इस मराठा साम्राज्य में अनेक शूरवीर सेनापति और योद्धा हुए हैं, जिन्होंने मराठा साम्राज्य के पतन के बाद भी मुगलों और अंग्रेजों के सामने सरलता से घुटने नहीं टेके. इन्हीं योद्धाओं में एक नाम है “मल्हारराव होलकर” का... क्या आप इनके बारे में जानते हैं?? नहीं!!! तो जान लीजिए...
होलकर तकनीकी रूप से मराठा नहीं थे, वे मुख्य रूप से गड़रिया समुदाय से थे। यह माना जाता है कि वे मूलत: मथुरा के आसपास गोकुल से थे, और बाद में मेवाड़ चले गए थे, जहां से वे बाद में गुजरात और माहाराष्ट्र में चले गए थे। उन्हें उनकी कविताओं जिन्हें “ओवी” कहते हैं, के लिए जाना जाता था। उनके कुलदेव शिव के ही एक अवतार बिरोबा थे। जिनके सम्मान में वे धनगरी नृत्य करते थे। जेजुरी के नज़दीक होल गाँव में, मल्हार राव होलकर का जन्म 1693 में हुआ था। वे एक प्रकार से शाही गड़रिये के वंश से थे, और उनकी एक पत्नी बाना बाईसाहब होलकर, एक खांदा रानी थी। अन्य मराठाओं की तरह मल्हार राव होलकर ने कुछ समय सरदार कदम बांदे के नेतृत्व में कई सैन्य अभियानों में भाग लिया। वर्ष 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के उपरान्त मुग़ल वंश ढलने लगा था, और उसकी वास्तविक शक्ति सैयद भाइयों के हाथ में आ गयी थी। हुसैन अली खान और अब्दुल्ला अली खान ही वास्तविक खिलाड़ी थे। हुसैन अली खान, जो दक्षिण में मराठाओं के बढ़ते आक्रमणों से परेशान थे, उन्होंने उनके साथ शान्ति की संधि की और वर्ष 1718 में बालाजी ने उनके साथ संधि की जिसमें मराठाओं के पास दक्षिण, गुजरात और खानदेश से चौथ और सरदेशमुखी का अधिकार मिले और कर्नाटक में शिवाजी महाराज के क्षेत्र को लौटाया जाए। मुग़ल सुलतान फखुर्रियार ने संधि को मानने से इंकार कर दिया और सैयद भाइयों से छुटकारा पा लिया, जिन्होंने बाद में मराठाओं के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया।
इंदौर राज्य की नींव:
इंदौर आरम्भ में मालवा के अंतर्गत काम्पेल परगना का हिस्सा था और उज्जैन से प्रशासित होता था। इसे पहले जमींदार राव नन्द लाल चौधरी ने विकसित किया था और माना जाता है कि उन्हें उनका नाम प्रभु इन्द्रेश्वर मंदिर से मिला था। नंदलाल मुग़ल साम्राज्य में बहुत ही प्रभावी थे और उन्हें काफी सम्मान प्राप्त था। इंदौर में आधुनिक राज्य की स्थापना 1710 के मध्य में की गई, जब नन्दलाल ने श्री संस्थान बड़ा रावला का निर्माण मराठा और मुग़ल सुलतान के बीच निरंतर चेतावनी के बावजूद लगातार लड़ाइयों के बीच कराया था। दिल्ली और दक्षिण के मार्ग पर इंदौर अब मुख्य व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित हो गया था। 1724 में निजाम ने मराठाओं के अधिकारों को इस क्षेत्र में चौथ के अधिकार लेने के रूप में स्वीकार किया, और वर्ष 1733 तक मराठाओं के पास पूरे मालवा राज्य का पूर्ण नियंत्रण था। नंदलाल चौधरी ने मराठा शासन को स्वीकार किया, और उसके साथ ही होलकर शासन के सामने पहली दशहरा पूजा के अधिकार को भी वापस लिया। इंदौर राज्य की स्थापना 29 जुलाई 1732 में हुई जब बाजी राव ने मल्हार राव होलकर को मालवा में 28 और आधा परगना दिया।
(यह चित्र प्रसिद्ध जेजुरी मंदिर का है)
उत्तर में मुख्य भूमिका :
1718 में, बालाजी विश्वनाथ ने दिल्ली में एक विशालकाय मराठा सेना को भेजा जिसमें मल्हार राव होल्कर ने एक प्रमुख भूमिका निभाई। मराठों ने दिल्ली को अपने कब्ज़े में करने के साथ ही कुछ दृढ़ प्रतिरोध के बाद, सैय्यद भाइयों ने फारुख को पकड़ कर अंधा कर कर दिया। यह मराठा इतिहास की सबसे बड़ी जीतों में से एक रही। वर्ष 1720 में, मल्हार राव होल्कर ने निजाम के खिलाफ बलपुर के युद्ध में एक बार फिर से अपनी वीरता का परिचय दिया और बाद में मध्य प्रदेश बड़वानी के राजा के अधीन काम किया। इधर उधर का जीवन जीने से थककर मल्हार राव, पेशवा बाजीराव की सेना में शामिल हुए और अपनी कड़ी मेहनत के चलते वे सेना में प्रमुख पद पर पहुंचे। वह बाजीराव के विश्वसनीय सेनापतियों में से एक थे और उन्होंने कई महत्वपूर्ण अभियानों में अपनी वीरता का परचम लहराया। उस समय तक मुगल राजा कमजोर, विलासी और नशाखोर हो गए थे।
पेशवा बाज़ी राव प्रथम :
मल्हार राव ने पहले भोपाल में एक विवाद सुलझाने में भूमिका निभाई थी, इस तरह वे बाजीराव के भरोसे पर और ज्यादा खरा उतरने में सफल रहे थे। जल्द ही उनके अधीन 500 से बड़ी सेना थी और 1727 तक वह माल्वा क्षेत्र में सैनिकों की देखरेख करने लगे थे। उनके जीवन की सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक थी 1728 में पालखेड की लड़ाई जहां मराठाओं ने निजाम को कुचला था। इस युद्ध में निजाम असफजाह प्रथम ने संभाजी द्वितीय को बाजीराव प्रथम के विरोध में लडवाना चाहा, जिससे वह अपने साम्राज्य का विस्तार कर सके। मल्हारराव ने निजाम की सेना की आपूर्ति और संचार को कम करने में एक प्रमुख भूमिका निभाई, जिससे मराठों को रणनीतिक लाभ मिला। और जल्द ही पालखेड में, निजाम ने खुद को मराठों से घिरा पाया और उसे एक शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। 1732 तक, मल्हार राव होलकर माल्वा क्षेत्र के एक बड़े हिस्से में राज्य कर रहे थे। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और भोपाल में 1739 में निजाम की सेना को हराने के बाद और आगे चलकर चिमाजी अप्पा के नेतृत्व में लंबे समय के घेराव करते हुए पुर्तगालियों से बेसिन (अब वसाई) के किले पर विजय प्राप्त करने के बाद तमाम तरह के युद्ध जीते। उन्होंने ईश्वरी सिंह के साथ अपने आंतरिक विवादों के दौरान, 1743 में उन्हें दी गयी सहायता के लिए जयपुर के माधोसिंह प्रथम से रामपुरा, भानपुरा और टोंक के गांव भी प्राप्त किये। 1748 के रोहिल्ला अभियान में उनकी वीरता के लिए उन्हें एक “शाही सरदेशमुखी” प्रदान किया गया था और अब तक मल्हार राव होलकर पश्चिमी मालवा के अविवादित स्वामी बन गए थे। मालवा में शासन करते हुए, उत्तर और केन्द्रीय भारत में मुख्य भूमिका निभाते हुए मल्हार राव होलकर अब मालवा के ऊपर नर्मदा और सह्याद्री के बीच बड़े भूभाग के स्वामी थे।
होल्कर ने 1751-52 के दौरान फरुखाबाद की लड़ाई में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जहां जयप्पा सिंधिया और गंगाधर तात्या के साथ उन्होंने अवध के नवाब सफदरजंग को शादुल्ला खान की संयुक्त सेना के खिलाफ सहायता प्रदान की थी। सफदरजंग मूल रूप से मुगल दरबार में वरिष्ठ थे, जिनकी बढ़ती लोकप्रियता के कारण उन पर 1749 में एक जानलेवा हमला हुआ। इसने मुगल दरबार के शाही अफगान गुट के साथ तनाव बढ़ाया और खास तौर पर जावेद खान नवाब, जो सम्राट अहमद शाह के ख़ास थे। अहमद खान बंगश ने सफदरजंग पर हमला कर उन्हें घायल कर दिया, और सफदरजंग ने उस पर सभी हमले शुरू किए। सफदरजंग, बंगश और रोहिला के साथ झगड़ों के बीच सफदरजंग ने बदले में मराठों के साथ एक संधि की, जिन्होनें बदले में रोहिल्ला और बंगश के खिलाफ सहायता की।
हालांकि कुल्हेर किले (अब भरतपुर जिले, राजस्थान) में 1754 में घेराव के दौरान मल्हार राव होलकर को गहरा आघात लगा, जब चार महीने तक चले गए घेरे के दौरान, मल्हार राव के बेटे खंडेराव होलकर तोप के गोले का शिकार हो गए। दुखी मलहार राव ने जाट शासक सूरजमल से बदला लेने की कसम खाई और कुम्हेर को घेर लिया और उसे तब तक वापस न करने की कसम खाई जब तक सूरजमल की मृत्यु न हो जाए। हालांकि महारानी किशोरी ने सूरजमल को चिंता न करने की सलाह दी तथा दीवान रूपराम कटारिया के माध्यम से राजनयिक प्रयासों को शुरू किया। मल्हार राव और जयप्पा सिंधिया के बीच मतभेदों का फायदा उठाते हुए, उन्होंने मल्हार राव के द्वारा हमले की स्थिति में सूरजमल के लिए सहायता मांगी। सिंधिया ने अपनी सहायता से सूरज मल को आश्वासन दिया और फिर पेशवा रघुनाथराव से संपर्क किया, जिन्होंने बाद में होलकर को जाट शासक के साथ शांति की सलाह दी।
1757 में, रघुनाथ राव और मुगल वजीर इमाद मुल्क के साथ उन्होंने दिल्ली को घेर लिया जो कि नजीब-उद-दुलाह के नियंत्रण में थी, वह ऐसा रोहिल्ला नेता था जो अहमद शाह अब्दाली के कठपुतली शासक आलमगीर द्वितीय को सफलतापूर्वक अपने नियंत्रण में ले चुका था। 100,000 मराठों की सेना के साथ मल्हार राव ने पहली बार दोआब क्षेत्र में अफगानों को कुचल दिया। जल्द ही दिल्ली के बाहर 30,000 मराठों के एक दल के घेरा डालने के बाद नजीब ने आत्मसमर्पण कर लिया और उन्हें कैद में लिया गया। इसने मराठों को दिल्ली का वास्तविक शासक बना दिया, और आलमगिर द्वितीय केवल नाम का शासक बना रहा। 1748 में दिल्ली को आधार बनकर मल्हार राव ने सरहिंद का कब्ज़ा कर लिया और बाद में लाहौर भी उनकी झोली में आ गया। बाजीराव ने दिल्ली और अटक (वर्तमान अफगानिस्तान) पर मराठा ध्वज लहराने का वादा पूरा किया। मल्हार राव का निधन 1766 में हुआ था, और उनकी बहू अहिल्याबाई होलकर ने इंदौर का शासन संभाला और खुद को भारत की सबसे महान, न्यायप्रिय और प्रशासन कुशल रानियों में से एक साबित कर दिया।
असल में पानीपत का तृतीय युद्ध (14 जनवरी 1761) मराठा साम्राज्य के लिए सबसे बड़े आघात की तरह था। पेशवा बालाजी बाजीराव, इस पराजय से कभी भी उबर नहीं पाए और बहुत चाव से बनाए गए पुणे शहर में ही उन्होंने आख़िरी सांस ली। मराठों के हाथ से भारत का पूरा उत्तरी क्षेत्र निकल गया था और उनका साम्राज्य पूरी तरह से कर्ज में दब गया। ऐसे ही कठिन समय में मराठा साम्राज्य की बागडोर माधवराव प्रथम ने सम्हाली थी। 23 जून 1761 को मात्र सोलह साल की आयु में ही उन्हें साम्राज्य का स्वामी बना दिया था। उनकी कम आयु के कारण उनके चाचा रघुनाथराव को राज्य के प्रशासनिक मामलों में सहायता के लिए नियुक्त किया गया। माधवराव प्रथम बहुत ही जल्द प्रशासनिक अमले को दुरुस्त करने में सफल रहे और उसके साथ ही वे लुटे हुए खजाने की रक्षा भी कर सके। उनके पास मराठा साम्राज्य को दोबारा खड़ा करने का कठिन काम था, जो पानीपत के युद्ध के बाद अब अंतिम साँसें गिन रहा था। माधवराव प्रथम के शासन को दक्खिन और उत्तर में मराठा साम्राज्य के विस्तार के रूप में जाना जाएगा, हालांकि इसे एक साथ रखना बहुत ही कठिन कार्य था। जहां पेशवाओं ने पुणे, भारत के पश्चिम हिस्से में शासन किया, तो वहीं पिलाजी राव गायकवाड ने वर्ष 1721 में बडौदा को मुगलों के पंजे से निकाल कर गायकवाड़ राजवंश की स्थापना की।
केन्द्रीय भारत में सतारा जिले से रानोजी सिंधिया ने मालवा की मराठा विजय का नेतृत्व पेशवा बाजीराव प्रथम के साथ किया और वे 1736 में उस क्षेत्र के सूबेदार बन गए। उन्होंने उज्जैन में अपनी राजधानी की स्थापना 1731 में की और बाद में वे 1810 में ग्वालियर गए, जो बाद में सिंधिया वंश की राजगद्दी बन गयी। महाराष्ट्र में ही भोंसले ने नागपुर, सतारा और कोल्हापुर में अपनी अर्ध स्वायत्ता वाला राज्य स्थापित किया, जबकि धार, सांगली, अनुद्ध आदि जैसे छोटे अर्ध स्वामित्व वाले राज्य उभरे। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यदि अहमदशाह अब्दाली के हाथों मराठा साम्राज्य का पतन नहीं हुआ होता, और उस युद्ध में पेशवा जीत गए होते तो आज केवल भारत ही नहीं, दुनिया का इतिहास कुछ और ही होता... क्योंकि तब अंग्रेज भारत में प्रवेश ही नहीं कर पाते, पैर नहीं जमा पाते.... केवल एक युद्ध की हार ने भारत की किस्मत बदलकर रख दी.