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बुधवार, 31 अगस्त 2011 20:55

Vote Bank Politics in India...

भारत में संविधान और कानून का राज चलेगा या वोट बैंक और भीड़तन्त्र का???

एक बार फ़िर से भारत नाम का "सॉफ़्ट स्टेट" दोराहे पर आन खड़ा हुआ है, तमिलनाडु विधानसभा ने "ऐतिहासिक एकता"(?) दिखाते हुए राजीव गाँधी के हत्यारों को फ़ाँसी देने के राष्ट्रपति के निर्णय पर पुनर्विचार करने की अपील की है।


उधर कश्मीर में अब्दुल गनी लोन और गिलानी ने धमकी दी थी कि ईद से पहले उनके "भटके हुए नौजवानों" यानी पत्थरबाज गैंग को रिहा करो वरना…!!! उमर अब्दुल्ला तो मौका ही ढूँढ रहे थे, उन्होंने एक कदम आगे बढ़ते हुए ईद का तोहफ़ा देते हुए पत्थरबाजों को उन पर दर्ज सभी पुराने मुकदमों को वापस लेकर उन्हें बाइज्जत जाने दिया, ताकि गिलानी-यासीन मलिक जैसे लोग उन्हें फ़िर "भटका" सकें…।


हुर्रियत कान्फ़्रेंस ने पहले ही धमकी दे रखी है कि यदि अफ़ज़ल गूरू (गुरु नहीं) को फ़ाँसी दी गई तो कश्मीर में खूनखराबा हो जाएगा… केन्द्र सरकार की घिग्गी बँधी हुई है और वह मौका देख रही है कि कैसे अफ़ज़ल को रिहा किया जाये या फ़ाँसी से बचाया जाए। अब तमिलनाडु की विधानसभा ने कांग्रेस को एक मौका दे दिया है, कि "माननीय" राष्ट्रपति 10-12 साल तक अफ़ज़ल की फ़ाइल पर भी बैठी रहें (पिछले 6 साल से शीला दीक्षित और चिदम्बरम बैठे रहे) और फ़िर "अफ़ज़ल तो 20 साल की सजा काट चुका है…" कहकर लिट्टे के उग्रवादियों की तरह ही अफ़ज़ल को भी फ़ाँसी से बचा लिया जाए। इशारों-इशारों में जम्मू-कश्मीर विधानसभा के "माननीय" सदस्य कह रहे हैं कि हम भी "सर्वसम्मति" से ऐसा प्रस्ताव पास करेंगे कि "अफ़ज़ल गूरू" की दया याचिका पर दोबारा विचार हो, अरुंधती रॉय टाइप के "दानवाधिकार" कार्यकर्ता इस मुहिम में सक्रियता से लगे हुए भी हैं…

ऐसे में कुछ गम्भीर सवाल यह उठते है कि -

1) इस देश में "संविधान" के अनुसार शासन चलेगा या "वोट बैंक" की ताकत के अनुसार चलेगा?

2) जब सुप्रीम कोर्ट ने फ़ाँसी की सजा पर दो-दो बार मोहर लगा दी, राष्ट्रपति ने याचिका ठुकरा दी तो किसी राज्य की विधानसभा की इतनी औकात कैसे है, कि वह दोबारा इस पर विचार करने को कहे?

3) क्या भारत के तमाम राष्ट्रपति इतने "बोदे" और "सुस्त" हैं कि उन्हें किसी फ़ाइल पर दस्तखत करने में 11 साल लगते हैं, क्या हमारे गृह मंत्रालय और उसके अधिकारी इतने "निकम्मे" और "कामचोर" हैं कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद फ़ाइल आगे बढ़ाने में 5 साल लगते हैं?

4) तमिलनाडु (लिट्टे के आतंकवादी), पंजाब (भुल्लर केस) और कश्मीर (अफ़ज़ल गूरू)… इस तरह से हर राज्य अपने-अपने चुनावों और "हितलाभ" को देखते हुए आतंकवादियों को "माफ़" करने की अपील करने लगे तो क्या यह हमारे बहादुर जवानों के बलिदान और वीरता का मखौल नहीं है?

5) या तो सीधे लोकसभा में कानून बनाकर हमेशा के लिए फ़ाँसी की सजा के प्रावधान को हटा ही दिया जाए, लेकिन कानून में यदि इसे रखा गया है तो सुप्रीम कोर्ट की इज्जत करना सीखें…(हालांकि कांग्रेस के मन में न्यायालय की कितनी इज्जत है यह हम शाहबानो और भ्रष्ट जज रामास्वामी महाभियोग मामले में देख चुके हैं)…

6) अन्तिम दो सवाल युवाओं से भी है - जब आप NGOs द्वारा "मैनेज्ड" तथा मीडिया द्वारा फ़ुलाए गये अभियानों में बिना सोचे-समझे बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं तो क्या अफ़ज़ल गूरू, पत्थरबाजों की रिहाई, केरल में प्रोफ़ेसर के हाथ काटने (Professor Hand Chopped in Kerala) जैसी घटनाओं पर आपका खून नहीं खौलता?

7) क्या किसी भी राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर आप तभी जागेंगे, जब "भाण्ड मीडिया" अपनी TRP की खातिर आपको उठाएगा, या स्वयं अपनी आँखें-कान खोलकर, खुद का दिमाग चलाकर, देश में चल रही देशद्रोही और देशभंजक गतिविधियों पर भी नज़र रखेंगे?

पंजाब में चुनाव होने वाले हैं इसलिए भुल्लर की फ़ाँसी वाले मामले पर अकाली-भाजपा मौन साध लें, तमिलनाडु में चुनाव होने वाले हैं इसलिए लिट्टे के उग्रवादियों पर जयललिता-करुणानिधि एक हो जाएं, कश्मीर में गिलानी धमकियाँ दे रहे हैं इसलिए अफ़ज़ल की फ़ाँसी पर कांग्रेस से लेकर वामपंथी सभी मुँह में दही जमा लें, असम में उग्रवादियों से बातचीत भी जारी है और सेना के जवान उन्हीं से लड़कर शहीद भी हो रहे हैं…। अरुणाचल से एक सांसद नेपाली नागरिक और हत्यारा होने के बावजूद कांग्रेस से सांसद बन जाता है? बांग्लादेश में सरेआम हिन्दुओं के खिलाफ़ ज़ुल्म जारी हैं, वहाँ के भिखमंगे शरणार्थी भारत पर लगातार बोझ डालते जा रहे हैं… प्रधानमंत्री उसी देश की यात्रा पर जा रहे हैं?……  ये सब क्या हो रहा है? कहाँ है कानून? संविधान का पालन कैसा हो रहा है?


हमारे नेता तो बार-बार "संविधान के शासन" की दुहाईयाँ देते रहते हैं, लेकिन यही लोग आये दिन "संवैधानिक संस्थाओं" को लतियाते भी रहते हैं… चाहे चुनाव आयुक्त के पद पर नवीन चावला की नियुक्ति हो, CVC के पद पर थॉमस की नियुक्ति हो, या फ़िर सुप्रीम कोर्ट कान पकड़कर न घसीटे तब तक कलमाडी, राजा और हसन अली को खुल्लमखुल्ला आश्रय देना हो…। क्या कांग्रेस पार्टी को इतनी भी शर्म नहीं है कि उन्हीं की पार्टी के एक युवा प्रधानमंत्री के हत्यारे "फ़ाइलों के चक्र" और "कानून के जालों" से बीस साल तक बचे रहे? और अब अफ़ज़ल गूरू को बचाने के लिए इसी "पतली गली" की खोज में अभी भी राजनीति से बाज नहीं आ रही, समझा जा सकता है कि क्या तो देश की जनता की रक्षा होगी और क्या तो हम भारत के दुश्मनों को उनके घर जाकर क्या मारेंगे?


जब तक देश का युवा वर्ग "खबरों के उस पार" देखना नहीं सीखता, और "बिके हुए चैनलों-अखबारों" के मायाजाल से बाहर नहीं आता, तब तक ऐसी खबरें-घटनाएं और तथ्य दबाए-छिपाए जाते रहेंगे… देश एक बेहद नाज़ुक राजनैतिक-आर्थिक और सामाजिक दौर से गुज़र रहा है, ऐसे में सिर्फ़ रामलीला मैदान पर "एक रोमाण्टिक आंदोलन" में भाग लेने से कुछ नहीं होगा। हमारा देश पहले से ही "सॉफ़्ट स्टेट" के रूप में बदनाम है, परन्तु अब तो यह "लिज़लिज़ा और पिलपिला" होता चला जा रहा है… नेताओं और सांसदों से यह पूछने का वक्त कभी का आ चुका है कि आखिर यह देश संविधान और कानून के अनुसार चलेगा या वोट बैंक के अनुसार?
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नोट :- "गुरु" शब्द बहुत पवित्र है, परन्तु अफ़ज़ल का सही नाम "गूरू" (कश्मीर में दूध बेचने वाले ग्वालों की एक जाति का उपनाम) है, अतः अफ़ज़ल को "गुरु" नहीं बल्कि उसके सही नाम से "अफ़ज़ल गूरू" कहें…

(सभी मिलकर राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट को ईमेल और पत्र भेजें कि वे लिट्टे हो या अफ़ज़ल हो, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद बार-बार पुनर्विचार न करें और भगवान के लिए "सभी" फ़ाइलों पर "हाँ या ना" कुछ भी हो, पर जल्दी से जल्दी निर्णय लें, आज के "तेज युग" में तो 11 साल में तो "पूरी पीढ़ी" बदल जाती है)
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रविवार, 28 अगस्त 2011 19:58

Anna Hazare, Janlokpal Bill and Indian Parliament


आज़ादी की दूसरी लड़ाई(?) खत्म हुई, क्या दूसरी समस्याओं को देख लें?…   


चलिये… अन्ततः “आज़ादी की दूसरी लड़ाई”(?) बगैर किसी ठोस नतीजे के समाप्त हो गई। जिस प्रकार से यह “दूसरी आज़ादी” हमें मिली है, यदि इन्हीं शर्तों पर मिलनी थी तो काफ़ी पहले ही मिल जानी थी, परन्तु इसके लिए मीडिया और आम जनता को 13 दिन का इन्तज़ार करवाया गया। परदे के पीछे जो भी “डीलिंग” हुई हो (यह तो बाद में पता चलेगा) परन्तु फ़िलहाल जनता के सामने जो “दूसरी आज़ादी” परोसी गई है, उसमें युद्धरत दो पक्ष थे, पहला सिविल सोसायटी और दूसरा केन्द्र की यूपीए सरकार, दोनों पक्ष संतुष्ट हैं।

पहला पक्ष यानी सिविल सोसायटी जिसमें एक से बढ़कर एक युवा लोग थे, परन्तु उन्होंने अनशन करवाने के लिए 74 वर्षीय (अनशन एक्सपर्ट) एक सीधे-सरल बूढ़े को चुना ताकि सहानुभूति तेजी से बटोरी जा सके (इसमें वे कामयाब भी रहे)। वहीं दूसरे पक्ष यानी सरकार ने शुरुआती गलतियों (जैसे अण्णा को गिरफ़्तार करने और उन पर “प्रवक्ता रूपी सरकारी अल्सेशियनों” को छोड़ने) के बाद, बड़ी सफ़ाई से इस आंदोलन को पहले “थकाया” और फ़िर पूरी संसद को अण्णा के सामने खड़ा कर दिया।

 जब तक सत्ता प्रतिष्ठान अपने-अपने मोहरों को सही इस्तेमाल करके अपने राजनैतिक विरोधियों को खत्म करने अथवा अपनी छवि चमकाने के लिए उनका सीमित और सही उपयोग करता है तब तो स्थितियाँ उसके नियन्त्रण में होती हैं, लेकिन यही मोहरे जब “प्राणवान” हो जाएं तो मुश्किल भी खड़ी करते हैं…। ठीक यही कुछ “सिविल सोसायटी” और “मीडिया प्रायोजित” इस आंदोलन में हुआ। हालांकि सिविल सोसायटी को बाबा रामदेव की “राजनैतिक काट” के रूप में सरकार ने ही (भिंडरावाले की तरह) पाल-पोसकर बड़ा किया था, परन्तु जैसी की मुझे पहले से ही आशंका थी सिविल सोसायटी अपनी सीमाओं को लाँघते हुए सरकार पर ही अपनी शर्तें थोपने लगी और संसद को झुकाने-दबाने की मुद्रा में आ गई…। इसके बाद तो सरकार भी “अपनी वाली” पर आ गई एवं उसने सिविल सोसायटी को “थका-थकाकर” खत्म करने की योजना बनाई।

लगभग यही कुछ मीडिया के मामले में भी हुआ, शुरु में मीडिया को निर्देश थे कि “अण्णा की हुंकार” को खूब बढ़ा-चढ़ाकर जनता के सामने पेश किया जाए, मीडिया ने वैसा ही किया। फ़िर जब युवा वर्ग और आम जनता इस “आज़ादी की दूसरी लड़ाई” में भावनात्मक रूप से शामिल होने लगी तो मीडिया भी अपनी “धंधेबाजी” पर उतर आया। मीडिया को मालूम था कि TRP और विज्ञापन बटोरने का ऐसा “शानदार ईवेण्ट” दोबारा शायद जल्दी ना मिले। इसलिए इस आंदोलन को “ओवर-हाइप” किया गया और TRP के खेल में रामलीला मैदान पर “ओबी वैन मेला” लगाया गया। उधर सरकार परदे के पीछे इस जुगाड़ में लगी रही कि सिविल सोसायटी किसी तरह मान जाए, परन्तु वैसा हो न सका। रही-सही कसर भीड़ में शामिल “राष्ट्रवादी तत्वों” ने लगातार वन्देमातरम के नारे लगा-लगाकर पूरी कर दी जिसके कारण कुछ "सेकुलर नाराज़गी" के स्वर भी उभरे… अर्थात “समझौता” या "राजनैतिक स्टण्ट" रचने की जो साजिश थी, वह वन्देमातरम के नारों, RSS के खुले समर्थन की वजह से दबाव में आ गई। 
 
समय बीतता जा रहा था, धीरे-धीरे बातें सरकार और टीम अण्णा के हाथों से बाहर जाने लगी थीं। सरकार को भी अपना चेहरा बचाना था और टीम अण्णा भी “जिस ऊँचे पेड़” पर चढ़ गई थी, वहाँ से उसे भी स-सम्मान उतरना ही था। मीडिया भी आखिर एक ही “इवेण्ट” को कब तक चबाता, वह भी थक गया था। आखिरकार अन्तिम रास्ता संसद से होकर ही निकला, “टीम संसद” ने “टीम अण्णा” को इतनी सफ़ाई से पटकनी दी कि “उफ़्फ़” करना तो दूर, टीम अण्णा “लोकतन्त्र की जीत” के नारे लगाते-लगाते ठण्डी पड़ गई। आईये पहले हम बिन्दुवार देख लें कि टीम अण्णा द्वारा विज्ञापित आखिर यह “जीत”(?) कितनी बड़ी और किस प्रकार की है, फ़िर आगे बात करेंगे –
 
  पहली मांग थी : सरकार अपना कमजोर बिल वापस ले
- सरकार ने बिल तो वापस नहीं ही लिया, उलटा चार नये बिल और मढ़ दिये स्थायी समिति के माथे…

दूसरी मांग थी :  सरकार लोकपाल बिल के दायरे में प्रधान मंत्री को लाये
- सरकार ने आज ऐसा कोई वायदा तक नहीं किया। प्रधानमंत्री ने अपना पल्ला झाड़ते हुए कह दिया कि “मैं तो चाहता हूँ कि प्रधानमंत्री दायरे में आएं, लेकिन मेरे कुछ मंत्री नहीं चाहते…” (ये मंत्री इसलिए ऐसा नहीं चाहते क्योंकि जब कल को “पवित्र परिवार” के सदस्य प्रधानमंत्री बनें और कोई “उल्टा-सीधा” व्यक्ति लोकपाल बन गया तो उन पर कोई “आँच” न आने पाए)। फ़िलहाल टीम अन्ना को थमाए गये लॉलीपॉप में (यानी समझौते के पत्र  में) इसका कोई जिक्र तक नहीं है।

तीसरी मांग थी : लोकपाल के दायरे में सांसद भी हों
- “लॉलीपॉप” में सरकार ने इस सम्बन्ध में भी कोई बात नहीं कही है।

चौथी मांग थी : तीस अगस्त तक बिल संसद में पास हो (क्योंकि 1 सितम्बर से रामलीला मैदान दूसरे आंदोलन के लिए बुक है)
- तीस अगस्त तो छोड़िये, सरकार ने जनलोकपाल बिल पास करने के लिए कोई समय सीमा तक नहीं बताई है कि वह बिल कब तक पास करवाएगी।

पाँचवीं मांग थी : लोकपाल की नियुक्ति कमेटी में सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम हो
- देश को थमाए गये “झुनझुने” में सरकार ने इस बारे में कोई वादा नहीं किया है।

छठवीं मांग (जो अन्त में जोड़ी गई) :- जनलोकपाल बिल पर संसद में चर्चा, नियम 184 (वोटिंग) के तहत कराई जाए
- चर्चा 184 के तहत नहीं हुई, ना तो वोटिंग हुई

उपरोक्त के अतिरिक्त तीन अन्य वह मांगें जिनका जिक्र सरकार ने “टीम अन्ना” को आज दिए गए समझौते के पत्र में किया है वह हैं –

(1) सिटिज़न चार्टर लागू करना, (2) निचले तबके के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाना, (3) राज्यों में लोकायुक्तों कि नियुक्ति करना

प्रणब मुखर्जी द्वारा संसद में स्पष्ट कहा गया है कि इन तीनों मांगों के सन्दर्भ में सदन के सदस्यों की भावनाओं से अवगत कराते हुए लोकपाल बिल में संविधान की सीमाओं के अंदर इन तीन मांगों को शामिल करने पर विचार हेतु  आप (यानी लोकसभा अध्यक्ष) इसे स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजें। अब आप बताएं कि  कौन जीता..? लोकतन्त्र की कैसी जीत हुई...? और टीम अण्णा या टीम संसद में से किसकी जीत हुई...?

सारे झमेले के बाद अब जबकि जनता की भावनाएं उफ़ान पर हैं तो जनता के विश्वास को “लोकतन्त्र की विजय”, “टीम अण्णा और जनता के संघर्ष” के शातिर नारों की आड़ में छुपाया जा रहा है.... जबकि आंदोलन की हकीकत और सफ़लता ये है कि –

1) टीम अण्णा NGOs को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने में सफ़ल हुई है, अब इस पर कोई बात नहीं कर रहा।

2) शीला दीक्षित पर जो फ़न्दा लोकसभा में कसने जा रहा था, वह न सिर्फ़ ढीला पड़ गया, बल्कि उनके सुपुत्र ने सरकार और टीम अण्णा के बीच “मध्यस्थ” बनकर अपनी इमेज चमका ली। उधर अग्निवेश, जिसे इंडिया टीवी ने एक्सपोज़ कर दिया, उसे भी दलाली और जासूसी के "उचित भाव" के अनुसार माल मिला ही होगा।

3) अण्णा की जो “लार्जर दैन लाइफ़” इमेज बना दी गई है उसे भविष्य में किसी खास दुश्मन के खिलाफ़ “उपयोग” किया जा सकता है।

4) बाबा रामदेव के आंदोलन को ठण्डा कर दिया गया है, अब आप कालेधन को वापस लाने की बात भूल जाईये। (टीम अण्णा ने तो आंदोलन समाप्ति पर "आदर्श राजनेता" विलासराव देशमुख तक को धन्यवाद ज्ञापित कर दिया, जबकि इस आंदोलन के मुख्य सूत्रधार बाबा रामदेव का नाम तक नहीं लिया)
  
बहरहाल अब अन्त में एक जोक सुनिये – मनमोहन सिंह ने ओबामा से कहा कि अगले वर्ष हम अपने चन्द्रयान में 100 भारतीयों को चाँद पर भेजने वाले हैं। ओबामा ने कहा, ऐसा कैसे हो सकता है? चन्द्रयान मे तो ज्यादा से ज्यादा 2-4 व्यक्ति ही आ सकते हैं। तब मनमोहन सिंह ने कहा कि चाहे हमें रॉकेट की छत पर बैठाकर भी भेजना पड़े तब भी भेजेंगे। ओबामा ने कहा कि ऐसी भी क्या जिद है, तब मनमोहन सिंह ने कहा कि – उस चन्द्रयान में 25 दलित, 25 OBC, 20 आदिवासी, 10 अल्पसंख्यक, 5 विकलांग और 15 सवर्ण अंतरिक्ष यात्री भेजना हमारी मजबूरी है…। जी हाँ, सही समझे आप, “जनलोकपाल” का भी यही होना है…

लालू यादव, शरद यादव के लोकसभा में दिये गये भाषणों और संसद के बाहर विभिन्न दलित संगठनों द्वारा जनलोकपाल के विरोध में “बहुजन लोकपाल बिल” पेश करने के बाद मुझे पूरा विश्वास हो चला है कि अव्वल तो जनलोकपाल बनेगा नहीं और यदि बन भी गया तो संसद से बाहर आते-आते उसका “चूँ-चूँ का मुरब्बा” बन चुका होगा… ज़ाहिर है कि सरकार भी यही चाहेगी कि, जैसे अभी 5 तरह के लोकपाल बिल संसद की स्थायी समिति को भेजे गये हैं ऐसे ही और 15 बिल भी आ जाएं, ताकि “विचार करने का भरपूर समय” लिया जा सके।

फ़िर भी “भीषण सकारात्मक सोच” रखते हुए, चलो मान भी लिया जाए कि एक बेहद मजबूत लोकपाल बन गया, तब उच्चतम न्यायालय के रिटायर्ड जज केजी बालाकृष्णन और बूटा सिंह जैसे महानुभावों का क्या कीजियेगा, जिन्होंने अपने भ्रष्टाचार पर परदा डालने के लिए “मैं दलित हूँ, इसलिये मुझे फ़ँसाया जा रहा है…” की रट लगाई…। या फ़िर मोहम्मद अज़हरुद्दीन जैसों का क्या कीजिएगा जो सट्टेबाजी के आरोपों पर कहते पाये गये हैं कि “मैं मुस्लिम हूँ, इसलिए मुझे फ़ँसाया जा रहा है…”। तात्पर्य यह है कि जब तक मनुष्य की “नीयत” नहीं बदलती, तब तक जनलोकपाल का “बाप” भी कुछ नहीं कर सकता। जहाँ तक “नीयत” का सवाल है, भारत के मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग को तकलीफ़ सिर्फ़ रिश्वत “देने” में है, रिश्वत “लेने” में कभी कोई समस्या नहीं रही…। 

खैर, फ़िलहाल देश के सामने “साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम बिल”, “2G घोटाले में चिदम्बरम की भूमिका”, महंगाई, नक्सलवाद, अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी, कश्मीर जैसे कई-कई गम्भीर मुद्दे पड़े हैं (पिछले 15 दिनों से देश में एक ही समस्या थी), हमें अब उन पर भी फ़ोकस करना है।

देश का युवा वर्ग और “भेड़चाली जनता”, मीडिया द्वारा आयोजित “आंदोलन में भाग लेने जैसी भावना” की “रोमाण्टिक खुमारी” में है, इसलिए उनके दिमाग पर अधिक हथौड़े नहीं चलाऊँगा… उन्हें “झुनझुना” हिलाने दीजिये… 

वन्देमातरम।
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       प्रतिवर्षानुसार इस बार भी 15 अगस्त को रक्तदान शिविर में भाग लिया एवं रक्तदान किया। पिछले कुछ वर्षों से 15 अगस्त एवं 26 जनवरी को वर्ष में दो बार रक्तदान का क्रम जारी है। 15 अगस्त को किया गया रक्तदान कुल बीसवीं बार था। मेरा लक्ष्य 50 बार रक्तदान करने का है, तो प्रतिवर्ष दो बार के हिसाब से भी गणना की जाए तो अभी मुझे 15 वर्ष और लगेंगे (हालांकि विशेषज्ञों के अनुसार एक स्वस्थ व्यक्ति वर्ष में चार बार रक्तदान कर सकता है, परन्तु हमारे खानदान में “शुगर लॉबी” मजबूत है, इसलिए कहीं दुर्भाग्यवश मुझे डायबिटीज़ हो गई तो यह क्रम समाप्त भी हो सकता है)। कई बार व्यस्तताओं की वजह से अथवा रक्तदान कैम्प के दिन किसी आवश्यक कार्य आ जाने से इस क्रम में विघ्न भी पड़ जाता है, परन्तु पिछले 3 वर्ष से मैंने साल में दो बार रक्तदान का नियम पालन किया है। अभी मेरी आयु 47 वर्ष है, यानी रक्तदान की मेरी “हाफ़-सेंचुरी” का लक्ष्य 62 वर्ष की आयु में पूरा होगा। बहरहाल, अभी बीसवीं बार रक्तदान करके एक व्यक्तिगत संतुष्टि हुई है, मित्रों की शुभकामनाओं से रक्तदान की हाफ़ सेंचुरी भी निश्चित ही होगी। 

      दूसरी व्यक्तिगत संतुष्टि मुझे इस बात से मिली कि भारत के सबसे यशस्वी मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने अपने आधिकारिक ब्लॉग में कश्मीर सम्बन्धी मेरी एक पोस्ट का मेरे नाम सहित ज़िक्र किया। मुझे मेरे मित्रों ने मेल करके बताया कि मोदी जी ने 29 जुलाई की अपनी पोस्ट में, मेरी गुलाम नबी फ़ई और कश्मीर के बुद्धिजीवी वाली पोस्ट (यहाँ देखें… Pseudo-Secular Intellectuals…) को अपने ब्लॉग पर जगह दी है, तो मैं चौंक गया। नरेन्द्र मोदी जी की उस पोस्ट में तीन अन्य अंग्रेजी के लेखों का भी उल्लेख है और तीनों ही एक से बढ़कर एक दिग्गज अंग्रेजी लेखक हैं, इतने बड़े-बड़े और प्रसिद्ध नामों (सर्वश्री एस गुरुमूर्ति, बी रमन एवं कंचन गुप्ता) के बीच मेरा नाम देखकर मुझे कुछ संकोच भी हुआ और खुशी भी… अतः मैंने मोदी जी को उनके व्यक्तिगत मेल आईडी पर धन्यवाद ज्ञापन प्रेषित कर दिया है। इतने प्रतिष्ठित और माननीय व्यक्ति द्वारा मेरे ब्लॉग का नाम सहित उल्लेख करने पर इसे एक मेरी “विशेष उपलब्धि” तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन हाँ… निश्चित रूप से एक व्यक्तिगत संतुष्टि तो है ही, कि मेरे ब्लॉग की बात “सही जगह पर” पहुँच रही है और बड़े-बड़े लोगों द्वारा पढ़ी जा रही है। मेरे जैसे एक सामान्य से राष्ट्रवादी लेखक को और क्या चाहिए? (यहाँ देखें… http://www.narendramodi.com/post/Real-face-of-the-pseudo-intellectual-preachers-of-India.aspx)

फ़िलहाल अण्णा आंदोलन की रेलमपेल, ढोल-ढमाके, हो-हल्ला चहुँओर जारी है। जनलोकपाल बिल और “टीम अण्णा” के साथियों की गतिविधियों के बारे में एक-दो पोस्ट लिख चुका हूँ अब फ़िलहाल इस मुद्दे पर कुछ नहीं लिखने वाला, बस दूर बैठकर ठण्डे दिमाग से मीडिया की गतिविधियाँ, कांग्रेस के रवैये-चालबाजियों और “टीम अण्णा” के विभिन्न व्यक्तियों के क्रियाकलाप देखना है। जैसा कि पिछली पोस्ट में कह चुका हूँ, धूल-गुबार बैठने का इंतज़ार कर रहा हूँ, तब तक परम पूजनीय “गाँधीवादी” अण्णा हजारे को सरकारी आश्रय और सुविधाओं के बीच मीडिया-इवेंट युक्त अनशन करने दीजिये… देश का मीडिया भले ही महंगाई, बेरोज़गारी, आतंकवाद, नक्सलवाद, 2G, 3G, कलमाडी-राजा-राडिया-शीला, नकली सेकुलरिज़्म, जेहाद इत्यादि समस्याओं को अण्णा के “मेले-ठेले वाले माहौल” में भुला चुका हो, हम कैसे भुला सकते हैं।

इसलिए अब अण्णा-अण्णा बहुत हुआ, फ़िलहाल अण्णा समर्थक “भ्रष्टाचार हटाओ” के अलावा कोई बात सुनने के मूड में नहीं हैं, इसलिए अगली पोस्ट किसी अन्य प्रमुख विषय पर होगी…अण्णा का खयाल रखने के लिए बहुत लोग हैं…। जनलोकपाल आंदोलन पर कोई पोस्ट अब 15 दिनों बाद ही लिखेंगे, उम्मीद है कि तब तक अण्णा मंडली का तम्बू समेटा जा चुका होगा…
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मंगलवार, 16 अगस्त 2011 17:46

Janlokpal, Team Anna, Conspiracy in Anti-Graft Movement

जनलोकपाल आंदोलन, टीम अण्णा, और धूल-गुबार के पीछे छिपे सवाल (एक त्वरित माइक्रो-पोस्ट)…… 

“आज़ादी के दूसरे आंदोलन” कहे जाने वाले आंदोलन में स्थितियाँ बड़ी गड्ड-मड्ड हो चली है… अण्णा के कट्टर समर्थक यह मानने लगे हैं कि जो व्यक्ति अण्णा के साथ नहीं है वह भ्रष्टाचार के खिलाफ़ नहीं है, यानी यदि आपने अण्णा के विरोध में कुछ कहा तो आपको कांग्रेस के समर्थन में मान लिया जाएगा…। 

उधर संघ की धुर विरोधी शबनम हाशमी ने अण्णा की हँसी उड़ाते हुए कहा है कि "अण्णा एक बिगड़ैल बच्चे की तरह जिद कर रहे हैं कि मुझे तत्काल चॉकलेट चाहिए, जबकि चॉकलेट लाकर देने की एक निर्धारित प्रक्रिया है… अण्णा के आंदोलन को RSS के लोग आगे बढ़ा रहे हैं…" (कमाल है!!!)। 

जबकि कुछ दिन पहले ही अण्णा सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि उनका संघ से कोई सम्बन्ध नहीं है, संघ और भगवा ताकतों से उन्हें जोड़ना उनका "अपमान"(?) है। जब कल मैंने अण्णा को घेरे हुए स्वार्थी तत्वों के खिलाफ़ लिखा तो किसी ने भी प्रतिक्रिया में यह बताने की ज़हमत नहीं उठाई, कि आखिर NGOs को लोकपाल के दायरे में लाने में क्या बुराई है? (जो कि मेरी पोस्ट का मूल मुद्दा था) बस, लगे मेरी आलोचना करने…। 

आज टीवी पर सुबह से बड़े भूषण और छोटे भूषण वकील पिता-पुत्र छाए हुए हैं, ये साहब वही दलाल हैं जो पहले कारपोरेट अथवा भूमाफ़िया के खिलाफ़ जनहित याचिका लगाते हैं, फ़िर कोर्ट के बाहर जमीन का एक टुकड़ा लेकर "समझौता"(?) करवा देते हैं। परन्तु जैसा कि मैंने कहा, अभी "अण्णा गोली" का नशा ऐसा हावी है कि कोई कुछ समझना ही नहीं चाहता। जरा दो-चार दिन में यह धूल-गुबार बैठ जाए, फ़िर इस आंदोलन के पीछे छिपे असली चेहरे सामने आने लगेंगे… यदि इस आंदोलन का फ़ायदा उठाने के लिए, भाजपा इसे पीछे से हवा दे भी रही है तो विपक्ष होने के नाते यह उसका काम ही है, परन्तु ऐसा लगता है कि इस हो-हल्ले की आड़ लेकर राहुल बाबा की ताजपोशी कर दी जाएगी, एक शानदार "इमेज" के साथ। (सोचिए क्या जोरदार सीन होगा यदि राहुल गाँधी स्वयं अपने हाथों से अण्णा हजारे को जूस पिलाएं… चहुँओर जयजयकार)

जो बात मैं काफ़ी समय से कहता आ रहा हूँ कि इस आंदोलन की “परिणति” क्या होगी… उसका समय अब धीरे-धीरे नज़दीक आ रहा है… चन्द विकल्प देखिये जैसे कि-

1) यदि अण्णा को गिरफ़्तार ही रखा जाए… या कुछ दिन बाद छोड़ा जाए, तो फ़िर आगे क्या? फ़िर से आंदोलन या कांग्रेस से बातचीत? कुछ भी स्पष्ट नहीं…

2) एक रास्ता यह भी है कि सरकार अण्णा की सारी माँगें मान ले और जैसा बिल अण्णा चाहते हैं वैसा का वैसा संसद में पेश कर दे (लेकिन क्या ऐसा कोई बिल संसद से पास हो पाएगा?

3) मनमोहन इस्तीफ़ा दे दें, उनकी जगह कोई और प्रधानमंत्री बन जाए (हालांकि कारपोरेट लॉबी आसानी से ऐसा होने नहीं देगी, और हो भी जाए तब भी कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा)।

4) सरकार इस्तीफ़ा देकर आपातकाल लगा दे, (लेकिन सोनिया अमेरिका में बैठी हैं तो इतना बड़ा निर्णय लेना आसान नहीं होगा)।

5) मध्यावधि चुनाव हों, तो कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो (भाजपा यही चाहेगी), लेकिन भाजपा सत्ता में लौट भी आए तो न तो जनलोकपाल बिल और न ही भ्रष्टाचार पर कोई फ़र्क पड़ने वाला है?

कुल मिलाकर बात यह है कि अण्णा का आंदोलन बगैर किसी राजनैतिक समर्थन के "एक बिना पतवार वाली नाव" के समान है… लोकतन्त्र और समाज में कोई बड़ा बदलाव तभी आ सकता है, जब या तो स्वयं अण्णा (या रामदेव बाबा) अपना स्वतंत्र राजनैतिक दल बनाएं और चुनाव लड़ें (यह काम इतना आसान और जल्दी होने वाला नहीं है, इसमें समय लगेगा), या फ़िर ये दोनों एक होकर किसी स्थापित राजनैतिक दल का आधार लेकर "परिवर्तन" करें… परन्तु चूंकि अण्णा हजारे और उनकी “टीम”(?) को संघ-भाजपा-हिन्दुत्व इत्यादि से "एलर्जी" है, तो गैर-भाजपा विपक्ष वाले अण्णा का साथ दें (यह भी मुश्किल लगता है, क्योंकि लालू-जयललिता जैसे नेता अण्णा को नेता क्यों मानेंगे?) देखा आपने… कैसी उलझी हुई स्थिति है।

किसी राजनैतिक ठोस आधार और समर्पित कार्यकर्ताओं के बिना कुछ भी बदलने वाला नहीं है, यह आंदोलन कहीं दिशाहीन, नैराश्यपूर्ण और अराजकता की ओर न चला जाए… खासकर तब तक, जब तक कि इस आंदोलन के पीछे "छिपे असली मास्टरमाइण्ड" खुलकर सामने नहीं आते…। 

फ़िर भी फ़िलहाल कुछेक पक्ष अपनी स्थिति साफ़-साफ़ बना चुके हैं, जैसे कि -

1) अण्णा के अंध-समर्थक (जो भूषण जोड़ी और अग्निवेश जैसों तक के खिलाफ़ भी कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं)

2) अण्णा के समर्थक, लेकिन “दिल से” कांग्रेसी (ये लोग चाहते हैं कि अण्णा को श्रेय तो मिले, लेकिन इस आंदोलन का फ़ायदा संघ-भाजपा परिवार को न मिलने पाए, सधी हुई भाषा में आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन साथ-साथ संघ परिवार को भी निशाना बनाते हुए)

3) अण्णा के विरोधी, लेकिन भ्रष्टाचार के भी विरोधी (जो यह समझ-बूझ रहे हैं कि इस आंदोलन के पीछे कोई न कोई चालबाजी अवश्य है, जो जल्दी ही सामने आएगी)…

अग्निवेश की विभिन्न स्थानों पर उपस्थितियों और उसके बयानों पर भी गौर से निगाह रखनी होगी (उसे फ़िलहाल गिरफ़्तार नहीं किया गया है), साथ ही जिस प्रकार अण्णा हजारे को बड़े ही प्यार-मोहब्बत से गिरफ़्तार किया गया एवं पुलिस वाले बाद में भी समर्थकों की भीड़ से भी नर्मी से पेश आए (जबकि बाबा रामदेव समर्थकों पर आधी रात को पुलिसिया कहर बरपाया गया था), उसने रामदेव समर्थकों के मन में आशंकाएं पैदा कर दी हैं। सोनिया गाँधी का ऐसे महत्वपूर्ण मौके पर देश से बाहर रहना, सभी घटनाक्रमों और बयानों से राहुल गाँधी का दूरी बनाए रखना महज संयोग नहीं है… क्योंकि सोनिया को अण्णा के आंदोलन की तारीख के बारे में एक माह पहले से ही पता था और राहुल गाँधी के साथ जो चार खास "दरबारियों" की टीम बनाई गई थी वह भी चैनलों और अखबारों से गायब है, आंदोलन की सारी तपिश मनमोहन सिंह, चिदम्बरम और कपिल सिब्बल जैसे बाकी के गवैये झेल रहे हैं।

अब एक और काल्पनिक दृश्य के बारे में सोचें (जो कभी भी हकीकत में बदल सकता है) कि अचानक सोनिया गाँधी अमेरिका से वापस आती हैं, त्याग और बलिदान की प्रतिमूर्ति तो हैं ही… भारत आते ही सोनिया गाँधी (या राहुल गाँधी) तिहाड़ पहुँचते हैं… अण्णा को जूस पिलाते हैं… सारे भाण्ड चैनलों को "इशारा" मिल चुका होगा कि युवराज की ताज़पोशी की घड़ी आ गई है… तड़ से मनमोहन सिंह का इस्तीफ़ा होता है और यूपीए के पाप का घड़ा अपने सिर पर लिए मनमोहन को घर भेज दिया जाएगा, युवराज गद्दीनशीन होंगे… त्याग-बलिदान के साथ-साथ सोनिया जी "लोकतन्त्र का विनम्र रखवाला" भी बन जाएंगी। (बड़ी भयानक कल्पना है, है ना!!!) 


खैर…… अभी तो पहला ही दिन है, आगे-आगे देखते हैं क्या होता है। कहने का मतलब ये कि इस आंदोलन में कई पक्ष अपनी-अपनी गोटियाँ फ़िट करने की जुगाड़ मे हैं, कुछ खुल्लमखुल्ला सामने हैं जबकि सूक्ष्म चालबाजियों के कर्ताधर्ता धूल का गुबार बैठने के बाद दिखाई देंगे… आम जनता सोच रही है कि “रामराज्य” बस आने ही वाला है। जबकि मैं इस धूल-गुबार के बैठने और माहौल के स्थिर होने का इन्तज़ार कर रहा हूँ ताकि चेहरे साफ़ दिखाई दें…
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सोमवार, 15 अगस्त 2011 14:01

Anna Hajare, NGOs, Janlokpal and Congress

क्या NGOs, प्रधानमंत्री और न्यायपालिका से ऊँचे और साफ़-सुथरे हैं?......

16 अगस्त से "टीम अण्णा"(?) दिल्ली में जनलोकपाल के लिए आंदोलन करने वाली है। इस महत्वपूर्ण घटना से पहले ही एक ऐसी बात सामने आई है जो इस टीम के "पाखण्डी" चेहरे को उजागर करने के लिए काफ़ी है। सिविल सोसायटी के सदस्य लगातार प्रधानमंत्री और उच्च स्तर की न्यायपालिका को भी जनलोकपाल के दायरे में लाने की माँग कर रहे हैं, लेकिन हैरानी की बात यह है कि यह सोसायटी NGO's (गैर सरकारी संगठन) को जनलोकपाल की जाँच के दायरे से बाहर रखना चाहती है।

यह बात उस समय उभरकर सामने आई, जब बुधवार (10 अगस्त) शाम को सरकारी लोकपाल बिल पर विचार करने वाली संसद की स्थाई समिति के सामने सिविल सोसायटी के सदस्य अपने विचार एवं दृष्टिकोण रखने को पेश हुए। इस मीटिंग में उपस्थित विश्वस्त सूत्रों के अनुसार प्रशान्त भूषण ने स्थायी समिति में सुझाव(?) दिया कि लोकपाल के दायरे से सभी NGOs को बाहर रखा जाए। जब समिति के सदस्यों ने इस पर आपत्ति जताई और कहा कि "सभी NGOs आसमान से उतरे हुए फ़रिश्ते नहीं होते, बल्कि बड़ी संख्या में NGOs लुटेरे और ठग भी हैं…" तब हड़बड़ाये हुए भूषण ने प्रस्ताव रखा कि "लोकपाल के दायरे में सिर्फ़ वही NGOs आयें जिन्हें केन्द्र या राज्य सरकार से कोई आर्थिक मदद मिलती है…" (यानी क्या सिविल सोसायटी मानती है कि प्रायवेट दानदाताओं से पैसा लेने वाले NGOs, प्रधानमंत्री से बड़े और पवित्र हैं?)

प्रशान्त भूषण ने आगे कहा कि जो NGOs राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से पैसा लेते हैं और बिना सरकारी मदद के चलते हैं उन्हें लोकपाल के दायरे में लाने की आवश्यकता नहीं है। उनका कहना है कि यदि कोई NGO मित्रों एवं शुभचिंतकों से प्राप्त धनराशि का गलत इस्तेमाल या घोटाला करता है तो उसके खिलाफ़ न्यायालयीन प्रक्रिया है, लोकपाल को इसकी जाँच नहीं करना चाहिए। है ना मजेदार दोहरा मापदण्ड? भूषण साहब के अनुसार प्रधानमंत्री या सुप्रीम कोर्ट का जज घपला करे तो वह जाँच योग्य है लेकिन लाखों रुपये का चन्दा प्राप्त करने वाले NGOs की जाँच लोकपाल नहीं करेगा? जबकि अब तो यह स्थापित तथ्य है कि भारत में काम कर रहे लाखों NGOs ऐसे हैं जो विदेशों से लाखों रुपए प्राप्त करते हैं, कुछ NGOs देश विरोधी गतिविधियाँ चलाते हैं, कुछ NGOs बड़े बाँधों का विरोध करके खामख्वाह अराजकता फ़ैलाते हैं, कुछ NGOs "साम्प्रदायिकता" के विरोध और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने के नाम पर "व्यक्ति विशेष या राज्य विशेष" के खिलाफ़ झूठे हलफ़नामे दायर करते रहते हैं, कई NGOs ऐसे हैं जो सीधे वेटिकन और इटली से डॉलरों में चन्दा प्राप्त करके आदिवासी व पिछड़े इलाकों में "धर्मान्तरण" में जुटे हैं, कुछ NGOs "मानवाधिकार" के नाम पर चन्दा प्राप्त करते हैं और उसे कश्मीर के अलगाववादियों के समर्थन में हवा बनाने के लिए फ़ूंक देते हैं… जबकि कई NGOs ऐसे हैं जो सिर्फ़ "आर्थिक धोखाधड़ी" करते हैं, जैसे कि पर्यावरण, जल संवर्धन, बाल मजदूरी, एड्स इत्यादि विषयों पर करोड़ों रुपए चट कर जाते हैं लेकिन काम सिर्फ़ "कागजों" पर ही करते हैं। आये दिन ऐसे कई NGOs सुप्रीम कोर्ट की लताड़ खाते रहते हैं, ऐसे "फ़र्जी", "नकली" और "धोखेबाज" NGOs को लोकपाल के दायरे में क्यों नहीं लाना चाहिए? इसका जवाब तो भूषण पिता-पुत्र, अग्निवेश, संदीप पाण्डेय, तीस्ता सीतलवाड जैसी "विभूतियाँ" ही ठीक प्रकार से दे पाएंगी।

टीम अण्णा में शामिल एवं जनलोकपाल बिल का सक्रिय समर्थन करने वाले सभी महानुभावों को एक शपथ-पत्र दायर करके जनता को बताना चाहिए कि वे लोग कितने-कितने NGOs में शामिल हैं?, किसी NGOs के डायरेक्टर हैं या नहीं? विदेशों से उन NGOs को अब तक कितना पैसा प्राप्त हुआ है? यदि सिविल सोसायटी के सदस्यों का कोई NGO काफ़ी पहले से चल रहा है तो उसे केन्द्र या राज्य सरकार ने कितनी मदद दी है, चाहे जमीन के रूप में हो या चन्दे के रूप में? इन ईमानदार महानुभावों ने अपने-अपने NGO स्थापित करते समय, उसकी कार्य रिपोर्ट पेश करते समय सरकारी बाबुओं को कितनी रिश्वत दी, इसका खुलासा भी वे करें? फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन के कर्ताधर्ता अण्णा के आंदोलन में इतने सक्रिय क्यों हैं? अमेरिका के राजनयिक को अण्णा के आंदोलन के समर्थन में बयान देने की दिलचस्पी और जल्दबाजी क्यों है? ऐसे कई प्रश्नों के उत्तर जनता चाहेगी… ताकि सिविल सोसायटी "साफ़-सुथरी" दिखाई दे।

संयोग देखिए, कि हजारे साहब के "इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आंदोलन" को दान और चन्दा देने वालों में बड़े ही हाई-प्रोफ़ाइल किस्म के दानदाता शामिल हैं, जिसमें प्रमुख हैं लेहमैन ब्रदर्स, भारती वालमार्ट, कई प्रायवेट कम्पनियाँ एवं उनके CEO तथा कुछ निजी बैंक भी। मुझे नहीं पता कि लेहमैन ब्रदर्स अथवा फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन की "ईमानदारी" और “नैतिकता” का स्तर क्या है? परन्तु इतना तो तय है कि इस आंदोलन को मिलने वाले समर्थन के पीछे एक बहुत बड़ी NGO लॉबी काम कर रही है।

एक-दो दिन पहले ही अग्निवेश ने बयान दे मारा कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने के मुद्दे पर सिविल सोसायटी का रुख लचीला रहेगा…। ऐसा लगता है कि बाबा रामदेव से "अछूत" सा व्यवहार करने और मंच से "अखण्ड भारत के चित्र वाली भारत माता" का चित्र हटाने वाले  अण्णा हजारे के चारों तरफ़ जो हिन्दुत्व विरोधी "चौकड़ी" बैठी है वह ऐन मौके पर कोई न कोई "टेढ़ा-मेढ़ा गुल" अवश्य खिलाएगी… बाबा रामदेव के आंदोलन को कमजोर करके, भगवा रंग से नफ़रत करके, NGOs की फ़ौज के हितों की रक्षा करने वालों का चेहरा भी जल्दी ही सामने आएगा…। बाबा रामदेव के मंच का उपयोग करके अपना चेहरा “चमकाने”, फ़िर बाबा रामदेव को “भगवाधारी” कहकर दुत्कारने वालों तथा गाँधीटोपीधारी "सो कॉल्ड सेकुलरिज़्म" भी समय आने पर बेनकाब हो जाएगा। NGOs की गैंग ने, सत्ताकेन्द्र पर स्थित जिस “अदृश्य शक्ति” के साथ मिलकर, बाबा रामदेव को आंदोलन को फ़ेल किया है समय आने पर उनके कच्चे चिठ्ठे भी अपने-आप जनता के सामने खुल जाएंगे…। (यहाँ देखिये… Won't Share Stage with Baba Ramdev..)

अण्णा ने अपने अनशन (भाग-1) में तो रामदेव बाबा और उमा भारती से दूरी बनाए रखी ही थी, बदली हुई परिस्थितियों में रामदेव बाबा को दिल्ली से खदेड़ने के बाद भी अण्णा ने अपने अनशन (पार्ट-2) में भी “सेकुलर सलाहकारों” की वजह से बाबा रामदेव को बड़ी सफ़ाई से अपने मंच से दूर रखा है, ऐसा विद्वेष रखने के बावजूद वे चाहते हैं कि उनका साथ दिया जाए? जबकि वास्तविकता तो यही है कि अण्णा के आंदोलन का “बेस” तो बाबा रामदेव ने ही तैयार किया है…।

जो लोग इस मुगालते में हैं कि जनता “अण्णा” के साथ है वे अपना मुगालता दूर कर लें… जनता भ्रष्ट तंत्र से निराश है, जनता वर्तमान व्यवस्था से नाराज़ है, इसलिए वह “अंधों में काने राजा” के पीछे चल पड़ी है, परन्तु इस “काने राजा” के चारों तरफ़ जो मण्डली है, वह “सभी को साथ लेकर चलने में विश्वास नहीं रखती”, इसलिए एक बड़ा वर्ग बेमन से इनका साथ दे रहा है, जबकि एक और बड़ा वर्ग इनसे स्पष्ट दूरी बनाये हुए है। संदेश साफ़ है कि, NGO पोषित एवं इलेक्ट्रानिक/प्रिण्ट मीडिया द्वारा “हवा भरकर फ़ुलाया गया” यह आंदोलन, तब तक सफ़ल होने की कोई उम्मीद नहीं है जब तक इसमें “हिन्दुत्व द्वेषी” और “भगवा” विरोधी तत्व हावी रहेंगे। हमें भी देखना है कि बाबा रामदेव को रामलीला मैदान से खदेड़ने के बाद, सतत उनके खिलाफ़ “निगेटिव कुप्रचार” करने वाला, जबकि अण्णा के नाम के कसीदे काढ़ने वाला, भाण्ड किस्म का मीडिया “टीम अण्णा” को कितनी ऊपर ले जाता है…

अण्णा के आंदोलन का समर्थन करने वाले इसके अंजाम या अन्तिम परिणति के बारे में कोई बात नहीं करते। क्या जैसा जनलोकपाल अण्णा चाहते हैं वैसा बन जाने पर हमें कांग्रेस नामक “खुजली” से निजात मिल जाएगी? यदि मिल भी जाएगी तो उसके विकल्प के रूप में कौन सी राजनैतिक पार्टी है? जब अण्णा समर्थक खुल्लमखुल्ला भाजपा और हिन्दुत्व विरोधी हैं तो क्या वे चाहते हैं कि “जनलोकपाल” तो बने, लेकिन कांग्रेस भी बनी रहे, भाजपा न आने पाए? क्या जनलोकपाल स्विस बैंक से पैसा वापस ला सकेगा? बहरहाल, तेल देखिये और तेल की धार देखिये… आगे-आगे क्या होता है… मुझे तो बार-बार पीपली लाइव के “नत्था मानिकपुरी” की याद आ रही है…
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शुक्रवार, 12 अगस्त 2011 11:17

Radha Kumar, Kashmir Interlocutors, Dilip Padgaonkar

यह “सीनाजोरी” किसकी शह पर? – सन्दर्भ राधा कुमार (कश्मीर वार्ताकार)……

अभी कुछ दिनों पहले ही अमेरिका ने पाकिस्तान के एक ISI एजेण्ट गुलाम नबी फ़ई को बेनकाब किया था, जो कि पाकिस्तान से पैसा लेकर विश्व भर के अनेक केन्द्रों पर “कश्मीर की आज़ादी” विषय पर सेमिनार, कान्फ़्रेंस इत्यादि आयोजित करता था जिसमें भारत के “तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी” बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे और अरुंधती रॉय जैसों के जाल में फ़ँसकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की किरकिरी करवाते रहते हैं… बदले में गुलाम नबी से मोटी रकम भी हासिल करते हैं। (यहाँ पढ़ें… Ghulam Nabi Fai, Indian Secular Intellectuals)

जैसा कि सभी को पता है भारत सरकार ने कश्मीर की समस्या के “सर्वमान्य”(?) हल निकालने हेतु चार “बुद्धिजीवी विशेषज्ञों”(?) की टीम बनाई है जिन्हें “कश्मीर के वार्ताकार” (Interlocuters) कहा जा रहा है। इस पैनल के अध्यक्ष हैं टाइम्स अखबार के पूर्व सम्पादक दिलीप पडगाँवकर। यह पैनल कश्मीर के विभिन्न गुटों से चर्चा करके कश्मीर समस्या के समाधान हेतु सरकार को फ़ार्मूला सुझाएगा। इसी पैनल की एक अन्य सदस्या हैं प्रोफ़ेसर राधा कुमार…। मोहतरमा Delhi Policy Group नामक एक “एलीट समूह” की ट्रस्टी हैं और इन्होंने JNU से Ph.D. की है (JNU का नाम आ गया तो अब ज़ाहिर है कि इन्हें बुद्धिजीवी मानना ही पड़ेगा)। कश्मीर के इन बुद्धिजीवी वार्ताकारों के मुखिया पडगांवकर साहब पहले ही गुलाम नबी फ़ई के सेमिनारों में भाग लेने की पुष्टि कर चुके हैं…

अब खबर आई है कि यह मोहतरमा, राधा कुमार भी ब्रुसेल्स में आयोजित ऐसे ही “भारत विरोधी” सेमिनार में भाग ले चुकी हैं। यूरोपियन संसद के सदस्य जेम्स एलीस और ब्रुसेल्स में “कश्मीर सेण्टर” चलाने वाले अब्दुल मजीद त्राम्बू द्वारा एक कॉन्फ़्रेंस आयोजित की गई थी जिसमें राधा कुमार ने भी भाषण दिया था। अब्दुल मजीद त्राम्बू ISI के मोहरे हैं और इनके संदेहास्पद आर्थिक लेनदेन पर अमेरिका एवं अन्य देशों की खुफ़िया एजेंसियाँ शक ज़ाहिर कर चुकी हैं। 

ताज़ा विवाद और उसमें की गई “सीनाजोरी” का मामला तब शुरु हुआ जब सूचना के अधिकार के तहत एक कार्यकर्ता ने जानकारी माँगी कि कश्मीर के वार्ताकारों की टीम का सदस्य बनने के बाद प्रोफ़ेसर राधा कुमार द्वारा की गईं विदेश यात्राओं का ब्यौरा दिया जाए, ऐसा ही ब्यौरा अन्य वार्ताकारों का भी माँगा गया। बाकी के सदस्यों ने अपनी-अपनी विदेश यात्राओं का ब्यौरा गृह मंत्रालय को सौंप दिया, जिसे सम्बन्धित सूचना माँगने वाले को दे दिया गया। परन्तु प्रोफ़ेसर राधा कुमार बिफ़र गईं और अड़ गईं कि वे अपनी विदेश यात्राओं के बारे में कोई जानकारी नहीं देंगी।

उल्लेखनीय है कि कश्मीर के इन “अदभुत” वार्ताकारों को केन्द्र सरकार की तरफ़ से पिछले 11 माह से प्रतिमाह डेढ़ लाख रुपये + अन्य सभी सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं (ज़ाहिर है कि हमारे खून-पसीने के टैक्स की कमाई में से)। सूचना के अधिकार कानून के अन्तर्गत, सरकार से किसी भी प्रकार का भत्ता अथवा सुविधाएं प्राप्त करने वाला व्यक्ति इस कानून के तहत सूचनाएं देने को बाध्य है (बशर्ते वह राष्ट्रीय सुरक्षा, अंतरिक्ष और सेना से सम्बन्धित न हो)। गृह मंत्रालय ने भी राधा कुमार जी से अनुरोध किया कि वे अपनी विदेश यात्राओं का ब्यौरा पेश करें, परन्तु राधा कुमार का जवाब है कि “वे विदेश में किसी भी सेमिनार में अपनी उपस्थिति के बारे में नहीं बताएंगी…” उन्होंने आगे कहा कि – “मैं इस मुद्दे पर किसी से कोई बात नहीं करने वाली, मेरा सीधा संवाद सिर्फ़ गृहमंत्री और मंत्रालय के उच्चाधिकारियों से होता है, जो कि पूर्णतः गोपनीय है… मैं सिर्फ़ उन्हीं के प्रति जवाबदेह हूँ, एवं इस पर सवाल करने का किसी को हक नहीं है…”।

अपने इस अड़ियल रुख और सीनाजोरी को आगे बढ़ाते हुए (यानी लगभग अहसान जताते हुए) उन्होंने घोषणा कर दी है कि “भविष्य में वे सरकार से किसी भी कार्य हेतु एक पैसा भी नहीं लेंगी…”। कश्मीर के एक अन्य वार्ताकार एमएम अंसारी ने आरटीआई जानकारी हेतु अपने सभी कागजात समय पर मंत्रालय को सौंप दिये। ब्रुसेल्स सेमिनार विवाद के बहाने श्री अंसारी ने दोनों महानुभावों पर निशाना साधते हुए कहा कि “यदि मैं राधा कुमार की जगह होता तो इस्तीफ़ा दे देता…”। इस बीच गृह मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि प्रोफ़ेसर राधा कुमार ने इस्तीफ़ा नहीं दिया है और ऐसा करने पर वह स्वीकार भी नहीं किया जाएगा। मंत्रालय के सूत्रों ने कहा कि वार्ताकारों ने कश्मीर के सभी गुटों से चर्चा के दौर पूरे कर लिये हैं एवं वे अपनी अन्तिम रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं। अब आप स्वयं ही समझ सकते हैं कि गुलाम नबी फ़ई से पैसा लेकर विदेशों में कश्मीर की आज़ादी पर भाषण देते घूमने वाले इन वार्ताकारों की “रिपोर्ट” में क्या कहा जाएगा, और कैसे-कैसे सुझाव दिए जाएंगे।

फ़िलहाल सबसे चिंताजनक बात यह है कि सूचना के अधिकार को सरेआम अंगूठा दिखाने वाली राधा कुमार किसकी शह पर सीनाजोरी कर रही हैं? अभी कुछ दिनों पहले ही यह खबर आई थी कि “पवित्र परिवार”(?) भी नियम-कानूनों को धता बताते हुए अपनी विदेश यात्राओं का ब्यौरा लोकसभा सचिवालय को नहीं देता…(यहाँ पढ़ें… Sonia Gandhi's Foreign Trips) अब सरकार से डेढ़ से दो लाख रुपया डकारने के बावजूद, गुलाम नबी फ़ई के सेमिनारों में जाकर डॉलर बटोरने वाले “सो कॉल्ड बुद्धिजीवी” भी नियम-कानून को नहीं मानेंगे तो कैसे काम चलेगा?
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बुधवार, 10 अगस्त 2011 14:07

Bradford and Moradabad Hindu-Muslim Riots


इंग्लैण्ड में पूर्वी लन्दन, ब्रेडफ़ोर्ड एवं बर्मिंघम शहरों के मुस्लिम बहुल इलाकों में कुछ दिनों पहले अचानक रात को  पोस्टर जगह-जगह खम्भों पर लगे मिले… साथ में कुछ पर्चे भी मिले हैं जिसमें मुस्लिम बहुल इलाकों को "शरीयत कण्ट्रोल्ड झोन" बताते हुए वहाँ से गुज़रने वालों को चेताया गया है, कि यहाँ से गुज़रने अथवा इस इलाके में आने वाले लोग संगीत न बजाएं, जोर-जोर से गाना न गाएं, सिगरेट-शराब न पिएं, महिलाएं अपना सिर ढँककर निकलें… आदि-आदि। कुछ गोरी महिलाओं पर हल्के-फ़ुल्के हमले भी किए गये हैं… हालांकि पुलिस ने इन पोस्टरों को तुरन्त निकलवा दिया है, फ़िर भी आसपास के अंग्रेज रहवासियों ने सुरक्षा सम्बन्धी चितांए व्यक्त की हैं एवं ऐसे क्षेत्रों के आसपास स्थित चर्च के पादरियों ने सावधान रहने की चेतावनी जारी कर दी है…।

स्थानीय निवासियों ने दबी ज़बान में आरोप लगाए हैं कि पिछले दो दिनों से लन्दन में जारी दंगों में "नीग्रो एवं काले" उग्र युवकों की आड़ में नकाब पहनकर मुस्लिम युवक भी इन दंगों, आगज़नी और लूटपाट में सक्रिय हैं…। सच्चाई का खुलासा लन्दन पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किये गये 300 से दंगाईयों से पूछताछ के बाद ही हो सकेगा, परन्तु "शरीया जोन" के पोस्टर देखकर ईसाईयों में भी असंतोष और आक्रोश फ़ैल चुका है।

भारत में ऐसे "मिनी पाकिस्तान" और "शरीयत नियंत्रित इलाके" हर शहर, हर महानगर में बहुतायत में पाए जाते हैं, जहाँ पर पुलिस और प्रशासन का कोई जोर नहीं चलता। कल ही मुरादाबाद में, कांवड़ यात्रियों के गुजरने को लेकर भीषण दंगा हुआ है। "सेकुलर सरकारी भाषा" में कहा जाए तो एक "समुदाय" द्वारा, "क्षेत्र विशेष" से कांवड़ यात्रियों को "एक धार्मिक स्थल" के सामने से निकलने से मना करने पर विवाद की स्थिति बनी और दंगा शुरु हुआ। देखना है कि क्षेत्र के माननीय(?) सांसद मोहम्मद अजहरुद्दीन क्या कदम उठाते हैं, तथा "गुजरात-फ़ोबिया" से ग्रस्त मानसिक विकलांग मीडिया इसे कितना कवरेज देता है (कुछ माह पहले बरेली में हुए भीषण दंगों को तो मीडिया ने "बखूबी"(?) दफ़न कर दिया था)

हमारे "तथाकथित सेकुलर" मित्र, क्या इन दो प्रश्नों का जवाब देंगे कि -

1) जब तक मुस्लिम किसी आबादी के 30% से कम होते हैं तब तक वे उस देश-राज्य के कानून  को मानते हैं, पालन करते हैं… परन्तु जैसे-जैसे इलाके की मुस्लिम आबादी 50% से ऊपर होने लगती है, उन्हें "शरीयत कानून का नियंत्रण", "दारुल-इस्लाम" इत्यादि क्यों याद आने लगते हैं?

2) जब-जब जिस-जिस इलाके, क्षेत्र, मोहल्ले-तहसील-जिले-संभाग-राज्य-देश में मुस्लिम बहुसंख्यक हो जाते हैं, वहाँ पर अल्पसंख्यक (चाहे ईसाई हों या हिन्दू) असुरक्षित क्यों हो जाते हैं?

इन मामूली और आसान सवालों के जवाब "सेकुलरों" को पता तो हैं, लेकिन बोलने में ज़बान लड़खड़ाती है, लिखने में हाथ काँपते हैं, और सारा का सारा "सेकुलरिज़्म", न जाने कहाँ-कहाँ से बहने लगता है… 

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स्रोत :- http://www.worthynews.com/10743-posters-declare-sharia-zone-in-east-london 

http://www.hindustantimes.com/13-injured-in-Moradabad-communal-clash/Article1-731579.aspx 
 
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सोमवार, 08 अगस्त 2011 21:12

Sonia Gandhi Illness, Foreign Trips of MPs

“मालिकों” के विदेश दौरे के बारे में जानने का, नौकरों को कोई हक नहीं है…

यह एक सामान्य सा लोकतांत्रिक नियम है कि जब कभी कोई लोकसभा या राज्यसभा सदस्य किसी विदेश दौरे पर जाते हैं तो उन्हें संसदीय कार्य मंत्रालय को या तो "सूचना" देनी होती है अथवा (कनिष्ठ सांसद जो मंत्री नहीं हैं उन्हें) "अनुमति" लेनी होती है।

इस वर्ष जून माह में जब बाबा रामदेव का आंदोलन उफ़ान पर था, उस समय सोनिया गाँधी अपने परिवार एवं विश्वस्त 11 अन्य साथियों के साथ लन्दन, इटली एवं स्विट्ज़रलैण्ड के प्रवास पर थीं (इस बारे में मीडिया में कई रिपोर्टें आ चुकी हैं)। काले धन एवं स्विस बैंक के मुद्दे पर जब सिविल सोसायटी द्वारा आंदोलन किया जा रहा था, तब "युवराज" लन्दन में अपना जन्मदिन मना रहे थे (Rahul Gandhi Celebrates Birthday in London). सोनिया एवं राहुल के यह दोनों विदेशी दौरे मीडिया की निगाह में बराबर बने हुए थे www.deccanherald.com/content/168832/sonia-gandhi-rahul-foreign-visit.html"(Sonia's Foreign Visit), परन्तु विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र(?) वाली भारत सरकार के लोकसभा सचिवालय को आधिकारिक रूप से इस बात की कोई जानकारी नहीं थी, कि देश की एक सबसे प्रमुख सांसद, NAC एवं UPA की अध्यक्षा तथा अमेठी के सांसद उर्फ़ युवराज "कहाँ" हैं?

यह बात "सूचना के अधिकार" कानून "http://rti.gov.in/">(Right to Information)के तहत माँगी गई एक जानकारी से निकलकर सामने आई है कि जून 2004 (अर्थात जब से UPA सत्ता में आया है तब) से "महारानी" एवं "युवराज" ने लोकसभा सचिवालय को अपनी विदेश यात्राओं के बारे में "सूचित" करना भी जरूरी नहीं समझा है (अनुमति लेना तो बहुत दूर की बात है)। (भला कोई "मालिक", अपने "नौकर" को यह बताने के लिए कैसे बाध्य हो सकता है, कि वह कहाँ जा रहा है… तो फ़िर महारानी और युवराज अपनी "प्रजा" को यह क्यों बताएं?)  जब इंडिया टुडे ने http://loksabha.nic.in के समक्ष RTI लगाकर सूचना चाही कि 14वीं लोकसभा के किन-किन सांसदों ने विदेश यात्राएं की हैं, तब सचिवालय ने "पवित्र परिवार"(?) को छोड़कर सभी सांसदों की विदेश यात्राओं के बारे में जानकारी उपलब्ध करवाई। लोकसभा सचिवालय के उप-सचिव हरीश चन्दर के अनुसार, सचिवालय सभी विदेश यात्राओं, साथ में जाने वाले प्रतिनिधिमण्डलों के अधिकारियों एवं पत्रकारों का पूरा ब्यौरा रखता है, प्रत्येक सांसद का यह कर्तव्य है कि वह अपनी विदेश यात्रा से पहले लोकसभा अध्यक्ष को सूचित करे…"। 

इसके पश्चात इंडिया टुडे ने बाकायदा खासतौर पर अगले RTI आवेदन में 14वीं एवं 15वीं लोकसभा के सदस्यों के रूप में, "पवित्र परिवार" की विदेश यात्राओं के बारे में जानकारी चाही। 4 जुलाई 2011 को लोकसभा सचिवालय से जवाब आया, "रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं…"। (नौकर की क्या मजाल, कि वह मालिक से "नियम-कायदे" के बारे में पूछताछ करे या बताये?) इसी प्रकार का RTI आवेदन हिसार के रमेश कुमार ने लगाया था, जिन्हें पहले तो कोई सूचना ही नहीं दी गई… जब उसने केन्द्रीय सूचना आयुक्त http://www.cic.gov.in/ (Central Information Commissioner) को "दूसरी अपील" की तब उस कार्यालय ने उस आवेदन को प्रधानमंत्री कार्यालय एवं संसदीय कार्य मंत्रालय को "फ़ारवर्ड" कर दिया। फ़िर पता नहीं कहाँ-कहाँ से घूमते-फ़िरते उस आवेदन का जवाब कैबिनेट सचिवालय की तरफ़ से श्री कुमार को 8 जुलाई 2011 को मिला कि उनके आवेदन को "राष्ट्रीय सलाहकार परिषद" (NAC) को भेज दिया गया है… इसके जवाब में NAC के कार्यालय से कहा गया कि उनके पास सोनिया गाँधी की विदेश यात्राओं के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है…(यानी उनकी "किचन कैबिनेट" को भी नहीं पता??? घनघोर-घटाटोप आश्चर्य!!!)। 

फ़िलहाल सोनिया गाँधी कैंसर के ऑपरेशन हेतु अमेरिका के एक अस्पताल में हैं, जहाँ कांग्रेस के खासुलखास नौकरशाह पुलक चटर्जी उनकी सुरक्षा एवं गोपनीयता का विशेष खयाल रखे हुए हैं। विदेशी मीडिया के "पप्पाराजियों" तथा भारतीय मीडिया के "बड़बोले" और "कथित खोजी" पत्रकारों को सोनिया गाँधी के आसपास बहने वाली हवा से भी दूर रखा गया है। हालांकि कोई भी सांसद (या मंत्री) अपनी निजी विदेश यात्राओं पर जाने के लिए स्वतन्त्र है (आम नागरिक की तरह) लेकिन चूंकि सांसद "जनता के सेवक"(??? क्या! सचमुच) हैं, इसलिए कम से कम उन्हें देश में आधिकारिक रूप से बताकर जाना चाहिए। किसी भी शासकीय सेवक से पूछ लीजिये, कि उसे विदेश यात्रा करने से पहले कितनी तरह की जानकारियाँ और "किलो" के भाव से दस्तावेज पेश करने पड़ते हैं… जबकि देश के "भावी प्रधानमंत्री"(?) और "वर्तमान प्रधानमंत्री नियुक्त करने वाली" मैडम, सरेआम नियमों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं? जैसी की अपुष्ट खबरें हैं कि सोनिया गाँधी को कैंसर है (या कि था)। अब कैंसर कोई ऐसी सर्दी-खाँसी जैसी बीमारी तो है नहीं कि एक बार इलाज कर लिया और गायब… कैंसर का इलाज लम्बा चलता है और विशेषज्ञ डॉक्टरों के साथ कई-कई "मीटिंग और सिटिंग" तथा विभिन्न प्रकार की कीमो एवं रेडियो थेरेपी करनी पड़ती है (यहाँ हम यह "मानकर" चल रहे हैं कि सोनिया गाँधी को कैंसर हुआ है, क्योंकि जिस अस्पताल में वे भरती हैं वह एक कैंसर इंस्टीट्यूट है (http://expressbuzz.com/nation/secrecy-continues-to-shroud-sonias-illness/302270.html :- Sloan Kettering Cancer Center, New York)। इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले 3-4 वर्षों में सोनिया गाँधी अपने "विश्वासपात्र" डॉक्टर से सलाह लेने कई बार विदेश आई-गई होंगी… क्या उन्हें एक बार भी यह खयाल नहीं आया कि लोकसभा सचिवालय एवं संसदीय कार्य मंत्रालय को सूचित कर दिया जाए? नियमों की ऐसी घोर अवहेलना, सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को नहीं करना चाहिए।

माना कि कांग्रेस को लोकतन्त्र पर कभी भी भरोसा नहीं रहा (सन्दर्भ – चाहे आपातकाल थोपना हो, और चाहे कांग्रेस के दफ़्तरों के परदे बदलने के लिए "हाईकमान" की अनुमति का इन्तज़ार करने वालों का हुजूम हो), परन्तु इसका ये मतलब तो नहीं कि लोकसभा के छोटे-छोटे नियमों का भी पालन न किया जाए? बात सिर्फ़ नियमों की भी नहीं है, असली सवाल यह है कि आखिर "पवित्र परिवार"(?) को लेकर इतनी गोपनीयता क्यों बरती जाती है? माना कि "पवित्र परिवार" समूचे भारत की जनता को अपना "गुलाम" समझता है (बड़ी संख्या में हैं भी), परन्तु क्या एक लोकतन्त्र में आम जनता को यह जानने का हक नहीं है कि उनके "शासक" कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं, उन्हें क्या बीमारी है, उनके रिश्तेदारियाँ कहाँ-कहाँ और कैसी-कैसी हैं? आदि-आदि…। अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों का पूरा "हेल्थ बायोडाटा" नेट और अखबारों में उपलब्ध होता है।

इधर ऐसी उड़ती हुई अपुष्ट खबरें हैं कि सोनिया गाँधी का कैंसर का ऑपरेशन हुआ है (हालांकि अभी पार्टी की ओर से आधिकारिक बयान नहीं आया, और शायद ही आए)। जनता के मन में सबसे पहला सवाल यही उठता है कि क्या भारत में ऐसे ऑपरेशन हेतु "सर्वसुविधायुक्त" अस्पताल या उम्दा डॉक्टर नहीं हैं? या फ़िर दुनिया का सबसे दक्ष डॉक्टर मुँहमाँगी फ़ीस पर यहाँ भारत आकर कोई ऑपरेशन नहीं करेगा? यदि गाँधी परिवार आदेश दे, तो दिग्विजय सिंह, जनार्दन द्विवेदी जैसे कई कांग्रेसी नेता इतने "सक्षम" हैं कि दुनिया के किसी भी डॉक्टर को "उठवाकर" ले आएं… तो फ़िर विदेश जाकर, गुपचुप तरीके से नाम बदलकर, ऑपरेशन करवाने की क्या जरुरत है, खासकर उस स्थिति में जबकि इलाज पर लगने वाला पैसा देश के करदाताओं के खून-पसीने की कमाई से ही लगने वाला है…परन्तु यह सवाल पूछेगा कौन?
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चलते-चलते :- RTI की इसी सूचना के आधार पर कुछ और चौंकाने वाली जानकारियाँ भी मिली हैं। फ़रवरी 2008 से जून 2011 तक सबसे अधिक बार "निजी" विदेश यात्रा पर गए, टॉप चार सांसद इस प्रकार हैं…

1) मोहम्मद मदनी (रालोद) = फ़रवरी 2008 से अब तक कुल 14 यात्राएं, 116 दिन (सऊदी अरब, बांग्लादेश, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन)

2) एनके सिंह (जद यू) = मई 2008 से अब तक कुल 13 यात्राएं, 92 दिन (अमेरिका, चीन, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, ग्रीस, डेनमार्क)

3) बदरुद्दीन अजमल (जी हाँ, वही असम के इत्र वाले, बांग्लादेशी शरणार्थी प्रेमी) = अगस्त 2009 से अब तक कुल 9 यात्राएं, 61 दिन (सऊदी अरब, दुबई)

4) सीताराम येचुरी (सीपीआई-एम) - सितम्बर 2009 से अब तक कुल 8 यात्राएं, 43 दिन (अमेरिका, सीरिया, स्पेन, चीन, बांग्लादेश)

इन सभी में और "पवित्र परिवार" में अन्तर यह है कि ये लोग लोकसभा सचिवालय एवं सम्बन्धित मंत्रालय को सूचित करके विदेश यात्रा पर गये थे…

(आप सोच रहे होंगे कि बार-बार “पवित्र परिवार” क्यों कहा जा रहा है, ऐसा इसलिये है क्योंकि भारतीय मीडियाई भाण्डों के अनुसार यह एक पवित्र परिवार ही है। इस परिवार की “पवित्रता” को बनाए रखना प्रत्येक मीडिया हाउस का “परम कर्तव्य” है… इस परिवार की पवित्रता का आलम यह है कि भ्रष्टाचार की बड़ी से बड़ी आँच इसे छू भी नहीं सकती तथा त्याग-बलिदान की “बेदाग” चादर तो लिपटी हुई है ही… मीडिया को बस इतना करना होता है, कि वह इस परिवार की “पवित्रता” को “मेन्टेन” करके चले…)
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स्रोत :- http://indiatoday.intoday.in/site/story/sonia-gandhi-rahul-gandhi-lok-sabha/1/146474.html
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रविवार, 07 अगस्त 2011 11:18

Santosh Hegde Mining Report, Yeddiyurappa, Karnataka, Janlokpal

सधे कदमों से “जनलोकपाल” पद की ओर बढ़ते संतोष हेगड़े…

कर्नाटक की येदियुरप्पा सरकार की बिदाई और दक्षिण के पहले भाजपाई मुख्यमंत्री के इस्तीफ़े के बाद “सेकुलर गैंग” बेहद प्रफ़ुल्लित है। यह कोशिश वे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ पिछले कई वर्षों से कर रहे थे, कभी तीस्ता जावेद के रूप में तो कभी संजीव भट्ट के रूप में, लेकिन वहाँ वे बार-बार मुँह की खाते रहे। परन्तु संतोष हेगड़े की लोकायुक्त रिपोर्ट के बहाने अन्ततः सेकुलरों को कर्नाटक में तात्कालिक जीत मिल ही गई…। पिछले कई महीनों से सेकुलर गैंग, यूपीए सरकार के राजा, कलमाडी, आदर्श, शीला दीक्षित, NTRO, जैसे महाघोटालों के मुकाबले बार-बार येदियुरप्पा-येदियुरप्पा-येदियुरप्पा का भजन करके, तराजू में दस किलो के बाँट को 100 ग्राम के बाँट के बराबर तौलने का प्रयास करती रही। अन्ततः उनके इस प्रयास पर हेगड़े साहब ने मुहर लगा ही दी…। (http://www.theindiadaily.com/karnataka-lokayukta-santosh-hegde-report-names-yeddyurappa/)(Justice Santosh Hegde Mining Report)
बहरहाल… आते हैं मुख्य विषय यानी संतोष हेगड़े साहब पर…। संतोष हेगड़े साहब ने अपने कार्यकाल में ईमानदारी से काम किया है यह बात उनके विरोधी भी मानते हैं, खासकर रिटायर होने के बाद और तथा अन्ना टीम से जुड़ने के बाद जिस तरह उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक “चमकदार छवि” बनाई है, उससे वे स्वाभाविक रूप से “भारत के पहले जनलोकपाल” (यदि बना तो) के दावेदार बन गये हैं।

खैर… येदियुरप्पा के खिलाफ़ हेगड़े साहब की “बहुप्रतीक्षित” रिपोर्ट कर्नाटक सरकार को पेश होने से आठ दिन पहले ही “लीक”(?) हो गई। टाइम्स नाऊ चैनल तथा दिल्ली के कुछ अखबारों में इस रिपोर्ट के “चुनिंदा” (यानी येदियुरप्पा वाले) अंश प्रकाशित हुए। ज़ाहिर है कि इस “तथाकथित लीक” के बाद चैनलों एवं अखबारों ने जो “ब्रेकिंग न्यूज़” चलाईं उसमें कैमरे का फ़ोकस एवं इंटरव्यू की बरसात का केन्द्र माननीय संतोष हेगड़े साहब ही रहे। हर चैनल और हरेक पत्रकार को हेगड़े साहब ने बताया कि वह रिपोर्ट उनके ऑफ़िस से लीक हुई है (किसी पत्रकार ने उनसे यह नहीं पूछा कि आखिर रिपोर्ट कैसे लीक हुई, इसका जिम्मेदार कौन है?)। सारे पत्रकार और “सेकुलर” चैनल हेगड़े साहब के मुँह से “तत्काल” यह सुनना और बुलवाना चाहते थे कि “उस लीक हुई रिपोर्ट में येदियुरप्पा ही दोषी हैं…”, इस मामले में हेगड़े साहब ने किसी को भी निराश नहीं किया। बुरका दत्त को NDTV पर दिये गये “एक्सक्लूसिव” इंटरव्यू(?) में संतोष हेगड़े ने वह “सभी कुछ” स्वीकार किया जो बुरका दत्त उनसे स्वीकार करवाना चाहती थी। यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस समय हेगड़े साहब यह तमाम इंटरव्यू और बाइट्स दे रहे थे, उस समय तक उन्होंने अपनी आधिकारिक रिपोर्ट सरकार और राज्यपाल को सौंपी नहीं थी, इसके बावजूद वे उस “लीक रिपोर्ट” की हर बात पर अपनी “मुहर” लगाते रहे… उच्चतम न्यायालय के एक रिटायर्ड जज से ऐसी उम्मीद नहीं की जाती, यह साफ़-साफ़ “नैतिक मानदण्डों” का उल्लंघन था। जबकि उम्मीद यह की जाती है कि जब उनकी ही टीम के किसी व्यक्ति ने रिपोर्ट लीक की थी तो उन्हें आगे आकर माफ़ी माँगनी चाहिए थी, लेकिन उलटा वे तो आठ दिन तक “लीक रिपोर्ट” को बाले-बाले ही आधिकारिक बनाने में लगे रहे। हेगड़े साहब फ़रमाते हैं कि उनके टेलीफ़ोन टैपिंग की वजह से यह रिपोर्ट लीक हुई… तो क्या टेलीफ़ोन टैपिंग भी "राज्य सरकार" के अधिकार-क्षेत्र में आती है? और इस बात की जाँच की आवश्यकता क्यों महसूस नहीं हुई कि संतोष हेगड़े और यूवी सिंह के बीच होने वाली बातचीत को कौन टैप कर रहा था? (http://www.dnaindia.com/bangalore/report_blame-illegal-mining-report-leak-on-phone-tapping-santosh-hegde_1568146)(Santosh Hegde Report Leaked) इस लेख का असल मुद्दा येदियुरप्पा का कथित भ्रष्टाचार या इस्तीफ़ा नहीं है, बल्कि लोकपाल, रिटायर्ड न्यायाधीश की भूमिका और भावी जनलोकपाल की सामाजिक-नैतिक भूमिका के बारे में है। जिस तरह संतोष हेगड़े साहब विभिन्न चैनलों पर दनादन-दनादन कर्नाटक सरकार के खिलाफ़ गोल दागे जा रहे थे (वह भी रिपोर्ट पेश करने से पहले ही) उससे कई नैतिक सवाल उठ खड़े होते हैं। हेगड़े साहब यहीं नहीं रुके, अपनी रिपोर्ट पेश होने से पहले ही बयान पर बयान दागे चले गए, “मेरे फ़ोन टेप किये जा रहे हैं” (यह पहले क्यों नहीं सूझा?), “मुझे कर्नाटक की सरकार पर भरोसा नहीं है कि वह रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई करेगी…इस पर अमल हेतु मैं सुप्रीम कोर्ट जाउँगा…” (रिपोर्ट पेश करने से पहले ही?)… ये सब क्या है? हेगड़े साहब आधिकारिक रूप से अपनी रिपोर्ट पेश करते, उसके बाद वह मीडिया में आती, उसके बाद ये सब बयान दे मारते… इतनी भी क्या जल्दी थी? क्या किसी ने जस्टिस शुंगलू को CWG की रिपोर्ट पेश करने से पहले मीडिया में बयानबाजी करते सुना? तो हेगड़े साहब को इतना मीडिया प्रेम क्यों है? 

और कुछ नहीं तो दिल्ली के लोकायुक्त सरीन साहब का उदाहरण ही सामने रखते? शीला दीक्षित के खिलाफ़ रिपोर्ट पेश करने से पहले और बाद में क्या किसी चैनल पर मनमोहन सरीन के इंटरव्यू दिखाए गये? हालांकि इसमें “भाण्ड मीडिया” का भी प्रमुख रोल है, क्योंकि जिस तरह येदियुरप्पा के खिलाफ़ लोकपाल की रिपोर्ट को लेकर “उत्साह”(?) दिखाया गया, वैसा उत्साह शीला दीक्षित के खिलाफ़ लगातार लोकपाल, सुप्रीम कोर्ट, CAG की रिपोर्टें आने पर नहीं दिखाया जा रहा… (स्वाभाविक सी बात है कि मीडिया, अपने मालिकों के खिलाफ़ कैसे भौंकेगा? उसे इस बात में अधिक रस था कि हेगड़े साहब येदियुरप्पा के खिलाफ़ क्या बोलते हैं, ताकि उसे “ब्रेकिंग न्यूज़” बनाया जाए)। हेगड़े साहब की शह पर हंसराज भारद्वाज का मुँह भी चौड़ा हो गया, लगे हाथों उन्होंने भी बयान झाड़ दिया, “लोकायुक्त की रिपोर्ट आने पर मैं उचित कार्रवाई करूंगा…” (अरे भाई, पहले आपके समक्ष रिपोर्ट पेश तो होने दो… और वैसे भी उस रिपोर्ट को पहले विधानसभा में रखा जाएगा… राज्यपाल की इसमें कोई भूमिका है ही नहीं, लेकिन खामख्वाह भारद्वाज साहब अपने राजभवन में मीडिया के सामने उचकते रहे)

मीडिया द्वारा भाजपा के साथ “पक्षपात” की खबरें अब पुरानी पड़ चुकी हैं और सब जान रहे हैं कि असल में मीडिया “किसके हाथों” में खेलता है, इसका सबसे बड़ा सबूत यही है कि शीला दीक्षित के खिलाफ़ रिपोर्ट पेश करने वाले मनमोहन सरीन का कोई इंटरव्यू प्रकाशित नहीं हुआ, स्वयं शीला दीक्षित से बुरका दत्त या किसी अन्य "स्वयंभू" ने कोई सवाल-जवाब नहीं किये… जबकि येदियुरप्पा और उनके खासुलखास धनंजय कुमार की “कन्नड़ मिश्रित अंग्रेजी बोलचाल” की अपरोक्ष रूप से खिल्ली जरूर उड़ाई गई। मीडिया के “कथित बड़े पत्रकारों” में से किसी की भी, पी चिदम्बरम से इंटरव्यू में यह पूछने की हिम्मत किसी की नहीं हुई कि आखिर क्यों चेन्नै हाईकोर्ट ने उनके चुनाव को चुनौती नहीं देने सम्बन्धी उनकी याचिका खारिज कर दी? ऐसा क्यों होता है कि डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी बार-बार चिदम्बरम और सोनिया गाँधी पर हमला करते हैं, लेकिन उन पर “मानहानि” का मुकदमा दायर नहीं किया जाता? मीडिया कभी भी ऐसे तीखे और सीधे सवाल “कांग्रेसी सत्ताधारियों” से नहीं करता। यही एक मुख्य कारण है कि नरेन्द्र मोदी और बाल ठाकरे जैसे लोग मीडिया के भाण्डों को अपने दरवाजे घुसने नहीं देते…।

अब पुनः वापस आते हैं संतोष हेगड़े – येदियुरप्पा प्रकरण पर। येदियुरप्पा ने सत्ता में आते ही संतोष हेगड़े को नियुक्त किया, हेगड़े साहब को जाँच हेतु जो प्रमुख बिन्दु सौंपे गये थे उनमें कर्नाटक में खनन की लीज़ बाँटने के लाइसेंसों की संख्या, लाइसेंस कब-कब और किन-किन मुख्यमंत्रियों ने कितनी बार जारी किये… यह भी शामिल था। मीडिया को हेगड़े साहब की रिपोर्ट के चुनिंदा अंश पेश करने की बजाय यह भी बताना चाहिए कि हेगड़े साहब ने लाइसेंस आवंटन पर कोई ठोस जाँच क्यों नहीं की? येद्दियुरप्पा ने साफ़ कहा है कि उनके कार्यकाल में बहुत ही कम संख्या में लाइसेंस दिये गये। ऐसा कौन सा मुख्यमंत्री होगा जिसे यह पता हो कि वह भ्रष्टाचार कर रहा है फ़िर भी उसी मामले की जाँच वह लोकपाल को सौंपे? जब बीच में एक बार हेगड़े साहब ने सरकारी मशीनरी के रवैये से खिन्न होकर इस्तीफ़ा दे दिया था तब लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें पद पर बने रहने को राजी किया था, क्यों? क्या इसलिये कि आडवाणी चाहते थे कि हेगड़े अपना कार्यकाल पूरा करें, येदियुरप्पा को दोषी(?) साबित करें और कर्नाटक में भाजपा की इज्जत गँवा दी जाए? किस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष ऐसा चाहेगा? परन्तु शुचिता और नैतिकता बनाये रखने और विपक्ष को चुप रखने के लिए हेगड़े साहब को बनाए रखा गया… जबकि येदियुरप्पा और आडवाणी यदि चाहते, तो हेगड़े साहब को नहीं मनाते…पद छोड़कर जाने देते। कौन सा पहाड़ टूट पड़ता?

देश की सरकारी खनिज कम्पनी NMDC (नेशनल मिनरल डेवलपमेण्ट कार्पोरेशन) ने हेगड़े साहब की रिपोर्ट के उस अंश को सिरे से खारिज कर दिया है जिसमें उन्होंने NMDC और माफ़िया की सांठगांठ के बारे में लिखा है। हेगड़े साहब ने लिखा है कि 2006 से 2010 के बीच NMDC ने “उच्च क्वालिटी” के लौह अयस्क को “हल्की क्वालिटी” का बताकर कम भावों में बेचा गया… क्या मीडिया ने इस बात को उछाला? केन्द्र के खनिज मंत्रालय से इस बारे में जवाब-तलब क्यों नहीं हुआ कि आखिर हेगड़े साहब द्वारा “NMDC- माफ़िया गठबन्धन” के बारे में जो कहा गया है उस पर विश्वास क्यों न किया जाए? एक तरफ़ तो येदियुरप्पा को तत्काल दोषी मानकर हटाने का अभियान, और दूसरी तरफ़ कुमारस्वामी से लेकर कांग्रेसी सांसद और NMDC के अधिकारियों-मंत्री की खबरें गायब? ये कैसा “मीडियाई इंसाफ़” है? हेगड़े साहब ने भी “रिपोर्ट पेश करने के पूर्व ही” दिये गये विभिन्न इंटरव्यू में इनका प्रमुखता से उल्लेख नहीं किया, सिर्फ़ येदियुरप्पा और कर्नाटक सरकार की विश्वसनीयता पर बयान दागते रहे। आशा है कि मीडिया, एचडी कुमारस्वामी तथा NMDC- माफ़िया गठबंधन के बारे में भी हेगड़े साहब से विस्तार में इंटरव्यू करेगा…। हेगड़े साहब जैसे कर्मठ और ईमानदार व्यक्ति से यह उम्मीद की जाती है कि अगली बार किसी अन्य मामले की रिपोर्ट पेश करने से पहले ही बुरका दत्त जैसों को इंटरव्यू न दें…, अपने मातहतों की जाँच करें कि रिपोर्ट लीक कैसे हुई और यदि इंटरव्यू दें भी, तो “चुनिंदा अंशों” पर ही मुहर न लगाएं…

फ़िलहाल इस्तीफ़ा देने के बाद येदियुरप्पा ने नये लोकायुक्त एवं कर्नाटक हाइकोर्ट के समक्ष याचिका दायर कर, “उनका पक्ष” भी सुनने एवं रिकॉर्ड करने का आग्रह किया है… देखते हैं कि आगे क्या होता है। परन्तु इतना तो तय है कि दक्षिण की पहली भाजपा सरकार के सबसे लोकप्रिय नेता येदियुरप्पा की “बलि” लेकर, संतोष हेगड़े “राष्ट्रीय हीरो” के रूप में प्रतिस्थापित हो गये हैं, ज़ाहिर है कि अन्ना के प्रयासों से जब कभी (टूटा-फ़ूटा ही सही) “जनलोकपाल” नाम की कोई संस्था अस्तित्व में आएगी, तब उसके प्रमुख के रूप में संतोष हेगड़े ने दौड़ में स्वयं को सबसे आगे कर लिया है… क्योंकि जो भी व्यक्ति “भाजपा” को पटखनी देता है, उसे स्वयमेव ही “सम्मानित” मान लिया जाता है तथा “सेकुलरों” द्वारा पुरस्कृत भी किया जाता है…। अब भले ही संतोष हेगड़े साहब कहें कि “मैं दलगत राजनीति से ऊपर हूँ और अपना काम ईमानदारी से करता हूँ…” परन्तु “सेकुलर कम्बल” अब उनसे चिपक कर रहेगा और पीछा नहीं छोड़ेगा।
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चलते-चलते :- सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि संतोष हेगड़े साहब के नजदीकी लोगों द्वारा मेंगलोर के पास NITTE एजूकेशनल ट्रस्ट संचालित किया जाता है, मैं जानना चाहता हूँ कि इस ट्रस्ट द्वारा छात्रों से “कैपिटेशन फ़ीस” के रूप में कितना पैसा लिया जाता है। इस ट्रस्ट की आय-व्यय का हिसाब-किताब जानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए… क्योंकि यह देश के “सबसे ईमानदार” न्यायिक हस्ती से जुड़ा मामला है…
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बुधवार, 03 अगस्त 2011 12:17

Indian Army Personnel, Mental Atrocities and Tough Conditions

वीर जवानों से ऐसा बर्ताव करना लोकतंत्र के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता है… 

अपनी जान पर खेलकर देश के दुश्मनों से रक्षा करने वाले सैनिकों के प्रति सरकार और नौकरशाही का संवेदनहीन रवैया जब-तब सामने आता रहता है…

1) संसद पर हमले को नाकाम करने वाले जवानों की विधवाओं को चार-पाँच साल तक चक्कर खिलाने और दर्जनों कागज़ात/सबूत मंगवाने के बाद बड़ी मुश्किल से पेट्रोल पम्प दिये गये…

2) लद्दाख में सीमा पर ड्यूटी दे रहे जवानों हेतु जूते खरीदने की अनुशंसा की फ़ाइल महीनों तक रक्षा मंत्रालय में धूल खाती रही, जब जॉर्ज फ़र्नांडीस ने सरेआम अफ़सरों को फ़टकार लगाई, तब कहीं जाकर जवानों को अच्छी क्वालिटी के बर्फ़ के जूते मिले…

ताज़ा मामला आया है केरल से… आपको याद होगा कि कैसे न्यायालय के आदेश पर कर्नाटक के एक रिसोर्ट में कोयम्बटूर बम धमाके के मुख्य आरोपी अब्दुल नासेर मदनी का “सरकारी खर्च पर पाँच सितारा आयुर्वेदिक इलाज” चल रहा है…(यहाँ पढ़ें Abdul Naser Madni Getting VIP Treatment)। जबकि 26/11 के मुम्बई हमले के समय बहादुरी दिखाने वाले जाँबाज़ कमाण्डो शौर्य चक्र विजेता पीवी मनेश को भारत की सरकारी मशीनरी और बड़े-बड़े बयानवीर नेता आयुर्वेदिक इलाज के लिये प्रतिमाह 4000 रुपये की “विशेष स्वीकृति” नहीं दे रहे हैं…।

हजार लानत भेजने लायक किस्सा यूं है कि 26/11 के मुम्बई हमले के समय पीवी मनेश, ओबेरॉय होटल में आतंकवादियों से भिड़े थे। उन्हें अहसास हुआ कि एक कमरे में कोई आतंकवादी छिपा हुआ है, जान की परवाह न करते हुए मनेश गोलियाँ बरसाते हुए उस कमरे में घुसे, परन्तु अंधेरा होने की वजह से वे तुरन्त भाँप नहीं सके कि आतंकवादी किधर छिपा है। इस बीच आतंकवादी ने एक ग्रेनेड मनेश की ओर उछाला, जो कि मनेश के हेलमेट के पास आकर फ़टा, हालांकि मनेश ने त्वरित कार्रवाई करते हुए उस आतंकवादी को मार गिराया, लेकिन हेलमेट पर अत्यधिक दबाव और धमाके की वजह से पीवी मनेश को अंदरूनी दिमागी चोट लगी और उनके शरीर की दाहिनी बाजू पक्षाघात से पीड़ित हो गई। ग्रेनेड की चोट कितनी गम्भीर थी इसका अंदाज़ा इसी बात से लग सकता है कि हेलमेट के तीन टुकड़े हो गये और मनेश चार माह तक कोमा में रहे…।

दिल्ली एवं मुम्बई के विभिन्न सेना अस्पतालों में इस वीर का इलाज चलता रहा, परन्तु एलोपैथिक दवाईयों से जितना फ़ायदा हो सकता था उतना ही हुआ। अन्त में लगभग सभी डॉक्टरों ने मनेश को आयुर्वेदिक इलाज करवाने की सलाह दी। मनेश बताते हैं कि उन्हें उनके गृहनगर कन्नूर से प्रति पंद्रह दिन में 300 किमी दूर पलक्कड जिले के एक विशेष आयुर्वेदिक केन्द्र में इलाज एवं दवाओं हेतु जाना पड़ता है, जिसमें उनके 2000 रुपये खर्च हो जाते हैं इस प्रकार उन्हें प्रतिमाह 4000 रुपये आयुर्वेदिक दवाओं पर खर्च करने पड़ते हैं।

रक्षा मंत्रालय के नियमों के अनुसार आयुर्वेदिक इलाज के बिल एवं दवाओं का खर्च देने का कोई प्रावधान नहीं है... सैनिक या तो सेना के अस्पताल में इलाज करवाए या फ़िर एलोपैथिक इलाज करवाये। इस बेतुके नियम की वजह से कोई भी अफ़सर इस वीर सैनिक को लगने वाले 4000 रुपये प्रतिमाह के खर्च को स्वीकृत करने को तैयार नहीं है। जबकि उधर अब्दुल नासेर मदनी पाँच सितारा आयुर्वेदिक मसाज केन्द्र में मजे कर रहा है, क्योंकि उसके पास वकीलों की फ़ौज तथा “सेकुलर गैंग” का समर्थन है।

हालांकि पीवी मनेश के पास शौर्य चक्र विजेता होने की वजह से रेल में मुफ़्त यात्रा का आजीवन पास है, परन्तु फ़िर भी एक-दो बार टीसी ने उन्हें आरक्षित स्लीपर कोच से बेइज्जत करके उतार दिया था। रूँधे गले से पीवी मनेश कहते हैं कि भले ही यह देश मुझे भुला दे, परन्तु फ़िर भी देश के लिए मेरा जज़्बा और जीवन के प्रति मेरा हौसला बरकरार है…। मेरी अन्तिम आशा अब आयुर्वेदिक इलाज ही है, पिछले एक वर्ष में अब मैं बिना छड़ी के सहारे कुछ दूर चलने लगा हूँ तथा स्पष्ट बोलने और उच्चारण में जो दिमागी समस्या थी, वह भी धीरे-धीरे दूर हो रही है…।

इस बहादुर सैनिक के सिर में उस ग्रेनेड के तीन नुकीले लोहे के टुकड़े धँस गये थे, दो को तो सेना के अस्पताल में ऑपरेशन द्वारा निकाला जा चुका है, परन्तु डॉक्टरों ने तीसरा टुकड़ा निकालने से मना कर दिया, क्योंकि उसमें जान का खतरा था…। दिलेरी की मिसाल देते हुए, पीवी मनेश मुस्कुराकर कहते हैं कि उस लोहे के टुकड़े को मैं 26/11 की याद के तौर पर वहीं रहने देना चाहता हूँ, मुझे गर्व है कि मैं देश के उन चन्द भाग्यशाली लोगों में से हूँ जिन्हें शौर्य चक्र मिला है… और मेरी इच्छा है कि मैं अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार ओबेरॉय होटल में पत्नी-बच्चों समेत लंच लूं और उसी कमरे में आराम फ़रमाऊँ, जिसमें मैने उस आतंकवादी को मार गिराया था…।

परन्तु जिस तरह से अब्दुल नासेर मदनी, अजमल कसाब और अफ़ज़ल गुरु की “खातिरदारी” हमारे सेकुलर और मानवाधिकारवादी कर रहे हैं… तथा कश्मीर, असम, मणिपुर और नक्सल प्रभावित इलाकों में कभी जवानों को प्रताड़ित करके, तो कभी आतंकवादियों और अलगाववादियों के “साथियों-समर्थकों” से हाथ मिलाकर, उन्हें सम्मानित करके… वीर जवानों के मनोबल को तोड़ने में लगे हैं, ऐसे में तो लगता है कि पीवी मनेश धीरे-धीरे अपनी जमापूँजी भी अपने इलाज पर खो देंगे… क्योंकि नौकरशाही और सरकार द्वारा उन्हीं की सुनी जाती है, जिनके पास “लॉबिंग” हेतु पैसा, ताकत, भीड़ और “दलाल” होते हैं…। मुझे चिंता इस बात की है कि देश के लिए जान की बाजी लगाने वाले जांबाजो के साथ नौकरशाही और नेताओं का यही रवैया जारी रहा, तो कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन किसी जवान का दिमाग “सटक” जाये और वह अपनी ड्यूटी गन लेकर दिल्ली के सत्ता केन्द्र नॉर्थ-साउथ ब्लॉक पहुँच जाए…
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