क्या NGOs, प्रधानमंत्री और न्यायपालिका से ऊँचे और साफ़-सुथरे हैं?......
16 अगस्त से "टीम अण्णा"(?) दिल्ली में जनलोकपाल के लिए आंदोलन करने वाली है। इस महत्वपूर्ण
घटना से पहले ही एक ऐसी बात सामने आई है जो इस टीम के "पाखण्डी" चेहरे को उजागर करने
के लिए काफ़ी है। सिविल सोसायटी के सदस्य लगातार प्रधानमंत्री और उच्च स्तर की
न्यायपालिका को भी जनलोकपाल के दायरे में लाने की माँग कर रहे हैं, लेकिन हैरानी की बात यह है कि यह सोसायटी NGO's
(गैर सरकारी संगठन) को जनलोकपाल की जाँच
के दायरे से बाहर रखना चाहती है।
यह बात उस समय उभरकर सामने आई, जब बुधवार (10 अगस्त) शाम को सरकारी लोकपाल बिल पर विचार करने वाली संसद की स्थाई समिति के सामने सिविल सोसायटी के
सदस्य अपने विचार एवं दृष्टिकोण रखने को पेश हुए। इस मीटिंग में उपस्थित विश्वस्त सूत्रों के
अनुसार प्रशान्त भूषण ने स्थायी समिति में सुझाव(?) दिया कि लोकपाल के दायरे से सभी NGOs को बाहर रखा जाए। जब समिति के सदस्यों ने इस पर आपत्ति जताई और
कहा कि "सभी NGOs आसमान से उतरे हुए फ़रिश्ते नहीं
होते, बल्कि बड़ी संख्या में NGOs
लुटेरे और ठग भी हैं…" तब हड़बड़ाये हुए भूषण ने प्रस्ताव रखा कि "लोकपाल
के दायरे में सिर्फ़ वही NGOs आयें जिन्हें
केन्द्र या राज्य सरकार से कोई आर्थिक मदद मिलती है…" (यानी क्या सिविल सोसायटी मानती है कि प्रायवेट
दानदाताओं से पैसा लेने वाले NGOs, प्रधानमंत्री
से बड़े और पवित्र हैं?)
प्रशान्त भूषण ने आगे कहा कि जो NGOs राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से पैसा लेते हैं और बिना
सरकारी मदद के चलते हैं उन्हें लोकपाल के दायरे में लाने की आवश्यकता नहीं है। उनका कहना है कि यदि कोई
NGO मित्रों एवं शुभचिंतकों से प्राप्त धनराशि का
गलत इस्तेमाल या घोटाला करता है तो उसके खिलाफ़ न्यायालयीन प्रक्रिया है, लोकपाल को इसकी जाँच नहीं करना चाहिए। है ना मजेदार दोहरा मापदण्ड?
भूषण साहब के अनुसार प्रधानमंत्री या
सुप्रीम कोर्ट का जज घपला करे तो वह जाँच योग्य है लेकिन लाखों रुपये का चन्दा प्राप्त करने वाले NGOs की जाँच लोकपाल नहीं करेगा? जबकि अब तो यह स्थापित तथ्य है कि भारत में काम कर रहे
लाखों NGOs ऐसे हैं जो विदेशों
से लाखों रुपए प्राप्त करते हैं, कुछ NGOs
देश विरोधी गतिविधियाँ चलाते हैं,
कुछ NGOs बड़े बाँधों का विरोध करके खामख्वाह अराजकता फ़ैलाते हैं,
कुछ NGOs "साम्प्रदायिकता" के विरोध और धर्मनिरपेक्षता को
बढ़ावा देने के नाम पर "व्यक्ति
विशेष या राज्य विशेष" के खिलाफ़ झूठे हलफ़नामे दायर करते रहते हैं, कई NGOs ऐसे हैं जो सीधे वेटिकन और इटली से डॉलरों में चन्दा
प्राप्त करके आदिवासी
व पिछड़े इलाकों में "धर्मान्तरण" में जुटे हैं, कुछ NGOs "मानवाधिकार" के नाम पर चन्दा प्राप्त करते हैं और
उसे कश्मीर के अलगाववादियों के समर्थन में हवा बनाने के लिए फ़ूंक देते हैं… जबकि कई NGOs ऐसे हैं जो सिर्फ़ "आर्थिक धोखाधड़ी" करते हैं,
जैसे कि पर्यावरण, जल संवर्धन, बाल मजदूरी, एड्स इत्यादि विषयों पर करोड़ों रुपए चट कर जाते हैं लेकिन काम सिर्फ़ "कागजों" पर ही
करते हैं। आये दिन ऐसे कई NGOs सुप्रीम कोर्ट की लताड़ खाते रहते हैं, ऐसे
"फ़र्जी", "नकली"
और "धोखेबाज" NGOs
को लोकपाल के दायरे में क्यों नहीं लाना
चाहिए? इसका जवाब तो भूषण पिता-पुत्र,
अग्निवेश, संदीप पाण्डेय, तीस्ता सीतलवाड जैसी "विभूतियाँ" ही ठीक प्रकार से दे पाएंगी।
टीम अण्णा में शामिल एवं जनलोकपाल बिल का सक्रिय समर्थन करने वाले सभी
महानुभावों को एक शपथ-पत्र दायर करके जनता को बताना चाहिए कि वे लोग कितने-कितने NGOs
में शामिल हैं?, किसी NGOs के डायरेक्टर हैं या नहीं? विदेशों
से उन NGOs को अब तक कितना पैसा प्राप्त हुआ है?
यदि सिविल सोसायटी के सदस्यों का कोई NGO
काफ़ी पहले से चल रहा है तो उसे केन्द्र या राज्य सरकार
ने कितनी मदद दी है, चाहे जमीन के रूप में हो या चन्दे
के रूप में? इन ईमानदार
महानुभावों ने अपने-अपने NGO स्थापित करते समय, उसकी कार्य रिपोर्ट पेश करते समय सरकारी बाबुओं को
कितनी रिश्वत दी, इसका खुलासा भी वे करें? फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन के कर्ताधर्ता अण्णा के
आंदोलन में इतने सक्रिय क्यों हैं? अमेरिका के राजनयिक को अण्णा के आंदोलन के
समर्थन में बयान देने की दिलचस्पी और जल्दबाजी क्यों है? ऐसे कई प्रश्नों के उत्तर जनता चाहेगी… ताकि
सिविल सोसायटी "साफ़-सुथरी" दिखाई दे।
संयोग देखिए, कि हजारे साहब के "इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आंदोलन" को दान और
चन्दा देने वालों
में बड़े ही हाई-प्रोफ़ाइल किस्म के दानदाता शामिल हैं, जिसमें प्रमुख हैं लेहमैन ब्रदर्स, भारती वालमार्ट, कई प्रायवेट कम्पनियाँ एवं उनके CEO तथा कुछ निजी बैंक भी। मुझे नहीं पता कि
लेहमैन ब्रदर्स अथवा फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन की "ईमानदारी" और “नैतिकता” का स्तर क्या है? परन्तु इतना तो तय है कि इस आंदोलन को मिलने वाले
समर्थन के पीछे
एक बहुत बड़ी NGO लॉबी काम कर रही
है।
एक-दो दिन पहले ही अग्निवेश ने बयान दे मारा कि प्रधानमंत्री को
लोकपाल के दायरे से बाहर रखने के मुद्दे पर सिविल सोसायटी का रुख लचीला रहेगा…। ऐसा लगता है कि बाबा रामदेव से "अछूत" सा व्यवहार करने
और मंच से "अखण्ड भारत के चित्र वाली भारत माता" का चित्र हटाने वाले अण्णा हजारे के चारों तरफ़ जो हिन्दुत्व विरोधी
"चौकड़ी" बैठी है वह ऐन मौके पर कोई न कोई "टेढ़ा-मेढ़ा गुल"
अवश्य खिलाएगी…। बाबा रामदेव के आंदोलन को कमजोर करके,
भगवा रंग से नफ़रत करके, NGOs की फ़ौज के हितों की रक्षा करने वालों का चेहरा भी जल्दी ही सामने आएगा…। बाबा रामदेव के मंच का उपयोग करके अपना चेहरा “चमकाने”, फ़िर बाबा रामदेव को “भगवाधारी” कहकर दुत्कारने वालों तथा गाँधीटोपीधारी "सो
कॉल्ड सेकुलरिज़्म" भी समय आने पर बेनकाब हो जाएगा। NGOs
की गैंग ने, सत्ताकेन्द्र पर
स्थित जिस “अदृश्य शक्ति” के साथ मिलकर, बाबा
रामदेव को आंदोलन को फ़ेल किया है समय आने पर उनके कच्चे चिठ्ठे भी अपने-आप जनता के
सामने खुल जाएंगे…। (यहाँ देखिये… Won't Share Stage with Baba Ramdev..)
अण्णा ने अपने अनशन (भाग-1) में तो रामदेव बाबा और उमा भारती
से दूरी बनाए रखी ही थी, बदली हुई परिस्थितियों में रामदेव बाबा को दिल्ली से
खदेड़ने के बाद भी अण्णा ने अपने अनशन (पार्ट-2) में भी “सेकुलर सलाहकारों” की वजह से बाबा रामदेव को बड़ी सफ़ाई से अपने
मंच से दूर रखा है, ऐसा विद्वेष रखने के बावजूद वे चाहते हैं कि उनका साथ दिया जाए?
जबकि वास्तविकता तो यही है कि अण्णा के आंदोलन का “बेस” तो बाबा रामदेव ने ही तैयार किया है…।
जो लोग इस मुगालते में हैं कि जनता “अण्णा” के साथ है वे अपना मुगालता दूर कर लें… जनता
भ्रष्ट तंत्र से निराश है, जनता वर्तमान व्यवस्था से नाराज़ है, इसलिए वह “अंधों में काने राजा” के पीछे चल पड़ी है, परन्तु इस “काने राजा” के चारों तरफ़ जो मण्डली है, वह “सभी को साथ लेकर चलने में विश्वास नहीं रखती”, इसलिए एक बड़ा वर्ग बेमन से इनका साथ दे रहा है, जबकि एक और बड़ा वर्ग
इनसे स्पष्ट दूरी बनाये हुए है। संदेश साफ़ है कि, NGO पोषित एवं इलेक्ट्रानिक/प्रिण्ट मीडिया द्वारा
“हवा भरकर फ़ुलाया गया” यह आंदोलन, तब तक सफ़ल
होने की कोई उम्मीद नहीं है जब तक इसमें “हिन्दुत्व द्वेषी” और “भगवा” विरोधी तत्व हावी
रहेंगे। हमें भी देखना है कि बाबा रामदेव को रामलीला मैदान से खदेड़ने के बाद, सतत
उनके खिलाफ़ “निगेटिव कुप्रचार” करने वाला, जबकि अण्णा के नाम के कसीदे काढ़ने वाला, भाण्ड किस्म का
मीडिया “टीम अण्णा” को कितनी ऊपर ले जाता
है…
अण्णा के आंदोलन का समर्थन करने वाले इसके अंजाम या
अन्तिम परिणति के बारे में कोई बात नहीं करते। क्या जैसा जनलोकपाल अण्णा चाहते हैं
वैसा बन जाने पर हमें कांग्रेस नामक “खुजली” से निजात मिल जाएगी? यदि मिल भी जाएगी तो उसके विकल्प के रूप में कौन सी
राजनैतिक पार्टी है? जब अण्णा समर्थक खुल्लमखुल्ला भाजपा और हिन्दुत्व विरोधी हैं
तो क्या वे चाहते हैं कि “जनलोकपाल” तो बने, लेकिन
कांग्रेस भी बनी रहे, भाजपा न आने पाए? क्या जनलोकपाल स्विस बैंक से पैसा वापस ला
सकेगा? बहरहाल, तेल देखिये और तेल की धार देखिये… आगे-आगे क्या होता है… मुझे तो
बार-बार पीपली लाइव के “नत्था मानिकपुरी” की याद आ रही है…
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