तथाकथित जातीय विद्वेष के झूठे किस्से-कहानियाँ किसने फैलाए?

Written by मंगलवार, 18 दिसम्बर 2018 19:25

आज से दो वर्ष पूर्व शूद्र वर्ण विमर्श नामक शोध कार्य को मैंने हाथ में लिया था। हालांकि इसका काफी हिस्सा साल वर्ष 2005 में पीएचडी के दौरान ही तैयार कर लिया था। पीएचडी में भारतीय प्रबंध चिन्तन मेरा विषय था। भारत में प्राचीन काल से अत्यंत सुन्दर प्रबंध प्रणाली रही थी जिसमें मानव संसाधन और मानव संबंध सिद्धांत से जुड़े वर्तमान पाश्चात्य चिन्तन को उत्पादन की उत्कृष्टता के सन्दर्भ में कहीं ज्यादा गहराई से रेखांकित किया गया था। इस प्राचीन भारतीय प्रबंधन में शूद्र वर्ण को लेकर अनेक प्रश्न खड़े किए जाते हैं। जिनके उत्पादन और सेवाओं के द्वारा प्राचीन काल से भारत समृद्धि के शिखर पर पहुंचा तो उन शूद्रों के बारे में यह बातें कहां से आ गईं कि उन्हें पढऩे के अधिकार से वंचित रखा जाता था, उनके साथ भेदभाव होता था, उनका उच्च जातियों ने भयानक शोषण किया। ऐसे अनेक सवाल जो हर किसी शोध अध्येता के मन में उठ सकते हैं, मेरे मन में भी तब उठे।

कालांतर में शूद्रों से जुड़े अनेक ग्रंथों को पढऩे का सिलसिला शुरु हुआ। रामशरण शर्मा द्वारा लिखित शूद्राज इन एनशिएंट इंडिया पुस्तक ने दिग्भ्रमित कर दिया। कई जगह उन्होंने तथ्य सही लिखे किन्तु उसकी व्याख्या बिल्कुल गलत, और कई जगहों पर तथ्य भी गलत। इस शोध ग्रंथ का प्रारंभ वे जिस पंक्ति से करते हैं उसी पंक्ति से निष्कर्ष वाले अंतिम अध्याय का भी श्रीगणेश करते हैं। उदाहरण के लिए वे शूद्रों की उत्पत्ति नामक पहले अध्याय की पहली पंक्ति में लिखते हैं, 1847 में रॉथ ने संकेत किया था कि शूद्र आर्यों के समाज के बाहर के थे तभी से यह विचारधारा चली आ रही है कि ब्राह्मणकालीन समाज का चौथा वर्ण मूलत: आर्येतर लोगों का था जिनकी यह स्थिति आर्य विजेताओं ने बना रखी थी दास और दस्यु दोनों आर्येतर भाषा बोलने वाले भारत के मूल निवासी थे आदि आदि । अब जो अंतिम अध्याय है निष्कर्ष नामक उसकी पहली पंक्ति में वे लिखते हैं, आरंभिक काल से पांच सौ ईसा तक शूद्रों की स्थिति में परिवर्तन के प्रमुख चरणों का विवरण मोटे तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है। ऐसा जान पड़ता है कि आर्यों और अनार्यों के पराजित और बेदखल कर दिए गए वर्ग शूद्र बना दिए गए।

रामशरण शर्मा विख्यात वामपंथी विद्वान माने गए हैं और उनकी शूद्रों के बारे में लिखी पुस्तक 1956 में लंदन विश्वविद्यालय में उनके द्वारा किए गए शोध का परिणाम थी। इस पुस्तक को आजादी के बाद भारत में अकादमिक शोध में उत्कृष्ट स्थान देते हुए शूद्र वर्ण को शेष भारतीय समाज से अलग खड़ा कर देने की दुष्ट मनोवृत्ति को जमकर प्रचारित प्रसारित किया जाने लगा। जबकि आज हकीकत सब जानते हैं कि आर्य आक्रमण का सिद्धांत ही इतिहास का सबसे बड़ा झूठ सिद्ध हो चुका है। जिस सरस्वती नदी को मिथक कहकर अंग्रेजी विद्वानों ने प्रयाग मे गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम की लोकमान्यता की हंसी उड़ाई, उस सरस्वती की विलुप्त धाराओं पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शोध हो रहे हैं, सभी ने मान लिया है कि सरस्वती नदी प्राचीन काल में बहती थी और महाभारत काल में भूगर्भीय बदलावों ने इस धारा को इतिहास बना दिया। हाल ही में महाभारतकालीन रथ के अवशेष मिले हैं, ये तो नई खोज हैं किन्तु अरसे से पुराविदों ने, साहित्यविदों ने और भाषाविदों ने, सभी ने आर्य को नस्ल मानने के सिद्धांत को काफी पहले से ही खारिज कर रखा है। रही सही कसर डीएनए आधारित शोध ने पूरी कर दी। साल 2009 में डीएनए अध्ययन के द्वारा डॉ. लालजी सिंह के सुयोग्य शिष्य प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे ने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर टी किवीसील्ड के मार्गदर्शन में इस सिद्धांत का वैज्ञानिक और ऐतिहासिक शवोच्छेदन कर दिया था।

ऐसा नहीं है कि रामशरण शर्मा सत्य नहीं जानते थे, वह हकीकत जानते थे किन्तु जानबूझकर धार्मिक ग्रंथों से आधे-अधूरे श्लोक चुनकर उनका मनमाना अनुवाद भ्रामक तरीके से प्रस्तुत किया गया कि उनकी झूठी थ्योरी सत्य सिद्ध हो सके। रामशरण शर्मा कुतर्क करने में इतने आगे गए कि डॉ. अम्बेडकर तक को उन्होंने नहीं बख्शा। डॉ. अम्बेडकर की पुस्तक हू वर शुद्राज को उन्होंने खारिज कर दिया और लिखा कि डॉ. अम्बेडकर के लेखन की बुरी बात यह है कि उन्होंने पूरी जानकारी अनुवाद से जुटाई। शूद्रों को उच्च वंश का सिद्ध करने का संकल्प लेकर ही वह पुस्तक लिखते गए। इससे हमारी समझदारी में कोई वृद्धि नहीं होती।

अब कोई पूछे कि रामशरण शर्मा ने अपने शोध के लिए सामग्री कहां से जुटाई, क्या उन्हें संस्कृत आती थी, आती थी तो उन्होंने उन श्लोकों को क्यों छोड़ दिया जो शूद्र वर्ण के गौरव को आख्यानों में समर्थ तरीके से सिद्ध करते हैं? आखिर यह सत्य उन्हें क्यों नहीं दिखाई पड़ा कि भारत में शूद्रों को शिक्षा का अधिकार प्रारंभ से था, उन्हें पढऩे या लिखने या सीखने की शिक्षण परंपरा से कभी अलग नहीं रखा गया, यहां तक कि तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला आदि प्राचीन विश्वविद्यालयों में शूद्र वर्ण के विद्यार्थी ब्राह्मणों, क्षत्रिय राजकुमारों और वैश्य विद्यार्थियों के साथ अध्ययन करते थे। इसके प्रमाण मौजूद हैं। सबसे ठोस प्रमाण यही है कि नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय दोनों का ही प्रबंधन भगवान बु्दध के कालांतर बौद्ध मतानुयायी शासकों के हाथ में आ गया और बौद्धों ने अध्ययन-अध्यापन में वर्णों के साथ भेदभाव किया होगा, यह कहने का साहस शायद ही कोई वामपंथी विद्वान कर सके। वास्तविकता यही है कि सनातनी शैव-वैष्णव-शाक्त और श्रमण जैन-बौद्ध संयुक्त रूप से इन विश्वविद्यालयों का प्रबंधन संभालते थे। यानी साथ अध्ययन-अध्यापन और सहकारी भाव से उत्पादन-परिश्रम करने की व्यवस्थित परंपरा भारत में प्राचीन काल से थी जिसमें ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य और शूद्रों ने साथ मिलकर इस भूमि को संसार का सबसे महान ऐश्वर्ययुक्त ज्ञान-विज्ञान से भरपूर जीवन-स्थान बनाया था।

हालांकि यह बिन्दु निरुत्तर ही रहा कि शूद्र वर्ण की दुर्दशा के मूलगामी कारण क्या थे? क्या भेदभाव, शोषण, सामाजिक असमानता का मूल कारण हिन्दू धर्मशास्त्र हैं? या कुछ और साजिश है जिसमें भारत में बड़े समूह को अधिकारों और सुविधाओं से पहले वंचित किया गया, योजनाबद्ध ढंग से स्वावलंबी आर्थिक व्यवस्था तहस-नहस की गई, इसके कारण उत्पन्न दरिद्रता और बेरोजगारी के बाद भीषण जुल्मों का दौर शुरु किया गया और धीरे-से संपूर्ण दुर्दशा उत्पन्न किए जाने के इस दुष्चक्र को धर्मग्रंथों के कथित अध्यायों के हवाले कर तत्कालीन राज्य ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। भारत का मध्यकालीन बर्बर इतिहास और अंग्रेजी राज में हुई भयानक लूट के जो मूल कारण हैं, उनकी चर्चा तक नहीं की गई और सब कुछ इतनी योजना से किया गया कि भारत का सनातन हिन्दू समाज ऐसे आत्मघाती चिन्तन का शिकार हो गया कि हमारे भीतर ही विकृति थी, बड़ी संख्या में लोग यही सत्य मान बैठे कि भारत की जाति व्यवस्था ने ही सारा सत्यानाश किया, जबकि वस्तुत: सच यह नहीं था, नहीं है।

उदाहरण की खोज जब मैंने शुरु की, तो मुझे उदाहरण सबसे पहले मेरी जन्मभूमि वाराणसी में मिला। 1991 में जब मैं हाईस्कूल का छात्र था, मेरे पितामह पंडित रामबली उपाध्याय का स्वर्गवास हो गया। बाबा को मुखाग्नि देने के वक्त जब पिता डोमराजा के डोम प्रतिनिधि के सम्मुख अग्नि लेने गए तो उस समय जो सवाल जवाब हुआ, वह मेरी स्मृति में आज भी अंकित है। उस डोम ने पिताजी या कहिए संपूर्ण पारिवारिक विरासत की हैसियत ही तोल डाली और अपने कहे हुए के मुताबिक दान आदि न करने पर अग्नि देने से ही इन्कार कर दिया। उसने जो मांगा और जो परंपरा से अधिकारपूर्वक मांगता चला आ रहा है, उसकी स्मृति समाज में किसके मन में नहीं होगी। हरिश्चंद्र घाट से लेकर मणिकर्णिका घाट तक सर्वोच्च धर्मनगरी काशी में यह दृश्य आम है और आज भी हर मृत्यु के समय में डोम का यह रूप और सत्य समाज के सामने खड़ा होता आ रहा है सत्ययुगीन राजा हरिश्चंद्र के जमाने से।

प्राचीन लोककथा है कि डोमराजा ने हरिश्चंद्र को खरीद लिया था। हरिश्चंद्र को डोमराजा ने हरिश्चंद्र घाट में हर शव को अग्नि देने के पूर्व टैक्स लेने की नौकरी पर नियुक्त किया। भारतीय लोकमानस में आज भी यह कथा बहुत गहरे बैठी है, तब से और उसके पहले से घाटों पर डोमराजा का यह प्रभाव चला आ रहा है। मेरे सम्मुख उसी समय यह प्रश्न आकर खड़ा हो गया जो आज की स्थिति में महादलित या महा-अछूत कहे जाते हैं, आज के चर्मकार भी जिन्हें अपने से गया गुजरा मानते हैं, उन डोम को आज भी भारत का सनातनी हिन्दू समाज टैक्स देता चला रहा है। ये डोम हैं तो इन्हें डोमराजा क्यों कहते हैं? हम जबरन इनसे आग क्यों नहीं ले सकते, या ये आग लेने की व्यवस्था ही क्यों चल रही है? ये कौन होते हैं ब्राह्मण को आग देने वाले? यह उदाहरण भारत में ऊंची जातियों ने प्राचीन काल में शूद्र जातियों का शोषण किये जाने की स्थापना पर प्रश्न चिह्न खड़ा करता है। भारत की सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन करने वाले किसी भी कथित आधुनिक अकादमिक चिन्तन ने भारतीय समाज की इन विशेषताओं पर गौर नहीं किया, केवल विद्वेष, घृणा और शोषण की पढ़ाई ही हमें बताई गई।

भारत में प्राचीन वर्ण विभाजन में से ही कालांतर में जातियों की उत्पत्ति हुई, जाति उत्पत्ति की इस अवधारणा से शायद ही किसी विद्वान का मतभेद हो। गीता में श्रीकृष्ण ने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में वर्ण व्यवस्था की संचरना को त्रैगुण्यमयी सृष्टि के विकासक्रम का स्वाभाविक परिणाम माना है। उन्होंने कहा है – चातुर्वण्य मयासृष्टि: गुणकर्मविभागश:। अर्थात् गुण और कर्मों के विभाग के अनुसार मैंने चार वर्णों की रचना की है। सात्विक, राजसिक और तामसिक इन तीन गुणों से सृष्टि के सृजन का सिद्धांत सनातन वैदिक हिन्दू धर्म के सभी मत-संप्रदायों को मान्य है। इस त्रैगुण्यमयी सृष्टि में एक दूसरे गुणों के समन्वय से अनेक वृत्तियों, व्यवसायों का जन्म होता चला गया।

जाति का आज जो रूप देखने को मिलता है वह कई मायनों में विदेशी शासन की लंबी दासता में विकृत व्यवहार व गलत व्याख्याओं का शिकार हुआ, किन्तु अपने मूल में वह किसी विशेष कार्य-कुशलता के आधार पर ही जाना जाता था। जाति को वस्तुत: संस्कृत के शब्द ज्ञाति (ज्ञान से ज्ञाति और ज्ञाति से जाति) का अपभ्रंश ही माना जाना चाहिए जिसका तात्पर्य है कि मनुष्यों का वह समूह जो किसी विशेष ज्ञानधारा में प्रवीण, कुशल व पारंगत है, किसी कौशल-हुनर या उत्पादन प्रक्रिया से संबंधित ज्ञान शाखा के सभी अंग-उपांगों के बारे में जिसे सबकुछ ज्ञात है, वह ज्ञाति समूह ही कालांतर में जब जन्म-वंश परंपरा से अपने विशेष ज्ञान को आगे बढ़ाने लगे तो एक जाति समूह में परिवर्तित होते चले गए। यह व्यवस्था शुद्ध रूप से कार्मिक-आर्थिक आधार पर आगे बढ़ी जिसमें कोई भी जाति समूह किसी से निम्न या श्रेष्ठ उन अर्थों में नहीं था जिन अर्थों में आज दिखाया-समझाया और पढ़ाया जाता है।

हम जानते हैं कि वेदों का ज्ञान प्राचीन काल में श्रुत परंपरा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जा रहा था। वेदों का लिखित रूप तो बहुत ही बाद की देन है। इसलिए वेद पढऩा यानी वेद को रटना था और इस कार्य में लगना यानी संपूर्ण जीवन ही अग्निमय कर देना। रटने का कार्य आज भी सबसे क्लिष्ट माना जाता है बनिस्पत देखकर और अनुसरण कर कुछ उत्पादक हुनर सीखने के। स्पष्ट रूप से संपूर्ण समाज को हर समय वेदों को ही रटने और सैकड़ों शताब्दियों तक स्मृति में रखने के कार्य में लगाए रखना किसी भी पैमाने पर बुद्धिमत्ता की बात तो नहीं हो सकती थी। चुनौती इस बात की भी थी कि श्रुत परंपरा में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित हो रहा मूल वैदिक ज्ञान कहीं मूल अर्थों से भटक न जाए, उसके मूल पाठ में पाठांतर न हो जाए। इसलिए वेदों को कंठस्थ करने के लिए अनेकविध पाठों की पद्धति प्रारंभ हुई जिनका एक दूसरी पद्धति से मिलानकर शुद्ध पाठ की पहचान करने की प्रक्रिया भी विकसित हुई।

चारों वर्णों ने तब एकजुट होकर ही वैदिक ज्ञान परंपरा के श्रुति रूप को कंठस्थकर सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी ब्राह्मणों के सुपुर्द की होगी, ऐसा कहा जा सकता है। आगे चलकर जब शिल्प-स्थापत्य-कारू-कुशीलव-कुलाल-आयुध-आयुर्वेद-गान्धर्व आदि 64 कलाओं का विकास हुआ तो इन कलाओं और कौशलों में संपूर्ण शोध, समयानुकूल अनुसंधान और तद्नुरूप शिक्षण-प्रशिक्षण व्यवस्था निर्मित करने की व्यवस्था भी सभी वर्णों ने ब्राह्मणों के सुपुर्द की होगी, इसके संकेत अनेक धार्मिक आख्यानों से प्राप्त होते हैं जिसमें बताया गया है कि उत्पादन के समस्त साधन और संबंधित कौशल का सामाजिक और आर्थिक अनुप्रयोग गैर ब्राह्मण जातियों का अधिकार होगा जबकि संबंधित विद्या का अनुसंधान और शिक्षणकार्य ब्राह्मण गुरुकुलों की परंपरा के द्वारा करेंगे।

क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों ने शोध के आधार पर व्यावहारिक हुनर-कौशल युक्त उद्यमी प्रयोगों को आर्थिक व उत्पादक संरचना, समाज व्यवस्था व राजकीय व्यवस्था में परिवर्तित करना स्वयं ही निर्धारित किया होगा, ऐसा संकेत इन आख्यानों से प्राप्त होता है। इसी कारण से गुरु परंपरा के रूप में सभी वर्णों के गुरु-गोत्र के रूप में सभी वर्णों की पारस्परिक सहमति से ब्राह्मण का गुरू स्थान मान्य हुआ। यह सभी वर्णों का स्वयंस्वीकृत निर्णय भी कहा जा सकता है। यह कहना गलत है कि पठन-पाठन-शिक्षण से शूद्र वर्ण को अलग रखा गया। वेदों का जो शुद्ध श्रुत परंपरा का पाठ था वह भले ही ब्राह्मणों के अधिकार क्षेत्र में रखना सभी ने स्वीकार किया किन्तु वेदों से निकले संपूर्ण प्रायोगिक ज्ञान-विज्ञान और कौशल पर संपूर्ण आधिपत्य शेष तीन वर्णों को दिया गया। इसे वैदिक ज्ञान का आनुप्रायोगिक पक्ष यानी अप्लाईड वेद कहा जा सकता है जिसके क्रियान्वयन का अधिकार सभी वर्णों को प्राप्त था।

यही कारण है कि वेदों से निकली अन्य विद्याओं जिनमें शूद्र वर्ण को संपूर्ण शिक्षण व अनुप्रयोग का अधिकार मिला, उनमें आयुर्वेद यानी चिकित्सा शास्त्र, योगशास्त्र, गान्धर्ववेद यानी गीत-संगीत-कला शास्त्र, धनुर्वेद यानी युद्ध एवं हथियार शास्त्र, शिल्प-स्थापत्य और कृषि आदि समस्त आय एवं रोजगार सृजन के कार्यों में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को उनकी रूचि के अनुसार शिक्षण-प्रशिक्षण देने की सुव्यवस्थित पद्धति ग्राम-ग्राम और घर-घर तक निर्मित की गई। कौटिल्य ने अपनी सुप्रसिद्ध कृति कौटिल्य अर्थशास्त्र में इस सन्दर्भ में विशेष चर्चा की है कि शूद्र वर्ण को स्थापत्य, वाणिज्य, गीत-संगीत-कला आदि रोजगारपरक इंजीनियरिंग के कार्यों में संपूर्ण शिक्षण-प्रशिक्षण का अधिकार है।

हम जानते हैं कि प्राचीन भारत में अनेक गुरुकुल विश्वविद्यालयीन शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत संपूर्ण रूप से आवासीय ढंग से शिक्षण-प्रशिक्षण प्रदान करते थे। इनमें तक्षशिला, नालंदा आदि प्रमुख थे जिनमें वैदिक शिक्षा,धर्म-दर्शन केसाथ स्थापत्य-धनुर्वेद आदि की शिक्षा भी प्रदान की जाती थी और इसमें चारों वर्णों के विद्यार्थियों का प्रवेश अनुमन्य था। अर्थात धनुर्वेद, आयुर्वेद, कौशल विकास-स्थापत्य और गान्धर्व विद्या के क्षेत्र में सभी विश्वविद्यालय चारों वर्ण के सुयोग्य विद्यार्थियों के साथ विदेशी छात्रों को भी पढ़ाने का प्रबंध करते थे। भारत में उच्च शिक्षा में केवल वेदत्रयी और दर्शन-व्याकरण विषय ही सम्मिलित नहीं थे। तक्षशिला विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा के उच्च स्थान पर भी आयुर्वेद-शल्य चिकित्सा, धनुर्विद्या एवं युद्धकला, वाणिज्य-व्यापार, बही-खाता लेखन यानी मुनीमी, कृषि, रथ निर्माण एवं संचालन, संगीत-चित्रकला-गायन-वादन-नृत्य, ज्योतिष के साथ अन्य अनेक विषय पढ़ाए जाते थे जिनमें ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य के साथ शूद्र वर्ण के विद्यार्थी भी साथ-साथ अध्ययन करते थे।

प्रख्यात विद्वान प्रोफेसर अनन्त सदाशिव अल्तेकर ने अपने शोध में प्राचीन भारतीय शिक्षा की प्रबंध व्यवस्था के उल्लेख में यह सिद्ध किया है कि मौर्य काल के समय और उसके बाद गुप्तकाल में प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालयों का संचालन सनातनी शैव-वैष्णव-शाक्त, बौद्ध और जैन आदि परंपरा के श्रमणाचार्य संयुक्त रूप से करते थे, बौद्ध मतानुयायी शासकों और बौद्ध मतावलंबी कुलपतियों की नियुक्ति के समय भी यह परंपरा कायम रही और इन विश्वविद्यालयों में आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति से जुड़े सभी विषयों की शिक्षा सभी संबंधित वर्णों को दी जाती थी। यही नहीं तो सुदूर पूर्व के वर्णेतर विद्यार्थी भी विदेशों से बड़ीं संख्या में आकर इन विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करते थे। ब्राह्मण भी तब केवल वेद अध्ययन तक ही सीमित नहीं थे, अपनी गृह और गुरु परंपरा के आधार पर ब्राह्मण युवक संबंधित विषय का विशेष अध्ययन करते थे ताकि संबंधित शिक्षा प्रजा वर्ग को सही और व्यवस्थित पद्धति से सिखा-समझा सकें।

तात्पर्य यह है कि भारतीय समाज व्यवस्था में प्राचीन काल से कौशल-ज्ञान और शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए किसी वर्ण के समक्ष कोई निषेध धार्मिक आधार पर खड़ा नहीं किया गया। हालांकि इस सिद्धांत के विरूद्ध अनेक मत और उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं। जैसे महाभारत काल में एकलव्य का उदाहरण देकर सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है कि शूद्र या अन्त्यज वर्ण के लोगों को शिक्षण प्राप्त करने की व्यवस्था नहीं थी। किन्तु जब इस तरह के उदाहरणों के समर्थक वर्ग के सम्मुख यह उदाहरण रखा जाता है कि रामायण काल में निषादराज गुह एक राजा के रूप में अपनी संपूर्ण सैन्य व्यवस्था के साथ राम से मित्रता निभाने के लिए और भरत की ओर से दी जाने वाली काल्पनिक चुनौती का सामना करने के लिए गंगा किनारे युद्धोन्मुख दिखाई पड़ते हैं तो निषादराज व उनकी सेना को सैन्य प्रशिक्षण या धनुर्वेद का प्रशिक्षण आखिर कहां से प्राप्त हुआ था? निषादराज गुह को स्थान स्थान पर निषादराज के रूप में ही उल्लिखित किया गया है जिसका संकेत यह भी है कि शूद्र व अन्य वर्ग से जुड़े समूहों के लोग उस कालखंड में भी गणराज्य स्तर पर राजपद प्राप्त करने में सक्षम थे। स्मरण रखे जाने योग्य बात यह है कि राम और निषादराज की यह मित्रता अन्तिम समय तक वाल्मिकी रामायण में बहुत ही रोचक ढंग से व्याख्यायित की गई है।

(राकेश उपाध्याय, लेखक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में चेयर प्रोफेसर हैं)

साभार :- भारतीय धरोहर

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