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बुधवार, 28 नवम्बर 2012 19:09

Is Europe heading towards Islamic Continent??


आखिर इतनी कट्टरता कैसे और क्यों? (एक माइक्रो-पोस्ट)


यह घटना आज़मगढ़, मुर्शिदाबाद या मलप्पुरम जैसे मुस्लिम बहुल इलाके की नहीं है, बल्कि यह हृदयविदारक और वीभत्स घटना इंग्लैण्ड के कार्डिफ़ की है…

एक माँ ने अपने सात साल के बच्चे को छड़ी और चाकू से पीटा, बुरी तरह घायल होने के बाद जब बच्चे ने दम तोड़ दिया, तो उसने उसे जला भी दिया और फ़िर इस गुनाह को छिपाने की असफ़ल कोशिश की। उस सात साल के बच्चे का कसूर सिर्फ़ इतना था कि वह कुरान की आयतें कंठस्थ नहीं कर पा रहा था। कार्डिफ़ पुलिस के सामने अपने बयान में साराह ईज (32) ने यह स्वीकार किया कि उसका बच्चा यासीन अली पास की एक मस्जिद में धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने जाता था। लेकिन यासीन का सारा ध्यान कुरान की बजाय खेलकूद में लगा रहता था।


साराह ईज ने यासीन को 35 पेज की आयतें तीन माह में पूरी तरह से कंठस्थ करवाने के लिए दबाव बनाया था। स्कूल से आने के बाद यासीन अली उस मस्जिद में कुरान की शिक्षा लेने जाता था, साराह और उसके पति यूसुफ़ की इच्छा थी कि वह बड़ा होकर “हाफ़िज़” (जिसे पूरी कुरान कंठस्थ हो) बने। बार-बार प्रयास करने के बावजूद जब यासीन को आयतें याद करने में कोई रुचि नहीं उत्पन्न हुई, तब सारा का धैर्य जवाब दे जाता और वह उस मासूम बच्चे की जमकर पिटाई करती, कभी-कभी वह उसे अपने घर के पीछे स्थित तबेले में बाँधकर भी रखती।

साराह ने कहा कि एक साल के लगातार प्रयास के बावजूद यासीन कुरान का सिर्फ़ एक अध्याय ही याद कर सका था। जिस दिन यह घटना हुई, उस दिन साराह ने यासीन को चप्पलों और छोटे हथौड़े से पीटा और उठक-बैठक लगवाई। हालांकि साराह अभी भी यह मानने को तैयार नहीं है कि उसने यासीन की हत्या की है, वह अभी भी अन्य किसी कारण से दुर्घटनावश लगी हुई आग को इसका दोषी ठहराती है। हालांकि पोस्टमॉर्टम में इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि यासीन की मौत आग लगने से पहले ही हो चुकी थी। जब पड़ोसियों ने घर से धुँआ उठता देखा, तब उन्होंने पुलिस और फ़ायर ब्रिगेड को सूचना दी, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

इस घटना के बाद ब्रिटेन और बाकी यूरोप में इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है कि एक पढ़े-लिखे और अच्छे-खासे खाते-कमाते मुस्लिम परिवार में सिर्फ़ कुरान को याद नही कर पाने की वजह से ऐसा दुष्कृत्य किया गया। कतिपय बुद्धिजीवियों ने यूरोप में बढ़ते कट्टर इस्लामी विचारों पर भी चिंता व्यक्त की है…

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गुरुवार, 22 नवम्बर 2012 17:07

Narendra Modi : Increasing Phenomenon (Part-4)


नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति का उदभव एवं विकास (भाग-4)


पिछले अंक से आगे… (पिछला भाग पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें... http://blog.sureshchiplunkar.com/2012/10/rise-of-narendra-modi-phenomena-part-3.html)

मित्रों… जैसा कि हम पिछले भागों में देख चुके हैं कि 1984 से लेकर 1998 तक ऐसी तीन-चार प्रमुख घटनाएं और व्यवहार हुए जिन्होंने यह साबित किया कि देश में मुस्लिम तुष्टिकरण न सिर्फ़ बढ़ रहा था, बल्कि वोट बैंक की घृणित राजनीति और “सेकुलरिज़्म” की विकृत परिभाषा ने भाजपा-संघ-हिन्दुत्व को “अछूत” बना दिया।

1984 से 1998 की लोकसभा चुनाव तक का इतिहास हम देख चुके हैं, जिसमें शाहबानो मामला, रूबिया सईद अपहरण मामला, चरार-ए-शरीफ़ और आतंकवादी मस्त गुल का मामला, कश्मीर से षडयंत्रपूर्वक और धर्म के नाम पर हजारों कश्मीरी हिन्दुओं को यातनाएं देकर भगाना और अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर करना… और 1998 में सेकुलरिज़्म के नाम पर जिस तरह “सिर्फ़ एक वोट” से वाजपेयी जी की सरकार गिराई गई… ऐसी कई घटनाओं ने हिन्दुओं के मन में आक्रोश भी भरा और उनके अंतःकरण को छलनी भी किया।

1999 के आम चुनावों में भी भाजपा का “प्रतिबद्ध वोटर” उसके साथ ही रहा और उसने 1998 की ही तरह भाजपा को 182 सीटें देकर पहले नम्बर पर ही रखा। जबकि कांग्रेस 114 सीटों के ऐतिहासिक न्यूनतम संख्या पर पहुँच गई। ध्यान रहे कि इस समय तक जिस “प्रवृत्ति” की हम बात कर रहे हैं, वह नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य में कहीं भी नहीं थे, बल्कि मोदी का राष्ट्रीय स्तर पर प्रादुर्भाव 2002 में, अर्थात NDA सरकार बनने के तीन साल बाद हुआ था, लेकिन हिन्दुओं के दिल में “मोदी प्रवृत्ति” का निर्माण तो शाहबानो मामले से ही हो गया था, जो धीमे-धीमे बढ़ता जा रहा था।

बहरहाल, हम बात कर रहे थे 1999 के आम चुनावों की… भाजपा के प्रतिबद्ध हिन्दू वोटरों का भाजपा की सरकार से पहली बार मोहभंग होना यहीं से शुरु हुआ। 182 सीटें जीतने के बाद तथा लगातार दो बार (पहले 13 दिन और फ़िर 13 माह) की सरकारें गिर जाने के बाद भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व यह साबित करना चाहता था कि वह भी गठबंधन सरकार बनाकर कांग्रेस की ही तरह पूरे पाँच साल सरकार चला सकते हैं। इस गठबंधन सरकार को बनाने (अर्थात कई सेकुलर दलों का समर्थन हासिल करने के लिए) भाजपा ने अपने तीन प्रमुख मुद्दे (अर्थात राम मन्दिर निर्माण, कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति की माँग और समान नागरिक संहिता), जिनसे पार्टी की “पहचान” थी, उन्हीं को तिलांजलि दे डाली। इन तीनों ही मुद्दों को भाजपा ने सत्ता हासिल करने और “कैसे भी हो पाँच साल सरकार चलाकर दिखाएंगे” की जिद की खातिर, ठण्डे बस्ते में डाल दिया। हिन्दू वोटरों के दिल से भाजपा का विश्वास हिलने और “मोदी प्रवृत्ति” के विकास में इस “विश्वासघात” ने गहरा असर किया, क्योंकि अभी तक (अर्थात 1998 तक) हिन्दुओं को लगता था कि जिस तरह अन्य पार्टियाँ अपने मुद्दों पर ठोस स्वरूप में खड़ी रहती हैं, भाजपा भी वैसा ही करेगी, परन्तु जब उसने देखा कि सिर्फ़ सरकार बनाने की जिद और पार्टी में धीरे-धीरे बढ़ते सत्ता-लोभ के कारण उसके हृदय को छूने वाले तीनों प्रमुख मुद्दे ही पार्टी ने दरकिनार कर दिए हैं, तो उसका दिल खट्टा हो गया। 1998 से पहले हिन्दुओं के दिल पर “गैरों” ने ठेस लगाई थी, 1999 की सरकार बनाते समय पहले मजबूरी में आडवाणी की जगह अटल जी को लाने और बाद में इन तीनों मुद्दों को त्यागने की वजह से पहली बार हिन्दू वोटरों का विश्वास भाजपा से हिल गया, तब से लेकर आज तक पार्टी की फ़िसलन लगातार जारी है।


हालांकि पार्टी के बाहर से एक आम भाजपाई वोटर लगातार इस बात की पैरवी करता रहा कि चूंकि भाजपा के पास 182 सीटें हैं और कांग्रेस के पास सिर्फ़ 114, तो ऐसी स्थिति में भाजपा को अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के सामने इतना झुकने की आवश्यकता कतई नहीं थी, क्योंकि उस स्थिति में भाजपा के बिना कोई भी सरकार बन ही नहीं सकती थी, पहले करगिल युद्ध जीतने और कांग्रेस की छवि एकदम रसातल में पहुँच जाने के बाद यदि भाजपा चाहती, तो उस समय इन तीनों मुद्दों पर अड़ सकती थी, लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों को क्षेत्रीय दलों से “सौदेबाजी” करना नहीं आया। उस समय भाजपा को गठबंधन करना ही था तो “अपनी शर्तों” पर करना था, लेकिन हुआ उल्टा। सत्ता प्राप्त करने की जल्दी में भाजपा ने अपने “कोर” मुद्दे तो छोड़ दिए, जबकि ममता बनर्जी, चन्द्रबाबू नायडू जैसे क्षेत्रीय नायकों की “वसूली की कीमत” के आगे झुकती चली गई, जबकि यदि भाजपा इस बात पर ज़ोर देती कि जो भी क्षेत्रीय दल इन तीनों मुद्दों पर हमारी बात मानेगा, हम सिर्फ़ उसी का समर्थन लेंगे… तो मजबूरी में ही सही कई दलों को अपनी “सेकुलरिज़्म” की परिभाषा को सुविधानुसार बदलने पर मजबूर होना ही पड़ता तथा भाजपा की छवि “अपने कोर वोटरों” के बीच चमकदार बनी रहती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, और धीरे-धीरे 1999 से 2004 के बीच पार्टी पर “प्रमोद महाजन टाइप” के लोगों का कब्जा होता चला गया… आडवाणी, कल्याण सिंह, उमा भारती इत्यादि खबरों में तो रहे, लेकिन भाजपा को डस चुके “सेकुलरिज़्म” के नाग ने इन्हें दोबारा कभी भी निर्णायक भूमिका में आने ही नहीं दिया। (नोट :- प्रमोद महाजन “टाइप” का अर्थ भी एक “विशिष्ट प्रवृत्ति” ही है, जिसने भाजपा को 1999 के बाद अंदर से खोखला किया है, प्रमोद महाजन तो सिर्फ़ इस प्रवृत्ति का एक रूप भर हैं… इस पर आगे किसी अन्य लेख में बात होगी… ठीक उसी प्रकार जैसे कि नरेन्द्र मोदी भी “मोदी प्रवृत्ति” का एक रूप भर हैं… अर्थात महाजन न होते तो कोई और होता, और यदि मोदी न होते तो कोई और होता…)।

खैर… किसी तरह भाजपा ने NDA नामक “कुनबा” जोड़-तोड़कर 1999 में सरकार बना ली, और जिस “कोर” हिन्दू वोटर ने जिन मुद्दों पर विश्वास करके भाजपा को वहाँ तक पहुँचाया था, वह बेचारा मन मसोसकर “सेकुलरिज़्म के ब्लैकमेल”, भाजपा के सत्ता प्रेम और अपने ही मुद्दों को छोड़ने की “तथाकथित” मजबूरी को देखता-सहता रहा।

सन् 2000 के दिसम्बर में भाजपा नेतृत्व (अर्थात अटल-आडवाणी) को हिन्दू वोटरों तथा समूचे देश के दिलों में अमिट छाप छोड़ने का एक अवसर मिला था, लेकिन अफ़सोसनाक और शर्मनाक तरीके से वह भी गँवा दिया गया। जैसा कि हम सभी जानते हैं, दिसम्बर 2000 के अन्तिम सप्ताह में IC-814 नामक फ़्लाइट का अपहरण करके उसे कंधार ले जाया गया था, जहाँ पर भारत सरकार को पाँच खूंखार आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा था। हालांकि इस घटना के बारे में काफ़ी कुछ पहले ही लिखा जा चुका है, परन्तु चूंकि मैं यहाँ भाजपा की गिरावट और “मोदी प्रवृत्ति” के उठाव के बारे में लिख रहा हूँ, इसलिए अधिक विस्तार से इस घटना में न जाते हुए, संक्षेप में भाजपा पर पड़ने वाले इस घटना के दुष्परिणामों के बारे में जानेंगे…

सन् 2000 आते-आते हमारे 24 घण्टे चलने वाले न्यूज़ चैनल और खबरों के प्रति उनकी भूख और “लाइव तथा सबसे तेज” के प्रति उनकी अत्यधिक “वासना” के चलते, कंधार काण्ड में भी इस मीडिया ने NDA सरकार (यानी वाजपेयी-आडवाणी-जसवंत सिंह) को गहरे दबाव में ला दिया था। उस समय भी भारत के मीडिया ने लगातार इस विमान अपहरण के बारे में “ब्रेकिंग न्यूज़” दे-देकर, विमान में सवार यात्रियों के परिजनों के इंटरव्यू दिखा-दिखाकर और प्रधानमंत्री निवास के सामने कैमरायुक्त धरने देकर, सरकार को इतना दबाव में ला दिया था कि सरकार ने पाँच बेहद खतरनाक आतंकवादियों को छोड़ने का फ़ैसला कर लिया। हालांकि जो भाजपा का “कोर हिन्दू वोटर” था, उसका मन इसकी गवाही नहीं देता था, लेकिन भाजपा ने तो उस वोटर के “साथ और सलाह” दोनों को कभी का त्याग दिया था, उस वोटर से पूछता ही कौन था? अंततः बड़े ही अपमानजनक तरीके से एक रिटायर्ड फ़ौजी जसवन्त सिंह अपने साथ पाँच खूंखार आतंकवादियों हवाई जहाज़ में बैठाकर कंधार ले गए, और वहाँ से उन “धनिकों और उच्चवर्गीय लोगों” को “छुड़ाकर”(???) लाए, जिन्होंने अपने जीवन में शायद कभी भी भाजपा को वोट नहीं दिया होगा (ध्यान रहे कि सन 2000 में हवाई यात्रा करने वाले अधिकांश लोग धन्ना सेठ और उच्चवर्गीय लोग ही होते थे), लेकिन जब प्रधानमंत्री निवास के सामने रात-दिन इन धनवान लोगों ने रोना-पीटना मचा रखा हो, तमाम चैनल लगातार वाजपेयी सरकार की असफ़लता(?) को गिनाए जा रहे हों, हर तरफ़ यह “डरपोक माहौल” बना दिया गया हो कि यदि आतंकवादियों को नहीं छोड़ा तो “कयामत” का दिन नज़दीक आ जाएगा… इत्यादि के भौण्डे प्रदर्शन से कैसी भी सरकार हो, दबाव में आ ही जाती। ऊपर से महबूबा मुफ़्ती अपहरण के समय छोड़े गए आतंकवादियों का “अलौकिक उदाहरण”(?) पहले से मौजूद था ही, सो सारे तथाकथित पत्रकारों ने (जो खुद को देशभक्त बताते नहीं थकते थे) “आतंकवादियों को छोड़ो… आतंकवादियों को छोड़ो… नागरिकों की जान बचाओ… यात्रियों को सकुशल वापस लाओ…” जैसा विधवा प्रलाप सतत 8 दिन तक किए रखा।


ऐसे कठिन समय में देश के गृहमंत्री अर्थात आडवाणी से जिस कठोर मुद्रा की अपेक्षा की जा रही थी, वह कहीं नहीं दिखाई दे रही थी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे को मिलने वाले कवरेज के कारण लगातार हो रही जगहँसाई के सामने एक भी भाजपाई नेता नहीं दिखा, जो तनकर खड़ा हो जाए और कह दे कि “हम आतंकवादियों की कोई माँग नहीं मानेंगे… उन्हें जो करना हो कर लें”। भाजपा का कोर हिन्दू वोटर जो एक मजबूत देश का मजबूत प्रधानमंत्री चाहता था, वह अपेक्षित करता था कि वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी, व्लादिमीर पुतिन (चेचन्या के आतंकवादियों द्वारा किया गया थियेटर बंधक काण्ड) की तरह ठोस और तत्काल निर्णय लेकर या तो आतंकवादियों के सामने झुकने से साफ़ इंकार कर दे, या फ़िर इज़राइल की तरह कमाण्डोज़ भेजकर उन्हें कंधार में ही खत्म करवा दे… लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वाजपेयी-आडवाणी-जसवन्त की तिकड़ी ने 31 दिसम्बर 2000 को पाँच आतंकवादियों को रिहा कर दिया और हमारे तथाकथित “युवा” और “जोशीले” भारत ने बड़े ही पिलपिले, शर्मनाक और लुँज-पुँज तरीके से 21वीं सदी में कदम रखा। उस दिन अर्थात 1 जनवरी 2001 को भारत के युवाओं और हताश-निराश भाजपा समर्थकों के मन में एक “दबंग” प्रधानमंत्री की लालसा जाग उठी थी…। ध्यान रहे कि इस समय तक भी नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य में कहीं नहीं थे, परन्तु जैसी दबंगई नरेन्द्र मोदी ने, पिछले दस वर्षों में मीडिया, NGOs तथा निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा उनके खिलाफ़ चलाए जा रहे अभियानों के दौरान दिखाई है… मध्यवर्गीय हिन्दू युवा इसी दबंगई के दीवाने हुए हैं एवं “मोदी प्रवृत्ति” इसी का विस्तारित स्वरूप है। कल्पना कीजिए कि यदि उस समय वाजपेयी-आडवाणी-जसवन्त सिंह कठोर निर्णय ले लेते, तो आज भाजपा के माथे पर एक सुनहरा मुकुट होता तथा आतंकवाद से लड़ने की उसकी प्रतिबद्धता के बारे में लोग उसे सर-माथे पर बैठाते… लेकिन भाजपा तो मुफ़्ती मोहम्मद सईद और नरसिम्हाराव की कतार में जाकर बैठ गई, जिसने हिन्दू मानस को बुरी तरह आहत किया…।

1998 से पहले तक, “पराए” शर्मनिरपेक्षों ने हिन्दू मन पर कई घाव दिए थे, लेकिन 1999 से 2001 के बीच जिस तरह से भाजपा के नेताओं ने “गठबंधन सरकार चलाने की मजबूरी”(?)(?) के नाम पर प्रमुख मुद्दों से समझौते किए, उसे “अपनों द्वारा ही, अपनों पर घाव” की तरह लिया गया… ज़ाहिर है कि जब कोई अपना चोट पहुँचाता है तो तकलीफ़ अधिक होती है। इसलिए धीरे-धीरे हिन्दू कोर वोटर (जो आडवाणी की रथयात्रा से उपजा था) जिसने भाजपा को 182 सीटों तक पहुँचाया था, भाजपा से छिटकने लगा और भाजपा की ढलान शुरु हो गई, जो आज तक जारी है…। लेकिन हिन्दू दिलों में “नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति” का प्रादुर्भाव, जो कि 1985 में “शाहबानो मसले” से शुरु हुआ था, वह 15 साल में “कंधार काण्ड” तथा खासकर “तीन कोर मुद्दों” को त्यागकर, सेकुलरिज़्म की राह पकड़ने की कोशिशों की वजह से, मजबूती से जम चुका था…।

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मित्रों… 2001 से आगे हम अगले अंक में देखेंगे… क्योंकि 2002 में नरेन्द्र मोदी का पहले गुजरात और फ़िर राष्ट्रीय परिदृश्य पर आगमन हुआ…। जबकि 2001 से 2004 के बीच भी NDA की सरकार के कार्यकाल में कुछ और भी “कारनामे” हुए, जिसने अप्रत्यक्ष रूप से “दबंगई स्टाइल वाली मोदी प्रवृत्ति” को ही बढ़ावा दिया था।
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शनिवार, 17 नवम्बर 2012 12:26

Double Standards of Media and Secularism : Gujarat Elections

मीडिया, सेकुलरिज़्म और गुजरात चुनाव… (एक माइक्रो-पोस्ट)


भारत के चुनाव आयोग ने गुजरात में मकसूद काज़ी (अल्पसंख्यक सेल सूरत), तथा दो अन्य कांग्रेसी नेताओं कादिर पीरज़ादा व रिज़वान उस्मानी के खिलाफ़ चुनाव प्रचार के दौरान "भड़काऊ भाषण देने, घृणा फ़ैलाने, धार्मिक विद्वेष पैदा करने" समेत कई धाराओं में FIR दर्ज की है।





केन्द्रीय मंत्री शंकर सिंह वाघेला भी पीछे नहीं हैं, इनके खिलाफ़ भी चुनाव आयोग ने "आपत्तिजनक और उकसाने वाली भाषा" को लेकर FIR दर्ज कर दी है…। चूंकि सभी भाषणों की वीडियो रिकॉर्डिंग हो रही है, इसलिए चुनाव आयोग स्वयं संज्ञान से यह कार्रवाई कर रहा है। अधिकांश उत्तेजक भाषणों में गोधरा के दंगों और मुसलमानों के साथ अन्याय इत्यादि को लेकर ही भड़काने वाले भाषण दिए जा रहे हैं।

(हालांकि "सेक्यूलर वेश्यावृत्ति" से ग्रस्त मीडिया में इस सम्बन्ध में कोई खबर नहीं है)

यहाँ पर सवाल यह नहीं है कि ये लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि हम तो जानते ही हैं "कांग्रेस ही इस देश की सबसे बड़ी साम्प्रदायिक पार्टी है", लेकिन जब नरेन्द्र मोदी समेत गुजरात के सभी मंत्री "विकास" के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे हैं, साम्प्रदायिक मुद्दों को पीछे छोड़ चुके हैं… तो फ़िर कांग्रेसी बार-बार गोधरा-गोधरा कहकर आग में घी क्यों डाल रहे हैं। विकास के मुद्दों पर चुनाव क्यों नहीं लड़ते?

इसी "नकली" मीडिया ने असम और हैदराबाद की घटनाओं पर अभी तक एक शब्द भी नहीं कहा है… जबकि आपको याद होगा कि वरुण गाँधी द्वारा "हाथ काटने" वाले बयान पर सभी सेकुलरों ने अपने कपड़े तार-तार कर लिए थे…

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अब कल्पना कीजिए कि यदि इनकी हरकतों की वजह से नरेन्द्र मोदी या किसी अन्य भाजपा नेता के मुँह से कोई गलत-सलत बात निकल गई तो यह "नेशनल मीडिया" और तथाकथित "सिक-यू-लायर" कैसी दुर्गन्ध मचाएंगे…

तात्पर्य यह है कि, जब हम "सेक्यूलरों, कांग्रेसियों और मीडिया" को (________), तथा (__________) और (_________) कहते हैं… तो हम बिलकुल सही कहते हैं…। 
स्रोत :-  http://deshgujarat.com/2012/11/15/so-who-exactly-is-communal-in-gujarat-in-this-election-season/ 
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सोमवार, 12 नवम्बर 2012 11:58

Mysterious Anu Tandon, Reliance, Ambani and Rahul Gandhi...

रहस्यमयी शख्सियतें : अनु टण्डन और संदीप टण्डन… 


१-आखिर अनु टंडन जिसने सिर्फ दो दिन पहले ही कांग्रेस ज्वाइन किया उसे राहुल गाँधी ने सांसद का टिकट क्यों दिया ? और अगर टिकट दिया तो उन्नाव में राहुल गाँधी ने अनु को जिताने के लिए एडी चोटी का जोर क्यों लगाया ?

२- रिलाएंस ग्रुप पर छापा मारने वाले संदीप टंडन के इशारे पर पूरी केंद्र सरकार और गाँधी परिवार क्यों उनके कदमो में गिर जाता था ? आखिर संदीप टंडन ने मुकेश अंबानी के ठिकानो और एचएसबीसी बैंक पर छापे के दौरान ऐसे कौन कौन से दस्तावेज बरामद किये जिससे गाँधी परिवार संदीप टंडन के इशारे पर नाचता रहा ?

३- आखिर संदीप टंडन की स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख में हुई रहस्यमय मौत की जाँच क्यों नही हुई ? एक कांग्रेसी सांसद और उपर से राहुल गाँधी के कोर कमेटी की मेम्बर अनु टंडन के पति की रहस्यमय मौत पर केंद्र सरकार और कांग्रेस खामोश क्यों ?


४- आखिर संदीप टंडन साल में आठ महीने स्विट्जरलैंड में क्यों रहते थे ? उन्होंने वहाँ घर भी ले रखा था |जब वो रिलायंस में निदेशक के पद पर थे तब वो अपने ऑफिस में रहने के बजाय स्विट्जरलैंड में क्यों रहते थे ?

५- छुट्टियाँ मनाने के बहाने राहुल गाँधी, राबर्ट बढेरा और खुद सोनिया गाँधी बार बार संदीप टंडन के पास स्विट्जरलैंड ज्यूरिख क्यों जाते थे ?

6) स्विट्जरलैंड स्थित भारतीय दूतावास द्वारा आनन फानन में संदीप टंडन के शव को भारत क्यों भेज दिया ? जब उनकी मौत प्राकृतिक नही थी तब उनके शव का पोस्टमार्टम क्यों नही किया गया? 

जब लोकसभा चुनावो में कांग्रेस ने उन्नाव से अनु टंडन को टिकट दिया तब यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष और उन्नाव जिले के कांग्रेस अध्यक्ष तक को नही मालूम था की ये अनु टंडन कौन है ? राहुल गाँधी ने यूपी कांग्रेस के पदाधिकारियो से कहा की ये अनु टंडन हर हाल में जितनी चाहिए इसके लिए कुछ भी करना पड़े | शाहरुख़ खान, सलमान खान से लेकर रवीना टंडन , कैटरिना कैफ आदि बालीवुड के सैकड़ो सितारे उन्नाव में अनु टंडन के प्रचार के लिए आये| अनु टंडन के पति संदीप टंडन इंडियन रेवेन्यु सर्विस के अधिकारी थे.. ये उस टीम में शामिल थे जिस टीम ने रिलाएंस ग्रुप पर छापा मारा था .. फिर मजे की बात ये है की छापे के कुछ महीनों के बाद ही नाटकीय ढंग से ये सरकारी नौकरी छोडकर रिलाएंस इंडस्ट्रीज के बोर्ड में शामिल हो गये। जबकि ये गलत था, और तो और इनकी पत्नी अनु टंडन जो सिर्फ बीएससी [बायो] पास थी और जिनके पास कोई अनुभव तक नही था ..उनको मुकेश अंबानी ने अपनी सोफ्टवेयर कम्पनी मोतेफ़ का सर्वेसर्वा बना दिया , आखिर क्यों ?


मित्रो, असल में संदीप टंडन ने छापे के दौरान कई ऐसे कागजात और सुबूत बरामद किये थे जिससे पता चलता था की गाँधी खानदान के कालेधन को मुकेश अंबानी सफेद कर रहे है | असल में अमेरिका और भारत सहित कई देशो में स्विस बैंको के खिलाफ गुस्सा फैला है और स्विस सरकार अमेरिका, जर्मनी सहित कई देशो से संधि कर चुकी है की वो अपने यहाँ जमा कालेधन का ब्यौरा देगी | इससे गाँधी खानदान ने अपने कालेधन को निकालकर मुकेश अंबानी को देकर उसे सफेद करने में जुट गया | देश की कई एजेंसियों को भनक लगी की मुकेश अंबानी हवाला में माध्यम से दुबई से कालाधन अपनी कम्पनी में कमिशन लेकर सफेद कर रहे है तो डीआरआई ने मुकेश अम्बानी के ठिकानो पर अचानक छापा मारा जिसका नेतृत्व संदीप टंडन कर रहे थे | फिर मुकेश अंबानी और गाँधी परिवार ने मुंहमांगी कीमत देकर संदीप टंडन को ही खरीद लिया |

1) एक बड़ा सरकारी अधिकारी जिस कम्पनी पर छापा मारता है वो सिर्फ चंद महीने के बाद उसकी कम्पनी का निदेशक कैसे बन जाता है ? 

2) केंद्र सरकार ने संदीप टंडन की वीआरएस की अर्जी तुरतं ही मंजूर कैसे कर ली ?

3) संदीप टंडन की रहस्मय मौत की खबर जिन जिन वेब साईट पर थी उन साइटों को केंद्र सरकार ने किसके आदेश से ब्लाक कर दिया ? जिस महिला को राजनीति का एक दिन का भी अनुभव न हो उसे राहुल गाँधी अपनी कोर ग्रुप की सबसे अहम सदस्य कैसे बना सकते है ? आखिर इसके पीछे क्या राज है?

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लेकिन चूंकि मीडिया को सिर्फ़ गडकरी के सो कॉल्ड भ्रष्टाचार और नरेन्द्र मोदी की साम्प्रदायिकता पर बात करने से ही फ़ुर्सत नहीं है, इसलिए "पवित्र गाँधी परिवार" या "पवित्रतम उद्योगपति मुकेश अंबानी" से कोई सवाल-जवाब करने का टाइम नहीं है…। और मान लो यदि टाइम मिल भी जाए, तो किसी मीडिया हाउस की इतनी औकात भी नहीं है कि वह सोनिया अथवा मुकेश को स्टूडियो में बैठाकर उनके खिलाफ़ कोई कार्यक्रम पेश करे…

  (डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी समूह के फ़ेसबुक पेज एवं IBTL के सौजन्य से… जनहित की जानकारी हेतु साभार प्रकाशित) 
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शनिवार, 10 नवम्बर 2012 20:26

Arvind Kejriwal - A Crusader or Something Else??

अरविन्द केजरीवाल : एक योद्धा या एक मोहरा?


जब किसी कम्पनी के सारे उत्पाद एक-एक करके मार्केट में फ़ेल होने लगते हैं और कम्पनी का मार्केट शेयर गिरने लगता है, तथा उसकी साख खराब होने लगती है, साथ ही जब उसकी प्रतिद्वंद्वी कम्पनी के मार्केट में छा जाने की संभावनाएं मजबूत होने लगती हैं, तब ऐसी स्थिति में वह कम्पनी क्या करती है? अक्सर ऐसी स्थिति में दो-तरफ़ा “मार्केटिंग और मैनेजमेण्ट की रणनीति” के तहत – 1) किसी तीसरी कम्पनी को अधिग्रहीत कर लिया जाता है, और नए नामों से प्रोडक्ट बाज़ार में उतार दिए जाते हैं और 2) इस नई कम्पनी के ज़रिए, यह बताने की कोशिश की जाती है कि, प्रतिद्वंद्वी कम्पनी के उत्पाद भी बेकार हैं। 

एक प्रसिद्ध विचारक ने कहा है कि – “…If you could not CONVINCE them, CONFUSE them…” अर्थात यदि तुम सामने वाले को सहमत नहीं कर पाते हो, तो उसे भ्रम में डाल दो… आप सोच रहे होंगे कि Arvind Kejriwal की तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम(?) का इस मार्केटिंग सिद्धांत से क्या सम्बन्ध है? यदि पिछले कुछ माह की घटनाओं और विभिन्न पात्रों के व्यवहार पर निगाह डालें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अरविन्द केजरीवाल, इसी “नई तीसरी कम्पनी” के रूप में उभरे हैं, जो कि वास्तव में कांग्रेस नामक कम्पनी का ही “बाय-प्रोडक्ट” है। इसे सिद्ध करने के लिए पहले हम घटनाक्रमों के साथ-साथ इतिहास पर भी आते हैं…

      अधिक पीछे न जाते हुए हम सिर्फ़ दो “मोहरों” के इतिहास को देखेंगे… पहला है पंजाब में जरनैल सिंह भिंडराँवाले और दूसरा है महाराष्ट्र में राज ठाकरे (Raj Thakre)…। पाठकों को याद होगा कि जब पंजाब में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने अपने राजनैतिक अभियान के तहत कांग्रेस के खिलाफ़ अकाली दल को खड़ा किया, और उसकी लोकप्रियता रातोंरात बढ़ी, तब इन्दिरा गाँधी की नींद उड़ना शुरु हो गई थी। कांग्रेस ने (अर्थात इंदिरा गाँधी ने) पंजाब में जरनैल सिंह भिंडरांवाले को समर्थन और मदद देना शुरु किया, ताकि अकाली दल से मुकाबला किया जा सके। इस चाल में कामयाबी भी मिली और अकाली दल दो-फ़ाड़ हो गया, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी में भी दरार पड़ गई और धीरे-धीरे भिंडरांवाले सर्वेसर्वा बनकर काबिज हो गए। भिंडराँवाले के कई कार्यों और सम्पर्कों की तरफ़ से जानबूझकर आँख मूंदे रखी गई, परन्तु इसकी आड़ में कांग्रेस को धता बताते हुए खालिस्तान आंदोलन मजबूत हो गया। हालांकि आगे चलकर कांग्रेस को इस “चालबाजी” और घटिया राजनीति का खामियाज़ा इन्दिरा गाँधी की जान देकर चुकाना पड़ा, परन्तु इस लेख का मकसद पंजाब की राजनीति में जाना नहीं है, बल्कि कांग्रेस द्वारा “मोहरे” खड़े करने की पुरानी राजनीति को बेनकाब करना है।

      ठीक भिंडरांवाले की ही तरह महाराष्ट्र के मुम्बई में शिवसेना के दबदबे को तोड़ने के लिए राज ठाकरे की महत्त्वाकांक्षाओं को न सिर्फ़ हवा दी गई, बल्कि उसके कई कृत्यों (दुष्कृत्यों) की तरफ़ से आँख भी मूँदे रखी गई। राज ठाकरे ने कई बार महाराष्ट्र सरकार को चुनौती दी, बिहारियों के साथ सरेआम मारपीट भी की, लेकिन चूंकि राज ठाकरे के उत्थान में कांग्रेस अपना फ़ायदा देख रही थी, इसलिए उसे परवान चढ़ने दिया गया, ताकि वह शिवसेना के मुकाबले खड़ा हो सके और उनके आपसी वोट कटान से कांग्रेस को लाभ मिले…। इस चाल में भी कांग्रेस कामयाब रही, राज ठाकरे की गलतियों और कृत्यों पर परदा डालने के अलावा, मनसे को खड़ा करने के लिए लगने वाला “लॉजिस्टिक सपोर्ट” (आधारभूत सहायता) भी कांग्रेस ने मुहैया करवाई, जिसके बदले में महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में कम से कम 40 सीटों पर राज ठाकरे ने भाजपा-शिवसेना गठबंधन को नुकसान पहुँचाया, आगे चलकर नगरीय निकाय चुनावों में भी राज ठाकरे ने विपक्ष को भारी नुकसान पहुँचाया… कांग्रेस यही तो चाहती थी। हालांकि इन दोनों किरदारों में जमीन-आसमान का अन्तर है और केजरीवाल के साथ इनकी तुलना शब्दशः अथवा सैद्धांतिक रूप से नहीं की जा सकती, परन्तु पहले दोनों उदाहरण कांग्रेस द्वारा मोहरे खड़े करके फ़ूट डालने के सफ़ल उदाहरण हैं। अब हम आते हैं केजरीवाल पर… 


      क्या कभी किसी ने ऐसा उदाहरण देखा है, कि सरेआम कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए कोई व्यक्ति बिजली के खंभे पर चढ़कर, जबरन किसी की काटी गई बिजली जोड़ दे। वहाँ खड़े होकर मुस्कुराते हुए फ़ोटो खिंचवाए, पत्रकारों को इंटरव्यू दे और आराम से निकल जाए… और इतना सब होने पर भी उस व्यक्ति के खिलाफ़ एक FIR तक दर्ज ना हो? आम परिस्थितियों में ऐसा नहीं हो सकता, लेकिन यदि उस व्यक्ति को परदे के पीछे से कांग्रेस का पूरा समर्थन हासिल हो तब जरूर हो सकता है। Arvind Kejriwal कहते हैं कि दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ना उनका पहला लक्ष्य है, जबकि वास्तव में यह लक्ष्य कांग्रेस का है, कि किसी भी तरह शीला दीक्षित को चौथी बार चुनाव जितवाया जाए, इसलिए यदि केजरीवाल को आगे करने, बढ़ावा देने और उसके खिलाफ़ कोई कड़ी कार्रवाई न करके, दिल्ली विधानसभा की 20-25 सीटों पर भी भाजपा को मिलने वाले वोटों की “काट” खड़ी की जा सके, तो यह कोई बुरा सौदा नहीं है। आँकड़े बताते हैं कि कांग्रेस और भाजपा को मिलने वाले वोटों का प्रतिशत लगभग समान ही होता है, परन्तु सिर्फ़ एक-दो प्रतिशत वोटों से कोई भी पार्टी हार सकती है। शीला दीक्षित हो या कांग्रेस के ढेरों मंत्री, किसी की “मार्केट इमेज” अच्छी नहीं है (बल्कि रसातल में जा चुकी है), ऐसे में यदि केजरीवाल नामक प्रोडक्ट को बाज़ार में स्थापित कर दिया जाए और मार्केट शेयर (यानी वोट प्रतिशत) का सिर्फ़ 2-3 प्रतिशत बँटवारा भी हो जाए, तो कांग्रेस की मदद ही होगी। अर्थात कांग्रेस या किसी अन्य तीसरी शक्ति के “बाय-प्रोडक्ट” अरविन्द केजरीवाल के लिए दिल्ली विधानसभा चुनाव एक प्रकार का “लिटमस टेस्ट” भी है और “टेस्टिंग उपकरण” भी है। यदि “ईमानदारी”(?) का ढोल पीटते हुए राजा हरिश्चन्द्रनुमा इमेज के जरिए कुछ बुद्धिजीवियों, कुछ आदर्शवादी युवाओं और कुछ भोले-भाले लोगों को “भ्रमित” (Confuse) कर लिया तो समझो मैदान मार लिया…। यदि दिल्ली विधानसभा में यह “प्रयोग” सफ़ल रहा तभी इसे 2014 के लोकसभा चुनावों में भी आजमाया जाएगा… 


      बहरहाल, बात हो रही थी केजरीवाल की…। वास्तव में दो साल पहले जब से अन्ना आंदोलन आरम्भ हुआ, तभी से यह देखा गया कि उस टीम के क्रियाकलापों में अरविन्द केजरीवाल की किसी से भी नहीं बनी। अक्सर केजरीवाल अपनी मनमानी चलाते रहे और उनके तानाशाही और “पूर्व-अफ़सरशाही” रवैये के कारण अन्ना हजारे, किरण बेदी, जस्टिस हेगड़े समेत एक-एक कर सभी साथी केजरीवाल से अलग होते गए। परन्तु चूंकि केजरीवाल उस “विशिष्ट जमात” से आते हैं जो NGOs के विशाल नेटवर्क के साथ-साथ सेकुलरों और वामपंथियों के जमावड़े से बना हुआ है, तो इन्हें नए-नए मित्र मिलते गए। परन्तु केजरीवाल के साथ दिक्कत यह हो गई, कि जिस “राजा हरिश्चन्द्र” की छवि के सहारे वे कांग्रेस और भाजपा को एक समान बताने अथवा दोनों पार्टियों को एक जैसा भ्रष्ट बताने की कोशिशों में लगे, उनके दागी साथियों के इतिहास और पूर्व-कृत्यों ने इस पर पानी फ़ेर दिया। इनके साथियों के इतिहास को भी हम बाद में संक्षिप्त में देखेंगे, पहले हम केजरीवाल द्वारा की गई “राजनैतिक” चालाकियों और किसी “तीसरी शक्ति” द्वारा संचालित होने वाले उनके “मोहरा-व्यवहार” पर प्रकाश डालेंगे… 

      जब केजरीवाल, अन्ना से अलग हुए और उन्होंने राजनैतिक पार्टी बनाने का फ़ैसला किया, उसी दिन से उन्होंने स्वयं को “इस ब्रह्माण्ड का एकमात्र ईमानदार व्यक्ति” बताने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। केजरीवाल के इस तथाकथित आंदोलन के लॉंच होने से पहले देश में दो बड़े-बड़े घोटालों पर चर्चा, बहस और विच्छेदन चल रहे थे, वह थे 2G घोटाला और कोयला घोटाला तथा थोरियम घोटाले की खबरें भी छन-छनकर मीडिया में आना शुरु हो चुकी थीं। लेकिन केजरीवाल ने अपनी आक्रामक छापामार मार्केटिंग तकनीक तथा चैनलों के TRP प्रेम को अपना “हथियार” बनाया। जिस तरह “कौन बनेगा करोड़पति” के अगले एपीसोड का प्रचार किया जाता है, उसी तरह केजरीवाल भी अपने साप्ताहिक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में “आज का खुलासा – आज का खुलासा” टाइप का प्रचार करने लगे। 

      केजरीवाल ने अपनी मुहिम की पहली बड़ी शुरुआत की, दिल्ली में बिजली दरों के खिलाफ़ आंदोलन करके। उन्होंनें एक दो जगह जाकर कटी हुई बिजली जोड़ने का नाटक किया, मुस्कुराए, फ़ोटो खिंचाए और चल दिए। लेकिन केजरीवाल यह नहीं बता पाए कि जब दिल्ली की जामा मस्जिद पर चार करोड़ से अधिक का बिजली बिल बकाया है तो उसके खिलाफ़ उन्होंने एक शब्द भी क्यों नहीं कहा? कहीं ऐसा तो नहीं कि भाजपा-संघ-भगवा से नफ़रत करने के क्रम में जब पिछले अप्रैल में वे बुखारी को मनाने उनके घर पहुँचे थे, तब इनके बीच कोई साँठगाँठ पनप गई? खैर… केजरीवाल का अगला हमला(?) हुआ सोनिया गाँधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा पर तथा DLF के आर्थिक कनेक्शनों की संदिग्धता दर्शाने और पोल खोलने से। रॉबर्ट वाड्रा पर उन्होंने “सिर्फ़ 300 करोड़” के घोटाले का आरोप मढ़ा, और यह सिद्ध करने की कोशिश की, कि हरियाणा सरकार, रॉबर्ट वाड्रा, DLF और कांग्रेस सबने आपसी मिलीभगत से दिल्ली-राजस्थान-हरियाणा में जमकर जमीनों की लूट की है, जिससे रॉबर्ट वाड्रा को रातोंरात करोड़ों रुपए का लाभ हुआ है। एक शानदार सनसनी फ़ैलाने के लिए तो केजरीवाल द्वारा रॉबर्ट वाड्रा का नाम लेना बहुत मुफ़ीद साबित हुआ, और मीडिया ने इस हाथोंहाथ लिया… एक सप्ताह तक इस घोटाले पर मगजपच्ची होती रही, चैनलों के डिबेट-रूम गर्मागर्म बहस से सराबोर होते रहे। तत्काल अगले सप्ताह, “बिग-बॉस” (सॉरी… केजरीवाल बॉस) का नया संस्करण मार्केट में आ गया, जिसमें उन्होंने सलमान खुर्शीद पर उनके ट्रस्ट द्वारा विकलांगों के लिए खरीदे जाने वाले उपकरणों में “71 लाख का महाघोटाला”(?), चैनलों पर परोस दिया। अगले दस दिन भी सलमान खुर्शीद की नाटकीय घोषणाओं, केजरीवाल की चुनौतियों, फ़िर सलमान खुर्शीद की “प्रत्युत्तर प्रेस-कॉन्फ़्रेंस” में बीत गया। एपिसोड के इस भाग में, “उत्तेजना”, “देख लूंगा”, “स्याही और खून”, टाइप के अति-नाटकीय ड्रामे पेश किए गए। अर्थात 1 लाख 76 हजार करोड़ के कोयला घोटाले से सारा फ़ोकस पहले 300 करोड़ के घोटाले और फ़िर 71 लाख के घोटाले तक लाकर सीमित कर दिया गया। 

      यहाँ पर मुख्य मुद्दा यह नहीं है कि रॉबर्ट वाड्रा या सलमान खुर्शीद ने घोटाला या भ्रष्टाचार किया या नहीं किया, सवाल यह है कि इस प्रकार के “मीडिया-ट्रायल” और TRP अंक बटोरू मार्केटिंग नीति से केजरीवाल ने, मुख्य मुद्दों से देश का ध्यान भटका दिया। सुशील शिंदे पहले ही कह चुके हैं कि जब जनता बोफ़ोर्स भूल गई तो बाकी के घोटाले भी भूल जाएगी, तब उनका विश्वास केजरीवाल ड्रामे पर ही था। जैसा कि बेनीप्रसाद वर्मा ने मजाक में कहा कि “सिर्फ़ 71 लाख” से क्या होता है? कोई केन्द्रीय मंत्री “इतने कम”(?) का घोटाला कर ही नहीं सकता, उसी प्रकार रियलिटी सौदों से जुड़ा हुआ कोई मामूली व्यक्ति भी मजाक-मजाक में ही बता सकता है कि वास्तव में रॉबर्ट वाड्रा भी 300 करोड़ जैसा “टुच्चा घोटाला” कर ही नहीं सकते, क्योंकि महानगर में रियलिटी क्षेत्र में बिजनेस करने वाला मझोला बिल्डर भी 300 करोड़ से ऊपर का ही आसामी होता है, फ़िर रॉबर्ट तो ठहरे “राष्ट्रीय दामाद”, विभिन्न अपुष्ट सूत्रों के अनुसार वाड्रा कम से कम 5 से 8 हजार करोड़ के मालिक हैं, लेकिन सिर्फ़ चैनलों पर एक सप्ताह की बहस हुई, चर्चा हुई, कांग्रेस ने कहा कि हम वाड्रा के खिलाफ़ जाँच नहीं करवाएंगे… और मामला खत्म, अगला मामला (यानी सलमान दबंग का) शुरु…। 

      इन दोनों मुद्दों पर मिली हुई TRP, प्रसिद्धि, कैमरों-माइक की चमक-दमक और VIP दर्जे ने अरविन्द केजरीवाल को एक गुब्बारे की तरह हवा में चढ़ा दिया। आम जनता के बीच चैनलों ने उनकी “राजा हरिश्चन्द्र” जैसी पहले से पेश की हुई छवि को, पॉलिश करके और चमकाना आरम्भ किया। इन शुरुआती हमलों के बाद चूंकि उन्हें भाजपा-कांग्रेस को एक समान दर्शाना था, इसलिए जल्दबाजी में उन्होंने नितिन गडकरी पर हमला बोल दिया। दस्तावेजों के अभाव, मुद्दों की अधूरी समझ तथा गडकरी को भ्रष्ट साबित करने की इस जल्दबाजी ने इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस को “फ़्लॉप शो” बनाकर रख दिया। यहाँ तक कि भाजपा के विरोधियों को भी केजरीवाल द्वारा गडकरी के खिलाफ़ पेश किए गए “तथाकथित सबूतों” में भ्रष्टाचार कहाँ हुआ है, यह ढूँढ़ने में खासी मशक्कत करनी पड़ी। परन्तु अव्वल तो केजरीवाल जल्दबाजी में हैं और दूसरे उनका किसी संस्था पर भरोसा भी नहीं है, इसलिए न तो केजरीवाल ने रॉबर्ट वाड्रा, न ही सलमान खुर्शीद और न ही नितिन गडकरी पर कोई FIR दर्ज करवाई, न कोई मुकदमा दायर किया और न ही सरकार से इन सबूतों(?) की किसी प्रकार की जाँच करने की माँग की। क्योंकि केजरीवाल का मकसद था, “सिर्फ़ हंगामा” खड़ा करके सस्ती लोकप्रियता बटोरना, और अपने “गुप्त” आकाओं के इशारे पर कांग्रेस-भाजपा को एक ही कठघरे में खड़ा करना। यहाँ पर भी चालबाजी यह कि जहाँ एक ओर गडकरी तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, वहीं दूसरी ओर रॉबर्ट वाड्रा तो कांग्रेस के सदस्य भी नहीं हैं… क्या केजरीवाल में सोनिया गाँधी के इलाज पर होने वाले खर्च, वायुसेना के विमानों की सवारी के बारे में सवाल पूछने की हिम्मत है? साफ़ बात है कि गडकरी पर हमला बोलकर उन्होंने अपना “छिपा हुआ मकसद” हासिल करने की नाकाम कोशिश की, जबकि राहुल गाँधी या अहमद पटेल को छुआ तक नहीं। ज्ञातव्य है कि प्रियंका गाँधी भी रॉबर्ट की कई कम्पनियों में हाल के दिनों तक एक निदेशक थीं। 



      बहरहाल, नितिन गडकरी के खिलाफ़ पेश किए गए “बोदे और बकवास किस्म के सबूतों” के तत्काल बाद जब भाजपा समर्थकों ने  केजरीवाल के “अनन्य सहयोगियों”(?) के खिलाफ़ मोर्चा खोला और कई तथ्य पेश किए तब से केजरीवाल साहब बैकफ़ुट पर आ गए हैं। असल में केजरीवाल द्वारा गढ़ी गई राजा हरिश्चन्द्र की छवि को भुनाने के लिए अंजलि दमानिया और मयंक गाँधी जैसे लोग भी केजरीवाल के साथ जुड़ गए। गडकरी पर आरोप लगाने से पहले अंजली दमानिया को कोई नहीं जानता था, लेकिन जब खोजबीन की गई तो पाया गया कि यह मोहतरमा खुद ही जमीन के विवादास्पद सौदों में शामिल हैं। दमानिया ने कर्जत (मुम्बई) में आदिवासियों की जमीन झूठ बोलकर खरीदी और जब वहाँ बनने वाले बाँध की डूब में आने लगी तो उनकी जमीन के बदले दूसरे आदिवासियों की जमीन ली जाए ऐसा पत्र भी महाराष्ट्र सरकार को लिखा। जब इस अवैध जमीन पर कालोनी बसाने की योजना खटाई में पड़ गई तो मोहतरमा ने चारों ओर हाथ-पैर मारे, लेकिन जमीन नहीं बची… इसकी खुन्नस अंजली दमानिया ने नितिन गडकरी पर उतार दी। अरविन्द की टीम में ऐसे ही दूसरे संदिग्ध व्यक्ति हैं मयंक गाँधी, मुम्बई में इनके बारे में कई सच्चे-झूठे किस्से मशहूर हैं तथा “लोकग्रुप” के नाम से जो हाउसिंग सोसायटी है उसकी कई अनियमितताओं के पुलिंदे महाराष्ट्र सरकार के पास मौजूद हैं, साथ ही इन महोदय पर दूसरे बिल्डरों एवं जमीन मालिकों को कथित रूप से धमकाने के आरोप भी हैं। टीम के तीसरे प्रमुख सदस्य प्रशांत भूषण तो खैर शुरु से ही विवादों में हैं, चाहे वह कश्मीर की स्वायत्तता सम्बन्धी बयान हो, उत्तरप्रदेश में झूठी कीमत बताकर, सस्ती रजिस्ट्री करवाना हो, या हिमाचल प्रदेश में जमीन खरीदने का मामला हो… यह साहब भी “कथित हरिश्चन्द्र टीम” में शामिल होने लायक नहीं हैं…। अब बचे स्वयं श्री अरविन्द केजरीवाल, जिन पर फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन सहित अमेरिका के अन्य संगठनों से लाखों डॉलर चन्दा लेने का आरोप तो है ही, “इंडिया अगेन्स्ट करप्शन” के बैनर तले अन्ना आंदोलन के समय लिए गए पैसों के दुरुपयोग और उनके खुद के NGO, PCRF के लाभ के लिए उपयोग करने के आरोप भी हैं (हालांकि जब इसकी पोल खुल गई थी, तब वे चन्दे में एकत्रित हुए 2 करोड़ रुपए लेकर अन्ना को भेंट करने उनके गाँव पहुँच गए थे)। इन्हीं की टीम के एक पूर्व सदस्य वायपी सिंह ने केजरीवाल पर खुलेआम शरद पवार को बचाने का आरोप लगा डाला, और केजरीवाल सिर्फ़ खिसियाकर रह गए। इनकी वेबसाईट पर जब IAC का हिसाब-किताब देखा जाता है तब उसमें लाखों रुपए का खर्च “वेतन-भत्ते” के मद में डाला गया है, चकरा गए ना!!! जी हाँ, संभवतः वेतन-भत्ते लेकर किया जाने वाला यह अपने-आप में पहला ही “ई-आंदोलन” होगा।

जो कांग्रेस सरकार कानूनन अनुमति लेकर आमसभा और योग करने आए निहत्थे लोगों को रामलीला मैदान से क्रूरतापूर्ण पद्धति अपनाकर आधी रात को मार-मारकर भगा देती है, वही सरकार केजरीवाल को बड़े आराम से बिजली के तार जोड़ने और मुस्कराते हुए फ़ोटो खिंचाने की अनुमति दे देती है। जो सरकार बाबा रामदेव के खिलाफ़ अचानक सैकड़ों मामले दर्ज करवा देती है, वही सरकार केजरीवाल के NGO के खिलाफ़ एक सबूत भी नहीं ढूँढ पाती? जब किसी की गाड़ी चौराहे पर ट्रैफ़िक पुलिस द्वारा पकड़ी जाती है, तब सारे कागज़ात होते हुए भी वह इंस्पेक्टर ऐसा कोई न कोई पेंच उस गाड़ी में निकाल ही देता है कि चालान बन ही जाए, परन्तु जो सरकार हाथ-पाँव धोकर फ़िलहाल बाबा रामदेव के पीछे पड़ी है, उसे अरविन्द केजरीवाल के NGOs के खिलाफ़ एक भी सबूत नहीं मिला? यह कोई हैरत की बात नहीं “अंदरूनी मोहरावादी वोट गणित समझने” की बात है… 

कुल मिलाकर, कहने का तात्पर्य यह है कि अरविन्द केजरीवाल सिर्फ़ TRP वाली नौटंकियाँ करने में माहिर हैं, भ्रष्टाचार से लड़ाई करने का न तो उनका कोई इरादा है और न ही इच्छाशक्ति। केजरीवाल को सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिए खड़ा किया गया है ताकि कांग्रेस के घोटालों से ध्यान भटकाया जा सके, भाजपा को भी कांग्रेस के ही समकक्ष खड़ा करते हुए, मतदाताओं में भ्रम पैदा किया जा सके, और इस भ्रम के कारण होने वाले 2-3 प्रतिशत वोटों के इधर-उधर होने पर इसका राजनैतिक फ़ायदा उठाया जा सके। टीवी चैनलों के लिए केजरीवाल एक रियलिटी टीवी शो की तरह हैं, गुजरात चुनाव और आगामी लोकसभा चुनाव से पहले ऐसे कई रियलिटी शो आने वाले हैं। न्यूज़ चैनलों को मुफ्त में काम करने वाला एक गढ़ा गया हीरो टाइप का नेता मिल गया है। यह ऐसा नेता है जो आमिर खान की तरह ही शो करेगा, कभी कभी जनता में लेकिन अधिकांशतः टीवी स्टूडियो या प्रेस कॉफ्रेस में ही मिलेगा।
 
      अब अंत में सिर्फ़ एक ही सवाल पर विचार करेंगे तो समझ जाएंगे कि भ्रष्टाचार के मूल मुद्दों को पीछे धकेलने और भाजपा की बढ़त को रोकने के लिए मीडिया और कांग्रेस किस तरह से हाथ में हाथ मिलाकर चल रहे हैं… सवाल है कि पिछले कई सप्ताह से उमा भारती गंगा के प्रदूषण और गंगा नदी को बचाने के लिए एक विशाल यात्रा कर रही हैं, जो बिहार-उत्तरप्रदेश में गंगा किनारे के जिलों में चल रही है… कितने पाठक हैं जिन्होंने उमा भारती की इस यात्रा और गंगा से जुड़े मुद्दों पर मुख्य मीडिया में बड़ा भारी कवरेज देखा हो? केजरीवाल को मिलने वाले कवरेज और उमा भारती को मिलने वाले कवरेज, केजरीवाल और उमा भारती की ईमानदारी, तथा केजरीवाल और उमा भारती की संगठन क्षमता की तुलना कर लीजिए, आपके समक्ष चित्र स्पष्ट हो जाएगा कि वास्तव में केजरीवाल क्या पहुँची हुई चीज़ हैं। यदि आप राजनैतिक गणित का आकलन करने के इच्छुक हैं तब तो आपके लिए यह आसान सा सवाल होगा कि, केजरीवाल की इस कथित मुहिम का लाभ किसे मिलेगा? यदि केजरीवाल को कुछ सीटें मिल जाती हैं तो किसका फ़ायदा होगा? क्या अन्ना के मंच से भारत माता का चित्र हटवाने वाले केजरीवाल कभी भाजपा के साथ आ सकते हैं? जब हमारा देश गठबंधन सरकारों के दौर में हैं तब केजरीवाल द्वारा 2-3 प्रतिशत वोटों को प्रभावित करने से क्या कांग्रेस के तीसरी बार सत्ता में आने का रास्ता साफ़ नहीं होगा??? अर्थात क्या आप अगले पाँच साल UPA-3 को झेलने के लिए तैयार हैं? यदि नहीं… तो मोहरों से सावधान रहिए… 

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Dialogue India पत्रिका में प्रकाशित… लिंक यह है… 
https://www.dropbox.com/s/37jow5959vs2270/DI-November-Issue-2012-in-Hindi.zip
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बुधवार, 07 नवम्बर 2012 17:35

Paid Media, BJP, Secularism and Nitin Gadkari

बिकाऊ मीडिया, नितिन गडकरी, भाजपा और छद्म-सेकुलरिज़्म… 


भाजपाईयों… जब आपको पता है कि मीडिया बिका हुआ है, तो "उनके द्वारा तय किए गए मुद्दों" और "उनकी पिच" पर खेलते ही क्यों हो???

अपने मुद्दे बनाओ, अपनी पिच पर अपनी गेंद से खेलो…। ऐसी स्थिति में मीडिया का निगेटिव प्रचार भी आपके फ़ायदे का सिद्ध होगा… नहीं समझे??? एक-दो उदाहरण देकर समझाता हूँ…

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1) जरा सोचिए कि यदि गडकरी या सुषमा स्वराज, सिर्फ़ 1000-2000 कार्यकर्ताओं के साथ हैदराबाद के भाग्यलक्ष्मी मन्दिर के सामने धरना देकर, ओवैसीयों और मुस्लिम इत्तेहादुल मुसलमीन की दबंगई का विरोध करते और उनकी गिरफ़्तारी की माँग करते… तो ???

(मीडिया का "सनातन भाजपा विरोधी रिएक्शन", फ़िर उस मुद्दे को राष्ट्रीय रंग मिलता, उस पर भाजपा के नेताओं के बयान होते… कैसा शानदार माहौल बनता? गडकरी-वडकरी सब भूल जाते लोग…)

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2) या फ़िर भाजपा की दूसरी पंक्ति का ही कोई नेता मुम्बई में BCCI के दफ़्तर के सामने, पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने का विरोध करते हुए, एकाध-दो छोटे उग्र प्रदर्शन ठोंक देता…। अगले चरण में माहौल देखकर शिवसेना के साथ मिलकर एक जंगी प्रदर्शन कर लिया जाता… तो कैसा रहता???

ज़ाहिर है कि "सेकुलरिज़्म" के बवासीर से पीड़ित और कांग्रेसी चमचाई के बुखार में तपा हुआ मीडिया "अमन की आशा" की रागिनियाँ गाता…, आम जनता तो पहले ही कसाब और 26/11 के गुस्से में है ही… तो किसका फ़ायदा होता????
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संक्षेप में तात्पर्य यह है कि मौके तो बहुत हैं… सिर्फ़ "अपनी पिच" पर गेम खिलाओ और मैच जीतो…
मीडिया के मूर्खों का ध्यान भटकाने के लिए कुछ खास प्रयत्न नहीं करना है, बस भाजपा के बड़े नेताओं को "सेकुलरिज़्म" नाम की बीमारी से उबरना है… फ़िर तो पिच भी अपनी होगी, गेंद भी अपनी होगी… और मीडिया के तमाम "पारिवारिक चमचे" हमारे द्वारा तय किए गए मुद्दों पर खेलते नज़र आएंगे… 
मीडिया और कांग्रेस मिलकर भाजपा को वापस अपने पुराने स्वरूप में आने की ओर धकेल रहे हैं…। पिछले 10 साल (बल्कि 15 साल) में भाजपा ने "अच्छा बच्चा" बनने की असफ़ल कोशिश कर ली है… लेकिन अभी भी "सेकुलरिज़्म" और मुस्लिम वोटों का लोभ नहीं छूट रहा है इनका… (जो इन्हें कभी नहीं मिलने वाले)…। 3000 सिखों की हत्या करके भी कांग्रेस सेकुलर है, 3 लाख पण्डितों को भगाकर भी PDP तक सेकुलर है, लेकिन भाजपा "साम्प्रदायिक" है…। फ़िर भी इन्हें अक्ल नहीं आ रही…
आडवाणी ने हवाला डायरी में नाम आते ही इस्तीफ़ा दिया था… क्या इस ईमानदारी प्रदर्शन से उन्हें वोट मिले??? नहीं मिले। सेकुलर बुद्धिजीवियों ने झूठी तारीफ़ें करके, मुस्लिम वोटों का लालच दिखाकर, "अच्छा बच्चा" बनकर दिखाने का भ्रम देकर, भाजपा नेतृत्व को "भटका" दिया है, धोबी का कुत्ता बना दिया है… और यही इनकी गिरावट का कारण है…। न तो ये बुद्धिजीवी और न ही मुसलमान, कोई भी भाजपा को वोट देने वाला नहीं है, सिर्फ़ सलाह देते हैं ये लोग…। 

लाख टके का सवाल है कि क्या ऐसा करने की हिम्मत भाजपा के ड्राइंगरूमी केन्द्रीय नेताओं में है???
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शनिवार, 03 नवम्बर 2012 12:03

Secularism in Kerala (Vishal from ABVP)

केरल का "सेकुलरिज़्म"…(एक माइक्रो-पोस्ट)


क्या आपको 19 वर्षीय युवक "विशाल" की याद है? ABVP का युवा नेता विशाल जो कि केरल के एक कॉलेज के गेट पर इस्लामिक गुण्डों द्वारा सरेआम मार दिया गया था, क्योंकि विशाल ने सिमी के आधुनिक रूप PFI और "लव जेहाद" के खिलाफ़ सक्रिय आवाज़ उठाई थी…





विशाल का कत्ल करने वाले हत्यारों की गैंग में से एक "शमीम अहमद" केरल पुलिस की हिरासत में है… और "सेकुलरिज़्म" का उम्दा प्रदर्शन करते हुए केरल के मुख्यमंत्री उम्मन चाण्डी ने परसों शमीम के घर जाकर उसके परिजनों को सांत्वना दी…। मुख्यमंत्री के साथ विधायक विष्णुनाथ भी थे, जिन्होंने हाल ही में कृष्ण जन्मोत्सव पर "बाल गोपाल" का रूप धारण किए हुए बच्चों के परिजनों को यह कहते हुए चेताया था कि "ऐसा करने से बच्चे बड़े होकर हिन्दू आतंकवादी बनते हैं…"।

शमीम अहमद का भाई युवा कांग्रेस का नेता है, जो हाल ही में संघ कार्यकर्ताओं के साथ हुए संघर्ष में घायल हुआ था…। अतः (एक हत्या के आरोप में जेल में तथा दूसरा घायल) ऐसे दोनों ही "सदगुणी" भाईयों को "नैतिक समर्थन" देने के लिए चाण्डी साहब उनके घर पर पधारे थे…

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उल्लेखनीय है कि लव जेहाद के खिलाफ़ हुई विशाल की इस नृशंस हत्या के बाद मुख्यमंत्री की तरफ़ से उसके परिजनों को सांत्वना संदेश तक नहीं भेजा गया था…

"शेखूलरिज़्म की जय हो…" Sick-U-Liar Rocking...
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