हारना वाकई दुखद है, लेकिन सच्चाई स्वीकार करो और पुनः काम में जुट जाओ… BJP Defeat, UPA wins, Election Assessment
Written by Super User शनिवार, 16 मई 2009 13:27
आखिर लोकसभा के बहुप्रतीक्षित नतीजे आ ही गये, और अनपेक्षित रूप से कांग्रेसनीत यूपीए लगभग बहुमत में आ चुका है और भाजपानीत एनडीए को जनता ने नकार दिया है। यह पोस्ट लिखते समय (सुबह 11.30 बजे) हालांकि नतीजे पूरे नहीं आये, लेकिन तात्कालिक विश्लेषण करने के लिये रुझान ही पर्याप्त हैं।
कांग्रेस का मानना है नतीजे आश्चर्यजनक रहे हैं, यही हाल भाजपा का भी है। किसी ने भी नहीं सोचा था कि इतनी महंगाई (आम आदमी के रोज़मर्रा के जीवन को छूने वाला एक मुद्दा) तथा भयानक आतंकवाद (“एलीट क्लास” का मुद्दा) जैसे मुद्दों के बावजूद जनता कांग्रेस-यूपीए को जितायेगी, लेकिन यह हुआ। क्यों हुआ, कैसे हुआ इसको लेकर माथापच्ची तो अगले 5 साल तक चलती ही रहेगी।
यदि सरसरी तौर पर विश्लेषण किया जाये तो भाजपा की हार के कुछ कारण दिखाई देते हैं, वे इस प्रकार हैं –
1) लालकृष्ण आडवाणी की स्वीकार्यता जनता में नहीं होना,
2) कम वोटिंग प्रतिशत, तथा
3) मीडिया का एकतरफ़ा सतत चलने वाला भाजपा-विरोधी अभियान।
1) आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना शायद एक गलत कदम था, उनकी बजाय नरेन्द्र मोदी या सुषमा स्वराज को यदि ठीक से “मार्केटिंग” करके मैदान में उतारा जाता तो युवा वोटर का रुझान भाजपा को अधिक मिलता। सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने से महिलाओं के वोट लेने में भी आसानी हो सकती थी, क्योंकि उनकी “इमेज” साफ़-सुथरी और एक परम्परागत भारतीय स्त्री वाली है, इसी प्रकार नरेन्द्र मोदी को गुजरात के विकास का चित्र सामने रखकर उन पर दाँव खेला जा सकता था।
2) कम वोटिंग प्रतिशत – जो वर्ग सबसे अधिक सरकार की आलोचना करता है, अखबारों में, टीवी पर, ड्राइंग रूम में उसी वर्ग ने भीषण गर्मी के चलते मतदान में सबसे कम हिस्सा लिया। सारे देश का प्रतिशत देखा जाये तो कुल 41% प्रतिशत मतदान हुआ, इसका अर्थ यह है कि बाकी के 49% लोग “पप्पू” बने (जानबूझकर बने)। एक आम मतदाता ने तो अपना वोट बराबर डाला, लेकिन मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा पप्पू बना, इसके चलते भाजपा का परम्परागत वोटबैंक घर में (एसी की ठण्डी हवा में) ही बैठा रहा, नतीजा सबसे सामने है। इस 41% वोटिंग का एक मतलब यह भी है कि देश पर ऐसी पार्टी शासन करेगी जिसे असल में देश के सिर्फ़ 22% लोग चाहते हैं।
3) मीडिया की भूमिका – जैसा कि पहले भी कई बार कहा गया है देश में मीडिया पूरी तरह से भाजपा-विरोधी मानसिकता लिये हुए है और भाजपा के विरोध में जहर उगलने के लिये तैयार बैठा रहता है। मीडिया ने हर समय, प्रतिदिन चौबीसों घण्टे भाजपा की नकारात्मक छवि पेश की। भले ही पढ़े-लिखे वर्ग पर मीडिया का असर कम होता है, लेकिन रोज-ब-रोज़ टीवी पर सोनिया-राहुल-कांग्रेस का गुणगान देख-देखकर जनता के मन में कहीं न कहीं तो “सॉफ़्ट कॉर्नर” बन ही जाता है, लेकिन आश्चर्य यह है कि इतनी भीषण महंगाई के बावजूद देश की जनता ने कांग्रेस को कैसे चुना? आखिर क्या सोच रही होगी मतदाता के मन में?
बहरहाल, पोस्ट खत्म होते-होते (दोपहर 1 बजे) लगभग स्थिति साफ़ हो चुकी है कि यूपीए ही सरकार बनायेगा। इस सारे झमेले में सिर्फ़ एक बात ही सकारात्मक हुई है वह ये कि अब आगामी सरकार पर “वामपंथी” नामक ढोंग का काला साया नहीं रहेगा और शायद मनमोहन सिंह और खुलकर काम कर पायेंगे। भाजपा में भी अब आत्ममंथन का दौर चलेगा और यदि आडवाणी अपने शब्दों पर खरे उतरते हैं तो उन्हें सन्यास ले लेना चाहिये। लेकिन इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि भाजपा-संघ-हिन्दुत्ववादी कार्यकर्ताओं को हतबल होकर बैठ जाना चाहिये। निराशा है, उदासी है लेकिन ऐसा तो लोकतन्त्र में होता ही रहता है।
माना कि “हिन्दुओं” को एकत्र करने, उनमें “राष्ट्रवाद” जगाने, देश को इस्लामीकरण के खतरे समझाने, अफ़ज़ल-कसाब को पार्टी मनाने देने, “मिशनरी” के बढ़ते वर्चस्व को समझाने में हम नाकाम रहे। क्या कांग्रेस को सत्ता मिल जाने से देश के समक्ष उपस्थित समस्याओं का समाधान हो गया है? क्या हिन्दुओं और हिन्दुत्व के चारो ओर मंडरा रहे संकेत मद्धिम हो गये, हरगिज़ नहीं। आज जनता इस बात को समझने में नाकाम रही है, तो हमारा यह कर्तव्य है कि उसे समझाने का प्रयास लगातार करते रहें…
“रुके न तू… थके न तू…” की तर्ज पर हमें फ़िर से उठ खड़े होना है, निराश-हताश होने से काम नहीं चलेगा… अभी बहुत काम बाकी है, यह तो सिर्फ़ एक पड़ाव है और ऐसी ठोकरें तो लगती ही रहती हैं… आखिर 1984 में 400 से अधिक सीटों पर जीतने वाली कांग्रेस को 140 तक ले ही आये थे, और 1984 में हम 2 थे और फ़िर 189 तक पहुँचे भी थे, तो फ़िर घबराना कैसा? यह उतार-चढ़ाव तो आते ही रहेंगे… लक्ष्य पर निगाह रखो और पुनः उठ खड़े हो, चलो…
कांग्रेस का मानना है नतीजे आश्चर्यजनक रहे हैं, यही हाल भाजपा का भी है। किसी ने भी नहीं सोचा था कि इतनी महंगाई (आम आदमी के रोज़मर्रा के जीवन को छूने वाला एक मुद्दा) तथा भयानक आतंकवाद (“एलीट क्लास” का मुद्दा) जैसे मुद्दों के बावजूद जनता कांग्रेस-यूपीए को जितायेगी, लेकिन यह हुआ। क्यों हुआ, कैसे हुआ इसको लेकर माथापच्ची तो अगले 5 साल तक चलती ही रहेगी।
यदि सरसरी तौर पर विश्लेषण किया जाये तो भाजपा की हार के कुछ कारण दिखाई देते हैं, वे इस प्रकार हैं –
1) लालकृष्ण आडवाणी की स्वीकार्यता जनता में नहीं होना,
2) कम वोटिंग प्रतिशत, तथा
3) मीडिया का एकतरफ़ा सतत चलने वाला भाजपा-विरोधी अभियान।
1) आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना शायद एक गलत कदम था, उनकी बजाय नरेन्द्र मोदी या सुषमा स्वराज को यदि ठीक से “मार्केटिंग” करके मैदान में उतारा जाता तो युवा वोटर का रुझान भाजपा को अधिक मिलता। सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने से महिलाओं के वोट लेने में भी आसानी हो सकती थी, क्योंकि उनकी “इमेज” साफ़-सुथरी और एक परम्परागत भारतीय स्त्री वाली है, इसी प्रकार नरेन्द्र मोदी को गुजरात के विकास का चित्र सामने रखकर उन पर दाँव खेला जा सकता था।
2) कम वोटिंग प्रतिशत – जो वर्ग सबसे अधिक सरकार की आलोचना करता है, अखबारों में, टीवी पर, ड्राइंग रूम में उसी वर्ग ने भीषण गर्मी के चलते मतदान में सबसे कम हिस्सा लिया। सारे देश का प्रतिशत देखा जाये तो कुल 41% प्रतिशत मतदान हुआ, इसका अर्थ यह है कि बाकी के 49% लोग “पप्पू” बने (जानबूझकर बने)। एक आम मतदाता ने तो अपना वोट बराबर डाला, लेकिन मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा पप्पू बना, इसके चलते भाजपा का परम्परागत वोटबैंक घर में (एसी की ठण्डी हवा में) ही बैठा रहा, नतीजा सबसे सामने है। इस 41% वोटिंग का एक मतलब यह भी है कि देश पर ऐसी पार्टी शासन करेगी जिसे असल में देश के सिर्फ़ 22% लोग चाहते हैं।
3) मीडिया की भूमिका – जैसा कि पहले भी कई बार कहा गया है देश में मीडिया पूरी तरह से भाजपा-विरोधी मानसिकता लिये हुए है और भाजपा के विरोध में जहर उगलने के लिये तैयार बैठा रहता है। मीडिया ने हर समय, प्रतिदिन चौबीसों घण्टे भाजपा की नकारात्मक छवि पेश की। भले ही पढ़े-लिखे वर्ग पर मीडिया का असर कम होता है, लेकिन रोज-ब-रोज़ टीवी पर सोनिया-राहुल-कांग्रेस का गुणगान देख-देखकर जनता के मन में कहीं न कहीं तो “सॉफ़्ट कॉर्नर” बन ही जाता है, लेकिन आश्चर्य यह है कि इतनी भीषण महंगाई के बावजूद देश की जनता ने कांग्रेस को कैसे चुना? आखिर क्या सोच रही होगी मतदाता के मन में?
बहरहाल, पोस्ट खत्म होते-होते (दोपहर 1 बजे) लगभग स्थिति साफ़ हो चुकी है कि यूपीए ही सरकार बनायेगा। इस सारे झमेले में सिर्फ़ एक बात ही सकारात्मक हुई है वह ये कि अब आगामी सरकार पर “वामपंथी” नामक ढोंग का काला साया नहीं रहेगा और शायद मनमोहन सिंह और खुलकर काम कर पायेंगे। भाजपा में भी अब आत्ममंथन का दौर चलेगा और यदि आडवाणी अपने शब्दों पर खरे उतरते हैं तो उन्हें सन्यास ले लेना चाहिये। लेकिन इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि भाजपा-संघ-हिन्दुत्ववादी कार्यकर्ताओं को हतबल होकर बैठ जाना चाहिये। निराशा है, उदासी है लेकिन ऐसा तो लोकतन्त्र में होता ही रहता है।
माना कि “हिन्दुओं” को एकत्र करने, उनमें “राष्ट्रवाद” जगाने, देश को इस्लामीकरण के खतरे समझाने, अफ़ज़ल-कसाब को पार्टी मनाने देने, “मिशनरी” के बढ़ते वर्चस्व को समझाने में हम नाकाम रहे। क्या कांग्रेस को सत्ता मिल जाने से देश के समक्ष उपस्थित समस्याओं का समाधान हो गया है? क्या हिन्दुओं और हिन्दुत्व के चारो ओर मंडरा रहे संकेत मद्धिम हो गये, हरगिज़ नहीं। आज जनता इस बात को समझने में नाकाम रही है, तो हमारा यह कर्तव्य है कि उसे समझाने का प्रयास लगातार करते रहें…
“रुके न तू… थके न तू…” की तर्ज पर हमें फ़िर से उठ खड़े होना है, निराश-हताश होने से काम नहीं चलेगा… अभी बहुत काम बाकी है, यह तो सिर्फ़ एक पड़ाव है और ऐसी ठोकरें तो लगती ही रहती हैं… आखिर 1984 में 400 से अधिक सीटों पर जीतने वाली कांग्रेस को 140 तक ले ही आये थे, और 1984 में हम 2 थे और फ़िर 189 तक पहुँचे भी थे, तो फ़िर घबराना कैसा? यह उतार-चढ़ाव तो आते ही रहेंगे… लक्ष्य पर निगाह रखो और पुनः उठ खड़े हो, चलो…
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