गीत गाया है लता मंगेशकर ने, लिखा है गुलजार ने, संगीत दिया है वसन्त देसाई ने और फ़िल्म है आशीर्वाद (१९६८)... जिसमें अशोक कुमार ने एक ही रोल में बेबस पिता, उदारमना जमींदार और अन्त में एक भिखारी की अविस्मरणीय भूमिका निभाई है । गीत के बोल गुलजार की चिर-परिचित शैली में हैं अर्थात धुनों में बाँधने को कठिन (एक बार पंचम दा ने मजाक में कहा था कि शायद एक दिन गुलजार जी अखबार की हेडलाईन की भी धुन बनवायेंगे मुझसे, और उन्होंने बनाई भी, जैसे - मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पडा़ है [इजाजत]), लेकिन उतने ही कर्णप्रिय और आसान धुन में गीत को बाँधा है वसन्त देसाई जी ने । वसन्त देसाई जी ने मराठी में काफ़ी उत्कृष्ट काम किया है और हिन्दी में भी (जैसे - बोले रे पपीहरा...) । पहले गीत के बोल देखिये -
इक था बचपन, इक था बचपन
छोटा सा नन्हा सा बचपन, इक था बचपन
बचपन के एक बाबूजी थे, अच्छे-सच्चे बाबूजी थे
दोनों का सुन्दर था बन्धन, इक था बचपन..
(१) टहनी पर चढ़के जब फ़ूल बुलाते थे
हाथ उसके वो टहनी तक ना जाते थे
बचपन के नन्हें दो हाथ उठाकर वो फ़ूलों से हाथ मिलाते थे
इक था बचपन, इक था बचपन
(२) चलते-चलते, चलते-चलते जाने कब इन राहों में
बाबूजी बस गये बचपन की बाहों में
मुठ्ठी में बन्द हैं वो सूखे फ़ूल भी, खुशबू है जीने की छाँव में
इक था बचपन, इक था बचपन
(३) होंठों पर उनकी आवाज भी है, मेरे होठों पर उनकी आवाज भी है
साँसों में सौंपा विश्वास भी है,
जाने किस मोड़ पे कब मिल जायेंगे वो, पूछेंगे बचपन का एहसास भी है..
इक था बचपन, इक था बचपन
छोटा सा नन्हा बचपन, इक था बचपन...
जिस मर्मभेदी आवाज में लताजी ने यह गीत गाया है वह कमाल करने वाला है... दरअसल ये गीत उन्हें ज्यादा "हॉण्ट" करता है जो अपने पिता से बहुत दूर चले आये हैं, या उनके पिता उन्हें सेवा का मौका दिये बगैर इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गये हैं..रह-रह कर उनके दिलों में टीस उठाता है यह गीत... सच तो यह है कि इस दुनिया में सुखी कोई भी नहीं है, अमीर से अमीर और प्रसिद्ध से प्रसिद्ध व्यक्ति को भी कोई ना कोई दुःख जरूर है, सुख और दुःख सापेक्ष होते हैं, दूसरे का सुख हमेशा ज्यादा लगता है, लेकिन दूसरे का दुःख हमेशा कम लगता है.. जिसके पास पैसा नहीं है वह सोचता है कि पैसे से ही सारी खुशियाँ आ जाती हैं और जिसके पास पैसा है, लेकिन "अपने" नहीं हैं, वह सोचता है कि क्यों मैं जीवन भर पैसे के पीछे भागता रहा...
इस गीत को सुनकर अवश्य ही कईयों को पिता के कंधे पर बैठकर रावण देखना, पहली बार स्कूल में छोड़ते वक्त ऊपर से मजबूत दिखने वाले लेकिन भीगे मन वाले, मारने के लिये हाथ उठाने से पहले दो बार सोचने वाले पिता जरूर याद आयेंगे.. और आदमी अपने चेहरे पर कितने ही लेप लगा ले, मन पर सुखों के मरहम लगाता है ऐसा ही मधुर संगीत...इसीलिये तो ये कालजयी रचनायें हैं, आज से चालीस साल पहले यह गीत रचा गया और आज से पचास साल बाद भी जब हमारे बच्चे इसे सुनेंगे तो वही महसूस करेंगे, जो हम आज महसूस कर रहे हैं..