अब तो यह बात सभी जान गये हैं कि भारत के खिलाड़ी “भारत” के लिये नहीं खेलते हैं, भारतीय(?) खिलाड़ी एक निजी सोसायटी के कर्मचारी हैं, जो कि तमिलनाडु सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत पंजीकृत सोसायटी है। बीसीसीआई, जो अपने-आपको “क्रिकेट का खुदा” समझती है, असल में एक “लिमिटेड कम्पनी” है, जो कि ब्रिटिश वर्जिन द्वीप मे पंजीकृत एक संस्था जिसे आईसीसी कहा जाता है से सम्बद्ध है, और जिसे भारत सरकार ने देश में क्रिकेट मैच आयोजित करने की अनुमति दे रखी है, मतलब साफ़ है कि विश्व कप में शर्मनाक रूप से हार रही या पाकिस्तान को “मरने-मारने वाले खेल”(?) में हराने वाले खिलाड़ी सिर्फ़ भारत के “कहे जा सकते हैं” (हैं या नहीं यह आप तय करें), हकीकत में इनका देश के क्रिकेट ढाँचे से कोई लेना-देना नहीं होता है। ये खिलाड़ी इस “लिमिटेड कम्पनी” से पैसा पाते हैं और उसके लिये खेलते हैं। जैसे ही “आईसीएल” की घोषणा हुई और जब “प्रतिस्पर्धा” का खतरा मंडराने लगा, बीसीसीआई की कुम्भकर्णी नींद खुली और ताबड़तोड़ कई जवाबी घोषणायें की गईं और एक और पैसा कमाने की जुगाड़ “आईपीएल” के गठन और आयोजन की तैयारी होने लगी है। हालांकि यह विषयांतर हो गया है, जबकि मेरा असल मुद्दा है कि क्रिकेट खेल को इन महानुभावों ने अब तक क्या “नया” दिया है?
जिस जमाने में टेस्ट मैच लगभग निर्जीव हो चले थे, इंग्लैंड में साठ-साठ ओवरों वाले एक-दिवसीय मैच का प्रयोग किया गया, प्रयोग सफ़ल रहा, आगे चलकर वह पचास-पचास ओवरों का हुआ, उसके शुरुआती तीन विश्व कप इंग्लैंड में आयोजित हुए। ऑस्ट्रेलियन मीडिया मुगल कैरी पैकर ने क्रिकेट में रंगीन कपड़े, सफ़ेद गेंदें, काली साईट स्क्रीन, विज्ञापन, टीवी कवरेज आदि का आविष्कार किया। यहाँ तक कि इसी खेल में हमारे पड़ोसी श्रीलंका ने जयसूर्या-कालूवितरणा की सात-आठ नम्बर पर खेलने वाले खिलाड़ियों से ओपनिंग करवा कर सबको चौंका दिया और एक नई परम्परा का चलन प्रारम्भ किया, जिसमें पहले पन्द्रह ओवरों में एक सौ बीस रन तक बनने लगे। उससे पहले न्यूजीलैंड के मार्टिन क्रोव ने एक स्पिनर दीपक पटेल से मैच का पहला ओवर फ़िंकवा कर एक विशेष बात पैदा करने की कोशिश की और कुछ हद तक सफ़ल भी रहे। ऑस्ट्रेलिया ने सबसे पहले दो विभिन्न टीमों (एक दिवसीय और टेस्ट की अलग-अलग) का प्रयोग किया, जिसे आज लगभग सभी टीमें अपना चुकी हैं। और पहले की बात करें, तो वेस्टइंडीज के कप्तान क्लाईव लॉयड ने अपनी अपमानजनक हार का बदला लेने के लिये स्पिन को पूरी तरह से दरकिनार करके पाँच तेज गेंदबाजों की फ़ौज खड़ी की, जिसने ऑस्ट्रेलिया को भी हिलाकर रख दिया था और लगभग एक दशक तक तेज गेंदबाजों ने विश्व क्रिकेट पर राज किया...और पीछे जायें तो इंग्लैंड के कप्तान डगलस जार्डिन ने डॉन ब्रेडमैन को रोकने के लिये लारवुड-ट्रूमैन से “बॉडीलाइन” गेंदबाजी करवाई थी, जिसकी आलोचना भी हुई, लेकिन था तो वह एक “नवोन्मेषी” विचार ही। कुछ “अलग”, “हटकर” करने की इस परम्परा में पाकिस्तान ने भी वकार-वसीम की मदद से “रिवर्स स्विंग” ईजाद किया, पहले सभी ने इसकी आलोचना की, लेकिन आज सभी सीम गेंदबाज एक तरफ़ से गेंद पर थूक लगा-लगाकर उसे असमान भारी बनाकर रिवर्स स्विंग का फ़ायदा उठाते हैं, इसे पाकिस्तान की देन कहा जा सकता है।
यदि खेल में वैज्ञानिकता, तकनीक और उपकरणों की बात की जाये तो यहाँ भी भारत का योगदान लगभग शून्य ही नजर आता है। “हॉक-आई” तकनीक जिसमें गेंद की सारी “मूवमेंट” का बारीकी से अध्ययन किया जा सकता है का आविष्कार “सीमेंस” के वैज्ञानिकों ने इंग्लैंड में किया, “स्पिन विजन”, “स्निकोमीटर”, “सुपर स्लो-मोशन” सारी तकनीकें पश्चिमी देशों से आईं, वूल्मर की लैपटॉप तकनीक हो या जोंटी रोड्स की अद्भुत फ़ील्डिंग तकनीक, हर मामले में भारतीयों को उनकी नकल करने पर ही निर्भर रहना पड़ता है। ऐसा क्यों? क्या भारत में पैसा नहीं है, या वैज्ञानिक नहीं हैं या सॉफ़्टवेयर इंजीनियर नहीं हैं? या बोर्ड के पास धन की कमी है? सब कुछ है, बस कमी है इच्छाशक्ति की और कुछ नया कर दिखाने में अलाली की।
ऑस्ट्रेलिया में घरेलू क्रिकेट की योजना बनाने, उसे प्रायोजक दिलवाने के लिये बाकायदा खिलाड़ियों की एक समिति है, जबकि यहाँ रणजी टीमों को ही प्रायोजक नहीं मिल पाते हैं। एक बार तो मुम्बई टीम को नाश्ते में अंडे सिर्फ़ इसलिये मिल सके थे, कि तेंडुलकर उस टीम में खेल रहे थे, वरना पहले तो सिर्फ़ चाय-बिस्किट पर ही रणजी मैच निपटा दिये जाते थे। आईसीएल के आने के बाद स्थिति बदली है और खिलाड़ियों का भत्ता बढ़ाया गया है, लेकिन सुविधाओं के नाम पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। भारत में स्टेडियम में जाकर मैच देखना एक त्रासदी से कम नहीं होता। जगह-जगह सुरक्षा जाँच के नाम पर बदतमीजी, स्टेडियम में पीने के पानी, टॉयलेट की असुविधायें, धूप की परेशानी, अस्सी प्रतिशत स्टेडियमों में बड़ी स्क्रीन ना होना आदि कई समस्यायें हैं। जबकि बोर्ड के पास इतना धन है कि वह सारे स्टेडियमों में मुलायम कृत्रिम घास बिछवा सकता है, लेकिन बोर्ड सुविधायें देता है पेवेलियन में बैठे नेताओं, अफ़सरों, उनके मुफ़्तखोर (पास-जुगाड़ू) चमचों और लगुए-भगुओं को जिन्हें अधिकतर समय खेल से कोई लेना-देना नहीं होता, बस “झाँकी” जमाने से वास्ता होता है। जबकि आम जनता जो वाकई क्रिकेटप्रेमी है, वह कष्ट भोगते हुए मैच देखती है। जिस खेल और जनता के बल पर बोर्ड आज अरबों में खेल रहा है, उस बोर्ड के अदना से अधिकारी भी पाँच सितारा होटल में ही ठहरते हैं, दो कौड़ी के राजनेता, जो क्षेत्रीय क्रिकेट बोर्डों में कब्जा जमाये बैठे रहते हैं, भी टीम मैनेजर बनकर घूमने-फ़िरने की फ़िराक में रहते हैं, लेकिन खेल को कुछ नया देने के नाम पर शून्य।
हाँ... एक बात है, क्रिकेट को भारत और पाकिस्तान (जो कम से कम इस मामले में उसका छोटा भाई शोभा देता है) ने दिया है, अकूत धन-सम्पदा, माफ़िया, सट्टेबाजी, मैच फ़िक्सिंग, राजनेता-अधिकारी का अनैतिक गठजोड़, चरण चूमते क्षेत्रीय बोर्ड के “सी” ग्रेड के खिलाड़ी, और कुल नतीजे के रूप में बॉब वूल्मर की हत्या। यह योगदान है भारत-पाक क्रिकेट बोर्ड का। इस सबमें दोषी वह सट्टेबाज और मूर्ख जनता भी है, जो “हीरो” को पूजती है, फ़िर उसी हीरो को टीवी पर आने के लिये कभी घटिया सा यज्ञ करवाती है, कभी उसी को जुतियाने के लिये कैमरा बुलवाकर तस्वीर पर चप्पलों की माला पहनाती है।
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आज 20-20 ओवर के विश्व-कप का यह नया रूप लोगों को लुभा रहा है, यह आकर्षक है, तेज गति वाला है, जोशीला है, युवाओं के लिये है, और निश्चित ही आने वाला समय इसी तरह के क्रिकेट का है। क्रिकेट को यदि विश्वव्यापी बनाना है तो इस “फ़ॉर्मेट” को ही आगे बढ़ाना होगा और इसी में कुछ नये-नये प्रयोग करने होंगे। इस जोरदार हंगामे और नवीन आविष्कार ने पुनः यह प्रश्न खड़ा किया है कि भारत नाम के देश, जहाँ क्रिकेट को लगभग एक धर्म समझा जाता है, खिलाड़ियों को पल में देवता और पल में शैतान निरूपित किया जाता है, क्रिकेट का उन्माद है, पागलपन है, अथाह पैसा है, करोड़ों टीवी दर्शक हैं, गरज कि काफ़ी कुछ है, लेकिन इस “भारत” ने क्रिकेट के खेल में क्या नया योगदान दिया है? क्या भारतीय क्रिकेट के कर्ताधर्ताओं ने यहाँ के महान क्रिकेट खिलाड़ियों ने आज तक इस खेल में कोई नया आविष्कार करके बताया है? कोई नवीन विचार लाकर दुनिया को चौंकाया है? या हम लोग सिर्फ़ “पिछलग्गू” हैं?