राहुल गाँधी और काँग्रेस की अंदरूनी राजनीति

Written by शुक्रवार, 28 अगस्त 2015 13:50

सत्ता की भनक सूँघने में कांग्रेसियों से ज्यादा माहिर कोई नहीं होता, इसलिए आज यदि कई कांग्रेसियों को लग रहा है कि राहुल गाँधी उन्हें सत्ता दिलवाने में नाकाम हो रहे हैं तो षड्यंत्र और गहराएँगे. काँग्रेस पार्टी और खासकर राहुल गाँधी को सबसे पहले “अपने घर” पर ध्यान देना चाहिए. एकाध बार तो ठीक है, परन्तु हमेशा खामख्वाह दाढ़ी बढ़ाकर प्रेस कांफ्रेंस में एंग्री यंगमैन की भूमिका उनके लिए घातक सिद्ध हो रही है. 

सामान्यतः किसी राज्य के नगर निगम चुनावों पर देश में किसी का ध्यान नहीं जाता. आए दिन कई राज्यों में इस प्रकार के नगरीय निकाय चुनाव आते-जाते रहते हैं. लेकिन हाल ही में मध्यप्रदेश में सम्पन्न हुए नगरीय निकाय चुनावों (MP Nigam Elections) को सभी प्रमुख राजनैतिक विश्लेषकों एवं राजनैतिक पार्टियों ने बड़े ध्यान से देखा, यहाँ तक कि भाजपा ने भी. इन मामूली निकाय चुनाव परिणामों को ध्यान से देखने की वजह थी, “व्यापमं” (Vyapam) नामक भर्ती घोटाला. चूँकि संसद के मानसून सत्र में काँग्रेस ने जिन दो प्रमुख मुद्दों पर संसद को ठप करके रखा, कोई काम नहीं होने दिया, उसमें से व्यापमं घोटाला भी एक था. व्यापमं घोटाले और ललित मोदी मामले को लेकर काँग्रेस ने संसद के मानसून सत्र में जमकर हंगामा किया. देश के राजनैतिक विश्लेषक यह समझने को उत्सुक थे कि क्या व्यापमं घोटाले का जैसा भयावह स्वरूप पेश किया जा रहा था, उससे मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह की राजनैतिक पकड़ ढीली होती है या नहीं? जिस घोटाले को लेकर देश भर में जबरदस्त नकारात्मक प्रचार चला, उस घोटाले से सर्वाधिक प्रभावित उसके गृहप्रदेश में भाजपा की क्या स्थिति है, यह समझने के लिए कई लोग बेचैन थे. मध्यप्रदेश के इन नगरीय निकाय चुनावों ने कई विश्लेषकों को हैरान कर दिया, चंद राजनैतिक पार्टियों के सारे अनुमान गड़बड़ा दिए. हालिया जीत के बाद मध्यप्रदेश के सभी 16 नगर निगमों एवं अधिकाँश नगरपालिकाओं सहित जनपद एवं जिला पंचायतों पर भी भाजपा निर्णायक रूप से काबिज हो चुकी है. मप्र काँग्रेस में आपसी गुटबाजी और सिर-फुटव्वल इतनी ज्यादा है कि मप्र अब काँग्रेस मुक्त होने की कगार पर आ चुका है.

यहाँ मध्यप्रदेश में यह हुआ, और उधर संसद में सत्र समापन से दो दिन पहले चहुँओर आलोचना से घिरी काँग्रेस ने उसकी “रणनीति” (जिस पर प्रश्नचिन्ह है) के तहत संसद में निलंबन के बाद वापस लौटने के बावजूद 25 सांसदों के शोरशराबे के बीच विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जिस जोश एवं तथ्यों के साथ ललित मोदी काण्ड पर अपना पक्ष रखा, उससे सोनिया गाँधी हक्की-बक्की रह गईं. सुषमा स्वराज ने जिस हमलावर अंदाज़ में राहुल गाँधी एवं काँग्रेस सहित समूचे गाँधी परिवार के इतिहास की बखिया उधेड़ी, वह न सिर्फ लाजवाब था, बल्कि सुषमा स्वराज के स्वभाव को देखते हुए राजनैतिक विश्लेषकों के लिए हैरानी भरा भी था. वास्तव में सुषमा स्वराज (Sushma Swaraj) राहुल गाँधी द्वारा संसद के बाहर दिए गए उस बयान से बुरी तरह आहत थीं, जिसमें राहुल ने कहा था कि “ललित मोदी (Lalit Modi) को मदद करने के लिए सुषमा के खाते में कितना पैसा मिला?”. देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी के उपाध्यक्ष द्वारा इस प्रकार के राजनैतिक अपरिपक्व और बचकाने बयान के बाद तो सुषमा स्वराज का भड़कना स्वाभाविक ही था. “Attack is the best Defence” सिद्धांत के तहत संसद में जिस प्रकार आदिल शहरयार से लेकर वॉरेन एण्डरसन तथा क्वात्रोच्ची के भारत से निकलने, उन्हें सुरक्षित भागने और भारत सहित विदेशों में उनकी कानूनी मदद करने के जो तथ्यात्मक इल्ज़ाम सुषमा स्वराज ने लगाए, उसका कोई जवाब सोनिया-राहुल अथवा काँग्रेस पार्टी के प्रवक्ताओं के पास नहीं था. संसद और संसद के बाहर तमाम काँग्रेसी बगलें झाँकते नज़र आए...

ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर काँग्रेस पार्टी को क्या हो गया है? ऐसी “आत्मघाती गोल” टाईप की राजनीति वह क्यों कर रही है? क्या काँग्रेस में अच्छे वक्ताओं की कमी हो गई है, या रणनीतिक चतुराई और संसदीय मर्यादाओं में कमी आ गई है? विश्लेषक सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि आखिर काँग्रेस इस प्रकार की नकारात्मक राजनीति पर क्यों उतर आई है? क्या वह पिछले एक-सवा वर्ष में भी अपनी ऐतिहासिक हार को पचा नहीं पा रही या काँग्रेस में कोई ऐसा गुट है जो चाहता हो कि सोनिया गाँधी की अस्वस्थता को देखते हुए, अभी से राह में काँटे बिछाते हुए भविष्य में राहुल गाँधी को किनारे कर दिया जाए? क्या काँग्रेस में राजनैतिक सलाहकारों का स्थान पूर्ण रूप से चाटुकारों ने ले लिया है?

पिछले एक वर्ष से लगातार काँग्रेस इस बात की कोशिश कर रही है कि किसी भी तरह मोदी सरकार को घेरा जाए, उसे फँसाया जाए अथवा कम से कम एक-दो मंत्रियों अथवा मुख्यमंत्रियों के इस्तीफे तो ले ही लिए जाएँ, ताकि नरेंद्र मोदी की साफ़ छवि में एक-दो दाग लगाए जा सकें. काँग्रेस की रणनीति यह भी है कि इस सरकार को काम ही न करने दिया जाए. राज्यसभा में बहुमत के कारण काँग्रेस और विपक्ष इस स्थिति में हैं कि वे जब चाहें किसी भी महत्त्वपूर्ण बिल को पास होने से रोक सकते हैं. संसद में यही किया जा रहा है, ताकि सरकार के कामकाज की गति बाधित हो, विदेशी निवेश थमे और आवश्यक प्रोजेक्ट्स में देरी के कारण जनता के बीच मोदी सरकार की अकर्मण्यता को लेकर भ्रम पैदा किया जा सके. परन्तु सवाल यह है कि क्या ऐसी राजनीति करके काँग्रेस खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मार रही? जनता के मन में यह सन्देश जा रहा है कि जो क़ानून खुद काँग्रेस लेकर आई थी, जिन कानूनों को पास करवाने के लिए काँग्रेस ने लगभग सभी तैयारियाँ कर ली थीं अचानक उन कानूनों पर काँग्रेस ने “यू-टर्न” क्यों मार दिया? भाजपा ने भी ऐसा किया था, इसलिए हम भी करेंगे... भाजपा ने भी संसद बाधित की थी, इसलिए हम भी करेंगे... इस प्रकार की “बदले की राजनीति” काँग्रेस का स्वभाव नहीं है, ना ही होना चाहिए. जनता इतनी समझदार तो है कि वह समझ सकती है कि भाजपा ने जब संसद को ठप्प किया तब कॉमनवेल्थ, 2G, कोयला जैसे महाघोटाले हुए थे, उसके मुकाबले अब तक नरेंद्र मोदी की सरकार काफी साफसुथरा काम कर रही है. व्यापमं घोटाला एक राज्य विशेष तक सीमित है, जिसकी चर्चा मप्र विधानसभा में होना चाहिए. पहले भी मप्र हाईकोर्ट की निगरानी में विशेष जाँच दल (STF) अपनी जाँच कर रहा था... हालाँकि फिर भी लगातार होती जा रही मौतों के कारण CBI की जाँच मंजूर हो गई है और अब मामला उच्चतम न्यायालय की निगरानी में है. व्यापमं घोटाले की परतें जैसे-जैसे खुलेंगी वैसे-वैसे जनता समझती जाएगी कि यह मामला सिर्फ शिवराज सरकार तक सीमित नहीं है, 1993 से अर्जुन सिंह के जमाने से इस प्रकार की फर्जी नियुक्तियाँ होती आई हैं. सूत्र बताते हैं कि दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में भी राघौगढ-अशोकनगर-गुना से आने वाले व्यक्ति की नियुक्ति सिर्फ सिगरेट की डिब्बियों पर हाथ से लिखकर रातोंरात हो जाती थीं. शिवराज सिंह सरकार ने इस तमाम फर्जीवाड़े को बन्द किया, व्यापमं जैसा बोर्ड गठित किया और पिछले बारह वर्ष में हुईं लाखों नियुक्तियों और परीक्षाओं के मुकाबले सिर्फ 1500-2000 मामले ऐसे हैं जिन्हें संदिग्ध माना जा सकता है, ज़ाहिर है कि यह बहुत छोटा सा प्रतिशत है. सबसे बड़ी बात यह है कि यदि शिवराज सिंह इस घोटाले में शामिल होते, तो वे जाँच शुरू ही क्यों करते? न्यायालय का सहयोग ही क्यों करते? ऐसे घोटाले प्रत्येक राज्य में आज भी जारी हैं, परन्तु हंगामा सिर्फ मप्र के व्यापमं पर ही अधिक हुआ, क्योंकि इसमें मौतें हुईं और “काँग्रेस पोषित मीडिया” ने इसे जमकर हवा भी दी. चूँकि मप्र में काँग्रेस लगभग मरणासन्न अवस्था में है, इसलिए राज्य के इस मामले को लेकर काँग्रेस केन्द्र की राजनीति में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहे तो यह उसकी नासमझी ही कही जाएगी. इसीलिए “व्यापमं” की तथाकथित व्यापकता के बावजूद जब मप्र की जनता ने नगरीय निकायों में शिवराज पर अपना भरोसा जता दिया तो उधर दिल्ली में मानो एक “राजनैतिक सन्नाटा” छा गया. प्रतिदिन टीवी पर दिखाई देने वाले दिग्गी राजा अचानक अज्ञातवास में चले गए और सीबीआई की जाँच आरंभ होते ही, व्यापमं मामले में होने वाली मौतों का सिलसिला भी रहस्यमयी तरीके से थम गया. अर्थात कांग्रेस पार्टी का उद्देश्य किसी भी तरह बदनाम करके शिवराज का इस्तीफा हासिल करने का था, जिसमें वह विफल रही क्योंकि भाजपा ने “रुको और देखो” की रणनीति अपनाई.

आज की दिनाँक में गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, गोवा, महाराष्ट्र और पंजाब जैसे राज्यों में काँग्रेस को भाजपा ने लगभग धूल चटा रखी है. इसी प्रकार क्षेत्रीय दलों ने तमिलनाडु, आंधप्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में तथा आम आदमी पार्टी ने पंजाब और दिल्ली में काँग्रेस को लगभग अप्रासंगिक बना रखा है. इस स्थिति में सोनिया-राहुल को विपक्ष में बैठने का जो पाँच वर्ष का समय मिला है, उसका सदुपयोग पार्टी के ढाँचे में सुधार और संगठनात्मक मजबूती की तरफ नहीं देना चाहिए? विश्लेषक चाहे जो कहें, वे भी मानते हैं कि नरेंद्र मोदी का जादू अभी खत्म नहीं हुआ है. जनता में अभी यह विश्वास बना हुआ है कि पिछले साठ वर्ष की नाकामी और अव्यवस्थाओं को रातोंरात ठीक नहीं किया जा सकता. काँग्रेस और वामपंथी दलों से जो “प्रशासनिक और मानसिक विरासत” भारत को मिली है, उसे बदलने में काफी समय लगने वाला है. ऐसे में भूमि अधिग्रहण बिल अथवा GST बिल पर काँग्रेस की नकारात्मक राजनीति का और भी गलत सन्देश जा रहा है. 44 सीटों पर सिमटने के बावजूद ऐसा लगने लगा है कि काँग्रेस जल्दबाजी में है, जबकि अगले चार वर्ष तो मोदी सरकार रहेगी ही.

एक कहावत है कि सच्चा और घाघ काँग्रेसी सत्ता की भनक सबसे पहले पा जाता है. जो व्यक्ति, जो मुद्दा उसे सत्ता दिलाए वह बेहिचक सभी गुण-दोषों के साथ उसे स्वीकार कर लेता है. विभिन्न राज्यों में निराशाजनक प्रदर्शन और संसद में 44 सीटों पर सिमट जाने के बाद ऐसा माना जाता है कि काँग्रेस शासित राज्यों में राहुल गाँधी के नेतृत्त्व के विरोध में फुसफुसाहट शुरू हुई. हालाँकि अभी एक सामान्य काँग्रेसी गाँधी परिवार की आभा से मुक्त होने के बारे में सोच भी नहीं सकता, परन्तु जो पुराने और चतुर नेता हैं अथवा राजनीति में अपना करियर चमकाने को आतुर युवा नेता हैं उन्होंने राहुल गाँधी की अत्यधिक सीमित क्षमता को पहचान लिया है. इस आंतरिक खदबदाहट को सोनिया गाँधी के वफादारों ने उन तक पहुँचाया और राहुल गाँधी की जो तथाकथित आक्रामकता हम आज देख रहे हैं, यह उसी घबराहट का नतीजा है. यानी जो पार्टी अपनी विश्वसनीयता इतनी खो चुकी हो, उस पार्टी को तो गहराई से आत्ममंथन करना चाहिए, लेकिन वह नकली आक्रामकता दिखा रही है. संसद में बिल पास नहीं करने दे रही और अपनी छवि और गिराती जा रही है. निश्चित ही या तो यह एक बड़ी रणनीतिक चूक है या फिर चिदंबरम, एंटोनी, दिग्विजयसिंह जैसे कुछ और नेताओं द्वारा काँग्रेस में आंतरिक षड्यंत्र के तहत ऐसा हो रहा है.

इसी आत्म-घातक तथाकथित रणनीति के तहत काँग्रेस ने मानसून सत्र में GST बिल को पास नहीं होने दिया, ताकि यह मामला लगभग एक वर्ष और पीछे चला जाए. लेकिन काँग्रेस द्वारा ऐसा करने से उद्योग जगत जो इतने वर्षों से लगातार काँग्रेस का प्यारा रहा है, वह भी नाराज हो गया. खास बात यह है कि GST बिल को काँग्रेस ही लाई थी, उसमें सारे संशोधन पूरे हो चुके थे. सभी दलों की आपत्तियाँ और राज्यों के दावे-प्रतिदावों की संतुष्टिपूर्ण सुनवाई हो चुकी थी, संसद की स्थायी समिति ने इसे हरी झंडी दे दी थी. लेकिन फिर भी काँग्रेस ने इसे जानबूझकर अटकाया ताकि मोदी सरकार कहीं इसका श्रेय ना ले ले. राहुल गाँधी के साथ असली समस्या यह है कि उन्हें अपनी पार्टी का इतिहास पता ही नहीं है. राजनैतिक चातुर्य तो राहुल में कभी था ही नहीं, लेकिन संसद में प्रधानमंत्री पर शाब्दिक हमला करते समय जिस बचकाने तरीके से वे भाषण दे रहे थे उसने पार्टी की भद और भी पिटवाई. गाँधी जी के तीन बंदरों की कहावत भारत में तीसरी कक्षा का कोई भी बच्चा बड़े आराम से सुना देगा, लेकिन इतनी मामूली सी कहावत के लिए भी राहुल गाँधी को तीन बार कागज़ देखना पड़ा. रही-सही कसर एक पत्रकार द्वारा उनके हाथ में रखे पर्चे की तस्वीर ने पूरी कर दी, जो सोशल मीडिया और बाद में अखबारों में जमकर प्रसारित हुआ. उस कागज़ के पुर्जे के चित्र ने साफ़ कर दिया कि राहुल गाँधी मुद्दों से बिलकुल अनजान रहते हैं, और सामान्य भाषण से लेकर कहावतों और उक्तियों का उल्लेख करने में भी बुरी तरह से अपने सलाहकारों पर निर्भर रहते हैं. भला ऐसा में पता नहीं उनके किस सलाहकार ने उन्हें “केजरीवाल छाप” आरोपों की राजनीति करने की सलाह दी और उन्होंने सुषमा स्वराज पर संसद के बाहर खड़े होकर आरोप जड़ दिया, जो बाद में उन्हीं की पार्टी के गले पड़ा.

राहुल गाँधी के इन्हीं “अतिरिक्त-समझदार” सलाहकारों ने उन्हें “वन रैंक वन पेंशन” मुद्दे को लेकर जंतर-मंतर पर प्रदर्शन और धरना दे रहे पूर्व सैनिकों के बीच जाने को उकसाया, ताकि सैनिकों के बीच भाजपा की छवि को खराब करके कुछ राजनैतिक बढ़त हासिल की जा सके. लेकिन इसका उल्टा नतीजा यह हुआ कि वहाँ “राहुल गाँधी वापस जाओ” के नारे लगे, पूर्व सैनिकों ने काँग्रेस के खिलाफ जमकर नारेबाजी की. गडबड़ी यह हुई कि राहुल गाँधी को इतिहास की जानकारी ही नहीं थी, उन्हें यह पता ही नहीं था कि इंदिरा गाँधी ने ही 1973 में सेना हेतु “वन रैंक वन पेंशन” को खत्म कर दिया था. उसके बाद सैनिकों की यह माँग चालीस वर्ष तक काँग्रेस ने ही लटकाए रखी और अब मोदी सरकार के पन्द्रह माह में ही अचानक काँग्रेस को पूर्व सैनिकों की याद आ गई. जंतर-मंतर पर जाने की बजाय राहुल गाँधी चुप भी बैठ सकते थे, अथवा पूर्व सैनिक रहे किसी काँग्रेसी को ही अपना प्रतिनिधि बनाकर वहाँ भेज सकते थे, परन्तु अपरिपक्वता के कारण ऐसा नहीं किया गया और अंततः काँग्रेस को इस “स्टंट” का नुक्सान ही उठाना पड़ा.

ललित मोदी और सुषमा स्वराज के मामले में भी काँग्रेस द्वारा ऐसी ही अज्ञानता का प्रदर्शन हुआ था. सभी जानते हैं कि ललित मोदी एक व्यवसायी है, उसके जितने मधुर सम्बन्ध वसुंधरा राजे सिंधिया के साथ है, उससे कहीं अधिक मधुर सम्बन्ध क्रिकेट से जुड़े प्रत्येक खास व्यक्ति से हैं, फिर चाहे वे राजीव शुक्ला हों, शरद पवार हों, जगमोहन डालमिया हों, अनुराग ठाकुर हों, जीजाश्री उर्फ वाड्रा हों. IPL के प्रणेता ललित मोदी थे और इस “बिजनेस” में सभी साझीदार रहे हैं. ज़ाहिर है कि सुषमा स्वराज द्वारा ललित मोदी की पत्नी के लिए ब्रिटिश सरकार से यह कहना कि “ब्रिटिश कानूनों के अंतर्गत ललित मोदी की कैंसरग्रस्त पत्नी को जो भी राहत दी जा सकती हो, दे दी जाए” कहीं से भी कदाचार का मामला नहीं बनता. परन्तु जल्दबाजी और सरकार को घेरने के मुद्दों का अभाव इतना ज्यादा था कि राहुल-सोनिया ने मूलभूत बातों को भी ध्यान में रखना उचित नहीं समझा. जिस व्यक्ति को राजनीति की ABCD भी नहीं आती, वह भी सवाल कर रहा है कि ललित मोदी जब भारत से भागा, तब काँग्रेस की सरकार थी. 2011 से 2015 तक ललित मोदी को किसी भी न्यायालय ने “भगोड़ा” घोषित नहीं किया, फिर इस बीच तीन वर्ष तक काँग्रेस की UPA सरकार ने मोदी को वापस लाने के लिए कौन से प्रयास किए? लेकिन पार्टी में विद्रोह के स्वर दबाने और राहुल गाँधी को “असली नेता” साबित करने के चक्कर में सारे तथ्यों को भुला दिया गया, नतीजा यह हुआ कि संसदीय भाषण कैसे किया जाता है, सुषमा स्वराज के हाथों इसका सबक राहुल बाबा को प्राप्त हुआ.

वस्तुतः काँग्रेस इस समय लगभग उसी दौर से गुज़र रही है, जो दौर इंदिरा गाँधी को “गूँगी गुड़िया” कहने का दौर था. उस समय भी काँग्रेस के दिग्गज नेताओं ने मजबूरी में इंदिरा गाँधी को अपनी नेता स्वीकार किया था, लेकिन भीतर ही भीतर घाट-प्रतिघात का दौर शुरू था, और किसी भी तरह इंदिरा गाँधी को राजनैतिक रूप से काबू करके पार्टी और सरकार में अपनी मनमानी थोपने का इरादा था. उस वक्त इंदिरा गाँधी ने मजबूत राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया था और अपनी चालों से बड़े-बड़े नेताओं को धूल चटाते हुए राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पकड़ मजबूत बनाई थी. उस समय और उसके बाद आने वाले कई वर्षों तक इंदिरा गाँधी ने काँग्रेस में किसी भी क्षेत्रीय क्षत्रप को पनपने का मौका ही नहीं दिया. जो भी काँग्रेसी इंदिरा के मुकाबले में अथवा राजनैतिक रूप से सशक्त होता दिखाई देता था, इंदिरा गाँधी बड़ी सफाई से उसका राजनैतिक तबादला या वध कर दिया करती थीं. आज राहुल गाँधी की स्थिति भी कुछ-कुछ ऐसी ही है. खुले तौर पर इक्का-दुक्का काँग्रेसी ही कह रहे हैं, लेकिन दबे-छिपे स्वर में काँग्रेस के घुटे हुए नेता यह मानने लगे हैं कि सत्ता दिलाने के लिए जो “स्पार्क” अथवा “करिश्मा” एक नेता में होना चाहिए, वह राहुल गाँधी में नदारद है. यही बात सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के आसपास जमा चौकड़ी को खाए जा रही है. इससे निपटने के लिए सोनिया गाँधी ने दोहरी रणनीति अपनाई. अपने “पालतू मीडिया” के जरिये क्षेत्रीय क्षत्रपों के पर कतरने शुरू किए. ख़बरों को कैसे “प्लांट” और “लीक” किया जाता है इसमें तो काँग्रेस की वैसे भी मास्टरी है. अतः वीरभद्र सिंह के सेब की खेती वाले पुराने मामले उखाड़े जाने लगे तो वे छिप गए, उधर हरीश रावत का स्टिंग ऑपरेशन सामने आया और वह गायब हो गए. व्यापमं मामले में CBI की जाँच शुरू होने से पहले ही दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में हुई नियुक्तियों का मामला सामने आ गया... दूसरी रणनीति के तहत राहुल गाँधी को दो माह के अज्ञातवास पर भेजकर पहले पार्टी की थाह ली गई और फिर अज्ञातवास से लौटकर उन्होंने अचानक “एंग्री यंगमैन” की भूमिका निभानी शुरू कर दी. राहुल ने केजरीवाल की तरह छापामार युद्ध अर्थात “आरोप लगाओ, और भाग खड़े हो, जब तक उस पर विपक्ष की कोई सफाई आए, तब तक फिर एक नया आरोप मढ़ दो और आगे बढ़ जाओ..” की शैली अपना ली, ताकि उनके नेतृत्त्व को कहीं से भी चुनौती ना मिल सके. ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट और मिलिंद देवड़ा जैसे प्रतिभाशाली और साफ़-सुथरी छवि वाले युवा नेताओं को अपना राजनैतिक करियर बड़ा ही धुँधला सा लगने लगा है, काँग्रेसी परंपरा के अनुसार राहुल गाँधी के सामने इनका आभामण्डल गर्त में चला गया है. इसी प्रकार वीरभद्र सिंह, चिदंबरम, एके एंटोनी जैसे अनुभवी लोग जब राहुल गाँधी जैसे नौसिखिए के सामने कोर्निश बजाते हैं तब निश्चित ही उनकी आत्मा कलपती होगी. परन्तु सोनिया गाँधी को इसकी कतई चिंता नहीं है, राहुल गाँधी के सामने उठ सकने वाले किसी भी नेतृत्त्व के कद की छँटाई करना उनका पहला कर्त्तव्य लगता है. हालाँकि काँग्रेस में जो खेमा अप्रत्यक्ष रूप से पार्टी में महत्त्वपूर्ण स्थान हासिल करना चाहता है वह भी अपनी गोटियाँ बड़ी सफाई से चल रहा है और फूँक-फूँक कर कदम रखते हुए अपनी राजनीति कर रहा है. क्योंकि उन्हें भी पता है कि ना तो काँग्रेस से बाहर निकाले जाने के बाद उनका कोई भविष्य है और ना ही गाँधी परिवार का खुल्लमखुल्ला विरोध करके. इसीलिए इस खेमे ने सबसे पहले राहुल गाँधी के विकल्प के रूप में उभर सकने वाली सबसे तगड़ी शख्सियत अर्थात प्रियंका गाँधी को किनारे किया. रॉबर्ट वाड्रा के भ्रष्टाचार और जमीन सौदों को लेकर उनकी इतनी बदनामी हो चुकी है कि अब प्रियंका गाँधी यदि राजनीति में आने का फैसला भी करें तो DLF का भूत राजनीति में सदैव उनका पीछा करता रहेगा. यानी राहुल विरोधी खेमे ने वाड्रा संबंधी विभिन्न दस्तावेज लीक करके “सेकण्ड लाईन ऑफ डिफेन्स” सबसे पहले गिरा दी. राहुल गाँधी ने अब तक जितनी और जैसी राजनैतिक समझदारी दिखाई है, उसे देखते हुए यह लगने लगा है कि घाघ और शातिर किस्म के राजनैतिक काँग्रेसी जानबूझकर राहुल गाँधी को धीरे-धीरे एक गहरे गढ्ढे की तरफ ले जा रहे हैं, उनसे गलतियाँ करवाई जा रही हैं, ऊटपटांग बयान दिलवाए जा रहे हैं, उन्हें संगठनात्मक कार्यों को मजबूती देने, विभिन्न राज्यों में राजनैतिक रूप की जमीनी लड़ाई में झोंकने की बजाय मनमानी छुट्टियाँ बिताने के लिए भेजा जा रहा है. पिछले दो-तीन वर्ष में जनता ने देखा है कि देश के सामने जब भी कोई महत्त्वपूर्ण मुद्दा होता है तब-तब राहुल गाँधी परिदृश्य से गायब रहते हैं. ऐसी “पार्ट-टाईम” राजनीति काँग्रेस जैसी पार्टी के उपाध्यक्ष के लिए सही नहीं है. भूमि अधिग्रहण बिल पर काँग्रेस ने जैसी तर्कपूर्ण बढ़त हासिल की थी और समूचे विपक्ष के साथ मिलकर सरकार को बैकफ़ुट पर धकेल दिया था, वैसा ललित मोदी, व्यापमं पर वह नहीं कर पाई. क्योंकि मुद्दों में दम नहीं था और संसद को बाधित करने जैसे आत्मघाती खेल में पूरे विपक्ष ने बेमन से उसका साथ दिया था. बल्कि अंतिम दिन आते-आते तो मुलायम सिंह ने तो काँग्रेस को चेतावनी भी दे दी थी. भूमि अधिग्रहण बिल पर जो बढ़त हासिल की गई थी, वह GST को खामख्वाह रोके जाने तथा सुषमा स्वराज पर बेतुके आरोप लगाने से जाती रही और विश्वसनीयता गँवाकर आज काँग्रेस पुनः वहीं आन खड़ी हुई है, जहाँ वह मई 2014 में थी.

यह लेख लिखे जाने तक राजस्थान के नगरीय निकाय चुनाव भी सम्पन्न हो चुके हैं और वहाँ भी जनता ने काँग्रेस को नकार दिया है. ललित मोदी मामले में काँग्रेस बारम्बार जिस वसुंधरा राजे के इस्तीफे की माँग पर अड़ी हुई थी, फिलहाल जनता ने उस पर विश्वास जता दिया है. लेकिन राजस्थान और मप्र के नगरीय निकायों के परिणामों की तुलना करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राजस्थान में काँग्रेस ने सिर्फ दो साल में अच्छी खासी मजबूती हासिल कर ली है. इसका कारण है सचिन पायलट की जमीनी मेहनत और पार्टी द्वारा खराब छवि वाले अशोक गहलोत को पीछे करना. इसीलिए जहाँ लोकसभा चुनावों में भाजपा-काँग्रेस के बीच मतों का अंतर बीस प्रतिशत से अधिक था, वहीं सिर्फ डेढ़ साल में यह अंतर घटकर सिर्फ दो प्रतिशत रह गया है. वहीं दूसरी ओर मप्र में काँग्रेस के पास कोई प्रभावशाली नेतृत्त्व ही नहीं है, और ऊपर से व्यापमं की चीख-पुकार के बावजूद शिवराज चौहान की छवि जनता में आज भी अच्छी बनी हुई है. उधर बंगलौर जैसे सुपर-रिच महानगर के नगरीय निकायों में भी मुख्यमंत्री और सत्ता होने के बावजूद काँग्रेस बुरी तरह हार गई.

सत्ता की भनक सूँघने में कांग्रेसियों से ज्यादा माहिर कोई नहीं होता, इसलिए आज यदि कई कांग्रेसियों को लग रहा है कि राहुल गाँधी उन्हें सत्ता दिलवाने में नाकाम हो रहे हैं तो षड्यंत्र और गहराएँगे. इसलिए अंत में, कहने का तात्पर्य यह है कि काँग्रेस पार्टी और खासकर राहुल गाँधी को सबसे पहले “अपने घर” पर ध्यान देना चाहिए. एकाध बार तो ठीक है, परन्तु हमेशा खामख्वाह दाढ़ी बढ़ाकर प्रेस कांफ्रेंस में एंग्री यंगमैन की भूमिका उनके लिए घातक सिद्ध हो रही है. काँग्रेस के सलाहकार और योजनाकार इस बात पर मंथन करें कि राहुल गाँधी के खिलाफ जो अंदरूनी खामोश उठापटक जारी है, उस पर काबू कैसे पाया जाए... जिन राज्यों में काँग्रेस लगभग मरणासन्न अवस्था में पहुँच गई है, वहाँ उसे शक्तिशाली कैसे बनाया जाए... भाषणों में पैनापन कैसे लाया जाए... पिछली UPA सरकार की गलतियों को खुलेआम स्वीकार कैसे किया जाए... भ्रष्ट और दागदार छवि वाले नेताओं को दरकिनार करके सचिन पायलट, सिंधिया, मिलिंद देवड़ा जैसे “यंगिस्तान” को प्रभावी भूमिका कैसे दी जाए...| अभी कम से कम चार वर्ष तो लोकसभा चुनाव होने वाले नहीं हैं, इसलिए काँग्रेस जो इस समय “जल्दबाजी” दिखा रही है, उसे थोड़ा शान्ति रखना चाहिए. यदि राज्यों में काँग्रेस मजबूत होती है, तो मोदी सरकार को घेरने के और भी कई मौके उसे मिलेंगे, अन्यथा वह जनता की निगाह में इसी तरह “थोथा चना, बाजे घना” की हास्यास्पद स्थिति में पड़ी रहेगी. हो सकता है कि इससे राहुल गाँधी का पार्टी पर शिकंजा मजबूत हो जाए, परन्तु यह उनकी पार्टी और देश के लिए अच्छी बात नहीं है.

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