क्या? वीर सावरकर को “भारत-रत्न”?? तू साम्प्रदायिक संघी है…… Bharat Ratna, Civil Awards of India
Written by Super User गुरुवार, 28 जनवरी 2010 14:39
प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी पद्म पुरस्कारों की घोषणा की रस्म निभाई गई। जिस प्रकार पुराने जमाने में राजा-बादशाह खुश होकर अपनी रियासत के कलाकारों, राजा की तारीफ़ में कसीदे काढ़ने वाले भाण्डों और चारण-भाट को पुरस्कार, सोने के सिक्के, हार आदि बाँटा करते थे, वही परम्परा लोकतन्त्र के साठ साल (यानी परिपक्व ? लोकतन्त्र हो जाने) के बावजूद जारी है।
जैसा कि सभी जानते हैं “भारत रत्न” भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है, फ़िर आता है पद्म विभूषण, पद्मभूषण और पद्मश्री आदि। अब तक कुल 41 लोगों को भारत रत्न का सम्मान दिया जा चुका है (यह संख्या 42 भी हो सकती थी, यदि “तकनीकी आधार”(??) पर खारिज किया गया सुभाषचन्द्र बोस का सम्मान भी गिन लिया जाता)। भारत रत्न प्रदान करने के लिये बाकायदा एक विशेषज्ञ समिति होती है जो यह तय करती है कि किसे यह सम्मान दिया जाना चाहिये और यह अनुशंसा राष्ट्रपति को भेजी जाती है, जिस पर वे अपनी सहमति देते हैं। इतनी भारी-भरकम समिति और उसमें तमाम पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी और इतिहासविद उपस्थित होने के बावजूद यदि भारत रत्न प्राप्त लोगों की लिस्ट देखी जाये तो कई अति-प्रतिष्ठित नाम उसमें नहीं मिलेंगे, जबकि कुछ “बेहद साधारण” किस्म के नाम भी इसमें देखे जा सकते हैं। चूंकि गाँधी को तो “राष्ट्रपिता” का दर्जा मिला हुआ है, इसलिये इस नाम को छोड़ भी दें, तो अंधे को भी साफ़ दिखाई दे सकता है कि भारत रत्न सम्मान प्राप्त करने के लिये सिर्फ़ निस्वार्थ भाव से देश की सेवा करना जरूरी नहीं है, इसके लिये सबसे पहली शर्त है नेहरु-गाँधी परिवार की चमचागिरी, दूसरी शर्त है “सेकुलरिज़्म का लबादा” और तीसरी तो यह कि या तो वह कलाकार इतने ऊँचे स्तर का हो कि कोई भी समिति उसका विरोध कर ही न सके, जैसे कि लता मंगेशकर, रविशंकर या पण्डित भीमसेन जोशी।
खिलाड़ियों, कलाकारों को छोड़ दिया जाये, तो जब राजनीति और समाजसेवा से जुड़े लोगों को ये नागरिक सम्मान दिये जाते हैं तब इनमें पहली और दूसरी शर्त सबसे महत्वपूर्ण होती है। यहाँ तक कि खिलाड़ियों और कलाकारों के सम्बन्ध में भी एक अदृश्य शर्त तो यह होती ही है कि उसने कभी भी “हिन्दुत्व” के सम्बन्ध में कोई खुल्लमखुल्ला बयान न दिया हो, कभी संघ-भाजपा के कार्यक्रम में न गया हो (क्योंकि ये अछूत हैं)…और सबसे बड़ी बात, कि गाँधी परिवार का कभी खुला विरोध न किया हो। मैं जानता हूं कि इन सम्मानों में क्षेत्रवाद, जातिवाद, सेकुलरवाद आदि की बातें करने से कुछ “कथित बुद्धिजीवियों” की भौंहें तन सकती हैं, लेकिन कुछ बिन्दु आपके सामने रख रहा हूं जिससे पूरी तरह से खुलासा हो जायेगा कि ये सम्मान निहायत ही पक्षपाती, राजनीति से प्रेरित और एक खास परिवार या विचारधारा के लोगों के लिये आरक्षित हैं –
1) देश की आज़ादी के आंदोलन को सबसे महत्वपूर्ण आहुति देने वाले, अंग्रेजों के साथ-साथ कांग्रेस का खुला विरोध करने वाले वीर दामोदर सावरकर को अभी तक यह पुरस्कार नहीं दिया गया है, बल्कि मणिशंकर अय्यर जैसे लोग तो अंडमान में भी इनकी समाधि की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं कर पाते – कारण सिर्फ़ एक, उनके “हिन्दुत्ववादी विचार”, लेकिन इससे उनके अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ी गई लड़ाई का महत्व कम नहीं हो जाता।
2) आज़ादी के बाद सभी रियासतों को अपने बल, बुद्धि और चातुर्य के बल पर भारत संघ में मिलाने वाले सरदार वल्लभाई पटेल को भारत रत्न दिया गया 1991 में। इंदिरा गाँधी, मदर टेरेसा और एमजीआर के बहुत बाद। कारण सिर्फ़ एक – उनकी विचारधारा कभी भी गाँधी परिवार से मेल नहीं खाई, नेहरु की उन्होंने कई बार (चीन के साथ एकतरफ़ा मधुर सम्बन्धों तथा हज सबसिडी की) खुलकर आलोचना भी की।
3) संविधान के निर्माता के रूप में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अम्बेडकर को यह पुरस्कार मिला 1990 में, वह भी इसलिये कि तब तक देश में “दलित आंदोलन” एक मजबूत वोट बैंक का रूप ले चुका था, वरना तब भी नहीं मिलता, क्योंकि ये महानुभाव भी देश की वर्तमान परिस्थिति के लिये नेहरुवादी नीतियों को जिम्मेदार मानते थे, तथा देश में ब्राह्मणवाद फ़ैलाने के लिये कांग्रेस की आलोचना करते थे।
4) मौलाना आज़ाद ने खुद ही भारत रत्न लेने से इसलिये मना कर दिया क्योंकि उनके अनुसार सरकार में मौजूद प्रभावशाली लोगों तथा समिति के सदस्य होने के नाते यह उनका नैतिक अधिकार नहीं था, जबकि नेहरु ने 1955 में ही भारत रत्न “हथिया” लिया। उनकी बेटी ने भी इसी परम्परा को जारी रखा और 1971 में (पाकिस्तान के 90000 सैनिकों को मुफ़्त में छोड़ने और बकवास टाइप शिमला समझौता करने के बावजूद) खुद ही भारत रत्न ले लिया, और पायलटी करते-करते “उड़कर” प्रधानमंत्री बने, इनके बेटे को भी मौत के बाद सहानुभूति के चलते 1991 में फ़ोकट में ही (“जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है” जैसे बयान और शाहबानो मामले में वोटबैंक जुगाड़ू, ढीलाढाला और देशघाती रवैया अपनाने तथा अपनी मूर्खतापूर्ण विदेशनीति के चलते श्रीलंका में शान्ति सेना के नाम पर हजारों भारतीय सैनिक मरवाने के बावजूद) भारत रत्न दे दिया गया।
5) जयप्रकाश नारायण, जिन्होंने कांग्रेस की चूलें पूरे देश से हिलाने में बड़ी भूमिका निभाई, उन्हें 1999 में यह सम्मान मिला, जबकि सिर्फ़ तमिलनाडु के लिये आजीवन काम करने वाले एमजी रामचन्द्रन को 1988 में ही मिल गया था, क्योंकि उस समय कांग्रेस को तमिल वोटों को लुभाना था।
ये थे चन्द उदाहरण, कि सन् 1980-85 तक तो भारत रत्न उसे ही मिल सकता था, जो या तो कांग्रेस का सदस्य हो, या गाँधी परिवार का चमचा हो या फ़िर अपवाद स्वरूप कोई बहुत बड़ा कलाकार अथवा नोबल विजेता। लेकिन जिस किसी व्यक्ति ने कांग्रेस का विरोध किया अथवा कोई जन-आंदोलन चलाया उसे अपने जीवनकाल में भारत रत्न तो नहीं मिलने दिया गया, मरणोपरांत ही मिला। कश्मीर में अपनी जान लड़ाने वाले (बल्कि जान गंवाने वाले) डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जिन्होंने शेख अब्दुल्ला को कश्मीर हथियाने से रोका, विभिन्न विवादास्पद कानूनों का विरोध किया उन्हें भारत रत्न देना तो दूर, संदेहास्पद स्थितियों में हुई उनकी मौत की नेहरु ने विधिवत जाँच तक नहीं करवाई। जबकि जिस तरह से “भड़ैती मीडिया” सोनिया मैडम के “त्याग और बलिदान” के किस्से गढ़ रहा है, जल्दी ही उन्हें भी भारत रत्न देने की नौबत आ जायेगी, पीछे-पीछे देश के “कथित युवा भविष्य” राहुल गाँधी हैं ही, एक उनके लिये भी…।
यह तो हुई भारत रत्न की बात, जो कि देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है और जिसे विदेशों में भी अच्छी निगाह से देखा जाता है, कम से कम इसमें तो राजनीति नहीं होना चाहिये, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और कांग्रेसी घिनौनी चालें सतत चलती रहीं। पद्म विभूषण हों, पद्मभूषण अथवा पद्मश्री, सारे पुरस्कार मनमर्जी से “बादशाहों” की तर्ज पर बाँटे गये हैं। प्रणब मुखर्जी को सिर्फ़ “सोनिया भक्ति” की वजह से 2008 में पद्मविभूषण, पत्रकार रामचन्द्र गुहा को सिर्फ़ और सिर्फ़ भाजपा-संघ विरोध की वजह से और इसी तर्ज पर राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त या महेश भट्ट-शबाना आज़मी को “सेकुलर” वजहों से खैरात बाँटी गई हैं, और ऐसे नाम सैकड़ों की संख्या में हैं।
अपने पाँच वर्षीय कार्यकाल के दौरान वाजपेयी चाहते तो श्यामाप्रसाद मुखर्जी, सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय, कुशाभाऊ ठाकरे आदि को पुरस्कृत कर सकते थे, लेकिन वे सदाशयता के नाते चाहते थे कि इस सर्वोच्च सम्मान में राजनीति नहीं होना चाहिये और कोई भाजपा सरकार पर उंगली न उठाये, लेकिन उनके इस रवैये की फ़िर भी कोई तारीफ़ मीडिया ने नहीं की। आज की तारीख में अटलबिहारी वाजपेयी का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा, कभी भी कुछ भी हो सकता है ऐसे में वे “सही अर्थों में भारत के प्रथम गैर-कांग्रेसी” प्रधानमंत्री और राजनीति में बेदाग 50 वर्ष पूर्ण करने के नाते भारत रत्न के एकमात्र जीवित हकदार हैं, लेकिन उन्हें यह मिलेगा नहीं (कम से कम जीवित रहते)। पिछले तीनों भारत रत्न कलाकारों को ही मिले हैं (क्योंकि अब यही लोग थोड़े गैर-विवादास्पद बचे हैं)… और मान लिया जाये कि यदि किसी राजनैतिक व्यक्ति को यह सम्मान मिलने की बारी आई भी, तब भी ज्योति बसु का नम्बर पहले लग जायेगा (भले ही वे कभी बंगाल से बाहर चुनाव नहीं लड़े हों या सिर्फ़ एक राज्य के मुख्यमंत्री भर रहे हों), लेकिन वाजपेयी को भारत रत्न तो कतई नहीं। खैर… संघ-भाजपा से सम्बन्ध रखने वालों को “अछूत” बनाये रखने की यह परम्परा कई वर्षों से चली आ रही है, अब इसमें आश्चर्य नहीं होता।
आश्चर्य तो इस बात का है कि इस वर्ष के पुरस्कारों में “संगीत के बेताज बादशाह” इलैया राजा को एआर रहमान के समकक्ष रखा गया है, जबकि देखा जाये तो रहमान उनके सामने “शब्दशः” बच्चे हैं और इलैया राजा के महान योगदान के सामने कुछ भी नहीं (शायद रहमान को “झोंपड़पट्टी वाला करोड़पति कुत्ता” फ़िल्म में पश्चिम द्वारा मिली तारीफ़ की वजह से दिया होगा), जबकि हिरण मारने वाले सैफ़ अली को वरिष्ठ अभिनेता धर्मेन्द्र और सनी देओल पर भी तरजीह दे दी गई (क्योंकि धर्मेन्द्र भाजपा सांसद रहे)।
आश्चर्य तो इस साल घोषित सम्मानों की लिस्ट में अमेरिकी NRI होटल व्यवसायी चटवाल का नाम देखकर भी हुआ है। जिस व्यक्ति पर स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के करोड़ों रुपये के गबन और हेराफ़ेरी का मामला चल चुका हो, जो व्यक्ति एक बार गिरफ़्तार भी हो चुका हो, पता नहीं उसे किस आधार पर पद्म पुरस्कार के लायक समझा गया है (शायद अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में अच्छा चन्दा दिया होगा, या मनमोहन-चिदम्बरम की उम्दा खातिरदारी की होगी इसने)। खैर, कांग्रेस द्वारा “भ्रष्टों को संरक्षण” देने की परम्परा तो शुरु से रही है, चाहे जस्टिस रामास्वामी का महाभियोग मामला हो या जस्टिस दिनाकरन के महाभियोग प्रस्ताव में कांग्रेसी सांसदों का दस्तखत न करना रहा हो।
धीरे-धीरे हमें ऐसे पुरस्कारों की भी आदत डाल लेना चाहिये, क्योंकि जब राठौर और आरके शर्मा जैसे “महादागी” पुलिस अफ़सर भी राष्ट्रपति पदक “जुगाड़” सकते हैं, तो पप्पू यादव, शहाबुद्दीन, अरुण गवली, दाऊद इब्राहीम आदि को भी किसी दिन “पद्मश्री” मिल सकता है… लेकिन वीर सावरकर, तिलक, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, अटलबिहारी वाजपेयी को कभी नहीं… क्योंकि इन लोगों का “जुर्म” अधिक बड़ा है… इन्होंने कांग्रेस-नेहरु-गाँधी परिवार का विरोध और हिन्दुत्व का समर्थन किया है… जो इस देश में “बहुत बड़ा और अक्षम्य अपराध” है… जय हो।
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जैसा कि सभी जानते हैं “भारत रत्न” भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है, फ़िर आता है पद्म विभूषण, पद्मभूषण और पद्मश्री आदि। अब तक कुल 41 लोगों को भारत रत्न का सम्मान दिया जा चुका है (यह संख्या 42 भी हो सकती थी, यदि “तकनीकी आधार”(??) पर खारिज किया गया सुभाषचन्द्र बोस का सम्मान भी गिन लिया जाता)। भारत रत्न प्रदान करने के लिये बाकायदा एक विशेषज्ञ समिति होती है जो यह तय करती है कि किसे यह सम्मान दिया जाना चाहिये और यह अनुशंसा राष्ट्रपति को भेजी जाती है, जिस पर वे अपनी सहमति देते हैं। इतनी भारी-भरकम समिति और उसमें तमाम पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी और इतिहासविद उपस्थित होने के बावजूद यदि भारत रत्न प्राप्त लोगों की लिस्ट देखी जाये तो कई अति-प्रतिष्ठित नाम उसमें नहीं मिलेंगे, जबकि कुछ “बेहद साधारण” किस्म के नाम भी इसमें देखे जा सकते हैं। चूंकि गाँधी को तो “राष्ट्रपिता” का दर्जा मिला हुआ है, इसलिये इस नाम को छोड़ भी दें, तो अंधे को भी साफ़ दिखाई दे सकता है कि भारत रत्न सम्मान प्राप्त करने के लिये सिर्फ़ निस्वार्थ भाव से देश की सेवा करना जरूरी नहीं है, इसके लिये सबसे पहली शर्त है नेहरु-गाँधी परिवार की चमचागिरी, दूसरी शर्त है “सेकुलरिज़्म का लबादा” और तीसरी तो यह कि या तो वह कलाकार इतने ऊँचे स्तर का हो कि कोई भी समिति उसका विरोध कर ही न सके, जैसे कि लता मंगेशकर, रविशंकर या पण्डित भीमसेन जोशी।
खिलाड़ियों, कलाकारों को छोड़ दिया जाये, तो जब राजनीति और समाजसेवा से जुड़े लोगों को ये नागरिक सम्मान दिये जाते हैं तब इनमें पहली और दूसरी शर्त सबसे महत्वपूर्ण होती है। यहाँ तक कि खिलाड़ियों और कलाकारों के सम्बन्ध में भी एक अदृश्य शर्त तो यह होती ही है कि उसने कभी भी “हिन्दुत्व” के सम्बन्ध में कोई खुल्लमखुल्ला बयान न दिया हो, कभी संघ-भाजपा के कार्यक्रम में न गया हो (क्योंकि ये अछूत हैं)…और सबसे बड़ी बात, कि गाँधी परिवार का कभी खुला विरोध न किया हो। मैं जानता हूं कि इन सम्मानों में क्षेत्रवाद, जातिवाद, सेकुलरवाद आदि की बातें करने से कुछ “कथित बुद्धिजीवियों” की भौंहें तन सकती हैं, लेकिन कुछ बिन्दु आपके सामने रख रहा हूं जिससे पूरी तरह से खुलासा हो जायेगा कि ये सम्मान निहायत ही पक्षपाती, राजनीति से प्रेरित और एक खास परिवार या विचारधारा के लोगों के लिये आरक्षित हैं –
1) देश की आज़ादी के आंदोलन को सबसे महत्वपूर्ण आहुति देने वाले, अंग्रेजों के साथ-साथ कांग्रेस का खुला विरोध करने वाले वीर दामोदर सावरकर को अभी तक यह पुरस्कार नहीं दिया गया है, बल्कि मणिशंकर अय्यर जैसे लोग तो अंडमान में भी इनकी समाधि की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं कर पाते – कारण सिर्फ़ एक, उनके “हिन्दुत्ववादी विचार”, लेकिन इससे उनके अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ी गई लड़ाई का महत्व कम नहीं हो जाता।
2) आज़ादी के बाद सभी रियासतों को अपने बल, बुद्धि और चातुर्य के बल पर भारत संघ में मिलाने वाले सरदार वल्लभाई पटेल को भारत रत्न दिया गया 1991 में। इंदिरा गाँधी, मदर टेरेसा और एमजीआर के बहुत बाद। कारण सिर्फ़ एक – उनकी विचारधारा कभी भी गाँधी परिवार से मेल नहीं खाई, नेहरु की उन्होंने कई बार (चीन के साथ एकतरफ़ा मधुर सम्बन्धों तथा हज सबसिडी की) खुलकर आलोचना भी की।
3) संविधान के निर्माता के रूप में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अम्बेडकर को यह पुरस्कार मिला 1990 में, वह भी इसलिये कि तब तक देश में “दलित आंदोलन” एक मजबूत वोट बैंक का रूप ले चुका था, वरना तब भी नहीं मिलता, क्योंकि ये महानुभाव भी देश की वर्तमान परिस्थिति के लिये नेहरुवादी नीतियों को जिम्मेदार मानते थे, तथा देश में ब्राह्मणवाद फ़ैलाने के लिये कांग्रेस की आलोचना करते थे।
4) मौलाना आज़ाद ने खुद ही भारत रत्न लेने से इसलिये मना कर दिया क्योंकि उनके अनुसार सरकार में मौजूद प्रभावशाली लोगों तथा समिति के सदस्य होने के नाते यह उनका नैतिक अधिकार नहीं था, जबकि नेहरु ने 1955 में ही भारत रत्न “हथिया” लिया। उनकी बेटी ने भी इसी परम्परा को जारी रखा और 1971 में (पाकिस्तान के 90000 सैनिकों को मुफ़्त में छोड़ने और बकवास टाइप शिमला समझौता करने के बावजूद) खुद ही भारत रत्न ले लिया, और पायलटी करते-करते “उड़कर” प्रधानमंत्री बने, इनके बेटे को भी मौत के बाद सहानुभूति के चलते 1991 में फ़ोकट में ही (“जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है” जैसे बयान और शाहबानो मामले में वोटबैंक जुगाड़ू, ढीलाढाला और देशघाती रवैया अपनाने तथा अपनी मूर्खतापूर्ण विदेशनीति के चलते श्रीलंका में शान्ति सेना के नाम पर हजारों भारतीय सैनिक मरवाने के बावजूद) भारत रत्न दे दिया गया।
5) जयप्रकाश नारायण, जिन्होंने कांग्रेस की चूलें पूरे देश से हिलाने में बड़ी भूमिका निभाई, उन्हें 1999 में यह सम्मान मिला, जबकि सिर्फ़ तमिलनाडु के लिये आजीवन काम करने वाले एमजी रामचन्द्रन को 1988 में ही मिल गया था, क्योंकि उस समय कांग्रेस को तमिल वोटों को लुभाना था।
ये थे चन्द उदाहरण, कि सन् 1980-85 तक तो भारत रत्न उसे ही मिल सकता था, जो या तो कांग्रेस का सदस्य हो, या गाँधी परिवार का चमचा हो या फ़िर अपवाद स्वरूप कोई बहुत बड़ा कलाकार अथवा नोबल विजेता। लेकिन जिस किसी व्यक्ति ने कांग्रेस का विरोध किया अथवा कोई जन-आंदोलन चलाया उसे अपने जीवनकाल में भारत रत्न तो नहीं मिलने दिया गया, मरणोपरांत ही मिला। कश्मीर में अपनी जान लड़ाने वाले (बल्कि जान गंवाने वाले) डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जिन्होंने शेख अब्दुल्ला को कश्मीर हथियाने से रोका, विभिन्न विवादास्पद कानूनों का विरोध किया उन्हें भारत रत्न देना तो दूर, संदेहास्पद स्थितियों में हुई उनकी मौत की नेहरु ने विधिवत जाँच तक नहीं करवाई। जबकि जिस तरह से “भड़ैती मीडिया” सोनिया मैडम के “त्याग और बलिदान” के किस्से गढ़ रहा है, जल्दी ही उन्हें भी भारत रत्न देने की नौबत आ जायेगी, पीछे-पीछे देश के “कथित युवा भविष्य” राहुल गाँधी हैं ही, एक उनके लिये भी…।
यह तो हुई भारत रत्न की बात, जो कि देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है और जिसे विदेशों में भी अच्छी निगाह से देखा जाता है, कम से कम इसमें तो राजनीति नहीं होना चाहिये, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और कांग्रेसी घिनौनी चालें सतत चलती रहीं। पद्म विभूषण हों, पद्मभूषण अथवा पद्मश्री, सारे पुरस्कार मनमर्जी से “बादशाहों” की तर्ज पर बाँटे गये हैं। प्रणब मुखर्जी को सिर्फ़ “सोनिया भक्ति” की वजह से 2008 में पद्मविभूषण, पत्रकार रामचन्द्र गुहा को सिर्फ़ और सिर्फ़ भाजपा-संघ विरोध की वजह से और इसी तर्ज पर राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त या महेश भट्ट-शबाना आज़मी को “सेकुलर” वजहों से खैरात बाँटी गई हैं, और ऐसे नाम सैकड़ों की संख्या में हैं।
अपने पाँच वर्षीय कार्यकाल के दौरान वाजपेयी चाहते तो श्यामाप्रसाद मुखर्जी, सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय, कुशाभाऊ ठाकरे आदि को पुरस्कृत कर सकते थे, लेकिन वे सदाशयता के नाते चाहते थे कि इस सर्वोच्च सम्मान में राजनीति नहीं होना चाहिये और कोई भाजपा सरकार पर उंगली न उठाये, लेकिन उनके इस रवैये की फ़िर भी कोई तारीफ़ मीडिया ने नहीं की। आज की तारीख में अटलबिहारी वाजपेयी का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा, कभी भी कुछ भी हो सकता है ऐसे में वे “सही अर्थों में भारत के प्रथम गैर-कांग्रेसी” प्रधानमंत्री और राजनीति में बेदाग 50 वर्ष पूर्ण करने के नाते भारत रत्न के एकमात्र जीवित हकदार हैं, लेकिन उन्हें यह मिलेगा नहीं (कम से कम जीवित रहते)। पिछले तीनों भारत रत्न कलाकारों को ही मिले हैं (क्योंकि अब यही लोग थोड़े गैर-विवादास्पद बचे हैं)… और मान लिया जाये कि यदि किसी राजनैतिक व्यक्ति को यह सम्मान मिलने की बारी आई भी, तब भी ज्योति बसु का नम्बर पहले लग जायेगा (भले ही वे कभी बंगाल से बाहर चुनाव नहीं लड़े हों या सिर्फ़ एक राज्य के मुख्यमंत्री भर रहे हों), लेकिन वाजपेयी को भारत रत्न तो कतई नहीं। खैर… संघ-भाजपा से सम्बन्ध रखने वालों को “अछूत” बनाये रखने की यह परम्परा कई वर्षों से चली आ रही है, अब इसमें आश्चर्य नहीं होता।
आश्चर्य तो इस बात का है कि इस वर्ष के पुरस्कारों में “संगीत के बेताज बादशाह” इलैया राजा को एआर रहमान के समकक्ष रखा गया है, जबकि देखा जाये तो रहमान उनके सामने “शब्दशः” बच्चे हैं और इलैया राजा के महान योगदान के सामने कुछ भी नहीं (शायद रहमान को “झोंपड़पट्टी वाला करोड़पति कुत्ता” फ़िल्म में पश्चिम द्वारा मिली तारीफ़ की वजह से दिया होगा), जबकि हिरण मारने वाले सैफ़ अली को वरिष्ठ अभिनेता धर्मेन्द्र और सनी देओल पर भी तरजीह दे दी गई (क्योंकि धर्मेन्द्र भाजपा सांसद रहे)।
आश्चर्य तो इस साल घोषित सम्मानों की लिस्ट में अमेरिकी NRI होटल व्यवसायी चटवाल का नाम देखकर भी हुआ है। जिस व्यक्ति पर स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के करोड़ों रुपये के गबन और हेराफ़ेरी का मामला चल चुका हो, जो व्यक्ति एक बार गिरफ़्तार भी हो चुका हो, पता नहीं उसे किस आधार पर पद्म पुरस्कार के लायक समझा गया है (शायद अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में अच्छा चन्दा दिया होगा, या मनमोहन-चिदम्बरम की उम्दा खातिरदारी की होगी इसने)। खैर, कांग्रेस द्वारा “भ्रष्टों को संरक्षण” देने की परम्परा तो शुरु से रही है, चाहे जस्टिस रामास्वामी का महाभियोग मामला हो या जस्टिस दिनाकरन के महाभियोग प्रस्ताव में कांग्रेसी सांसदों का दस्तखत न करना रहा हो।
धीरे-धीरे हमें ऐसे पुरस्कारों की भी आदत डाल लेना चाहिये, क्योंकि जब राठौर और आरके शर्मा जैसे “महादागी” पुलिस अफ़सर भी राष्ट्रपति पदक “जुगाड़” सकते हैं, तो पप्पू यादव, शहाबुद्दीन, अरुण गवली, दाऊद इब्राहीम आदि को भी किसी दिन “पद्मश्री” मिल सकता है… लेकिन वीर सावरकर, तिलक, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, अटलबिहारी वाजपेयी को कभी नहीं… क्योंकि इन लोगों का “जुर्म” अधिक बड़ा है… इन्होंने कांग्रेस-नेहरु-गाँधी परिवार का विरोध और हिन्दुत्व का समर्थन किया है… जो इस देश में “बहुत बड़ा और अक्षम्य अपराध” है… जय हो।
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