मंगलवार, 09 जून 2009 11:44
“धरती के विषवृक्ष पाकिस्तान” की “जमात-ए-इस्लामी” पार्टी के नेता का एक पुराना इंटरव्यू…(भाग-2) Jamat-E-Islami Pakistan Talibani Plans of Islam
(भाग-1 से जारी…)
जैसा कि पहले कहा गया है, इस इंटरव्यू में ज़ाहिर किये गये विचारों को पढ़कर कभी आप हँसेंगे, कभी आप माथा पीटेंगे, कभी गुस्सा होंगे, लेकिन कुल मिलाकर है बड़ा ही मजेदार इंटरव्यू। प्रस्तुत हैं जमात-ए-इस्लामी (पाकिस्तान) के मौलाना साहब के इंटरव्यू के हिन्दी अनुवाद का दूसरा भाग… जिसमें उन्होंने भारत के मुसलमानों के बारे में भी आश्चर्यजनक बयान दिये हैं…
प्रश्न (पत्रकार ज़लील आमिर) – क्या आपको नहीं लगता कि यदि कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बन गया तो भारत में व्यापक पैमाने पर हिन्दू-मुस्लिम दंगे होंगे और उसमें काफ़ी संख्या में हमारे मुस्लिम भाई भी मारे जायेंगे?
उत्तर (मौलाना नबीउल्लाह) – हाँ, हो सकता है, लेकिन हमारी विचारधारा सिर्फ़ कुर-आन और हदीस की व्याख्याओं पर आधारित है। पैगम्बर मुहम्मद ने कहा है कि जो भी मुस्लिम, किसी अन्य गैर-मुस्लिम से मधुर सम्बन्ध रखता है वह सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता। इसमें हिन्दू, ईसाई और यहूदी सभी शामिल हैं। पैगम्बर मोहम्मद ने यह भी कहा है कि यदि कोई मुस्लिम शासक खराब है तब भी मुस्लिमों को वह देश छोड़कर गैर-मुस्लिम देश में नहीं जाना चाहिये। इस बारे में हदीस और कुर-आन में स्पष्ट निर्देश हैं। इसलिये जो मुसलमान विभाजन के दौरान भारत से पाकिस्तान की तरफ़ नहीं आये, वे भी हमारी नज़र में “हिन्दू” ही हैं। वे भले ही सोचते रहें कि वे मुस्लिम हैं लेकिन अल्लाह के सामने ऐसा नहीं होगा। उदाहरण के तौर पर जैसे कि “अहमदिया” हैं, वे अपने आपको मुस्लिम मानते हैं लेकिन असल में वे हैं नहीं, इसलिये जब तक भारत के मुस्लमान किसी मुस्लिम देश में नहीं चले जाते तब तक वे सच्चे मुस्लिम नहीं हो सकते। अपने भारत दौरे के समय मैंने पाया कि भारत के हिन्दू किसान फ़सल लेने पर अपनी सारी उपज पूजा करके पहले भगवान को समर्पित कर देते हैं, इसलिये इस प्रकार की उपज मुसलमानों के लिये “हराम” है। क्योंकि भारत के सभी “तथाकथित” मुसलमान ऐसी फ़सल और अनाज खाते हैं जो कि अल्लाह से पहले किसी और भगवान को पहले ही समर्पित की जा चुकी है, कुर-आन में इसकी सख्त बन्दिश है और इसीलिये वे लोग सच्चे मुस्लमान नहीं हैं। पैगम्बर मोहम्मद का आदेश है कि मुसलमान उसी देश में रहें जहाँ वे बहुसंख्यक हैं, जो मुसलमान इस्लामिक देश छोड़कर दूसरे देश में बसता है वह काफ़िर माना जाये, सिर्फ़ उसी को मुसलमान माना जायेगा जो अल्लाह द्वारा शासित देश में आने को उत्सुक हो, गैर-इस्लामी देश में सदा के लिये बस चुका व्यक्ति मुसलमान नहीं है। ऐसे में यदि भारत के किसी दंगे में कोई मुसलमान मारा भी जाता है तो हमें उसकी परवाह क्यों होनी चाहिये? लेकिन फ़िलहाल रणनीतिक तौर पर हम भारत के मुसलमानों से मधुर सम्बन्ध बनाये हुए हैं। पाकिस्तान की बेहतरी के लिये काम करने वाले ही असली मुसलमान हैं। कश्मीर के मुसलमानों को मैं असली मुसलमान मान सकता हूँ, क्योंकि वे “हिन्दू शासन”(?) से मुक्ति हेतु संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन भारत के बाकी मुसलमानों ने भारत-पाक विभाजन स्वीकार कर लिया है और इसलिये वे मुस्लिम नहीं रहे।
जमात-ए-इस्लामी पार्टी “गुलाम प्रथा” को फ़िर शुरु करेगी…
सभी अरब देशों में “गुलाम” प्रथा चलती है, पैगम्बर मोहम्मद ने भी कहा है कि गुलामों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उन्हें समय-समय पर आज़ाद करते रहो। जमात जब पाकिस्तान में सत्ता में आयेगी तो “गुलाम प्रथा” फ़िर शुरु की जायेगी, सभी पकड़े गये हिन्दू कैदियों को गुलाम बनाया जायेगा। लगभग सभी अरब देशों में यह प्रथा धड़ल्ले से जारी है, हालांकि अरब देशों में भारी संख्या में हिन्दू काम कर रहे हैं, लेकिन हमारा इरादा अरबों की पवित्र भूमि को पुनः पवित्र बनाना है और यह काम हिन्दुओं को वहाँ से निकालकर या गुलाम बनाकर ही किया जा सकता है। फ़िलहाल वहाँ के हिन्दुओं ने अरबों को मानसिक रूप से भ्रष्ट कर दिया है।
हिन्दुओं के मन्दिर, मुस्लिम भूमि को अपवित्र करते हैं…
अरब देशों और कतर आदि में मैंने देखा कि वहाँ हिन्दुओं के कई मन्दिर हैं, अरब के बादशाह ने मन्दिर बनाने की अनुमति देकर ही गलती की है, ऊपर से सुल्तान के परिवार के सदस्य मन्दिर का उद्घाटन करने भी गये। काज़ी अहमद इस बात से भी काफ़ी नाराज़ हैं कि कतर की रॉयल परिवार के कुछ सदस्य भगवान “अय्यप्पा” में भी आस्था रखते हैं। इससे जमात प्रमुख बेहद खफ़ा हैं और उन्होंने इन शैतानी शक्तियों से लड़ने का संकल्प लिया है।
धर्म-परिवर्तन की सजा मौत है…
मौलाना साहब फ़रमाते हैं कि मुसलमानों के लिये धर्म परिवर्तन या अन्य धर्मों की ओर झुकाव की सजा सिर्फ़ मौत है। पाकिस्तान में अभी शरीयत का कानून लागू नहीं है, इसलिये यहाँ संविधान के तहत धर्म परिवर्तन किया जा सकता है, लेकिन जब जमात सत्ता में आयेगी तब इसके लिये मौत की सजा मुकर्रर की जायेगी।
विश्व का सारा ज्ञान कुरान और हदीस में समाया हुआ है…
मौलाना साहब आगे फ़रमाते हैं कि विश्व का समूचा ज्ञान कुर-आन और हदीस में समाया हुआ है, कुर-आन से अधिक जानने पर एटम बम और टीवी जैसी विनाशकारी समस्याएं पैदा होती हैं। संगीत, टीवी, फ़ोटोग्राफ़ी आदि शैतानी और हराम वस्तुएं हैं। पहले के ज़माने में संगीत सिर्फ़ गायन तक सीमित था, लेकिन नई तकनीक ने इसे घर-घर में पहुँचा दिया है, हमें इस शैतानी चीज़ से नई पीढ़ी का बचाव करना है।
साइंस और टेक्नोलॉजी मानव सभ्यता के लिये बुरी बातें हैं…
मौलाना के महान विचार यहीं नहीं थमते, वे कहते हैं… “मैं भी एक सिविल इंजीनियर हूँ, और मेरा मानना है कि साइंस और टेक्नोलॉजी सभ्यता के विकास के लिये बहुत बुरी बातें हैं। जितना ज्यादा आप इसका ज्ञान प्राप्त करते जाते हैं, आप सर्वकालिक महान पुस्तक कुर-आन पर सवाल उठाने लगते हैं। हदीस में स्पष्ट कहा गया है कि “धरती गोल नहीं चपटी है… लेकिन वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि धरती गोल है, लेकिन कुप्रचार के जरिये लोगों के मन में कुर-आन के प्रति संशय पैदा कर दिये गये हैं। हम कुर-आन के वैज्ञानिक पहलुओं को जनता के सामने लायेंगे और सिद्ध करेंगे कि कुर-आन ही पूरी तरह वैज्ञानिक है और पूर्ण सत्य है।
प्रश्न – आप साइंस और टेक्नोलॉजी को बुरा कह रहे हैं, फ़ोटोग्राफ़ी को हराम बता रहे हैं, लेकिन पश्चिमी देशों से हथियार आयात करते हैं और पासपोर्ट के लिये फ़ोटो भी तो खिंचवाते हैं?
उत्तर – आपका कहना सही है, लेकिन यह सिर्फ़ रणनीति के तौर पर है। अल्लाह ने हमे पेट्रोल की ताकत दी है, जिससे पश्चिमी देशों की कारें चलती हैं, इसके बदले में हम उनसे हथियार लेते हैं और यही हथियार आगे चलकर उन्हें खत्म करने में काम आयेंगे।
प्रश्न – आजकल पाकिस्तान में भी आरक्षण को लेकर झगड़े बढ़ रहे हैं, इस सम्बन्ध जमात की क्या नीति होगी।
उत्तर – यह समस्या असल में भाषा की समस्या है, फ़िलहाल उर्दू बोलने वाले मुसलमान और सिन्धी बोलने वाले मुसलमानों (मोहाजिरों) के बीच झगड़े अधिक हैं। हम सत्ता में आये तो सभी क्षेत्रीय भाषाओं (पश्तो, सिंधी, बलूची, उर्दू, पंजाबी आदि) को बन्द करके सिर्फ़ अरबी को राजकाज की भाषा बनायेंगे। यही एकमात्र पवित्र भाषा है। इसके द्वारा सभी जनता कुर-आन और हदीस की व्याख्या को ठीक से समझ सकेगी, और धर्म आधारित आरक्षण के झगड़े बन्द होंगे।
प्रश्न- पाकिस्तान के कुछ सेकुलर पत्रकार जमात का कड़ा विरोध करते हैं, डॉन और कराची से निकलने वाले कई अखबार आपके विरोधी हैं। इस बारे में आपके क्या विचार हैं?
उत्तर – जब पाकिस्तान में शरीयत लागू होगी तब इनमें से एक भी पत्रकार नहीं दिखाई देगा, वे कोर्ट भी नहीं जा पायेंगे। ये सेकुलर पत्रकार हमारे वक्तव्यों को तोड़-मरोड़कर जनता के सामने पेश करते हैं और हमारी छवि खराब करते हैं। ये लोग पाकिस्तान का इतिहास अंग्रेजों के जमाने से लिखते हैं और शुरु करते हैं, जबकि पाकिस्तान का इतिहास विभाजन और आज़ादी के बाद ही शुरु होता है। सेकुलर पत्रकार “काफ़िर” हैं, वे मुस्लिम हैं ही नहीं। वे हमारे पास आयें और कुर-आन और हदीस की व्याख्या के बारे में पूछें, हम उनकी हरेक शंका का समाधान कुर-आन की रौशनी में करने को तैयार हैं। वे यह सिद्ध करें कि जो हमने कहा है कुर-आन के अनुसार वह गलत है, तो हम मान लेंगे, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते। ये लोग कुर-आन और हदीस पर कोई बहस नहीं करना चाहते। हम साबित कर देंगे कि कुर-आन के हिसाब से ये लोग गैर-मुस्लिम हैं, ये लोग “कादियानियों” की तरह हैं जो कहते हैं कि “जेहाद” कोई अनिवार्य बात नहीं है… यह बकवास है।
प्रश्न – आपका अमूल्य समय देने के लिये धन्यवाद…
उत्तर – अल्लाह का रहमोकरम आपके साथ रहे…
इस इंटरव्यू के मूल अंग्रेजी भाग को यहाँ देखा जा सकता है…
http://www.islam-watch.org/JihadiUmmah/What-Islam-Wants-Nabiullah-Khan.htm
Jamat-E-Islami Party of Pakistan, Taliban and Its Origin, Plans of Islam against India, Jehad in Islam, Maulana Nabiullah Khan, पाकिस्तान की जमात-ए-इस्लामी पार्टी, तालिबानी सोच का मूल, भारत के विरुद्ध जेहादी योजनायें, मौलाना नबीउल्ला, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
जैसा कि पहले कहा गया है, इस इंटरव्यू में ज़ाहिर किये गये विचारों को पढ़कर कभी आप हँसेंगे, कभी आप माथा पीटेंगे, कभी गुस्सा होंगे, लेकिन कुल मिलाकर है बड़ा ही मजेदार इंटरव्यू। प्रस्तुत हैं जमात-ए-इस्लामी (पाकिस्तान) के मौलाना साहब के इंटरव्यू के हिन्दी अनुवाद का दूसरा भाग… जिसमें उन्होंने भारत के मुसलमानों के बारे में भी आश्चर्यजनक बयान दिये हैं…
प्रश्न (पत्रकार ज़लील आमिर) – क्या आपको नहीं लगता कि यदि कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बन गया तो भारत में व्यापक पैमाने पर हिन्दू-मुस्लिम दंगे होंगे और उसमें काफ़ी संख्या में हमारे मुस्लिम भाई भी मारे जायेंगे?
उत्तर (मौलाना नबीउल्लाह) – हाँ, हो सकता है, लेकिन हमारी विचारधारा सिर्फ़ कुर-आन और हदीस की व्याख्याओं पर आधारित है। पैगम्बर मुहम्मद ने कहा है कि जो भी मुस्लिम, किसी अन्य गैर-मुस्लिम से मधुर सम्बन्ध रखता है वह सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता। इसमें हिन्दू, ईसाई और यहूदी सभी शामिल हैं। पैगम्बर मोहम्मद ने यह भी कहा है कि यदि कोई मुस्लिम शासक खराब है तब भी मुस्लिमों को वह देश छोड़कर गैर-मुस्लिम देश में नहीं जाना चाहिये। इस बारे में हदीस और कुर-आन में स्पष्ट निर्देश हैं। इसलिये जो मुसलमान विभाजन के दौरान भारत से पाकिस्तान की तरफ़ नहीं आये, वे भी हमारी नज़र में “हिन्दू” ही हैं। वे भले ही सोचते रहें कि वे मुस्लिम हैं लेकिन अल्लाह के सामने ऐसा नहीं होगा। उदाहरण के तौर पर जैसे कि “अहमदिया” हैं, वे अपने आपको मुस्लिम मानते हैं लेकिन असल में वे हैं नहीं, इसलिये जब तक भारत के मुस्लमान किसी मुस्लिम देश में नहीं चले जाते तब तक वे सच्चे मुस्लिम नहीं हो सकते। अपने भारत दौरे के समय मैंने पाया कि भारत के हिन्दू किसान फ़सल लेने पर अपनी सारी उपज पूजा करके पहले भगवान को समर्पित कर देते हैं, इसलिये इस प्रकार की उपज मुसलमानों के लिये “हराम” है। क्योंकि भारत के सभी “तथाकथित” मुसलमान ऐसी फ़सल और अनाज खाते हैं जो कि अल्लाह से पहले किसी और भगवान को पहले ही समर्पित की जा चुकी है, कुर-आन में इसकी सख्त बन्दिश है और इसीलिये वे लोग सच्चे मुस्लमान नहीं हैं। पैगम्बर मोहम्मद का आदेश है कि मुसलमान उसी देश में रहें जहाँ वे बहुसंख्यक हैं, जो मुसलमान इस्लामिक देश छोड़कर दूसरे देश में बसता है वह काफ़िर माना जाये, सिर्फ़ उसी को मुसलमान माना जायेगा जो अल्लाह द्वारा शासित देश में आने को उत्सुक हो, गैर-इस्लामी देश में सदा के लिये बस चुका व्यक्ति मुसलमान नहीं है। ऐसे में यदि भारत के किसी दंगे में कोई मुसलमान मारा भी जाता है तो हमें उसकी परवाह क्यों होनी चाहिये? लेकिन फ़िलहाल रणनीतिक तौर पर हम भारत के मुसलमानों से मधुर सम्बन्ध बनाये हुए हैं। पाकिस्तान की बेहतरी के लिये काम करने वाले ही असली मुसलमान हैं। कश्मीर के मुसलमानों को मैं असली मुसलमान मान सकता हूँ, क्योंकि वे “हिन्दू शासन”(?) से मुक्ति हेतु संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन भारत के बाकी मुसलमानों ने भारत-पाक विभाजन स्वीकार कर लिया है और इसलिये वे मुस्लिम नहीं रहे।
जमात-ए-इस्लामी पार्टी “गुलाम प्रथा” को फ़िर शुरु करेगी…
सभी अरब देशों में “गुलाम” प्रथा चलती है, पैगम्बर मोहम्मद ने भी कहा है कि गुलामों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उन्हें समय-समय पर आज़ाद करते रहो। जमात जब पाकिस्तान में सत्ता में आयेगी तो “गुलाम प्रथा” फ़िर शुरु की जायेगी, सभी पकड़े गये हिन्दू कैदियों को गुलाम बनाया जायेगा। लगभग सभी अरब देशों में यह प्रथा धड़ल्ले से जारी है, हालांकि अरब देशों में भारी संख्या में हिन्दू काम कर रहे हैं, लेकिन हमारा इरादा अरबों की पवित्र भूमि को पुनः पवित्र बनाना है और यह काम हिन्दुओं को वहाँ से निकालकर या गुलाम बनाकर ही किया जा सकता है। फ़िलहाल वहाँ के हिन्दुओं ने अरबों को मानसिक रूप से भ्रष्ट कर दिया है।
हिन्दुओं के मन्दिर, मुस्लिम भूमि को अपवित्र करते हैं…
अरब देशों और कतर आदि में मैंने देखा कि वहाँ हिन्दुओं के कई मन्दिर हैं, अरब के बादशाह ने मन्दिर बनाने की अनुमति देकर ही गलती की है, ऊपर से सुल्तान के परिवार के सदस्य मन्दिर का उद्घाटन करने भी गये। काज़ी अहमद इस बात से भी काफ़ी नाराज़ हैं कि कतर की रॉयल परिवार के कुछ सदस्य भगवान “अय्यप्पा” में भी आस्था रखते हैं। इससे जमात प्रमुख बेहद खफ़ा हैं और उन्होंने इन शैतानी शक्तियों से लड़ने का संकल्प लिया है।
धर्म-परिवर्तन की सजा मौत है…
मौलाना साहब फ़रमाते हैं कि मुसलमानों के लिये धर्म परिवर्तन या अन्य धर्मों की ओर झुकाव की सजा सिर्फ़ मौत है। पाकिस्तान में अभी शरीयत का कानून लागू नहीं है, इसलिये यहाँ संविधान के तहत धर्म परिवर्तन किया जा सकता है, लेकिन जब जमात सत्ता में आयेगी तब इसके लिये मौत की सजा मुकर्रर की जायेगी।
विश्व का सारा ज्ञान कुरान और हदीस में समाया हुआ है…
मौलाना साहब आगे फ़रमाते हैं कि विश्व का समूचा ज्ञान कुर-आन और हदीस में समाया हुआ है, कुर-आन से अधिक जानने पर एटम बम और टीवी जैसी विनाशकारी समस्याएं पैदा होती हैं। संगीत, टीवी, फ़ोटोग्राफ़ी आदि शैतानी और हराम वस्तुएं हैं। पहले के ज़माने में संगीत सिर्फ़ गायन तक सीमित था, लेकिन नई तकनीक ने इसे घर-घर में पहुँचा दिया है, हमें इस शैतानी चीज़ से नई पीढ़ी का बचाव करना है।
साइंस और टेक्नोलॉजी मानव सभ्यता के लिये बुरी बातें हैं…
मौलाना के महान विचार यहीं नहीं थमते, वे कहते हैं… “मैं भी एक सिविल इंजीनियर हूँ, और मेरा मानना है कि साइंस और टेक्नोलॉजी सभ्यता के विकास के लिये बहुत बुरी बातें हैं। जितना ज्यादा आप इसका ज्ञान प्राप्त करते जाते हैं, आप सर्वकालिक महान पुस्तक कुर-आन पर सवाल उठाने लगते हैं। हदीस में स्पष्ट कहा गया है कि “धरती गोल नहीं चपटी है… लेकिन वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि धरती गोल है, लेकिन कुप्रचार के जरिये लोगों के मन में कुर-आन के प्रति संशय पैदा कर दिये गये हैं। हम कुर-आन के वैज्ञानिक पहलुओं को जनता के सामने लायेंगे और सिद्ध करेंगे कि कुर-आन ही पूरी तरह वैज्ञानिक है और पूर्ण सत्य है।
प्रश्न – आप साइंस और टेक्नोलॉजी को बुरा कह रहे हैं, फ़ोटोग्राफ़ी को हराम बता रहे हैं, लेकिन पश्चिमी देशों से हथियार आयात करते हैं और पासपोर्ट के लिये फ़ोटो भी तो खिंचवाते हैं?
उत्तर – आपका कहना सही है, लेकिन यह सिर्फ़ रणनीति के तौर पर है। अल्लाह ने हमे पेट्रोल की ताकत दी है, जिससे पश्चिमी देशों की कारें चलती हैं, इसके बदले में हम उनसे हथियार लेते हैं और यही हथियार आगे चलकर उन्हें खत्म करने में काम आयेंगे।
प्रश्न – आजकल पाकिस्तान में भी आरक्षण को लेकर झगड़े बढ़ रहे हैं, इस सम्बन्ध जमात की क्या नीति होगी।
उत्तर – यह समस्या असल में भाषा की समस्या है, फ़िलहाल उर्दू बोलने वाले मुसलमान और सिन्धी बोलने वाले मुसलमानों (मोहाजिरों) के बीच झगड़े अधिक हैं। हम सत्ता में आये तो सभी क्षेत्रीय भाषाओं (पश्तो, सिंधी, बलूची, उर्दू, पंजाबी आदि) को बन्द करके सिर्फ़ अरबी को राजकाज की भाषा बनायेंगे। यही एकमात्र पवित्र भाषा है। इसके द्वारा सभी जनता कुर-आन और हदीस की व्याख्या को ठीक से समझ सकेगी, और धर्म आधारित आरक्षण के झगड़े बन्द होंगे।
प्रश्न- पाकिस्तान के कुछ सेकुलर पत्रकार जमात का कड़ा विरोध करते हैं, डॉन और कराची से निकलने वाले कई अखबार आपके विरोधी हैं। इस बारे में आपके क्या विचार हैं?
उत्तर – जब पाकिस्तान में शरीयत लागू होगी तब इनमें से एक भी पत्रकार नहीं दिखाई देगा, वे कोर्ट भी नहीं जा पायेंगे। ये सेकुलर पत्रकार हमारे वक्तव्यों को तोड़-मरोड़कर जनता के सामने पेश करते हैं और हमारी छवि खराब करते हैं। ये लोग पाकिस्तान का इतिहास अंग्रेजों के जमाने से लिखते हैं और शुरु करते हैं, जबकि पाकिस्तान का इतिहास विभाजन और आज़ादी के बाद ही शुरु होता है। सेकुलर पत्रकार “काफ़िर” हैं, वे मुस्लिम हैं ही नहीं। वे हमारे पास आयें और कुर-आन और हदीस की व्याख्या के बारे में पूछें, हम उनकी हरेक शंका का समाधान कुर-आन की रौशनी में करने को तैयार हैं। वे यह सिद्ध करें कि जो हमने कहा है कुर-आन के अनुसार वह गलत है, तो हम मान लेंगे, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते। ये लोग कुर-आन और हदीस पर कोई बहस नहीं करना चाहते। हम साबित कर देंगे कि कुर-आन के हिसाब से ये लोग गैर-मुस्लिम हैं, ये लोग “कादियानियों” की तरह हैं जो कहते हैं कि “जेहाद” कोई अनिवार्य बात नहीं है… यह बकवास है।
प्रश्न – आपका अमूल्य समय देने के लिये धन्यवाद…
उत्तर – अल्लाह का रहमोकरम आपके साथ रहे…
इस इंटरव्यू के मूल अंग्रेजी भाग को यहाँ देखा जा सकता है…
http://www.islam-watch.org/JihadiUmmah/What-Islam-Wants-Nabiullah-Khan.htm
Jamat-E-Islami Party of Pakistan, Taliban and Its Origin, Plans of Islam against India, Jehad in Islam, Maulana Nabiullah Khan, पाकिस्तान की जमात-ए-इस्लामी पार्टी, तालिबानी सोच का मूल, भारत के विरुद्ध जेहादी योजनायें, मौलाना नबीउल्ला, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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बुधवार, 03 जून 2009 17:45
विजय तेंडुलकर का नाटक पाकिस्तान में… Vijay Tendulkar Play in Pakistan without Royalty
मराठी भाषा में नाटकों, कला और संस्कृति का एक विस्तृत और समृद्ध इतिहास रहा है। मराठी रंगमंच ने देश के कला जगत को गायन, वादन, नाटक, संगीत आदि क्षेत्रों में कई महान कलाकार दिये हैं। इन्हीं में से एक हैं प्रख्यात नाटककार विजय धोण्डोपन्त तेंडुलकर। कई प्रसिद्ध और विवादास्पद नाटकों के लेखक श्री तेंडुलकर की हाल ही में 19 मई को पहली पुण्यतिथि थी। तेंडुलकर के कई नाटक अपने विषयवस्तु को लेकर सामाजिक रूप से विवादित रहे, लेकिन कभी भी उन्होंने अपने लेखन से समझौता नहीं किया।
संयोग देखिये कि पाकिस्तान के अखबारों को पढ़ते समय अचानक यह खबर मिली कि विजय तेंडुलकर के प्रसिद्ध नाटक “शांतता…कोर्ट चालू आहे…” (खामोश… अदालत जारी है) का उर्दू भाषा में सफ़ल मंचन कराची में किया जा रहा है। इस खबर को “डॉन” अखबार की इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है…
http://www.dawn.com/wps/wcm/connect/dawn-content-library/dawn/news/entertainment/05-silence-the-court-is-in-session
डॉन अखबार मे तेंडुलकर के इस नाटक और उस नाटक की उर्दू प्रस्तुति की खूब तारीफ़ की गई है। यह खबर भारत के कलाप्रेमियों और आम जनता के लिये एक सुखद आश्चर्यजनक धक्का ही है। “धक्का” इसलिये, कि विश्वास नहीं होता कि पाकिस्तान की छवि और वहाँ के वर्तमान हालातों को देखते हुए वहाँ अभी भी “नाटक परम्परा” न सिर्फ़ जीवित है, बल्कि सफ़लतापूर्वक उसका मंचन भी किया जा रहा है। अगला धक्का यह कि, खबर के अनुसार नाटक का टिकट 500/- रुपये रखा गया है (मराठी में तो हम आसानी से कल्पना कर सकते हैं, लेकिन हिन्दी नाट्य जगत 500 रुपये के टिकट लेकर आने वाले दर्शक खींच सकेगा, ऐसा मुश्किल लगता है)। 500 रुपये के टिकट के बाद, एक तीसरा धक्का यह कि भारत के किसी कलाकार का लिखा हुआ और वह भी “कुमारी माता” और गर्भपात जैसे विवादास्पद मुद्दों पर बेलाग बात करने वाला नाटक पाकिस्तान में खेला जा रहा है, है न आश्चर्य की बात… लेकिन यही विजय तेंडुलकर की सफ़लता है। उनके लिखे हुए नाटक और फ़िल्मों को किसी भी भाषा में अनुवादित किया जाये उनका “असर” उतना ही तीव्र होता है, जितना मराठी में हुआ है।
तेंडुलकर के इस नाटक “शांतता कोर्ट चालू आहे…” का हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में भी मंचन हो चुका है। संक्षिप्त में इस नाटक की कहानी कुछ इस प्रकार है कि – एक थियेटर ग्रुप जो कि गाँव-गाँव जाकर अपने नाटक दिखाता है, उसे अचानक एक गाँव में किसी कारणवश अधिक रुकना पड़ जाता है। थियेटर ग्रुप के सदस्य टाइमपास के लिये एक नकली अदालत का दृश्य रचते हैं और आपस में मुकदमा चलाते हैं। नाटक के भीतर एक नाटक की शुरुआत तो हल्के-फ़ुल्के माहौल में होती है, लेकिन जल्दी ही ग्रुप के सदस्य अपने असली “रंग” में आ जाते हैं। पुरुष मानसिकता और हिंसा के घालमेल के दर्शन होने लगते हैं। थियेटर ग्रुप की एक महिला सदस्य “सुश्री बेनारे” को लेकर पुरुष सदस्य उस पर विभिन्न आरोप लगाते हैं, क्योंकि वे जानते थे कि मिस बेनारे यौन उत्पीड़ित रही है और वह एक बार गर्भपात भी करवा चुकी है। टाइम पास के लिये शुरु की गई नकली अदालत में सभी पात्र, कब अपनी आपसी रंजिश और पूर्वाग्रहों को उजागर करने लगते हैं पता ही नहीं चलता, अन्त में मिस बेनारे टूट जाती है, वह स्वीकार करती है कि हाँ वह भी एक “कुमारी माता” है, लेकिन सभी पुरुष पात्रों की हिंसात्मक और नारी विरोधी मानसिकता को उजागर करके उनकी “असली औकात” दिखाने के बाद…”।
विजय तेंडुलकर ने मात्र 6 वर्ष की उम्र में पहली कहानी लिखी और 11 वर्ष की आयु में पहला नाटक लिखा, उसमें अभिनय किया और उसका निर्देशन भी किया। तेंडुलकर का झुकाव वामपंथी विचारधारा की ओर रहा है, लेकिन फ़िर भी भारत की सांस्कृतिक परम्परा और भारत की मिट्टी के प्रति उनका गहरा लगाव था। गुजरात दंगों के बाद उनका वह वक्तव्य बेहद विवादित हुआ था, जिसमें उन्होंने कहा था कि “यदि मेरे पास पिस्तौल होती तो मैं नरेन्द्र मोदी को गोली से उड़ा देता…” हालांकि बाद में उन्होंने सफ़ाई देते हुए कहा था कि गुस्सा किसी भी बात का हल नहीं निकाल सकता और वह वक्तव्य गुस्से में दिया गया था। विजय तेंडुलकर को महाराष्ट्र तथा भारत सरकार की ओर से कई पुरस्कार और सम्मान मिले, जिसमें प्रमुख हैं 1999 में “महाराष्ट्र गौरव”, 1970 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1984 में पद्मभूषण। उनकी लिखी कई फ़िल्मों की पटकथाओं पर कलात्मक फ़िल्में बनीं, जैसे मंथन, निशांत, आक्रोश, अर्धसत्य आदि।
पाकिस्तान में चल रहे नाटक के बारे में एक बात का दुःख जरूर है कि उस नाटक से पैसा बनाने वालों ने तेंडुलकर परिवार को कभी रॉयल्टी का एक रुपया भी ईमानदारी से नहीं दिया है। तेंडुलकर के अवसान के बाद उनकी बौद्धिक सम्पत्ति की देखभाल कर रहीं उनकी पुत्री तनुजा मोहिते ने बताया कि “जब तक बाबा (यानी पिताजी) जीवित थे तब तक तो कई जगहों से ईमानदारी, या शर्म के मारे ही सही रॉयल्टी आ जाती थी, लेकिन उनके निधन के पश्चात इसमें ढील आती जा रही है। श्री तेंडुलकर ने तय किया था कि उनके प्रत्येक प्रमुख नाटक के एक शो पर 1000 रुपये, एकांकी नाटक के प्रति शो 500 रुपये, बाल नाट्य के 300 रुपये तथा लेखों के अनुवाद हेतु प्रति लेख 1500 रुपये रॉयल्टी वे लेंगे। नाटक “शांतता…” के पाकिस्तान में कई सफ़ल शो 500 रुपये प्रति व्यक्ति के टिकट की दर से आयोजित हो चुके हैं, इस नाटक का अनुवाद भी मुम्बई में रहने वाले एक लेखक इंतिज़ार हुसैन ने किया है, लेकिन रॉयल्टी के नाम पर तेंडुलकर परिवार को अब तक कुछ नहीं मिला है। इस सम्बन्ध में सुश्री मोहिते ने बताया कि बौद्धिक सम्पदा की चोरी रोकने के लिये उन्होंने कई कम्युनिटी वेबसाईटों और गूगल अलर्ट पर भी सावधान किया है कि यदि इस प्रकार के नाटक या तेंडुलकर के कोई लेख आदि प्रकाशित होते हैं तो उन्हें 9820362103 पर सम्पर्क करके बताने का कष्ट करें, ताकि रॉयल्टी के बारे में निश्चित स्थिति पता चल सके। उन्होंने आगे बताया कि महाराष्ट्र के छोटे शहरों में कई छोटी संस्थायें हैं जो “बाबा” के नाटकों का मंचन करती हैं और अधिकतर बार ईमानदारी से रॉयल्टी का पैसा देती हैं, या पूर्व-अनुमति लेकर मुफ़्त में नाटक करती हैं… लेकिन बड़ी संस्थायें या जाने-माने नाट्य ग्रुप रॉयल्टी देने में आनाकानी करते हैं।
अपनी पुत्री प्रिया तेंडुलकर (“रजनी” फ़ेम) के निधन (सितम्बर 2002) के पश्चात विजय तेंडुलकर भीतर से टूट गये थे और 19 मई 2008 को पुणे में उनका देहान्त हुआ। इस महान नाटककार को विनम्र श्रद्धांजलि…
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नोट – मेरे कुछ नये पाठकों (जिन्होंने मेरे पुराने लेख नहीं पढ़े) ने ई-मेल पर कहा कि क्या मैं सिर्फ़ कांग्रेस विरोध, राजनीति और “शर्मनिरपेक्षता” आदि पर ही लेख लिखता हूँ? क्योंकि गत 6 महीने में मैंने अधिकतर लेख “राजनीति, समाज और हिन्दुत्व को हो रहे नुकसान पर ही लिखे। इसलिये एक वाम विचारधारा के, धर्म आधारित राजनीति के प्रखर विरोधी, समाज को हिलाकर रख देने वाले कालजयी नाटकों के रचयिता तेंडुलकर, पर यह लेख उनकी शिकायत को दूर करने के लिये है…
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संयोग देखिये कि पाकिस्तान के अखबारों को पढ़ते समय अचानक यह खबर मिली कि विजय तेंडुलकर के प्रसिद्ध नाटक “शांतता…कोर्ट चालू आहे…” (खामोश… अदालत जारी है) का उर्दू भाषा में सफ़ल मंचन कराची में किया जा रहा है। इस खबर को “डॉन” अखबार की इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है…
http://www.dawn.com/wps/wcm/connect/dawn-content-library/dawn/news/entertainment/05-silence-the-court-is-in-session
डॉन अखबार मे तेंडुलकर के इस नाटक और उस नाटक की उर्दू प्रस्तुति की खूब तारीफ़ की गई है। यह खबर भारत के कलाप्रेमियों और आम जनता के लिये एक सुखद आश्चर्यजनक धक्का ही है। “धक्का” इसलिये, कि विश्वास नहीं होता कि पाकिस्तान की छवि और वहाँ के वर्तमान हालातों को देखते हुए वहाँ अभी भी “नाटक परम्परा” न सिर्फ़ जीवित है, बल्कि सफ़लतापूर्वक उसका मंचन भी किया जा रहा है। अगला धक्का यह कि, खबर के अनुसार नाटक का टिकट 500/- रुपये रखा गया है (मराठी में तो हम आसानी से कल्पना कर सकते हैं, लेकिन हिन्दी नाट्य जगत 500 रुपये के टिकट लेकर आने वाले दर्शक खींच सकेगा, ऐसा मुश्किल लगता है)। 500 रुपये के टिकट के बाद, एक तीसरा धक्का यह कि भारत के किसी कलाकार का लिखा हुआ और वह भी “कुमारी माता” और गर्भपात जैसे विवादास्पद मुद्दों पर बेलाग बात करने वाला नाटक पाकिस्तान में खेला जा रहा है, है न आश्चर्य की बात… लेकिन यही विजय तेंडुलकर की सफ़लता है। उनके लिखे हुए नाटक और फ़िल्मों को किसी भी भाषा में अनुवादित किया जाये उनका “असर” उतना ही तीव्र होता है, जितना मराठी में हुआ है।
तेंडुलकर के इस नाटक “शांतता कोर्ट चालू आहे…” का हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में भी मंचन हो चुका है। संक्षिप्त में इस नाटक की कहानी कुछ इस प्रकार है कि – एक थियेटर ग्रुप जो कि गाँव-गाँव जाकर अपने नाटक दिखाता है, उसे अचानक एक गाँव में किसी कारणवश अधिक रुकना पड़ जाता है। थियेटर ग्रुप के सदस्य टाइमपास के लिये एक नकली अदालत का दृश्य रचते हैं और आपस में मुकदमा चलाते हैं। नाटक के भीतर एक नाटक की शुरुआत तो हल्के-फ़ुल्के माहौल में होती है, लेकिन जल्दी ही ग्रुप के सदस्य अपने असली “रंग” में आ जाते हैं। पुरुष मानसिकता और हिंसा के घालमेल के दर्शन होने लगते हैं। थियेटर ग्रुप की एक महिला सदस्य “सुश्री बेनारे” को लेकर पुरुष सदस्य उस पर विभिन्न आरोप लगाते हैं, क्योंकि वे जानते थे कि मिस बेनारे यौन उत्पीड़ित रही है और वह एक बार गर्भपात भी करवा चुकी है। टाइम पास के लिये शुरु की गई नकली अदालत में सभी पात्र, कब अपनी आपसी रंजिश और पूर्वाग्रहों को उजागर करने लगते हैं पता ही नहीं चलता, अन्त में मिस बेनारे टूट जाती है, वह स्वीकार करती है कि हाँ वह भी एक “कुमारी माता” है, लेकिन सभी पुरुष पात्रों की हिंसात्मक और नारी विरोधी मानसिकता को उजागर करके उनकी “असली औकात” दिखाने के बाद…”।
विजय तेंडुलकर ने मात्र 6 वर्ष की उम्र में पहली कहानी लिखी और 11 वर्ष की आयु में पहला नाटक लिखा, उसमें अभिनय किया और उसका निर्देशन भी किया। तेंडुलकर का झुकाव वामपंथी विचारधारा की ओर रहा है, लेकिन फ़िर भी भारत की सांस्कृतिक परम्परा और भारत की मिट्टी के प्रति उनका गहरा लगाव था। गुजरात दंगों के बाद उनका वह वक्तव्य बेहद विवादित हुआ था, जिसमें उन्होंने कहा था कि “यदि मेरे पास पिस्तौल होती तो मैं नरेन्द्र मोदी को गोली से उड़ा देता…” हालांकि बाद में उन्होंने सफ़ाई देते हुए कहा था कि गुस्सा किसी भी बात का हल नहीं निकाल सकता और वह वक्तव्य गुस्से में दिया गया था। विजय तेंडुलकर को महाराष्ट्र तथा भारत सरकार की ओर से कई पुरस्कार और सम्मान मिले, जिसमें प्रमुख हैं 1999 में “महाराष्ट्र गौरव”, 1970 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1984 में पद्मभूषण। उनकी लिखी कई फ़िल्मों की पटकथाओं पर कलात्मक फ़िल्में बनीं, जैसे मंथन, निशांत, आक्रोश, अर्धसत्य आदि।
पाकिस्तान में चल रहे नाटक के बारे में एक बात का दुःख जरूर है कि उस नाटक से पैसा बनाने वालों ने तेंडुलकर परिवार को कभी रॉयल्टी का एक रुपया भी ईमानदारी से नहीं दिया है। तेंडुलकर के अवसान के बाद उनकी बौद्धिक सम्पत्ति की देखभाल कर रहीं उनकी पुत्री तनुजा मोहिते ने बताया कि “जब तक बाबा (यानी पिताजी) जीवित थे तब तक तो कई जगहों से ईमानदारी, या शर्म के मारे ही सही रॉयल्टी आ जाती थी, लेकिन उनके निधन के पश्चात इसमें ढील आती जा रही है। श्री तेंडुलकर ने तय किया था कि उनके प्रत्येक प्रमुख नाटक के एक शो पर 1000 रुपये, एकांकी नाटक के प्रति शो 500 रुपये, बाल नाट्य के 300 रुपये तथा लेखों के अनुवाद हेतु प्रति लेख 1500 रुपये रॉयल्टी वे लेंगे। नाटक “शांतता…” के पाकिस्तान में कई सफ़ल शो 500 रुपये प्रति व्यक्ति के टिकट की दर से आयोजित हो चुके हैं, इस नाटक का अनुवाद भी मुम्बई में रहने वाले एक लेखक इंतिज़ार हुसैन ने किया है, लेकिन रॉयल्टी के नाम पर तेंडुलकर परिवार को अब तक कुछ नहीं मिला है। इस सम्बन्ध में सुश्री मोहिते ने बताया कि बौद्धिक सम्पदा की चोरी रोकने के लिये उन्होंने कई कम्युनिटी वेबसाईटों और गूगल अलर्ट पर भी सावधान किया है कि यदि इस प्रकार के नाटक या तेंडुलकर के कोई लेख आदि प्रकाशित होते हैं तो उन्हें 9820362103 पर सम्पर्क करके बताने का कष्ट करें, ताकि रॉयल्टी के बारे में निश्चित स्थिति पता चल सके। उन्होंने आगे बताया कि महाराष्ट्र के छोटे शहरों में कई छोटी संस्थायें हैं जो “बाबा” के नाटकों का मंचन करती हैं और अधिकतर बार ईमानदारी से रॉयल्टी का पैसा देती हैं, या पूर्व-अनुमति लेकर मुफ़्त में नाटक करती हैं… लेकिन बड़ी संस्थायें या जाने-माने नाट्य ग्रुप रॉयल्टी देने में आनाकानी करते हैं।
अपनी पुत्री प्रिया तेंडुलकर (“रजनी” फ़ेम) के निधन (सितम्बर 2002) के पश्चात विजय तेंडुलकर भीतर से टूट गये थे और 19 मई 2008 को पुणे में उनका देहान्त हुआ। इस महान नाटककार को विनम्र श्रद्धांजलि…
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नोट – मेरे कुछ नये पाठकों (जिन्होंने मेरे पुराने लेख नहीं पढ़े) ने ई-मेल पर कहा कि क्या मैं सिर्फ़ कांग्रेस विरोध, राजनीति और “शर्मनिरपेक्षता” आदि पर ही लेख लिखता हूँ? क्योंकि गत 6 महीने में मैंने अधिकतर लेख “राजनीति, समाज और हिन्दुत्व को हो रहे नुकसान पर ही लिखे। इसलिये एक वाम विचारधारा के, धर्म आधारित राजनीति के प्रखर विरोधी, समाज को हिलाकर रख देने वाले कालजयी नाटकों के रचयिता तेंडुलकर, पर यह लेख उनकी शिकायत को दूर करने के लिये है…
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शुक्रवार, 29 मई 2009 13:56
भाजपा ने पश्चिम बंगाल में वामपंथी खेमे की इज्जत बचाई… Vote Share of BJP, Left Parties and Congress in Bengal
भाजपा को पानी पी-पीकर कोसने वालों में वामपंथी सबसे आगे रहते हैं, ये अलग बात है कि भाजपा को गरियाते-गरियाते कब वे खुद ही पूरे भारत में अप्रासंगिक हो गये उन्हें पता ही नहीं चला। लेकिन इस लेख में प्रस्तुत आँकड़े सिद्ध करते हैं कि यदि पश्चिम बंगाल में भाजपा एक “ताकत” के रूप में न उभरती तो वामपंथियों को मुँह छिपाना मुश्किल पड़ जाता। सिर्फ़ और सिर्फ़ भाजपा के कारण पश्चिम बंगाल में कांग्रेस-तृणमूल गठबन्धन को कम से कम 7 सीटों का नुकसान हुआ, जो कि वामपंथी खाते में गई, वरना लाल बन्दरों का तो पूरा “सूपड़ा” ही साफ़ हो जाता। ज़रा एक नज़र डालिये इन पर–
1) बर्दवान सीट पर सीपीएम के उम्मीदवार की जीत का अन्तर है 59,419, जबकि भाजपा उम्मीदवार को मिले 71,632 वोट, सोचिये यदि वहाँ भाजपा का उम्मीदवार ही न होता तो?
2) जलपाईगुड़ी सीट पर भाजपा के उम्मीदवार सुखबिलदास बर्मा ने 94,000 वोट लेकर कांग्रेस को नहीं जीतने दिया, यहाँ से सीपीएम का उम्मीदवार 90,000 वोट से जीता।
3) अलीपुरद्वार में आरएसपी के मनोहर टिर्की जीते 1,12,822 वोट से जबकि भाजपा को आश्चर्यजनक रूप से 1,99,843 वोट मिले और कांग्रेस हार गई।
4) बेलूरघाट सीट पर आरएसपी का उम्मीदवार बड़ी मुश्किल से 5,105 वोट से जीत पाया, जबकि भाजपा उम्मीदवार को मिले 60,000 वोट।
5) फ़ॉरवर्ड ब्लॉक का उम्मीदवार कूच बिहार सीट से 33,632 वोट से जीता, यहाँ भाजपा की झोली में 64,917 वोट आये।
6) मिदनापुर में भाकपा के प्रबोध पाण्डा, भाजपा को मिले 52,000 वोटों की बदौलत हारने से बच गये।
माकपा के स्थानीय नेता भी मानते हैं कि भाजपा के कारण हम भारी शर्मिन्दगी भरी हार से बच गये वरना कांग्रेस-ममता को लगभग 31 सीटें मिलतीं। लगभग यही आरोप ममता बैनर्जी ने भी लगाया और कहा कि भाजपा के उम्मीदवार, वामपंथी खेमे को मदद पहुँचाने के लिये खड़े हैं (हा हा हा हा)।
इस सारे घटनाक्रम से स्पष्ट होता है कि जो बात भाजपा के मामूली कार्यकर्ता को भी मालूम है उससे पार्टी का शीर्ष नेतृत्व कैसे अनजान है, कि भाजपा को अब अकेले चुनाव लड़ना चाहिये। NDA वगैरह बकवास है, यह भाजपा की बढ़त तो रोक ही रहा है, साथ ही साथ उसे वैचारिक रूप से भ्रष्ट भी कर रहा है। “सेकुलरों” की बातों और सेकुलर मीडिया के प्रभाव में आकर भाजपा ने अपनी छवि बदलने का जो प्रयास किया है, अब सिद्ध हो चुका है कि वह प्रयास पूरी तरह से असफ़ल रहा है। सेकुलर बनने के चक्कर में भाजपा “धोबी का कुत्ता” बन गई है। आँकड़ों से स्पष्ट है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा अकेले चुनाव लड़कर राज्य स्तर पर “तीसरी ताकत” के रूप में उभरी है, ऐसा ही समूचे देश में आसानी से किया जा सकता है। जब किसी “मेंढक” से गठबन्धन ही नहीं होगा, तो उसके फ़ुदकने का कोई असर भी नहीं होगा, तब भाजपा अपनी वैचारिक बात जनता तक ठोस रूप में पहुँचाने में कामयाब होगी। इस रणनीति का फ़ायदा दूरगामी होगा, यह करने से लगभग प्रत्येक गैर-भाजपा शासित राज्य में भाजपा दूसरी या तीसरी शक्ति के रूप में “अकेले” उभरेगी। ऐसे में स्थानीय पार्टियाँ बगैर शर्त के और स्वाभाविक रूप से भाजपा के पाले में आयेंगी क्योंकि देर-सवेर कांग्रेस या तो उन्हें “खाने” वाली है या अपने दरवाजे पर अपमानित करके खड़ा करेगी, तब ऐसी स्थानीय पार्टियों से “लोकसभा में हम और विधानसभा में तुम” की तर्ज पर समझौता किया जा सकता है, जैसा कि पश्चिम बंगाल में दार्जीलिंग सीट पर किया गया और जसवन्त सिंह तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद विजेता बने, कृष्णनगर में भी भाजपा प्रत्याशी को 1,75,283 वोट मिले। भाजपा के प्रदेश महासचिव राहुल सिन्हा कहते हैं कि “यह सफ़लता बंगाल में हमारे संगठनात्मक ढाँचे की ताकत के कारण मिली है…”। क्षेत्रीय पार्टियाँ हों या वामपंथी, ये लोग जब तक भाजपा को अपना प्रतिद्वन्द्वी नम्बर एक मानते रहेंगे, तब तक कांग्रेस मजे करती रहेगी, क्योंकि उसने बड़ी चतुराई से अपनी छवि “मध्यमार्गी” की बना रखी है और “धर्मनिरपेक्षता” नाम का ऐसा सिक्का चला दिया है कि बाकी सभी पार्टियों को मजबूरन कांग्रेस का साथ देना ही पड़ता है।
पश्चिम बंगाल में भाजपा सभी 42 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ी, एक सीट (दार्जीलिंग) जीती, लेकिन कम से कम दस सीटों पर उसने कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया। एक चुनाव हारने पर भाजपा को दिन-रात सलाह देने में लगे ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे भी “लाल-गढ़” में भाजपा प्रत्याशियों को मिले वोटों को देखकर हैरान होंगे, लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है, जिस तरह उत्तरप्रदेश में कांग्रेस अकेले लड़ी और जीती, भाजपा भी अकेले ही लड़े। इस बार नहीं तो अगले चुनाव में, अगले नहीं तो उसके अगले चुनाव में, जीत निश्चित मिलेगी। आज लाखों-करोड़ों लोग कांग्रेस-वामपंथियों की नीतियों से त्रस्त हो चुके हैं, उनकी भावनाओं को आवाज़ देने वाली कोई पार्टी उन्हें दिखाई नहीं दे रही, इसलिये उन्होंने कांग्रेस को ही चुन लिया, जब उनके पास एक सशक्त विकल्प मौजूद रहेगा तब वे निश्चित ही उसे चुनेंगे। लेकिन लौहपुरुष का विशेषण और कंधार जैसा शर्मनाक समर्पण तथा राम मन्दिर आंदोलन और जिन्ना की मज़ार पर जाने जैसा वैचारिक अन्तर्द्वन्द्व अब नहीं चलेगा। पश्चिम बंगाल जैसे राजनैतिक रूप से संवेदनशील, लगभग 23 सीटों पर 40% से अधिक मुस्लिम वोटरों तथा वामपंथियों द्वारा इतने वर्षों से शासित राज्य में भाजपाई उम्मीदवारों को कई जगह एक लाख से अधिक वोट मिल रहे हैं, इसका क्या अर्थ है यह मेरे जैसे छोटे से व्यक्ति को समझाने की जरूरत नहीं है।
रही बात वामपंथियों की तो उन्हें भाजपा का शुक्र मनाना चाहिये कि उनकी कम से कम 6-7 सीटें भाजपा के कारण ही बचीं, वरना इज्जत पूरी लुट ही गई थी, लेकिन वे ऐसा करेंगे नहीं। रस्सी तो जल गई है, मगर……
(खबर का मूल स्रोत यहाँ है)
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1) बर्दवान सीट पर सीपीएम के उम्मीदवार की जीत का अन्तर है 59,419, जबकि भाजपा उम्मीदवार को मिले 71,632 वोट, सोचिये यदि वहाँ भाजपा का उम्मीदवार ही न होता तो?
2) जलपाईगुड़ी सीट पर भाजपा के उम्मीदवार सुखबिलदास बर्मा ने 94,000 वोट लेकर कांग्रेस को नहीं जीतने दिया, यहाँ से सीपीएम का उम्मीदवार 90,000 वोट से जीता।
3) अलीपुरद्वार में आरएसपी के मनोहर टिर्की जीते 1,12,822 वोट से जबकि भाजपा को आश्चर्यजनक रूप से 1,99,843 वोट मिले और कांग्रेस हार गई।
4) बेलूरघाट सीट पर आरएसपी का उम्मीदवार बड़ी मुश्किल से 5,105 वोट से जीत पाया, जबकि भाजपा उम्मीदवार को मिले 60,000 वोट।
5) फ़ॉरवर्ड ब्लॉक का उम्मीदवार कूच बिहार सीट से 33,632 वोट से जीता, यहाँ भाजपा की झोली में 64,917 वोट आये।
6) मिदनापुर में भाकपा के प्रबोध पाण्डा, भाजपा को मिले 52,000 वोटों की बदौलत हारने से बच गये।
माकपा के स्थानीय नेता भी मानते हैं कि भाजपा के कारण हम भारी शर्मिन्दगी भरी हार से बच गये वरना कांग्रेस-ममता को लगभग 31 सीटें मिलतीं। लगभग यही आरोप ममता बैनर्जी ने भी लगाया और कहा कि भाजपा के उम्मीदवार, वामपंथी खेमे को मदद पहुँचाने के लिये खड़े हैं (हा हा हा हा)।
इस सारे घटनाक्रम से स्पष्ट होता है कि जो बात भाजपा के मामूली कार्यकर्ता को भी मालूम है उससे पार्टी का शीर्ष नेतृत्व कैसे अनजान है, कि भाजपा को अब अकेले चुनाव लड़ना चाहिये। NDA वगैरह बकवास है, यह भाजपा की बढ़त तो रोक ही रहा है, साथ ही साथ उसे वैचारिक रूप से भ्रष्ट भी कर रहा है। “सेकुलरों” की बातों और सेकुलर मीडिया के प्रभाव में आकर भाजपा ने अपनी छवि बदलने का जो प्रयास किया है, अब सिद्ध हो चुका है कि वह प्रयास पूरी तरह से असफ़ल रहा है। सेकुलर बनने के चक्कर में भाजपा “धोबी का कुत्ता” बन गई है। आँकड़ों से स्पष्ट है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा अकेले चुनाव लड़कर राज्य स्तर पर “तीसरी ताकत” के रूप में उभरी है, ऐसा ही समूचे देश में आसानी से किया जा सकता है। जब किसी “मेंढक” से गठबन्धन ही नहीं होगा, तो उसके फ़ुदकने का कोई असर भी नहीं होगा, तब भाजपा अपनी वैचारिक बात जनता तक ठोस रूप में पहुँचाने में कामयाब होगी। इस रणनीति का फ़ायदा दूरगामी होगा, यह करने से लगभग प्रत्येक गैर-भाजपा शासित राज्य में भाजपा दूसरी या तीसरी शक्ति के रूप में “अकेले” उभरेगी। ऐसे में स्थानीय पार्टियाँ बगैर शर्त के और स्वाभाविक रूप से भाजपा के पाले में आयेंगी क्योंकि देर-सवेर कांग्रेस या तो उन्हें “खाने” वाली है या अपने दरवाजे पर अपमानित करके खड़ा करेगी, तब ऐसी स्थानीय पार्टियों से “लोकसभा में हम और विधानसभा में तुम” की तर्ज पर समझौता किया जा सकता है, जैसा कि पश्चिम बंगाल में दार्जीलिंग सीट पर किया गया और जसवन्त सिंह तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद विजेता बने, कृष्णनगर में भी भाजपा प्रत्याशी को 1,75,283 वोट मिले। भाजपा के प्रदेश महासचिव राहुल सिन्हा कहते हैं कि “यह सफ़लता बंगाल में हमारे संगठनात्मक ढाँचे की ताकत के कारण मिली है…”। क्षेत्रीय पार्टियाँ हों या वामपंथी, ये लोग जब तक भाजपा को अपना प्रतिद्वन्द्वी नम्बर एक मानते रहेंगे, तब तक कांग्रेस मजे करती रहेगी, क्योंकि उसने बड़ी चतुराई से अपनी छवि “मध्यमार्गी” की बना रखी है और “धर्मनिरपेक्षता” नाम का ऐसा सिक्का चला दिया है कि बाकी सभी पार्टियों को मजबूरन कांग्रेस का साथ देना ही पड़ता है।
पश्चिम बंगाल में भाजपा सभी 42 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ी, एक सीट (दार्जीलिंग) जीती, लेकिन कम से कम दस सीटों पर उसने कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया। एक चुनाव हारने पर भाजपा को दिन-रात सलाह देने में लगे ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे भी “लाल-गढ़” में भाजपा प्रत्याशियों को मिले वोटों को देखकर हैरान होंगे, लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है, जिस तरह उत्तरप्रदेश में कांग्रेस अकेले लड़ी और जीती, भाजपा भी अकेले ही लड़े। इस बार नहीं तो अगले चुनाव में, अगले नहीं तो उसके अगले चुनाव में, जीत निश्चित मिलेगी। आज लाखों-करोड़ों लोग कांग्रेस-वामपंथियों की नीतियों से त्रस्त हो चुके हैं, उनकी भावनाओं को आवाज़ देने वाली कोई पार्टी उन्हें दिखाई नहीं दे रही, इसलिये उन्होंने कांग्रेस को ही चुन लिया, जब उनके पास एक सशक्त विकल्प मौजूद रहेगा तब वे निश्चित ही उसे चुनेंगे। लेकिन लौहपुरुष का विशेषण और कंधार जैसा शर्मनाक समर्पण तथा राम मन्दिर आंदोलन और जिन्ना की मज़ार पर जाने जैसा वैचारिक अन्तर्द्वन्द्व अब नहीं चलेगा। पश्चिम बंगाल जैसे राजनैतिक रूप से संवेदनशील, लगभग 23 सीटों पर 40% से अधिक मुस्लिम वोटरों तथा वामपंथियों द्वारा इतने वर्षों से शासित राज्य में भाजपाई उम्मीदवारों को कई जगह एक लाख से अधिक वोट मिल रहे हैं, इसका क्या अर्थ है यह मेरे जैसे छोटे से व्यक्ति को समझाने की जरूरत नहीं है।
रही बात वामपंथियों की तो उन्हें भाजपा का शुक्र मनाना चाहिये कि उनकी कम से कम 6-7 सीटें भाजपा के कारण ही बचीं, वरना इज्जत पूरी लुट ही गई थी, लेकिन वे ऐसा करेंगे नहीं। रस्सी तो जल गई है, मगर……
(खबर का मूल स्रोत यहाँ है)
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मंगलवार, 26 मई 2009 12:13
क्या वोटिंग मशीनों का “चावला-करण” किया जा सकता है? Electronic Voting Machines Fraud Rigging in Elections
अमेरिका के एक रिटायर्ड प्रोफ़ेसर साईंनाथ ने यह दावा किया है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों से छेड़छाड़ करके उनके द्वारा धोख़ाधड़ी की जा सकती है। श्री साईंनाथ ने सन् 2004 के चुनावों के दौरान इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों की गुणवत्ता और विश्वसनीयता को लेकर एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगाई थी, उन्हें शक था कि शायद NDA लोकसभा चुनावों में इन मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर धांधली कर सकता है। हालांकि कांग्रेस के चुनाव जीतने की दशा में उन्होंने अपना केस वापस ले लिया था। साईनाथ ने अमेरिका में सम्पन्न हुए चुनावों में भी इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी कैसे की जा सकती है इसका प्रदर्शन किया था।
इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों मे गड़बड़ी करना एक “बच्चों का खेल” है, यह बताते हुए प्रोफ़ेसर साईनाथ कहते हैं (रिपोर्ट यहाँ देखें http://www.indianexpress.com/oldStory/45296/) कि EVM (Electronic Voting Machines) को नियन्त्रित करने वाली कम्प्यूटर चिप को एक विशिष्ट तरीके से प्रोग्राम करके इस प्रकार से सेट किया जा सकता है कि उस मशीन में पड़ने वाले वोटों का एक निश्चित प्रतिशत एक पूर्व-निर्धारित उम्मीदवार के खाते में ही जाये, चाहे कोई भी बटन दबाया गया हो। इस प्रकार की और भी गड़बड़ियाँ मशीन में पैदा की जा सकती हैं। मशीनों में की गई इस प्रकार की छेड़छाड़ को पकड़ना आसान नहीं होता, पार्टियों के “लगभग अनपढ़” चुनाव एजेण्टों के लिये तो बिलकुल भी नहीं। उल्लेखनीय है कि EVM उम्मीदवारों के क्रमवार नम्बर के आधार पर वोटिंग की गणना करती है। नामांकन हो चुकने के बाद यह तय होता कि किस क्षेत्र की मशीन में किस पार्टी के किस उम्मीदवार का नाम कौन से क्रम पर रहेगा। प्रोफ़ेसर साईनाथ के अनुसार नाम वापसी के बाद दो सप्ताह का समय बीच में होता है, इस बीच में मशीनों में कम्प्यूटर चिप की जगह “Pre-Coded Malicious” चिप स्थापित की जा सकती हैं, अथवा सम्भव हुआ तो पूरी की पूरी मशीन भी नकली स्थापित की जा सकती है और यह निश्चित किया जा सकता है कि कौन सी मशीन किस इलाके में जायेगी।
(श्री साईनाथ 1964 की बैच के आईआईटी इंजीनियर हैं, फ़िलहाल अमेरिका में कम्प्यूटर साइंस के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर हैं, और “Better Democracy Forum” नाम की संस्था के अध्यक्ष भी हैं)।
इस प्रक्रिया में चुनाव अधिकारी (जो कि अधिकतर सत्ताधारी पार्टी के इशारों पर ही नाचते हैं) की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसे में एक गम्भीर सवाल उठता है कि क्या इन मशीनों का “चावलाईकरण” किया जा सकता है? “चावलाईकरण” की उपमा इसलिये, क्योंकि चुनावों में धांधली का कांग्रेस का इतिहास बहुत पुराना है। ऊपर से इस पार्टी को नवीन चावला जैसे “स्वामीभक्त” चुनाव आयुक्त भी प्राप्त होते रहे हैं (इसका एक और सबूत, मान्य संवैधानिक परम्पराओं के विपरीत, सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद पूर्व चुनाव आयुक्त एम एस गिल को मंत्रीपद की रेवड़ी दिया जाना भी है)।
शिवसेना ने चुनाव आयोग को इन वोटिंग मशीनों द्वारा धांधली किये जाने की आशंका व्यक्त करते हुए इनकी जाँच की माँग करते हुए लिखित में शिकायत की है, जिसमें बताया गया है कि दक्षिण मुम्बई से शिवसेना के लोकप्रिय उम्मीदवार मोहन रावले को कई वोटिंग मशीनों पर शक है, क्योंकि उन्हें शिवसेना के कुछ मजबूत माने जाने वाले इलाकों में से कई मशीनों में 5 या 7 वोट ही मिले (क्या मोहन रावले अचानक अपने ही गढ़ में इतने अलोकप्रिय हो गये?)। रावले ने आगे बताया कि अमेरिका और इंडोनेशिया में भी इन मशीनों के “ठीक से काम न करने” की वजह से इन्हें चुनाव प्रक्रिया से हटा लिया गया था।
अब नज़र डालते हैं हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनावों के नतीजों पर – पूरे देश में (जहाँ भाजपा का शासन था उन राज्यों को छोड़कर) लगभग सारे नतीजे कुछ इस प्रकार से आये हैं कि जो भी पार्टी कांग्रेस के लिये “सिरदर्द” साबित हो सकती थी या पिछली सरकार में सिरदर्द थी, उनका या तो सफ़ाया हो गया अथवा वे पार्टियाँ लगभग निष्क्रिय अवस्था में पहुँच गईं, उदाहरण के तौर पर – वामपंथियों की सीटें 50% कम हो गईं, मायावती भी लगभग 50% नीचे पहुँच गईं (जबकि सभी सर्वे, चैनल और विशेषज्ञ उनसे बेहतर नतीजों की उम्मीद कर रहे थे), जयललिता भी कुछ खास नहीं कर पाईं और तमिल भावनाओं के उफ़ान और सत्ता विरोधी लहर के बावजूद डीएमके को अच्छी खासी सीटें मिल गईं, लालू-पासवान का सफ़ाया हो गया, आंध्र में चिरंजीवी से खासी उम्मीद लगाये बैठे थे, वे भी कुछ खास न कर सके। जबकि दूसरी तरफ़ आंध्रप्रदेश में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल गया, उत्तरप्रदेश में (कांग्रेस की) आशा के विपरीत भारी सफ़लता मिली, उड़ीसा में नवीन पटनायक को अकेले दम पर बहुमत मिल गया। जबकि कर्नाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस उतना अच्छा नहीं कर पाई, ऐसा क्यों?
ऐसा नहीं कि खामख्वाह बाल की खाल निकाली जा रहा है, भारत और विश्व के अन्य हिस्सों में भी ताज़ा लोकसभा चुनाव नतीजों को लेकर संशय बना हुआ है, इसका सबूत गूगल की सर्च रिपोर्ट से देखा जा सकता है, जहाँ कि जनता ने ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की आशंका और इनकी विश्वसनीयता को लेकर विभिन्न सर्च किये हैं… यहाँ देखें
http://www.google.com/trends?q=electronic+voting+machine&ctab=398065024&geo=all&date=all
इसी प्रकार अमेरिका के कुछ कम्प्यूटर इंजीनियरों द्वारा फ़्लोरिडा के गवर्नर चुनावों के बाद ई-वोटिंग मशीनों की संदिग्धता के बारे में एक रिपोर्ट की पीडीएफ़ फ़ाइल भी यहाँ देखें…
http://www.computer.org/portal/cms_docs_computer/computer/homepage/May09/r5pra.pdf
तात्पर्य यह कि यदि भारत का मतदाता वाकई में इतना समझदार, परिपक्व और “स्थिरता”(?) के प्रति सम्मोहित हो गया है तब तो यह लोकतन्त्र के लिये अच्छी बात है, लेकिन यदि जैसा कि अभी भी कई लोगों को शक हो रहा है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी की गई है, तब तो स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण कही जायेगी। हालांकि अभी इस बात के कोई प्रमाण मौजूद नहीं हैं, लेकिन शक के आधार पर इन मशीनों की जाँच हेतु एक दल या आयोग बनाये जाने की आवश्यकता है, कि जब अमेरिका में भी इन मशीनों को “संदिग्ध” पाया गया है तो भारत में भी इसकी विश्वसनीयता की “फ़ुलप्रूफ़” जाँच होनी ही चाहिये। सोचिये, कि अभी तो यह सिर्फ़ शक ही है, कोई सबूत नहीं… लेकिन यदि कहीं कोई सबूत मिल गया तो 60 साल पुराने लोकतन्त्र का क्या होगा?
EVM in India, Electronic Voting Machines and its Authenticity, EVM is not full proof, Fraud through EVMs, Election Process in India and Electronic Voting Machines, Professor Sainath on EVM, Navin Chawla, MS Gill, Election Commission of India, Loksabha Polls 2009 in India, ईवीएम, भारत के चुनावों में ईवीएम का उपयोग, इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों द्वारा चुनावों में धांधली, ईवीएम मशीनें और भारत की चुनाव प्रक्रिया, नवीन चावला, एमएस गिल, भारत निर्वाचन आयोग, भारत में लोकसभा चुनाव 2009, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों मे गड़बड़ी करना एक “बच्चों का खेल” है, यह बताते हुए प्रोफ़ेसर साईनाथ कहते हैं (रिपोर्ट यहाँ देखें http://www.indianexpress.com/oldStory/45296/) कि EVM (Electronic Voting Machines) को नियन्त्रित करने वाली कम्प्यूटर चिप को एक विशिष्ट तरीके से प्रोग्राम करके इस प्रकार से सेट किया जा सकता है कि उस मशीन में पड़ने वाले वोटों का एक निश्चित प्रतिशत एक पूर्व-निर्धारित उम्मीदवार के खाते में ही जाये, चाहे कोई भी बटन दबाया गया हो। इस प्रकार की और भी गड़बड़ियाँ मशीन में पैदा की जा सकती हैं। मशीनों में की गई इस प्रकार की छेड़छाड़ को पकड़ना आसान नहीं होता, पार्टियों के “लगभग अनपढ़” चुनाव एजेण्टों के लिये तो बिलकुल भी नहीं। उल्लेखनीय है कि EVM उम्मीदवारों के क्रमवार नम्बर के आधार पर वोटिंग की गणना करती है। नामांकन हो चुकने के बाद यह तय होता कि किस क्षेत्र की मशीन में किस पार्टी के किस उम्मीदवार का नाम कौन से क्रम पर रहेगा। प्रोफ़ेसर साईनाथ के अनुसार नाम वापसी के बाद दो सप्ताह का समय बीच में होता है, इस बीच में मशीनों में कम्प्यूटर चिप की जगह “Pre-Coded Malicious” चिप स्थापित की जा सकती हैं, अथवा सम्भव हुआ तो पूरी की पूरी मशीन भी नकली स्थापित की जा सकती है और यह निश्चित किया जा सकता है कि कौन सी मशीन किस इलाके में जायेगी।
(श्री साईनाथ 1964 की बैच के आईआईटी इंजीनियर हैं, फ़िलहाल अमेरिका में कम्प्यूटर साइंस के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर हैं, और “Better Democracy Forum” नाम की संस्था के अध्यक्ष भी हैं)।
इस प्रक्रिया में चुनाव अधिकारी (जो कि अधिकतर सत्ताधारी पार्टी के इशारों पर ही नाचते हैं) की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसे में एक गम्भीर सवाल उठता है कि क्या इन मशीनों का “चावलाईकरण” किया जा सकता है? “चावलाईकरण” की उपमा इसलिये, क्योंकि चुनावों में धांधली का कांग्रेस का इतिहास बहुत पुराना है। ऊपर से इस पार्टी को नवीन चावला जैसे “स्वामीभक्त” चुनाव आयुक्त भी प्राप्त होते रहे हैं (इसका एक और सबूत, मान्य संवैधानिक परम्पराओं के विपरीत, सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद पूर्व चुनाव आयुक्त एम एस गिल को मंत्रीपद की रेवड़ी दिया जाना भी है)।
शिवसेना ने चुनाव आयोग को इन वोटिंग मशीनों द्वारा धांधली किये जाने की आशंका व्यक्त करते हुए इनकी जाँच की माँग करते हुए लिखित में शिकायत की है, जिसमें बताया गया है कि दक्षिण मुम्बई से शिवसेना के लोकप्रिय उम्मीदवार मोहन रावले को कई वोटिंग मशीनों पर शक है, क्योंकि उन्हें शिवसेना के कुछ मजबूत माने जाने वाले इलाकों में से कई मशीनों में 5 या 7 वोट ही मिले (क्या मोहन रावले अचानक अपने ही गढ़ में इतने अलोकप्रिय हो गये?)। रावले ने आगे बताया कि अमेरिका और इंडोनेशिया में भी इन मशीनों के “ठीक से काम न करने” की वजह से इन्हें चुनाव प्रक्रिया से हटा लिया गया था।
अब नज़र डालते हैं हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनावों के नतीजों पर – पूरे देश में (जहाँ भाजपा का शासन था उन राज्यों को छोड़कर) लगभग सारे नतीजे कुछ इस प्रकार से आये हैं कि जो भी पार्टी कांग्रेस के लिये “सिरदर्द” साबित हो सकती थी या पिछली सरकार में सिरदर्द थी, उनका या तो सफ़ाया हो गया अथवा वे पार्टियाँ लगभग निष्क्रिय अवस्था में पहुँच गईं, उदाहरण के तौर पर – वामपंथियों की सीटें 50% कम हो गईं, मायावती भी लगभग 50% नीचे पहुँच गईं (जबकि सभी सर्वे, चैनल और विशेषज्ञ उनसे बेहतर नतीजों की उम्मीद कर रहे थे), जयललिता भी कुछ खास नहीं कर पाईं और तमिल भावनाओं के उफ़ान और सत्ता विरोधी लहर के बावजूद डीएमके को अच्छी खासी सीटें मिल गईं, लालू-पासवान का सफ़ाया हो गया, आंध्र में चिरंजीवी से खासी उम्मीद लगाये बैठे थे, वे भी कुछ खास न कर सके। जबकि दूसरी तरफ़ आंध्रप्रदेश में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल गया, उत्तरप्रदेश में (कांग्रेस की) आशा के विपरीत भारी सफ़लता मिली, उड़ीसा में नवीन पटनायक को अकेले दम पर बहुमत मिल गया। जबकि कर्नाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस उतना अच्छा नहीं कर पाई, ऐसा क्यों?
ऐसा नहीं कि खामख्वाह बाल की खाल निकाली जा रहा है, भारत और विश्व के अन्य हिस्सों में भी ताज़ा लोकसभा चुनाव नतीजों को लेकर संशय बना हुआ है, इसका सबूत गूगल की सर्च रिपोर्ट से देखा जा सकता है, जहाँ कि जनता ने ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की आशंका और इनकी विश्वसनीयता को लेकर विभिन्न सर्च किये हैं… यहाँ देखें
http://www.google.com/trends?q=electronic+voting+machine&ctab=398065024&geo=all&date=all
इसी प्रकार अमेरिका के कुछ कम्प्यूटर इंजीनियरों द्वारा फ़्लोरिडा के गवर्नर चुनावों के बाद ई-वोटिंग मशीनों की संदिग्धता के बारे में एक रिपोर्ट की पीडीएफ़ फ़ाइल भी यहाँ देखें…
http://www.computer.org/portal/cms_docs_computer/computer/homepage/May09/r5pra.pdf
तात्पर्य यह कि यदि भारत का मतदाता वाकई में इतना समझदार, परिपक्व और “स्थिरता”(?) के प्रति सम्मोहित हो गया है तब तो यह लोकतन्त्र के लिये अच्छी बात है, लेकिन यदि जैसा कि अभी भी कई लोगों को शक हो रहा है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी की गई है, तब तो स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण कही जायेगी। हालांकि अभी इस बात के कोई प्रमाण मौजूद नहीं हैं, लेकिन शक के आधार पर इन मशीनों की जाँच हेतु एक दल या आयोग बनाये जाने की आवश्यकता है, कि जब अमेरिका में भी इन मशीनों को “संदिग्ध” पाया गया है तो भारत में भी इसकी विश्वसनीयता की “फ़ुलप्रूफ़” जाँच होनी ही चाहिये। सोचिये, कि अभी तो यह सिर्फ़ शक ही है, कोई सबूत नहीं… लेकिन यदि कहीं कोई सबूत मिल गया तो 60 साल पुराने लोकतन्त्र का क्या होगा?
EVM in India, Electronic Voting Machines and its Authenticity, EVM is not full proof, Fraud through EVMs, Election Process in India and Electronic Voting Machines, Professor Sainath on EVM, Navin Chawla, MS Gill, Election Commission of India, Loksabha Polls 2009 in India, ईवीएम, भारत के चुनावों में ईवीएम का उपयोग, इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों द्वारा चुनावों में धांधली, ईवीएम मशीनें और भारत की चुनाव प्रक्रिया, नवीन चावला, एमएस गिल, भारत निर्वाचन आयोग, भारत में लोकसभा चुनाव 2009, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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ब्लॉग
शुक्रवार, 08 मई 2009 16:20
तमिल चीतों के सफ़ाये में चीन की भूमिका और भारत मूक दर्शक China’s role in Tamil Tiger Eradication
जब श्रीलंका ने तमिल चीतों पर निर्णायक हमला बोलने का निर्णय लिया तब कई लोगों को आश्चर्य हुआ था, कि आखिर श्रीलंका कैसे यह कर सकेगा। लेकिन इलाके पर बारीक नज़र रखने वाले विशेषज्ञ जानते थे कि चीन का हाथ अब पूरी तरह से श्रीलंका की पीठ पर है और प्रभाकरन सिर्फ़ कुछ ही दिनों का मेहमान है। चीन की मदद से न सिर्फ़ श्रीलंका ने जफ़ना और त्रिंकोमाली पर पकड़ मजबूत कर ली बल्कि “अन्तर्राष्ट्रीय आवाजों” और “पश्चिम की चिंताओं” की परवाह भी नहीं की।
श्रीलंका के दक्षिणी तट पर, विश्व के सबसे व्यस्ततम जलमार्ग से सिर्फ़ 10 समुद्री मील दूर एक विशालकाय निर्माण कार्य चल रहा है। “हम्बनतोटा” नामक इस मछलीमार गाँव की शान्ति भारी मशीनों ने भंग की हुई है… यहाँ चीन की आर्थिक और तकनीकी मदद से एक बहुत बड़ा बन्दरगाह बनाया जा रहा है, जिसे चीन अपने हितों के लिये उपयोग करेगा।
मार्च 2007 में जब श्रीलंका और चीन की सरकारों के बीच इस बन्दरगाह को बनाने का समझौता हुआ तभी से (यानी पिछले दो साल से) चीन ने श्रीलंका को इसके बदले में हथियार, अन्य साजो-सामान की सहायता और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनोवैज्ञानिक मदद सब कुछ दिया। असल में लगभग 1 अरब डॉलर की भारी-भरकम लागत से बनने वाले इस सैनिक-असैनिक बन्दरगाह से चीन अपने सभी जहाजों और तेल टैंकरों की मरम्मत और ईंधन की देखभाल तो करेगा ही, इस सामरिक रूप से महत्वपूर्ण समुद्री इलाके से सऊदी अरब द्वारा आने वाले उसके तेल पर भी नज़र रखेगा। भले ही चीन कहे कि यह एक व्यावसायिक बन्दरगाह है और श्रीलंका का इस पर पूरा नियन्त्रण होगा, लेकिन जो लोग चीन को जानते हैं वे यह जानते हैं कि चीन इस बन्दरगाह का उपयोग निश्चित रूप से क्षेत्र में अपनी सामरिक उपस्थिति दर्ज करने के लिये करेगा, और दक्षिण प्रशान्त और हिन्द महासागर में उसकी एक मजबूत उपस्थिति हो जायेगी।
इस जलमार्ग की विशिष्टता और उपयोगिता कितनी है यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि 1957 तक ब्रिटेन ने भी त्रिंकोमाली में अपना नौसेनिक अड्डा बनाया हुआ था और आज भी दिएगो गार्सिया में वह अमेरिका के साथ साझेदारी में एक महत्वपूर्ण द्वीप पर काबिज है। चीन की नज़र श्रीलंका पर 1990 से ही थी, लेकिन अब तमिल चीतों के सफ़ाये में मदद के बहाने से चीन ने श्रीलंका में पूरी तरह से घुसपैठ कर ली है, जब पश्चिमी देशों और भारत ने श्रीलंका को मदद देने से इंकार कर दिया तब चीन ने सभी को ठेंगे पर रखते हुए “लंका लॉजिस्टिक्स एण्ड टेक्नोलॉजीस” (जिसके मालिक श्रीलंकाई राष्ट्रपति के भाई गोतभाया राजपक्षे हैं) से श्रीलंका को खुलकर भारी हथियार दिये। अप्रैल 2007 में 40 करोड़ डॉलर के हथियारों के बाद छः F-7 विमान भी लगभग मुफ़्त में उसने श्रीलंका को दिये ताकि वह लिट्टे के हवाई हमलों से निपट सके। क्या इतना सब चीन मानवता के नाते कर रहा है? कोई मूर्ख ही यह सोच सकता है। खासकर तब, जबकि चीन ने पिछले दस साल में पाकिस्तान में ग्वादर बन्दरगाह, बांग्लादेश में चटगाँव बन्दरगाह और बर्मा में सिटवे बन्दरगाह को आधुनिक बनाने में अच्छा-खासा पैसा खर्च किया है। (खबर यहाँ देखें)
क्या अब किसी के कानों में खतरे की घंटी बजी? जरूर बजी, हरेक समझदार व्यक्ति इस खतरे को भाँप रहा है, सिवाय भारत की कांग्रेसी सरकार के, जिसकी विदेश नीति की विफ़लता का आलम यह है कि तिब्बत के बाद अब नेपाल के रास्ते चीन पूर्वी सीमा पर आन खड़ा हुआ है तथा देश के चारों ओर महत्वपूर्ण ठिकानों पर अपने बन्दरगाह बना चुका है। सिर्फ़ अमेरिका की चमचागिरी करना ही “विदेश नीति” नहीं होती, यह बात कौन हमारे नेताओं को समझायेगा? आखिर कब भारत एक तनकर खड़ा होने वाला देश बनेगा। तथाकथित मानवाधिकारों की परवाह किये बिना कब भारत “अपने फ़ायदे” के बारे में सोचेगा? जो कुछ चीन ने श्रीलंका में किया क्या हम नहीं कर सकते थे? बांग्लादेश और पाकिस्तान को छोड़ भी दें (क्योंकि वे इस्लामिक देश हैं) तब भी कम से कम श्रीलंका और बर्मा में भारत अपने “पैर” जमा सकता था, लेकिन हमारी सरकारों को कभी करुणानिधि का डर सताता है, कभी “मानवाधिकारवादियों” का, तो कभी “लाल झण्डे वालों” का…, देश का फ़ायदा (दूरगामी फ़ायदा) कैसे हो यह सोचने की फ़ुर्सत किसी के पास नहीं है। उधर महिन्द्रा राजपक्षे की चारों तरफ़ से मौज है, सन् 2005 से लेकर अब तक चीन उसे 1 अरब डॉलर की अतिरिक्त मदद दे चुका है, जबकि इसी अवधि में अमेरिका ने सिर्फ़ 7 करोड़ डॉलर और ब्रिटेन ने सिर्फ़ 2 करोड़ पौंड की मदद दी है। आतंकवाद से लड़ने के नाम पर राजपक्षे विश्व की सहानुभूति तो बटोर ही रहे हैं, माल भी बटोर रहे हैं। चीन ने उसे संयुक्त राष्ट्र में उठने वाली किसी भी आपत्ति पर कान न देने को कहा है, और श्रीलंका जानता है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन का वरदहस्त होने के क्या मायने हैं, इसलिये वह भारत को भी “भाव” देने को तैयार नहीं हैं, जबकि इधर भारतीय नेता खामखा मुगालते में बैठे हैं कि श्रीलंका हमारी कोई भी बात सुनेगा।
इस सारे झमेले में एक “मिशनरी/चर्च” का कोण भी है, जिसकी तरफ़ अभी बहुत कम लोगों का ही ध्यान गया है। श्रीलंका में बरसों से जारी सिंहली-तमिल संघर्ष के दौरान जिस लिट्टे का जन्म हुआ, अब वह लिट्टे पुराना लिट्टे नहीं रहा। उसके प्रमुख प्रभाकरण भी ईसाई बन चुके और कई प्रमुख ओहदेदार भी। लिट्टे अपने सदस्यों का अन्तिम संस्कार भी नहीं करने देता बल्कि उन्हें कब्र में दफ़नाया जाता है। लिट्टे की सबसे बड़ी आर्थिक और शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति करने वाली संस्था रही “पश्चिम का एवेंजेलिकल चर्च”। चर्च (खासकर नॉर्वे, जर्मनी, स्पेन) और पश्चिम के अन्य देशों के पैसों के बल पर तमिलनाडु और उत्तरी श्रीलंका को मिलाकर एक “तमिल ईलम” बनाने की योजना थी, फ़िलहाल जिस पर चीन की मेहरबानी से पानी फ़िर गया है। गत 5 साल में चर्च का सर्वाधिक पैसा भारत में जिस राज्य में आया है वह “तमिलनाडु” है। करुणानिधि भले ही अपने-आप को नास्तिक बताते रहे हों, लेकिन गले में पीला दुपट्टा ओढ़कर भी वे सदा चर्च की मदद को तत्पर रहे हैं। शंकराचार्य की गिरफ़्तारी हो या चेन्नै हाईकोर्ट में वकीलों द्वारा किया गया उपद्रव हो, हरेक घटना के पीछे द्रमुक का हिन्दू और ब्राह्मणविरोधी रुख स्पष्ट दिखा है। जबकि चीन के लिये अपना फ़ायदा अधिक महत्वपूर्ण है, “चर्च” वगैरह की शक्ति को वह जूते की नोक पर रखता है, इसलिये उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि श्रीलंका में चल रहा संघर्ष असल में “बौद्ध” और “चर्च” का संघर्ष था। पश्चिमी देशों की श्रीलंका में मानवाधिकार आदि की “चिल्लपों” इसी कारण है कि चर्च का काफ़ी पैसा पानी में चला गया, जबकि श्रीलंका सरकार का रुख “कान पर बैठी मक्खी उड़ाने” जैसा इसलिये है, क्योंकि वह जानता है कि चीन उसके साथ है।
फ़िलहाल तो भारत सरकार एक मूक दर्शक की भूमिका में है (जैसा कि वह अधिकतर मामलों में होती है), चाहे करुणानिधि खुलेआम तमिलनाडु में “तमिल ईलम” की स्थापना की घोषणा कर रहे हों, वाइको सरेआम “खून की नदियाँ” बहाने की बात कर रहे हों। छोटी-मोटी पार्टियाँ जनता को उकसाकर भारतीय सेना के ट्रकों को लूट रही हैं, जला रही हैं… लेकिन शायद केन्द्र की कांग्रेस सरकार करुणानिधि या जयललिता से भविष्य में होने वाले राजनैतिक समीकरण पर ध्यान टिकाये हुए है, जयललिता को पटाने में लगी है, फ़िर चाहे “देशहित” जाये भाड़ में।
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श्रीलंका के दक्षिणी तट पर, विश्व के सबसे व्यस्ततम जलमार्ग से सिर्फ़ 10 समुद्री मील दूर एक विशालकाय निर्माण कार्य चल रहा है। “हम्बनतोटा” नामक इस मछलीमार गाँव की शान्ति भारी मशीनों ने भंग की हुई है… यहाँ चीन की आर्थिक और तकनीकी मदद से एक बहुत बड़ा बन्दरगाह बनाया जा रहा है, जिसे चीन अपने हितों के लिये उपयोग करेगा।
मार्च 2007 में जब श्रीलंका और चीन की सरकारों के बीच इस बन्दरगाह को बनाने का समझौता हुआ तभी से (यानी पिछले दो साल से) चीन ने श्रीलंका को इसके बदले में हथियार, अन्य साजो-सामान की सहायता और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनोवैज्ञानिक मदद सब कुछ दिया। असल में लगभग 1 अरब डॉलर की भारी-भरकम लागत से बनने वाले इस सैनिक-असैनिक बन्दरगाह से चीन अपने सभी जहाजों और तेल टैंकरों की मरम्मत और ईंधन की देखभाल तो करेगा ही, इस सामरिक रूप से महत्वपूर्ण समुद्री इलाके से सऊदी अरब द्वारा आने वाले उसके तेल पर भी नज़र रखेगा। भले ही चीन कहे कि यह एक व्यावसायिक बन्दरगाह है और श्रीलंका का इस पर पूरा नियन्त्रण होगा, लेकिन जो लोग चीन को जानते हैं वे यह जानते हैं कि चीन इस बन्दरगाह का उपयोग निश्चित रूप से क्षेत्र में अपनी सामरिक उपस्थिति दर्ज करने के लिये करेगा, और दक्षिण प्रशान्त और हिन्द महासागर में उसकी एक मजबूत उपस्थिति हो जायेगी।
इस जलमार्ग की विशिष्टता और उपयोगिता कितनी है यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि 1957 तक ब्रिटेन ने भी त्रिंकोमाली में अपना नौसेनिक अड्डा बनाया हुआ था और आज भी दिएगो गार्सिया में वह अमेरिका के साथ साझेदारी में एक महत्वपूर्ण द्वीप पर काबिज है। चीन की नज़र श्रीलंका पर 1990 से ही थी, लेकिन अब तमिल चीतों के सफ़ाये में मदद के बहाने से चीन ने श्रीलंका में पूरी तरह से घुसपैठ कर ली है, जब पश्चिमी देशों और भारत ने श्रीलंका को मदद देने से इंकार कर दिया तब चीन ने सभी को ठेंगे पर रखते हुए “लंका लॉजिस्टिक्स एण्ड टेक्नोलॉजीस” (जिसके मालिक श्रीलंकाई राष्ट्रपति के भाई गोतभाया राजपक्षे हैं) से श्रीलंका को खुलकर भारी हथियार दिये। अप्रैल 2007 में 40 करोड़ डॉलर के हथियारों के बाद छः F-7 विमान भी लगभग मुफ़्त में उसने श्रीलंका को दिये ताकि वह लिट्टे के हवाई हमलों से निपट सके। क्या इतना सब चीन मानवता के नाते कर रहा है? कोई मूर्ख ही यह सोच सकता है। खासकर तब, जबकि चीन ने पिछले दस साल में पाकिस्तान में ग्वादर बन्दरगाह, बांग्लादेश में चटगाँव बन्दरगाह और बर्मा में सिटवे बन्दरगाह को आधुनिक बनाने में अच्छा-खासा पैसा खर्च किया है। (खबर यहाँ देखें)
क्या अब किसी के कानों में खतरे की घंटी बजी? जरूर बजी, हरेक समझदार व्यक्ति इस खतरे को भाँप रहा है, सिवाय भारत की कांग्रेसी सरकार के, जिसकी विदेश नीति की विफ़लता का आलम यह है कि तिब्बत के बाद अब नेपाल के रास्ते चीन पूर्वी सीमा पर आन खड़ा हुआ है तथा देश के चारों ओर महत्वपूर्ण ठिकानों पर अपने बन्दरगाह बना चुका है। सिर्फ़ अमेरिका की चमचागिरी करना ही “विदेश नीति” नहीं होती, यह बात कौन हमारे नेताओं को समझायेगा? आखिर कब भारत एक तनकर खड़ा होने वाला देश बनेगा। तथाकथित मानवाधिकारों की परवाह किये बिना कब भारत “अपने फ़ायदे” के बारे में सोचेगा? जो कुछ चीन ने श्रीलंका में किया क्या हम नहीं कर सकते थे? बांग्लादेश और पाकिस्तान को छोड़ भी दें (क्योंकि वे इस्लामिक देश हैं) तब भी कम से कम श्रीलंका और बर्मा में भारत अपने “पैर” जमा सकता था, लेकिन हमारी सरकारों को कभी करुणानिधि का डर सताता है, कभी “मानवाधिकारवादियों” का, तो कभी “लाल झण्डे वालों” का…, देश का फ़ायदा (दूरगामी फ़ायदा) कैसे हो यह सोचने की फ़ुर्सत किसी के पास नहीं है। उधर महिन्द्रा राजपक्षे की चारों तरफ़ से मौज है, सन् 2005 से लेकर अब तक चीन उसे 1 अरब डॉलर की अतिरिक्त मदद दे चुका है, जबकि इसी अवधि में अमेरिका ने सिर्फ़ 7 करोड़ डॉलर और ब्रिटेन ने सिर्फ़ 2 करोड़ पौंड की मदद दी है। आतंकवाद से लड़ने के नाम पर राजपक्षे विश्व की सहानुभूति तो बटोर ही रहे हैं, माल भी बटोर रहे हैं। चीन ने उसे संयुक्त राष्ट्र में उठने वाली किसी भी आपत्ति पर कान न देने को कहा है, और श्रीलंका जानता है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन का वरदहस्त होने के क्या मायने हैं, इसलिये वह भारत को भी “भाव” देने को तैयार नहीं हैं, जबकि इधर भारतीय नेता खामखा मुगालते में बैठे हैं कि श्रीलंका हमारी कोई भी बात सुनेगा।
इस सारे झमेले में एक “मिशनरी/चर्च” का कोण भी है, जिसकी तरफ़ अभी बहुत कम लोगों का ही ध्यान गया है। श्रीलंका में बरसों से जारी सिंहली-तमिल संघर्ष के दौरान जिस लिट्टे का जन्म हुआ, अब वह लिट्टे पुराना लिट्टे नहीं रहा। उसके प्रमुख प्रभाकरण भी ईसाई बन चुके और कई प्रमुख ओहदेदार भी। लिट्टे अपने सदस्यों का अन्तिम संस्कार भी नहीं करने देता बल्कि उन्हें कब्र में दफ़नाया जाता है। लिट्टे की सबसे बड़ी आर्थिक और शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति करने वाली संस्था रही “पश्चिम का एवेंजेलिकल चर्च”। चर्च (खासकर नॉर्वे, जर्मनी, स्पेन) और पश्चिम के अन्य देशों के पैसों के बल पर तमिलनाडु और उत्तरी श्रीलंका को मिलाकर एक “तमिल ईलम” बनाने की योजना थी, फ़िलहाल जिस पर चीन की मेहरबानी से पानी फ़िर गया है। गत 5 साल में चर्च का सर्वाधिक पैसा भारत में जिस राज्य में आया है वह “तमिलनाडु” है। करुणानिधि भले ही अपने-आप को नास्तिक बताते रहे हों, लेकिन गले में पीला दुपट्टा ओढ़कर भी वे सदा चर्च की मदद को तत्पर रहे हैं। शंकराचार्य की गिरफ़्तारी हो या चेन्नै हाईकोर्ट में वकीलों द्वारा किया गया उपद्रव हो, हरेक घटना के पीछे द्रमुक का हिन्दू और ब्राह्मणविरोधी रुख स्पष्ट दिखा है। जबकि चीन के लिये अपना फ़ायदा अधिक महत्वपूर्ण है, “चर्च” वगैरह की शक्ति को वह जूते की नोक पर रखता है, इसलिये उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि श्रीलंका में चल रहा संघर्ष असल में “बौद्ध” और “चर्च” का संघर्ष था। पश्चिमी देशों की श्रीलंका में मानवाधिकार आदि की “चिल्लपों” इसी कारण है कि चर्च का काफ़ी पैसा पानी में चला गया, जबकि श्रीलंका सरकार का रुख “कान पर बैठी मक्खी उड़ाने” जैसा इसलिये है, क्योंकि वह जानता है कि चीन उसके साथ है।
फ़िलहाल तो भारत सरकार एक मूक दर्शक की भूमिका में है (जैसा कि वह अधिकतर मामलों में होती है), चाहे करुणानिधि खुलेआम तमिलनाडु में “तमिल ईलम” की स्थापना की घोषणा कर रहे हों, वाइको सरेआम “खून की नदियाँ” बहाने की बात कर रहे हों। छोटी-मोटी पार्टियाँ जनता को उकसाकर भारतीय सेना के ट्रकों को लूट रही हैं, जला रही हैं… लेकिन शायद केन्द्र की कांग्रेस सरकार करुणानिधि या जयललिता से भविष्य में होने वाले राजनैतिक समीकरण पर ध्यान टिकाये हुए है, जयललिता को पटाने में लगी है, फ़िर चाहे “देशहित” जाये भाड़ में।
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बुधवार, 15 अप्रैल 2009 18:01
टाटा की “नैनो”- सुख ज्यादा देगी या दुःख? Tata, Nano, Road Status in India, Pollution
लगभग सभी बड़े शहरों में नैनो की बुकिंग शुरु हो चुकी है, आर्थिक रूप से सक्षम लोग इसे खरीदने हेतु उतावले हो रहे हैं, जिन्हें छठा वेतनमान मिला है वे अपनी “एक्स्ट्रा इनकम” से नैनो की बुकिंग करने की जुगाड़ में हैं और जो पड़ोसियों से जलन का भाव रखते हैं वे भी खामख्वाह ही लोन लेकर कार के मालिक बनने का सपना देखने लगे हैं। मार्केटिंग और विज्ञापन की ताकत के सहारे नैनो को लेकर जो रेलमपेल मची हुई है, उस चक्कर मे कई मूलभूत सवालों को लोग भूल रहे हैं। बाज़ार और बाज़ार आधारित सरकारें तो सवालों को पहले ही दरकिनार कर चुके होते हैं, लेकिन समाज के अन्य लोग अपना फ़र्ज़ भूलकर “नैनो” की चकाचौंध में क्यों खो गये हैं?
काफ़ी लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि पहले से ही चरमराये हुए आधारभूत ढाँचे पर नैनो कितना बोझ डालेगी और क्या भारत की सड़कें और यातायात व्यवस्था नैनो को झेलने में सक्षम हैं? आप बड़े शहरों में रहने वाले हों या छोटे कस्बे में, अपने आसपास नज़र घुमाईये, क्या आपको नहीं लगता कि नैनो (अभी तो नैनो ही आई है, पीछे-पीछे कई और भी आती होंगी) आपका साँस लेना दूभर कर देगी? जो लोग नैनो की बुकिंग की कतार में खड़े हैं उनमें से कितने घरों में गैरेज नाम की वास्तु है? यानी कि नैनो आने के बाद घर के बाहर सड़क पर ही खड़ी रहेगी। आज जबकि बड़े शहरों में मल्टी-स्टोरी के नीचे की जगह भी बच्चों के खेलने के लिये नहीं छोड़ी गई है तथा छोटे शहरों में भी खेल के मैदान अतिक्रमण और भू-माफ़िया की चपेट में हैं, नैनो को कहाँ खड़ा करोगे और फ़िर बच्चों के खेलने की जगह का क्या होगा? इस बारे में कोई चिंता ज़ाहिर नहीं कर रहा, बस लगे हैं नैनो के भजन गाने में।
दुर्घटनाओं की स्थिति देखें तो भारत में सड़क दुर्घटनाओं का आँकड़ा विश्व के शीर्ष देशों में दर्ज किया जाता है, गत दशक में जिस तेजी से अमीरज़ादों की संख्या बढ़ी है और अब नैनो बाज़ार में पधार चुकी है तो फ़ुटपाथ पर सोने वालों, साइकिल चलाने वालों और पैदल चलने वालों को अतिरिक्त सावधानी बरतना ही पड़ेगी, पता नहीं कब कोई 14-15 साल का अमीरज़ादा उसे नैनो से कुचल बैठे। ऐसा लगता है कि “सार्वजनिक परिवहन प्रणाली” को एक साजिश के तहत खत्म किया जा रहा है, जिस अमेरिका की तर्ज़ पर “हर घर में एक कार” का बेवकूफ़ी भरा सपना दिखाया जा रहा है, वहाँ की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली अभी भी भारत के मुकाबले दस-बीस गुना बेहतर अवस्था में है, लेकिन अक्सर भारत के नीति-नियंता, “करते पहले हैं सोचते बाद में हैं और प्लानिंग सबसे अन्त में बनाते हैं…”। पहले अनियंत्रित जनसंख्या बढ़ा ली अब मानव संसाधन के उपयोग के बारे में सोच रहे हैं, पहले तीव्र-औद्योगिकीकरण लागू किया अब खेती के लिये ज़मीन ढूँढ रहे हैं, पहले प्रदूषण करके नदियाँ-तालाब गन्दे कर दिये अब उनकी सफ़ाई के बारे में सोच रहे हैं, पहले कारें पैदा कर दीं अब सड़कें चौड़ी करने के बारे में सोच रहे हैं… एक अन्तहीन मूर्खता है हमारे यहाँ!!! अमेरिका में तो ऑटोमोबाइल उत्पादक लॉबी और सड़क निर्माण लॉबी ने एक मिलीभगत के जरिये अपनी कारें असीमित समय तक बेचने के लिये एक कुचक्र रचा था, क्या ऐसा ही कुछ भारत में भी होने जा रहा है? मारुति द्वारा पेश किये गये आँकड़ों के मुताबिक उसने 25 साल में अभी तक 27 लाख कारें बेची हैं, वैन और अन्य मॉडल अलग से (मान लेते हैं कि कुल 40 लाख)। अब नैनो आयेगी तो मान लेते हैं कि अगले 10 साल में वह अकेले 25 लाख कारें बेच लेगी। डेढ़ अरब की आबादी में 25 लाख लोगों की सुविधा के लिये कितनों को दुविधा में डाला जायेगा? चलो माना कि नैनो रोज़गार उत्पन्न करेगी, लेकिन कितने रोज़गार? क्या कोई हिसाब लगाया गया है? नहीं…
सस्ती कारें आ गईं, लोगों के पास पैसा है, या नहीं भी है तो खरीद डालीं। अब सड़क निर्माता ठेकेदारों-कम्पनियों की लॉबी सरकार पर सड़कें चौड़ी करने के लिये दबाव डालेगी, सरकार “जनता की माँग”(???) पर बजट में अच्छी सड़कों के लिये अलग से प्रावधान करेगी। बजट में प्रावधान करेगी मतलब यह कि प्राथमिक शिक्षा और सरकारी अस्पतालों की सुविधा और बजट छीनकर “चन्द पैसे वालों” (जी हाँ चन्द पैसे वालों, क्योंकि प्राथमिक स्कूल और सरकारी अस्पतालों के उपयोगकर्ता, नैनो को खरीदने वालों की संख्या से बहुत-बहुत ज्यादा हैं) के लिये सड़कें बनवायेगी। सड़कें भी “बिल्ड-ऑपरेट-ट्रांसफ़र” (BOT) की नीति से बनाई जायेंगी, जिसमें सभी का फ़ायदा हो (ये और बात है कि “टोल नाका” कितनी दूर हो और टोल के पैसे कितने हों इस पर सरकारी नियन्त्रण कम ही होगा), कुल मिलाकर समूची लॉबी के लिये “विन-विन” की स्थिति होगी। अब भला ऐसे में सिटी बस, टेम्पो, ट्राम आदि के बारे में सोचने की फ़ुर्सत किसे है, आम जनता जिसे रोजमर्रा के काम सार्वजनिक परिवहन के भरोसे ही निपटाने हैं उसकी स्थिति भेड़-बकरी से ज्यादा न कुछ थी, न कभी होगी।
नैनो के आने से पहले ही कुछ सतर्क लोगों और “असली” जनसेवी संस्थाओं ने सरकार को कई सुझाव दिये थे, जिनमें से कुछ को तुरन्त लागू करने का समय आ गया है, जैसे – रात को घर के बाहर खड़ी किये जाने पर कार मालिक से अतिरिक्त शुल्क वसूलना, कारों की साइज़ (जमीन घेरने) के हिसाब से रोड टैक्स लगाना, चार पहिया वाहनों के रोड टैक्स में भारी बढ़ोतरी करना, पार्किंग शुल्क बढ़ाना, साइकलों के निर्माण पर केन्द्रीय टैक्स शून्य करना, कारों के उत्पादन में दी जाने वाली छूट के बराबर राशि का आबंटन सार्वजनिक परिवहन के लिये भी करना आदि। इन सब उपायों से जो राशि एकत्रित हो उसके लिये अलग से एक खाता बनाकर इस राशि का 50% हिस्सा सिर्फ़ और सिर्फ़ ग्रामीण इलाकों में सड़क निर्माण, 20% हिस्सा सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को मजबूत बनाने तथा 20% राशि प्रदूषण नियन्त्रण रोकने के उपायों में खर्च किया जाये। नैनो के दुष्प्रभाव को कम करने के लिये यह टैक्स जायज़ भी हैं। साथ ही यह तमाम शुल्क वाजिब भी हैं और नैनो या कोई अन्य कार मालिक इससे इन्कार करने की स्थिति में भी नहीं होना चाहिये, क्योंकि जब वह “हाथी” खरीदने निकला ही है तो फ़िर उसके “भोजन हेतु गन्ने” और “बाँधने की जंजीर” पर होने वाला खर्च उसके लिये मामूली है… आप क्या सोचते हैं?
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काफ़ी लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि पहले से ही चरमराये हुए आधारभूत ढाँचे पर नैनो कितना बोझ डालेगी और क्या भारत की सड़कें और यातायात व्यवस्था नैनो को झेलने में सक्षम हैं? आप बड़े शहरों में रहने वाले हों या छोटे कस्बे में, अपने आसपास नज़र घुमाईये, क्या आपको नहीं लगता कि नैनो (अभी तो नैनो ही आई है, पीछे-पीछे कई और भी आती होंगी) आपका साँस लेना दूभर कर देगी? जो लोग नैनो की बुकिंग की कतार में खड़े हैं उनमें से कितने घरों में गैरेज नाम की वास्तु है? यानी कि नैनो आने के बाद घर के बाहर सड़क पर ही खड़ी रहेगी। आज जबकि बड़े शहरों में मल्टी-स्टोरी के नीचे की जगह भी बच्चों के खेलने के लिये नहीं छोड़ी गई है तथा छोटे शहरों में भी खेल के मैदान अतिक्रमण और भू-माफ़िया की चपेट में हैं, नैनो को कहाँ खड़ा करोगे और फ़िर बच्चों के खेलने की जगह का क्या होगा? इस बारे में कोई चिंता ज़ाहिर नहीं कर रहा, बस लगे हैं नैनो के भजन गाने में।
दुर्घटनाओं की स्थिति देखें तो भारत में सड़क दुर्घटनाओं का आँकड़ा विश्व के शीर्ष देशों में दर्ज किया जाता है, गत दशक में जिस तेजी से अमीरज़ादों की संख्या बढ़ी है और अब नैनो बाज़ार में पधार चुकी है तो फ़ुटपाथ पर सोने वालों, साइकिल चलाने वालों और पैदल चलने वालों को अतिरिक्त सावधानी बरतना ही पड़ेगी, पता नहीं कब कोई 14-15 साल का अमीरज़ादा उसे नैनो से कुचल बैठे। ऐसा लगता है कि “सार्वजनिक परिवहन प्रणाली” को एक साजिश के तहत खत्म किया जा रहा है, जिस अमेरिका की तर्ज़ पर “हर घर में एक कार” का बेवकूफ़ी भरा सपना दिखाया जा रहा है, वहाँ की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली अभी भी भारत के मुकाबले दस-बीस गुना बेहतर अवस्था में है, लेकिन अक्सर भारत के नीति-नियंता, “करते पहले हैं सोचते बाद में हैं और प्लानिंग सबसे अन्त में बनाते हैं…”। पहले अनियंत्रित जनसंख्या बढ़ा ली अब मानव संसाधन के उपयोग के बारे में सोच रहे हैं, पहले तीव्र-औद्योगिकीकरण लागू किया अब खेती के लिये ज़मीन ढूँढ रहे हैं, पहले प्रदूषण करके नदियाँ-तालाब गन्दे कर दिये अब उनकी सफ़ाई के बारे में सोच रहे हैं, पहले कारें पैदा कर दीं अब सड़कें चौड़ी करने के बारे में सोच रहे हैं… एक अन्तहीन मूर्खता है हमारे यहाँ!!! अमेरिका में तो ऑटोमोबाइल उत्पादक लॉबी और सड़क निर्माण लॉबी ने एक मिलीभगत के जरिये अपनी कारें असीमित समय तक बेचने के लिये एक कुचक्र रचा था, क्या ऐसा ही कुछ भारत में भी होने जा रहा है? मारुति द्वारा पेश किये गये आँकड़ों के मुताबिक उसने 25 साल में अभी तक 27 लाख कारें बेची हैं, वैन और अन्य मॉडल अलग से (मान लेते हैं कि कुल 40 लाख)। अब नैनो आयेगी तो मान लेते हैं कि अगले 10 साल में वह अकेले 25 लाख कारें बेच लेगी। डेढ़ अरब की आबादी में 25 लाख लोगों की सुविधा के लिये कितनों को दुविधा में डाला जायेगा? चलो माना कि नैनो रोज़गार उत्पन्न करेगी, लेकिन कितने रोज़गार? क्या कोई हिसाब लगाया गया है? नहीं…
सस्ती कारें आ गईं, लोगों के पास पैसा है, या नहीं भी है तो खरीद डालीं। अब सड़क निर्माता ठेकेदारों-कम्पनियों की लॉबी सरकार पर सड़कें चौड़ी करने के लिये दबाव डालेगी, सरकार “जनता की माँग”(???) पर बजट में अच्छी सड़कों के लिये अलग से प्रावधान करेगी। बजट में प्रावधान करेगी मतलब यह कि प्राथमिक शिक्षा और सरकारी अस्पतालों की सुविधा और बजट छीनकर “चन्द पैसे वालों” (जी हाँ चन्द पैसे वालों, क्योंकि प्राथमिक स्कूल और सरकारी अस्पतालों के उपयोगकर्ता, नैनो को खरीदने वालों की संख्या से बहुत-बहुत ज्यादा हैं) के लिये सड़कें बनवायेगी। सड़कें भी “बिल्ड-ऑपरेट-ट्रांसफ़र” (BOT) की नीति से बनाई जायेंगी, जिसमें सभी का फ़ायदा हो (ये और बात है कि “टोल नाका” कितनी दूर हो और टोल के पैसे कितने हों इस पर सरकारी नियन्त्रण कम ही होगा), कुल मिलाकर समूची लॉबी के लिये “विन-विन” की स्थिति होगी। अब भला ऐसे में सिटी बस, टेम्पो, ट्राम आदि के बारे में सोचने की फ़ुर्सत किसे है, आम जनता जिसे रोजमर्रा के काम सार्वजनिक परिवहन के भरोसे ही निपटाने हैं उसकी स्थिति भेड़-बकरी से ज्यादा न कुछ थी, न कभी होगी।
नैनो के आने से पहले ही कुछ सतर्क लोगों और “असली” जनसेवी संस्थाओं ने सरकार को कई सुझाव दिये थे, जिनमें से कुछ को तुरन्त लागू करने का समय आ गया है, जैसे – रात को घर के बाहर खड़ी किये जाने पर कार मालिक से अतिरिक्त शुल्क वसूलना, कारों की साइज़ (जमीन घेरने) के हिसाब से रोड टैक्स लगाना, चार पहिया वाहनों के रोड टैक्स में भारी बढ़ोतरी करना, पार्किंग शुल्क बढ़ाना, साइकलों के निर्माण पर केन्द्रीय टैक्स शून्य करना, कारों के उत्पादन में दी जाने वाली छूट के बराबर राशि का आबंटन सार्वजनिक परिवहन के लिये भी करना आदि। इन सब उपायों से जो राशि एकत्रित हो उसके लिये अलग से एक खाता बनाकर इस राशि का 50% हिस्सा सिर्फ़ और सिर्फ़ ग्रामीण इलाकों में सड़क निर्माण, 20% हिस्सा सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को मजबूत बनाने तथा 20% राशि प्रदूषण नियन्त्रण रोकने के उपायों में खर्च किया जाये। नैनो के दुष्प्रभाव को कम करने के लिये यह टैक्स जायज़ भी हैं। साथ ही यह तमाम शुल्क वाजिब भी हैं और नैनो या कोई अन्य कार मालिक इससे इन्कार करने की स्थिति में भी नहीं होना चाहिये, क्योंकि जब वह “हाथी” खरीदने निकला ही है तो फ़िर उसके “भोजन हेतु गन्ने” और “बाँधने की जंजीर” पर होने वाला खर्च उसके लिये मामूली है… आप क्या सोचते हैं?
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शुक्रवार, 03 अप्रैल 2009 12:03
“काले धन” और भ्रष्टाचार की रोकथाम हेतु कुछ सुझाव तथा बड़े नोटों से त्रस्त छोटे लोग… Black Money, Big Currency, Corruption in India
एक सामान्य आम आदमी को दैनिक “व्यवहारों” में 1000 और 500 के नोटों की कितनी आवश्यकता पड़ती होगी? सवाल वैसे कुछ मुश्किल नहीं है क्योंकि भारत की 70% जनता की रोज़ाना की आय 50 रुपये से भी कम है। अब दूसरा पक्ष देखिये कि वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था के “ट्रांज़ेक्शन” में 92% नोट 50 रुपये से ऊपर के हैं, यानी कि सिर्फ़ 8% करंसी नोट (100 रुपये से कम वाले) ऐसे हैं जिनसे 70% से अधिक जनता को अपना रोज़मर्रा का काम करना है।
आजकल बैंकें प्रतिस्पर्धा के दौर में हैं और उनमें खाते खुलवाने की होड़ मची हुई है, यह तो बड़ी अच्छी बात है… लेकिन बैंक उस बचत खाते के साथ ATM कार्ड भी पकड़ा देती हैं। यह ATM की सुविधा है तो बड़ी अच्छी लेकिन जो समस्या ऊपर बताई है वही यहाँ भी है, यह जादुई मशीन भी सिर्फ़ 100 और 500 के नोट उगलती है। शायद बैंक सोचती होगी कि जब इसके पास बचत खाता है और ATM कार्ड भी है तो इसकी औकात भी कम से कम 100 रुपये खर्च करने की तो होगी ही। मुझे पता नहीं कि आजकल भारत में कितने लोगों को 100 रुपये से अधिक के नोटों की, दिन में कितनी बार आवश्यकता पड़ती है, लेकिन सच तो यही है कि बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल्स, वातानुकूलित सब्जी मार्केट और क्रेडिट कार्ड अभी फ़िलहाल भारत के 5% लोगों की ही पहुँच में हैं। भारत की बाकी 95% जनता निम्न-मध्यमवर्गीय लोग हैं जिनका वास्ता ठेले वाले, सब्जी वाले, प्रेस के लिये धोबी, सुबह-सुबह ब्रेडवाले आदि लोगों से पड़ता है, जिनके पास 100 का नोट “बड़ा” नोट माना जाता है।
अमेरिका की प्रति व्यक्ति वार्षिक औसत आय लगभग 40,000 (चालीस हजार) डॉलर है और वहाँ का सबसे बड़ा सामान्य नोट 100 डॉलर का है अर्थात 400 और 1 का अनुपात (400 : 1), दूसरी तरफ़ भारत में प्रति व्यक्ति वार्षिक औसत आय लगभग 30,000 रुपये है और सबसे बड़ा नोट 1000 रुपये का है यानी कि 30 और 1 का अनुपात (30 : 1)… और भारत में काले धन तथा भ्रष्टाचार के मूल में स्थित कई कारणों में से यह एक बड़ा कारण है। बड़े नोटों की सुगमता के कारण भारत में अधिकतर लेन-देन नगद में होता है और यही व्यवहार काले धन का कारण बनता है। अब कल्पना करें कि, यदि भारत सरकार 50 रुपये का नोट ही अर्थव्यवस्था में “सबसे बड़ा नोट” माने और इसके ऊपर के सभी नोट बन्द कर दिये जायें। ऐसे में यदि किसी व्यक्ति को दो लाख रुपये की रिश्वत देनी हो (जो कि आजकल भारत जैसे भ्रष्ट देश में छोटे-मोटे सौदे में ही दे दी जाती है) तो उसे 50 रुपये के नोटों की चालीस गड्डियाँ ले जाना होंगी, जो कि काफ़ी असुविधाजनक होगा, जबकि इतनी ही रिश्वत, 1000 के नोट की दो गड्डियाँ बनाकर आराम से जेब में रखकर ले जाई जाती है। यदि पाकिस्तानी आतंकवादियों को नकली नोट छापना ही हो तो उन्हें 50 के कितने नोट छापने पड़ेंगे? कहने का तात्पर्य यह कि जो बहुसंख्यक जनता अपना जीवन-यापन 50 रुपये रोज से कम में कर रही है, उसे सुविधा देने की बजाय रिश्वतखोर पैसे वाले “अल्पसंख्यक” जनता को 1000 के नोट की सौगात दी गई है। बड़े नोटों से सबसे ज्यादा तकलीफ़ छोटे व्यापारियों, फ़ुटकर धंधा करने वालों और खोमचे-रेहड़ी वालों को होती है, अव्वल तो उसे कभी-कभार ही 1000 या 500 का नोट देखने को मिलेगा (माना जाता है कि देश की 70 प्रतिशत से ज्यादा जनता ने 1000 के नोट को आज तक हाथ नहीं लगाया होगा)। फ़िर वह तनाव में आ जायेगा कि ये नोट “असली है या नकली”, इस समस्या से निपटते ही उसे और बड़ी समस्या होती है कि इसके छुट्टे कैसे करवाये जायें क्योंकि किसी ग्राहक ने 20 रुपये की सब्जी खरीदने के लिये 500 का नोट दिया है, किसी ने 8 रुपये की फ़ोटोकापी के लिये 100 का नोट दिया है, किसी ने 6 रुपये की ब्रेड खरीदने के लिये 100 का नोट दिया है… उस व्यक्ति को भी ATM से 100 या 500 का ही नोट मिला है, यदि 50 से बड़ा नोट ही ना हो तो गरीबों को थोड़ी आसानी होगी। जैसा कि पहले ही कहा गया कि देश में उपलब्ध कुल नोटों में से 8% नोटों का चलन 70% से अधिक जनता में हो रहा है… ज़ाहिर है कि परेशानी और विवाद होता ही है। बैंक कर्मचारी तो इतने “रईस” हो गये हैं कि दस-दस के नोटों की गड्डी देखकर उनके माथे पर बल पड़ जाते हैं, न तो बगैर मुँह टेढ़ा किये लेते हैं, ना ही देते हैं। ऐसे में वह व्यक्ति कहाँ जाये, जिसका दिन भर का आर्थिक व्यवहार ही 10-20-50 के नोटों में होना है और हमेशा ही होना है।
भ्रष्टाचार और काले धन के प्रवाह को रोकने हेतु हाल ही में दो सुझाव सामने आये हैं - 1) 50 रुपये से बड़े नोटों को रद्द किया जाये तथा 2) 2000 रुपये से ऊपर के सभी लेन-देन या खरीदी-बिक्री को चेक, क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड अथवा इलेक्ट्रानिक ट्रांसफ़र आदि तरीके से करना अनिवार्य कर दिया जाये। हालांकि उपाय क्रमांक 2 को अपनाने में थोड़ा समय लग सकता है, लेकिन उसकी प्रक्रिया शुरु हो चुकी है। आज की तारीख में येन-केन-प्रकारेण लगभग 50 से 70 प्रतिशत भारतीयों के पास (भले ही मजबूरी में ही सही) खुद का कम से कम एक बैंक खाता (सेविंग) हो चुका है। भारत में फ़िलहाल 80% आर्थिक व्यवहार नगद में होता है, जबकि इसके ठीक विपरीत पश्चिमी और विकसित देशों में 90% से अधिक कारोबार और व्यवहार बैंक के माध्यम से होता है। अमेरिका ने अल-कायदा के अधिकतर लेन-देन और अवैध मुद्रा के प्रवाह में कमी लाने में सफ़लता हासिल कर ली है, जबकि भारत में नेपाल और बांग्लादेश के रास्ते आराम से वैध-अवैध नोटों की तस्करी जारी है। भारत में 50 रुपये से ऊपर के नोट ही रद्द हो जायेंगे, तब एके-47 और अन्य हथियारों का लेन-देन भी ड्रग्स या सोने के बदले में करना पड़ेगा, देश में छुपे आतंकवादियों को “खर्चे-पानी” के लिये भी इन्हीं नोटों पर निर्भर रहना पड़ेगा, और 2000 रुपये से ज्यादा खर्चा करें तो कहीं न कहीं किसी सरकारी नेटवर्क में पकड़ में आने की काफ़ी उम्मीद रहेगी।
इसी प्रकार भारत में जब 2000 रुपये से अधिक के सभी लेनदेन बैंक के मार्फ़त होना तय हो जायेगा तब जेब में अधिक नोट रखने की आवश्यकता भी समाप्त हो जायेगी। हालांकि यह तभी हो सकता है जब भारत की अधिकांश जनता के पास बैंक खाता हो तथा सामान्य आय वाले हर व्यक्ति के पास चेक-बुक, डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड आदि हों। लगभग सभी बैंकें धीरे-धीरे अपना-अपना CBS नेटवर्क तैयार कर चुकी हैं या कर रही हैं, ऐसे में यह दो उपाय करने पर काले धन के प्रवाह को रोकने में काफ़ी मदद मिलेगी… ज़रा कल्पना कीजिये कि वह कैसा नज़ारा होगा कि सरकार अचानक घोषित कर दे कि कल से 500 और 1000 के नोट बन्द किये जा रहे हैं, जिसके पास जितने भी हों अगले एक महीने में बैंक में जमा करवा दें… उतना अमाउंट उनके बैंक खाते में डाल दिया जायेगा… जिसे “पैन कार्ड” से संलग्न किया जा चुका है… (हार्ट अटैक की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि होगी)।
काले धन और भ्रष्टाचार को रोकने हेतु समय-समय पर विभिन्न संस्थाओं/व्यक्तियों द्वारा सुझाव दिये जाते हैं, जैसे कि “आयकर” की बजाय “व्ययकर” लगाना आदि। उपरोक्त लेख में सुझाये गये दोनों सुझावों में कई व्यावहारिक दिक्कतें हो सकती हैं जैसे 50 की बजाय 100 का नोट अधिकतम, तथा नगद खर्च की सीमा 2000 की बजाय 5000 भी की जा सकती है… इन दिनों स्विस बैंकों में जमा काले धन पर भी बहस चल रही है, बहरहाल इन दो-तीन सुझावों पर भी अर्थशास्त्रियों में बहस और विचार-विमर्श जरूरी है… आप क्या सोचते हैं…?
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आजकल बैंकें प्रतिस्पर्धा के दौर में हैं और उनमें खाते खुलवाने की होड़ मची हुई है, यह तो बड़ी अच्छी बात है… लेकिन बैंक उस बचत खाते के साथ ATM कार्ड भी पकड़ा देती हैं। यह ATM की सुविधा है तो बड़ी अच्छी लेकिन जो समस्या ऊपर बताई है वही यहाँ भी है, यह जादुई मशीन भी सिर्फ़ 100 और 500 के नोट उगलती है। शायद बैंक सोचती होगी कि जब इसके पास बचत खाता है और ATM कार्ड भी है तो इसकी औकात भी कम से कम 100 रुपये खर्च करने की तो होगी ही। मुझे पता नहीं कि आजकल भारत में कितने लोगों को 100 रुपये से अधिक के नोटों की, दिन में कितनी बार आवश्यकता पड़ती है, लेकिन सच तो यही है कि बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल्स, वातानुकूलित सब्जी मार्केट और क्रेडिट कार्ड अभी फ़िलहाल भारत के 5% लोगों की ही पहुँच में हैं। भारत की बाकी 95% जनता निम्न-मध्यमवर्गीय लोग हैं जिनका वास्ता ठेले वाले, सब्जी वाले, प्रेस के लिये धोबी, सुबह-सुबह ब्रेडवाले आदि लोगों से पड़ता है, जिनके पास 100 का नोट “बड़ा” नोट माना जाता है।
अमेरिका की प्रति व्यक्ति वार्षिक औसत आय लगभग 40,000 (चालीस हजार) डॉलर है और वहाँ का सबसे बड़ा सामान्य नोट 100 डॉलर का है अर्थात 400 और 1 का अनुपात (400 : 1), दूसरी तरफ़ भारत में प्रति व्यक्ति वार्षिक औसत आय लगभग 30,000 रुपये है और सबसे बड़ा नोट 1000 रुपये का है यानी कि 30 और 1 का अनुपात (30 : 1)… और भारत में काले धन तथा भ्रष्टाचार के मूल में स्थित कई कारणों में से यह एक बड़ा कारण है। बड़े नोटों की सुगमता के कारण भारत में अधिकतर लेन-देन नगद में होता है और यही व्यवहार काले धन का कारण बनता है। अब कल्पना करें कि, यदि भारत सरकार 50 रुपये का नोट ही अर्थव्यवस्था में “सबसे बड़ा नोट” माने और इसके ऊपर के सभी नोट बन्द कर दिये जायें। ऐसे में यदि किसी व्यक्ति को दो लाख रुपये की रिश्वत देनी हो (जो कि आजकल भारत जैसे भ्रष्ट देश में छोटे-मोटे सौदे में ही दे दी जाती है) तो उसे 50 रुपये के नोटों की चालीस गड्डियाँ ले जाना होंगी, जो कि काफ़ी असुविधाजनक होगा, जबकि इतनी ही रिश्वत, 1000 के नोट की दो गड्डियाँ बनाकर आराम से जेब में रखकर ले जाई जाती है। यदि पाकिस्तानी आतंकवादियों को नकली नोट छापना ही हो तो उन्हें 50 के कितने नोट छापने पड़ेंगे? कहने का तात्पर्य यह कि जो बहुसंख्यक जनता अपना जीवन-यापन 50 रुपये रोज से कम में कर रही है, उसे सुविधा देने की बजाय रिश्वतखोर पैसे वाले “अल्पसंख्यक” जनता को 1000 के नोट की सौगात दी गई है। बड़े नोटों से सबसे ज्यादा तकलीफ़ छोटे व्यापारियों, फ़ुटकर धंधा करने वालों और खोमचे-रेहड़ी वालों को होती है, अव्वल तो उसे कभी-कभार ही 1000 या 500 का नोट देखने को मिलेगा (माना जाता है कि देश की 70 प्रतिशत से ज्यादा जनता ने 1000 के नोट को आज तक हाथ नहीं लगाया होगा)। फ़िर वह तनाव में आ जायेगा कि ये नोट “असली है या नकली”, इस समस्या से निपटते ही उसे और बड़ी समस्या होती है कि इसके छुट्टे कैसे करवाये जायें क्योंकि किसी ग्राहक ने 20 रुपये की सब्जी खरीदने के लिये 500 का नोट दिया है, किसी ने 8 रुपये की फ़ोटोकापी के लिये 100 का नोट दिया है, किसी ने 6 रुपये की ब्रेड खरीदने के लिये 100 का नोट दिया है… उस व्यक्ति को भी ATM से 100 या 500 का ही नोट मिला है, यदि 50 से बड़ा नोट ही ना हो तो गरीबों को थोड़ी आसानी होगी। जैसा कि पहले ही कहा गया कि देश में उपलब्ध कुल नोटों में से 8% नोटों का चलन 70% से अधिक जनता में हो रहा है… ज़ाहिर है कि परेशानी और विवाद होता ही है। बैंक कर्मचारी तो इतने “रईस” हो गये हैं कि दस-दस के नोटों की गड्डी देखकर उनके माथे पर बल पड़ जाते हैं, न तो बगैर मुँह टेढ़ा किये लेते हैं, ना ही देते हैं। ऐसे में वह व्यक्ति कहाँ जाये, जिसका दिन भर का आर्थिक व्यवहार ही 10-20-50 के नोटों में होना है और हमेशा ही होना है।
भ्रष्टाचार और काले धन के प्रवाह को रोकने हेतु हाल ही में दो सुझाव सामने आये हैं - 1) 50 रुपये से बड़े नोटों को रद्द किया जाये तथा 2) 2000 रुपये से ऊपर के सभी लेन-देन या खरीदी-बिक्री को चेक, क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड अथवा इलेक्ट्रानिक ट्रांसफ़र आदि तरीके से करना अनिवार्य कर दिया जाये। हालांकि उपाय क्रमांक 2 को अपनाने में थोड़ा समय लग सकता है, लेकिन उसकी प्रक्रिया शुरु हो चुकी है। आज की तारीख में येन-केन-प्रकारेण लगभग 50 से 70 प्रतिशत भारतीयों के पास (भले ही मजबूरी में ही सही) खुद का कम से कम एक बैंक खाता (सेविंग) हो चुका है। भारत में फ़िलहाल 80% आर्थिक व्यवहार नगद में होता है, जबकि इसके ठीक विपरीत पश्चिमी और विकसित देशों में 90% से अधिक कारोबार और व्यवहार बैंक के माध्यम से होता है। अमेरिका ने अल-कायदा के अधिकतर लेन-देन और अवैध मुद्रा के प्रवाह में कमी लाने में सफ़लता हासिल कर ली है, जबकि भारत में नेपाल और बांग्लादेश के रास्ते आराम से वैध-अवैध नोटों की तस्करी जारी है। भारत में 50 रुपये से ऊपर के नोट ही रद्द हो जायेंगे, तब एके-47 और अन्य हथियारों का लेन-देन भी ड्रग्स या सोने के बदले में करना पड़ेगा, देश में छुपे आतंकवादियों को “खर्चे-पानी” के लिये भी इन्हीं नोटों पर निर्भर रहना पड़ेगा, और 2000 रुपये से ज्यादा खर्चा करें तो कहीं न कहीं किसी सरकारी नेटवर्क में पकड़ में आने की काफ़ी उम्मीद रहेगी।
इसी प्रकार भारत में जब 2000 रुपये से अधिक के सभी लेनदेन बैंक के मार्फ़त होना तय हो जायेगा तब जेब में अधिक नोट रखने की आवश्यकता भी समाप्त हो जायेगी। हालांकि यह तभी हो सकता है जब भारत की अधिकांश जनता के पास बैंक खाता हो तथा सामान्य आय वाले हर व्यक्ति के पास चेक-बुक, डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड आदि हों। लगभग सभी बैंकें धीरे-धीरे अपना-अपना CBS नेटवर्क तैयार कर चुकी हैं या कर रही हैं, ऐसे में यह दो उपाय करने पर काले धन के प्रवाह को रोकने में काफ़ी मदद मिलेगी… ज़रा कल्पना कीजिये कि वह कैसा नज़ारा होगा कि सरकार अचानक घोषित कर दे कि कल से 500 और 1000 के नोट बन्द किये जा रहे हैं, जिसके पास जितने भी हों अगले एक महीने में बैंक में जमा करवा दें… उतना अमाउंट उनके बैंक खाते में डाल दिया जायेगा… जिसे “पैन कार्ड” से संलग्न किया जा चुका है… (हार्ट अटैक की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि होगी)।
काले धन और भ्रष्टाचार को रोकने हेतु समय-समय पर विभिन्न संस्थाओं/व्यक्तियों द्वारा सुझाव दिये जाते हैं, जैसे कि “आयकर” की बजाय “व्ययकर” लगाना आदि। उपरोक्त लेख में सुझाये गये दोनों सुझावों में कई व्यावहारिक दिक्कतें हो सकती हैं जैसे 50 की बजाय 100 का नोट अधिकतम, तथा नगद खर्च की सीमा 2000 की बजाय 5000 भी की जा सकती है… इन दिनों स्विस बैंकों में जमा काले धन पर भी बहस चल रही है, बहरहाल इन दो-तीन सुझावों पर भी अर्थशास्त्रियों में बहस और विचार-विमर्श जरूरी है… आप क्या सोचते हैं…?
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ब्लॉग
सोमवार, 30 मार्च 2009 12:26
मिसाइल खरीद घोटाला और भारत के कांग्रेसी/मुस्लिम टीवी चैनलों की भूमिका Israeli Missile Scam India and Role of Media
भास्कर ग्रुप के DNA अखबार द्वारा इज़राइल की कम्पनी और भारत सरकार के बीच हुए मिसाइल खरीद समझौते की खबरें लगातार प्रकाशित की जा रही हैं। बाकायदा तारीखवार घटनाओं और विभिन्न सूत्रों के हवाले से 600 करोड़ रुपये के इस घोटाले को उजागर किया गया है, जिससे राजनैतिक हलकों में उठापटक शुरु हो चुकी है, और इसके लिये निश्चित रूप से अखबार बधाई का पात्र है।
जिन पाठकों को इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है उनके लिये इस सौदे के कुछ मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं –
1) मिसाइल आपूर्ति का यह समझौता जिस कम्पनी इज़राइल एयरोस्पेस इंडस्ट्री (IAI) से किया गया है वह पहले से ही “बराक” मिसाइल घोटाले में संदिग्ध है और मामले में दिल्ली के हथियार व्यापारी(?) नंदा पर सीबीआई केस दायर कर चुकी है।
2) इस सौदे में IAI अकेली कम्पनी थी, न कोई वैश्विक टेण्डर हुआ, न ही अन्य कम्पनियों के रेट्स से तुलना की गई।
3) बोफ़ोर्स, HDW और इस प्रकार की अन्य कम्पनियों को संदेह होते ही अर्थात सीबीआई में मामला जाने से पहले ही हथियार खरीद प्रक्रिया में “ब्लैक लिस्टेड” कर दिया गया था, लेकिन इस इज़राइली फ़र्म को आज तक ब्लैक लिस्टेड नहीं किया गया है।
4) ज़मीन से हवा में मार करने वाली इसी मिसाइल से मिलती-जुलती “आकाश” मिसाइल भारत की संस्था DRDO पहले ही विकसित कर चुकी है, लेकिन किन्हीं संदिग्ध कारणों से यह मिसाइल सेना में बड़े पैमाने पर शामिल नहीं की जा रही, और इज़राइली कम्पनी कि मिसाइल खरीदने का ताबड़तोड़ सौदा कर लिया गया है।
5) इस मिसाइल कम्पनी के संदिग्ध सौदों की जाँच खुद इज़राइल सरकार भी कर रही है।
6) इस कम्पनी की एक विज्ञप्ति में कहा जा चुका है कि “अग्रिम पैसा मिल जाने से हम इस सौदे के प्रति आश्वस्त हो गये हैं…” (यानी कि काम पूरा किये बिना अग्रिम पैसा भी दिया जा चुका है)।
7) 10,000 करोड़ के इस सौदे में “बिजनेस चार्जेस” (Business Charges) के तहत 6% का भुगतान किया गया है अर्थात सीधे-सीधे 600 करोड़ का घोटाला है।
8) इस संयुक्त उद्यम में DRDO को सिर्फ़ 3000 करोड़ रुपये मिलेंगे, बाकी की रकम वह कम्पनी ले जायेगी। भारत की मिसाइलों में “सीकर” (Seeker) तकनीक की कमी है, लेकिन यह कम्पनी उक्त तकनीक भी भारत को नहीं देगी।
9) केन्द्र सरकार ने इज़राइल सरकार से विशेष आग्रह किया था कि इस सौदे को फ़िलहाल गुप्त रखा जाये, क्योंकि भारत में चुनाव होने वाले हैं।
10) सौदे पर अन्तिम हस्ताक्षर 27 फ़रवरी 2009 को बगैर किसी को बताये किये गये, अर्थात लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक दो दिन पहले।
(यह सारी जानकारियाँ DNA Today में यहाँ देखें…, यहाँ देखें और यहाँ भी देखें, दी जा चुकी हैं, इसके अलावा दैनिक भास्कर के इन्दौर संस्करण में दिनांक 22 से 28 मार्च 2009 के बीच प्रकाशित हो चुकी हैं)
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तो यह तो हुई घोटाले में संदिग्ध आचरण और भारत में भ्रष्टाचार की जननी कांग्रेस सरकार की भूमिका, लेकिन पिछले एक-दो महीने (बल्कि जब से यह सौदा सत्ता और रक्षा मंत्रालय के गलियारे में आया तब) से हमारे भारत के महान चैनल, स्वयंभू “सबसे तेज़” चैनल, खासतौर पर गुजरात का कवरेज करने वाले “सेकुलर” चैनल, भूतप्रेत चुड़ैल और नौटंकी दिखाने वाले चैनल, “न्यूज़” के नाम पर छिछोरापन, राखी सावन्त और शिल्पा शेट्टी को दिखाने वाले चैनल…… आदि-आदि-आदि सभी चैनल कहाँ थे? क्या इतना बड़ा रक्षा सौदा घोटाला किसी भी चैनल की हेडलाइन बनने की औकात नहीं रखता? अभिषेक-ऐश्वर्या की करवा चौथ पर पूरे नौ घण्टे का कवरेज करने वाले चैनल इस खबर को एक घंटा भी नहीं दिखा सके, ऐसा क्यों? कमिश्नर का कुत्ता गुम जाने को “ब्रेकिंग न्यूज़” बताने वाले चैनल इस घोटाले पर एक भी ढंग का फ़ुटेज तक न दे सके?
पिछले कुछ वर्षों से इलेक्ट्रानिक मीडिया (और कुछ हद तक प्रिंट मीडिया) में एक “विशेष” रुझान देखने में आया है, वह है “सत्ताधारी पार्टी के चरणों में लोट लगाने की प्रवृत्ति”, ऐसा नहीं कि यह प्रवृत्ति पहले नहीं थी, पहले भी थी लेकिन एक सीमित मात्रा में, एक सीमित स्तर पर और थोड़ा-बहुत लोकलाज की शर्म रखते हुए। लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद जैसे-जैसे पत्रकारिता का पतन होता जा रहा है, वह शर्मनाक तो है ही, चिंतनीय भी है। चिंतनीय इसलिये कि पत्रकार, अखबार या चैनल पैसों के लिये बिकते-बिकते अब “विचारधारा” के भी गुलाम बनने लगे हैं, मिशनरी-मार्क्स-मुल्ला-मैकाले और माइनो ये पाँच शक्तियाँ मिलकर मीडिया को “मानसिक बन्धक” बनाये हुए हैं, इसका सबसे सटीक उदाहरण है उनके द्वारा किये गये समाचारों का संकलन, उनके द्वारा दिखाई जाने वाली “हेडलाइन”, उनके शब्दों का चयन, उनकी तथाकथित “ब्रेकिंग न्यूज़” आदि। अमरनाथ ज़मीन विवाद के समय “वन्देमातरम” और “भारत माता की जय” के नारे लगाती हुई भीड़, मीडिया को “उग्रवादी विचारों वाले युवाओं का झुण्ड” नज़र आती है, कश्मीर में 80,000 हिन्दुओं की हत्या सिर्फ़ “हत्याकाण्ड” या कुछ “सिरफ़िरे नौजवानों”(?) का घृणित काम, जबकि गुजरात में कुछ सौ मुस्लिमों (और साथ में लगभग उतने ही हिन्दू भी) की हत्याएं “नरसंहार” हैं? क्या अब मीडिया के महन्तों को “हत्याकांड” और “नरसंहार” में अन्तर समझाना पड़ेगा? कश्मीर से बाहर किये गये साढ़े तीन लाख हिन्दुओं के बारे में कोई रिपोर्टिंग नहीं, मुफ़्ती-महबूबा की जोड़ी से कोई सवाल जवाब नहीं, लेकिन गुजरात के बारे में रिपोर्टिंग करते समय “जातीय सफ़ाया” (Genocide) शब्द का उल्लेख अवश्य करते हैं। केरल में सिस्टर अभया के बलात्कार और हत्याकाण्ड तथा उसमें चर्च की भूमिका के बारे में किसी चैनल पर कोई खबर नहीं आती, केरल में ही बढ़ते तालिबानीकरण और चुनावों में मदनी की भूमिका की कोई रिपोर्ट नहीं, लेकिन आसाराम बापू के आश्रम की खबर सुर्खियों में होती है, उस पर चैनल का एंकर चिल्ला-चिल्ला कर, पागलों जैसे चेहरे बनाकर घंटों खबरें परोसता है। सरस्वती वन्दना का विरोध कभी हेडलाइन नहीं बनता, लेकिन हवालात में आँसू लिये शंकराचार्य खूब दिखाये जाते हैं… लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या पर खामोशी, लेकिन मंगलोर की घटनाओं पर विलाप-प्रलाप…रैम्प पर चलने वाली किसी घटिया सी मॉडल पर एक घंटा कवरेज और छत्तीसगढ़ में मारे जा रहे पुलिस के जवानों पर दस मिनट भी नहीं?… ये कैसे “राष्ट्रीय चैनल” हैं भाई? क्या इनका “राष्ट्र” गुड़गाँव और नोएडा तक ही सीमित है? हिन्दुओं के साथ भेदभाव और गढ़ी गई नकली खबरें दिखाने के और भी सैकड़ों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं, लेकिन इन “रसूख”(?) वाले चैनलों को मिसाइल घोटाला नहीं दिखाई देता? इसे कांग्रेस द्वारा “अच्छी तरह से किया गया मीडिया मैनेजमेंट” कहा जाये या कुछ और, कि आजम खान द्वारा भारतमाता को डायन कहे जाने के बावजूद हेडलाइन बनते हैं “वरुण गाँधी”? कल ही जीटीवी पर एंकर महोदय दर्शकों से प्रश्न पूछ रहे थे कि पिछले 5 साल में आपने वरुण गाँधी का नाम कितनी बार सुना और पिछले 5 दिनों में आपने वरुण गाँधी का नाम कितनी बार सुन लिया? लेकिन वह ये नहीं बताते कि पिछले 5 दिनों में उन्होंने खुद ही वरुंण गाँधी का नाम हजारों बार क्यों लिया? ऐसी क्या मजबूरी थी कि बार-बार वरुण गाँधी का वही घिसा-पिटा टेप लगातार चलाया जा रहा है… यदि वरुण की खबर न दिखाये तो क्या चैनल का मालिक भूखा मर जायेगा? वरुण को हीरो किसने बनाया, मीडिया ने… लेकिन मीडिया कभी भी खुद जवाब नहीं देता, वह कभी भी खुद आत्ममंथन नहीं करता, कभी भी गम्भीरता से किसी बात के पीछे नहीं पड़ता, उसे तो रोज एक नया शिकार(?) चाहिये…। यदि मीडिया चाहे तो नेताओं द्वारा “धर्म” और उकसावे के खेल को भोथरा कर सकता है, लेकिन जब TRP नाम का जिन्न गर्दन पर सवार हो, और “हिन्दुत्व” को गरियाने से फ़ुर्सत मिले तो वह कुछ करे…
मीडिया को सोचना चाहिये कि कहीं वह बड़ी शक्तियों के हाथों में तो नहीं खेल रहा, कहीं “धर्मनिरपेक्षता”(?) का बखान करते-करते अनजाने ही किसी साजिश का हिस्सा तो नहीं बन रहा? माना कि मीडिया पर “बाज़ार” का दबाव है उसे बाज़ार में टिके रहने के लिये कुछ चटपटा दिखाना आवश्यक है, लेकिन पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धान्तों को भूलने से कैसे काम चलेगा? पत्रकार का मुख्य काम होना चाहिये “सरकार” के बखिये उधेड़ना, लेकिन भारत में उल्टा ही होता है इधर तो मीडिया विपक्ष के बखिये उधेड़ने में ही भिड़ा हुआ है… ऐसे में भला मिसाइल घोटाले पर रिपोर्टिंग क्योंकर होगी? या फ़िर ऐसा भी हो सकता है कि मीडिया को “भ्रष्टाचार” की खबर में TRP का कोई स्कोप ही ना दिखता हो… या फ़िर किसी चैनल का मालिक उसी पार्टी का राज्यसभा सदस्य हो, मंत्री का चमचा हो…। फ़िर खोजी पत्रकारिता करने के लिये जिगर के साथ-साथ थोड़ा “फ़ील्ड वर्क” भी करना पड़ता है… जब टेबल पर बैठे-बैठे ही गूगल और यू-ट्यूब के सहारे एक झनझनाट रिपोर्ट बनाई जा सकती है तो कौन पत्रकार धूप में मारा-मारा फ़िरे? कोलकाता के “स्टेट्समैन” अखबार ने कुछ दिनों पहले ही “इस्लाम” के खिलाफ़ कुछ प्रकाशित करने की “सजा”(?) भुगती है… इसीलिये मीडिया वाले सोचते होंगे कि कांग्रेस के राज में घोटाले तो रोज ही होते रहते हैं, सबसे “सेफ़” रास्ता अपनाओ, यानी हिन्दुत्व-भाजपा-संघ-मोदी को गरियाते रहो, जिसमें जूते खाने, नौकरी जाने आदि का खतरा नहीं के बराबर हो… क्योंकि एक अरब हिन्दुओं वाला देश ही इस प्रकार का “सहनशील”(???) हो सकता है…
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जिन पाठकों को इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है उनके लिये इस सौदे के कुछ मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं –
1) मिसाइल आपूर्ति का यह समझौता जिस कम्पनी इज़राइल एयरोस्पेस इंडस्ट्री (IAI) से किया गया है वह पहले से ही “बराक” मिसाइल घोटाले में संदिग्ध है और मामले में दिल्ली के हथियार व्यापारी(?) नंदा पर सीबीआई केस दायर कर चुकी है।
2) इस सौदे में IAI अकेली कम्पनी थी, न कोई वैश्विक टेण्डर हुआ, न ही अन्य कम्पनियों के रेट्स से तुलना की गई।
3) बोफ़ोर्स, HDW और इस प्रकार की अन्य कम्पनियों को संदेह होते ही अर्थात सीबीआई में मामला जाने से पहले ही हथियार खरीद प्रक्रिया में “ब्लैक लिस्टेड” कर दिया गया था, लेकिन इस इज़राइली फ़र्म को आज तक ब्लैक लिस्टेड नहीं किया गया है।
4) ज़मीन से हवा में मार करने वाली इसी मिसाइल से मिलती-जुलती “आकाश” मिसाइल भारत की संस्था DRDO पहले ही विकसित कर चुकी है, लेकिन किन्हीं संदिग्ध कारणों से यह मिसाइल सेना में बड़े पैमाने पर शामिल नहीं की जा रही, और इज़राइली कम्पनी कि मिसाइल खरीदने का ताबड़तोड़ सौदा कर लिया गया है।
5) इस मिसाइल कम्पनी के संदिग्ध सौदों की जाँच खुद इज़राइल सरकार भी कर रही है।
6) इस कम्पनी की एक विज्ञप्ति में कहा जा चुका है कि “अग्रिम पैसा मिल जाने से हम इस सौदे के प्रति आश्वस्त हो गये हैं…” (यानी कि काम पूरा किये बिना अग्रिम पैसा भी दिया जा चुका है)।
7) 10,000 करोड़ के इस सौदे में “बिजनेस चार्जेस” (Business Charges) के तहत 6% का भुगतान किया गया है अर्थात सीधे-सीधे 600 करोड़ का घोटाला है।
8) इस संयुक्त उद्यम में DRDO को सिर्फ़ 3000 करोड़ रुपये मिलेंगे, बाकी की रकम वह कम्पनी ले जायेगी। भारत की मिसाइलों में “सीकर” (Seeker) तकनीक की कमी है, लेकिन यह कम्पनी उक्त तकनीक भी भारत को नहीं देगी।
9) केन्द्र सरकार ने इज़राइल सरकार से विशेष आग्रह किया था कि इस सौदे को फ़िलहाल गुप्त रखा जाये, क्योंकि भारत में चुनाव होने वाले हैं।
10) सौदे पर अन्तिम हस्ताक्षर 27 फ़रवरी 2009 को बगैर किसी को बताये किये गये, अर्थात लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक दो दिन पहले।
(यह सारी जानकारियाँ DNA Today में यहाँ देखें…, यहाँ देखें और यहाँ भी देखें, दी जा चुकी हैं, इसके अलावा दैनिक भास्कर के इन्दौर संस्करण में दिनांक 22 से 28 मार्च 2009 के बीच प्रकाशित हो चुकी हैं)
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तो यह तो हुई घोटाले में संदिग्ध आचरण और भारत में भ्रष्टाचार की जननी कांग्रेस सरकार की भूमिका, लेकिन पिछले एक-दो महीने (बल्कि जब से यह सौदा सत्ता और रक्षा मंत्रालय के गलियारे में आया तब) से हमारे भारत के महान चैनल, स्वयंभू “सबसे तेज़” चैनल, खासतौर पर गुजरात का कवरेज करने वाले “सेकुलर” चैनल, भूतप्रेत चुड़ैल और नौटंकी दिखाने वाले चैनल, “न्यूज़” के नाम पर छिछोरापन, राखी सावन्त और शिल्पा शेट्टी को दिखाने वाले चैनल…… आदि-आदि-आदि सभी चैनल कहाँ थे? क्या इतना बड़ा रक्षा सौदा घोटाला किसी भी चैनल की हेडलाइन बनने की औकात नहीं रखता? अभिषेक-ऐश्वर्या की करवा चौथ पर पूरे नौ घण्टे का कवरेज करने वाले चैनल इस खबर को एक घंटा भी नहीं दिखा सके, ऐसा क्यों? कमिश्नर का कुत्ता गुम जाने को “ब्रेकिंग न्यूज़” बताने वाले चैनल इस घोटाले पर एक भी ढंग का फ़ुटेज तक न दे सके?
पिछले कुछ वर्षों से इलेक्ट्रानिक मीडिया (और कुछ हद तक प्रिंट मीडिया) में एक “विशेष” रुझान देखने में आया है, वह है “सत्ताधारी पार्टी के चरणों में लोट लगाने की प्रवृत्ति”, ऐसा नहीं कि यह प्रवृत्ति पहले नहीं थी, पहले भी थी लेकिन एक सीमित मात्रा में, एक सीमित स्तर पर और थोड़ा-बहुत लोकलाज की शर्म रखते हुए। लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद जैसे-जैसे पत्रकारिता का पतन होता जा रहा है, वह शर्मनाक तो है ही, चिंतनीय भी है। चिंतनीय इसलिये कि पत्रकार, अखबार या चैनल पैसों के लिये बिकते-बिकते अब “विचारधारा” के भी गुलाम बनने लगे हैं, मिशनरी-मार्क्स-मुल्ला-मैकाले और माइनो ये पाँच शक्तियाँ मिलकर मीडिया को “मानसिक बन्धक” बनाये हुए हैं, इसका सबसे सटीक उदाहरण है उनके द्वारा किये गये समाचारों का संकलन, उनके द्वारा दिखाई जाने वाली “हेडलाइन”, उनके शब्दों का चयन, उनकी तथाकथित “ब्रेकिंग न्यूज़” आदि। अमरनाथ ज़मीन विवाद के समय “वन्देमातरम” और “भारत माता की जय” के नारे लगाती हुई भीड़, मीडिया को “उग्रवादी विचारों वाले युवाओं का झुण्ड” नज़र आती है, कश्मीर में 80,000 हिन्दुओं की हत्या सिर्फ़ “हत्याकाण्ड” या कुछ “सिरफ़िरे नौजवानों”(?) का घृणित काम, जबकि गुजरात में कुछ सौ मुस्लिमों (और साथ में लगभग उतने ही हिन्दू भी) की हत्याएं “नरसंहार” हैं? क्या अब मीडिया के महन्तों को “हत्याकांड” और “नरसंहार” में अन्तर समझाना पड़ेगा? कश्मीर से बाहर किये गये साढ़े तीन लाख हिन्दुओं के बारे में कोई रिपोर्टिंग नहीं, मुफ़्ती-महबूबा की जोड़ी से कोई सवाल जवाब नहीं, लेकिन गुजरात के बारे में रिपोर्टिंग करते समय “जातीय सफ़ाया” (Genocide) शब्द का उल्लेख अवश्य करते हैं। केरल में सिस्टर अभया के बलात्कार और हत्याकाण्ड तथा उसमें चर्च की भूमिका के बारे में किसी चैनल पर कोई खबर नहीं आती, केरल में ही बढ़ते तालिबानीकरण और चुनावों में मदनी की भूमिका की कोई रिपोर्ट नहीं, लेकिन आसाराम बापू के आश्रम की खबर सुर्खियों में होती है, उस पर चैनल का एंकर चिल्ला-चिल्ला कर, पागलों जैसे चेहरे बनाकर घंटों खबरें परोसता है। सरस्वती वन्दना का विरोध कभी हेडलाइन नहीं बनता, लेकिन हवालात में आँसू लिये शंकराचार्य खूब दिखाये जाते हैं… लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या पर खामोशी, लेकिन मंगलोर की घटनाओं पर विलाप-प्रलाप…रैम्प पर चलने वाली किसी घटिया सी मॉडल पर एक घंटा कवरेज और छत्तीसगढ़ में मारे जा रहे पुलिस के जवानों पर दस मिनट भी नहीं?… ये कैसे “राष्ट्रीय चैनल” हैं भाई? क्या इनका “राष्ट्र” गुड़गाँव और नोएडा तक ही सीमित है? हिन्दुओं के साथ भेदभाव और गढ़ी गई नकली खबरें दिखाने के और भी सैकड़ों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं, लेकिन इन “रसूख”(?) वाले चैनलों को मिसाइल घोटाला नहीं दिखाई देता? इसे कांग्रेस द्वारा “अच्छी तरह से किया गया मीडिया मैनेजमेंट” कहा जाये या कुछ और, कि आजम खान द्वारा भारतमाता को डायन कहे जाने के बावजूद हेडलाइन बनते हैं “वरुण गाँधी”? कल ही जीटीवी पर एंकर महोदय दर्शकों से प्रश्न पूछ रहे थे कि पिछले 5 साल में आपने वरुण गाँधी का नाम कितनी बार सुना और पिछले 5 दिनों में आपने वरुण गाँधी का नाम कितनी बार सुन लिया? लेकिन वह ये नहीं बताते कि पिछले 5 दिनों में उन्होंने खुद ही वरुंण गाँधी का नाम हजारों बार क्यों लिया? ऐसी क्या मजबूरी थी कि बार-बार वरुण गाँधी का वही घिसा-पिटा टेप लगातार चलाया जा रहा है… यदि वरुण की खबर न दिखाये तो क्या चैनल का मालिक भूखा मर जायेगा? वरुण को हीरो किसने बनाया, मीडिया ने… लेकिन मीडिया कभी भी खुद जवाब नहीं देता, वह कभी भी खुद आत्ममंथन नहीं करता, कभी भी गम्भीरता से किसी बात के पीछे नहीं पड़ता, उसे तो रोज एक नया शिकार(?) चाहिये…। यदि मीडिया चाहे तो नेताओं द्वारा “धर्म” और उकसावे के खेल को भोथरा कर सकता है, लेकिन जब TRP नाम का जिन्न गर्दन पर सवार हो, और “हिन्दुत्व” को गरियाने से फ़ुर्सत मिले तो वह कुछ करे…
मीडिया को सोचना चाहिये कि कहीं वह बड़ी शक्तियों के हाथों में तो नहीं खेल रहा, कहीं “धर्मनिरपेक्षता”(?) का बखान करते-करते अनजाने ही किसी साजिश का हिस्सा तो नहीं बन रहा? माना कि मीडिया पर “बाज़ार” का दबाव है उसे बाज़ार में टिके रहने के लिये कुछ चटपटा दिखाना आवश्यक है, लेकिन पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धान्तों को भूलने से कैसे काम चलेगा? पत्रकार का मुख्य काम होना चाहिये “सरकार” के बखिये उधेड़ना, लेकिन भारत में उल्टा ही होता है इधर तो मीडिया विपक्ष के बखिये उधेड़ने में ही भिड़ा हुआ है… ऐसे में भला मिसाइल घोटाले पर रिपोर्टिंग क्योंकर होगी? या फ़िर ऐसा भी हो सकता है कि मीडिया को “भ्रष्टाचार” की खबर में TRP का कोई स्कोप ही ना दिखता हो… या फ़िर किसी चैनल का मालिक उसी पार्टी का राज्यसभा सदस्य हो, मंत्री का चमचा हो…। फ़िर खोजी पत्रकारिता करने के लिये जिगर के साथ-साथ थोड़ा “फ़ील्ड वर्क” भी करना पड़ता है… जब टेबल पर बैठे-बैठे ही गूगल और यू-ट्यूब के सहारे एक झनझनाट रिपोर्ट बनाई जा सकती है तो कौन पत्रकार धूप में मारा-मारा फ़िरे? कोलकाता के “स्टेट्समैन” अखबार ने कुछ दिनों पहले ही “इस्लाम” के खिलाफ़ कुछ प्रकाशित करने की “सजा”(?) भुगती है… इसीलिये मीडिया वाले सोचते होंगे कि कांग्रेस के राज में घोटाले तो रोज ही होते रहते हैं, सबसे “सेफ़” रास्ता अपनाओ, यानी हिन्दुत्व-भाजपा-संघ-मोदी को गरियाते रहो, जिसमें जूते खाने, नौकरी जाने आदि का खतरा नहीं के बराबर हो… क्योंकि एक अरब हिन्दुओं वाला देश ही इस प्रकार का “सहनशील”(???) हो सकता है…
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गुरुवार, 19 मार्च 2009 13:39
सड़क किनारे मिलने वाले नीबू पानी में शवगृहों का बर्फ़???
Cold Drinks, Ice, Road side vendors in India
प्रतिवर्ष गर्मी नये-नये रिकॉर्ड बना रही है, ऐसे में आम आदमी को गला तर करने के लिये सड़क किनारे मिलने वाले बर्फ़ के गोले और नींबू पानी पर निर्भर होना होता है, क्योंकि गरीब आदमी महंगे-महंगे बहुराष्ट्रीय शीतलपेय नहीं खरीद सकता।
सड़क किनारे मिलने वाले खाद्य और पेय पदार्थों में अक्सर मिलावट और हल्की सामग्री मिलाने के समाचार तो आते ही रहते हैं। गंदगी और अशुद्धता के बारे में भी खबरें प्रकाशित होती रहती हैं, लेकिन हाल ही में एक चौंकाने वाली खबर आई है कि सड़क किनारे मिलने वाले ठण्डे नींबू पानी में शवगृहों के शव के नीचे रखे बर्फ़ का पानी मिलाया जा रहा है। इसका खुलासा उस समय हुआ जब मुम्बई के विभिन्न शवगृहों के बाहर बर्फ़ खरीदने वाले व्यापारियों का जमघट देखा गया। असल में शव को सड़ने से बचाने के लिये उसे बर्फ़ की सिल्लियों पर रखा जाता है, जब यह बर्फ़ की सिल्ली पिघलते-पिघलते आधी से भी कम हो जाती है तब अस्पतालों और सरकारी शवगृहों के कर्मचारियों की मिलीभगत से उसे बाहर आधे से भी कम दामों पर बेच दिया जाता है। सड़क किनारे ठण्डा नींबू पानी, बर्फ़ के गोले, मछली, मटन ठंडा रखने और फ़्रेश जूस(?) आदि बेचने वाले, इस शव रखे हुए बर्फ़ को खरीद लेते हैं, ताकि मुनाफ़ा बढ़े, क्योंकि बर्फ़ फ़ैक्टरियों से उन्हें बर्फ़ महंगे दामों पर मिलता है। जबकि बर्फ़ फ़ैक्टरी वाले भी बर्फ़ बनाने के लिये शुद्ध पानी का उपयोग न करते हुए, गाय-भैंस को पानी पिलाने वाले भरे-भराये हौद तथा प्रदूषित पोखरों-तालाबों से लाये गये पानी का उपयोग ही बर्फ़ बनाने के लिये करते हैं, लेकिन फ़िर भी शवगृहों से बर्फ़ खरीदने की खबर चिंतित करने वाली है। पैसा देकर भी ठीक-ठाक वस्तु न मिले तो आखिर गरीब आदमी कहाँ जाये?
और सिर्फ़ गरीबों की ही बात क्या करें, मिठाई पर लगने वाले चांदी के वर्क बनाने के लिये उसे भैंस के लीवर में रखकर कूटा जाता है ताकि उसे बेहद पतला से पतला किया जा सके…। रोज़ भगवान के सामने जलाई जाने वाली अगरबत्ती में लगने वाले बाँस की काड़ी में भी, शव जलाने से पहले फ़ेंके जाने वाले अर्थी के बाँस का उपयोग हो रहा है, क्योंकि प्रत्येक शव के साथ दो बाँस मुफ़्त में मिल जाते हैं…
इस खबर को स्थानीय छोटे व्यापारियों का विरोध और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का समर्थन न समझा जाये, क्योंकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भले ही साफ़-सफ़ाई रखें, चमक-दमक से मोहित करें, लेकिन पीछे से आपकी और देश की जेब काटने में लगी हैं, इसलिये वे तो और भी खतरनाक हैं… बताओ कहाँ-कहाँ और कैसे बचोगे इस देश में…
(नोट - किसी वरिष्ठ ब्लॉगर ने कहा है कि स्वाद बदलने के लिये ऐसी माइक्रो-पोस्ट लिखते रहना चाहिये)
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रविवार, 08 मार्च 2009 11:23
महिला दिवस, शोभा डे और “सीता सेना”… (एक अभद्र और पिछड़ी सी माइक्रो पोस्ट)
World Women’s Day, Shobha De, SITA Sena
हालांकि महिला दिवस पर शोभा डे और खुशवन्त सिंह जैसों के बारे में कुछ लिखना एक कड़वा अनुभव होता है, लेकिन ये “पेज-थ्री हस्तियाँ”(?) अपनी “गिरावट” से मजबूर कर देती हैं कि उनके बारे में कुछ लिखा जाये। जैसा कि सभी जानते हैं शोभा डे नाम की एक “पोर्न लेखिका” भारत के “प्रगतिशील तबके”(?) में मशहूर हैं, अधिकतर अंग्रेजी में ही सोचती, बोलती और लिखती हैं, उन्होंने राम सेना के अत्याचारों के विरोध में महिला दिवस यानी 8 मार्च को नई दिल्ली में “सीटी बजाओ” अभियान का आयोजन किया है और अपनी इस किटी पार्टी सेना को नाम दिया है “सीता सेना”। जी हाँ, राम सेना के विरोध में उन्हें सीता सेना नाम ही सूझ पाया। एक तो यह हिन्दू नाम है और दूसरा इस नाम का “प्रोपेगंडा” करके सेकुलरों की जमात में और भी गहरे पैठा जा सकता है। यदि वे “फ़ातिमा सेना” या “मदर मैरी सेना” जैसा नाम (अव्वल तो रख ही नहीं पातीं) रखतीं और इंडिया गेट पर किसी प्रकार की लेक्चरबाजी करतीं तो उनका सिर फ़ूटना तय था। ये मोहतरमा इतनी महान और प्रगतिशील लेखिका हैं कि इनके हर तीसरे लेख में ‘S’ से शुरु होने वाला अंग्रेजी का तीन अक्षरों का शब्द अवश्य मौजूद होता है, सो बिक्री भी बहुत होती है, ठीक खुशवन्त सिंह की तरह, जो दारू और औरत पर लिखने के मामले में उस्ताद(?) हैं। मैडम का संक्षिप्त सा परिचय इस प्रकार है - शोभा राजाध्यक्ष, जिनका जन्म जनवरी 1947 में हुआ, ये एक मराठी सारस्वत ब्राह्मण हैं। इनके दूसरे पति दिलीप डे हैं और फ़िलहाल ये अपने छः बच्चों के साथ मुम्बई में निवास करती हैं।
भई हम तो ठहरे “साम्प्रदायिक”, “फ़ासिस्ट” “पिछड़े” और “दकियानूसी” लोग, इसलिये मैडम को हम सिर्फ़ सुझाव दे सकते हैं कि इंडिया गेट पर जमने वाली इन महिलाओं के इस झुण्ड को ये “शूर्पणखा सेना” का नाम भी तो दे सकती थीं…।
उधर एक और महिला हैं साध्वी प्रज्ञा, जो कि जेल में भोजन में अंडा परोसे जाने के कारण कई दिनों से भूख हड़ताल पर हैं, उनकी हालत नाजुक है और कोर्ट ने कहा है कि उन्हें अस्पताल में भरती किया जा सकता है (यह कोर्ट ही तय करेगा, भले ही साध्वी की हालत कितनी ही खराब हो जाये, कोई महिला संगठन उनके पक्ष में सामने नहीं आयेगा)। साध्वी प्रज्ञा जी को यह बात समझना चाहिये कि खाने में अण्डा दिये जाने जैसी “छोटी सी बात” पर इतना नाराज़ होने की क्या आवश्यकता है? क्या उन्हें पता नहीं कि “हिन्दुओं की धार्मिक भावना” नाम की कोई चीज़ नहीं होती? इसलिये सरेआम “सीता सेना” भी बनाई जा सकती है, और कोई भी पेंटर हिन्दुओं के भगवानों की नग्न तस्वीरें बना सकता है।
अब महिला दिवस पर इतने बड़े-बड़े लोगों के बारे में लिख दिया कि “फ़ुन्दीबाई सरपंच” (यहाँ देखें) जैसी आम और पिछड़ी महिलाओं के बारे में लिखने की क्या जरूरत है?
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हालांकि महिला दिवस पर शोभा डे और खुशवन्त सिंह जैसों के बारे में कुछ लिखना एक कड़वा अनुभव होता है, लेकिन ये “पेज-थ्री हस्तियाँ”(?) अपनी “गिरावट” से मजबूर कर देती हैं कि उनके बारे में कुछ लिखा जाये। जैसा कि सभी जानते हैं शोभा डे नाम की एक “पोर्न लेखिका” भारत के “प्रगतिशील तबके”(?) में मशहूर हैं, अधिकतर अंग्रेजी में ही सोचती, बोलती और लिखती हैं, उन्होंने राम सेना के अत्याचारों के विरोध में महिला दिवस यानी 8 मार्च को नई दिल्ली में “सीटी बजाओ” अभियान का आयोजन किया है और अपनी इस किटी पार्टी सेना को नाम दिया है “सीता सेना”। जी हाँ, राम सेना के विरोध में उन्हें सीता सेना नाम ही सूझ पाया। एक तो यह हिन्दू नाम है और दूसरा इस नाम का “प्रोपेगंडा” करके सेकुलरों की जमात में और भी गहरे पैठा जा सकता है। यदि वे “फ़ातिमा सेना” या “मदर मैरी सेना” जैसा नाम (अव्वल तो रख ही नहीं पातीं) रखतीं और इंडिया गेट पर किसी प्रकार की लेक्चरबाजी करतीं तो उनका सिर फ़ूटना तय था। ये मोहतरमा इतनी महान और प्रगतिशील लेखिका हैं कि इनके हर तीसरे लेख में ‘S’ से शुरु होने वाला अंग्रेजी का तीन अक्षरों का शब्द अवश्य मौजूद होता है, सो बिक्री भी बहुत होती है, ठीक खुशवन्त सिंह की तरह, जो दारू और औरत पर लिखने के मामले में उस्ताद(?) हैं। मैडम का संक्षिप्त सा परिचय इस प्रकार है - शोभा राजाध्यक्ष, जिनका जन्म जनवरी 1947 में हुआ, ये एक मराठी सारस्वत ब्राह्मण हैं। इनके दूसरे पति दिलीप डे हैं और फ़िलहाल ये अपने छः बच्चों के साथ मुम्बई में निवास करती हैं।
भई हम तो ठहरे “साम्प्रदायिक”, “फ़ासिस्ट” “पिछड़े” और “दकियानूसी” लोग, इसलिये मैडम को हम सिर्फ़ सुझाव दे सकते हैं कि इंडिया गेट पर जमने वाली इन महिलाओं के इस झुण्ड को ये “शूर्पणखा सेना” का नाम भी तो दे सकती थीं…।
उधर एक और महिला हैं साध्वी प्रज्ञा, जो कि जेल में भोजन में अंडा परोसे जाने के कारण कई दिनों से भूख हड़ताल पर हैं, उनकी हालत नाजुक है और कोर्ट ने कहा है कि उन्हें अस्पताल में भरती किया जा सकता है (यह कोर्ट ही तय करेगा, भले ही साध्वी की हालत कितनी ही खराब हो जाये, कोई महिला संगठन उनके पक्ष में सामने नहीं आयेगा)। साध्वी प्रज्ञा जी को यह बात समझना चाहिये कि खाने में अण्डा दिये जाने जैसी “छोटी सी बात” पर इतना नाराज़ होने की क्या आवश्यकता है? क्या उन्हें पता नहीं कि “हिन्दुओं की धार्मिक भावना” नाम की कोई चीज़ नहीं होती? इसलिये सरेआम “सीता सेना” भी बनाई जा सकती है, और कोई भी पेंटर हिन्दुओं के भगवानों की नग्न तस्वीरें बना सकता है।
अब महिला दिवस पर इतने बड़े-बड़े लोगों के बारे में लिख दिया कि “फ़ुन्दीबाई सरपंच” (यहाँ देखें) जैसी आम और पिछड़ी महिलाओं के बारे में लिखने की क्या जरूरत है?
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