ट्रेजरी मुद्दे पर मीडिया का दोगलापन और नीतीश की चुस्त कार्यप्रणाली… … Bihar Assembly Lalu Yadav and Congress
Written by Super User सोमवार, 26 जुलाई 2010 12:22
कुछ दिनों पहले बिहार की विधानसभा में जो कुछ हुआ उसने लोकतन्त्र को शर्मिन्दा तो किया ही है, लेकिन लोकतन्त्र भी अब ऐसी शर्मिन्दगी बार-बार झेलने को अभिशप्त है, और हम सब इसके आदी हो चुके हैं। बिहार विधानसभा में लालूप्रसाद और कांग्रेस ने जो हंगामा और तोड़फ़ोड़ की उसके पीछे कारण यह दिया गया कि महालेखाकार एवं नियंत्रक (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा है कि सन् 2002 से 2007 के बीच शासकीय कोषालय से करोड़ों रुपये निकाले गये और उनका बिल प्रस्तुत नहीं किया गया।
सिर पर खड़े आगामी विधानसभा चुनावों में मुद्दों के लिए तरस रहे लालू और कांग्रेस को इसमें "भ्रष्टाचार" की बू आ गई और उन्होंने बिना सोचे-समझे और मामले की तह में गये बिना हंगामा मचा दिया। बिहार विधानसभा के चुनावों में नीतीश अपनी साफ़-सुथरी छवि और बिहार में किये गये अपने काम के सहारे जाना चाहते हैं, जो लालू को कैसे सहन हो सकता है? और कांग्रेस, जो कि बिहार में कहीं गिनती में ही नहीं है वह भी ऐसे कूदने लगी, जैसे नीतीश के खिलाफ़ उसे कोई बड़ा मुद्दा हाथ लग गया हो और विधानसभा चुनाव में वे राहुल बाबा की मदद से कोई तीर मार लेंगे। विधानसभा में मेजें उलटी गईं, माइक तोड़े गये, गालीगलौज-मारपीट हुई, एक "वीरांगना" ने बाहर आकर गमले उठा-उठाकर पटके… यानी कुल मिलाकर जोरदार नाटक-नौटंकी की गई। मीडिया तो नीतीश और भाजपा के खिलाफ़ मौका ढूंढ ही रहा था, सारे चैनलों ने इस मामले को ऐसे दिखाया मानो यह करोड़ों का घोटाला हो। मीडिया के प्यारे-दुलारे लालू के "जोकरनुमा" बयान लिये गये, मनीष तिवारी इत्यादि ने भी जमकर भड़ास निकाली।

हालांकि पूरा मामला "खोदा पहाड़ निकली चुहिया" टाइप का है, लेकिन लालू, कांग्रेस और मीडिया को कौन समझाए। महालेखाकार एवं नियंत्रक (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में सिर्फ़ इतना कहा है कि 2002 से 2007 के बीच कोषालय (Treasury) से जो पैसा निकला है उसका बिल प्रस्तुत नहीं हुआ है। अब भला इसमें घोटाले वाली बात कहाँ से आ गई? हालांकि यह गलत परम्परा तो है, लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि राज्य शासन के अधिकारी और विभिन्न विभाग अपनी आवश्यकतानुसार धन निकालते हैं और उसे खर्च करते हैं। विभागीय मंत्री को तो इन पैसों के उपयोग (या दुरुपयोग) से कोई मतलब होता नहीं, तो बिल और हिसाब-किताब की चिन्ता क्यों होने लगी। सम्बन्धित कलेक्टर और कमिश्नर की यह जिम्मेदारी है, लेकिन जब उन पर किसी का जोर या दबाव ही नहीं है तो वे क्यों अपनी तरफ़ से सारे शासकीय कामों के बिल शासन को देने लगे? ऐसा लगभग सभी राज्यों में होता है और बिहार भी कोई अपवाद नहीं है, हमारी "मक्कार कार्यसंस्कृति" में आलस और ढिलाई तो भरी पड़ी है ही, भ्रष्टाचार इसमें उर्वरक की भूमिका निभाता है। तात्पर्य यह कि 2002 से 2007 के बीच करोड़ों रुपये निकाले गये और खर्च हो गये कोई हिसाब-किताब और बिल नहीं पहुँचा, परन्तु विधानसभा में हंगामा करने वाले राजद और कांग्रेस सदस्यों ने इस बात पर दिमाग ही नहीं लगाया कि जिस CAG की रिपोर्ट के कालखण्ड पर वे हंगामा कर रहे हैं, उसमें से 2002 के बाद 42 माह तक लालू की ही सरकार थी, उसके बाद 11 माह तक राष्ट्रपति शासन था, जिसके सर्वेसर्वा एक और "महा-ईमानदार" बूटा सिंह थे, उसके बाद के 2 साल नीतीश सरकार के हैं, लेकिन गमले तोड़ने वाली उस वीरांगना से माथाफ़ोड़ी करे कौन? उन्हें तो बस हंगामा करने का बहाना चाहिये।
अब आते हैं हमारे "नेशनल"(?), "सबसे तेज़"(?) और "निष्पक्ष"(?) चैनलों के दोगलेपन और भाजपा विरोधी घृणित मानसिकता पर… जो लालू खुद ही करोड़ों रुपये के चारा घोटाले में न सिर्फ़ नामज़द आरोपी हैं, बल्कि न्यायालय उन्हें सजा भी सुना चुका… उसी लालू को पहले मीडिया ने रेल्वे मंत्री रहते हुए "मैनेजमेण्ट गुरु" के रुप में प्रचारित किया, जब ममता दीदी ने बाकायदा श्वेत-पत्र जारी करके लालू के मैनेजमेण्ट की पोल खोली तब वह फ़ुग्गा फ़ूटा, लेकिन फ़िर भी मीडिया को न तो अक्ल आनी थी, न आई। विधानसभा के हंगामे के बाद चैनलों ने लालू के बाइट्स और फ़ुटेज लगातार दिखाये, जबकि सुशील मोदी की बात तक नहीं सुनी गई। असल में मीडिया (और जनता) के लिये लालू एक "हँसोड़ कलाकार" से ज्यादा कुछ नहीं हैं, वह उनके मुँह से कुछ ऊटपटांग किस्म के बयान दिलवाकर मनोरंजन करवाता रहता है, लेकिन विधानसभा में जो हुआ वह मजाक नहीं था। ज़रा इन आँकड़ों पर निगाह डालिये -
- महाराष्ट्र सरकार का 3113 करोड़ रुपये के खर्च का बिल नहीं आया है।
- पश्चिम बंगाल सरकार ने 2001-02 में 7140 करोड़ रुपये खर्च किये थे, उसका हिसाब अब तक प्रस्तुत नहीं किया गया है।
- यहाँ तक कि केन्द्र सरकार के परिवार कल्याण मंत्रालय ने 1983 से लेकर अब तक 9000 करोड़ रुपये के खर्च का बिल नहीं जमा करवाया है।
कभी मीडिया में इस बारे में सुना है? नहीं सुना होगा, क्योंकि मीडिया सिर्फ़ वही दिखाता/सुनाता है जिसमें या तो महारानी (और युवराज) का स्तुति-गान होता है या फ़िर भाजपा-संघ-हिन्दूवादी संगठनों का विरोध होता है। क्या झारखण्ड, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के इन प्रकरणों को घोटाला माना जा सकता है? यदि "हाँ", तो कथित रुप से सबसे तेज मीडिया अब तक सो रहा था क्या? कई-कई बार बाकायदा उदाहरण देकर साबित किया जा चुका है कि भारत का वर्तमान मीडिया पूरी तरह से "अज्ञात शक्तियों" के नियन्त्रण में है, जो "निष्पक्ष" तो कतई नहीं है। ट्रेजरी से सम्बन्धित जिस तकनीकी गलती को "घोटाला" कहकर प्रचारित किया गया, यदि सभी राज्यों के हाइकोर्ट, सभी राज्यों के खर्चों का हिसाब-किताब देखने लगें तो सारे के सारे मुख्यमंत्री ही कठघरे में खड़े नज़र आयेंगे।
इस बीच 26 जुलाई को पटना उच्च न्यायालय में होने वाली सुनवाई के लिये नीतीश ने विपक्ष के विरोध को भोथरा करने के लिये ताबड़तोड़ काम करने के निर्देश जारी कर दिये हैं। सभी जिला कलेक्टरों को दिशानिर्देश जारी करके 2002 से 2008 तक के सभी खर्चों के बिल पेश करने को कह दिया गया है, लगभग सभी जिलों में बड़े उच्चाधिकारियों की छुट्टियाँ रद्द कर दी गईं और वे रात-रात भर दफ़्तरों में बैठकर पिछले सारे रिकॉर्ड खंगालकर बिल तैयार कर रहे हैं। सीवान, बक्सर, समस्तीपुर, गया, जहानाबाद, सासाराम और छपरा में विशेष कैम्प लगाकर सारे पिछले पेण्डिंग बिल तैयार करवाये जा रहे हैं, तात्पर्य यह है कि विपक्ष की हवा निकालने और खुद की छवि उजली बनाये रखने के लिये नीतीश ने कमर कस ली है… फ़िर भी इस बीच मीडिया को जो "खेल" खेलना था, वह खेल चुका, अब चुनिंदा अखबारों, वेबसाईटों और ब्लॉग पर पड़े-पड़े लेख लिखते रहिये, कौन सुनेगा? वैसे, बिहार के आगामी चुनावों को देखते हुए "मुसलमान-मुसलमान" का खेल शुरु हो चुका है, नीतीश भी नरेन्द्र मोदी को छूत की बीमारी की तरह दूर रखने लगे हैं और कांग्रेस भी मुस्लिमों को "आरक्षण" का झुनझुना बजाकर रिझा रही है… और वैसे भी चैनलों द्वारा "साम्प्रदायिकता" शब्द का उपयोग उसी समय किया जाता है, जब "हिन्दू" की बात की जाती है…
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चलते-चलते : उधर पूर्वोत्तर में ऑल असम माइनोरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (AAMSU) ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के विरोध में बन्द का आयोजन किया, जिसमें जिला कलेक्टर के कार्यालय पर हमला किया गया और पुलिस फ़ायरिंग में चार लोग मारे गये। बांग्लादेशी शरणार्थियों (बल्कि हरामखोरों शब्द अधिक उचित है) द्वारा अब वहाँ की जनसंख्या में इतना फ़ेरबदल किया जा चुका है, कि असम में कम से कम 10 विधायक इन बाहरी लोगों की पसन्द के बन सकते हैं। इतने हंगामे के बाद NRC (National Register for Citizens) को स्थगित करते हुए मुख्यमंत्री तरुण गोगोई कहते हैं कि "बातचीत" से मामला सुलझा लिया जायेगा। क्या आपने यह खबर किसी तथाकथित "निष्पक्ष" और सबसे तेज़ चैनल पर सुनी है? नहीं सुनी होगी, क्योंकि मीडिया को संत शिरोमणि श्रीश्री सोहराबुद्दीन के एनकाउंटर और अमित शाह की खबर अधिक महत्वपूर्ण लगती है…
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सिर पर खड़े आगामी विधानसभा चुनावों में मुद्दों के लिए तरस रहे लालू और कांग्रेस को इसमें "भ्रष्टाचार" की बू आ गई और उन्होंने बिना सोचे-समझे और मामले की तह में गये बिना हंगामा मचा दिया। बिहार विधानसभा के चुनावों में नीतीश अपनी साफ़-सुथरी छवि और बिहार में किये गये अपने काम के सहारे जाना चाहते हैं, जो लालू को कैसे सहन हो सकता है? और कांग्रेस, जो कि बिहार में कहीं गिनती में ही नहीं है वह भी ऐसे कूदने लगी, जैसे नीतीश के खिलाफ़ उसे कोई बड़ा मुद्दा हाथ लग गया हो और विधानसभा चुनाव में वे राहुल बाबा की मदद से कोई तीर मार लेंगे। विधानसभा में मेजें उलटी गईं, माइक तोड़े गये, गालीगलौज-मारपीट हुई, एक "वीरांगना" ने बाहर आकर गमले उठा-उठाकर पटके… यानी कुल मिलाकर जोरदार नाटक-नौटंकी की गई। मीडिया तो नीतीश और भाजपा के खिलाफ़ मौका ढूंढ ही रहा था, सारे चैनलों ने इस मामले को ऐसे दिखाया मानो यह करोड़ों का घोटाला हो। मीडिया के प्यारे-दुलारे लालू के "जोकरनुमा" बयान लिये गये, मनीष तिवारी इत्यादि ने भी जमकर भड़ास निकाली।

हालांकि पूरा मामला "खोदा पहाड़ निकली चुहिया" टाइप का है, लेकिन लालू, कांग्रेस और मीडिया को कौन समझाए। महालेखाकार एवं नियंत्रक (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में सिर्फ़ इतना कहा है कि 2002 से 2007 के बीच कोषालय (Treasury) से जो पैसा निकला है उसका बिल प्रस्तुत नहीं हुआ है। अब भला इसमें घोटाले वाली बात कहाँ से आ गई? हालांकि यह गलत परम्परा तो है, लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि राज्य शासन के अधिकारी और विभिन्न विभाग अपनी आवश्यकतानुसार धन निकालते हैं और उसे खर्च करते हैं। विभागीय मंत्री को तो इन पैसों के उपयोग (या दुरुपयोग) से कोई मतलब होता नहीं, तो बिल और हिसाब-किताब की चिन्ता क्यों होने लगी। सम्बन्धित कलेक्टर और कमिश्नर की यह जिम्मेदारी है, लेकिन जब उन पर किसी का जोर या दबाव ही नहीं है तो वे क्यों अपनी तरफ़ से सारे शासकीय कामों के बिल शासन को देने लगे? ऐसा लगभग सभी राज्यों में होता है और बिहार भी कोई अपवाद नहीं है, हमारी "मक्कार कार्यसंस्कृति" में आलस और ढिलाई तो भरी पड़ी है ही, भ्रष्टाचार इसमें उर्वरक की भूमिका निभाता है। तात्पर्य यह कि 2002 से 2007 के बीच करोड़ों रुपये निकाले गये और खर्च हो गये कोई हिसाब-किताब और बिल नहीं पहुँचा, परन्तु विधानसभा में हंगामा करने वाले राजद और कांग्रेस सदस्यों ने इस बात पर दिमाग ही नहीं लगाया कि जिस CAG की रिपोर्ट के कालखण्ड पर वे हंगामा कर रहे हैं, उसमें से 2002 के बाद 42 माह तक लालू की ही सरकार थी, उसके बाद 11 माह तक राष्ट्रपति शासन था, जिसके सर्वेसर्वा एक और "महा-ईमानदार" बूटा सिंह थे, उसके बाद के 2 साल नीतीश सरकार के हैं, लेकिन गमले तोड़ने वाली उस वीरांगना से माथाफ़ोड़ी करे कौन? उन्हें तो बस हंगामा करने का बहाना चाहिये।
अब आते हैं हमारे "नेशनल"(?), "सबसे तेज़"(?) और "निष्पक्ष"(?) चैनलों के दोगलेपन और भाजपा विरोधी घृणित मानसिकता पर… जो लालू खुद ही करोड़ों रुपये के चारा घोटाले में न सिर्फ़ नामज़द आरोपी हैं, बल्कि न्यायालय उन्हें सजा भी सुना चुका… उसी लालू को पहले मीडिया ने रेल्वे मंत्री रहते हुए "मैनेजमेण्ट गुरु" के रुप में प्रचारित किया, जब ममता दीदी ने बाकायदा श्वेत-पत्र जारी करके लालू के मैनेजमेण्ट की पोल खोली तब वह फ़ुग्गा फ़ूटा, लेकिन फ़िर भी मीडिया को न तो अक्ल आनी थी, न आई। विधानसभा के हंगामे के बाद चैनलों ने लालू के बाइट्स और फ़ुटेज लगातार दिखाये, जबकि सुशील मोदी की बात तक नहीं सुनी गई। असल में मीडिया (और जनता) के लिये लालू एक "हँसोड़ कलाकार" से ज्यादा कुछ नहीं हैं, वह उनके मुँह से कुछ ऊटपटांग किस्म के बयान दिलवाकर मनोरंजन करवाता रहता है, लेकिन विधानसभा में जो हुआ वह मजाक नहीं था। ज़रा इन आँकड़ों पर निगाह डालिये -
झारखण्ड सरकार के 6009 करोड़ और जम्मू-कश्मीर सरकार के 2725 करोड़ रुपये के खर्च का बरसों से अभी तक कोई हिसाब प्रस्तुत नहीं किया गया है। |
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- महाराष्ट्र सरकार का 3113 करोड़ रुपये के खर्च का बिल नहीं आया है।
- पश्चिम बंगाल सरकार ने 2001-02 में 7140 करोड़ रुपये खर्च किये थे, उसका हिसाब अब तक प्रस्तुत नहीं किया गया है।
- यहाँ तक कि केन्द्र सरकार के परिवार कल्याण मंत्रालय ने 1983 से लेकर अब तक 9000 करोड़ रुपये के खर्च का बिल नहीं जमा करवाया है।
कभी मीडिया में इस बारे में सुना है? नहीं सुना होगा, क्योंकि मीडिया सिर्फ़ वही दिखाता/सुनाता है जिसमें या तो महारानी (और युवराज) का स्तुति-गान होता है या फ़िर भाजपा-संघ-हिन्दूवादी संगठनों का विरोध होता है। क्या झारखण्ड, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के इन प्रकरणों को घोटाला माना जा सकता है? यदि "हाँ", तो कथित रुप से सबसे तेज मीडिया अब तक सो रहा था क्या? कई-कई बार बाकायदा उदाहरण देकर साबित किया जा चुका है कि भारत का वर्तमान मीडिया पूरी तरह से "अज्ञात शक्तियों" के नियन्त्रण में है, जो "निष्पक्ष" तो कतई नहीं है। ट्रेजरी से सम्बन्धित जिस तकनीकी गलती को "घोटाला" कहकर प्रचारित किया गया, यदि सभी राज्यों के हाइकोर्ट, सभी राज्यों के खर्चों का हिसाब-किताब देखने लगें तो सारे के सारे मुख्यमंत्री ही कठघरे में खड़े नज़र आयेंगे।
इस बीच 26 जुलाई को पटना उच्च न्यायालय में होने वाली सुनवाई के लिये नीतीश ने विपक्ष के विरोध को भोथरा करने के लिये ताबड़तोड़ काम करने के निर्देश जारी कर दिये हैं। सभी जिला कलेक्टरों को दिशानिर्देश जारी करके 2002 से 2008 तक के सभी खर्चों के बिल पेश करने को कह दिया गया है, लगभग सभी जिलों में बड़े उच्चाधिकारियों की छुट्टियाँ रद्द कर दी गईं और वे रात-रात भर दफ़्तरों में बैठकर पिछले सारे रिकॉर्ड खंगालकर बिल तैयार कर रहे हैं। सीवान, बक्सर, समस्तीपुर, गया, जहानाबाद, सासाराम और छपरा में विशेष कैम्प लगाकर सारे पिछले पेण्डिंग बिल तैयार करवाये जा रहे हैं, तात्पर्य यह है कि विपक्ष की हवा निकालने और खुद की छवि उजली बनाये रखने के लिये नीतीश ने कमर कस ली है… फ़िर भी इस बीच मीडिया को जो "खेल" खेलना था, वह खेल चुका, अब चुनिंदा अखबारों, वेबसाईटों और ब्लॉग पर पड़े-पड़े लेख लिखते रहिये, कौन सुनेगा? वैसे, बिहार के आगामी चुनावों को देखते हुए "मुसलमान-मुसलमान" का खेल शुरु हो चुका है, नीतीश भी नरेन्द्र मोदी को छूत की बीमारी की तरह दूर रखने लगे हैं और कांग्रेस भी मुस्लिमों को "आरक्षण" का झुनझुना बजाकर रिझा रही है… और वैसे भी चैनलों द्वारा "साम्प्रदायिकता" शब्द का उपयोग उसी समय किया जाता है, जब "हिन्दू" की बात की जाती है…
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चलते-चलते : उधर पूर्वोत्तर में ऑल असम माइनोरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (AAMSU) ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के विरोध में बन्द का आयोजन किया, जिसमें जिला कलेक्टर के कार्यालय पर हमला किया गया और पुलिस फ़ायरिंग में चार लोग मारे गये। बांग्लादेशी शरणार्थियों (बल्कि हरामखोरों शब्द अधिक उचित है) द्वारा अब वहाँ की जनसंख्या में इतना फ़ेरबदल किया जा चुका है, कि असम में कम से कम 10 विधायक इन बाहरी लोगों की पसन्द के बन सकते हैं। इतने हंगामे के बाद NRC (National Register for Citizens) को स्थगित करते हुए मुख्यमंत्री तरुण गोगोई कहते हैं कि "बातचीत" से मामला सुलझा लिया जायेगा। क्या आपने यह खबर किसी तथाकथित "निष्पक्ष" और सबसे तेज़ चैनल पर सुनी है? नहीं सुनी होगी, क्योंकि मीडिया को संत शिरोमणि श्रीश्री सोहराबुद्दीन के एनकाउंटर और अमित शाह की खबर अधिक महत्वपूर्ण लगती है…
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