इस्लाम में भीषण भेदभाव : अहमदिया मुस्लिमों से अछूत बर्ताव

Written by बुधवार, 01 मार्च 2017 11:12

पाकिस्तान में पैदा हुई पैंतीस वर्षीय एक औरत ताहिरा मकबूल ने अपने जीवन में पहली बार मतदान किया, वो भी भारत में. आप सोच रहे होंगे, इसमें हैरान करने वाली क्या बात है?? बात यह है कि ताहिरा मकबूल एक "अहमदिया मुसलमान" हैं.

इस लड़की की शादी 2003 में भारत के पंजाब में गुरदासपुर जिले के कादियां में हुई थी. इसके बाद भारत की नागरिकता प्राप्त करने में थोड़ा समय लग गया. लेकिन पंजाब में हुए हालिया विधानसभा चुनावों में अंततः ताहिरा ने अपने जीवन ला पहला वोट दे ही दिया. इससे पहले ताहिरा बाईस वर्ष तक पाकिस्तान में रहीं, बालिग़ होने के बाद उनके सामने पाकिस्तान में स्थानीय-क्षेत्रीय तीन चुनाव हुए, लेकिन उन्हें कभी भी मतदान नहीं करने दिया गया क्योंकि पाकिस्तान में अहमदिया सम्प्रदाय को लोकतंत्र से बाहर रखा गया है. बंधुत्व, भाईचारे और अमन की बात करने वाले इस्लामी मुल्कों में "अहमदिया" लोगों को अछूत और निकृष्ट निगाह से देखा जाता है.  

ahmadiya

 

ताज़ा-ताज़ा दूसरी घटना इस प्रकार है कि इस बार एक ऑस्कर अवार्ड फिल्म 'मूनलाइट' के लिए बेस्ट सपॉर्टिंग ऐक्टर के रूप में महरशेला अली को मिला है. इस पर पाकिस्तान में विवाद खड़ा हो गया है कि कि महर्शेला अली मुस्लिम हैं या नहीं हैं. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में कहा गया कि अली ऐक्टिंग के लिए ऑस्कर पाने वाले पहले मुस्लिम हैं. परन्तु महरशेला अली अहमदिया संप्रदाय से ताल्लुक रखते हैं. पाकिस्तान समेत कई प्रमुख मुस्लिम देशों में अहमदियों को गैरमुस्लिम माना जाता है. यूनाइटेड नेशन में पाकिस्तान की दूत मलीहा लोधी ने सोमवार को ट्वीट करके अली को ऐक्टिंग के लिए ऑस्कर जीतने वाला पहला मुस्लिम बताया था, लेकिन जब मुल्लों ने उनके इस ट्वीट का स्क्रीनशॉट लेकर उनकी खिंचाई की तो इस अहमदिया एक्टर की तारीफ वाला ट्वीट उन्होंने डिलीट कर दिया.

जिन्हें पता ना हो, कि अहमदिया क्या होता है उन्हें बता दें कि 19वीं सदी के अंत में भारत में मिर्जा गुलाम अहमद ने इस पंथ की शुरुआत की थी. अहमदिया धर्म के अनुयायी गुलाम अहमद (1835-1908) को मुहम्मद के बाद एक और पैगम्बर मानते हैं. आम मोमिन चूँकि मुहम्मद को आखरी पैगम्बर मानते हैं, इसलिए वो लोग अहमदिया को मुसलमान ही नहीं मानते. ये उस दर्जे के अछूत माने जाते हैं, जिनकी तरफ देखना या उनका नाम लेना भी आम मोमिन को गवारा नहीं होता. सितंबर 1974 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने संविधान में संशोधन कर अहमदिया संप्रदाय को गैर मुस्लिम घोषित कर दिया था. इसके बाद पाकिस्तान में जमकर हिंसा हुई और हजारों अहमदिया परिवारों को बेघर होना पड़ा था. इस सांप्रदायिक हिंसा में कई जानें गई थीं.

साल 1984 में पाकिस्तान में फौजी हुकूमत ने “अहमदी” शब्द का उच्चारण करना भी अपराध घोषित कर दिया था. अभी भी अहमदिया समुदाय के लोगों को पाकिस्तान में पासपोर्ट के लिए आवेदन करते वक्त एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने होते हैं, जिसमें उन्हें घोषणा करनी पड़ती है कि वे वह गैरमुस्लिम हैं और मिर्जा तथा गुलाम अहमद मुस्लिमों के पैगंबर नहीं हैं. पाकिस्तान के अलावा मलेशिया जैसे इस्लामिक मुल्कों में अहमदियों को, कट्टरपंथी सुन्नी मुस्लिम समुदाय द्वारा विरोध का सामना करना पड़ता है. उन्हें काफिर कहा जाता है. ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाले अली अमेरिका में ईसाई धर्म में पैदा हुए थे, बाद में ग्रैजुएशन के आखिरी साल में उन्होंने अपनी महिला मित्र (जो कि बाद में उनकी पत्नी भी बनी) के कहने पर अहमदी मस्जिद में इस्लाम कबूल कर लिया था.

उल्लेखनीय है कि तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी तबका अक्सर हिन्दुओं में जाति व्यवस्था, छुआछूत और भेदभाव को लेकर ऊटपटांग बकवास करते रहते हैं, ऑस सामान्यतः इसके लिए ब्राह्मणों को दोषी ठहराते हैं, साथ ही ये सेकुलर-वामपंथी बुद्धिजीवी यह बताते भी नहीं थकते कि इस्लाम में कैसा “अदभुत भाईचारा” है, “इस्लाम में सभी लोग एक समान होते हैं... आदि-आदि. लेकिन जब उन्हें पाकिस्तान सहित दुसरे इस्लामी मुल्कों की यह तस्वीर दिखाई जाती है तो वे सिरे से गायब हो जाते हैं. क्योंकि उनका मकसद केवल हिन्दुओं को कोसना होता है, जबकि जाति व्यवस्था, छुआछूत और गैर-बराबरी सभी धर्मों-पंथों में समान रूप से बीमारी की तरह फ़ैली हुई है, अकेले हिन्दू ही दोषी नहीं हैं. पाकिस्तान में तो अहमदियों को वोट देने का अधिकार भी नहीं है, (देखें चित्र). जबकि भारत में दलितों की हालत दिनोंदिन बेहतर से बेहतर होती जा रही है, क्योंकि यह “सुधारवादी” हिन्दू धर्म है, जो “लोकतांत्रिक” भी है, कट्टरपंथी या एक किताब के अनुसार चलने वाला नहीं, बल्कि भारत की संविधान सभा के प्रमुख बाबा साहब आंबेडकर ही दलित थे.

इस्लाम में भी 72 फिरके बंटे हुए हैं, जिनके बारे में लोगों को जानकारी ही नहीं है, इसीलिए वे इस दुष्प्रचार के झाँसे में आ जाते हैं कि “केवल और केवल” हिन्दू धर्म में ही ऊंचनीच, जातिवाद या भेदभाव होता है. अन्यथा शिया, बोहरा, दाऊदी, अहमदिया, सलाफी, कासमी, हासमी, मंसूरी, ईदीरसी, जुलाहा, चिक, कसाई, दर्जी, कुजड़ा नाई, असकरी, बाकरी, हुसैनी, कासमी, तकवी, रिजवी, जयदी, अलवी, देहलवी, अब्बासी, जाफरी, हाशमी, आजमी, उस्मानी, सिद्धकी, फारुखी, खुरासानी, मलिकी, कीदवाई, ताजिक, तैमूरी, चंगवाई, बावर्ची, गद्दी, मोमिन शिकवा, फकीरी, अफरीदी, दुर्रानी, खलील, वकार, यूसुफजई, सलमानी, धुनिया, खुरेशी, तुर्कमान, तैजीब, शेख पठान, सैयद, हाजी, काजी, रहमानी, कीरमानी,सुल्तानी, अंसारी, खान, हजाम, जैद, इमाम, तैमूरी जैसे कई-कई खण्ड बंटे हुए हैं, जिनमें आपस में शादी-ब्याह तो छोड़िये, एक दुसरे के घर पानी तक नहीं पीते. हिन्दुओं में अब इतनी बुरी स्थिति नहीं रही, काफी सुधार हो चुका, बाकी भी हो रहा है.

ऐसे में सवाल उठाना स्वाभाविक है कि जब मुसलमान अपने ही फिरकों शिया और अहमदियों इत्यादि से इतना भयानक बर्ताव करते हैं, हिंसक व्यवहार करते हैं तो ये दलितों के दोस्त कैसे हो सकते हैं?? “जय भीम - जय मीम” का नारा बेहद खोखला है, यह बात यूपी विधानसभा चुनावों में खुद आज़म खान के बयान से परिलक्षित होती है, जिसमें उन्होंने कहा है कि बसपा को वोट देने की बजाय मुस्लिम समाज भाजपा को ही वोट दे दे. रही बात प्रगतिशील बुद्धिजीवियों अथवा सेकुलर-वामपंथी गिरोह की, तो इन्हें भारत को, हिंदुओं को खण्ड-खण्ड तोड़ने के लिए विदेशों और वेटिकन से पैसा मिलता है, इसीलिए ये लोग दलितों को भड़काने में लगे रहते हैं. परन्तु अब दुनिया छोटी हो गई है, दलित भी इस्लाम की हकीकत समझने लगे हैं और हिन्दू धर्म में उनकी तेजी से बढ़ती स्वीकार्यता का स्वागत भी करते हैं.

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