प्राचीन भारतीय गणित :- तथ्यों सहित सच्चाई (भाग-१)

Written by शनिवार, 24 मार्च 2018 21:56

ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि सभ्यताओं के विकास और विस्तार में गणित ने भी अमूर्त रूप से भूमिका निभाई है, वास्तव में किसी सभ्यता के विकास का अंदाजा वहां पर पनपी गणितीय संस्कृति (Ancient Indian Mathematics) से भी लगाया जा सकता है।

समस्या यह है कि पिछले सत्तर वर्षों में शिक्षा व्यवस्था कुछ ऐसे धूर्त हाथों में रही है, कि प्राचीन ज्ञान एवं सभ्यता के सकारात्मक एवं शोध संबंधी विचारों एवं जानकारियों को षड्यंत्र पूर्वक दबाया गया और पश्चिमी सभ्यता को तरजीह दी गयी, लेकिन अब स्थिति बदल रही है और युवाओं तक हमारी प्राचीन लेकिन उन्नत एवं प्रगत बातें, तकनीक, सिद्धांत एवं संस्कृति पहुंचना शुरू हो गया है. गणित संबंधी यह लेख श्रृंखला इसी कड़ी में है. लगभग 3000 ई. पू. की सिंधु घाटी सभ्यता कुछ ऐसा ही दर्शाती है। सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Culture) अपने व्यवस्थित नगरों व संरचना के लिए जानी जाती है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के स्थलों पर खुदाई ने वहाँ उपयोग किए जाने वाले मूलभूत गणित से पर्दा उठाया। उस समय का गणित काफी व्यवाहरिक था। वजन और लम्बाई नापने के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले तराजू और अनेक यन्त्र खुदाई में निकले। भवनों के निर्माण हेतु प्रयोग की जाने वाली ईंटें तो कमाल की थीं। इन ईंटों की लम्बाई, चौड़ाई और उंचाई 4, 2 और 1 के अनुपात में थीं। वजन के तराजू भी अलग अलग आकारों के थे, जैसे- घनाकार, बेलनाकार, शंकुाकार इत्यादि, जो उस काल के ज्यामितीय ज्ञान को दर्शाते हैं। इतना ही नहीं, इन वजनों के अनुपात का मानकीकरण भी था। जैसे, 1/16, 1/8, 1/4, 1/2, 1, 2, 3। रेखा मापक यानी स्केल भी बराबर-बराबर दूरियों पर चिन्हित था।

उस समय के स्नानागार, शहर की ज्यामितीय व्यवस्था, नक्काशियों व मुहरों में वृत्ताकार आकारों का उपयोग इत्यादि उनकी विद्वता झलकाती है। आधुनिक गणना के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता के साथ ही भारतीय उपमहाद्वीप में गणितीय संस्कृति की शुरुआत हो चुकी थी। गणितीय और वैज्ञानिक विद्वता की झलक वैदिक सभ्यता में भी देखने को मिलती है। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व संस्कृत व्याकारण के अधिष्ठाता पाणिनि जो मूल रूप से भाषाविज्ञानी थे उन्होंने अपने ग्रंथ में शून्य की धारणा को भी रखा। यहाँ पर शून्य की धारणा का आशय अनुपस्थिति से था। अब से लगभग तेईस सौ वर्ष पूर्व छंदशास्त्री पिंगल ने शब्दांशो के क्रमांतरण और संयोजन पर कार्य किया। उन्होंने अक्षरों को गुरु और लघु की श्रेणियों में बाँटा और उनके क्रम और संयोजन से नए छंद आविष्कृत किये और इसी सम्बंध में मेरु प्रशस्त्र की खोज की, जिसे आज "पास्कल्स ट्राएंगल" के नाम से जाना जाता है। हल्युध ने 200 ई. में इस पर प्रकाश डाला और इस सन्दर्भ में उन्होंने द्विपद प्रमेय का भी उल्लेख किया। इस प्रकार गणित के क्षेत्र में भारत के कई महत्वपूर्ण योगदान हैं। आईये देखते हैं, गणित के विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय गणितज्ञों ने किस प्रकार योगदान दिया है।

ज्यामिति (Geometry)

भारत की उच्च स्तरीय ज्यामिति वैदिक अनुष्ठानो के ग्रंथो से ही झलकती है। ज्यामिति का उद्भव यज्ञ की वेदी का निर्माण करने के सन्दर्भ में हुआ था। इस तरह का सबसे प्राचीनतम अभिलेख बौधायन का शुल्बसूत्र माना जाता है। यज्ञ के लिए वेदियों के निर्माण का वर्णन करते ये शुल्बसूत्र ज्यामितीय रचनाओं पर आधारित हैं। ‘शुल्ब' का अर्थ है नापना या नापने की क्रिया। ये शुल्बसूत्र अपने लेखकों के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। इनमे प्रमुख हैं- बौधायन का शुल्बसूत्र, आपस्तम्ब का शुल्बसूत्र, कात्यायन का शुल्बसूत्र और मानव का शुल्बसूत्र। पाश्चात्य इतिहासकारों के अनुसार इन शुल्बसूत्रों का रचना काल 1200 से 800 ई. पू. माना गया है। शुल्बसूत्र उस काल में भारतीयों की क्षेत्रफल और माप की गहरी समझ और निपुणता को दर्शाते हैं। अपने एक सूत्र में बौधायन ने विकर्ण के वर्ग के नियम बताये हैं –

‘दीर्घचतुरस्त्रस्याक्ष्णया रज्जु: पाश्र्वमानी तिर्यङ्मानी च यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति’

अर्थात् एक आयत का विकर्ण उतना ही क्षेत्र इक्कठा बनाता है जितना कि उसकी लंबाई और चौड़ाई अलग अलग बनाती है। आज के दिनों में दुनिया इसे पाइथागोरस के प्रमेय के रूप में जानती है। साफ है कि भारतीय गणितज्ञ इस अवधारणा से पाइथागोरस के पहले से ही परिचित थे। इन शुल्बसूत्रों से विभिन्न ज्यामितीय सरंचनाओं की निर्माण विधि का पता चलता है, जैसे दो वर्गों के जोडऩे या घटाने पर किसी खास क्षेत्रफल के नये वर्ग का निर्माण होना, किसी आयत को समान क्षेत्रफल के वर्ग में परिवर्तित करना, किसी वृत्त को लगभग-लगभग समान क्षेत्रफल के वर्ग में तब्दील करना और इसका उल्टा करना, ज्यामितीय तरीके से वर्गमूल ज्ञात करना और सबसे महत्वपूर्ण था श्रीयंत्र का निर्माण करना। श्रीयंत्र अपने आप में ही बेहद जटिल ज्यामितीय रचना है। 

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श्रीयंत्र जैसी रचना उच्च स्तरीय गणित को दर्शाती है। इस तरह की रचनाओं में कई लकीरों एवं गोलाकार चापों के समूह को एक साथ इतने सूक्ष्म तरीके से उकेरना कोई साधारण घटना नहीं है। रूसी शोधार्थी कुलैचेव (श्रीयंत्र पर इनका पत्र इंडियन जर्नल ऑफ़ हिस्ट्री ऑफ साइंस ने 1984 में प्रकाशित किया था) के अनुसार इस तरह की सूक्ष्म गणना करना नए जमाने के कम्पयूटरों की क्षमता से भी बाहर है। उनके अनुसार श्रीयंत्र के केंद्र में बने ज्यामितीय रचना (14 कोण का वह बहुभुज जो 9 त्रिभुजों के प्रतिच्छेदन से निर्मित हुआ है।), इतनी उत्तम बनी हुई है कि हस्तनिर्मित लगता ही नहीं है, चूँकि इसके लिए कई प्रतिच्छेदित बिन्दुओं का सुपर-पोजीशन करने की आवश्यकता है।

(लेख लम्बा और बोझिल न हो जाए, इस हेतु इसे टुकड़ों-टुकड़ों में दिया जाएगा... यह अगले भाग में जारी रहेगा, जिसमें त्रिकोणमिती, अंकगणित एवं बीजगणित सहित अन्य कई विषयों पर तथ्यों सहित सार पेश किया जाएगा...) 

(भाग-२ में जारी........) 

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लेखक गणित के शोधार्थी हैं.... 

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