शैलेन्द्र की परम्परा में हम आनन्द बक्षी को रख सकते हैं, जिन्होंने हिन्दी फ़िल्मी गीतों को एक नया आयाम दिया, हालांकि शैलेन्द्र इस मामले में भाग्यशाली रहे कि उन्हें अच्छी पटकथाओं और बेहतरीन निर्देशकों के साथ काम करने का मौका मिला, जो कि आनन्द बक्षी को काफ़ी देर से स्थापित होने के बाद मिला, लेकिन दोनो ही गीतकारों ने सरल शब्दों को ही अपना माध्यम बनाया । प्रस्तुत गीत एक पहेली या सवाल-जवाब नुमा गीत है, जिसमें शैलेन्द्र ने बडी़ गहरी बातें हँसते-खेलते कह दी हैं । फ़िल्म है "ससुराल" (१९६१), गीत की धुन बनाई है शंकर-जयकिशन ने, गाया है रफ़ी-लता और कोरस ने, और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे जुबली कुमार राजेन्द्रकुमार और दक्षिण की हीरोईन बी.सरोजा देवी...। इस गीत में शैलेन्द्र के सामने चुनौती यह थी कि जिस पहेली को पूछा जा रहा है उसका जवाब भी एक सवाल ही होना चाहिये, और उन्होंने कमाल कर दिखाया है वह भी एक-दो नहीं, बल्कि तीन अंतरों में... पहले गीत पढिये....
रफ़ी साहब -
एक सवाल मैं करूँ, एक सवाल तुम करो
हर सवाल का सवाल ही जवाब हो...
लता जी दोहराती हैं -
एक सवाल मैं करूँ, एक सवाल तुम करो
हर सवाल का सवाल ही जवाब हो...
रफ़ी - प्यार की बेला साथ सजन का, फ़िर क्यों दिल घबराये
नैहर से घर जाती दुल्हन, क्यों नैना छलकाये ?
लता - है मालूम के जाना होगा, दुनिया एक सराय
फ़िर क्यों जाते वक्त मुसाफ़िर रोये और रुलाये..
कोरस - फ़िर क्यों जाते वक्त मुसाफ़िर रोये और रुलाये..
एक सवाल मैं करूँ, एक सवाल तुम करो
हर सवाल का सवाल ही जवाब हो...
लता - चाँद के माथे दाग है, फ़िर क्यों चाँद को लाज ना आये
उसका घटता बढता चेहरा, क्यों सुन्दर कहलाये ?
रफ़ी - काजल से नैनों की शोभा, क्यों दुगुनी हो जाये
गोरे-गोरे गाल पे काला तिल क्यों मन को भाये..
कोरस - गोरे-गोरे गाल पे काला तिल क्यों मन को भाये..
एक सवाल मैं करूँ, एक सवाल तुम करो
हर सवाल का सवाल ही जवाब हो...
रफ़ी - उजियाले में जो परछाँई पीछे-पीछे आये
वही अँधेरा होने पर क्यों साथ छोड़ छुप जाये ?
लता - सुख में क्यों घेरे रहते हैं अपने और पराये
बुरी घडी़ में क्यों हर कोई देख के भी कतराये..
कोरस - बुरी घडी़ में क्यों हर कोई देख के भी कतराये..
लता - एक सवाल मैं करूँ, एक सवाल तुम करो
हर सवाल का सवाल ही जवाब हो...
रफ़ी - एक सवाल मैं करूँ, एक सवाल तुम करो
हर सवाल का सवाल ही जवाब हो...
शब्दों पर गौर कीजिये, दुल्हन की विदाई के वक्त और मृत्यु के वक्त रोने-रुलाने की तुलना इसलिये की गई है कि दोनों ही एक सच्चाई हैं, फ़िर किस बात का रोना, लेकिन फ़िर भी सभी को दुख तो होता ही है, इसी प्रकार दूसरे अंतरे में चाँद के दाग की तुलना नैनों के काजल और गोरे गाल के तिल से की गई है, और तीसरे अंतरे में शैलेन्द्र एक कड़वी हकीकत को हमारे सामने रख देते हैं, सुख-दुख को अँधेरे-उजाले की परछाईयों से तुलना करके । तो यही है पहचान एक महान गीतकार की, वे हमें चलते-चलते एक लाईन में आध्यात्म भी समझा देते हैं कि "सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है ना घोडा़ है, वहाँ पैदल ही जाना है" (तीसरी कसम), या फ़िर ढोंगी सन्यासियों को वे दुत्कारते हैं "संसार से भागे फ़िरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे, इस लोक को भी अपना ना सके, उस लोक में भी पछताओगे" (चित्रलेखा).. ऐसे अनेकों गीत शैलेन्द्र ने हमें दिये हैं, सोचकर रोमांच सा होता है कि शब्दों के जादूगर शैलेन्द्र, मेलोडी के बादशाह शंकर-जयकिशन और सपनो के सौदागर राजकपूर साथ बैठते होंगे तो क्या समाँ बँधता होगा...