हंसराज भारद्वाज की एक और भद्दी हरकत तथा चर्च-बिनायक सेन की जुगलबन्दी… Church, Conversion, HR Bharadwaj, Binayak Sen, Chidanand Murty
Written by Super User सोमवार, 14 फरवरी 2011 18:45
जैसा कि सभी जानते हैं कर्नाटक के “महा”(महिम) हंसराज भारद्वाज “अपने मालिक” को खुश करने का कोई मौका कभी नहीं गंवाते। कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी और मनीष तिवारी की तरह ही “वकालत के पेशे को नई ऊँचाईयाँ”(?) देने वाले श्री हंसराज भारद्वाज ने इसी कड़ी में कर्नाटक में एक और गुल खिलाया है…
उल्लेखनीय है कि हाल ही में कर्नाटक में जस्टिस सोमशेखर ने 2008 में कुछ चर्च परिसरों पर हुए हमलों की जाँच की रिपोर्ट सौंपी, जिसमें उन्होंने साफ़ कहा कि चर्च पर हुए हमलों में संघ का कोई हाथ नहीं है, यह कुछ सिरफ़िरे लोगों एवं “एवेंजेलिस्टों” द्वारा हिन्दू भगवानों को दुर्भावनापूर्ण चित्रित करने के विरोध में व्यक्तिगत रुप से किया गया कृत्य है। जस्टिस सोमशेखर की इस रिपोर्ट से कर्नाटक के ईसाई नाराज़ हैं और उनका कहना है कि “इंसाफ़ नहीं हुआ” (यानी इंसाफ़ तभी माना जाता है, जब किसी हिन्दूवादी संगठन को दोषी माना जाये, तीस्ता भी यही चिल्लाती हैं)। कर्नाटक के राज्यपाल भारद्वाज साहब भी इस रिपोर्ट को लेकर खासे खफ़ा हैं (ज़ाहिर सी बात है…)।
बहरहाल, मामला यह है कि… कर्नाटक के एक अति-सम्माननीय इतिहासकार एवं कन्नड़ भाषा के सशक्त हस्ताक्षर श्री एम चिदानन्द मूर्ति (M. Chidananda Murty) को बंगलोर विश्वविद्यालय (Bangalore University) ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि देने का फ़ैसला किया। डॉ चिदानन्द मूर्ति की कर्नाटक में खासी इज्जत की जाती है और कन्नड़ भाषा में उनका योगदान अप्रतिम है। साहित्य की इस सेवा के सम्मान स्वरूप विश्वविद्यालय ने उन्हें यह मानद उपाधि देने का फ़ैसला किया था (चित्र :- प्रोफ़ेसर मूर्ति) । डॉ चिदानन्द जी ने जस्टिस सोमशेखर की रिपोर्ट (Justice Somshekhar Report Denied by Christians) पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सिर्फ़ इतना कहा था कि “किसी भी प्रकार का, जबरिया अथवा लालच, से किया गया धर्मान्तरण गलत है…”। अब इस वक्तव्य में भारद्वाज जी को पता नहीं कौन सी “साम्प्रदायिकता” दिखाई दे गई, उन्होंने “खुन्नस” में आकर बंगलोर विश्वविद्यालय के “कुलाधिपति” होने के अधिकार का प्रयोग करते हुए डॉ चिदानन्द मूर्ति को दी जाने वाली मानद उपाधि को रोकने का आदेश दे डाला।
अपने इस “कृत्य” को सही ठहराने के भौण्डे प्रयास में हंसराज जी ने कहा कि “मैं जस्टिस सोमशेखर की रिपोर्ट से बहुत हैरान और आहत हूं, साथ ही ईसाई समाज भी बहुत दुखी महसूस कर रहा है… ऐसे में प्रोफ़ेसर मूर्ति को यह बयान नहीं देना चाहिये था… इसलिये मैं फ़िलहाल “तात्कालिक” रुप से डॉ मूर्ति को दी जाने वाली उपाधि को कुछ समय रोकने का आदेश दे रहा हूँ… हमें यह देखना होगा कि डॉ चिदानन्द की “पृष्ठभूमि”(?) क्या है एवं राज्य के मुखिया होने के नाते मेरा यह कर्तव्य है कि मैं “साम्प्रदायिकता” बढ़ावा न दूं…। राज्य में कहीं भी धर्मान्तरण नहीं हो रहा है और अल्पसंख्यकों (यानी ईसाईयों) के हितों की देखभाल करना मेरी जिम्मेदारी है…”। इसे कहते हैं एक परम्परागत कांग्रेसी की सदाबहार “चर्च-भक्ति”, उल्लेखनीय है कि प्रोफ़ेसर चिदानन्द मूर्ति न तो भाजपा से जुड़े हुए हैं और न ही संघ-विहिप के सदस्य हैं, बल्कि कई बार उन्होंने भाजपा की नीतियों की आलोचना भी की है…
राज्यपाल के इस अप्रत्याशित निर्णय ने कर्नाटक के शैक्षिक एवं साहित्यिक जगत में भूचाल ला दिया… सभी उबल पड़े। प्रोफ़ेसर मूर्ति ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि “मुझे इस निर्णय पर आश्चर्य एवं दुख हुआ है, मैंने न तो कभी चर्च पर हमलों का समर्थन किया है न ही कभी ईसाईयों की स्थिति के बारे में कुछ कहा… मैंने सिर्फ़ जबरन या लालच के द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण को गलत बताया था…”। कर्नाटक के ही ख्यातनाम लेखक और ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त डॉ यूआर अनन्तमूर्ति (U R Ananthamurthy) ने भी भारद्वाज को लताड़ लगाते हुए कहा कि “उन्हें अकादमिक लोगों को ऐसे फ़ूहड़ विवादों में नहीं घसीटना चाहिये, यह कन्नड़ भाषा और संस्कृति का भी अपमान है कि एक जाने-माने लेखक एवं इतिहासकार को सिर्फ़ एक बयान के आधार पर “साम्प्रदायिक” घोषित करने की कोशिश हो रही है और वह भी राज्य के सर्वोच्च मुखिया द्वारा…”। एक अन्य प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक चन्द्रशेखर पाटिल ने कहा कि “भाजपा की सरकार को बर्खास्त करने के बहाने ढूंढ रहे राज्यपाल ने ईसाईयों के हितों की आड़ लेकर यह गलत परम्परा डालने की शुरुआत की है, जो कि निन्दनीय है… हम न तो चर्च पर हुए हमलों के पक्ष में हैं और न ही ईसाईयों के विरोध में हैं, लेकिन भारद्वाज साफ़ तौर पर कांग्रेस के एजेण्ट के रुप में काम कर रहे हैं…”। (असल में सभी जानते हैं कि भारद्वाज कांग्रेस को नहीं, बल्कि “माइनो” या कहें कि प्रकारान्तर से “चर्च” को खुश करने के लिये यह सब कर रहे हैं…)
इससे पहले भी कई बार अन्य कई राज्यों में चर्च पर हुए हमलों की जाँच में संघ का हाथ होने की बजाय चर्च की अन्दरूनी राजनीति और कर्मचारी ही निकले । सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल ही में दारासिंह-ग्राहम स्टेंस मामले में माना था (Supreme Court Judgement modified) कि “धर्मान्तरण” और एवेंजेलिस्टों की नापाक गतिविधियों की वजह से समाज में तनाव बढ़ रहा है, परन्तु हर बात के लिये “संघ-भाजपा” को दोषी ठहराने से “अल्पसंख्यक” खुश होते हैं… यह बात भारद्वाज भी जानते हैं और दिग्विजय सिंह भी…। खैर ये बेचारे भी क्या करें, इन्हें भी तो “ऊपर” से दिया गया “”आदेश” मानना पड़ता है…
ताज़ा स्थिति यह है कि चौतरफ़ा आलोचना और मीडिया द्वारा इस मुद्दे पर साथ न देने की वजह से हंसराज भारद्वाज को अपना आदेश वापस लेना पड़ा, हालांकि “महामहिम” ने इस सम्बन्ध में कोई आधिकारिक खेद व्यक्त नहीं किया…। इस घटना से साफ़ है कि जहाँ एक तरफ़ तो “चर्च” का दबाव उच्च संस्थाओं पर बढ़ता ही जा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह भी स्थापित होता है कि संघ-भाजपा के पक्ष में बोलने भर से, अथवा नरेन्द्र मोदी जैसों के साथ दिखाई देने भर से, आप “साम्प्रदायिक” घोषित हो जाते हैं…, “अछूत” करार दिये जा सकते हैं…। सोचिये जब इस बुढ़ापे में और इतने उच्च पद पर आसीन व्यक्ति मन में ऐसी “क्षुद्र खुन्नस” रखेगा, तो इस लोकतन्त्र का मालिक “ऊपरवाला” ही है…
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चलते-चलते : एक बार फ़िर से “चर्च” (बल्कि नक्सलवादियों-माओवादियों) के बेनकाब होने की खबर भी पढ़ लीजिये…(पहले यहाँ आप पढ़ चुके हैं… Church in favour of Binayak sen)
केरल काउंसिल ऑफ़ चर्च (KCC) जो कि विभिन्न कैथोलिक चर्चों का एक समूह संगठन है, उसने छत्तीसगढ़ में बिनायक सेन, नारायन सान्याल एवं पीयूष गुहा के प्रति अपना समर्थन जताया है (ज़ाहिर है भई, “अपने” लोगों के प्रति चर्च तो समर्थन दिखाएगा ही)। KCC के प्रवक्ता फ़िलिप एन थॉमस ने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मानवाधिकारों के हनन के विरोध और निर्दोष नागरिकों पर हो रहे ज़ुल्म के खिलाफ़ हमारा नैतिक समर्थन जारी रहेगा…। बिनायक सेन के प्रति अपना समर्थन जताने के लिये थिरुवल्ला स्थित एमएम थॉमस मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा 9 फ़रवरी को एक सभा आयोजित की गई, जिसमें “मानवाधिकारों” को लेकर (अर्थात हिन्दुओं के मानवाधिकार छोड़कर) सतत चिन्तित रहने वाले संगठनों ने अपनी चिंता ज़ाहिर की… (Kerala Council of Churches) । चर्च और नक्सलवादियों के गठजोड़ के बारे में लगातार खबरें आती रहती हैं, लेकिन वामपंथियों को यह समझ नहीं रहा (या शायद समझना नहीं चाहते) कि एक बड़ी साजिश के तहत उनका “उपयोग” किया जा रहा है…। रायपुर में विदेशियों की आवक अचानक बढ़ गई है, विभिन्न देशों के 35-40 नोबल पुरस्कार विजेताओं को “घेरकर-हाँककर” कर लाना फ़िर उनसे बिनायक सेन के समर्थन में रैली आयोजित करवाना तथा उड़ीसा में बड़ी सफ़ाई से स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या करवाना जैसे बड़े काम, किसी “ऐरे-गैरे” के बस की बात नहीं है भईया…
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पिछले लेख में भी कहा था, कि भई हम तो “चौकीदार” हैं (साहित्यकार या लेखक होने का मुगालता अपन पालते नहीं है), सीटी बजाना हमारा काम है… आप जागेंगे या नहीं, यह आप पर निर्भर है…
उल्लेखनीय है कि हाल ही में कर्नाटक में जस्टिस सोमशेखर ने 2008 में कुछ चर्च परिसरों पर हुए हमलों की जाँच की रिपोर्ट सौंपी, जिसमें उन्होंने साफ़ कहा कि चर्च पर हुए हमलों में संघ का कोई हाथ नहीं है, यह कुछ सिरफ़िरे लोगों एवं “एवेंजेलिस्टों” द्वारा हिन्दू भगवानों को दुर्भावनापूर्ण चित्रित करने के विरोध में व्यक्तिगत रुप से किया गया कृत्य है। जस्टिस सोमशेखर की इस रिपोर्ट से कर्नाटक के ईसाई नाराज़ हैं और उनका कहना है कि “इंसाफ़ नहीं हुआ” (यानी इंसाफ़ तभी माना जाता है, जब किसी हिन्दूवादी संगठन को दोषी माना जाये, तीस्ता भी यही चिल्लाती हैं)। कर्नाटक के राज्यपाल भारद्वाज साहब भी इस रिपोर्ट को लेकर खासे खफ़ा हैं (ज़ाहिर सी बात है…)।
बहरहाल, मामला यह है कि… कर्नाटक के एक अति-सम्माननीय इतिहासकार एवं कन्नड़ भाषा के सशक्त हस्ताक्षर श्री एम चिदानन्द मूर्ति (M. Chidananda Murty) को बंगलोर विश्वविद्यालय (Bangalore University) ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि देने का फ़ैसला किया। डॉ चिदानन्द मूर्ति की कर्नाटक में खासी इज्जत की जाती है और कन्नड़ भाषा में उनका योगदान अप्रतिम है। साहित्य की इस सेवा के सम्मान स्वरूप विश्वविद्यालय ने उन्हें यह मानद उपाधि देने का फ़ैसला किया था (चित्र :- प्रोफ़ेसर मूर्ति) । डॉ चिदानन्द जी ने जस्टिस सोमशेखर की रिपोर्ट (Justice Somshekhar Report Denied by Christians) पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सिर्फ़ इतना कहा था कि “किसी भी प्रकार का, जबरिया अथवा लालच, से किया गया धर्मान्तरण गलत है…”। अब इस वक्तव्य में भारद्वाज जी को पता नहीं कौन सी “साम्प्रदायिकता” दिखाई दे गई, उन्होंने “खुन्नस” में आकर बंगलोर विश्वविद्यालय के “कुलाधिपति” होने के अधिकार का प्रयोग करते हुए डॉ चिदानन्द मूर्ति को दी जाने वाली मानद उपाधि को रोकने का आदेश दे डाला।
अपने इस “कृत्य” को सही ठहराने के भौण्डे प्रयास में हंसराज जी ने कहा कि “मैं जस्टिस सोमशेखर की रिपोर्ट से बहुत हैरान और आहत हूं, साथ ही ईसाई समाज भी बहुत दुखी महसूस कर रहा है… ऐसे में प्रोफ़ेसर मूर्ति को यह बयान नहीं देना चाहिये था… इसलिये मैं फ़िलहाल “तात्कालिक” रुप से डॉ मूर्ति को दी जाने वाली उपाधि को कुछ समय रोकने का आदेश दे रहा हूँ… हमें यह देखना होगा कि डॉ चिदानन्द की “पृष्ठभूमि”(?) क्या है एवं राज्य के मुखिया होने के नाते मेरा यह कर्तव्य है कि मैं “साम्प्रदायिकता” बढ़ावा न दूं…। राज्य में कहीं भी धर्मान्तरण नहीं हो रहा है और अल्पसंख्यकों (यानी ईसाईयों) के हितों की देखभाल करना मेरी जिम्मेदारी है…”। इसे कहते हैं एक परम्परागत कांग्रेसी की सदाबहार “चर्च-भक्ति”, उल्लेखनीय है कि प्रोफ़ेसर चिदानन्द मूर्ति न तो भाजपा से जुड़े हुए हैं और न ही संघ-विहिप के सदस्य हैं, बल्कि कई बार उन्होंने भाजपा की नीतियों की आलोचना भी की है…
राज्यपाल के इस अप्रत्याशित निर्णय ने कर्नाटक के शैक्षिक एवं साहित्यिक जगत में भूचाल ला दिया… सभी उबल पड़े। प्रोफ़ेसर मूर्ति ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि “मुझे इस निर्णय पर आश्चर्य एवं दुख हुआ है, मैंने न तो कभी चर्च पर हमलों का समर्थन किया है न ही कभी ईसाईयों की स्थिति के बारे में कुछ कहा… मैंने सिर्फ़ जबरन या लालच के द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण को गलत बताया था…”। कर्नाटक के ही ख्यातनाम लेखक और ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त डॉ यूआर अनन्तमूर्ति (U R Ananthamurthy) ने भी भारद्वाज को लताड़ लगाते हुए कहा कि “उन्हें अकादमिक लोगों को ऐसे फ़ूहड़ विवादों में नहीं घसीटना चाहिये, यह कन्नड़ भाषा और संस्कृति का भी अपमान है कि एक जाने-माने लेखक एवं इतिहासकार को सिर्फ़ एक बयान के आधार पर “साम्प्रदायिक” घोषित करने की कोशिश हो रही है और वह भी राज्य के सर्वोच्च मुखिया द्वारा…”। एक अन्य प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक चन्द्रशेखर पाटिल ने कहा कि “भाजपा की सरकार को बर्खास्त करने के बहाने ढूंढ रहे राज्यपाल ने ईसाईयों के हितों की आड़ लेकर यह गलत परम्परा डालने की शुरुआत की है, जो कि निन्दनीय है… हम न तो चर्च पर हुए हमलों के पक्ष में हैं और न ही ईसाईयों के विरोध में हैं, लेकिन भारद्वाज साफ़ तौर पर कांग्रेस के एजेण्ट के रुप में काम कर रहे हैं…”। (असल में सभी जानते हैं कि भारद्वाज कांग्रेस को नहीं, बल्कि “माइनो” या कहें कि प्रकारान्तर से “चर्च” को खुश करने के लिये यह सब कर रहे हैं…)
इससे पहले भी कई बार अन्य कई राज्यों में चर्च पर हुए हमलों की जाँच में संघ का हाथ होने की बजाय चर्च की अन्दरूनी राजनीति और कर्मचारी ही निकले । सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल ही में दारासिंह-ग्राहम स्टेंस मामले में माना था (Supreme Court Judgement modified) कि “धर्मान्तरण” और एवेंजेलिस्टों की नापाक गतिविधियों की वजह से समाज में तनाव बढ़ रहा है, परन्तु हर बात के लिये “संघ-भाजपा” को दोषी ठहराने से “अल्पसंख्यक” खुश होते हैं… यह बात भारद्वाज भी जानते हैं और दिग्विजय सिंह भी…। खैर ये बेचारे भी क्या करें, इन्हें भी तो “ऊपर” से दिया गया “”आदेश” मानना पड़ता है…
ताज़ा स्थिति यह है कि चौतरफ़ा आलोचना और मीडिया द्वारा इस मुद्दे पर साथ न देने की वजह से हंसराज भारद्वाज को अपना आदेश वापस लेना पड़ा, हालांकि “महामहिम” ने इस सम्बन्ध में कोई आधिकारिक खेद व्यक्त नहीं किया…। इस घटना से साफ़ है कि जहाँ एक तरफ़ तो “चर्च” का दबाव उच्च संस्थाओं पर बढ़ता ही जा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह भी स्थापित होता है कि संघ-भाजपा के पक्ष में बोलने भर से, अथवा नरेन्द्र मोदी जैसों के साथ दिखाई देने भर से, आप “साम्प्रदायिक” घोषित हो जाते हैं…, “अछूत” करार दिये जा सकते हैं…। सोचिये जब इस बुढ़ापे में और इतने उच्च पद पर आसीन व्यक्ति मन में ऐसी “क्षुद्र खुन्नस” रखेगा, तो इस लोकतन्त्र का मालिक “ऊपरवाला” ही है…
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चलते-चलते : एक बार फ़िर से “चर्च” (बल्कि नक्सलवादियों-माओवादियों) के बेनकाब होने की खबर भी पढ़ लीजिये…(पहले यहाँ आप पढ़ चुके हैं… Church in favour of Binayak sen)
केरल काउंसिल ऑफ़ चर्च (KCC) जो कि विभिन्न कैथोलिक चर्चों का एक समूह संगठन है, उसने छत्तीसगढ़ में बिनायक सेन, नारायन सान्याल एवं पीयूष गुहा के प्रति अपना समर्थन जताया है (ज़ाहिर है भई, “अपने” लोगों के प्रति चर्च तो समर्थन दिखाएगा ही)। KCC के प्रवक्ता फ़िलिप एन थॉमस ने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मानवाधिकारों के हनन के विरोध और निर्दोष नागरिकों पर हो रहे ज़ुल्म के खिलाफ़ हमारा नैतिक समर्थन जारी रहेगा…। बिनायक सेन के प्रति अपना समर्थन जताने के लिये थिरुवल्ला स्थित एमएम थॉमस मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा 9 फ़रवरी को एक सभा आयोजित की गई, जिसमें “मानवाधिकारों” को लेकर (अर्थात हिन्दुओं के मानवाधिकार छोड़कर) सतत चिन्तित रहने वाले संगठनों ने अपनी चिंता ज़ाहिर की… (Kerala Council of Churches) । चर्च और नक्सलवादियों के गठजोड़ के बारे में लगातार खबरें आती रहती हैं, लेकिन वामपंथियों को यह समझ नहीं रहा (या शायद समझना नहीं चाहते) कि एक बड़ी साजिश के तहत उनका “उपयोग” किया जा रहा है…। रायपुर में विदेशियों की आवक अचानक बढ़ गई है, विभिन्न देशों के 35-40 नोबल पुरस्कार विजेताओं को “घेरकर-हाँककर” कर लाना फ़िर उनसे बिनायक सेन के समर्थन में रैली आयोजित करवाना तथा उड़ीसा में बड़ी सफ़ाई से स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या करवाना जैसे बड़े काम, किसी “ऐरे-गैरे” के बस की बात नहीं है भईया…
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पिछले लेख में भी कहा था, कि भई हम तो “चौकीदार” हैं (साहित्यकार या लेखक होने का मुगालता अपन पालते नहीं है), सीटी बजाना हमारा काम है… आप जागेंगे या नहीं, यह आप पर निर्भर है…
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