यदि कोर्ट का निर्णय चर्च के खिलाफ़ है…… तो नहीं माना जायेगा (भाग-1)...... Church, Vatican, Conversion and Indian Judiciary

Written by बुधवार, 02 फरवरी 2011 12:32
देश में गत कुछ दिनों में तीन बेहद महत्वपूर्ण घटनाएं हुई हैं, पहला मामला है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा ग्राहम स्टेंस मामले में अपने ही निर्णय के शब्दों में संशोधन करना…

ग्राहम स्टेंस को जिन्दा जलाये जाने के मामले में दारा सिंह को फ़ाँसी दिये जाने की माँग को उम्रकैद में तब्दील करते समय सुप्रीम कोर्ट ने शुरु में अपने निर्णय में कहा था कि “किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था को किसी की धार्मिक आस्थाओं को बदलने की कोशिश, चाहे वह आर्थिक प्रलोभन के जरिये हो अथवा जबरन, नहीं करना चाहिये… ग्राहम स्टेंस की नृशंस हत्या उड़ीसा के आदिवासी इलाकों में चल रहे धर्म-परिवर्तन का नतीजा है…”, इस वाक्य पर चर्च से जुड़े मिशनरी एवं एवेंजेलिस्ट संगठनों ने बवाल मचा दिया, उनके सुर में सुर मिलाने के लिये हमारे यहाँ फ़र्जी NGOs एवं ढेर सारे विदेशी पालतू-कुत्तेनुमा मानवाधिकार संगठन हैं…सभी ने मिलकर “धर्म परिवर्तन” शब्द को लेकर आपत्ति के भोंपू बजाना शुरु कर दिया… और सभी को अचरज में डालते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही निर्णय के कुछ अंशों को बदलते हुए उन सभी को खुश कर दिया, जो भारत की तथाकथित “गंगा-जमनी” संस्कृति का ढोल बजाते नहीं थकते। लेकिन इससे चर्च द्वारा गरीबों को आर्थिक प्रलोभन देकर एवं बहला-फ़ुसलाकर किये जाने वाले धर्म परिवर्तन की हकीकत बदलने वाली नहीं है… और जो “कथित सेकुलर” यह माने बैठे हैं कि भारत में बैठे मिशनरी के पिठ्ठू सिर्फ़ “गरीबों की सेवा” के लिये हैं, तो उन्हें अपना मुगालता जल्दी ही दूर कर लेना चाहिये। (यहाँ क्लिक करके अरुण शौरी का विचारोत्तेजक लेख पढ़िये...)



“चर्च” की मीडिया पर कितनी तगड़ी “पकड़” है यह इस बात से साबित होता है कि सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय में अपने “शब्दों” को एक-दो दिन बाद बदला, लेकिन इन दिनों के दौरान “मुख्य रूप से बिकाऊ एवं हिन्दू विरोधी मीडिया”(?) के किसी भी व्यक्ति ने “धर्म परिवर्तन” एवं मिशनरी संस्थाओं के संदिग्ध आचरण के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा, आदिवासी क्षेत्रों में चलाये जा रहे धर्मान्तरण पर कोई बहस नहीं हुई… जबकि दारा सिंह को लेकर हिन्दूवादी संस्थाओं को घेरने और गरियाने का सिलसिला लगातार चलाया गया। मैं जानना चाहता हूँ, कि क्या किसी ने भारत के “तथाकथित मुख्य मीडिया” में “चर्च” के बढ़ते दबाव एवं प्रभाव को रेखांकित करने की कोशिश करते देखा है? क्या इस मामले को लेकर मीडिया के किसी हिस्से मिशनरीज़ द्वारा किये जा रहे “धर्म परिवर्तन” पर कोई गम्भीर बहस पढ़ी-सुनी है? असल में ग्राहम स्टेंस की हत्या के मूल कारण अर्थात “धर्मान्तरण” मामले को चुपचाप दफ़नाकर, सारा का सारा फ़ोकस दारासिंह एवं हिन्दुत्ववादियों पर ही रखा गया। परन्तु चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने खुलेआम स्टेंस मामले में चर्च को धर्मान्तरण के मुद्दे पर “नंगा” कर दिया, इसलिये इस निर्णय के खिलाफ़ जमकर हो-हल्ला मचाया गया…



दूसरी घटना है कर्नाटक में 2008 में विभिन्न चर्चों पर हमले की घटनाओं के सम्बन्ध में न्यायिक आयोग की रिपोर्ट। इस रिपोर्ट में माननीय जज महोदय ने 2 साल की तफ़्तीश, सैकड़ों गवाहों के बयान, वीडियो फ़ुटेज एवं अखबारों के आधार पर साफ़ कहा कि चर्च पर हमले के पीछे “संघ परिवार” का हाथ नहीं है, बल्कि यह कुछ भटके हुए नौजवानों का काम है जो चर्च के ही एक गुट “एवेंजेलिस्टों” द्वारा हिन्दुओं के भगवानों के खिलाफ़ दुभावना फ़ैलाने वाला साहित्य बाँट रहे थे। आयोग ने अपना निर्णय 28 जनवरी शाम को पेश किया, लेकिन मीडिया ने आयोग की सैकड़ों पेज की रिपोर्ट को पढ़े बिना ही 28 तारीख की रात से ही हल्ला मचाना शुरु कर दिया… कि आयोग की रिपोर्ट निराशाजनक है, एकतरफ़ा है, संघ परिवार को क्लीन चिट कैसे दे दी गई आदि-आदि। इस मुद्दे पर टीवी पर बहस भी आयोजित करवा ली गई, और टाइम्स नाऊ का अर्नब गोस्वामी (नाम तो हिन्दू जैसा ही रखता है, बाकी पता नहीं) संघ परिवार को क्लीन चिट दिये जाने के कारण बेहद दुखी दिखाई दे रहा था। शायद उसे नहीं मालूम था कि मध्यप्रदेश में भी झाबुआ तथा रतलाम में दो चर्चों पर हुए हमलों में चर्च के ही पूर्व कर्मचारी दोषी पाये गये थे, लेकिन चूंकि न्यायिक आयोग ने चर्च के हो-हल्ले के बहकावे में न आकर उसके खिलाफ़ निर्णय सुनाया है, तो “हम नहीं मानेंगे…”, तब तक चीख-पुकार करेंगे जब तक कि संघ परिवार को दोषी न ठहरा दिया जाये…। ग्राहम स्टेंस वाले जिस पहले मामले का उल्लेख ऊपर किया है उसमें भी मिशनरी को इस बात का “मलाल” था कि दारा सिंह की फ़ाँसी की सजा को सुप्रीम कोर्ट ने उम्रकैद में क्यों बदल दिया? यानी कि मिशनरी और वेटिकन तभी संतुष्ट होंगे, जब उनके मन-मुताबिक निर्णय मिले…  (चित्र में मिशनरी के बढ़ चुके तथा बढ़ते प्रभाव वाले क्षेत्र लाल रंग से दर्शाए गये हैं…)

तीसरी घटना भी अपने-आप में अनूठी है… छत्तीसगढ़ में बिनायक सेन के मामले में कोर्ट में सुनवाई के दौरान यूरोपीय यूनियन के सदस्यों ने उपस्थिति की माँग कर दी है, केन्द्र की पिलपिली, भारत के आत्मसम्मान और स्वाभिमान को गिरवी रखने वाली एवं कोई भी निर्णय लेने में आगे-पीछे देखने वाली, केन्द्र सरकार ने मामला राज्य सरकार के पाले में धकेल दिया है। यूरोपीय यूनियन के सदस्य छत्तीसगढ़ पहुँच भी गये, किसी ने नहीं पूछा कि आखिर “बाहर” वालों को हमारी न्यायिक व्यवस्था में दखल देने का क्या अधिकार है? यूरोपियन यूनियन के सदस्य बिनायक सेन से इतनी हमदर्दी क्यों रखे हुए हैं? क्या कभी भारत की किसी संस्था को इंग्लैंड अथवा ऑस्ट्रेलिया में सिखों अथवा हिन्दुओं पर हुए हमले की सुनवाई के दौरान उपस्थित रहने की अनुमति दी गई या भारत सरकार ने माँगी? उल्लेखनीय है कि बिनायक सेन का मामला अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों(?) द्वारा जोरशोर से उठाया जा रहा है, बड़ा हल्ला मचाया जा रहा है कि बिनायक सेन पर अन्याय हो गया, गजब हो गया… आदि-आदि-आदि, जबकि अभी सिर्फ़ “लोअर कोर्ट” में ही केस चल रहा है। अयोध्या मामले पर बार-बार हिन्दुओं को “कानून अपना काम करेगा” की नसीहत देने वाले नकली और चन्दाखोर मानवाधिकार संगठनों में इतना भी धैर्य नहीं है कि हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट में मामला चलने दें और कानून को अपना काम करने दें… लेकिन कोर्ट को “दबाव” में लाने के लिये, अब चर्च यूरोपियन यूनियन के सदस्यों को कोर्ट में बैठायेगा… (मैं जानता हूं, आपको “साइमन कमीशन गो बैक” की याद आ गई होगी, लेकिन लाला लाजपतराय वाला ज़माना अब कहाँ रहा?)। आप सोच रहे होंगे कि बिनायक सेन तो नक्सलवादियों के समर्थक हैं, उनका चर्च से क्या लेना-देना?

पढ़ते रहिये…… भाग-2 में जारी रहेगा…
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Super User

 

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I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles. 

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