए एसएम बर्नी, ये भी चाटुकार नौकरशाह ही थे जिन्हें जामिया मिलिया इस्लामिया विवि से उठाकर FTII में थोपा गया था. ज़ाहिर है कि बर्नी साहब का फ़िल्मी ज्ञान भी एकदम शून्य था, लेकिन उस समय भी छात्रों ने कोई आंदोलन नहीं किया. आश्चर्य तो इस बात का है कि इन पाँच वर्षों में FTII और जामिया इस्लामिया विवि का “अदभुत और रहस्यमयी प्रेम” किसी की निगाह में नहीं आया. इन दोनों मुस्लिम नौकरशाहों ने आपातकाल के दौरान FTII और मीडिया पर पूरा दबदबा बनाए रखा, ताकि उनकी मालकिन इंदिरा गाँधी और उनके आपातकाल के खिलाफ कोई चूं भी ना कर सके. गजेन्द्र चौहान से फ़िल्मी अनुभव और तकनीकी ज्ञान के बारे में सवाल करने वाले (कु)बुद्धिजीवियों को भी FTII के इन दोनों “फिल्म ज्ञान-शून्य रीढ़विहीन” नौकरशाहों के बारे में सब पता है, परन्तु जब बुद्धि बेच खाई हो तो बेशर्मी भी आ ही जाती है.
खैर, 1977 में आपातकाल खत्म हुआ, इंदिरा गाँधी सत्ता से गईं तब जनता पार्टी ने प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण को FTII का अध्यक्ष बनाया. लक्ष्मण साहब की सभी लोग इज्जत करते थे, कला के प्रति समर्पित यह सज्जन मना व्यक्ति राजनीति से दूर ही रहता था. 1977 से 1980 के दौरान FTII बिना किसी दिक्कत के चला. लेकिन फिर वही एक बात, कि आरके लक्ष्मण को भी फिल्मोग्राफी और सिनेमा के बारे में कतई कोई ज्ञान नहीं था, गजेन्द्र चौहान के पास तो फिर भी ढेर सारा है. अर्थात FTII के शुरुआती तीनों अध्यक्षों का फिल्मों से कोई लेना-देना नहीं था.
1980 में जनता सरकार गई और इंदिरा की वापसी हुई. देश के मूड को भांपते हुए इंदिरा गाँधी ने श्याम बेनेगल को FTII का अध्यक्ष नियुक्त किया. ज़ाहिर है कि बेनेगल की फिल्मों एवं उनके गहन फ़िल्मी ज्ञान के बारे में कोई सवाल ही नहीं है, लेकिन एक बात निश्चित है कि श्याम बेनेगल कट्टर नेहरूवादी थे. नेहरू की लिखी हुई “डिस्कवरी ऑफ इण्डिया” के प्रत्येक शब्द पर उन्हें भगवदगीता के बराबर भरोसा था. इसी नाम से बनाई उनकी प्रसिद्ध डॉक्यूमेंट्री में उन्होंने नेहरू की अंधभक्ति में लीन होकर, आर्यों का भारत पर आक्रमण भी दिखा दिया. जबकि भारत पर इस्लाम के वास्तविक आक्रमण को सफाई से छिपा गए. इसके बाद इस कुर्सी पर पधारे मृणाल सेन... होंगे बड़े जाने-माने फिल्मकार, लेकिन इन्होंने भी खुलेआम नक्सलियों और हिंसक मार्क्सवादियों की तारीफ़ में कसीदे काढ़े. (ध्यान रहे नक्सलियों की तारीफ़ करना प्रगतिशीलता कहलाती है, लेकिन संघ की तारीफ़ करने भर से आप अचानक अछूत हो जाते हैं). मृणाल सेन के बाद 1987 से 1995 तक अडूर गोपालकृष्णन FTII के अध्यक्ष बने, इस दौरान देश की राजनैतिक उथल-पुथल के बावजूद इस संस्था ने वाकई अच्छा काम किया. हिन्दू संगठनों की बढ़ती ताकत और बाबरी ढाँचे के ध्वंस के पश्चात वाजपेयी सरकार बनने की आशंका के बीच 1995 से FTII में वामपंथियों ने अपना पूरा ज़ोर लगाना शुरू कर दिया.
1995 में अपसंस्कृति फैलाने में माहिर फिल्मकार महेश भट्ट को FTII का अध्यक्ष बनाया गया. 1998 तक महेश भट्ट के कार्यकाल में यह संस्था पूरी तरह से हिन्दू विरोधी बन गई. महेश भट्ट न सिर्फ वामपंथियों से सहानुभूति रखते थे, बल्कि उनकी और उनके “सुपुत्र” की इस्लामी आतंकियों के प्रति सहानुभूति भी किसी से छिपी नहीं थी. महेश भट्ट ने ही एक बार कश्मीर मसले को लेकर “भारत सरकार एक आततायी सरकार है” जैसा बयान दिया था. इन्हीं महाशय के कार्यकाल में FTII ने सामाजिक क्रान्ति के नाम पर एकदम घटिया और “सी” ग्रेड की फ़िल्में भी बनाईं. 1999 में स्थिति और भी खराब हो गई, जब गिरीश कर्नाड को इस संस्था का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. कर्नाड तो खुलेआम हिन्दू संस्कृति को गाली देते रहे. उन्होंने अपने नाटकों में हिंदुओं और भारतीय संस्कृति की खिल्ली उड़ाने और भौंडे तरीके से मुग़ल शासकों को महान बताने का कृत्य भी किया. गिरीश कर्नाड के अनुसार प्राचीन भारत की संस्कृति हिंसा और सेक्स से भरी हुई थी. हाल ही में गिरीश कर्नाड ने बंगलौर में “बीफ-महोत्सव” का आयोजन भी किया और कहा गौमांस खाना उनका अधिकार है. सोचिये ऐसे-ऐसे “धुरंधर हिन्दू विरोधी” लोग FTII के अध्यक्ष रह चुके हैं... लेकिन अभी सूची खत्म कहाँ हुई है... आगे चलिए..
गिरीश कर्नाड के बाद 2002 से 2005 तक विनोद खन्ना इस संस्था के अध्यक्ष रहे, लेकिन प्रशासनिक रूप से वे अपनी कोई छाप नहीं छोड़ पाए और संस्था को बिना कोई विशेष योगदान दिए, UPA सरकार के गठन के पश्चात वे चलते बने. विनोद खन्ना के बाद पुनः यह संस्था वामपंथियों के कब्जे में आ गई. इस कुर्सी पर आए चरम वामपंथी यूआर अनंतमूर्ति. यूआर अनंतमूर्ति का फिल्म ज्ञान भी एकदम शून्य था, परन्तु उनकी एकमात्र योग्यता यही थी कि वे हिन्दू संगठनों, हिन्दू त्यौहारों, हिन्दू परम्पराओं को जमकर कोसते थे. वे खुलेआम अपना वामपंथ प्रेम प्रदर्शित भी करते थे. 2004 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को रोकने की खातिर उन्होंने चुनाव भी लड़ा, लेकिन असफल रहे. इसी प्रकार 2014 के आम चुनावों से पहले यूआर अनंतमूर्ति ने यह बयान दिया था कि, “यदि नरेंद्र मोदी इस देश के प्रधानमंत्री बन गए तो वे देश त्याग देंगे”, हालाँकि झूठे वामपंथियों की तरह ही उन्होंने अपनी इस बात पर अमल नहीं किया और अंततः भारत में ही मरे. गजेन्द्र चौहान के फ़िल्मी ज्ञान पर सवाल उठाने वालों के लिए यह दूसरा तमाचा है कि यूआर अनंतमूर्ति, जिन्होंने कभी कैमरा तक अपने हाथ में नहीं पकड़ा, वे दो-दो बार इस संस्था के अध्यक्ष बने... क्योंकि उनकी एकमात्र योग्यता थी हिन्दू संस्थाओं, संस्कृति, परम्पराओं को गरियाना और काँग्रेस-वामपंथ के तलवे चाटना.
दो-दो बार कब्जे बाद अनंतमूर्ति का स्थान लेने आए सईद अख्तर मिर्ज़ा. ये साहब भी खुलेआम वामपंथी हैं और गुजरात में काँग्रेस पोषित NGOs गिरोह की सरगना शबनम हाशमी की संस्था “अनहद” के सक्रिय सदस्य रहे (अन्य सदस्यों में हर्ष मंदर और के एन पणिक्कर जैसे धुर वामपंथी). “अनहद” का गठन गुजरात दंगों के बाद NGOs गिरोह ने किया था और इसके कई सदस्य सोनिया गाँधी की किचन कैबिनेट अर्थात NAC (जो मनमोहन सिंह को कठपुतली की तरह नचाती थी) के सदस्य भी थे.
कहने का तात्पर्य यह है कि केन्द्र सरकार के आश्रय में चलने और करदाताओं के पैसों पर पलने वाली FTII संस्था का फिल्मों, पढ़ाई, तकनीकी ज्ञान आदि से कोई लेना-देना नहीं था, पिछले चालीस-पचास साल से यह विशुद्ध रूप से राजनैतिक पद बना हुआ है, जिसमें अध्यक्ष की नियुक्ति का पूरा अधिकार केन्द्र सरकार का है. गजेन्द्र चौहान को लेकर जो हालिया प्रदर्शन जारी है वह वामपंथियों द्वारा अपनी खिसकती जमीन को बचाने तथा भ्रष्टाचार के नए आयाम स्थापित कर चुके तथा करोड़ों-अरबों रूपए की सब्सिडी तथा शोध सहायता के नाम पर अफरा-तफरी किए हुए धन की पोल खुलने की चिंता में है. कथित आंदोलनकारी कहते हैं कि यह संस्था स्वतन्त्र और स्वायत्त है, निरा झूठ है. जैसा कि ऊपर कई उदाहरण देकर बताया है, यह संस्था कभी भी स्वतन्त्र और लोकतांत्रिक नहीं थी, इसमें अधिकाँश बार चमचे किस्म के, रीढ़विहीन अथवा धुर हिन्दू-विरोधी लोगों का जमावड़ा बना रहा है. जिस उद्देश्य से इस संस्था का गठन हुआ था, वह तो कभी भी पूरा नहीं हुआ, उलटे लगभग 50 छात्र(??) ऐसे हैं जो पिछले दस-बारह वर्ष से इसी संस्था में जमे हुए हैं, अधेड़ हो चुके लेकिन अभी तक उनसे एक लघु-फिल्म भी नहीं बन पाई, फिर भी होस्टलों के मजे लूट रहे हैं. प्राप्त जानकारी के अनुसार सरकार IIT के एक छात्र पर जितना पैसा खर्च करती है, उससे कहीं अधिक सब्सिडीयुक्त धन इस संस्था के छात्रों पर खर्च किया जाता है. मोदी सरकार के आने के बाद से ही इस मक्कारी और मुफ्तखोरी पर लगाम कसने की तैयारी शुरू हो चुकी थी. जो “गिरोह” पिछले कई वर्षों से बंगाल और केरल में आंदोलन, धरना, प्रदर्शन, घेराव, तालाबन्दी वगैरह में मास्टरी हासिल कर चुके हैं, वे FTII में यही कर रहे हैं... देश की जनता के सामने इन्हें बेनकाब करना बहुत जरूरी है. सरकार को अब पीछे नहीं हटना चाहिए और ऐसी सभी संस्थाओं में “सफाई अभियान” चलाना चाहिए, जहाँ से विषाक्त वामपंथी विचारधारा बहती है.