मोदी की आगामी फिलीस्तीन यात्रा :- संतुलन की बाजीगरी

Written by बुधवार, 24 जनवरी 2018 11:49

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की आगामी 10 फरवरी को फिलिस्तीन (Palestine and India) यात्रा संभावित है. यह यात्रा ऐसे समय हो रही है जब इजरायली प्रधानमंत्री श्री नेतन्याहू का अति महत्वपूर्ण 6 दिवसीय भारत दौरा (Indo-Israel Relations) बस हुआ ही है. ऐसे में मोदी की फिलिस्तीन यात्रा के अनेक कयास लगाए जा रहे हैं. कुछ इसे दक्षिण एशियाई देशो से संतुलन साधने तो कुछ मुस्लिम तुष्टिकरण (Muslim Vote Bank) से जोड़ रहे हैं.

फिलिस्तीन और इजरायल का संघर्ष पुराना है और भारत ने इस संघर्ष में सदा फिलिस्तीन का समर्थन किया है. आज मोदी युग में भारत के इजरायल के साथ सम्बन्ध अपनी प्रगाढ़ अवस्था में हैं, लेकिन इसका बीज तब पड़ा जब 1992 में भारत सरकार ने अपनी विदेश नीति में परिवर्तन करते हुए इजरायल के साथ द्विपक्षीय व्यावसायिक सम्बन्ध स्थापित किये. इससे पहले भारत गुट निरपेक्ष राष्ट्र के नाते अन्य गुट निरपेक्ष राष्ट्रों की ही तरह इजरायल को मान्यता नहीं देता था. भारत ने इजरायल को एक स्वतंत्र देश के रूप में भी 1950 में स्वीकार किया. जहां एक ओर इजरायल भारत का सामरिक, कृषि, तकनीक, जल प्रबंधन और अंतरिक्ष आदि क्षेत्रों में बड़ा भारी सहयोगी है और इन क्षेत्रों में भारत की मदद कर रहा है वहीं फिलिस्तीन को भारत उसके विकास के लिए अनुदान देता आया है. फिलिस्तीन को भारत द्वारा शिक्षा, तकनीक और विभिन्न परियोजनाओं के लिए लाखों मिलियन डॉलर की मदद और अनुदान दिए जाते रहे हैं. फिलिस्तीन से भारत का व्यापार भी अत्यंत न्यून है और वो भी इजरायल के माध्यम से होता है.

Modi Netanyahu

 

इजरायल के मुकाबले फिलिस्तीन से भारत का व्यापार चिड़िया के चुग्गे जितना भी मायने नहीं रखता. तब क्या कारण है कि भारत की विदेश नीति यहूदी राष्ट्र इजरायल के मुकाबले मुस्लिम देश फिलिस्तीन को महत्व देती रही. क्या इसकी वजह देश की मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति है या फिर अरब देशों पर भारतीय तेल निर्भरता. भारत द्वारा अपनी जरुरत का 70% तेल अरब राष्ट्रों से आयात होता है. अरब राष्ट्रों की इजरायल से घोर शत्रुता और उनका फिलिस्तीन को समर्थन भारत फिलिस्तीन संबंधों की कुंजी बताया जाता रहा है लेकिन यह पूरा सच नहीं है. क्योंकि भारत का सबसे बड़ा तेल निर्यातक देश ईरान है और ईरान शिया मुस्लिम देश है. जिसका बाकी सुन्नी अरब राष्ट्रों से छत्तीस का आंकड़ा रहता है. अरब देशों में भारतीय कामगारों की बड़ी संख्या और इससे अर्जित विशाल विदेशी मुद्रा भी इस समीकरण का एक बहुत महत्वपूर्ण बिंदु बताई जाती है. लेकिन इसमें फिलिस्तीन कहां और कैसे फिट होता है इस पर सेक्युलर प्रजाति मौन है.

मुस्लिम यहूदी शत्रुता के इस अंतर्राष्ट्रीय समीकरण में पूर्ववर्ती गैर भाजपा सरकारों द्वारा सम्यक संतुलन नहीं बनाया गया. उन्होंने केवल फिलिस्तीन को प्राथमिकता दी और इजरायली लाभ से चूकते रहे. फिलिस्तीन को भारत से खैरात जाती रही और इजरायल उपेक्षित रहा. इससे देश की घरेलू मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति तो फलती फूलती रही, लेकिन एक देश के नाते भारत इजरायल जैसे बहुमूल्य दोस्त से वंचित रहा. लेकिन आज भाजपा की केंद्र सरकार ने भले ही अपनी विदेश नीति में कोई व्यापक फेर बदल ना कर अपनी पूर्ववर्ती सरकारों का ही अनुगमन किया है तब भी वह दो परस्पर शत्रुओं को एक साथ साधने में सफल रही है. जहां एक ओर भारत इजरायल सम्बन्ध नए सोपान तक पहुंचे हैं वहीं अरब राष्ट्रों से भारत के संबंधों में नया निखार आया है. वर्तमान स्थिति यह है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उस मजबूत स्थिति में है जहां दो परस्पर शत्रु भी उससे मित्रता के लिए लालायित हैं और उसमें अपनी सुरक्षा और विकास खोजते हैं. निश्चित ही यह भारतीय विदेश नीति का परिपक्व काल है. लेकिन तीन तलाक, हज सब्सिडी खत्म करने और इजरायली प्रधानमंत्री के भारत दौरे से नाराज देश के मुस्लिमों के घावों पर मरहम लगाना भी जरुरी है. कूटनीति से ज्यादा मुस्लिम तुष्टिकरण का आभास देता यह उपलब्धि विहीन दौरा यह अहसास भी कराता है कि गले में पड़े इस फिलिस्तीन नामक ढोल को पूर्ववर्ती सरकारों की तरह मोदी सरकार भी बजाएगी.

(संजय सुदर्शन) 

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२) पूरी दुनिया जागने लगी है, आप कब जागेंगे?... :- http://www.desicnn.com/news/world-awakening-against-radical-islam 

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