सर्वोच्च न्यायालय के कुछ भ्रष्ट जजों की संदिग्ध करतूतें… (भाग-1)...... Corruption in Indian Judiciary System (Part-1)
Written by Super User शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010 13:14
न्याय और सार्वजनिक शुचिता का सामान्य सिद्धान्त है कि सबसे ऊँचे पदों पर बैठे व्यक्तियों को ईमानदार और साफ़ छवि वाला होना चाहिये, इस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से यह अपेक्षा होती है कि वे नैतिकता और ईमानदारी के उच्चतम मानदंड न सिर्फ़ स्थापित करेंगे, बल्कि स्वयं भी उस पर कायम रहेंगे। भारत में न्यायाधीशों को एक "विशेष रक्षा कवच" मिला हुआ है जिसे "न्यायालय की अवमानना" कहते हैं, इसके तहत जजों अथवा उनके निर्णयों के खिलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठती, सामान्य व्यक्ति अधिक से अधिक यह कर सकता है कि वह निचली अदालत के निर्णय को ऊपरी अदालत में चुनौती दे (यानी फ़िर से 10-20 साल बर्बाद), परन्तु यदि उच्चतम न्यायालय के जज के किसी निर्णय पर ही आपत्ति हो तो कोई क्या कर सकता है? कुछ नहीं…
लोकतन्त्र की इसी विडम्बना को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट के ही वरिष्ठ वकील श्री प्रशान्त भूषण ने इसके खिलाफ़ 20 साल तक लगातार लड़ाई लड़ी। इस विकट संघर्ष के चलते अन्ततः सितम्बर 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने जजों की सम्पत्ति की सार्वजनिक घोषणा करना अनिवार्य कर दिया, यह एक पहली बड़ी जीत थी। हालांकि इससे ऊपरी स्तर पर भ्रष्टाचार में कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ने वाला था, परन्तु फ़िर भी इसे "सफ़ाई" की दिशा में पहला कदम कहा जा सकता है। प्रशान्त भूषण जी ने इस बात पर जोर दिया कि न्यायाधीशों की जिम्मेदारियाँ भी तय होनी चाहिये और न्यायिक व्यवस्था में ऐसा सिस्टम निर्माण होना चाहिये जिससे भ्रष्टाचार में कमी हो। (यहाँ देखें…)
हाल ही में श्री शांतिभूषण ने सर्वोच्च न्यायालय में एक शपथ-पत्र दायर करके यह दावा करके तहलका मचा दिया है कि "सुप्रीम कोर्ट के पिछले 16 मुख्य न्यायाधीशों में से आधे भ्रष्ट हैं…"। भूषण ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय की विश्वसनीयता कायम रखने के लिये यह जरुरी है कि इनकी विस्तृत जाँच हो। शांतिभूषण जी को "न्यायालय की अवमानना" के बारे में नोटिस दिया गया है, जिसके जवाब में उन्होंने एक और एफ़िडेविट दाखिल करके कहा है कि "उच्च पदों पर आसीन जजों के खिलाफ़ कागजी सबूत एकत्रित करना बेहद कठिन काम है, क्योंकि उनके खिलाफ़ पुलिस जाँच की इजाज़त नहीं है, यहाँ तक कि उनके खिलाफ़ पुलिस में FIR दर्ज करने के लिये भी पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से पूर्व-अनुमति लेना पड़ती है, ऐसे में कोई व्यक्ति सबूत कैसे लाये…"। शान्तिभूषण ने लिखित में कहा है कि 16 में से 8 जजों का आचरण, उनके द्वारा दिये गये निर्णय और उनके परिजनों की सम्पत्ति को सरसरी तौर पर देखा जाये तो निश्चित रुप से जाँच का प्राथमिक मामला तो बनता ही है, और "…यदि फ़िर भी यदि मुझे "न्यायालय की अवमानना" का दोषी पाया जाये और जेल में डाल दिया जाये तब भी मुझे खुशी होगी कि कम से कम मैंने भारत की न्याय-व्यवस्था में शीर्ष पर सफ़ाई के लिये कोशिश तो की…"।
एक अन्य पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री वीआर कृष्णन अय्यर ने भी समर्थन में कहा है कि यह एक सुनहरा अवसर है जब हम सर्वोच्च स्तर पर फ़ैले भ्रष्टाचार और कदाचार को खत्म कर सकते हैं। इसमें सबसे पहला कदम यह होना चाहिये कि जनहित में सभी सूचनाएं सार्वजनिक की जायें, शक-शुबहा की ज़रा सी भी गुंजाइश हो तो उसे जनता के बीच जानकारी के रुप में प्रसारित किया जाये, शायद तब सरकार और मुख्य न्यायाधीश पर जनदबाव बने कि वे इन मामलों की जाँच के आदेश जारी करें…
अतः आम जनता के हित में शान्तिभूषण और प्रशान्त भूषण के शपथ-पत्र में उल्लिखित कुछ जजों के नाम एवं उनकी गतिविधियों के बारे में जानकारी यहाँ भी दी जा रही है…
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र को 1984 के सिख दंगों की जाँच आयोग में रखा गया था। कांग्रेस के कई प्रमुख नेताओं के इन दंगों और सिखों की हत्या में शामिल होने के पक्के सबूत होने के बावजूद उन्होंने कईयों को लगातार "क्लीन चिट" दी। 1984 के सिख कत्लेआम की जाँच पूरी होने के बाद उन्हें कांग्रेस की तरफ़ से राज्यसभा की सीट तोहफ़े में दी गई। जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार और HKL भगत वे बचा न सके, क्योंकि इन लोगों के खिलाफ़ कुछ ज्यादा ही मजबूत सबूत और न बिक सकने वाले, न दबने वाले गवाह थे। सीबीआई द्वारा की गई जाँच में भी दिल्ली के कई कांग्रेसी नेताओं के इन दंगों में लिप्त होने के सबूत मिले, लेकिन उन्हें भी सफ़ाई से दबा दिया गया। रिटायरमेण्ट के तुरन्त बाद कांग्रेस की तरफ़ से राज्यसभा सीट स्वीकार करना भी भ्रष्टाचार और अनैतिकता की श्रेणी में ही आता है। (ठीक उसी प्रकार जैसे एमएस गिल द्वारा चुनाव आयुक्त पद से रिटायर होते ही तड़ से राज्यसभा में और फ़िर खेल मंत्रालय में… ऐसा क्या "विशेष काम" किया था गिल साहब ने?)
सिर्फ़ 18 दिन (जी हाँ, सिर्फ़ 18 दिन) के लिये सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनने वाले केएन सिंह ने इतने कम समय में भी अपने गुल खिला दिये थे। रंगनाथ मिश्रा के नक्शेकदम पर चलते हुए इन्होंने तत्कालीन "जैन एक्सपोर्ट" और "जैन शुद्ध वनस्पति" नामक कम्पनी के पक्ष में धड़ाधड़-धड़ाधड़ फ़ैसले सुनाना शुरु कर दिया। ये साहब इतने "बड़े-वाले" निकले कि किसी दूसरे न्यायाधीश की बेंच पर सुनवाई हो रहे जैन वनस्पति मामले को जबरन सुप्रीम कोर्ट घसीट लाये और आदेश पारित कर दिये। अप्रैल 1991 और सिरम्बर 1991 में जस्टिस केएन सिंह ने जैन एक्सपोर्ट्स द्वारा कॉस्टिक सोडा के आयात मामले में दो फ़ैसले कम्पनी के पक्ष में दिये। 28 नवम्बर 1991 को जस्टिस सिंह ने केन्द्र सरकार बनाम जैन वनस्पति केस में सरकार के दावे को भी खारिज कर दिया। हालांकि इस निर्णय को बाद में 16 जुलाई 1993 को जस्टिस जेएस वर्मा और पीबी सावन्त की बेंच ने उलट दिया था, लेकिन सिंह साहब को जो "खेल" इस बीच करना था वे कर चुके थे। उन दिनों जैन वनस्पति एण्ड एक्सपोर्ट्स के पक्ष में ताबड़तोड़ दिये गये फ़ैसले चर्चा का विषय थे, परन्तु उंगली कौन उठाये? "न्यायालय की अवमानना" की ढाल जो मौजूद थी, "माननीय" के पास!!!
जस्टिस अहमदी ने जस्टिस वेंकटाचलैया से अपना कार्यभार ग्रहण किया था। भोपाल गैस काण्ड के मामले में अहमदी के दिये हुए फ़ैसले आज भी चर्चा का विषय बने हुए हैं। गैस लीक मामले में आपराधिक धाराओं को कमजोर करने और अभियुक्तों को बरी करने में अहमदी साहब ने बड़ी तत्परता दिखाई थी। भोपाल गैस त्रासदी की लम्बी सुनवाई के दौरान कुल 7 (सात) बार जजों की बेंच बदली, लेकिन आश्चर्यजनक रुप से हर बार प्रत्येक बेंच में जस्टिस अहमदी जरुर शामिल रहे (क्या गजब का संयोग है)। अहमदी साहब ने यूनियन कार्बाइड के साथ सरकार की डील को भी आसान बनाया, इसी प्रकार यूनियन कार्बाइड को "भोपाल मेमोरियल अस्पताल" बनाने के लिये 187 करोड़ रुपये भी रिलीज़ करवाये। रिटायरमेण्ट के तत्काल बाद अहमदी साहब, भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट अस्पताल के "लाइफ़टाइम चेयरमैन" नियुक्त हो गये, यानी उसी कम्पनी के उसी अस्पताल में जिसकी सुनवाई उन्होंने चीफ़ जस्टिस रहते अपने कार्यकाल में बरसों तक की… (गजब का संयोग है, है ना?)
अहमदी साहब की दास्तान यहीं खत्म नहीं होती… एक कारनामा और है जिसकी तरफ़ प्रशान्त भूषण जी ने अपने एफ़िडेविट में इशारा किया है। फ़रीदाबाद के बड़खल और सूरजकुण्ड झीलों के आसपास पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज से मुख्य न्यायाधीश कुलदीप सिंह की खण्डपीठ ने 10 मई 1996 को झील के आसपास 5 किमी परिधि में सभी प्रकार के निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश के बाद झील के आसपास चल रहे "कान्त एन्कलेव" नामक बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कम्पनी के सभी निर्माण कार्य रोक दिये गये, क्योंकि सूरजकुण्ड झील के पास की भूमि पंजाब लैण्ड एक्ट के तहत वन्य क्षेत्र घोषित कर दी गई थी। अब सोचिये, यह तो हो नहीं सकता कि न्यायिक क्षेत्र में इतने उच्च पद पर बैठे व्यक्ति को यह बात मालूम न हो, उन्हीं के एक सहयोगी द्वारा पर्यावरण चिंताओं के मद्देनज़र लगाये गये प्रतिबन्ध के बावजूद अहमदी साहब ने मुख्य न्यायाधीश रहते यहाँ प्लॉट खरीदे, न सिर्फ़ खरीदे, बल्कि उन पर अपने रहने के लिये मकान भी बना लिया। जैसे ही कुलदीप सिंह साहब रिटायर हुए और ये मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर काबिज हुए, इन्होंने सबसे पहले बड़खल/सूरजकुण्ड केस की पार्टी कान्त एनक्लेव की पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार करते हुए निर्माण पर रोक के निर्णय की समीक्षा के लिये एक बेंच का गठन कर दिया। 11 अक्टूबर 1996 को झील के आसपास 5 किलोमीटर परिधि में निर्माण पर प्रतिबन्ध की सीमा को घटाकर 1 किमी कर दिया गया (अंदाज़ा लगाईये कि 4 किमी की परिधि की अरबों-खरबों की ज़मीन में ठेकेदारों का कितना फ़ायदा हुआ होगा), अहमदी साहब यहीं नहीं रुके… 17 माच 1997 को कान्त एनक्लेव की एक और याचिका पर उन्होंने झील के इस क्षेत्र में निर्माण कार्य करने से पहले प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की मंजूरी लेने का प्रावधान भी खत्म कर दिया।
कुल मिलाकर साफ़ तथ्य यह है कि जस्टिस अहमदी का कान्त एनक्लेव में बना हुआ बंगला पूरी तरह से अवैध, पर्यावरण मानकों के खिलाफ़ और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन था… (आज तक, कान्त एनक्लेव कंसट्रक्शन कम्पनी और यूनियन कार्बाइड से अहमदी के विशेष प्रेम का खुलासा नहीं हो सका है)।
जस्टिस एमएम पुंछी का कार्यकाल भी सिर्फ़ दस महीने ही रहा। जस्टिस पुंछी के खिलाफ़ न्यायिक जवाबदेही समिति द्वारा महाभियोग चलाने के लिये प्रस्ताव तैयार किया गया था, लेकिन इस पर राज्यसभा के सिर्फ़ 25 सदस्यों के ही हस्ताक्षर हो सके, और संख्या कम होने की वजह से इन महोदय पर महाभियोग नहीं चलाया जा सका। महाभियोग चलाने की नौबत क्यों आई यह निम्न गम्भीर आरोपों से जाना जा सकता है-
अ) मुम्बई के एक व्यापारी केएन तापड़िया के धोखाधड़ी मामले में इन्होंने प्रावधान न होते हुए भी उसे जमानत दे दी, जबकि जिन धाराओं में केस लगा था उसमें तापड़िया को सम्बन्धित पार्टी से कोई सम्बन्ध या समझौता करने का अधिकार ही नहीं था।
ब) पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते पुंछी साहब ने भजनलाल के खिलाफ़ रोहतक विवि के कुलपति डॉ रामगोपाल की याचिका बगैर किसी कारण के खारिज कर दी। याचिका में भजनलाल की दोनों बेटियों मधु और प्रिया को सरकारी कोटे से गुड़गाँव में करोड़ों के प्लॉट आबंटित करने के खिलाफ़ सुनवाई का आग्रह किया गया था।
(डिस्क्लेमर - प्रस्तुत जानकारियाँ विभिन्न वेबसाईटों एवं प्रशान्त भूषण/शान्ति भूषण जी के एफ़िडेविट पर आधारित हैं, यदि इनसे किसी भी "माननीय" न्यायालय की अवमानना होती हो, तो "आधिकारिक आपत्ति" दर्ज करवायें… सामग्री हटा ली जायेगी…)
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लोकतन्त्र की इसी विडम्बना को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट के ही वरिष्ठ वकील श्री प्रशान्त भूषण ने इसके खिलाफ़ 20 साल तक लगातार लड़ाई लड़ी। इस विकट संघर्ष के चलते अन्ततः सितम्बर 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने जजों की सम्पत्ति की सार्वजनिक घोषणा करना अनिवार्य कर दिया, यह एक पहली बड़ी जीत थी। हालांकि इससे ऊपरी स्तर पर भ्रष्टाचार में कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ने वाला था, परन्तु फ़िर भी इसे "सफ़ाई" की दिशा में पहला कदम कहा जा सकता है। प्रशान्त भूषण जी ने इस बात पर जोर दिया कि न्यायाधीशों की जिम्मेदारियाँ भी तय होनी चाहिये और न्यायिक व्यवस्था में ऐसा सिस्टम निर्माण होना चाहिये जिससे भ्रष्टाचार में कमी हो। (यहाँ देखें…)
हाल ही में श्री शांतिभूषण ने सर्वोच्च न्यायालय में एक शपथ-पत्र दायर करके यह दावा करके तहलका मचा दिया है कि "सुप्रीम कोर्ट के पिछले 16 मुख्य न्यायाधीशों में से आधे भ्रष्ट हैं…"। भूषण ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय की विश्वसनीयता कायम रखने के लिये यह जरुरी है कि इनकी विस्तृत जाँच हो। शांतिभूषण जी को "न्यायालय की अवमानना" के बारे में नोटिस दिया गया है, जिसके जवाब में उन्होंने एक और एफ़िडेविट दाखिल करके कहा है कि "उच्च पदों पर आसीन जजों के खिलाफ़ कागजी सबूत एकत्रित करना बेहद कठिन काम है, क्योंकि उनके खिलाफ़ पुलिस जाँच की इजाज़त नहीं है, यहाँ तक कि उनके खिलाफ़ पुलिस में FIR दर्ज करने के लिये भी पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से पूर्व-अनुमति लेना पड़ती है, ऐसे में कोई व्यक्ति सबूत कैसे लाये…"। शान्तिभूषण ने लिखित में कहा है कि 16 में से 8 जजों का आचरण, उनके द्वारा दिये गये निर्णय और उनके परिजनों की सम्पत्ति को सरसरी तौर पर देखा जाये तो निश्चित रुप से जाँच का प्राथमिक मामला तो बनता ही है, और "…यदि फ़िर भी यदि मुझे "न्यायालय की अवमानना" का दोषी पाया जाये और जेल में डाल दिया जाये तब भी मुझे खुशी होगी कि कम से कम मैंने भारत की न्याय-व्यवस्था में शीर्ष पर सफ़ाई के लिये कोशिश तो की…"।
एक अन्य पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री वीआर कृष्णन अय्यर ने भी समर्थन में कहा है कि यह एक सुनहरा अवसर है जब हम सर्वोच्च स्तर पर फ़ैले भ्रष्टाचार और कदाचार को खत्म कर सकते हैं। इसमें सबसे पहला कदम यह होना चाहिये कि जनहित में सभी सूचनाएं सार्वजनिक की जायें, शक-शुबहा की ज़रा सी भी गुंजाइश हो तो उसे जनता के बीच जानकारी के रुप में प्रसारित किया जाये, शायद तब सरकार और मुख्य न्यायाधीश पर जनदबाव बने कि वे इन मामलों की जाँच के आदेश जारी करें…
अतः आम जनता के हित में शान्तिभूषण और प्रशान्त भूषण के शपथ-पत्र में उल्लिखित कुछ जजों के नाम एवं उनकी गतिविधियों के बारे में जानकारी यहाँ भी दी जा रही है…
1) जस्टिस रंगनाथ मिश्र (25.09.1990 - 24.11.1991)
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र को 1984 के सिख दंगों की जाँच आयोग में रखा गया था। कांग्रेस के कई प्रमुख नेताओं के इन दंगों और सिखों की हत्या में शामिल होने के पक्के सबूत होने के बावजूद उन्होंने कईयों को लगातार "क्लीन चिट" दी। 1984 के सिख कत्लेआम की जाँच पूरी होने के बाद उन्हें कांग्रेस की तरफ़ से राज्यसभा की सीट तोहफ़े में दी गई। जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार और HKL भगत वे बचा न सके, क्योंकि इन लोगों के खिलाफ़ कुछ ज्यादा ही मजबूत सबूत और न बिक सकने वाले, न दबने वाले गवाह थे। सीबीआई द्वारा की गई जाँच में भी दिल्ली के कई कांग्रेसी नेताओं के इन दंगों में लिप्त होने के सबूत मिले, लेकिन उन्हें भी सफ़ाई से दबा दिया गया। रिटायरमेण्ट के तुरन्त बाद कांग्रेस की तरफ़ से राज्यसभा सीट स्वीकार करना भी भ्रष्टाचार और अनैतिकता की श्रेणी में ही आता है। (ठीक उसी प्रकार जैसे एमएस गिल द्वारा चुनाव आयुक्त पद से रिटायर होते ही तड़ से राज्यसभा में और फ़िर खेल मंत्रालय में… ऐसा क्या "विशेष काम" किया था गिल साहब ने?)
2) जस्टिस के एन सिंह (25.11.1991 - 12.12.1991)
3) जस्टिस एएम अहमदी (25.10.1994 - 24.03.1997)
जस्टिस अहमदी ने जस्टिस वेंकटाचलैया से अपना कार्यभार ग्रहण किया था। भोपाल गैस काण्ड के मामले में अहमदी के दिये हुए फ़ैसले आज भी चर्चा का विषय बने हुए हैं। गैस लीक मामले में आपराधिक धाराओं को कमजोर करने और अभियुक्तों को बरी करने में अहमदी साहब ने बड़ी तत्परता दिखाई थी। भोपाल गैस त्रासदी की लम्बी सुनवाई के दौरान कुल 7 (सात) बार जजों की बेंच बदली, लेकिन आश्चर्यजनक रुप से हर बार प्रत्येक बेंच में जस्टिस अहमदी जरुर शामिल रहे (क्या गजब का संयोग है)। अहमदी साहब ने यूनियन कार्बाइड के साथ सरकार की डील को भी आसान बनाया, इसी प्रकार यूनियन कार्बाइड को "भोपाल मेमोरियल अस्पताल" बनाने के लिये 187 करोड़ रुपये भी रिलीज़ करवाये। रिटायरमेण्ट के तत्काल बाद अहमदी साहब, भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट अस्पताल के "लाइफ़टाइम चेयरमैन" नियुक्त हो गये, यानी उसी कम्पनी के उसी अस्पताल में जिसकी सुनवाई उन्होंने चीफ़ जस्टिस रहते अपने कार्यकाल में बरसों तक की… (गजब का संयोग है, है ना?)
अहमदी साहब की दास्तान यहीं खत्म नहीं होती… एक कारनामा और है जिसकी तरफ़ प्रशान्त भूषण जी ने अपने एफ़िडेविट में इशारा किया है। फ़रीदाबाद के बड़खल और सूरजकुण्ड झीलों के आसपास पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज से मुख्य न्यायाधीश कुलदीप सिंह की खण्डपीठ ने 10 मई 1996 को झील के आसपास 5 किमी परिधि में सभी प्रकार के निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश के बाद झील के आसपास चल रहे "कान्त एन्कलेव" नामक बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कम्पनी के सभी निर्माण कार्य रोक दिये गये, क्योंकि सूरजकुण्ड झील के पास की भूमि पंजाब लैण्ड एक्ट के तहत वन्य क्षेत्र घोषित कर दी गई थी। अब सोचिये, यह तो हो नहीं सकता कि न्यायिक क्षेत्र में इतने उच्च पद पर बैठे व्यक्ति को यह बात मालूम न हो, उन्हीं के एक सहयोगी द्वारा पर्यावरण चिंताओं के मद्देनज़र लगाये गये प्रतिबन्ध के बावजूद अहमदी साहब ने मुख्य न्यायाधीश रहते यहाँ प्लॉट खरीदे, न सिर्फ़ खरीदे, बल्कि उन पर अपने रहने के लिये मकान भी बना लिया। जैसे ही कुलदीप सिंह साहब रिटायर हुए और ये मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर काबिज हुए, इन्होंने सबसे पहले बड़खल/सूरजकुण्ड केस की पार्टी कान्त एनक्लेव की पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार करते हुए निर्माण पर रोक के निर्णय की समीक्षा के लिये एक बेंच का गठन कर दिया। 11 अक्टूबर 1996 को झील के आसपास 5 किलोमीटर परिधि में निर्माण पर प्रतिबन्ध की सीमा को घटाकर 1 किमी कर दिया गया (अंदाज़ा लगाईये कि 4 किमी की परिधि की अरबों-खरबों की ज़मीन में ठेकेदारों का कितना फ़ायदा हुआ होगा), अहमदी साहब यहीं नहीं रुके… 17 माच 1997 को कान्त एनक्लेव की एक और याचिका पर उन्होंने झील के इस क्षेत्र में निर्माण कार्य करने से पहले प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की मंजूरी लेने का प्रावधान भी खत्म कर दिया।
कुल मिलाकर साफ़ तथ्य यह है कि जस्टिस अहमदी का कान्त एनक्लेव में बना हुआ बंगला पूरी तरह से अवैध, पर्यावरण मानकों के खिलाफ़ और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन था… (आज तक, कान्त एनक्लेव कंसट्रक्शन कम्पनी और यूनियन कार्बाइड से अहमदी के विशेष प्रेम का खुलासा नहीं हो सका है)।
4) जस्टिस एमएम पुंछी (18.01.1998 - 09.10.1998)
जस्टिस एमएम पुंछी का कार्यकाल भी सिर्फ़ दस महीने ही रहा। जस्टिस पुंछी के खिलाफ़ न्यायिक जवाबदेही समिति द्वारा महाभियोग चलाने के लिये प्रस्ताव तैयार किया गया था, लेकिन इस पर राज्यसभा के सिर्फ़ 25 सदस्यों के ही हस्ताक्षर हो सके, और संख्या कम होने की वजह से इन महोदय पर महाभियोग नहीं चलाया जा सका। महाभियोग चलाने की नौबत क्यों आई यह निम्न गम्भीर आरोपों से जाना जा सकता है-
अ) मुम्बई के एक व्यापारी केएन तापड़िया के धोखाधड़ी मामले में इन्होंने प्रावधान न होते हुए भी उसे जमानत दे दी, जबकि जिन धाराओं में केस लगा था उसमें तापड़िया को सम्बन्धित पार्टी से कोई सम्बन्ध या समझौता करने का अधिकार ही नहीं था।
ब) पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते पुंछी साहब ने भजनलाल के खिलाफ़ रोहतक विवि के कुलपति डॉ रामगोपाल की याचिका बगैर किसी कारण के खारिज कर दी। याचिका में भजनलाल की दोनों बेटियों मधु और प्रिया को सरकारी कोटे से गुड़गाँव में करोड़ों के प्लॉट आबंटित करने के खिलाफ़ सुनवाई का आग्रह किया गया था।
भाग-2 में जारी रहेगा…
आम जनता की जानकारी हेतु जनहित में प्रस्तुत किया गया -
(डिस्क्लेमर - प्रस्तुत जानकारियाँ विभिन्न वेबसाईटों एवं प्रशान्त भूषण/शान्ति भूषण जी के एफ़िडेविट पर आधारित हैं, यदि इनसे किसी भी "माननीय" न्यायालय की अवमानना होती हो, तो "आधिकारिक आपत्ति" दर्ज करवायें… सामग्री हटा ली जायेगी…)
Corruption in Indian Judiciary System, Corrupt Judges in India, Corruption as Social Evil, Prashant Bhushan and Shanti Bhushan Advocate, Supreme Court of India, High Court Judges after Retirement, AM Ahmadi and Bhopal Gas Tragedy, Justice Sabbharwal and Sealing Act Delhi, Justice AS Anand, IAS, IPS, IFS and Judiciary Service in India, भारत की न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार, भ्रष्ट न्यायाधीश, भ्रष्टाचार एक सामाजिक बुराई, प्रशांत भूषण, शांतिभूषण, उच्चतम न्यायालय, सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया, जस्टिस एएम अहमदी और भोपाल गैस काण्ड, जस्टिस सभरवाल और सीलिंग एक्ट दिल्ली, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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