1) कुछ माह पहले ही अमेरिका में एक मेजर निदाल मलिक हसन ने अपने एयरबेस पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाकर 36 अमेरिकियों को हताहत किया था। निदाल मलिक हसन अमेरिकी सेना में एक मनोचिकित्सक था, और गिरफ़्तारी के बाद उसका कथन था कि वह अमेरिका द्वारा ईराक और अफ़गानिस्तान में की गई कार्रवाईयों की वजह से निराशा की अवस्था में था और उसे अमेरिका का यह हमला “इस्लाम” पर हमले के समान लगा।  पिछले कुछ समय से मेजर निदाल मलिक, इस्लामिक बुद्धिजीवी(?) अनवर-अल-अवलाकी के सम्पर्क में था, उससे निर्देश लेता था और उसकी इस्लामिक शिक्षाओं(?) से बेहद प्रभावित था…(खुद मनोचिकित्सक है, और शिक्षा ले रहा है अनवर अवलाकी से? है ना मजेदार बात…)


पूरा विवरण यहाँ देखें… http://f8ba48be.linkbucks.com

2) इसी तरह उच्च दर्जे की शिक्षा प्राप्त और पाकिस्तान के एयरफ़ोर्स अफ़सर बहरुल-हक के लड़के फ़ैज़ल शहजाद को अमेरिका से दुबई भागते वक्त हवाई जहाज में से गिरफ़्तार कर लिया गया (यहाँ देखें http://1d866b57.linkbucks.com)। फ़ैज़ल ने स्वीकार किया है कि उसी ने टाइम्स स्क्वेयर पर कार बम का विस्फ़ोट करने की योजना बनाई थी, क्योंकि अमेरिका उसे इस्लाम का दुश्मन लगता है। (http://4cfa0c9a.linkbucks.com)

इन दोनों मामलों में कुछ बातें समान है, और वह यह कि दोनों आतंकवादी अमेरिकी नागरिक बन चुके थे (अर्थात अमेरिका “उनका” देश था), दोनों अच्छे प्रतिष्ठित परिवारों से हैं, दोनों उच्च शिक्षित हैं, अमेरिका में स्थाई नौकरी कर रहे थे… लेकिन, लेकिन, लेकिन, लेकिन… दोनों ने प्रकारान्तर से यह स्वीकार किया कि उन्होंने यह हमले करके “इस्लाम” की सेवा की है। पिछले कुछ समय से अमेरिका में हुए आत्मघाती और हमले के षडयन्त्र की कुछ और घटनाएं देखिये –

1) गत दिसम्बर में फ़ोर्ट जैक्सन के मिलेट्री बेस में पाँच व्यक्तियों (यानी मुस्लिमों) को गिरफ़्तार किया गया, जब वे साउथ केरोलिना मिलेट्री बेस के लिये आये हुए खाने में जहर मिलाने की कोशिश कर रहे थे।

http://www.nypost.com/p/news/national/five_muslim_soldiers_arrested_over_zYTtFXIBnCecWcbGNobUEJ#ixzz0gEmjO5C8

2) 1 जून 2009 को अब्दुल हकीम मोहम्मद ने अरकंसास प्रान्त में दो अमेरिकी सैनिकों को गोली से उड़ा दिया।

3) अप्रैल 2009 में साउथ जर्सी में फ़ोर्ट डिक्स पर हमला करने का षडयन्त्र करते हुए चार मुस्लिम युवक धराये।

तात्पर्य यह कि अमेरिका में ऐसी घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, इसीलिये इनकी इस हरकत से यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि –

1) इस्लाम बड़ा या राष्ट्र बड़ा?

2) कोई व्यक्ति जिस देश का नागरिक है उसे अपने देश के प्रति वफ़ादार रहना चाहिये या अपने धर्म के प्रति?

3) यदि इतनी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी किसी व्यक्ति के दिल में अपने देश के प्रति (जहाँ से वह रोजी-रोटी कमा रहा है) प्रेम का भाव नहीं जागता, बल्कि उसके धर्म के प्रति ऐसा “अनुराग” जाग जाता है कि उसके लिये वह मरने-मारने पर उतारू हो जाता है, तो क्या फ़ायदा है ऐसी उच्च शिक्षा का?

4) “अपने” देश से गद्दारी करने के संस्कार, उन्हें कहाँ से मिले?

5) अच्छे खासे कमाते-खाते-पीते अचानक उसी देश के प्रति गद्दारी का भाव कहाँ से जागा, जहाँ की वे रोटी खा रहे हैं?

यह ब्रेन-वॉश किसने किया?

अब आते हैं, माधुरी गुप्ता मामले पर, जैसा कि सभी जानते हैं “गद्दार” माधुरी गुप्ता को जासूसी के आरोप में पुलिस ने गिरफ़्तार किया हुआ है और उससे पूछताछ जारी है। पूछताछ में पता चला है कि माधुरी के बैंक खातों में किसी भी प्रकार की “असामान्य एंट्रियाँ” नहीं पाई गई हैं, अतः यह गद्दारी, धन के लिये होने की सम्भावना कम लगती है। वहीं दूसरी ओर जाँच में यह सामने आया है कि माधुरी गुप्ता, इस्लामाबाद में एक पाकिस्तानी सेना के अफ़सर मुदस्सर राणा के प्रेम(?) में फ़ँसी हुई थी, और माधुरी ने लगभग 6 साल पहले ही इस्लाम कबूल कर लिया था। फ़रवरी 2010 में अफ़गानिस्तान में भारतीयों पर हुए हमले के सम्बन्ध में माधुरी ने तालिबान को मदद पहुँचाने वाली जानकारी दी थी।

माधुरी गुप्ता ने कुछ समय पहले भी खुलेआम एक इंटरव्यू में कहा था कि उसे पाकिस्तान और पाकिस्तानियों से “सहानुभूति” है। यह कैसी मानसिकता है? क्या धर्म बदलते ही राष्ट्र के प्रति निष्ठा भी बदल गई? इससे पहले भी अमेरिका के एडम गैडहॉन ने इस्लाम अपनाया था और बाकायदा टीवी पर एक टेप जारी करके अमेरिकी मुसलमानों से मेजर निदाल मलिक के उदाहरण से "कुछ सीखने"(?) की अपील की थी, अर्थात जिस देश में जन्म लिया, जो मातृभूमि है, जहाँ के नागरिक हैं… उसी पर हमला करने की साजिश रच रहे हैं और वह भी "इस्लाम" के नाम पर… ये सब क्या है? 

माधुरी गुप्ता के मामले में पाखण्ड और डबल-क्रास का उदाहरण भी देखिये, कि पाकिस्तान के मीडिया ने कहा कि “माधुरी गुप्ता एक शिया मुस्लिम है और उसने यह काम करके इस्लाम को नीचा दिखाया है”। यानी यहाँ भी शिया-सुन्नी वाला एंगल फ़िट करने की कोशिश की जा रही है…। सवाल उठता है कि सानिया मिर्ज़ा भी तो शिया मुस्लिम है, उसे अपनाने में तो भाभी-भाभी कहते हुए पाकिस्तानी मीडिया, बैंड-बाजे बजाकर आगे-आगे हो रहा है, तो माधुरी गुप्ता पर यह इल्ज़ाम क्यों लगाया जा रहा है कि “वह एक शिया है…”। इससे तो ऐसा लगता है, कि मौका पड़ने पर और सानिया मिर्जा का बुरा वक्त (जो कि शोएब जैसे रंगीले रतन और सटोरिये की वजह से जल्द ही आयेगा) आने पर, पाकिस्तान का मीडिया फ़िर से शोएब के पीछे ही खड़ा होगा और सानिया मिर्ज़ा को दुत्कार देगा, क्योंकि वह शिया है? मौलाना कल्बे जव्वाद ने पाकिस्तानी मीडिया की “शिया-सुन्नी” वाली थ्योरी की जमकर आलोचना की है, लेकिन उससे उन लोगों को कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि विभाजन के वक्त भारत से गये हुए मुसलमानों को वे लोग आज भी "मुहाजिर" कहते हुए लताड़ते हैं। 

अन्त में इतना ही कहना चाहूंगा कि, भारत पर हमला करने वाला अजमल कसाब तो युवा है और लगभग अनपढ़ है अतः उसे बहकाना और भड़काना आसान है, लेकिन यदि मोहम्मद अत्ता जैसा पढ़ा-लिखा पायलट सिर्फ़ “धर्म” की खातिर पागलों की तरह हवाई जहाज ट्विन टावर से टकराता फ़िरे… या लन्दन स्कूल ऑफ़ ईकोनोमिक्स का छात्र उमर शेख, डेनियल पर्ल का गला रेतने लगे… तब निश्चित ही कहीं न कहीं कोई गम्भीर गड़बड़ी है। गड़बड़ी कहाँ है और इसका “मूल” कहाँ है, यह सभी जानते हैं, लेकिन स्वीकार करने से कतराते, मुँह छिपाते हैं, शतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ा लेते हैं… और ऐसे लोग ही या तो “सेकुलर” कहलाते हैं या “बुद्धिजीवी”। सॉरी, सॉरी… एक और विषधर जमात भी है, जिसे “पोलिटिकली करेक्ट” कहा जाता है…।

खैर… यदि कसाब जैसे अनपढ़ों की बात छोड़ भी दें (क्योंकि वह पाकिस्तान का नागरिक है और भारत के विरुद्ध काम कर रहा था) लेकिन यह सवाल बार-बार उठेगा कि, उच्च शिक्षा प्राप्त युवा, 5 अंकों में डालरों की तनख्वाह पाने वाले, जब किसी दूसरे देश के "स्थायी नागरिक" बन जाते हैं तब उनके लिये “धर्म बड़ा होना चाहिये या वह देश?”


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न कोई टीवी देखेगा, न कोई संगीत सुनेगा… और दाढ़ी-टोपी रखना अनिवार्य है। जी नहीं… ये सारे नियम लीबिया अथवा पाकिस्तान के किसी कबीले के नहीं हैं, बल्कि गुजरात के भरुच जिले के गाँव देतराल में चल रहे एक मुस्लिम राहत शिविर के हैं। जी हाँ, ये बिलकुल सच है और इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता ने इस शिविर का दौरा भी किया है। हालांकि खबर कुछ पुरानी है, लेकिन सोचा कि आपको बताता चलूं…

गुजरात के दंगों के बाद विभिन्न क्षेत्रों में दंगा पीड़ितों के लिये राहत शिविर चलाये जा रहे हैं। ऐसा ही एक शिविर गुजरात के भरुच जिले में चल रहा है, जिसे लन्दन के एक मुस्लिम व्यवसायी की चैरिटी संस्था ने प्रायोजित किया हुआ है। इस पुनर्वास केन्द्र में सख्ती से शरीयत कानून का पालन करवाया जाता है, और इस सख्ती की वजह से शिविर में से कुछ मुस्लिम युवक भाग खड़े हुए हैं।

भरुच के देतराल में इस शिविर में 46 मकान बनाये गये हैं, जिसमें गुजरात के दंगा पीड़ितों के परिवारों को रखा गया है। इन मकानों के निवासियों को सख्ती से शरीयत के मुताबिक “शैतानी” ताकतों, खासकर टीवी और संगीत, से दूर रखा गया है, जो लोग इस नियम का पालन नहीं करते उन्हें यहाँ से बेदखल कर दिया जाता है। इस पुनर्वास केन्द्र को चला रहे NGO(?) ने इन निवासियों को गाँव की मस्जिद में जाने से भी मना कर रखा है, और इन लोगों के लिये अलग से खास “शरीयत कानून के अनुसार” बनाये गये नमाज स्थल पर ही सिजदा करवाया जाता है। इंडियन एक्सप्रेस के रविवारीय विशेष संवाददाता के हाथ एक नोटिस लगा है, जिसके अनुसार इस कैम्प के निवासियों से अपील (या धमकी?) की गई है… “इस्लामिक शरीयत कानून के मुताबिक यदि इस कैम्प में रह रहे किसी भी व्यक्ति के पास से टीवी अथवा कोई अन्य “शैतानी” वस्तु पाई जायेगी तो उस परिवार को ज़कात, फ़ितर, सदका तथा अन्य इमदाद से वंचित कर दिया जायेगा। पिछले सप्ताह जब उनकी कमेटी के मुख्य ट्रस्टी लन्दन से आये तो कुछ मकानों पर टीवी एंटीना देखकर बेहद नाराज़ हुए थे, और उन्होंने निर्देश दिया है कि 15 दिनों के भीतर सारे टीवी हटा लिये जायें…”। एक निवासी बशीर दाऊद बताते हैं कि, “चूंकि यह सारे मकान एक अन्य ट्रस्टी के भाई द्वारा दान में दी गई ज़मीन पर बने हैं और ज़कात के पैसों से यह ट्रस्ट चलता है, इसलिये सभी को “धार्मिक नियम”(?) पालन करने ही होंगे…”।

सूत्रों के अनुसार, ऐसी सख्ती की वजह से कुछ परिवार यह पुनर्वास केन्द्र छोड़कर पलायन कर चुके हैं, तथा कुछ और भी इसी तैयारी में हैं। इस शिविर में प्रत्येक परिवार को 50,000 रुपये की राहत दी गई है, जिसमें नया मकान बनाना सम्भव नहीं है। जब एक्सप्रेस संवाददाता ने लन्दन स्थित इस संस्था के ऑफ़िस में सम्पर्क करके यह जानना चाहा कि क्या वे लोग लन्दन में भी टीवी नहीं देखते? जवाब मिला – देखते हैं, लेकिन तभी जब बेहद जरूरी हो…। वडोदरा की तबलीगी जमात का कहना है कि वे इस मामले में कुछ नहीं कर सकते। एक अन्य पीड़ित मोहम्मद शाह दीवान ने कहा कि इस शिविर में आकर वे काफ़ी राहत महसूस करते थे, लेकिन इस तरह की बंदिशों से अब मन खट्टा होने लगा है, हमसे कहा जाता है कि यदि हमने उनके नियमों का पालन नहीं किया तो हम काफ़िर कहलायेंगे…। यही कहानी इदरीस शेख की है, दंगों में अपना सब कुछ गंवा चुके वेजलपुर गोधरा के निवासी, पेशे से टेलर शेख कहते हैं, “हमारे ही लोग हमसे जानवरों जैसा बर्ताव करते हैं, एक दिन इन लोगों ने मेरे कमरे पर ताला जड़ दिया और मुझसे कहा है कि मैं अपने ग्राहकों को इस शिविर में न घुसने दूं… इनकी बात मानना मेरी मजबूरी है…”।

शिविर छोड़कर पंचमहाल के हलोल में रहने गये इकबाल भाई कहते हैं, “शुरु-शुरु में सब ठीक था, लेकिन फ़िर उन्होंने मेरे पिता और मुझ पर सफ़ेद टोपी लगाने और दाढ़ी बढ़ाने हेतु दबाव बनाना शुरु कर दिया… हम लोग इस प्रकार की “लाइफ़स्टाइल” पसन्द नहीं करते, और रोजाना शिविर के कर्ताधर्ताओं से “ये करो, ये न करो” सुन-सुनकर हमने शिविर छोड़ना ही उचित समझा”।

खबर यहाँ पढ़ें… http://www.indianexpress.com/news/no-tv-no-music-beards-a-must-new-rules-in/541620/


तात्पर्य यह है कि, मैं खुद यह रिपोर्ट पढ़कर हैरान हो गया था…। कुछ माह पहले ही आणन्द जिले के एक गाँव में कई दिनों तक पाकिस्तान का झण्डा फ़हराने की खबर भी सचित्र टीवी पर देखी थी…।

भाईयों… मैंने तो सुना था कि नरेन्द्रभाई मोदी, गुजरात में मुसलमानों पर बहुत ज़ुल्म ढाते हैं, “सेकुलर गैंग” हमें यह बताते नहीं थकती कि मोदी के गुजरात में मुस्लिम असुरक्षित हैं, डरे हुए हैं…। यह दोनों घटनाएं पढ़कर ऐसा लगता तो नहीं… उलटे यह जरूर लगता है कि देशद्रोही NGOs की इस देश में आवाजाही और मनमर्जी बहुत ही हल्के तौर पर ली जा रही है। NGOs क्या करते हैं, किनके बीच में, कैसे काम करते हैं, रिलीफ़ फ़ण्ड और चैरिटी के नाम पर विदेशों से आ रहे अरबों रुपये का कहाँ सदुपयोग-दुरुपयोग हो रहा है, यह जाँचने की हमारे पास कोई ठोस व्यवस्था नहीं है। जरा सोचिये, जब गुजरात में नरेन्द्र मोदी की नाक के नीचे हफ़्तों तक पाकिस्तानी झण्डे फ़हराये जा रहे हों, तथा लन्दन की कोई संस्था अपने राहत शिविर में दाढ़ी बढ़ाने-टोपी लगाने के फ़रमान सुना रही हो… तो भारत के बाकी हिस्सों में क्या होता होगा, कितना होता होगा और उसका असर कितना भयानक होता होगा…। उधर तीस्ता सीतलवाड आंटी और महेश भट्ट अंकल जाने कैसे-कैसे किस्से दुनिया को सुनाते रहते हैं, हम भले ही भरोसा न करें, सुप्रीम कोर्ट भले ही तीस्ता आंटी को “झूठी” कह दे, लेकिन फ़िर भी लाखों लोग तो उनके झाँसे में आ ही जाते हैं… खासकर “चन्दा” देने वाले विदेशी…। ऐसे ही झाँसेबाज मिशनरी में भी हैं जो कंधमाल की झूठी खबरें गढ़-गढ़कर विदेशों में दिखाते हैं, जिससे चन्दा लेने में आसानी रहे, जबकि ऐसा ही चन्दा हथियाने के लिये सेकुलरों का प्रिय विषय “फ़िलीस्तीन” है…।

तो भाईयों-बहनों, NGOs में से 90% NGO, “दुकानदारी” के अलावा और कुछ नहीं है… बस “अत्याचारों” की मार्केटिंग सही तरीके से करना आना चाहिये… सच्चाई क्या है, यह तो इसी बात से स्पष्ट है कि समूचे देश के मुकाबले, गुजरात में मुसलमानों की आर्थिक खुशहाली में बढ़ोतरी आई है…


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जैसा कि अब धीरे-धीरे सभी जान रहे हैं कि केरल में इस्लामीकरण और एवेंजेलिज़्म की आँच तेज होती जा रही है। दोगले वामपंथी और बीमार धर्मनिरपेक्षतावादी कांग्रेस मुसलमानों के वोट लेने के लिये कुछ भी करने को तैयार हैं, इसी कड़ी में केरल के राज्य उद्योग निगम (KSIDC) ने केरल में “इस्लामिक बैंक” खोलने की योजना बनाई थी।

जिन्हें पता नहीं है, उन्हें बता दूं कि “इस्लामिक बैंकिंग” शरीयत के कानूनों के अनुसार गठित किया गया एक बैंक होता है, जिसके नियमों के अनुसार यह बगैर ब्याज पर काम करने वाली वित्त संस्था होती है, यानी इनके अनुसार इस्लामिक बैंक शून्य ब्याज दर पर लोन देता है और बचत राशि पर भी कोई ब्याज नहीं देता। यहाँ देखें… (http://77e57899.linkbucks.com)

आगे हम देखेंगे कि क्यों यह आईडिया पूर्णतः अव्यावहारिक है, लेकिन संक्षेप में कहा जाये तो “इस्लामिक बैंकिंग” एक पाखण्डी अवधारणा है, तथा इसी अवधारणा को केरल राज्य में लागू करवाने के लिये वामपंथी मरे जा रहे हैं, ताकि नंदीग्राम घटना और ममता की धमक के बाद, पश्चिम बंगाल और केरल में छिटक रहे मुस्लिम वोट बैंक को खुश किया जा सके। परन्तु केरल सरकार की इस “महान धर्मनिरपेक्ष कोशिश” को डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका ने धक्का देकर गिरा दिया है और केरल हाईकोर्ट ने फ़िलहाल इस्लामिक बैंकिंग सिस्टम को लागू करने की किसी भी “बेशर्म कोशिश” पर रोक लगा दी है।

http://www.thaindian.com/newsportal/business/court-stays-work-on-proposed-islamic-bank-in-kerala_100299303.html

डॉ स्वामी ने ऐसे-ऐसे तर्क दिये कि केरल सरकार की बोलती बन्द हो गई, और आतंकवादियों को “वैध” तरीके से फ़ण्डिंग उपलब्ध करवाने के लिये दुबई के हवाला ऑपरेटरों की योजना खटाई में पड़ गई। आईये पहले देखते हैं कि डॉ स्वामी ने इस्लामिक बैंकिंग के विरोध में क्या-क्या संवैधानिक तर्क पेश किये –

भारत में खोली जाने वाली इस्लामिक बैंकिंग पद्धति अथवा इस प्रकार की कोई भी अन्य नॉन-बैंकिंग फ़ाइनेंस कार्पोरेशन भारत के निम्न कानूनों और संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करती है –

1) पार्टनरशिप एक्ट (1932) का उल्लंघन, जिसके अनुसार अधिकतम 20 पार्टनर हो सकते हैं, क्योंकि KSIDC ने कहा है कि यह पार्टनरशिप (सहभागिता) उसके और निजी उद्यमियों के बीच होगी (जिनकी संख्या कितनी भी हो सकती है)।

2) भारतीय संविदा कानून (1872) की धारा 30 के अनुसार “शर्तों” का उल्लंघन (जबकि यह भी शरीयत के अनुसार नहीं है)।

3) बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट (1949) के सेक्शन 5(b), (c), 9 और 21 का उल्लंघन, जिसके अनुसार किसी भी लाभ-हानि के सौदे, खरीद-बिक्री अथवा सम्पत्ति के विक्रय पर ब्याज लेने पर प्रतिबन्ध लग जाये।

4) RBI कानून (1934) का उल्लंघन

5) नेगोशियेबल इंस्ट्रूमेण्ट एक्ट (1881) का उल्लंघन

6) को-ऑपरेटिव सोसायटी एक्ट (1961) का उल्लंघन


इसके अलावा, शरीयत के मुताबिक इस्लामिक बैंकिंग पद्धति में सिनेमा, होटल, अन्य मनोरंजन उद्योग, शराब, तम्बाकू आदि के व्यापार के लिये भी ॠण नहीं दे सकती, जो कि संविधान की धारा 14 (प्रत्येक नागरिक को बराबरी का अधिकार) का भी उल्लंघन करती है, क्योंकि यदि कोई व्यक्ति अपनी आजीविका के लिये सिनेमा या दारू बार चलाता है, तो उसे कोई भी बैंक ॠण देने से मना नहीं कर सकती। जब केरल सरकार का एक उपक्रम “राज्य उद्योग निगम”, इस प्रकार की शरीयत आधारित बैंकिंग सिस्टम में पार्टनर बनने का इच्छुक है तब यह संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का भी उल्लंघन है। डॉ स्वामी के उपरोक्त तर्कों से यह सिद्ध होता है कि इस्लामिक बैंकिंग टाइप का “सिस्टम” पूरी तरह से भारत के संविधान और कानूनों के विरुद्ध है, और इस्लामिक बैंक खोलने के लिये इनमें बदलाव करना पड़ेगा। दिक्कत यह है कि केरल सरकार और वहाँ की विधानसभा इस प्रकार कानूनों में बदलाव नहीं कर सकती, क्योंकि वित्त, वाणिज्य और संस्थागत फ़ाइनेंस के किसी भी कानून अथवा संवैधानिक प्रावधानों में बदलाव सिर्फ़ संसद ही कर सकती है, और “सेकुलरिज़्म” के पुरोधाओं द्वारा इसके प्रयास भी शुरु हो चुके हैं, इस्लामिक बैंकिंग के पक्ष में सेमिनार आयोजित हो रहे हैं, RBI और SEBI में लॉबिंग शुरु हो चुकी है, राज्यसभा में इस पर बाकायदा बहस भी हो चुकी है…

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अब देखते हैं कि “इस्लामिक बैंकिंग पद्धति” अव्यावहारिक और पाखण्डी क्यों है? कहा जाता है कि इस्लामिक बैंक कोई ब्याज न तो लेते हैं न ही देते हैं। फ़िर सवाल उठता है कि आखिर ये बैंक जीवित कैसे रहते हैं? दरअसल ये बैंक “पिछले दरवाजे” से ब्याज लेते हैं, अर्थात कान तो पकड़ते हैं, लेकिन सिर के पीछे से हाथ घुमाकर। मान लीजिये यदि आपको मकान खरीदने के लिये 10 लाख का लोन लेना है तो साधारण बैंक आपसे गारण्टी मनी लेकर ब्याज जोड़कर आपको 10 लाख का ॠण दे देगी, जबकि इस्लामिक बैंक वह मकान खुद खरीदेगी और आपको 15 लाख में बेच देगी और फ़िर 10-15 वर्षों की “बगैर ब्याज” की किस्तें बनाकर आपको दे देगी। इस तरह से वह बैंक पहले ही सम्पत्ति पर अपना लाभ कमा चुकी होगी और आप सोचेंगे कि आपको बगैर ब्याज का लोन मिल रहा है।

इस्लामिक विद्वान इस प्रकार की बैंकिंग की पुरज़ोर वकालत करते हैं, लेकिन निम्न सवालों के कोई संतोषजनक जवाब इनके पास नहीं हैं –

1) यदि बचत खातों पर ब्याज नहीं मिलेगा, तो वरिष्ट नागरिक जो अपना बुढ़ापा जीवन भर की पूंजी के ब्याज पर ही काटते हैं, उनका क्या होगा?

2) जब ब्याज नहीं लेते हैं तो बैंक के तमाम खर्चे, स्टाफ़ की पगार आदि कैसे निकाली जाती है?

3) “हलाल” कम्पनियों में इन्वेस्टमेंट करने और “हराम” कम्पनियों में इन्वेस्टमेंट करने सम्बन्धी निर्णय बैंक का “शरीयत सलाहकार बोर्ड” करेगा, तो यह सेकुलरिज़्म की कसौटी पर खरा कैसे हो गया?

4) दुबई के पेट्रोडालर वाले धन्ना सेठ इस्लामिक बैंकिंग का प्रयोग सोमालिया, अफ़गानिस्तान और चेचन्या में क्यों नहीं करते? जहाँ एक तरफ़ सोमालिया में इस्लामिक लुटेरे जहाजों को लूटते फ़िर रहे हैं और अफ़गानिस्तान में तालिबान की मेहरबानी से लड़कियों के स्कूल बरबाद हो चुके हैं और बच्चों को रोटी नसीब नहीं हो रही, वहाँ इस्लामिक बैंक क्यों नहीं खोलते?

5) पाकिस्तान जैसा भिखमंगा देश, जो हमेशा खुद की कनपटी पर पिस्तौल रखकर अमेरिका से डालर की भीख मांगता रहता है, वहाँ इस्लामिक बैंकिंग लागू करके खुशहाली क्यों नहीं लाते?

http://www.emeraldinsight.com/Insight/viewContentItem.do?contentId=1571781&contentType=Article

6) क्या यह सच नहीं है कि हाल ही में दुबई में आये “आर्थिक भूकम्प” के पीछे मुख्य कारण इस्लामिक बैंकिंग संस्थाओं का फ़ेल हो जाना था?

7) पहले से ही देश में दो कानून चल रहे हैं, क्या अब बैंकिंग और फ़ाइनेंस भी अलग-अलग होंगे? सरकार के इस कदम को, देश में (खासकर केरल में) इस्लामिक अलगाववाद के “टेस्टिंग चरण” (बीज) के रूप में क्यों न देखा जाये? यानी आगे चलकर इस्लामिक इंश्योरेंस, इस्लामिक रेल्वे, इस्लामिक एयरलाइंस भी आ सकती है?

अन्त में एक सबसे प्रमुख सवाल यह है कि, जब प्रमुख इस्लामिक देशों को अल्लाह ने पेट्रोल की नेमत बख्शी है और ज़मीन से तेल निकालने की लागत प्रति बैरल 10 डालर ही आती है, तब “अल्लाह के बन्दे” उसे 80 डालर प्रति बैरल (बीच में तो यह भाव 200 डालर तक पहुँच गया था) के मनमाने भाव पर क्यों बेचते हैं? क्या यह “अनैतिक मुनाफ़ाखोरी” नहीं है? इतना भारी मुनाफ़ा कमाते समय इस्लाम, हदीस, कुरान आदि की सलाहियतें और शरीयत कानून वगैरह कहाँ चला जाता है? और 10 डालर का तेल 80 डालर में बेचने पर सबसे अधिक प्रभावित कौन हो रहा है, पेट्रोल आयात करने वाले गरीब और विकासशील देश ही ना…? तब यह “हलाल” की कमाई कैसे हुई, यह तो साफ़-साफ़ “हराम” की कमाई है। ऐसे में विश्व भर में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जमाने भर को इस्लामिक बैंकिंग की बिना ब्याज वाली थ्योरी की पट्टी पढ़ाने वाले अरब देश क्यों नहीं 10 डालर की लागत वाला पेट्रोल 15 डालर में सभी को बेच देते, जिससे समूचे विश्व में अमन-शान्ति-भाईचारा बढ़े और गरीबी मिटे, भारत जैसे देश को पेट्रोल आयात में राहत मिले ताकि स्कूलों और अस्पतालों के लिये अधिक पैसा आबंटित किया जा सके? यदि वे ऐसा करते हैं तभी उन्हें “इस्लामिक बैंकिंग” के बारे में कुछ कहने का “नैतिक हक” बनता है, वरना तो यह कोरी लफ़्फ़ाजी ही है।

वर्तमान में देश में तीन वित्त विशेषज्ञ प्रमुख पदों पर हैं, मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी और चिदम्बरम, फ़िर क्यों ये लोग इस प्रकार की अव्यावहारिक अवधारणा का विरोध नहीं कर रहे? क्या इन्हें दिखाई नहीं दे रहा कि इस्लामिक बैंकिंग का चुग्गा डालकर धर्मान्तरण के लिये गरीबों को फ़ँसाया जा सकता है? क्या यह नहीं दिखता कि अल-कायदा, तालिबान और अन्य आतंकवादी नेटवर्कों तथा स्लीपर सेल्स के लिये आधिकारिक रुप से पैसा भारत भेजा जा सकता है? बार-बार कई मुद्दों पर विभिन्न हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट में “लताड़” खाने के बावजूद क्यों कांग्रेसी और वामपंथी अपनी हरकतों से बाज नहीं आते?

सभी को, सब कुछ पता है लेकिन मुस्लिम वोट बैंक की पट्टी, आँखों पर ऐसी बँधी है कि उसके आगे “देशहित” चूल्हे में चला जाता है। भाजपा भी “पोलिटिकली करेक्ट” होने की दयनीय दशा को प्राप्त हो रही है, वरना क्या कारण है कि जो काम अरुण जेटली और रविशंकर प्रसाद को करना चाहिये था उसे डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी को करना पड़ रहा है? जब रुपये-पैसों से मालामाल लेकिन “मानसिक रूप से दो कौड़ी की औकात” रखने वाले विभिन्न NGOs घटिया से घटिया मुद्दों पर जनहित याचिकाओं और मुकदमों की बाढ़ ला देते हैं तो भाजपा के कानूनी सेल को जंग क्यों लगा हुआ है, क्यों नहीं भाजपा भी देशहित से सम्बन्धित मुद्दों को लगातार उठाकर सम्बन्धित पक्षों को न्यायालयों में घसीटती? MF हुसैन नामक “कनखजूरे” को न्यायालयों में मुकदमे लगा-लगाकर ही तो देश से भगाया था, फ़िर भाजपा राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों पर इतना शर्माती क्यों है? डॉ स्वामी से प्रेरणा लेकर ऐसे मामलों में मुकदमे क्यों नहीं ठोकती? अकेले डॉ स्वामी ने ही, कांची कामकोटि शंकराचार्य के अपमान और रामसेतु को तोड़ने के मुद्दे पर विभिन्न न्यायालयों में सरकार की नाक में दम कर रखा है, फ़िर भी भाजपा को अक्ल नहीं आ रही। भाजपा क्यों नहीं समझ रही कि, चाहे वह मुसलमानों के साथ “हमबिस्तर” हो ले, फ़िर भी उसे मुस्लिमों के वोट नहीं मिलने वाले…

बहरहाल, डॉ स्वामी की बदौलत, इस्लामिक बैंकिंग की इस बकवास पर कोर्ट की अस्थायी ही सही फ़िलहाल रोक तो लगी है… यदि केन्द्र सरकार संसद में कानून ही बदलवा दे तो कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि “भले आदमी”(?) और “विश्व के सबसे अधिक पढ़े-लिखे प्रधानमंत्री” पहले ही कह चुके हैं… “देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…” क्योंकि हिन्दू तो…

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16 अप्रैल 2010 को पश्चिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना जिले में स्थित बैरकपुर स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स की यह घटना है। स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स की महिला खिलाड़ी और युवा प्रशिक्षु लड़कियाँ मैदान में प्रैक्टिस कर रही थीं। मैदान से बाहर बैठे हुए कुछ मुस्लिम लड़कों ने (आयु 16 से 20) इन खिलाड़ी लड़कियों पर ताने कसना शुरु किये, गालियाँ दीं और झूमाझटकी शुरु की। लड़कियों के साथ, आसपास की झुग्गी बस्तियों के मुस्लिम लड़के आये दिन इस प्रकार की छेड़छाड़ करते रहते हैं जिसकी शिकायत कई बार की जा चुकी है। उस दिन भी लड़कियों को लगा कि ये लड़के थोड़ी देर में चले जायेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उस झुण्ड में से एक-दो लड़कों ने डोना नाम की खिलाड़ी को पकड़कर उससे उसका मोबाइल नम्बर माँगा, किसी तरह डोना उनसे पीछा छुड़ाकर मैदान के बीच में आई, तब लड़कों ने मैदान के बाहर से चिल्लाना शुरु कर दिया, कि “हम तुम्हारे कमरे में आयेंगे…”, “हम तुम्हारे बिस्तर पर बैठेंगे…” आदि-आदि। इसे देखकर पास ही खेल रहे कुछ लड़कों ने उन गुण्डों का विरोध किया और उन्हें मारपीट कर वहाँ से भगा दिया, लड़कियाँ घबराकर स्पोर्ट्स क्लब की बिल्डिंग के भीतर चली गईं।


लेकिन शाम को लगभग 6.15 बजे अचानक उन्हीं लड़कों के साथ 50-60 मुस्लिम लड़के स्पोर्ट्स काम्पलेक्स की इमारत में जबरन घुस आये, जमकर तोड़फ़ोड़ की, लड़कियों के टॉयलेट में जाकर उनसे छेड़छाड़ की और कुछ लड़कियों को खूब पीटा, जिसमें से दो लड़कियाँ पूजा सिन्हा (17) और डॉली विश्वास (14) गम्भीर रूप से घायल हुईं। पूजा सिन्हा को एक निजी अस्पताल में भरती किया गया, जहाँ उसने स्थानीय पत्रकारों को घटना की जानकारी दी। उसने बताया कि वे लड़के मोहनपुर पंचायत के चोपकाथालिया मस्जिद पारा के हैं और आये दिन बाज़ार में आते-जाते हिन्दू लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करते रहते हैं, जिसकी शिकायत क्लब सेक्रेटरी को कई बार की थी, इसीलिये उस दिन उन मुस्लिम लड़कों ने मुझे अधिक निशाना बनाया और मेरी छाती पर चढ़कर पेट में लातें मारीं।


जैसा कि सभी जानते हैं, पश्चिम बंगाल के कई जिले अब मुस्लिम बहुल बन चुके हैं, 24 परगना जिला भी इसी में से एक है। इस स्पोर्ट्स क्लब के सेक्रेटरी अजय बर्मन रॉय, “माकपा के स्थानीय नेता” हैं, जिन्होंने पत्रकारों को इस घटना के बारे में कुछ भी लिखने के खिलाफ़ धमकाया। जब क्लब के वरिष्ठ सदस्य विष्णुपद चाकी से इस घटना और सुरक्षा के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था कि 50-60 लड़कों द्वारा अचानक हमला किये जाने से वे घबरा गये और ऐसे में सुरक्षा का कोई भी उपाय काम नहीं आता। आगे उन्होंने बताया कि मस्जिद पारा मोहल्ले से सलाम अहमद (36), कलाम खान (38) और मुबीन अहमद ने उन लड़कों को “समझा-बुझाकर”(?) क्लब से बाहर निकाला (घटना हो जाने के बाद)। उल्लेखनीय है कि सलाम खान भी एक स्थानीय CPIM नेता है और उसने भी क्लब के सदस्यों को इस बात की रिपोर्ट पुलिस में नहीं करने हेतु धमकाया। यहाँ तक कि उसने तोड़फ़ोड़ के निशान मिटाने की गरज से सामान को ठीकठाक जमवाने की कोशिश भी की, लेकिन क्लब के सदस्यों के विरोध के बाद वह वहाँ से चला गया।


इसके बाद घबराये हुए स्पोर्ट्स क्लब के सदस्यों ने टीटागढ़ पुलिस थाने में दबाव के तहत “बगैर किसी का नाम लिखे” एक रिपोर्ट दर्ज करवाई और 18.04.10 को 24 परगना जिले के एसपी के नाम भी ज्ञापन सौंपा। स्पोर्ट्स क्लब के सदस्यों ने लिखित में स्थानीय पंचायत के अध्यक्ष प्रेमचन्द बिस्वास (CPIM) और बैरकपुर नगरपालिका चेयरमैन बिजोली कान्ति मित्रा (CPIM) को भी इसकी रिपोर्ट दी, लेकिन न ही कुछ होना था, न ही हुआ।

http://www.indiaworldreport.com/archive/update24_04_10_kolkata_media.html

क्या आपने इस घटना की कोई खबर किसी राष्ट्रीय चैनल या अखबार में पढ़ी-देखी-सुनी? निश्चित रूप से नहीं। क्योंकि एक तो यह मामला वामपंथियों से जुड़ा हुआ है जो पश्चिम बंगाल के आगामी चुनाव में मुस्लिमों के वोट लेने के लिये “कुछ भी” (जी हाँ कुछ भी) करने-करवाने को तैयार बैठे हैं, और दिल्ली सहित कई क्षेत्रों में इनके जो “बौद्धिक गुर्गे” मीडिया में कब्जा जमाये बैठे हैं, वह ऐसी खबरों को सामने आने नहीं देते… अलबत्ता मौका लगने पर देशद्रोही चिल्लाचोट करने (जैसे JNU में नक्सल समर्थक मीटिंग) में आगे रहते हैं। मंगलोर के पब में प्रमोद मुतालिक के गुण्डों ने जो किया वह गलत था, उसकी मैं निंदा करता हूं, लेकिन उस घटना और इस घटना के मीडिया कवरेज का अन्तर ही “सेकुलरिज़्मयुक्त मीडिया(?)” का असली चरित्र उजागर करने के लिये काफ़ी है (मतलब ये कि गुजरात दंगों में हुई कुछ मौतों को जमकर लगातार उछालो, लेकिन कश्मीर से 3 लाख हिन्दुओं के जातीय सफ़ाये पर चुप रहो…)। रही बात मानवाधिकार और नारी संगठनों की तो वे भी उसी समय जागते हैं जब मामला अल्पसंख्यकों से जुड़ा हुआ हो (जैसे कि कश्मीर के स्वर्गीय रजनीश की पत्नी अमीना यूसुफ़ न तो नारी है, न ही मानव)।

जैसे-जैसे बंगाल का चुनाव नज़दीक आयेगा, तृणमूल, कांग्रेस और वाम दलों में मुस्लिमों को रिझाने का गंदा खेल अपने चरम पर पहुँचेगा (लेकिन यदि किसी ने हिन्दू वोटों को एकजुट करने की बात की, तो वह “साम्प्रदायिक” घोषित हो जायेंगे)

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चलते-चलते : वामपंथियों के “बौद्धिक पाखण्ड” का एक और उदाहरण देखते जाईये – केरल के अलप्पुझा जिले की माकपा केन्द्रीय समिति ने स्थानीय नेता के राघवन के खिलाफ़ अनुशासनहीनता की कार्रवाई की है, क्योंकि उन्होंने अपने पुत्र की “विद्यारम्भम” नामक धार्मिक क्रिया करवाई (बच्चे की औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ किये जाने पर यह धार्मिक क्रिया की जाती है)। अलप्पुझा के माकपा प्रमुख थॉमस इसाक के अनुसार, राघवन ने हिन्दू धार्मिक क्रियाकलाप करके एक बड़ा अपराध किया है। इसी महान बौद्धिक पार्टी ने कन्नूर जिले में एक माकपा कार्यकर्ता को पार्टी से निकाल दिया था क्योंकि उसने गृहप्रवेश के दौरान गणेश पूजा कर ली थी। ये बात और है कि पार्टी के ही एक नेता टीके हम्ज़ा द्वारा हज यात्रा किये जाने पर, तथा पिनरई विजयन द्वारा खुलेआम मुरिन्गूर चर्च के “चंगाई” कार्यक्रमों की तारीफ़ के मामले में माकपा ने चुप्पी साध रखी है।

अर्थात साम्प्रदायिकता का मतलब सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दुत्व होता है, और “धर्म अफ़ीम है” का जो नारा बुलन्द किया जाता है वह सिर्फ़ हिन्दू धर्म के लिये होता है…। एक बात जरूर है कि पैसे और ज़मीन पर कब्जे के लिये उन्हें हिन्दू मठ-मन्दिर ही याद आते हैं, शायद इसीलिये आजीवन ये लोग केरल और बंगाल से बाहर नहीं निकल पाये और अब जल्दी ही ममता बैनर्जी द्वारा बंगाल की खाड़ी में फ़ेंक दिये जायेंगे।

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कश्मीर के एक अलगाववादी नेता हैं सैयद अली शाह गिलानी। ये साहब खुलेआम भारत की सरकार को आये दिन गरियाते रहते हैं, भारत का तिरंगा जलाते रहते हैं, कश्मीर में महीने में एक-दो बार आम हड़तालें करवाते हैं, और भी “बहुत कुछ” करते और करवाते रहते हैं।

सैयद अली शाह गिलानी का एक ताज़ा बयान आया है, जिसमें उन्होंने कश्मीर के मुसलमानों से 2011 की 15 मई से शुरु होने वाली भारत की जनगणना में जोर-शोर से भाग लेने की अपील की है। आप सोचेंगे कि… “भई ये तो अच्छी बात है, जनगणना में सहयोग करना तो एक राष्ट्रीय कर्तव्य है…”, लेकिन गिलानी साहब आपकी तरह इतना सीधा भी नहीं सोचते। गिलानी का कहना है कि कश्मीर के कठुआ, गुल, बानी, अखनूर आदि सेक्टरों के मुसलमानों की सही जनगणना से इस इलाके के जनसंख्या संतुलन के सही आँकड़े आयेंगे और तब हम भारत सरकार से “इस पर आगे बात करेंगे…”। गिलानी ने यह भी कहा कि उनकी पार्टी स्थानीय लोगों को जनगणना के दौरान पूछे जाने वाले प्रश्नों का “उचित जवाब देने के लिये शिक्षित भी करेगी…”

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अथवा http://azad-kashmir.com/akhnoor/actively-take-part-in-census-gilani-tells-jk-muslims-rediff/

यह दोनों ही बयान महत्वपूर्ण हैं…, गिलानी की घोषित रूप से भारत-विरोधी पार्टी हुर्रियत कॉन्फ़्रेंस स्थानीय मुसलमानों को “शिक्षित करेगी” का मतलब है कि “जनगणना के समय प्रश्नों के उत्तर ऐसे दिये जायें कि उसके द्वारा जनगणना के आँकड़ों में हेराफ़ेरी की जा सके और अपने पक्ष में अनुकूल बदलाव दर्शाया जा सके…”, “कैसे यह बताया जा सके कि फ़लाँ-फ़लाँ इलाके की आबादी अब पूरी तरह मुस्लिम-बहुल बन चुकी है, ताकि आज़ाद कश्मीर में उसे मिलाने की माँग करने में सहूलियत हो…” आदि। कश्मीर को पहले ही “धार्मिक आधार” पर लगभग पूरी तरह से “हिन्दू-मुक्त” किया जा चुका है (Religion of Peace के ढेर सारे उदाहरणों में से एक), और अब उसे भारत से अलग करने के लिये “बराक हुसैन ओबामा” भी दबाव बना रहा है (आखिर उसे भी नोबेल शान्ति पुरस्कार के “नमक का हक” अदा करना है भाई…)।

भारत की जनता के टैक्स के टुकड़ों पर पलने वाले, लेकिन फ़िर भी कश्मीर की आज़ादी की रट लगाये रखने वाले इन “पिस्सुओं” का भारत सरकार कुछ नहीं बिगाड़ पाती… उलटे इन्हें दिल्ली में सरकारी मेहमान बनाये रखने में अपनी शान समझती है… क्या कहा, विश्वास नहीं होता? तो इस गिलानी की दूसरी हरकत देखिये…

बीते पखवाड़े अली शाह गिलानी ने “कांग्रेस की कृपा से अब तक जीवित”, तिहाड़ जेल में बन्द संसद पर हमले के देशद्रोही अफ़ज़ल गुरु से “व्यक्तिगत मुलाकात” की। वजह पूछे जाने पर गिलानी ने बताया कि अफ़ज़ल गुरु से वह इसलिये मिले, क्योंकि उन्हें लगता है कि गुरु निर्दोष है… (यानी भारत की सुप्रीम कोर्ट बेवकूफ़ है)। सारे कश्मीरी मुसलमान निर्दोष और मासूम ही होते हैं, यह गिलानी का पक्का विश्वास है, क्योंकि दिल्ली के लाजपतनगर में हुए बम विस्फ़ोटों के लिये दोषी पाये गये कश्मीरी युवकों को “नैतिक समर्थन”(?) देने के लिये उन्होंने तड़ से घाटी में एक और आम हड़ताल भी करवा ली।

गिलानी पिछले कुछ हफ़्ते दिल्ली में “विशिष्ट मेहमान” की तरह दिल्ली में ठहरे (यहाँ रुकने-खाने-पीने का खर्च किसने उठाया, मुझे पता नहीं)। यहाँ गिलानी ने एक तमिल कॉन्फ़्रेंस(?) को संबोधित किया (गिलानी का तमिल कॉन्फ़्रेंस से क्या लेना-देना है, कोई मुझे समझायेगा?), तथा अफ़ज़ल गुरु के बाद तिहाड़ जेल में बन्द अन्य कश्मीरी “गुमराह” युवकों से भेंट की। यह सब हुआ भारत सरकार की नाक के नीचे, क्योंकि इस “पिलपिली” सरकार को कोई भी ऐरा-गैरा जब चाहे धमका सकता है, और सरेआम इज्जत उतार सकता है, और ऐसा ही गिलानी ने किया भी… एक मुलाकात में (दिल्ली में ही, यानी सोनिया-मनमोहन-चिदम्बरम के बंगलों की दस किमी रेंज के भीतर ही) गिलानी ने कहा कि “अफ़ज़ल गुरु को जबरन जेल में ठूंसकर रखा गया है, गुरु ने कश्मीरी युवाओं (यानी सेकुलरों के प्रिय, “भटके हुए”) से अपील की है कि कश्मीर की आज़ादी के लिये मरते दम तक संघर्ष जारी रखें…” (कृपया ध्यान दें – दूसरों को “मरते दम तक” कह रहा है, लेकिन खुद ही विभिन्न राष्ट्रपतियों के सामने बीबी-बच्चे को आगे करके, जान की भीख लगातार माँगे भी जा रहा है…… कैसा “स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी” है भई ये?)। जाते-जाते सैयद गिलानी, यूपीए के बचे-खुचे कपड़े उतारने से भी नहीं चूके और आगे कहा कि “यदि केन्द्र सरकार अफ़ज़ल गुरु को फ़ाँसी देती है तो वह कश्मीर का एक और हीरो बन जायेगा, जिस तरह मकबूल बट बन गया था… कश्मीर का बच्चा-बच्चा अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी को बर्दाश्त नहीं करेगा और इसके खिलाफ़ उठ खड़ा होगा…भारत को इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी”। (तात्पर्य यह कि जो उखाड़ सकते हो उखाड़ लो…)

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अथवा http://www.dnaindia.com/world/report_geelani-visits-afzal-guru-in-tihar-jail_1372641

सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार की सरेआम हुई इस “बेइज्जती” पर, किसी भी मंत्री, किसी भी चमचे, किसी भी “सेकुलर” लगुए-भगुए, किसी भी मीडियाई भाण्ड, का कोई “कड़ा” तो क्या, हल्का-पतला बयान भी नहीं आया…।

बयान आता भी कैसे…? अभी तो केन्द्र सरकार, IPL के मैदान में अपनी “गन्दी चड्डियाँ धोने” में व्यस्त है, और “सेकुलरिज़्म” का नारा गुजरात के लिये आरक्षित है। इसी प्रकार “पिंक चड्डी” सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दुत्ववादियों के लिये ही रिज़र्व है…, बच्चों को अपनी यौन-पिपासा के लिये बर्बाद करने वाले चर्च के “मानसिक बीमार पादरियों” के लिये नहीं और गिलानियों जैसे के लिये तो बिलकुल भी नहीं। ऐसे में यदि असम के पाँच जिलों से लगातार पाकिस्तान के झण्डे फ़हराये जाने की खबरें आ भी रही हों, पश्चिम बंगाल के 17 जिलों में मुस्लिम आबादी 50-55 प्रतिशत से ऊपर हो चुकी हो, केरल में अब्दुल मदनी को सत्ता का खुला संरक्षण प्राप्त हो, तो भी किसे फ़िक्र है? कश्मीर में भी समस्या सिर्फ़ इसलिये है क्योंकि वहाँ मुस्लिम बहुमत है, जबकि लद्दाख और जम्मू क्षेत्रों में स्थिति शान्तिपूर्ण है…। यह बात पहले भी सैकड़ों बार दोहराई जा चुकी है कि जब तक किसी इलाके में "हिन्दू" बहुमत में हैं, वहाँ अलगाववादी विचार पनप नहीं सकता… क्योंकि हिन्दू संस्कृति "सबको साथ लेकर चलने वाली" और "व्यक्ति को धार्मिक या नास्तिक होने की स्वतन्त्रता देने वाली" लोकतांत्रिक संस्कृति है।

नेहरु से सोनिया तक गलतियों पर गलतियाँ करने के बाद, कश्मीर को मानसिक रूप से भारत के साथ मिलाने के लिये अब तो “भागीरथी प्रयास” ही करने होंगे… और इसे भविष्यवाणी न समझें बल्कि चेतावनी समझें, कि आने वाले कुछ वर्षों के भीतर ही असम, पश्चिम बंगाल और केरल में इस कांग्रेसी सेकुलरिज़्म के विष का असर साफ़ दिखाई देने लगेगा…। और जो लोग यह समझते हैं कि यह चेतावनी अतिशयोक्तिपूर्ण है, उन्हें असम के राज्यपाल की सन् 2005 में केन्द्र को भेजी गई रिपोर्ट को देखना चाहिये, उसके बाद 4 साल और बीत चुके हैं तथा अब तो बांग्लादेश से आये हुए मुसलमानों ने ISI के साथ मिलकर स्थानीय आदिवासियों को अल्पसंख्यक बना दिया है, क्योंकि कांग्रेस को सिर्फ़ "वोट-बैंक" और "स्विस-बैंक" से प्यार है, देश से कतई नहीं।


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हाल ही में दो घटनाओं पर मेरी नज़र पड़ी और उन्हें पढ़कर मैं थोड़ा आश्चर्यचकित हूं, थोड़ा भ्रमित हूं और थोड़ा संशय की स्थिति में हूं। कृपया इन दोनों घटनाओं पर नज़र डालें और जो सवाल उठ रहे हैं, उनके जवाब देकर मेरा सामान्य ज्ञान बढ़ायें।

जैसा कि सभी जानते हैं भारत घोषित रूप से एक “सेकुलर” देश है। अमूमन हमारे यहाँ किसी “धर्म विशेष” को शासकीय तौर पर वरीयता देने की परम्परा और नियम नहीं हैं (हालांकि ऐसा सिर्फ़ कागज़ों में ही है, क्योंकि धर्म आधारित आरक्षण और पर्सनल लॉ, अब एक वास्तविकता बन चुकी है)। प्रस्तुत चित्र मुम्बई के मझगाँव डॉकयार्ड (बन्दरगाह) के मैनेजर द्वारा एक अभ्यर्थी को इंटरव्यू के बुलावे के लिये भेजे गये पत्र का है। यूँ तो यह एक सामान्य सा कॉल-लेटर है, लेकिन इसमें आवेदक को जन्म प्रमाण-पत्र पेश करने के लिये जो कालम लिखा है उसमें अन्य सभी “जन्म प्रमाण के सर्वमान्य प्रशासनिक दस्तावेजों” के अलावा “बैप्टिज़्म सर्टिफ़िकेट” का विकल्प भी रखा है।




हालांकि देश के कुछ (ईसाई बहुल) राज्यों में “बैप्टिज़्म सर्टिफ़िकेट” को जन्मप्रमाण पत्र के तौर पर आधिकारिक मान्यता प्राप्त है जैसे गोआ, मिजोरम और केरल आदि (शायद वहाँ इसी को सेकुलरिज़्म कहते होंगे), लेकिन चूंकि यह कॉल-लेटर मुम्बई के मझगाँव डॉक का है अतः मैं यह भी जानना चाहता हूं (कृपया मेरा ज्ञानवर्धन करें) कि –

1) क्या बैप्टिज़्म सर्टिफ़िकेट अब महाराष्ट्र में भी वैध है?

2) कहीं केन्द्र सरकार ने इसे अपनी आधिकारिक जन्म प्रमाण पत्र सूची में तो शामिल नहीं कर लिया है? (मझगाँव डॉकयार्ड केन्द्र सरकार के अधीन आता है)

3) यदि किया है तो कब से?

4) यदि नहीं, तो केन्द्र सरकार का एक विभाग ऐसा कॉल लेटर कैसे जारी कर सकता है?

5) यह “विशेष सुविधा” अन्य धर्मों के लोगों भी प्राप्त है या नहीं? (जैसे किसी मौलवी या किसी ग्रन्थी के हस्ताक्षरों द्वारा जारी जन्म प्रमाण पत्र)

इस कॉल लेटर से कुछ सवाल उठना स्वाभाविक है –

1) क्या यह एक धर्मनिरपेक्ष देश की “राज्य व्यवस्था” में ईसाईयों के पक्ष में पक्षपात है?

2) क्या इस प्रकार की धार्मिक जन्म प्रमाण पत्र विधि को मान्य करना ईसाईयों को अतिरिक्त फ़ायदा नहीं देगी?

3) उस स्थिति में क्या होगा यदि नगरनिगम के जन्म प्रमाणपत्र अथवा हाईस्कूल मार्कशीट पर छपी जन्मतिथि एवं बैप्टिज़्म सर्टिफ़िकेट की तिथि अलग-अलग हो? (ऐसी स्थिति में किसे वरीयता दी जायेगी?) (इस सवाल की गम्भीरता समझने के लिये आगे यू-ट्यूब की वीडियो क्लिप भी देखें)

कुछ “खसके” हुए साम्प्रदायिक सवाल भी साथ-साथ खड़े होते हैं –

1) क्या इस प्रक्रिया से धर्मान्तरण में मदद नहीं मिलेगी? (एक अनाथ बच्चा पकड़ो, उसका बप्तिस्मा करो, एक ईसाई तैयार)

2) आदिवासी क्षेत्रों में जहाँ अनपढ़ लोग जन्म प्रमाण पत्र के बारे में जानते ही नहीं, वहाँ का स्थानीय पादरी उन्हें ताबड़तोड़ बैप्टिस्ट सर्टिफ़िकेट जारी करके ईसाई बना सकता है।

अब देखते हैं, कुछ समय पूर्व पत्रकार आशीष सारस्वत, नीरज सिंह और रोहित खन्ना द्वारा किया गया एक स्टिंग ऑपरेशन, जिसमें दिल्ली के पहाड़गंज स्थित ईदगाह बैप्टिस्ट चर्च के पादरी बेंजामिन दास एक फ़र्जी बैप्टिस्ट सर्टिफ़िकेट जारी करते हुए कैमरे पर पकड़े गये थे। इन पत्रकारों ने उन्हें कहा कि वे ईसाई हैं और उन्हें “बैक-डेट” में एक बैप्टिस्ट सर्टिफ़िकेट चाहिये। बेंजामिन दास ने उन्हें यह सर्टिफ़िकेट 15,000 रुपये में बेचा और चर्च के रजिस्टर में उन्हें उस चर्च का “सम्माननीय और पुराना सदस्य” भी दर्ज कर लिया।

इस वीडियो में पादरी साहब फ़रमाते हैं, “आजकल पैसे से हर काम करवाया जा सकता है, 2000 रुपये तो मैं एफ़िडेविट बनवाने के ले रहा हूं, और 13,000 मेरी फ़ीस होगी…”।

पत्रकारों की इस टीम ने फ़िर दिल्ली विश्वविद्यालय स्थित क्रिश्चियन कॉलोनी के होली गोस्पेल बैप्टिस्ट चर्च के फ़ादर हेनरिक जेम्स का स्टिंग ऑपरेशन किया, उसने भी बैप्टिस्म सर्टिफ़िकेट पैसा लेकर जारी कर दिया। यहाँ कारण बताया गया कि “हम मेरठ से आये हैं और वहाँ एक “प्रतिष्ठित मिशनरी स्कूल” में दाखिले के लिये बप्तिस्मा प्रमाण पत्र चाहिये”। यहाँ पर इस प्रकार का जन्म प्रमाण पत्र(?) उन्हें सस्ते में अर्थात सिर्फ़ 5000 में मिल गया। इसके बाद इस टीम ने क्रिश्चियन कॉलेज में एडमिशन के नाम पर असेम्बली ऑफ़ बिलीवर्स चर्च के पादरी सेसिल न्यूटन से भी एक ऐसा ही बैप्टिस्ट सर्टिफ़िकेट हासिल कर लिया। इस मामले में अधिक पैसा देना पड़ा क्योंकि फ़ादर सेसिल ने मजिस्ट्रेट का एक हस्ताक्षर युक्त सर्टिफ़िकेट भी साथ में दिया जिसमें यह घोषणा की गई थी कि यह तीनों पत्रकार स्वेच्छा से ईसाई धर्म अपना रहे हैं।

दूसरे वीडियो में रिपोर्टर कहते हैं – “मतलब आज से हम लोग क्रिश्चियन हो गये और आपने हमें बैप्टिस्ट सर्टिफ़िकेट दिया”। फ़ादर सेसिल कहते हैं – “हमें वकीलों को भी सेट करके रखना पड़ता है, वरना आप को इतनी आसानी से यह नहीं मिलता…”… फ़ादर सेसिल ने भी चर्च के रजिस्टर में इनकी सदस्यता पिछली तारीखों में दर्शाई।

इस मामले में सबसे बड़ा सवाल यही है कि “एक गैर-सरकारी और धार्मिक संस्था” द्वारा जारी किया गया जन्म प्रमाण पत्र आधिकारिक क्यों होना चाहिये? क्या ऐसे फ़र्जी प्रमाण-पत्रों को शासकीय दस्तावेज का दर्जा दिया जा सकता है? और वह भी एक “सेकुलर” राज्य में?

जिस किसी सज्जन को इस बारे में जो भी आधिकारिक जानकारी उपलब्ध हो वह टिप्पणी के माध्यम से प्रदर्शित करे, ताकि लोगों को सही स्थिति की जानकारी मिल सके। क्या जीवन बीमा करते समय “आयु-प्रमाण” के लिये भी “बैप्टिस्ट सर्टिफ़िकेट” को मान्य किया जाता है? यदि यह सही है, तो क्या यह बीमा कम्पनियों के लिये एक खतरे का संकेत नहीं है? साथ ही कृपया ऐसे सभी सरकारी (केन्द्रीय और राज्य) विभागों और संस्थाओं की सूची बनायें जो बैप्टिस्ट सर्टिफ़िकेट को मान्य करते हैं… ताकि उचित मंच से इस पर विरोध दर्ज किया जा सके।

सीएनएन-आईबीएन की वेबसाईट पर नकली प्रमाणपत्र बेचने के इस गोरखधंधे का भण्डाफ़ोड़ किया जा चुका है…
इसे देखें… http://18b882d9.linkbucks.com

यह है यू-ट्यूब की लिंक जिसमें बप्तिस्मा प्रमाणपत्र पैसा लेकर दिया जा रहा है-

http://www.youtube.com/watch?v=nkomR3ndjfg

बप्तिस्मा सर्टिफ़िकेट बेचने का एक और वीडियो…

http://www.youtube.com/watch?v=5S0sx1cmSck&feature=related

अब एक अन्य घटना देखिये :- पोलैण्ड के राष्ट्रपति की हाल ही में एक हवाई दुर्घटना में मौत हुई, इधर दिल्ली में “सेक्रेड हार्ट कैथेड्रल” द्वारा टाइम्स ऑफ़ इंडिया अखबार में एक विज्ञापन प्रकाशित करवा कर दिवंगतों को श्रद्धांजलि देने का कार्यक्रम (15 अप्रैल 2010) आयोजित किया गया। विज्ञापन में कहा गया है कि पोलैण्ड के राष्ट्रपति और उनकी पत्नी के हवाई दुर्घटना में हुए दुखद निधन पर गहरा शोक हुआ है अतः आर्चबिशप विन्सेण्ट माइकल एक शोकसभा लेंगे। ठीक इसी प्रकार “सेमुअल” राजशेखर रेड्डी के हवाई दुर्घटना में मारे जाने पर मुम्बई सहित अनेक शहरों के चर्चों ने शोकसभा आयोजित की थी (तो क्या सिंधिया, जीएमसी बालयोगी आदि कांग्रेसी नेता सड़क दुर्घटना में मारे गये थे? और हाल ही में माओवादियों द्वारा 76 सैनिकों की हत्या पर तो इस चर्च ने कोई शोकसभा आयोजित नही की…)। शायद “Deepest sense of grief” तथा “Most Terrible Tragedies” जैसे वाक्य कुछ “खास” लोगों के लिये ही आरक्षित हैं।



अब बताईये…… राष्ट्रपति हैं पोलैण्ड के, निधन हुआ रूस में और उनकी शोकसभा दिल्ली में? क्यों? कोई औचित्य दिखता है? नहीं ना… अब आपके दिमाग की कोई घण्टी बजी? बजेगी, बजेगी जरूर बजेगी… थोड़ा दिमाग पर जोर लगाईये, तथा “भारत के सेकुलर मीडिया” की भाण्डनुमा (सानिया मिर्ज़ा-थरूर) खबरों से अपना ध्यान हटाईये… सब साफ़-साफ़ दिखने लगेगा।

वीडियोकॉन मोबाइल के विज्ञापन में कहा जाता है, “सिग्नल पकड़ो और समझो…” मैं भी यही कह रहा हूं… बिना किसी वजह के हुए हैदराबाद के दंगे, बरेली में मोहम्मद साहब का जन्मदिन बीत जाने के बावजूद होली के अवसर पर जुलूस एक खास मोहल्ले से निकालने की जिद करना, पोलैण्ड के राष्ट्रपति के निधन पर भारत के अखबारों में शोक विज्ञापन, नित्यानन्द स्वामी जैसे मामलों को जमकर उछालना और चर्च के बाल यौन शोषण को चुपके से दबा देना, तमिलनाडु और उड़ीसा में काम कर रहे NGO को मिलने वाले विदेशी अनुदान में अचानक दोगुनी बढ़ोतरी… जैसे सैकड़ों “सिग्नल” लगातार मिल रहे हैं, यदि अपनी अगली पीढ़ी को सुरक्षित देखना चाहते हों, तो सिर्फ़ “एंटीना” सही रखकर इन सिग्नलों को पकड़ने की क्षमता विकसित कीजिये…। मैं तो बहुत मामूली आदमी हूँ, सिर्फ़ इधर-उधर फ़ैले “सिग्नल” पकड़कर, आप तक पहुँचाने की कोशिश कर रहा हूं, अब यह आप पर निर्भर है कि आप कब तक “तथाकथित सेकुलर” बने रहते हैं। और हाँ… बातों-बातों में वो जन्म प्रमाणपत्र वाले कुछ सवाल भूल न जाईयेगा…


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कतर की सरकार (जहाँ तथाकथित महान पेण्टर हुसैन गर्क हुए हैं) ने एक विश्वप्रसिद्ध इस्लामिक वेबसाईट पर अपरोक्ष दबाव बना लिया है और अब इसे “पूरी तरह” इस्लामिक बनाने का बीड़ा उठा लिया है। प्राप्त समाचार के अनुसार, शेख यूसुफ़ अल-करादवी नामक शख्स, “इस्लाम ऑनलाइन” नामक वेबसाईट चलाने वाली कम्पनी अल-बलाघ के प्रमुख थे (उनकी इस्लामिक बुद्धिजीवियों में काफ़ी इज़्ज़त की जाती है), उन्हें कतर सरकार ने तत्काल प्रभाव से हटा दिया है। http://www.islamonline.net/English/index.shtml

अल-करादवी ने इस कम्पनी के साथ काफ़ी लम्बे समय तक काम किया और “इस्लाम ऑनलाइन” पर आने वाले सवालों को आधुनिक युग के अनुसार ढालने तथा युवाओं के प्रश्नों के उत्तर आधुनिक तौर-तरीकों से समझाने में सफ़ल रहे। अल-करादवी हमेशा से “सुन्नी विद्वानों”(?) के निशाने पर रहे, क्योंकि उन्होंने लड़के-लड़कियों की सह-शिक्षा पर जोर दिया, पश्चिमी मुस्लिमों से लोकतन्त्र में भाग लेने और उसे मजबूत करने की अपील की तथा सबसे बड़ी बात कि 9/11 के हमले की भी अपनी वेबसाईट पर निन्दा की। इस वेबसाईट पर इस्लाम से सम्बन्धित पूरा साहित्य उपलब्ध है तथा इसे लोकप्रिय बनाने में करादवी का खासा योगदान रहा, आज की तारीख में इसे 3,50,000 हिट्स रोज़ाना मिलते हैं। इस वेबसाईट पर एक “फ़तवा” कॉलम भी है, जिसमें विश्व के किसी भी कोने से विभिन्न धार्मिक (इस्लामिक) विषयों पर फ़तवों से सम्बन्धित राय ली जा सकती है, एवं वेबसाईट कला, स्वास्थ्य और विज्ञान सम्बन्धी पेज भी उपलब्ध करवाती है। इस वेबसाईट को सहयोग और दान देने वाले अधिकतर उदारवादी मुस्लिम अमेरिका और यूरोप के हैं तथा इसके काहिरा ब्रांच में कुछ गैर-मुस्लिम कर्मचारी भी हैं। (लेकिन उदारवाद को बर्दाश्त करने के लिये "संस्कारों" की भी तो आवश्यकता होती है…)

करादवी के सचिव का कहना है कि विगत कुछ वर्षों से उन पर इस वेबसाईट के Content को शासकों के मन-मुताबिक बदलने को लेकर दबाव था। हाल ही में हमारे संवाददाता को दोहा में हुए फ़िल्म फ़ेस्टिवल को कवर करने की इजाजत नहीं दी गई (क्योंकि यह गैर-इस्लामिक है), तथा मैनेजमेंट पर महिलाओं के स्वास्थ्य, फ़िल्मों तथा समलैंगिकता आधारित सवालों को न लेने अथवा दबा दिये जाने हेतु दबाव डाला जा रहा था। दोहा स्थित इसके मालिक इस वेबसाईट में “वांछित बदलाव” चाहते थे, जब इसका विरोध करते हुए 350 से अधिक कर्मचारियों ने हड़ताल पर जाने की धमकी दी, तो दोहा से उन सभी कर्मचारियों का साईट पर लॉग-इन प्रतिबन्धित कर दिया गया। फ़िलहाल बोर्ड के नये डायरेक्टर इब्राहीम अल-अंसारी ने कहा कि करादवी को “तनाव” की वजह से कार्यमुक्त कर दिया गया है।
(यहाँ पढ़ें… http://www.technologyreview.com/wire/24877/?a=f )

जी हाँ, कतर ही वह इस्लामिक “स्वर्ग” है जिसे MF हुसैन ने 95 साल तक भारत की रोटी खाने के बाद अपनाया है। अब इस बात का इन्तज़ार है कि “सेकुलर” हुसैन, कतर के शासकों की बहू-बेटियों के चित्र बनायें। मेरा प्रस्ताव है कि क्यों न भारत के कुछ प्रसिद्ध सेकुलरों को भी “हवा-पानी” बदलने के लिए कतर भेजा जाये? वहाँ जाकर शायद इन लोगों को “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” के मायने भी समझ में आ जायें।

वैसे अपुष्ट सूत्रों की मानें, तो हुसैन भारत से मुकदमों के डर की वजह से नहीं भागे हैं, बल्कि महंगी पेंटिंगों की बिक्री(?) की वजह से आयकर विभाग तथा प्रवर्तन निदेशालय उन पर शिकंजा कसने की तैयारी में थे। उच्च प्रशासनिक गलियारों में चर्चा है कि “घोड़ों की घटिया सी पेंटिंग” करोड़ों रुपये में खरीदने के पीछे “ब्लैक एण्ड व्हाईट” मनी का खेल तथा हवाला कारोबारियों का भी हाथ है… कुछ ऐसा ही भण्डाफ़ोड़ जल्द ही IPL में भी होने वाला है क्योंकि जिस तरह से पैसे के इस घिनौने खेल में थरूर-केरल-कश्मीर-कोलकाता नाइटराइडर्स-शाहरुख खान-दुबई आदि कि चेन बनती चली जायेगी, वैसे-वैसे कुछ न कुछ नया सामने आयेगा।

बहरहाल, आईये हम हुसैन को “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के स्वर्ग” में गर्क होने की शुभकामनाएं दें और दुआ करें कि कहीं सेकुलरों में उन्हें वापस बुलाने का मिर्गी दौरा दोबारा न पड़े…
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चलते-चलते : मेरे एक मित्र एक इस्लामिक खाड़ी देश में कार्यरत हैं (पार्टटाइम ब्लॉगर और कवि-लेखक भी हैं) (सुरक्षा कारणों से नाम नहीं बताऊँगा)। कुछ दिनों पहले उस इस्लामिक देश में एक कार्यक्रम में उन्होंने “हिन्दी” (हिन्दू नहीं) के प्रचार-प्रसार एवं कविता-साहित्य विमर्श सम्बन्धी अपनी गतिविधियों का ब्यौरा दिया। उस कार्यक्रम में उस “इस्लामिक देश के शिक्षा मंत्री”(?) भी मौजूद थे। कार्यक्रम समाप्ति के तुरन्त बाद मेरे मित्र की वेबसाईट और ब्लॉग को “सजा के तौर पर” 8 दिनों के लिये बन्द कर दिया गया, फ़िर शायद “शिक्षामंत्री” का गुस्सा ठण्डा हुआ होगा और अनुनय-विनय (तथा विस्तृत जाँच ???) के बाद उसे दोबारा चालू किया गया।

(अब भी यदि कोई “कट्टर” शब्द की परिभाषा जानना चाहता हो, तो इन उदाहरणों से सीख सकता है, जल्दी ही ऐसे दो और उदाहरण दूंगा… ताकि सेकुलर्स जान सकें कि हिन्दू बहुल देश में रहना कितना सुखकारी होता है)। एक बात तो माननी पड़ेगी, कि “जूते लगाने” के मामले में हिन्दू बड़े संकोची स्वभाव के हैं, इसीलिये भारत में सेकुलरों को खुलेआम हिन्दुत्व पर जोरदार तरीके से चौतरफ़ा गन्दगी फ़ेंकने की सहूलियत हासिल है…


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मेरी पिछली पोस्ट “क्या लव जेहादी अधिक सक्रिय हो गये हैं…” के जवाब में मुझे कई टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं और उससे भी अधिक ई-मेल प्राप्त हुए। जहाँ एक ओर बेनामियों (फ़र्जी नामधारियों) ने मुझे मानसिक चिकित्सक से मिलने की सलाह दे डाली, वहीं दूसरी ओर मेरी कुछ महिला पाठकों ने ई-मेल पर कहा कि मुस्लिम लड़के और हिन्दू लड़की के बारे में मेरी इस तरह की सोच “Radical” (कट्टर) और Communal (साम्प्रदायिक) है। ज़ाहिर है कि इस प्रकार की टिप्पणियाँ और ई-मेल प्राप्त होना एक सामान्य बात है। फ़िर भी मैंने “लव-जेहाद की अवधारणा” तथा “प्रेमी जोड़ों” द्वारा धर्म से ऊपर उठने, अमन-शान्ति की बातें करने आदि की तथाकथित हवाई और किताबी बातों का विश्लेषण करने और इतिहास में झाँकने की कोशिश की, तो ऐसे कई उदाहरण मिले जिसमें मेरी इस सोच को और बल मिला कि भले ही “लव जेहाद” नामक कोई अवधारणा स्पष्ट रूप से परिभाषित न हो, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम के बीच प्यार-मुहब्बत के इस “खेल” में अक्सर मामला या तो इस्लाम की तरफ़ “वन-वे-ट्रैफ़िक” जैसा होता है, अथवा कोई “लम्पट” हिन्दू व्यक्ति अपनी यौन-पिपासा शान्त करने अथवा किसी लड़की को कैसे भी हो, पाने के लिये इस्लाम का सहारा लेते हैं। वन-वे ट्रैफ़िक का मतलब, यदि लड़का मुस्लिम है और लड़की हिन्दू है तो लड़की इस्लाम स्वीकार करेगी (चाहे नवाब पटौदी और शर्मिला टैगोर उर्फ़ आयेशा सुल्ताना हों अथवा फ़िरोज़ घांदी और इन्दिरा उर्फ़ मैमूना बेगम हों), लेकिन यदि लड़की मुस्लिम है और लड़का हिन्दू है, तो लड़के को ही इस्लाम स्वीकार करना पड़ेगा (चाहे वह कम्युनिस्ट इन्द्रजीत गुप्त हों या गायक सुमन चट्टोपाध्याय)…

ऊपर मैंने कुछ प्रसिद्ध लोगों के नाम लिये हैं जिनका समाज में उच्च स्थान “माना जाता है”, और ऐसे सेलेब्रिटी लोगों से ही युवा प्रेरणा लेते हैं, आईये देखें “लव जेहाद” के कुछ अन्य पुराने प्रकरण (आपके दुर्भाग्य से यह मेरी कल्पना पर आधारित नहीं हैं…सच्ची घटनाएं हैं)-

(1) जेमिमा मार्सेल गोल्डस्मिथ और इमरान खान – ब्रिटेन के अरबपति सर जेम्स गोल्डस्मिथ की पुत्री (21), पाकिस्तानी क्रिकेटर इमरान खान (42) के प्रेमजाल में फ़ँसी, उससे 1995 में शादी की, इस्लाम अपनाया (नाम हाइका खान), उर्दू सीखी, पाकिस्तान गई, वहाँ की तहज़ीब के अनुसार ढलने की कोशिश की, दो बच्चे (सुलेमान और कासिम) पैदा किये… नतीजा क्या रहा… तलाक-तलाक-तलाक। अब अपने दो बच्चों के साथ वापस ब्रिटेन। फ़िर वही सवाल – क्या इमरान खान कम पढ़े-लिखे थे? या आधुनिक(?) नहीं थे? जब जेमिमा ने इतना “एडजस्ट” करने की कोशिश की तो क्या इमरान खान थोड़ा “एडजस्ट” नहीं कर सकते थे? (लेकिन “एडजस्ट” करने के लिये संस्कारों की भी आवश्यकता होती है)…

(2) 24 परगना (पश्चिम बंगाल) के निवासी नागेश्वर दास की पुत्री सरस्वती (21) ने 1997 में अपने से उम्र में काफ़ी बड़े मोहम्मद मेराजुद्दीन से निकाह किया, इस्लाम अपनाया (नाम साबरा बेगम)। सिर्फ़ 6 साल का वैवाहिक जीवन और चार बच्चों के बाद मेराजुद्दीन ने उसे मौखिक तलाक दे दिया और अगले ही दिन कोलकाता हाइकोर्ट के तलाकनामे (No. 786/475/2003 दिनांक 2.12.03) को तलाक भी हो गया। अब पाठक खुद ही अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि चार बच्चों के साथ घर से निकाली गई सरस्वती उर्फ़ साबरा बेगम का क्या हुआ होगा, न तो वह अपने पिता के घर जा सकती थी, न ही आत्महत्या कर सकती थी…

अक्सर हिन्दुओं और बाकी विश्व को मूर्ख बनाने के लिये मुस्लिम और सेकुलर विद्वान(?) यह प्रचार करते हैं कि कम पढ़े-लिखे तबके में ही इस प्रकार की तलाक की घटनाएं होती हैं, जबकि हकीकत कुछ और ही है। क्या इमरान खान या नवाब पटौदी कम पढ़े-लिखे हैं? तो फ़िर नवाब पटौदी, रविन्द्रनाथ टैगोर के परिवार से रिश्ता रखने वाली शर्मिला से शादी करने के लिये इस्लाम छोड़कर, बंगाली क्यों नहीं बन गये? यदि उनके “सुपुत्र”(?) सैफ़ अली खान को अमृता सिंह से इतना ही प्यार था तो सैफ़, पंजाबी क्यों नहीं बन गया? अब इस उम्र में अमृता सिंह को बच्चों सहित बेसहारा छोड़कर करीना कपूर से इश्क की पींगें बढ़ा रहा है, और उसे भी इस्लाम अपनाने पर मजबूर करेगा, लेकिन खुद पंजाबी नहीं बनेगा (यही है असली मानसिकता…)।

शेख अब्दुल्ला और उनके बेटे फ़ारुख अब्दुल्ला दोनों ने अंग्रेज लड़कियों से शादी की, ज़ाहिर है कि उन्हें इस्लाम में परिवर्तित करने के बाद, यदि वाकई ये लोग सेकुलर होते तो खुद ईसाई धर्म अपना लेते और अंग्रेज बन जाते…? और तो और आधुनिक जमाने में पैदा हुए इनके पोते यानी कि जम्मू-कश्मीर के वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी एक हिन्दू लड़की “पायल” से शादी की, लेकिन खुद हिन्दू नहीं बने, उसे मुसलमान बनाया, तात्पर्य यह कि “सेकुलरिज़्म” और “इस्लाम” का दूर-दूर तक आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है और जो हमें दिखाया जाता है वह सिर्फ़ ढोंग-ढकोसला है। जैसे कि गाँधीजी की पुत्री का विवाह एक मुस्लिम से हुआ, सुब्रह्मण्यम स्वामी की पुत्री का निकाह विदेश सचिव सलमान हैदर के पुत्र से हुआ है, प्रख्यात बंगाली कवि नज़रुल इस्लाम, हुमायूं कबीर (पूर्व केन्द्रीय मंत्री) ने भी हिन्दू लड़कियों से शादी की, क्या इनमें से कोई भी हिन्दू बना? अज़हरुद्दीन भी अपनी मुस्लिम बीबी नौरीन को चार बच्चे पैदा करके छोड़ चुके और अब संगीता बिजलानी से निकाह कर लिया, उन्हें कोई अफ़सोस नहीं, कोई शिकन नहीं। ऊपर दिये गये उदाहरणों में अपनी बीवियों और बच्चों को छोड़कर दूसरी शादियाँ करने वालों में से कितने लोग अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे हैं? तब इसमें शिक्षा-दीक्षा का कोई रोल कहाँ रहा? यह तो विशुद्ध लव-जेहाद है।

इसीलिये कई बार मुझे लगता है कि सानिया मिर्ज़ा के शोएब के साथ पाकिस्तान जाने पर हायतौबा करने की जरूरत नहीं है, मुझे विश्वास है कि 2-4 बच्चे पैदा करने के बाद “रंगीला रसिया” शोएब मलिक उसे “छोड़” देगा और दुरदुराई हुई सानिया मिर्ज़ा अन्ततः वापस भारत में ही पनाह लेगी, और उस वक्त भी उससे सहानुभूति जताने में नारीवादी और सेकुलर संगठन ही सबसे आगे होंगे।

वहीदा रहमान ने कमलजीत से शादी की, वह मुस्लिम बने, अरुण गोविल के भाई ने तबस्सुम से शादी की, मुस्लिम बने, डॉ ज़ाकिर हुसैन (पूर्व राष्ट्रपति) की लड़की ने एक हिन्दू से शादी की, वह भी मुस्लिम बना, एक अल्पख्यात अभिनेत्री किरण वैराले ने दिलीपकुमार के एक रिश्तेदार से शादी की और गायब हो गई।

प्रख्यात (या कुख्यात) गाँधी-नेहरु परिवार के मुस्लिम इतिहास के बारे में तो सभी जानते हैं। ओपी मथाई की पुस्तक के अनुसार राजीव के जन्म के तुरन्त बाद इन्दिरा और फ़िरोज़ की अनबन हो गई थी और वह दोनों अलग-अलग रहने लगे थे। पुस्तक में इस बात का ज़िक्र है कि संजय (असली नाम संजीव) गाँधी, फ़िरोज़ की सन्तान नहीं थे। मथाई ने इशारों-इशारों में लिखा है कि मेनका-संजय की शादी तत्कालीन सांसद और वरिष्ठ कांग्रेस नेता मोहम्मद यूनुस के घर सम्पन्न हुई, तथा संजय गाँधी की मौत के बाद सबसे अधिक फ़ूट-फ़ूटकर रोने वाले मोहम्मद यूनुस ही थे। यहाँ तक कि मोहम्मद यूनुस ने खुद अपनी पुस्तक “Persons, Passions & Politics” में इस बात का जिक्र किया है कि संजय गाँधी का इस्लामिक रिवाजों के मुताबिक खतना किया गया था।

इस कड़ी में सबसे आश्चर्यजनक नाम है भाकपा के वरिष्ठ नेता इन्द्रजीत गुप्त का। मेदिनीपुर से 37 वर्षों तक सांसद रहने वाले कम्युनिस्ट (जो धर्म को अफ़ीम मानते हैं), जिनकी शिक्षा-दीक्षा सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज दिल्ली तथा किंग्स कॉलेज केम्ब्रिज में हुई, 62 वर्ष की आयु में एक मुस्लिम महिला सुरैया से शादी करने के लिये मुसलमान (इफ़्तियार गनी) बन गये। सुरैया से इन्द्रजीत गुप्त काफ़ी लम्बे समय से प्रेम करते थे, और उन्होंने उसके पति अहमद अली (सामाजिक कार्यकर्ता नफ़ीसा अली के पिता) से उसके तलाक होने तक उसका इन्तज़ार किया। लेकिन इस समर्पणयुक्त प्यार का नतीजा वही रहा जो हमेशा होता है, जी हाँ, “वन-वे-ट्रेफ़िक”। सुरैया तो हिन्दू नहीं बनीं, उलटे धर्म को सतत कोसने वाले एक कम्युनिस्ट इन्द्रजीत गुप्त “इफ़्तियार गनी” जरूर बन गये।

इसी प्रकार अच्छे खासे पढ़े-लिखे अहमद खान (एडवोकेट) ने अपने निकाह के 50 साल बाद अपनी पत्नी “शाहबानो” को 62 वर्ष की उम्र में तलाक दिया, जो 5 बच्चों की माँ थी… यहाँ भी वजह थी उनसे आयु में काफ़ी छोटी 20 वर्षीय लड़की (शायद कम आयु की लड़कियाँ भी एक कमजोरी हैं?)। इस केस ने समूचे भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ पर अच्छी-खासी बहस छेड़ी थी। शाहबानो को गुज़ारा भत्ता देने के लिये सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़ी, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को राजीव गाँधी ने अपने असाधारण बहुमत के जरिये “वोटबैंक राजनीति” के चलते पलट दिया, मुल्लाओं को वरीयता तथा आरिफ़ मोहम्मद खान जैसे उदारवादी मुस्लिम को दरकिनार किया गया… तात्पर्य यही कि शिक्षा-दीक्षा या अधिक पढ़े-लिखे होने से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता, शरीयत और कुर-आन इनके लिये सर्वोपरि है, देश-समाज आदि सब बाद में…।

(यदि इतना ही प्यार है तो “हिन्दू” क्यों नहीं बन गये? मैं यह बात इसलिये दोहरा रहा हूं, कि आखिर मुस्लिम बनाने की जिद क्यों? इसके जवाब में तर्क दिया जा सकता है कि हिन्दू कई समाजों-जातियों-उपजातियों में बँटा हुआ है, यदि कोई मुस्लिम हिन्दू बनता है तो उसे किस वर्ण में रखेंगे? हालांकि यह एक बहाना है क्योंकि इस्लाम के कथित विद्वान ज़ाकिर नाइक खुद फ़रमा चुके हैं कि इस्लाम “वन-वे ट्रेफ़िक” है, कोई इसमें आ तो सकता है, लेकिन इसमें से जा नहीं सकता…(यहाँ देखें http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/02/zakir-naik-islamic-propagandist-indian.html)। लेकिन चलो बहस के लिये मान भी लें, कि जाति-वर्ण के आधार पर आप हिन्दू नहीं बन सकते, लेकिन फ़िर सामने वाली लड़की या लड़के को मुस्लिम बनाने की जिद क्योंकर? क्या दोनो एक ही घर में अपने-अपने धर्म का पालन नहीं कर सकते? मुस्लिम बनना क्यों जरूरी है? और यही बात उनकी नीयत पर शक पैदा करती है)

एक बात और है कि धर्म परिवर्तन के लिये आसान निशाना हमेशा होते हैं “हिन्दू”, जबकि ईसाईयों के मामले में ऐसा नहीं होता, एक उदाहरण और देखिये –

पश्चिम बंगाल के एक गवर्नर थे ए एल डायस (अगस्त 1971 से नवम्बर 1979), उनकी लड़की लैला डायस, एक लव जेहादी ज़ाहिद अली के प्रेमपाश में फ़ँस गई, लैला डायस ने जाहिद से शादी करने की इच्छा जताई। गवर्नर साहब डायस ने लव जेहादी को राजभवन बुलाकर 16 मई 1974 को उसे इस्लाम छोड़कर ईसाई बनने को राजी कर लिया। यह सारी कार्रवाई तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय की देखरेख में हुई। ईसाई बनने के तीन सप्ताह बाद लैला डायस की शादी कोलकाता के मिडलटन स्थित सेंट थॉमस चर्च में ईसाई बन चुके जाहिद अली के साथ सम्पन्न हुई। इस उदाहरण का तात्पर्य यह है कि पश्चिमी माहौल में पढ़े-लिखे और उच्च वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले डायस साहब भी, एक मुस्लिम लव जेहादी की “नीयत” समझकर उसे ईसाई बनाने पर तुल गये। लेकिन हिन्दू माँ-बाप अब भी “सहिष्णुता” और “सेकुलरिज़्म” का राग अलापते रहते हैं, और यदि कोई इस “नीयत” की पोल खोलना चाहता है तो उसे “साम्प्रदायिक” कहते हैं। यहाँ तक कि कई लड़कियाँ भी अपनी धोखा खाई हुई सहेलियों से सीखने को तैयार नहीं, हिन्दू लड़के की सौ कमियाँ निकाल लेंगी, लेकिन दो कौड़ी की औकात रखने वाले मुस्लिम जेहादी के बारे में पूछताछ करना उन्हें “साम्प्रदायिकता” लगती है…

इस मामले में एक “एंगल” और है, वह है “लम्पट” और बहुविवाह की लालसा रखने वाले हिन्दुओं का… धर्मेन्द्र-हेमामालिनी का उदाहरण तो हमारे सामने है ही कि किस तरह से हेमा से शादी करने के लिये धर्मेन्द्र झूठा शपथ-पत्र दायर करके मुसलमान बने…। दूसरा केस चन्द्रमोहन (चाँद) और अनुराधा (फ़िज़ा) का है, दोनों प्रेम में इतने अंधे और बहरे हो गये थे कि एक-दूसरे को पाने के लिये इस्लाम स्वीकार कर लिया। ऐसा ही एक और मामला है बंगाल के गायक सुमन चट्टोपाध्याय का… सुमन एक गीतकार-संगीतकार और गायक भी हैं। ये साहब जादवपुर सीट से लोकसभा के लिये भी चुने गये हैं। एक इंटरव्यू में वह खुद स्वीकार कर चुके हैं कि वह कभी एक औरत से संतुष्ट नहीं हो सकते, और उन्हें ढेर सारी औरतें चाहिये। अब एक बांग्लादेशी गायिका सबीना यास्मीन से शादी(?) करने के लिये इन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया है, यह इनकी पाँचवीं शादी है, और अब इनका नाम है सुमन कबीर। आश्चर्य तो इस बात का है कि इस प्रकार के लम्पट किस्म के और इस्लामी शरीयत कानूनों का अपने फ़ायदे के लिये इस्तेमाल करने वाले लोगों को, मुस्लिम भाई बर्दाश्त कैसे कर लेते हैं?

मुझे यकीन है कि, मेरे इस लेख के जवाब में मुझे सुनील दत्त-नरगिस से लेकर रितिक रोशन-सुजैन खान तक के (गिनेचुने) उदाहरण सुनने को मिलेंगे, लेकिन फ़िर भी मेरा सवाल वही रहेगा कि क्या सुनील दत्त या रितिक रोशन ने अपनी पत्नियों को हिन्दू धर्म ग्रहण करवाया? या शाहरुख खान ने गौरी के प्रेम में हिन्दू धर्म अपनाया? नहीं ना? जी हाँ, वही वन-वे-ट्रैफ़िक!!!!

सवाल उठना स्वाभाविक है कि ये कैसा प्रेम है? यदि वाकई “प्रेम” ही है तो यह वन-वे ट्रैफ़िक क्यों है? इसीलिये सभी सेकुलरों, प्यार-मुहब्बत-भाईचारे, धर्म की दीवारों से ऊपर उठने आदि की हवाई-किताबी बातें करने वालों से मेरा सिर्फ़ एक ही सवाल है, “कितनी मुस्लिम लड़कियों (अथवा लड़कों) ने “प्रेम”(?) की खातिर हिन्दू धर्म स्वीकार किया है?” मैं इसका जवाब जानने को बेचैन हूं।

मुझे “कट्टर” और Radical साबित करने और मुझे अपनी गलती स्वीकार करने के लिये कृपया आँकड़े और प्रसिद्ध व्यक्तियों के आचरण द्वारा सिद्ध करें, कि “भाईचारे”(?) की खातिर कितने मुस्लिम लड़के अपनी हिन्दू प्रेमिका की खातिर हिन्दू धर्म में आये? यदि आँकड़े और तथ्य आपके पक्ष में हुए तो मैं खुशी-खुशी आपसे माफ़ी माँग लूंगा… मैं इन्तज़ार कर रहा हूं… यदि नहीं, तो हकीकत को पहचानिये और मान लीजिये कि कुछ न कुछ गड़बड़ अवश्य है। अपनी लड़कियों को अच्छे संस्कार दीजिये और अच्छे-बुरे की पहचान करना सिखाईये। सबसे महत्वपूर्ण बात कि यदि लड़की के सच्चे प्रेम में कोई मुसलमान युवक, हिन्दू धर्म अपनाने को तैयार होता है तो उसका स्वागत खुले दिल से कीजिये…
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(इस लेख में उल्लेखित घटनाएं असली जिन्दगी से सरोकार रखती हैं तथा बंगाली लेखक रबिन्द्रनाथ दत्ता की पुस्तक “The Silent Terror” से ली गई हैं)

http://www.faithfreedom.org/islam/why-hindu-or-non-muslim-girl-must-not-marry-muslim-part-3-0

(यदि बोर हो गये हों, तो इतना लम्बा लेख लिखने के लिये मुझे माफ़ करें, लेकिन आठ-दस दिनों के लम्बे अन्तराल के बाद इतना बड़ा लेख तो बनता ही है, फ़िर तथ्यों, घटनाओं और आँकड़ों के कारण लेख की लम्बाई बढ़ना स्वाभाविक भी है)


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नागपुर के भानखेड़ा इलाके में योगेश्वर साखरे का परिवार रहता है, कुछ दिनों पहले तक यह एक सामान्य खुशहाल परिवार था। एक पुत्र प्रतीक (28), बड़ी पुत्री पल्लवी (20) और उससे छोटी रिंकू। लगभग सवा माह पहले एक गम्भीर बीमारी की वजह से प्रतीक की मृत्यु हो गई, और जब प्रतीक के गुज़रने के सवा महीने बाद उसके क्रियाकर्म संस्कार की रस्म निभाई जा रही थी, ठीक उसी दिन पल्लवी की मौत की खबर आई।

पल्लवी की लाश नागपुर के एक सार्वजनिक शौचालय में पाई गई और पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि वह चार माह की गर्भवती भी थी। पल्लवी का गला उसी के कुर्ते से घोंटा गया था और उसकी अर्धनग्न लाश पर कुछ घाव भी पाये गये। गहन तफ़्तीश और मोबाइल रिकॉर्ड की छानबीन के बाद पुलिस ने मोहम्मद शमीम (25) नामक एक शख्स को गिरफ़्तार किया है। मोहम्मद शमीम पहले से शादीशुदा है और नौ माह की बच्ची का बाप भी। हालांकि इस मामले में पुलिस ने अब तक सिर्फ़ हत्या का मामला दर्ज किया है, बलात्कार का नहीं, लेकिन कानूनी विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा किया जा रहा है। पल्लवी साखरे, नागपुर के PWS कॉलेज में बीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी, जबकि शमीम एक कारपेंटर (बढ़ई) है।


पुलिस जाँच में पता चला है कि पल्लवी और शमीम के रिश्ते 2 साल से थे, और इसके पहले भी पल्लवी एक बार गर्भपात करवा चुकी थी। सूत्रों के मुताबिक पल्लवी शमीम से दूसरे गर्भपात के लिये पैसा माँग रही थी साथ ही उस पर शादी के लिये दबाव भी बना रही थी, तथा 7 मार्च (रविवार) को उसने उसके घर आकर हंगामा करने की धमकी भी दी थी। पुलिस के अनुसार शमीम ने उसे मिलने के लिये बुलाया और उनके बीच हुई गर्मागर्मी के बाद शमीम ने उसका गला घोंट दिया और लाश को सार्वजनिक शौचालय में छिपा दिया, जहाँ से वह तड़के 8 मार्च को बरामद हुई। पुलिस की मार खाने के बाद शमीम ने बताया है कि उसकी पत्नी रिज़वाना सुल्तान को यह बात पता थी और उसे उसकी दूसरी शादी से कोई आपत्ति नहीं थी। पल्लवी की छोटी बहन रिंकू ने बताया कि पल्लवी के सेलफ़ोन पर शनिवार रात 10 बजे शमीम का फ़ोन आया था और उसके बाद से वह गायब हो गई, चूंकि परिवार पहले से ही युवा पुत्र के गम में डूबा था और कर्मकाण्ड के कार्यक्रम की तैयारियों में व्यस्त था इसलिये उन्होंने तुरन्त पुलिस को खबर करने में कोताही बरती, और शायद यही पल्लवी की मौत का कारण बना। नागपुर नगरनिगम में कार्यरत योगेश्वर और शारदाबाई साखरे के परिवार पर डेढ़ माह के भीतर यह दूसरा वज्रपात हुआ।

यह तो हुआ घटना का विवरण, लेकिन इससे उठने वाले सवाल बहुत गम्भीर हैं और एक सामाजिक समस्या के साथ-साथ “लव जेहादियों” की घृणित मानसिकता को भी दर्शाती है।

1) एक अच्छे परिवार की पढ़ी-लिखी लड़की, किसी कम पढ़े-लिखे और शादीशुदा मुस्लिम के जाल में कैसे फ़ँस गई?

2) दो साल से शोषण करवा रही, और एक बार गर्भपात करवा चुकी उस मूर्ख लड़की को क्या तब भी पता नहीं चला कि मोहम्मद शमीम की नीयत ठीक नहीं है?

3) आखिर पढ़ी-लिखी हिन्दू लड़कियाँ, किस प्रकार से कारपेंटर, ऑटो रिक्शा चालक, सब्जी बेचने वाले ( यहाँ तक कि बेरोज़गार) मुसलमान युवकों के जाल में फ़ँस जाती हैं? क्या तथाकथित प्रेम(?) करने के दौरान उनकी अक्ल घास चरने चली जाती है?

4) शमीम की बीवी उसकी दूसरी शादी के लिये सहमत थी (और बेचारी करती भी क्या?) फ़िर भी शमीम की नीयत यही थी कि पल्लवी का देह-शोषण करता रहे, और जिम्मेदारी से बचा भी रहे। यह मानसिकता क्या प्रदर्शित करती है?

5) क्या यह माना जाये कि हिन्दू लड़कियों को अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त है इसलिये ऐसे मामले आजकल अधिक हो रहे हैं?

6) जब भी इस प्रकार का मामला (हिन्दू लड़की – मुसलमान लड़का) होता है, और हिन्दू संगठन अथवा राजनैतिक दल विरोध करते हैं तो हिन्दुओं के भीतर से ही उनका विरोध शुरु हो जाता है, इस मानसिकता को क्या कहा जाये? (सन्दर्भ - कोलकाता का रिज़वान-तोड़ी मामला)

7) जबकि ठीक इसके उलट (हिन्दू लड़का-मुस्लिम लड़की) का मामला सामने आता है तब मुसलमानों की तरफ़ से जमकर, एकजुट और परिणामकारक (सेकुलर) विरोध और जोड़तोड़ होता है (सन्दर्भ - कश्मीर का रजनीश-अमीना यूसुफ़ मामला)।

8) कर्नाटक और केरल हाईकोर्ट भी प्रथम दृष्टया मान चुके हैं कि भले ही “लव जेहाद” नाम की कोई आधिकारिक परिभाषा न हो, लेकिन पिछले 5 वर्षों में इन दोनों राज्यों की 2000 से अधिक लड़कियों में से… कुछ गायब हुई हैं, कुछ की मौत संदिग्ध स्थितियों में हुई, जबकि कुछ ने धर्म परिवर्तन किया, तो निश्चित ही कुछ न कुछ गड़बड़ है… (इसी प्रकार कुछ शहरों में “MMS ब्लैकमेल काण्ड” में भी जो लड़के पकड़ाये हैं उनमें से अधिकतर मुस्लिम ही हैं, जिन्होंने हिन्दू लड़कियों को फ़ँसाकर उनके अश्लील चित्र नेट पर अपलोड किये थे)।

http://hinduexistence.wordpress.com/2009/12/10/love-jihad-is-real-says-kerala-high-court-islamic-love-racket-in-india-for-conversion/ 

और तो और लन्दन से भी ऐसे मामले सामने आने लगे हैं…


9) महिला आरक्षण का विरोध करने वालों में मुस्लिम सांसद सबसे आगे और मुखर थे, तो क्या उन सांसदों को किसी ने “पिंक चड्डी” भेजने का मन बनाया है?  (कल्बे जव्वाद ने तो अपरोक्ष रूप से औरतों को बच्चे पैदा करने की मशीन तक बता डाला)

बहरहाल बाकी के सवाल तो बाद में खड़े होते हैं, मुख्य सवाल पहला वाला है कि “माना, कि प्यार अंधा होता है, लेकिन क्या प्यार बहरा और मूर्ख भी होता है?” जिसके चलते हिन्दू लड़कियाँ ऐसे-ऐसे मुस्लिम नौजवानों के जाल में फ़ँस जाती हैं जिनकी औकात भी नहीं उनके परिवार के साथ उठने-बैठने की?

(सैफ़ अली खान, आमिर खान जैसों की बात अलग है, वह दो-दो हिन्दू लड़कियों को फ़ँसाना “अफ़ोर्ड” कर सकते हैं… तथा करीना या किरण राव जिस “समाज” में रहती हैं, वह समाज भी बाकी के भारत से अलग-थलग और कटा हुआ है)।

कहने का मतलब कि, यह सिर्फ़ धार्मिक समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या भी है, और हमें मिलकर चिन्तन करने की आवश्यकता है कि - 1) ऐसे मामले पिछले कुछ वर्षो में अचानक क्यों बढ़ गये हैं? 2) क्या “लव जेहादी” अत्यधिक सक्रिय हो गये हैं? इसी प्रकार ऐसे मामलों में दोनों धर्मों के लोगों की “प्रतिक्रिया की मानसिकता” का अध्ययन भी किया जाना चाहिये… कि 3) हिन्दू “ऐसा” रिएक्ट क्यों करते हैं तथा मुस्लिम “वैसा” रिएक्ट क्यों करते हैं?  4) यह डाटा भी एकत्रित किया जाना चाहिये कि परदे और घुटन से बाहर आ चुकी कितनी मुस्लिम लड़कियों ने हिन्दू लड़कों से प्रेम (या शादी) की है? ताकि सही-सही स्थिति पता चल सके…

बहरहाल, समाजशास्त्रियों, शोधकर्ताओं और मनोवैज्ञानिकों के लिये कई मुद्दों पर बहुत सारा काम इकठ्ठा कर दिया है मैने…। अब प्रगतिशील महिलाएं, मुझे कोसने के लिये स्वतन्त्र हैं और धर्मनिरपेक्षतावादी, मुझे गरियाने के लिये…। यदि कोई “लव जेहाद” को समस्या मानने से ही इंकार कर दे तो मैं कुछ नहीं कर सकता… जो मेरा काम था (सूचना देना) वह मैंने कर दिया… बाकी की समीक्षा, विश्लेषण, अध्ययन वगैरह बुद्धिजीवियों का शगल है, वे करेंगे ही, मैं बुद्धिजीवी तो कतई नहीं हूँ…।

आप भी एक "सलाह" (I repeat, सलाह) के रूप में (वरना "हिन्दुओं" के लिये रिज़र्व की गई पिंक चड्डी आपके माथे आयेगी…) इस पोस्ट के मुद्दों को अपनी सहेलियों, बहनों और भाईयों को भेजें… उसके बाद भी वे नहीं मानतीं तो यह उनकी चॉइस होगी…। आखिर हम लोग "कोड़े" - "बुरके" वाले तालिबानी तो हैं नहीं…कि जबरदस्ती करें…

[अचानक इस पोस्ट  को लिखने का विचार इसलिये आया कि इधर उज्जैन में भी ऐसी ही एक "खिचड़ी" पक रही है, लड़की बीएससी फ़र्स्ट क्लास है और एक निजी कम्पनी में कार्यरत है, जबकि लड़का (लव जेहादी) बमुश्किल 11वीं पास है…। लड़की का बाप एक प्रतिष्ठित कपड़ा व्यवसायी है, जबकि लव जेहादी कहने को तो प्रापर्टी ब्रोकर है (लेकिन असल में मकान खाली करवाने वाला गुण्डा है)… ऐसे में भला कौन सा समझदार बाप अपनी लड़की को आत्महत्या करने देगा, लेकिन लड़की उसी से शादी करने पर आमादा है। यह बात खुलते-खुलते लगभग सभी लोग जान गये हैं, लेकिन "बाहरी लोग" इस मामले में तब तक दखल नहीं दे सकते, जब तक लड़की का बाप न चाहे…। लड़की का बाप प्रतिष्ठा और इज्जत बचाने के चक्कर में दोनों को समझाने-बुझाने में लगा हुआ है… लड़की समझ नहीं रही और लव जेहादी समझना नहीं चाहता…। इस केस में लव जेहादी शादीशुदा तो नहीं है, लेकिन दोनों के बीच की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक खाई इतनी चौड़ी है कि लड़की की "प्रेम-अक्ल" पर तरस आता है…। मामला संवेदनशील है, तथा बखेड़ा खड़ा न हो जाये इसलिये बाहरी लोग अभी चुपचाप तमाशा देख रहे हैं… देखते हैं आगे क्या होता है]

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स्रोत - http://timesofindia.indiatimes.com/city/nagpur/Lover-murders-pregnant-girlfriend-in-public-loo/articleshow/5656034.cms


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वैसे तो “फ़टे हुए मुँह” वाले (बड़बोले) कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी किसी वक्तृत्व कला के लिये नहीं जाने जाते हैं, न ही उनसे कोई उम्मीद की जाती है कि तिवारी जी कोई “Sensible” (अक्लमंदी की) बात करेंगे (बल्कि अधिकतर कांग्रेस प्रवक्ता लगभग इसी श्रेणी के हैं चाहे वे सत्यव्रत चतुर्वेदी जैसे वरिष्ठ ही क्यों न हों), लेकिन कल (29/03/10) को टीवी पर नरेन्द्र मोदी सम्बन्धी बयान देते वक्त साफ़-साफ़ लग रहा था कि मनीष तिवारी सहित पूरी की पूरी कॉंग्रेस “Frustration” (हताशा) की शिकार हो गई है। जिस अभद्र भाषा का इस्तेमाल मनीष तिवारी ने एक प्रदेश के तीन-तीन बार संवैधानिक रुप से चुने गये मुख्यमंत्री के खिलाफ़ उपयोग की उसे सिर्फ़ निंदनीय कहना सही नहीं है, बल्कि ऐसी भाषा एक “घृणित परम्परा” की शुरुआत मानी जा सकती है।

अवसर था पत्रकार वार्ता का, जिसमें एक पत्रकार ने नरेन्द्र मोदी के साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन की एक मंच पर उपस्थिति के बारे में पूछ लिया। पत्रकार तो कभीकभार “छेड़ने” के लिये, या कभीकभार अपनी “कान्वेंटी अज्ञानता” की वजह से ऐसे सवाल पूछ लेते हैं लेकिन मनीष तिवारी एक राष्ट्रीय पार्टी (जो अभी तक स्वाधीनता संग्राम और गाँधी के नाम की रोटी खा रही है) के प्रवक्ता हैं, कम से कम उन्हें अपनी भाषा पर सन्तुलन रखना चाहिये था…।

उनका बयान गौर फ़रमाईये – “जब राज्य का मुख्यमंत्री खुद ही इतना “बेशरम” हो कि जिस मंच पर मुख्य न्यायाधीश विराजमान हों, उनके पास जाकर बैठ जाये, जिस आदमी को कल ही SIT ने पेशी के लिये बुलाया था, वह कैसे उस मंच पर बैठ “गया”। यह बात तो “उसे” सोचना चाहिये थी, यदि भाजपा में जरा भी शर्म बची हो तो वह उसे तुरन्त हटाये…” आदि-आदि-आदि-आदि और नरेन्द्र मोदी की तुलना दाऊद इब्राहीम से भी।

उल्लेखनीय है कि नरेन्द्र मोदी को अभी सिर्फ़ SIT ने पूछताछ के लिये बुलाया है, न तो नरेन्द्र मोदी पर कोई FIR दर्ज की गई है, न कोई मामला दर्ज हुआ है, न न्यायालय का समन प्राप्त हुआ। दोषी साबित होना तो दूर, अभी मुकदमे का ही अता-पता नहीं है, फ़िर ऐसे में गुजरात विधि विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में एक चुना हुआ मुख्यमंत्री उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के साथ मंच साझा करता है तो इसमें कौन सा गुनाह हो गया? उसके बावजूद एक संवैधानिक पद पर आसीन मुख्यमंत्री के लिये “बैठ गया” (गये), “उसे” (उन्हें), “वह” (वे) जैसी “तू-तड़ाक” की भाषा और “बेशर्म” का सम्बोधन? पहले मनीष तिवारी खुद बतायें कि उनकी क्या औकात है? नरेन्द्र मोदी की तरह तीन बार मुख्यमंत्री बनने के लिये मनीष तिवारी को पच्चीस-तीस जन्म लेने पड़ेंगे (फ़िर भी शायद न बन पायें)। लेकिन चूंकि “मैडम” को नरेन्द्र मोदी पसन्द नहीं हैं इसलिये उनके साथ “अछूत” सा व्यवहार किया जायेगा, चूंकि “मैडम” को अमिताभ बच्चन पसन्द नहीं हैं इसलिये अभिषेक बच्चन के साथ भी दुर्व्यवहार किया जायेगा, चूंकि मैडम को मायावती जब-तब हड़का देती हैं इसलिये कभी मूर्तियों को लेकर तो कभी माला को लेकर उन्हें निशाने पर लिया जायेगा (भले एक ही परिवार की समाधियों ने दिल्ली में हजारों एकड़ पर कब्जा कर रखा हो), यह “चाटुकारिता और छूआछूत” की एक नई राजनैतिक परम्परा शुरु की जा रही है।

इस सम्बन्ध में कई प्रश्न खड़े होते हैं कि जब लालू और शिबू सोरेन जैसे बाकायदा मुकदमा चले हुए और सजा पाये हुए लोग सोनिया के पास खड़े होकर दाँत निपोर सकते हैं, सुखराम और शहाबुद्दीन जैसे लोग संसद में कांग्रेसियों के गले में बाँहे डाले बतिया सकते हैं, तो नरेन्द्र मोदी के ऊपर तो अभी FIR तक नहीं हुई है, लेकिन चूंकि मैडम को साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा है कि उनके “भोंदू युवराज” की राह में सबसे बड़े रोड़े नरेन्द्र मोदी, मायावती जैसे कद्दावर नेता हैं। ये लोग भूल जाते हैं कि चाहे मोदी हों या मायावती, सभी जनता द्वारा चुने गये संवैधानिक पदों पर आसीन मुख्यमंत्री हैं, जो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के साथ ही क्या, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के साथ भी मंच पर आयेंगे (यदि वे उनके राज्य के दौरे पर आये तो)।

भाजपा-संघ के किसी अन्य नेता के साथ इस प्रकार का व्यवहार अभी तक नहीं हुआ है, इसी से पता चलता है कि नरेन्द्र मोदी, भाजपा के नेताओं से काफ़ी ऊपर और लोकप्रिय हैं, तथा इसीलिये उनके नाम से कांग्रेस को मिर्ची भी ज्यादा लगती है, परन्तु जिस प्रकार की “राजनैतिक अस्पृश्यता” का प्रदर्शन कांग्रेस, नरेन्द्र मोदी और बच्चन के साथ कर रही है वह बेहद भौण्डापन है।

एक बार पहले भी जब आडवाणी देश के गृहमंत्री पद पर आसीन थे (वह भी जनता द्वारा चुनी हुई सरकार ही थी), तब भी पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने उन्हें “बर्बर” कहा था, ऐसी तो इन लोगों की मानसिकता और संस्कृति है, और यही लोग भाजपा को हमेशा संस्कृति और आचरण के बारे में उपदेश देते रहते हैं… जबकि भाजपा ने कभी नहीं कहा कि सिख दंगों में “बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है…” जैसे बयान देने वाले राजीव गाँधी के साथ मंच शेयर नहीं करेंगे। क्या कभी भाजपा ने यह कहा कि चूंकि सुधाकरराव नाईक 1993 के मुम्बई दंगों के समय मूक दर्शक बने बैठे रहे इसलिये, शरद पवार “शकर माफ़िया” हैं इसलिये, भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ज़मीन माफ़िया हैं इसलिये, सज्जन कुमार सिक्खों के हत्यारे हैं इसलिये, इनके खिलाफ़ अनाप-शनाप भाषा का उपयोग करेंगे? इनके साथ मंच शेयर नहीं करेंगे? कभी नहीं कहा। लेकिन नरेन्द्र मोदी के नाम के साथ “मुस्लिम वोट बैंक” जुड़ा हुआ है इसलिये उनका अपमान करना कांग्रेस अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती है। भारत के किसी राज्य की जनता द्वारा चुने हुए मुख्यमंत्री को अमेरिका वीज़ा नहीं देता लेकिन कांग्रेस के मुँह से बोल तक नहीं फ़ूटता, क्योंकि तब वह “देश का अपमान” न होकर “हिन्दुत्व का अपमान” होता है… जिसमें उन्हें खुशी मिलती है।

अंग्रेजी के चार शब्द हैं - Provocation, Irritation, Aggravation और Frustration. (अर्थात उकसाना, जलाना, गम्भीर करना और कुण्ठाग्रस्त करना) । अक्सर मनोविज्ञान के छात्रों से यह सवाल पूछा जाता है कि इन शब्दों का आपस में क्या सम्बन्ध है, तथा इन चारों शब्दों की सीरिज बनाकर उसे उदाहरण सहित स्पष्ट करो…।

इसे मोटे तौर पर समझने के लिये एक काल्पनिक फ़ोन वार्ता पढ़िये –

(नरेन्द्र मोदी भारत के लोहा व्यापारी हैं, जबकि आसिफ़ अली ज़रदारी पाकिस्तान के लोहे के व्यापारी हैं)
फ़ोन की घण्टी बजती है –
नरेन्द्र मोदी – क्यों बे जरदारी, सरिया है क्या?
जरदारी – हाँ है…
मोदी – मुँह में डाल ले… (फ़ोन कट…)

इसे कहते हैं Provocation करना…

अगले दिन फ़िर फ़ोन बजता है –
नरेन्द्र मोदी – क्यों बे जरदारी, सरिया है क्या?
जरदारी (स्मार्ट बनने की कोशिश) – सरिया नहीं है…
मोदी – क्यों, मुँह में डाल लिया क्या? (फ़िर फ़ोन कट…)

इसे कहते हैं, “Irritation” में डालना…

अगले दिन फ़िर फ़ोन बजता है –
नरेन्द्र भाई – क्यों बे जरदारी, सरिया है क्या?
जरदारी (ओवर स्मार्ट बनने की कोशिश) – अबे साले, सरिया है भी और नहीं भी…
नरेन्द्र भाई – अच्छा, यानी कि बार-बार उसे मुँह में डालकर निकाल रहा है? (फ़ोन कट…)

इसे कहते हैं Aggravation में डालना…

अगले दिन जरदारी, मोदी से बदला लेने की सोचता है… खुद ही फ़ोन करता है…
जरदारी – क्यों बे मोदी, सरिया है क्या?
नरेन्द्र मोदी – अबे मुँह में दो-दो सरिये डालेगा क्या? (फ़ोन कट…)

इसे कहते हैं Frustration पैदा कर देना…

इसी “साइकियाट्रिक मैनेजमेण्ट” की भाषा में कहा जाये तो मोदी ने अमिताभ को गुजरात का ब्राण्ड एम्बेसेडर बनाकर कांग्रेस को पहले “Provocation” दिया, फ़िर SIT के समक्ष “भाण्ड मीडिया की मनमानी” से तय हुई 21 तारीख की बजाय, 27 को मुस्कराते हुए पेश होकर कांग्रेस को “Irritation” दिया, फ़िर अमिताभ के साथ हुए व्यवहार की तुलना में, कांग्रेसियों को तालिबानी कहकर “Aggravation mode” में डाल दिया, और अगले ही दिन सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के साथ एक मंच पर आकर मोदी ने कांग्रेस को “Frustration” भी दे दिया…। मनीष तिवारी की असभ्य भाषा उसी Frustration का शानदार उदाहरण है… इसलिये अपने परम विरोधी के बारे आदरणीय शब्दों में बयान देने की क्लास अटेण्ड करने के लिये मनीष तिवारी को अमर सिंह के पास भेजा जाना चाहिये।
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चलते-चलते :- पुराना हैदराबाद दंगों की आग में जल रहा है, लगभग 20 मन्दिर तोड़े जा चुके हैं और एक जैन गौशाला को आग लगाकर कई गायों को आग के हवाले किया गया है, दूसरी तरफ़ देश की एकमात्र "त्यागमूर्ति" ने लाभ के पद से इस्तीफ़ा देने का नाटक करने के बाद अब पुनः "राष्ट्रीय सलाहकार परिषद" का गठन कर लिया है और उसके अध्यक्ष पद पर काबिज हो गईं हैं… क्या यह दोनों खबरें किसी कथित नेशनल चैनल या अंग्रेजी अखबार में देखी-सुनी-पढ़ी हैं? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि "त्याग की देवी" की न तो आलोचना की जा सकती है, न उनसे सवाल-जवाब करने की किसी पत्रकार की हैसियत है…। इसी प्रकार चाहे बरेली हो, रायबरेली हो, इडुक्की हो या हैदराबाद सभी दंगों की खबरें "सेंसर" कर दी जायेंगी…आखिर "गंगा-जमनी" संस्कृति का सवाल है भई!!! 6M आधारित टीवी-अखबार वालों को हिदायत है कि सारी खबरें छोड़कर भाजपा-संघ-हिन्दुत्व-मोदी को गरियाओ…। जिन लोगों को यह "साजिश" नहीं दिखाई दे रही, वे या तो मूर्ख हैं या खुद भी इसमें शामिल हैं…

बहरहाल, अब तो यही एकमात्र इच्छा है कि किसी दिन नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ लें, और मैं उस दिन टीवी पर मनीष तिवारी, सीताराम येचुरी, प्रकाश करात, सोनिया गाँधी आदि का “सड़े हुए कद्दू” जैसा मुँह देखूं… और उनके जले-फ़ुँके हुए बयान सुनूं…


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